मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017

संसार के सुख ही दुःख का कारण

इस संसार में सुख नाम का एक ऐसा कसाई है, जो अपनी शरण में आए हुए व्यक्ति से अनेक पाप करवाकर उसे नरकादि में धकेल देता है। संसारी सुख एक ऐसा शत्रु है, जो व्यक्ति का स्वागत करके उसको दुःख के गर्त में पटक देता है। वैसे ऊपरी तौर पर देखने से पुण्य अच्छा प्रतीत होता है, परन्तु भौतिक (दुनियावी) सुख के लिए बांधा गया पुण्य भी बहुत खराब है। संसार में जो सुख हैं, वही आपको संसार में भटकाते रहते हैं। संसार के सुख ही आपके दुःख का कारण हैं। धर्म करने वालों के लिए यह आधारभूत ज्ञान है। आपका पुण्य आज आपको पाप में ही प्रायः सहायक बन रहा है। इसीलिए तो आज आप घर में या बंगलों में आराम से बैठे हैं। यदि ऐसा न होता तो आज के अधिकांश लोगों का स्थान जेल में होता। आपके कर्म से सत्ता भी ऐसी है कि जो अयोग्य की ही सहायता करती है; अच्छे और प्रामाणिक लोग तो आज पिसा रहे हैं।

आपको देव, गुरु, धर्म का योग मिलने पर भी आज आपकी दशा ऐसी है कि आप अधिकांश में योगवंचक, क्रियावंचक और फलवंचक बने हुए हैं। आप देव, गुरु, धर्म के आसपास चक्कर लगाते हैं, परन्तु यह संसार बढाने के लिए या संसार की ममता उतारने के लिए? योग न मिलना जिस प्रकार योगवंचकता है, वैसे ही योग मिलने पर भी उसका उपयोग न करना, यह भी योगवंचकता है। इतना ही नहीं, यह अपने आपको धोखा देना है। अपनी आत्मा के साथ छलावा है।-सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

धर्म, भावों की निर्मलता पर आधारित है

भावनाओं का आज टोटा हो गया है। दान, शील और तप में भी आज आडम्बर, दिखावा, प्रदर्शन और स्वार्थ घुस गया है। भौतिक आकाँक्षाएं इसमें घुस गई हैं। विशुद्ध रूप से कर्म-क्षय और मोक्ष प्राप्ति की एक मात्र भावना आज तिरोहित हो गई है, क्योंकि धर्म का सही स्वरूप लोग नहीं जानते। धर्म बहुत मंहगी वस्तु है। मांगने आने पर इसकी कीमत समझाकर देने जैसी यह चीज है। परन्तु आजकल तो प्रायः धर्म का नीलाम हो रहा है। नीलामी में रुपयों का माल पैसे में बिकता है। ऐसी अधोदशा आज धर्म की हो रही है, इसका हमें अपार दुःख है। आज देश का उद्धार नहीं, अधःपतन हो रहा है। शक्ति (हैसियत) बढने के साथ आपके घरों में मौज-शौक के साधन तो बढते ही जाते हैं, परन्तु धर्म के साधन बढते हुए कहीं नजर नहीं आते हैं। बढेंगे कहां से जब तक कि मोक्ष पाने की प्रबल भावना और प्रयास नहीं हों? मोक्ष की इच्छा/भावना जहां तक न हो, वहां तक सब धर्म भी औपचारिक, अधर्मरूप ही बनते हैं। अन्तर इतना ही है कि अधर्म सीधा दुःख देता है, जबकि प्रबल भाव रहित धर्म थोडा पुण्य बंध कराकर उस पुण्य के उदयकाल में महापाप का बंध कराकर, बाद में भारी दुःख देता है। धर्म-अधर्म सब प्रायः भावों की निर्मलता के आधार पर होते हैं और भावों की तरतमता, प्रगाढता के आधार पर ही परिणामों की तरतमता, प्रगाढता होती है।-सूरिरामचन्द्र

रविवार, 26 फ़रवरी 2017

विषयाभिलाषा की बढती तीव्रता

ज्ञानी पुरुषों ने ब्रह्मचर्य की नौ बाडों का वर्णन किया है। माता और बहन के साथ भी युवा पुत्र या भाई को एकान्त में नहीं रहना चाहिए। यह जरूरी नहीं कि प्रत्येक का इस प्रकार पतन हो, परन्तु ये भी पतन की ओर ले जाने वाले संयोग उत्पन्न कर सकते हैं। आज तो इस विषय में अनेक अमर्यादाएं बढ रही है, इसका कारण है विषयाभिलाषा की तीव्रता। जवान लडके और लडकियां आज जिस छूट-छाट को भोगने के लिए ललचा रहे हैं, उनके कितने गंभीर परिणाम आते हैं? इसका विचार सबको करना चाहिए। सिनेमा आदि विषय-विकारों को बढाने वाले संसाधन आज बढते ही जा रहे हैं। आज की शिक्षा भी इस आग में घी का काम कर रही है। विषय-वासना के कारणों ने आज विवाह संबंधी प्रश्नों को भी विकट बना दिया है। पहले तो मां-बाप समान कुल, शील आदि देखकर विवाह करते थे और विवाहित बच्चे भी संतोष से जीवन व्यतीत करते थे। आज विषय-वासनाएं बढ गई है और इसलिए पति-पत्नी में मनमेल भी नहीं रहता। प्रेम-विवाह के नाम पर भी अनेक अनाचार चल रहे हैं और इन सभी स्थितियों में तलाक की आँधी चल रही है। पतन की ये परिस्थितियां घर-परिवार-समाज सबको तोड रही है। क्या आर्य देश में ऐसा होना चाहिए? ब्रह्मचर्य तो ऐसा गुण है कि उसके बिना अन्य कोई गुण शोभित ही नहीं हो सकता और न ही स्थिरता को प्राप्त कर सकता है।-सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

मन को विषय-वासना का घर न बनाएं

विषय सुख की वासना अच्छे-अच्छे आदमियों को भी हैवान एवं पाप से डरने वालों को भी पापासक्त बना सकती है। साधु पुरुषों के लिए तो काम-भावना के उद्देश्य से इन्द्रियों का यत्किंचित विचार भी धिक्कार और दोष रूप होता है। उन्हें तो मन, वचन, काया से सर्व प्रकार के सम्भोगों का त्याग ही करना होता है। गृहस्थों में जो सर्वथा ब्रह्मचर्य पालन करने में अशक्त होते हैं, ऐसे गृहस्थों को पर-स्त्री मात्र का त्याग करना चाहिए तथा अपनी विवाहिता स्त्री में ही संतोष वाले बनना चाहिए।

परस्त्री से विमुखता और स्वस्त्री से संतोष यह दो बातें गृहस्थ के रूप में उत्तम ब्रह्मचारी बनाने वाली मानी गई है। सच तो यह है कि गृहस्थ को भी विषय सेवन के प्रति ग्लानि होनी चाहिए। गृहस्थ को अपनी दृष्टि ऐसी निर्मल बनानी चाहिए कि कोई भी स्त्री नजर में आए तो उसके मन में विकार उत्पन्न न हो। अपनी पत्नी में भी काम का रंग चढाने की वृत्ति नहीं होनी चाहिए। वेदोदय रूप रोग के कारण यदि सहवास के बिना असमर्थ हो जाए तो बने जिस प्रकार रोगी दवा लेता है, उस प्रकार गृहस्थ भोग को भोगे, परन्तु मन को विषय-वासना का घर न बनने दे।-सूरिरामचन्द्र

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2017

चारों ओर चोर ही चोर

धन का लोभी व्यक्ति, लूट-खसोट करता है। एक दूसरे को लूटता है। परिग्रह में आसक्त होता है। फिर वह परिग्रही चित्त वाला व्यक्ति, आसक्ति वाला व्यक्ति छः काय-जीवों की विराधना करता है। हिंसादि में दौडता है। वह, यह सब कुछ किसलिए करता है? वह व्यक्ति ये सब कुछ पाप करता हुआ सोचता है कि इससे मेरा मनोबल बढ जाएगा, आत्मबल बढ जाएगा और मेरे पास का संग्रह-परिग्रह अधिक हो जाएगा तो फिर मेरा मित्र-बल भी बढ जाएगा, मेरा देव-बल बढ जाएगा, मेरा राजबल बढ जाएगा और गिनाते-गिनाते वह पाप कार्य में आसक्त व्यक्ति कहता है, सोचता है कि मेरा चोर-बल भी बढ जाएगा।

जो जितना ज्यादा परिग्रही, वह उतना ही बडा चोर। अब वह व्यक्ति धन्धे भी तो कैसे करता है? चोरी के धन्धे, तस्करी के धन्धे करता है। कालाबाजारी, ब्लेकमेल के धन्धे, (रिश्वतखोरी, भ्रष्ट कर्म) तो वह करता ही है और यह धन्धा सरकार से छुप-छुप कर किया जाता है, तो यह भी तो अपने आप में एक प्रकार की चोरी ही है। इस दुनिया में चारों ओर चोर ही चोर हैं। वह परिग्रही व्यक्ति अपने परिग्रह के बूते पर समाज में अपना मान-सम्मान बढा लेता है। शिथिलाचारी साधुवेशधारी भी इसमें उसकी मदद करते हैं, वे व्याख्यान में उसकी प्रशंसा करके स्वयं भी मिथ्यात्व के भागी बनते हैं और समाज को भी मिथ्यात्व में धकेलते हैं. इससे समाज में भ्रष्टों की प्रतिष्ठा बढ जाती है। फिर उसे लोग अपने यहां आमंत्रित करते हैं और उसके यहां भी आने-जाने वाले व्यक्तियों की संख्या बढ जाती है। वह मिथ्यात्व में जीता है और नरक का मेहमान बनता है। ऐसे व्यक्ति प्रशंसा-पात्र नहीं होते, यह सम्यक्त्व में दोष है।-सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2017

सावधान ! मर्यादाएं टूट रही हैं !

जब मर्यादा टूटती है तो विनाश आता है। नदी-नाले भी जब तक मर्यादा में बहते हैं, तब तक तो अच्छे लगते हैं। किनारों के बीच बहते रहते हैं, तब तक तो खेतों को पानी देते हैं, उन्हें हरियाली से भर देते हैं। खेतों-खलिहानों को लहलहाता बनाकर मनुष्यों को भी खुशहाली से, प्रसन्नता से भर देते हैं, लेकिन वे ही नदी-नाले जब मर्यादाएं छोड देते हैं, मर्यादा से बाहर बहने लगते हैं तो क्या होता है? बाढ आ जाती है, विनाश-लीला सामने खडी हो जाती है। हजारों घर पानी में डूब जाते हैं। चारों ओर तबाही का आलम ही नजर आता है।

माता-पिता की पुत्र के प्रति क्या मर्यादा होती है? पुत्र की माता-पिता के प्रति क्या मर्यादा होती है? एक गुरु का शिष्य के प्रति क्या कर्त्तव्य होता है? शिष्य का गुरु के प्रति क्या कर्त्तव्य होता है? इन सारी बातों का पालन आज कौन कर रहा है? और कहां कर रहा है? खान-पान, रहन-सहन आदि हर चीज में मर्यादा की जरूरत होती है। लेकिन, आज सभी ओर मर्यादाएं टूट रही हैं। अमर्यादित जीवनशैली ने समाज में कई तरह के संकट पैदा कर दिए हैं। वीतरागता का नाम लेकर आज हम अनेकों मर्यादाओं को लांघते जा रहे हैं। अपनी संस्कृति को छोडते चले जा रहे हैं। जीवन से एक मर्यादा भी अगर जाती है, अथवा भंग होती है तो उसके साथ-साथ सारी मर्यादाएं धराशायी हो जाती हैं और जब जीवन मर्यादा विहीन हो जाता है, तो महाविनाश होता है।-सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 22 फ़रवरी 2017

आधुनिक शिक्षा में संस्कार नहीं, जहर है

आज समाज में संस्कारों की कितनी कमी होती जा रही है? आजकल के माता-पिता को फुर्सत नहीं है कि वे आधा घंटा भी अपने बच्चों के पास बैठकर उन्हें धर्म की शिक्षा दें, समझाएं, अच्छे संस्कार दें। वह माता शत्रु के समान है, जिसने अपने बालक को संस्कारित नहीं किया। वह पिता वेरी के समान है, जिसने अपने बच्चे को संस्कार नहीं दिए। आजकल के माता-पिता तो अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा के नाम पर कान्वेन्ट में डाल देते हैं। आप सोचते हैं कि कान्वेन्ट में पढने जाएगा तो हमारा बच्चा इन्टेलीजेन्ट (चतुर) बनेगा। पढ-लिखकर होशियार बन जाएगा और बडा आदमी बन जाएगा। लेकिन, वहां जो शिक्षा परोसी जाती है, उसमें आत्मा कहां है? वहां तो जहर ही जहर है। संसार में बिगडने, भटकने के साधन बढते जा रहे हैं और धार्मिक संस्कारों के साधन घटते जा रहे हैं। ये सब आपने विचार नहीं किया। आप उसे कितना ही सम्हाल कर रखिए, लेकिन जब बचपन से ही बच्चा ऐसे माहौल में पलता है, पढता है, जो सीखता है, उसमें वे संस्कार आएंगे ही।-सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2017

जीवन एक दिव्य गीत है

जीवन को धन्य बनाने की बात तभी बन सकती है, जबकि जीवन को सही रूप से समझ लिया जाए। अभी हममें से बहुत कम व्यक्ति ऐसे होंगे, जिन्होंने जीवन को सर्वांगीण रूप से सर्वतोभावेन समझ लिया हो। आप आज आत्मा की मूल सत्ता को भुलाए बैठे हैं। आप शान्ति को, आनन्द को पाना चाहते हैं, लेकिन उसे बाहर ही बाहर खोज रहे हैं। पर पदार्थों में, पर-घरों में शान्ति खोज रहे हैं। यह जीवन नहीं है। जीवन एक पवित्र यज्ञ है। लेकिन, उन्हीं के लिए जो सत्य के लिए अपनी आहुति देने को तैयार होते हैं। जीवन एक अमूल्य अवसर है। लेकिन, उन्हीं के लिए जो साहस, संकल्प और श्रम करते हैं। जीवन एक वरदान देती चुनौती है। लेकिन, उन्हीं के लिए जो उसे स्वीकारते हैं और उसका सामना करते हैं। जीवन एक महान संघर्ष है। लेकिन, उन्हीं के लिए जो स्वयं की शक्ति को इकट्ठा कर विजय के लिए जूझते हैं। जीवन एक भव्य जागरण है। लेकिन, उन्हीं के लिए जो स्वयं की निंद्रा और मूर्च्छा से लडते हैं। जीवन एक दिव्य गीत है। लेकिन, उन्हीं के लिए जिन्होंने स्वयं को परमात्मा का वाद्य बना लिया है। अन्यथा, जीवन एक लम्बी व धीमी मृत्यु के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जीवन वही हो जाता है, जो हम जीवन के साथ करते हैं। अतिदुर्लभ यह मानव जीवन, जिसके लिए देवता भी तरसते हैं, वह सिर्फ खाने-पीने और सोजाने के लिए नहीं है, अपितु प्रमाद को छोडकर, अपने कर्मों का क्षय कर आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए, अक्षय आनंद और अक्षय सुख प्राप्त करने के लिए है। संसार में फिर जन्म न लेना पडे, भटकना न पडे, इसके लिए पुरुषार्थ करने के लिए यह जीवन है।-सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 20 फ़रवरी 2017

जीवन को सही रूप में समझें

भौतिक सुख एक उत्तेजना है, और दुःख भी। प्रीतिकर उत्तेजना को सुख और अप्रीतिकर को हम दुःख कहते हैं। आनन्द दोनों से भिन्न है। वह उत्तेजना की नहीं, शान्ति की अवस्था है। भौतिक सुख जो चाहता है, वह निरंतर दुःख में पडता है। क्योंकि, एक उत्तेजना के बाद दूसरी विरोधी उत्तेजना वैसे ही अपरिहार्य है, जैसे कि पहाडों के साथ घाटियां होती हैं और दिनों के साथ रात्रियां। किन्तु, जो सुख और दुःख दोनों को छोड कर सर्वविरति के लिए तत्पर हो जाता है, वह उस आनन्द को उपलब्ध होता है, जो कि शाश्वत है।

आत्मा से उत्पन्न होने वाले वास्तविक आनन्द की बजाय, जो वस्तुओं और विषयों से निकलने वाले सुख को ही आनन्द समझ लेते हैं, वे जीवन की अमूल्य सम्पदा को अपने ही हाथों नष्ट कर देते हैं। ध्यान रहे कि जो कुछ भी बाहर से मिलता है, वह छीन भी लिया जाएगा। उसे अपना समझना भूल है। स्वयं का तो वही है, जो कि स्वयं में ही उत्पन्न होता है। वही वास्तविक सम्पदा है। उसे न खोजकर, जो कुछ और खोजते हैं, वे चाहे कुछ भी पा लें, अंततः वे पाएंगे कि उन्होंने कुछ भी नहीं पाया है और उल्टे उसे पाने की दौड में वे स्वयं जीवन को ही गंवा बैठे हैं।-सूरिरामचन्द्र

रविवार, 19 फ़रवरी 2017

तृष्णा जीर्ण नहीं होती

देवत्व के भोगों की तुलना में मानवीय भोग अति तुच्छ हैं। देवताओं के भोगों से परिचित नहीं होने के कारण मनुष्य इन तुच्छ भोगों में लीन हो जाते हैं। ऐसे भोगों को वर्षों तक भोगने पर भी तृप्ति नहीं होती। इससे यह सूचित होता है कि भोग-सुख भोगने से भोगवृत्ति तृप्त होती ही नहीं है। भोगों की तृष्णा हटाए बिना सुख और आनंद प्राप्त नहीं होगा। यदि आनंद चाहिए, तृप्ति चाहिए तो तृष्णा को त्यागना होगा। तृष्णा युक्त मन रखने वाला मनुष्य इस लोक के भोगों को भोग कर तृप्ति प्राप्त करे, आनंद प्राप्त करे, यह संभव नहीं है। इंसान भोग से कभी तृप्त नहीं हो सकता, उसकी भोगवृत्ति बढती ही जाती है और एक दिन भोग ही उसका भोग कर लेते हैं। तृष्णा कभी जीर्ण नहीं होती, इंसान का जीवन और शरीर जीर्णशीर्ण हो जाता है। जीवन की वास्तविकताओं को समझकर सम्यक्त्व धारण करने वाला और संयम धारण करने वाला ही भोग और तृष्णा पर अंकुश लगा सकता है तथा वास्तविक अक्षय सुख का आनंद प्राप्त कर सकता है। वर्तमान मौजशौख के साधन व भौतिकता की चकाचौंध में ही जो स्वर्ग व मोक्ष की कल्पना करता हो, उसे तो धर्मशास्त्र भी सिर्फ बोझारूप लगेंगे।-सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

भविष्य का विचार करें

आज तो अधिकांश रूप से मात्र वर्तमान काल की और वह भी विवेकशून्य चिन्ता ने ही मनुष्य के मन पर स्वामित्व स्थापित कर लिया है। प्रत्येक दार्शनिक ने स्वीकार किया है कि यदि भविष्य में सुखी होना हो तो वर्तमान के कष्टों की चिन्ता मत करो।सिर्फ वर्तमान की दृष्टि का अनुसरण करने से सारे जीवन के सार का विवेक प्रकट नहीं हो सकता। अच्छे-बुरे का भेद कर सके, ऐसी योग्यता भी प्राप्त हो जाए, तो भी वह एकमात्र वर्तमान की दृष्टि के अनुसरण से स्वयं ही नष्ट हो जाती है। वर्तमान में कुछ भी स्थिति हो, परन्तु भविष्य में क्या? इसका पहले विचार करना चाहिए। क्या भविष्य के लाभ के लिए व्यापारी अनेक कष्टों को नहीं उठाता? उसका मन-वचन एवं काय अहर्निश किस चिंतन में रहता है? मनुष्य को जिस भविष्य का विचार करना है, उसे छोडकर यदि कोरे वर्तमान में ही चिपका रहे, तो वह अपने कर्तव्य से च्युत हुए बिना नहीं रहेगा। इससे अनेक अनिष्ट स्वयं उत्पन्न हो जाएंगे। अनंत शक्ति का स्वामी आत्मा, जिस प्रकार की चिंता, विकल्प एवं अपार आधि-व्याधि-उपाधि के दुःख का अनुभव कर रहा है, उन्हें नष्ट करने हेतु दीर्घ दृष्टा बनना पडेगा। भविष्य हेतु विचारक बनना पडेगा।-सूरिरामचन्द्र

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2017

मृत्यु का खयाल हमेशा रहे

ज्ञान-बुद्धि एवं सामग्री का जैसा सदुपयोग इस मनुष्य जीवन में होना चाहिए, वैसा यदि न हो तो, वैसा करने के लिए अन्य कोई भी स्थान नहीं है। जब तक आत्मा और आत्मा के धर्मों का स्वरूप समझ में न आए, तब तक कोई भी अपना कर्तव्य यथास्थित स्वरूप में नहीं कर पाएगा। जिस दिन हर व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी समझ जाएगा, उस दिन विग्रहों का स्वयं शमन हो जाएगा। हम अपना कर्तव्य नहीं समझ पाते उसका मुख्य कारण है कि हम आत्म-तत्वको ही भूल गए हैं।
मुझे यह शरीर छोडकर अन्यत्र जाना है’, यह विचार जो प्रत्येक व्यक्ति के मन में सदैव जीवित-जागृत रहना चाहिए, वह बिसर गया है। यहां से जाने के बाद मेरा क्या होगा?’ यह चिन्ता आज लगभग नष्ट हो गई है। "मैं मरने वाला हूं", यह खयाल हर पल रहे तो जीवन में बहुत-सी समझदारी आ जाए। भावी जीवन को मोक्ष मार्ग का आधार बनाने के प्रयत्न शुरू हो जाएं। सिर्फ वर्तमान की क्रियाएं, पेट भरना, बाल-बच्चे पैदा करना और मौजमजा करना, ये क्रियाएं तो कौन नहीं करता है? पशु-पक्षी और तुच्छ प्राणी भी अपने रहने के लिए घर बना देते हैं, वर्तमान की इच्छापूर्ति करते हैं और आपत्ति में भागदौड भी करते हैं। मात्र वर्तमान का विचार तो क्षुद्र जंतुओं में भी होता है। भावी जीवन का विचार छोडकर जो सिर्फ वर्तमान के ही विचारों में डूबा रहता है, वह अपने कर्त्तव्य पालन से च्युत हुए बिना नहीं रहता है।-सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

आत्म-स्वरूप का चिंतन करें

आत्मा का धर्म क्या है?’, यह यथार्थरूप में जिस दिन समझ में आ जाएगा, उस दिन जो आनंद, सुख और शान्ति का अनुभव होगा, वह अलौकिक होगा। यदि सभी को अपनी यथार्थ स्थिति का ध्यान हो जाए, तो वर्तमान अशान्ति सहज ही में नष्ट हो जाए। आत्मा का धर्म क्या हो सकता है, उसे विकसित करने के लिए क्या करना चाहिए? इस प्रकार का ज्ञान प्राप्त करके, उस पर अमल करने का भाव जब तक नहीं जागेगा, तब तक आत्मा का साक्षात्कार नहीं होगा। ऐसा भाव (अर्थपना) प्राप्त होना, यह एकाएक संभव नहीं। परन्तु, सद्गुरु के सान्निध्य में आकर, ग्राह्य पदार्थों से चित्त को हटाकर, 24 घंटों में एकआध घडी भी शान्तचित्त से आत्मस्वरूप का प्रतिदिन चिंतन किया जाए, तो धीरे-धीरे उसकी अनुभूति या झलक प्राप्त हुए बिना नहीं रहेगी।

प्रत्येक व्यक्ति को इतना तो कबूल करना ही पडेगा कि यह शरीर वह आत्मा नहीं है। आत्मा शरीर से भिन्न कोई अदृश्य वस्तु है और इसलिए आयुष्य के अंत में वह शरीर को यहीं छोडकर चली जाती है। आत्मा, इहलोक व परलोक आदि समस्त पदार्थ बुद्धि और तर्क संगत हैं। एक ही समय में उत्पन्न आत्माओं में परस्पर भिन्नता दृष्टिगत क्यों होती है? एक का जन्म उत्तम कुल में होता है तो दूसरे का अधम कुल में। एक ही मां-बाप से जन्में पुत्रों में एक अधिक बुद्धिशाली होता है, दूसरा मंदबुद्धि होता है। एक में शक्तियां विकसित होती है तो दूसरे में उन शक्तियों के विकास हेतु वर्षों लग जाते हैं। इन सबका कारण क्या? अवश्य इनमें कोई न कोई पूर्व जन्म का योग, संस्कार एवं सामग्री कारणभूत है। इसी कारण शरीर और आत्मा में भिन्नता है। इससे यह सिद्ध होता है कि शरीर के धर्म, आत्मा के धर्म नहीं हैं।-सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 15 फ़रवरी 2017

धर्म की यह कैसी अधोदशा?

आज धर्म का माल लेने वाले थोडे हैं और माल देने वाले बहुत हो गए हैं। इसलिए धर्म का माल नीलाम हो रहा है, ऐसा अनुभव होता है। माल अधिक हो और खपत कम हो, इस तरह हर किसी को धर्म चिपकाने के प्रयत्न हो रहे हैं। ज्ञानी तो कहते हैं कि धर्म पात्र व्यक्तिको ही देना चाहिए, हर किसी को नहीं। धर्म बहुत मंहगी वस्तु है। मांगने आने पर इसकी कीमत समझाकर देने जैसी यह चीज है। परन्तु आजकल तो प्रायः धर्म का नीलाम हो रहा है। नीलाम में रुपये का माल पैसों में बिकता है। ऐसी अधो दशा आज धर्म की हो रही है।

संसार के प्रति अरुचि न हो तो, धर्म किस काम का? अधिक प्राप्त करने के लिए धर्म किया जाता हो तो वह धर्म, धर्म रहता ही नहीं, धंधा हो जाता है, बिना पैसे के धंधे जैसा। कई लोग अपने व्यापार को बढाने के लिए मन्दिर दर्शन करने जाते हैं, उन्हें होंश ही नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं? भगवान को व्यापार में भागीदार बना रहे हैं? मुझे इतना लाभ होगा तो आपको इतना प्रतिशत भेंट करूंगा। उन्हें ऐसा करते हुए शर्म भी नहीं आती? जो अपार रिद्धि-सिद्धि को ठोकर मारकर निकल गए, जो भगवान वितरागी हैं, राग-द्वेष, मोह-माया रहित हो गए हैं, जिनका कोई परिग्रह नहीं है, उनसे सौदा कर रहे हैं? उन्हें व्यवसाय में भागीदार बना रहे हैं और उनकी सेवा में लगे देवों को कमीशन एजेंट, दलाल बना रहे हैं? यह कैसा पागलपन है? -सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2017

कृतघ्न आत्माएं स्व-पर की घातक

जिनके हृदय में कृतज्ञता गुण होता है, वे उपकार मानने में भूल नहीं करते हैं। कृतज्ञता गुण के सामान्य रूप से अनेक फायदे होते हैं। इससे सामने वाले में उपकार करने की भावना और दृढ होती है, उसे प्रोत्साहन मिलता है और वह अन्य आत्माओं का भी भला करने के लिए तत्पर बनता है। इस पद्धति से कृतज्ञ आत्माएं स्व-पर-उभय का उपकार साध सकती हैं। दूसरी तरफ कृतघ्न आत्माएं स्व-पर की उपकार वृत्ति की घातक बनती हैं। उपकारी के प्रति यदि हमने कृतघ्नतापूर्ण व्यवहार किया, उपकार का बदला अपकार से दिया और वह सामान्य कोटि की आत्मा हुई तो क्या सोचेगी- इस दुनिया में किसी का भला करने का जमाना नहीं है। वह भविष्य में किसी की मदद करने में कतराएगा। उपकार करने वाले के हृदय में ऐसी दुर्भावना पैदा करने में हमारी कृतघ्नता निमित्तरूप बने तो यह हमारे लिए ही बहुत पापकारी है। कृतघ्नतावृत्ति से दूसरों का तो नुकसान है ही, इससे हमारे लिए भी नुकसान की संभावनाएं बढ जाती है।-सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 13 फ़रवरी 2017

कृतघ्न नहीं, कृतज्ञ बनें

अच्छा हो तो किसी का गुण नहीं मानना और बुरा हो तो किसी को दोष देना, यह अज्ञानता की निशानी है। सज्जन सबके गुणों को याद करते हैं और बुरा हो तो स्वयं की निन्दा करते हैं, जबकि दुर्जन समस्त आदमियों में कोई गुण नहीं देखता, स्वयं की योग्यता ही सिद्ध करता है और काम खराब होने पर दूसरों को दोष दिए बगैर नहीं रहता। सामने वाले व्यक्ति ने आपके लिए अच्छा चिंतन किया, आपका भला हो, इस आशय से उसने प्रयत्न किया और अपने पुण्योदय के योग से उनका वह प्रयत्न सफल भी रहा; किन्तु ऐसा जानते हुए भी हम उसका उपकार न मानें तो स्वयं कृतघ्न ही कहलाएंगे न? कृतज्ञता, यह भी एक अनुपम गुण है। कृतज्ञता गुण सामने वाले की और स्वयं की परहित की भावना को विकसित करता है। कृतघ्न आत्माएं परहित-चिन्तारूप मैत्री की मालिक कभी नहीं बन सकती। स्वयं के ऊपर उपकार करने वाले का उपकार वे गिनते ही नहीं हैं। ऐसे लोग दूसरे पर उपकार करने की वृत्ति वाले बनें, यह असंभव है। सच्ची बात तो यह है कि कल्याणार्थी आत्माएं संसार के सभी प्राणियों का भला चाहती हैं, किसी का भी बुरा नहीं चाहतीं। आत्मा को ऐसा बनाना चाहिए कि वह सबके कल्याण में अपनी प्रवृत्ति दिखाए, लेकिन किसी के अनिष्ट कार्य में भाग न ले, बुरा न चाहे। अनजान में किसी का बुरा हो जाए तो उसका हमें दुःख होना चाहिए। बुरा करने वाले का भी भला हो, यह भावना सदा रहनी चाहिए। मेरे प्रति दुश्मनी रखने वालों का भी कल्याण हो, ऐसा व्यवहार होना चाहिए। जब दुश्मन के भी कल्याण की भावना हो तो अपना अच्छा करने वाले के प्रति उपकार मानने की भावना होनी चाहिए कि नहीं? -सूरिरामचन्द्र

रविवार, 12 फ़रवरी 2017

अपनी कमी सुनने-सुधारने वाले का ही कल्याण संभव

स्वयं की कमी को नहीं सुनने वाला व्यक्ति हितशिक्षा देने वाले को उपकारी मानने के बजाय उस पर क्रोध करता है, उसका भला कभी नहीं होता, यह निश्चित बात है। जिसमें स्वयं की कमी सुनने की क्षमता ही न हो, उसका कल्याण किस प्रकार हो सकता है? आप यहां व्याख्यान सुनने के लिए आते हैं या वखाण? यहां जीवाजीवादि के स्वरूप की व्याख्या चलती हो तो आपको रुचिकर लगता है या आपका वखाण-प्रशंसा आपको रुचिकर लगती है? यहां आने का हेतु क्या है? कमी सुनने का या प्रशंसा सुनने का? आप आप में रही हुई कमियों को दूर करने के लिए यहां आते हैं और हम आपका वखाण करें, यह कैसे हो सकता है? हमें आपकी कमी बतानी चाहिए या नहीं? अमुक-अमुक कमियां अमुक-अमुक रीति से दूर की जा सकती है, ऐसा हमें कहना चाहिए या नहीं? कल्याण चाहते हो तो कमी सुनने और उसे दूर करने के लिए सदा तैयार रहो।-सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 11 फ़रवरी 2017

स्वयं के कर्मों को देखें

मिथ्यात्व के उदय से आत्मा दोष को दोष के रूप में नहीं देख सकती। ऐसे भी व्यक्ति होते हैं कि स्वयं का एक सामान्य काम भी बिगड जाए तो उसमें सैकडों प्रकार की गालियां दे दें। अमुक ने बिगाड किया, अमुक बीच में आया, अमुक ने मदद न की। इस प्रकार अनेकों को दोष देता है। स्वयं का दोष नहीं देखता है। ऐसे व्यक्ति को धर्म का निंदक बनते हुए भी देर नहीं लगती है। कहेंगे कि धर्म बहुत किया, पर अन्त में दशा तो यही हुई न?’ किन्तु, यह विचार नहीं करता है कि यह फल धर्म का है या पूर्व कृत पापों के उदय का?’ ऐसे व्यक्तियों को धर्म रुचिकर नहीं लगता। धर्म करणी विधि-विधान के अनुसार करने की मनोवृत्ति ऐसों की नहीं होती, यह भाग्य से ही होता है। धर्म-कर्म करते समय ऐसे व्यक्तियों के हृदय में पापमय वासना हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। फिर भी यह कहेंगे कि धर्म बहुत किया, किन्तु फलदायी नहीं हुआ। धर्म करणी भी धर्म का अपमान हो इस प्रकार से करते हैं और फल अच्छा चाहते हैं, तो वह मिलेगा कहां से? इस प्रकार के विचार तो उन्हीं को सूझते हैं, जिनमें स्वयं की कमी देखने की, सुनने की योग्यता नहीं होती।-सूरिरामचन्द्र

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2017

उन्मार्ग के रसिकों से सावधान

कुएं के मुख पर वस्त्र नहीं बांधा जा सकता और लोगों के मुँह पर ताला नहीं लगाया जा सकता है। यह कहावत लोक के स्वभाव का परिचय देने वाली है। लोकनिन्दा से सर्वथा बचना, यह कठिन है, उसमें भी उन्मार्ग के उन्मूलन पूर्वक सन्मार्ग की स्थापना करने के लिए प्रयत्नशील बने हुए महापुरुषों की कठिनाइयों का तो कोई पार ही नहीं है। उन्मार्ग के रसिक वैसे महापुरुषों के लिए पूर्ण रूप से कल्पित बातें फैलाकर उन्हें कलंकित करने के जी-तोड प्रयत्न करने से चूकते नहीं हैं। इस प्रकार वे तीन सिद्धियां प्राप्त कर सकते हैं। एक तो यह कि उन्मार्ग के उच्छेदक और सन्मार्ग के संस्थापक महापुरुषों को अधम कोटि का बताकर, अज्ञानी लोगों को उनके पवित्र संसर्ग से दूर भगा सकते हैं। दूसरी, उन्मार्ग के उन्मूलन का और सन्मार्ग के संस्थापन का पवित्र कार्य करने वालों में भी जो लोकनिन्दा के सामने टिकने की हिम्मत नहीं रखते, उनको फरजीयात मौन स्वीकार करना पडता है और तीसरी सिद्धि यह कि लोकवायका के अर्थी, उन्मार्गनाश और सद्धर्म प्रचार का कार्य छोडकर वे रुकते नहीं हैं, अपितु स्वयं भी उन्मार्गगामी बन जाते हैं। ऐसों के पाप से अनेक आत्माएं सद्धर्म से वंचित रह जाती हैं। ऐसे व्यक्ति शासन के भयंकर दुश्मन होते हैं और वे समाज को अस्त-व्यस्त कर देते हैं। वे लोग स्वयं का पाप छिपाने के लिए वफादार शासन सेवकों की भी निन्दा करते हैं। सत्त्वशील महापुरुष तो ऐसी आफतों की उपेक्षा करके स्वयं का पवित्र कार्य करते ही जाते हैं, लेकिन कल्याण के अर्थियों को भी इसे समझकर सावचेती रखनी चाहिए।-सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 9 फ़रवरी 2017

अकारण शत्रुता

आत्मभाव के बिना पौद्गलिक सुखों की लालसा में पडी आत्माएं एकान्ततः कल्याण करने वाली बातों का उपदेश देने वाले महात्मा पुरुषों का भी अवसर पाकर तिरस्कार करने से चूकती नहीं है। कारण कि उनको सच्चे महात्माओं का महात्मापन खटकता रहता है। दुर्जन लोग सज्जन पुरुषों के अकारण ही शत्रु होते हैं। कारण कि सज्जन पुरुषों द्वारा आचरण की जाती सत्प्रवृत्तियां दुर्जन लोगों को संसार के सामने आचरण से स्वतः दुर्जनरूप घोषित कर देती है और इसीलिए सज्जन पुरुष दुर्जनों को खटकते हैं और वे अपने मन में सज्जनों के प्रति वैर पालते हैं।

सच्ची बात यह है कि पौद्गलिक स्वार्थ की रसिकता ही भयंकर है। पौद्गलिक स्वार्थ की प्रीति ज्यों-ज्यों बढती जाती है, त्यों-त्यों सद्वृत्ति और सदाचार दोनों का नाश होता जाता है। पौद्गलिक स्वार्थ की अत्यंत प्रीति आदमी को आदमी नहीं रहने देती, अपितु शैतान बना देती है। इसलिए आत्म-कल्याण की अभिलाषी आत्माओं को स्वयं में रही हुई पौद्गलिक स्वार्थवृत्ति को जडमूल से ही समाप्त करने के लिए प्रयत्नशील बनना चाहिए।-सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 8 फ़रवरी 2017

दुःख न दें, सुख न छीनें

मनुष्य मात्र को यह विचार करना चाहिए कि हमको जिस प्रकार हमारा जीवन प्रिय है, उसी प्रकार जगत के सभी जीवों को भी उनका जीवन प्रिय है। जगत में कोई जीव दुःखी नहीं होना चाहता, सभी सुखी होने की इच्छा रखते हैं। दुःख को दूर करने का और सुखी बनने का एक ही मार्ग है और वह है- हम दूसरे को दुःख न दें और जहां तक संभव हो सके दूसरे को सुख पहुंचाने का प्रयास करें। हमें दुःख प्रिय नहीं है तो दूसरे को दुःखी करने, दुःख पहुंचाने से दूर रहना और हमें सुख अच्छा लगता है तो कम से कम किसी दूसरे का सुख नहीं छीनना। दूसरे को दुःख देना या किसी का सुख छीनने का प्रयास करना, यह तो अपने ही हाथों से अपने लिए दुःख उत्पन्न करना है।

किसी को दुःख नहीं देना है और किसी का सुख नहीं छीनना है, ऐसा दृढ निश्चय होते ही आप उसका अनुसरण कर देंगे तो आपके लिए अक्षय सुख के द्वार खुलते देर नहीं लगेगी।-सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2017

प्राणीमात्र के प्रति कल्याण का भाव हो

शक्य हो तो दूसरे को सुखी बनाने का और शक्य न हो तो भी कम से कम दूसरे को दुःखी नहीं बनाने का विचार जिस आत्मा में प्रकट होता है, वह आत्मा क्रमशः स्वयं की उन्नति सिद्ध कर सकती है। आत्मा किसी भी काल में संसार के समस्त जीवों को सुखी बना देने का सामर्थ्य प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु आत्मा में ऐसा तो हो सकता है कि संसार के किसी भी जीव के दुःख का कारण वह नहीं बने, उसका पद भव्यात्माओं के लिए सुख का प्रेरक बने। ऐसी आत्मदशा, अर्थात् आत्मा का ऐसा सुविशुद्ध स्वरूप प्राप्त करने के लिए ही सुख के अर्थी आत्माओं को प्रयत्न करना चाहिए। यह प्रयत्न तभी हो सकता है, जब आत्मा में प्राणीमात्र के प्रति कल्याण की भावना हो।

जिसको आत्मा का विचार नहीं और परभव का खयाल नहीं, ऐसा व्यक्ति परोपकार की चाहे जैसी बात करे, वह सच्चा परोपकारी नहीं बन सकता। इस भव के सुख के लिए जिसको हिंसक पशुओं का भी विनाश करने का मन होता है, वह आदमी दुनिया में चाहे जितने भी ऊॅंचे पद पर चढा हो, तत्त्वज्ञानी महात्माओं की दृष्टि से तो वह अधम कोटि का ही है। आत्मा के सुख का जिसको खयाल नहीं और पौद्गलिक सुख, यही जिसका साध्य हो, वैसी आत्माओं का जीवन तो जगत के जीवों के लिए केवल श्रापभूत ही है। ऐसी आत्माओं को उसके पूर्व के पुण्य योग से प्राप्त हुई बुद्धि, शक्ति और सामग्री जगत के जीवों के लिए एकान्ततः अकल्याण का कारण बनती है और इससे ऐसे आत्माओं का स्वयं का भविष्य भी अंधकारमय बन जाता है।-सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 6 फ़रवरी 2017

स्वार्थी व्यक्ति मां-बाप का भी खून कर सकता है

संसार की स्वार्थ परायणता पर विचार करो। राग-द्वेष और अज्ञान से घिरे हुए तथा उसी कारण से अर्थ और काम में अतिलुब्ध बनी हुई आत्माएं, अपने ही पिता, मां, पत्नी, पुत्र या भाई के वध जैसा भयंकर कोटि का विचार करे, निर्णय करे या उसकी पालना करे तो भी इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं है। अर्थ और काम की प्राप्ति में ही स्वयं का कल्याण मानकर बैठे हुए लोगों को, स्वयं के कल्पित कल्याण की साधना के लिए कितनी ही बार तो भयंकर में भयंकर कोटि के भी दुष्कृत्यों का आचरण करते हुए विचार नहीं आता है। ऐसी आत्माओं को स्वयं के किंचित स्वार्थ के लिए सामने वाले की पूरी जिन्दगी भी तुच्छ लगती है। स्वयं के क्षुद्र स्वार्थ के लिए दूसरों के प्राणों का हरण करते हुए भी, किंचित् भी क्षुब्ध नहीं होने वाली आत्माएं इस युग में बहुत हैं। पूर्व के पुण्य योग से मिली हुई सामग्री का उपयोग वे लोग इस भव में दूसरे जीवों का संहार करने में करते हैं। किन्तु, वे लोग अपने भविष्य को भूल जाते हैं।-सूरिरामचन्द्र