सोमवार, 31 जुलाई 2017

कषायों से होता है सर्वनाश

क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करता है, माया मित्रता का नाश करती है और लोभ, यह सर्वनाशक है। यह चार प्रकार का विपाक प्रायः सबको प्रतीत है।
क्रोध से अन्ध बनकर नहीं बोलने योग्य वचनों के बोलने से प्रीति का देखते-देखते नाश हो जाता है। यह सबके अनुभव की बात है। क्रोध यह ऐसा भयंकर कषाय है कि इसके अधीन बनकर आत्मा अन्धी ही बन जाती है और इससे व्यक्ति स्वयं क्या बोलता है, उसका भी उसे ध्यान नहीं रहता है। इस ध्यानहीनता के प्रताप से प्रीति तो नाश पा ही जाती है। किन्तु, इससे आगे बढकर पुनः प्रीति न हो, ऐसा भयंकर संग्राम भी खडा हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि क्रोध प्रीति का जड-मूल से नाश करने वाला है।
मान, यह विनय का नाश करने वाला है, इसे अस्वीकार कौन कर सकता है? मान यह मानवी को उद्दाम और अक्खड बनाता है, इससे इन्कार कौन कर सकता है? मान के प्रताप से तो आज अनेक आत्माएं ऐसी दृष्टिगोचर होती हैं कि जो सन्मार्ग पा सकें, ऐसी योग्यता वाले होने पर भी उन्मार्ग पर चल जाते हैं। मान तो अनेकों को देवदर्शन, गुरुवंदन और शास्त्रश्रवण से भी वंचित करता है। मान, इसने अनेक आत्माओं में शक्ति होने पर भी शक्ति नहीं है, ऐसा कहना सिखाया है। अनेक आत्माएं आज ऐसी हैं कि जो, ‘अमुक स्थान पर और अमुक समय पर नम्र बनने से फायदा है’, इस प्रकार जानने पर भी मान के प्रताप से नम्र नहीं बन सकते और स्वयं का हित साध नहीं सकते। सहिष्णुता के गुण को जानने पर भी मान से भरी हुई आत्मा इस गुण को स्वप्न में भी नहीं अपनाती है। स्वयं की प्रशंसा स्वयं करना, यह तो महादुर्गुण है। ऐसा जानने वालों को भी मान ने आज स्वयं के गुणों की प्रशंसा के लिए भयंकर से भयंकर कोटि के भाट बना दिया है। मान ने आज निन्दा यह महापाप है, ऐसा जानने वालों और ऐसा मानने वालों को भी महानिन्दक बनाकर भयंकर से भयंकर कोटि के भाण्ड भी बनाए हैं। सचमुच में इस मान ने प्राणियों के उत्तमोत्तम विनय-जीवन का भयंकर रूप से नाश कर दिया है और इसी के प्रताप से, इसके उपासक, औचित्यपूर्ण आचार के भी विरोधी बन जाते हैं। मानी आत्माओं में अहंकार के योग से मूर्खता शीघ्र ही आती है और इस मूर्खता को लेकर प्रत्येक बात में वह उचित आचरण का विरोधी बनकर स्व-पर दोनों का संहारक बनता है।
माया ऐसा दूषण है कि जिस दूषण की उपासना करने वालों का कोई मित्र नहीं बनता और होते हैं वे भी इसकी कुटिलता को देखकर उससे दूर भाग जाते हैं। इसी कारण से माया मित्रों की नाशक है और यह बात बिना विवाद के सिद्ध हो सके ऐसी है। माया कुशलता को पैदा करने में बांझ है। सत्यरूपी सूर्य का अस्त करने के लिए संध्या समान है, कुगति रूप युवती का समागम कराने वाली है, शम रूप कमल का नाश करने के लिए हिम के समूह समान है, दुर्यश की राजधानी है और सैकडों व्यसनों को सहयोग देने वाली है। माया यह अविश्वास के विलास का मंदिर है, इसलिए मायावी, माया के योग से विश्व में अविश्वास का भाजन बनता है। इससे स्पष्ट है कि माया इस लोक और परलोक में हित करने वाली सब लगों की मित्रता की नाशक ही है।

लोभ यह सर्वविनाशक है। कारण कि क्रोध, मान, माया, इन तीनों की उपस्थिति इस लोभ की आभारी है। इसी कारण से महापुरुष फरमाते हैं कि जिस प्रकार व्याधियों का मूल रस है और जिस प्रकार दुःख का मूल स्नेह है, उसी प्रकार पापों का मूल लोभ है। पुनः यह लोभ मोह-रूपी विषवृक्ष का मूल है, क्रोध रूप अग्नि को पैदा करने के लिए अरणी काष्ठ के समान है। प्रताप-रूपी सूर्य को आच्छादित करने के लिए मेघ के समान है, कलि का क्रीडा घर है, विवेकरूपी चन्द्रमा का ग्रास करने के लिए राहु है, आपत्तिरूपी नदियों का सागर है और कीर्तिरूपी लता के समूह का नाश करने के लिए तीस वर्ष के हाथी जैसा है।इससे स्पष्ट है कि लोभ, यह सर्व का विनाश करने वाला है।-सूरिरामचन्द्र

रविवार, 30 जुलाई 2017

धर्म को सर्वांग रूप से अपनाएं !

धर्म का सही मूल्यांकन करना सीखें। यदि सही मूल्यांकन करते रहेंगे तो दृष्टि सम्यक रहेगी, नीर-क्षीर विभाजन-विवेक कायम रहेगा, धर्म-पथ पर अपना संतुलन बनाए रख सकेंगे। अन्यथा धर्म का कोई एक अंग आवश्यकता से अधिक महत्व पाकर धर्म-शरीर की सर्वांगीण उन्नति में बाधक बन जाएगा। सम्यक दृष्टि यही है कि जिसका जितना मूल्य है, उसको उतना ही महत्व दें। न अधिक, न कम। कंकड-पत्थर, काँच, हीरा, मोती, नीलम, मणि सबका अपना-अपना महत्व है। मिट्टी, लोहा, ताँबा, पीतल, चाँदी, सोना, सबका अलग-अलग मूल्य है। जिसका जितना महत्व है, उसका उतना ही मूल्य है।
मसलन, दान देना अच्छा है। धर्म का एक अंग है। दान अधिक है या कम इसका कोई महत्व नहीं होता। परंतु देते समय चित्त की चेतना कैसी है, भावना कैसी है, यही ध्यान देने की बात है। यदि उस समय चित्त में क्रोध या चिडचिडाहट या घृणा या द्वेष या भय या आतंक या बदले में कुछ प्राप्त करने की तीव्र लालसा है या यश की प्रबल कामना है अथवा प्रतिस्पर्धा का उत्कट भाव है, तो ऐसा दान शुद्ध, निष्काम, निरहंकार चित्त से दिए गए दान की अपेक्षा बहुत हल्का है। भले ही मात्रा में अधिक क्यों न हो। शुद्ध चित्त से दिए गए दान का अधिक महत्व है। इससे अपरिग्रह और त्याग धर्म पुष्ट होता है।

इसी प्रकार उपवास भी धर्म का एक अंग है। मानसिक संयम के लिए उपवास उपयोगी है। उपवास करें और मन भिन्न-भिन्न पकवानों में रमता रहे तो ऐसा उपवास हीन कोटि का होगा। उपवास करें और केवल शरीर को ही नहीं, बल्कि मन को भी संयमित करें तो उपवास उच्च कोटि का होगा। उपवास करने वाला शील-सदाचार के क्षेत्र में दुर्बल हो तो उपवास करने वाले शीलवान व्यक्ति से हीन है। इसी प्रकार सामिष भोजन से निरामिष भोजन, चटपटे मिर्च-मसाले वाले राजसी भोजन से सादा सात्विक भोजन करने वाला व्यक्ति श्रेष्ठ है, उत्तम है। अपना अधिकांश समय आलस्य, प्रमाद, तंद्रा में गँवाने वाले व्यक्ति की अपेक्षा यथावश्यक कम से कम समय सोकर, अधिक से अधिक समय जागरूक रहने वाला व्यक्ति निश्चित रूप से अधिक अच्छा है। इसी प्रकार भजन-कीर्तन तल्लीनता के लिए है। चित्त को एकाग्र करने के साधन हैं। किसी गुरु या संत का दर्शन, उनको किया गया नमन, उनके प्रति श्रद्धा जगाने के लिए है। उनके गुणों को देखकर मन में प्रेरणा जगाएँ और वे गुण स्वयं धारण करें, इसी निमित्त हैं। किसी धर्मग्रंथ का पाठ करते हैं, अथवा श्रवण करते हैं तो इसलिए कि उससे हमें प्रेरणा मिले, मार्गदर्शन मिले, जिससे कि धर्म जीवन में उतार सकें। कोरा वाणी-विलास और बुद्धि-विलास धर्म नहीं है। जीवन में उतरा हुआ शील-सदाचार ही धर्म है।-सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 29 जुलाई 2017

श्रावक साधुओं के मां-बाप या सांप

शास्त्र में श्रावकों को साधु के माता-पिता कहा है। श्रावक को मां-बाप जैसा भी कहा है और सांप जैसा भी कहा है। आप यदि मां-बाप बनो तो काम हो जाए। मां-बाप बनोगे...? लेकिन जिनको अपने स्वयं के बच्चों का मां-बाप बनना नहीं आया, वे साधुओं के किस प्रकार बनेंगे...? महाव्रतधारी के मां-बाप बनना क्या इतना सरल है...? श्रावक मां-बाप जैसे बन जाएं तो तो साधुओं की सारी चिन्ता खत्म हो जाए; साधुओं के संयम की चिन्ता आपको होने लगे कि साधुओं के संयम में किस प्रकार वृद्धि हो, किस प्रकार टिके, किस प्रकार शुद्ध हो, कैसे फैले, ये सब चिन्ताएं श्रावक करें तो फिर बाकी क्या रहे...?
व्यवहार में बेटा अच्छा कैसे बने, लाख के करोड कैसे करे, आलीशान गाड़ियों में कैसे घूमे; यह सारी चिन्ता मां-बाप को होती है न...? इसी प्रकार साधुओं का संयम कैसे पले, कैसे बढे, कैसे जगत में उस संयम का फैलाव हो; यह चिन्ता श्रावक करे तो इसमें हमें आनन्द होगा या दुःख...? मैं तो मांग करता हूं कि आप ऐसे मां-बाप बनें। आपने मां-बाप का फर्ज छोड दिया, उसी की यह परेशानी और चर्चा है। आपको यह बात महसूस होनी चाहिए।

आज साधुओं में शीथिलाचार आया कहां से...? इसके लिए कौन जिम्मेदार हैं...? सांप अपने ही बच्चों को नष्ट कर देता है, श्रावक ही साधुओं को संयम से नीचे गिरने के साधन सुलभ कराते हैं। मां-बाप ही बच्चे की कमजोरियों पर पर्दा डालकर उसे बिगाडते हैं। ऐसे मां-बाप क्या वाकई अच्छे मां-बाप हैं जो अपनी औलादों को गलत रास्ते पर धकेल देते हैं...? नहीं। आप अच्छे मां-बाप बनिए...! -सूरिरामचन्द्र

शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

सुख का दुःख

आप दुनिया में जिस-जिस सुख की कल्पना करते हैं, उनमें से एक भी सुख ऐसा नहीं है, जिसमें दुःख रहा हुआ न हो। वह सुख अमुक काल से अधिक काल के लिए एकधारा में नहीं भोगा जा सकता। आपकी दृष्टि से मान लें कि खाने में सुख है, परन्तु क्या कोई दिनभर खाता रह सकता है? पीने में सुख है तो क्या बिना प्यास ही पानी पीते रहा जा सकता है? इसी तरह संसार का कोई भी सुख लीजिए, वह निरंतर नहीं भोगा जा सकता। साथ ही ऐसे सुख, दुःख के होने पर ही भोगे जा सकते हैं। भूख लगे बिना खाना क्या सुखरूप लगता है? तब आप भूख को दुःख ही कहेंगे न? प्यास को भी दुःख ही कहेंगे न? जितना भूख-प्यास का दुःख अधिक होता है, उतना ही खाने और शीतल जल पीने का सुख अधिक होता है। जो सुख स्वतंत्र नहीं होता, उस सुख की अनुभूति करने से पहले दुःख अवश्य होना चाहिए। ऐसे सुख को सुख मानना मूर्खतापूर्ण ही है।
भूख न लगे तो दवा लेने पहुंच जाते हो न? भूख दुःख है। यह दुःख न आए तो मरने का भय लगता है। खाते-खाते कभी ऐसा विचार आया क्या कि कर्म के अधीन होकर मैं कैसा रागी बन गया हूं कि जो सुख स्वतंत्र नहीं, उसका स्नेही बनकर, यदि दुःख न आए तो भी जी न सकूं, ऐसी मेरी दुर्दशा हो गई है। ऐसा विचार आए तो भूख ही न लगे, आहार की अपेक्षा ही न रहे। ऐसी दशा का विचार आए तो सच्चे सुख को पाने हेतु मोक्ष की मुसाफिरी करने का मनोरथ जागे। भौतिक सुख का यही एक बडा दुःख है कि उसमें सुख देने की स्वतंत्र शक्ति नहीं है। दुःख की मात्रा के अनुसार ही वह सुख देता है।
दुःख में दुःख और सुख में सुख मानना मूर्खता
यह संसार सुख-दुःख का मेला है। दुःख अधिक है, सुख थोडा है। इन दो के सिवाय संसार में और है ही क्या? ऐसे संसार के दुःख में दुःख मानना और सुख में सुख मानना मूर्खता है। इसके विपरीत, दुःख में जिन्होंने आनन्द माना वे ही मोक्ष में गए। सुख को जिन्होंने लात मारी वे ही त्यागी बन सके। पाप से प्राप्त दुःख में नाराजी और पुण्य से प्राप्त सुख में प्रसन्नता, इसी का नाम अविरति है। जगत को अविरतिका भान नहीं। यह बात जैन शासन में ही है। परन्तु, जैन भी आजकल अविरतिको नहीं समझते। आजकल इस संसार रूपी नक्कारखाने में अविरति की ही नौबत बज रही है, ऐसे में हमारी तूती कौन सुने? सुख के साधनों में मौज करने वाले, उसकी अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा करने वाले और उसकी कमी के लिए खेद प्रकट करने वाले; सब अविरति में फंसे हुए हैं।

मिथ्यात्व कहता है कि जहां तक मेरी अविरति आनन्द में है, वहां तक मुझे कोई चिन्ता नहीं। जब अविरति रोने लगती है, तब मुझे घबराहट होती है।कर्म के उदय से जीव को दुःख आने ही वाला है। उस समय कदाचित् ऐसे संयोग मिल जाएं कि उस पर दया करने वाला कोई न रहे। आज हजारों जानवर बिना किसी अपराध के काटे जा रहे हैं और किसी के पेट का पानी नहीं हिल रहा है। जानवरों के पाप का उदय भी ऐसा आया है कि वे काटे जा रहे हैं और उन पर दया करने वाला कोई नहीं है; आपके लिए भी दुःख के प्रसंग में ऐसा नहीं होगा, इस बात का क्या भरोसा है? इसलिए इस बात को गहराई से समझो और दुःख में दुःख व सुख में सुख मानना और वैसा व्यवहार करना छोडो। समभाव से रहो।-सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 27 जुलाई 2017

भिखारियों की तरह मत बनो

यदि आप थोडा-सा भी समझदार बनकर सोचें तो आपको अपनी वर्तमान स्थिति में तो अत्यंत सरलता से निर्वेद उत्पन्न हो सकता है। सुख मनचाही वस्तु होने से सुख के समय में निर्वेद उत्पन्न होने जैसा विचार आना थोडा कठिन है, परन्तु दुःख जैसी अनचाही वस्तु के समय तो निर्वेद उत्पन्न होने जैसा विचार आना अत्यंत सरल होता है। परन्तु भिखारी जिस तरह केवल एक टुकडा रोटी का प्राप्त करने पर भी प्रसन्न हो जाता है, उसी तरह दुःख अधिक हो और सुख अल्प एवं तुच्छ हो तो भी उतने से ही प्रसन्न होने वाले अधिक होते हैं।
भिखारी यह नहीं देखता कि उसे एक रोटी के टुकडे के लिए कितनी अनुनय-विनय करनी पडी है। वह तो केवल इतना ही देखता है कि उसे रोटी का टुकडा प्राप्त हो गया और उसे प्राप्त कर वह इतनी प्रसन्नता अनुभव करता है कि घडी भर के लिए तो वह अन्य सभी कष्टों को भूल-सा जाता है। जिसकी संसार के सुखों के संबंध में ऐसी मनोदशा हो, उसे निर्वेद उत्पन्न होने जैसा विचार आए भी कैसे? बाकी तो आप यदि प्राचीन काल के पुण्यशालियों के सुख का वर्णन सुनो और उनके सुख की आपके वर्तमान सुख से तुलना करो तो भी आपका अपने सुख का सारा आनंद हवा हो जाए और आपकी इच्छा संसार-सुख त्याग कर मोक्ष-सुख प्राप्त करने की हो जाए।
ये सब निमित्त हैं, परन्तु आप में उस प्रकार की योग्यता हो अथवा आप में ऐसी योग्यता आए तो ही ये निमित्त आपको वैराग्य की ओर प्रेरित करने वाले और वैराग्य होने पर आपको धर्माराधक बनाने में सहायक सिद्ध होंगे।
सुख कैसे मिले, दुःख कैसे टले ?
आप दिन भर जो मेहनत-मजदूरी करते हैं, उसका कोई टाइम-टेबल बनाते हैं क्या? आप स्वयं-स्फूर्त सोना, उठना, खाना, पीना, शोच आदि नित्यकर्म करते हैं, क्योंकि यह सब आपके वर्तमान शरीर की जरूरतें हैं और आत्मा की जरूरत के लिए? जन्म से लेकर पूरे बचपन और तरुणावस्था तक माता का मुँह ताकते रहना, जवानी में पत्नी का मुँह ताकते रहना और बुढापे में लडकों का मुँह ताकते रहना ही है तो फिर आत्मा की तरफ अपनी दृष्टि कब गुमाओगे? बाल्यकाल नासमझी और मूर्खताभरी क्रीडाओं में बीत जाए, यौवन विषयों की परवशता में बीत जाए और वृद्धत्व कच-कच में पूरा हो जाए तो आत्मा का साधन किस काल में होगा?
यहां मरे इसका अर्थ सब कुछ समाप्त होना नहीं है और यहां के नाते-रिश्तेदार या धन-दौलत, साधन-सुविधाएं भी साथ आने वाले नहीं हैं। मरने के बाद आत्मा अन्य स्थान में जाता है, स्थान-परिवर्तन होता है, परन्तु कर्म तो बने रहते हैं। कर्म साथ रहते हैं, तो दुःख बना रहता है। अतः प्रयत्न यह करना चाहिए कि आत्मा कर्म-रहित बने। यह ध्येय निश्चित कर लो। इसके बाद छोटी-सी भी धर्मक्रिया आपको सच्चे सुख की सच्ची दिशा में आगे बढने में सहायक बनेगी।

आज की दुनिया की एक मात्र इच्छा यही है कि सुख मिले और दुःख टले। प्राणी मात्र की प्रवृत्ति भी सुख पाने की और दुःख टालने की है। तथापि यह सत्य है कि दुनिया दुःखी है। ऐसा क्यों? कहना होगा कि मूल में भूल है। सुख-दुःख की सच्ची समझ ही नहीं है। सच्चे सुख की समझ आ जाए और इसे पाने का ध्येय निश्चित हो जाए तो सुख मिले बिना न रहे और दुःख टले बिना न रहे।-सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 26 जुलाई 2017

धर्म बिना की आधुनिक शिक्षा विनाशक है

आत्म-शुद्धि के विचार और उस विषयक बात करने से पूर्व आत्मा का खयाल न हो तो क्या हो? आपको यदि किसी भी तरह अपना और अपनी संतान का कल्याण करना हो, उनका उद्धार करना हो तो सर्व प्रथम मनुष्यत्व प्राप्त करना होगा। मनुष्यत्व आने के पश्चात यह निश्चित होगा कि मैं विश्व का रक्षक हूं, भक्षक नहीं; सहायक हूं, विनाशक नहीं और परमार्थ के लिए वचनबद्ध हूं।प्राचीन समय में सब कलाओं का ज्ञान प्राप्त करने वाले के लिए भी जब तक वह धर्म-कला से अनभिज्ञ होता, तब तक उसकी सारी कलाएं व्यर्थ मानी जाती थी। धर्म के बिना सारा ज्ञान, विवेकहीन गुणों के समान होता है। शरीर अत्यंत सुन्दर हो, परन्तु नाक न हो; वैसे ही धर्म के बिना का ज्ञान है।

सब जानता हो, परन्तु आत्मा क्या है और आत्म-सुख के साधन कौनसे हैं’, यह नहीं जानता हो, तब तक समस्त ज्ञान निष्फल है, विनाशक है। धर्म-कला पर ही समस्त कलाओं की सफलता अवलम्बित है। उसके बिना समस्त कलाएं निष्फल हैं। धर्म के बिना सारा ज्ञान अधूरा और विनाश की ओर ले जाने वाला है। आज जो धांधली और शोरगुल हो रहा है, जो विनाशक-विकास हो रहा है, जो उत्पात और हिंसा का विभत्स ताण्डव दिखाई दे रहा है; उसका सबसे बडा कारण धार्मिक-शिक्षण का अभाव है। बडे भारी डिग्रीधारी बन गए, पदवी प्राप्त कर ली, लेकिन उनकी इंसानियत मर गई, मनुष्यता मर गई, जीने का सलीका नहीं आया; कारण कि धार्मिक शिक्षा प्राप्त नहीं की, पुण्य-पाप आदि तत्त्व नहीं समझे, हेय-ज्ञेय-उपादेय को नहीं समझा तो विवेक कहां से आएगा, उदय कैसे संभव है, कल्याण कैसे होगा? -सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 25 जुलाई 2017

मन व इन्द्रियों को साधो

मन-शुद्धि और मन की शान्ति तभी आ सकती है, जब आत्मा में भविष्य के लिए चिन्ता जागृत हो और विवेक पूर्वक आगे-पीछे का हम विचार कर सकें। जीवन को सार्थक करने के लिए हमें अपने मन में उठने वाली अनुचित एवं नकारात्मक, विनाशक तरंगों, इच्छाओं और अनुचित तृष्णाओं को दबा देना चाहिए। विषय-वासनाओं में लीन पांचों इन्द्रियों पर अंकुश लगाना चाहिए और उनके कारण जो पाप हो रहा है, उससे बचकर इस जीवन को सुन्दर बनाना चाहिए। ऐसा करने से आप झूठ, चोरी, अनाचार और लोभ के वशीभूत होकर किसी भी प्राणी को दुःखी करना नहीं चाहेंगे और इस प्रकार की उत्तम नीति यदि जीवन में उतारोगे तो इस लोक में उच्च कोटि की उत्तम आत्म-शान्ति अनुभव करते हुए, जहां जाओगे वहां भी अनुकूल स्थिति और सामग्री प्राप्त करके, उन्नतगामी बनकर आधि, व्याधि और उपाधि से मुक्त होकर जैसा सुख चाहते हो वैसा प्राप्त कर सकोगे। उस सुख को प्राप्त करने की स्थिति में आप पहुंच सकें, तभी आपका जीवन सार्थक होगा।

हमें मन की इच्छा के आधीन नहीं होना है, अपितु उसे अपनी इच्छा के आधीन बनाना है। मन जो कुछ मांगे, वह उसे नहीं देना है, बल्कि हम जो उसे देना चाहें, वही उसे देना है। मन पर अंकुश रखने के लिए उसे तृष्णा से सदा दूर रखना चाहिए। जो-जो बुरी इच्छाएं हैं, उन्हें पूरी नहीं करना चाहिए और अच्छी इच्छाओं को पूरा करने का प्रबल पयत्न करना चाहिए। केवल साधुओं को ही नहीं, गृहस्थियों को भी सुखी होना हो तो उन्हें अपने मन पर अंकुश रखना चाहिए। मन और इन्द्रियों को नहीं साधा तो चौरासी लाख जीव-योनियों में ही भटकते रहना पडेगा।-सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 24 जुलाई 2017

मोह का मारक धर्म

मोह को मारकर और मोह-मारक शासन स्थापित कर मोक्ष में पधारे हुए अरिहंतों के पास हम प्रतिदिन जाते हैं; फिर भी मोह बुरा नहीं लगता, तो यह कैसे चल सकता है? सब तीर्थंकर राजकुल में उत्पन्न हुए थे, उनके पास सुख-वैभव की अपार सामग्री थी। वे उसे ठुकरा कर चले गए। उनकी तुलना में आपके पास कुछ भी नहीं, फिर भी आप उसे पकड कर बैठे हो, मोह का यह कैसा साम्राज्य है? अरिहंत की आराधना करनी है तो मोह के सामने आँखें लाल करनी होगी। मोह को बढाने के लिए अनेकबार धर्म किया और मोह की मार खाते रहे। जिसे यह मोह बुरा नहीं लगता, उसके लिए तो यह मनुष्य जन्म खराब से खराब है। दुनिया जिसे अच्छा समझती है, उसे भगवान बुरा बताते हैं।

जन्म को मिटाने के लिए, जन्म न लेना पडे, ऐसी स्थिति पैदा करने के लिए जो कुछ किया जाता है, वह धर्म है। मनुष्य जन्म पाकर जन्म का नाश किया जा सकता है। जन्म का नाश होना अर्थात् मरण की परम्परा का नाश होना है। जो कुछ धर्म करना है, वह जन्म का नाश करने के लिए, फिर से जन्म न लेना पडे, इसके लिए करना है। जन्म लेने की इच्छा न हो तो सर्वविरति को स्वीकार किए बिना कोई अन्य रास्ता नहीं है। सम्यग्दर्शन हो तभी सम्यग्चारित्र का भाव प्रकट होता है। संयम लेने की जिसे इच्छा नहीं, सुख को छोडने और दुःख को समभाव पूर्वक भोगने की जिसे अभिलाषा न हो, उसके पास धर्म का नामोनिशान भी नहीं है, ऐसा कहा जा सकता है। मोह को जीता-जागता रखना हो तो ज्ञान भी बेकार है। वह चाहे जितना शिक्षित हो तो भी खतरा ही है। उसकी शिक्षा अनेकों को हानि भी पहुंचा सकती है।-सूरिरामचन्द्र

रविवार, 23 जुलाई 2017

सच्चे माता-पिता बनो

पुत्र नाटक में जाए, सिनेमा में जाए, गलत रास्ते पर चल पडे, भक्ष्य-अभक्ष्य का खयाल न करे तो आज लोग रोकते तक नहीं हैं और कहते हैं कि समय की हवा है। यदि पुत्र धर्माराधना नहीं करे, धर्मस्थल में नहीं जाए तो कहेंगे कि इस पर अध्ययन का बोझा अधिक है। आप सम्यग्दृष्टि माता-पिता हैं न? आप हितैषी संरक्षक होने का दावा करते हैं न? आप कैसे उनके हितैषी हैं? कैसे संरक्षक हैं? आपने कभी यह जांच की है कि आज उनके कानों में कितना पाप-विष भरा गया है? आधुनिक वातावरण, दृश्य-श्रव्य माध्यमों द्वारा आपकी संतान में आज कितने कुसंस्कार पैदा किए जा रहे हैं? यदि इन सब बातों का ध्यान न रखो, इनकी जांच न करो तो आप कैसे उनके हितैषी हैं?

संप्रति राजा, राजा बनकर हाथी पर सवारी कर के माता को प्रणाम करने आए। तब उनकी माता ने कहा, ‘मेरे संप्रति के राजा बनने की मुझे खुशी नहीं है, परन्तु यदि वह धर्म की प्रभावना करे तो मुझे अपार हर्ष होगा।ऐसी होती है माता। और इसी राजा संप्रति ने सवा लाख मन्दिरों का निर्माण करवाया। आज की माताएं क्या कहती हैं? माता-पिता तो सब बनना चाहते हैं, बच्चों की अंगुली पकडकर सबको चलना है। अपनी आज्ञा भी सब मनवाना चाहते हैं, लेकिन ऐसी इच्छा करने वालों को स्वयं में पितृत्व एवं मातृत्व के गुण तो लाने चाहिए न? माता-पिता यदि सही मायने में माता-पिता नहीं बनेंगे तो पुत्र कभी सुपुत्र नहीं बन सकते। मैं उन्मत्त पुत्रों का पक्षधर नहीं हूं, परन्तु जैसे पुत्रों को सचमुच सुपुत्र बनना चाहिए, उसी तरह माता-पिता को भी सच्चे माता-पिता बनना चाहिए।-सूरिरामचन्द्र