सोमवार, 23 अप्रैल 2018

दरिंदगी और मासूमों के साथ अत्याचार : कौन है जिम्मेदार...?

दरिंदगी और मासूमों के साथ अत्याचार : कौन है जिम्मेदार...?
देशभर में महामारी की तरह फैल रहा है पीडोफिलिया मनोरोग
केवल आरोपी को फांसी इस रोग का उपचार नहीं है- डॉ. मदन मोदी
‘पीडोफिलिया’ मनोरोग यानी बाल यौन शोषण व यातना से आनंदित होने का नशा
बच्चों से लाड़-प्यार व दुलार-पुचकार कर उनसे हंसी-खेल करके खुद क्षणिक रूप से बच्चों जैसा बन जाने से तो शायद आपका मन भी आनंदित और तरोताजा हो जाता होगा, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के मन में एक बचपना छिपा होता है, जिससे बच्चों को प्यार करने से इसकी तृप्ति होती है। यह आनंद मनुष्य का स्वस्थ मानसिक भोजन होता है। परन्तु आप को जानकर आश्चर्य होगा कि कुछ लोग इस मानसिक भोजन के अस्वस्थ रूप से ही तृप्त व आनंदित होते हैं। ऐसे लोग बच्चों को प्यार दुलार की बजाय उनका यौन शोषण व यातनाएं देकर संतुष्ट व आनंदित होते हैं। और धीरे-धीरे यह मनोविकृति एक मादक-लत के रूप में हावी होकर ‘पीडोफिलिया’ नामक मनोरोग का रूप ले लेती है।
‘पीडोफिलिया’ नामक मनोरोग से ग्रसित लोगों से मानव समाज को गंभीर खतरा होने की सम्भावना बनी रहती है, जिसका शिकार मुख्यत: मासूम बच्चे होते हैं। ‘पीडोफिलिया’ से ग्रसित व्यक्ति मासूम बच्चों को क्रूरतम मानसिक व शारीरिक यातनाएं देने में आनंद की प्राप्ति करता है तथा उसके लिए यह एक ऐसा नशा बन जाता है कि वह बच्चों को यातनाएं देने की क्रूरतम विधियां इजाद करता जाता है, जिसमें बच्चों के साथ सेक्स, काटना, जलाना, यहाँ तक कि उनके टुकड़े-टुकड़े कर उनका मांस तक खाना शामिल है। सूरत, कठुआ, उन्नाव, इंदौर आदि की घटनाओं के जिम्मेदार ऐसे ही रोगी हैं। कई बार 15 से 35 वर्ष की आयु के बीच के लोग जब अपनी उम्र की युवतियों, जिनसे उनके मन में हवस, काम-वासना की भूख जागी, उनसे अपनी भूख नहीं मिटा पाते तो वे अपनी दमित हवस को पूरा करने के लिए कमजोर कड़ी के रूप में मासूमों को अपना शिकार बनाते हैं।
इन दिनों देश के विभिन्न हिस्सों से रोज ऐसी घटनाएं प्रकाश में आ रही है। यह अत्यंत भयावह, मानव समाज के लिए खतरनाक और भविष्य के लिए अशुभ संकेत है। इसे और इसके कारणों को बहुत ही गंभीरता से लिया जाना चाहिए। इससे निपटने के लिए केवल आरोपी के लिए फांसी की सजा का प्रावधान कर देना काफी नहीं है।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि हमारे देश में बहुत से पीडोफिलिक विदेशी सैलानी आते हैं, जिससे कि बच्चों के तस्करों की अच्छी कमाई हो रही है। वैसे तो कुछ देशों में बच्चों को ऊंट की पीठ पर बांधकर ऊंटों को दौड़ाया जाता है, जिससे बच्चे की चित्कार् से वहां के लोग आनंद की प्राप्ति करते हैं, यह भी पीडोफिलिया का ही एक उदाहरण है।
मनोगतिकीय कारक :
ऐसे रोगियों की गर्भकाल में उनकी माँ को क्रूरतम मनोशारीरिक यातनाओं से गुजरे होने की प्रबल संभावना होती है। साथ ही ऐसे मरीजों को बाल्यावस्था में परिवार द्वारा भावनात्मक सहयोग व प्यार मिलने की बजाय लगातार शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ी हो सकती है। कुछ व्यक्तित्व विकार भी इसके लिए जिम्मेदार होते हैं। इसमें परपीड़क व्यक्तित्व विकार, अमानवीय व्यक्तित्व विकार तथा व्यग्र व इर्ष्यालू व्यक्तित्व विकार प्रमुख है। सूरत, कठुआ, उन्नाव, इंदौर आदि की घटनाएं इसी की प्रतीक है। अवसाद, उन्माद व स्किज़ोफ्रीनिया जैसे मनोरोग से पीड़ित लोग भी पीडोफिलिया के शिकार हो सकते हैं। इनके अलावा आज का आधुनिक परिवेश भी इस महारोग के तेजी से महामारी के रूप में फैलने के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है, जो लोगों में यौन कुंठाओं को, यौन विकारों को जन्म दे रहा है, यौन संपर्क की हवस पैदा कर रहा है। इस आधुनिक परिवेश में विभिन्न टीवी सीरियल्स, फिल्मों के अश्लील दृश्य, फूहड़ वेशभूषा जो कच्ची मानसिकता के लोगों में वासना पैदा करती है, इंटरनेट, पोर्न फिल्में, तामसिक खानपान और स्वच्छन्द माहौल आदि शामिल है, वहीं ऐसे मनोविकारों से ग्रस्त लोगों को राजनीतिक संरक्षण, धीमी न्यायिक व्यवस्था व भ्रष्ट पुलिस व्यवस्था भी इसके लिए जिम्मेदार है। युवाओं में बढ़ती बेरोजगारी, सामाजिक असुरक्षा और पुरुष-महिला जनसंख्या का बिगड़ता अनुपात भी आग में घी का काम कर रहा है।
उपचार :-
ऐसे मनोरोगी नशे की पूर्ति बच्चों से न कर पाने की दशा में अपनी तलब को दूर करने के लिए मादक द्रव्यों का भी सेवन करने लगते हैं और धीरे-धीरे नशाखोरी के चंगुल में आ जाते हैं और उनमें घोर अवसाद इस प्रकार घर कर जाता है कि उनमें आत्महत्या कर लेने का एक मादक खिंचाव पैदा हो जाता है। ऐसे मनोरोगी को सर्वप्रथम इस बात के लिए जागरूक किया जाता है कि वह ‘पीडोफिलिया’ नामक मनोरोग से ग्रसित है, जिसका इलाज पूर्णतया सम्भव है। उसे सामाजिक संकोच व कलंक के प्रति गोपनीयता के आधार पर आश्वस्त करके उसके परिवार में भावनात्मक सहयोग व प्यार को पुनर्स्थापित किया जाता है। फिर वर्चुअल एक्सपोजर थिरेपी तथा फैन्टसी डिसेन्सटाईजेसन के माध्यम से उसके परपीड़क व्यवहार को उदासीन किया जाता है, जिससे वह आत्मनिरीक्षण के माध्यम से अपनी अंतर्दृष्टि का विकास इस प्रकार कर पाता है कि उसके अर्धचेतन से उत्पन्न हो रहे विकारग्रस्त आसक्त विचारों व आवेशों को वह सक्रिय रूप से पहचानने लगता है तथा धीरे-धीरे उसका चेतन-मन उसके रुग्ण अर्धचेतन-मन पर काबू पाने लगता है और रोगी का स्वस्थ मानसिक-पुनर्निर्माण हो जाता है।
जहां तक कानून का सवाल है, केवल अपराधी जो एक खतरनाक मनोरोगी है, उसके लिए फांसी की सजा का प्रावधान कर देने मात्र से समस्या का समाधान होने वाला नहीं है। इसके लिए जिस प्रकार आज दृश्य माध्यमों से सेक्स को परोसा जा रहा है, उस पर भी अंकुश जरूरी है, वहीं ऐसे लोगों को राजनीतिक संरक्षण देने वालों, जांच अधिकारियों, नाकारा पुलिसकर्मियों के लिए भी कठोर सजा के प्रावधान होने जरूरी हैं। इसी प्रकार स्कूलों में मनोविज्ञानियों की नियुक्ति भी आवश्यक है और शिक्षा प्रणाली में बदलाव की भी जरूरत है।