शुक्रवार, 30 जून 2017

जीवन को सही रूप में समझें

भौतिक सुख एक उत्तेजना है, और दुःख भी। प्रीतिकर उत्तेजना को सुख और अप्रीतिकर को हम दुःख कहते हैं। आनन्द दोनों से भिन्न है। वह उत्तेजना की नहीं, शान्ति की अवस्था है। भौतिक सुख जो चाहता है, वह निरंतर दुःख में पडता है। क्योंकि, एक उत्तेजना के बाद दूसरी विरोधी उत्तेजना वैसे ही अपरिहार्य है, जैसे कि पहाडों के साथ घाटियां होती हैं और दिनों के साथ रात्रियां। किन्तु, जो सुख और दुःख दोनों को छोड कर सर्वविरति के लिए तत्पर हो जाता है, वह उस आनन्द को उपलब्ध होता है, जो कि शाश्वत है।

आत्मा से उत्पन्न होने वाले वास्तविक आनन्द की बजाय, जो वस्तुओं और विषयों से निकलने वाले सुख को ही आनन्द समझ लेते हैं, वे जीवन की अमूल्य सम्पदा को अपने ही हाथों नष्ट कर देते हैं। ध्यान रहे कि जो कुछ भी बाहर से मिलता है, वह छीन भी लिया जाएगा। उसे अपना समझना भूल है। स्वयं का तो वही है, जो कि स्वयं में ही उत्पन्न होता है। वही वास्तविक सम्पदा है। उसे न खोजकर, जो कुछ और खोजते हैं, वे चाहे कुछ भी पा लें, अंततः वे पाएंगे कि उन्होंने कुछ भी नहीं पाया है और उल्टे उसे पाने की दौड में वे स्वयं जीवन को ही गंवा बैठे हैं।-सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 29 जून 2017

तृष्णा जीर्ण नहीं होती

देवत्व के भोगों की तुलना में मानवीय भोग अति तुच्छ हैं। देवताओं के भोगों से परिचित नहीं होने के कारण मनुष्य इन तुच्छ भोगों में लीन हो जाते हैं। ऐसे भोगों को वर्षों तक भोगने पर भी तृप्ति नहीं होती। इससे यह सूचित होता है कि भोग-सुख भोगने से भोगवृत्ति तृप्त होती ही नहीं है। भोगों की तृष्णा हटाए बिना सुख और आनंद प्राप्त नहीं होगा। यदि आनंद चाहिए, तृप्ति चाहिए तो तृष्णा को त्यागना होगा। तृष्णा युक्त मन रखने वाला मनुष्य इस लोक के भोगों को भोग कर तृप्ति प्राप्त करे, आनंद प्राप्त करे, यह संभव नहीं है। इंसान भोग से कभी तृप्त नहीं हो सकता, उसकी भोगवृत्ति बढती ही जाती है और एक दिन भोग ही उसका भोग कर लेते हैं। तृष्णा कभी जीर्ण नहीं होती, इंसान का जीवन और शरीर जीर्णशीर्ण हो जाता है। जीवन की वास्तविकताओं को समझकर सम्यक्त्व धारण करने वाला और संयम धारण करने वाला ही भोग और तृष्णा पर अंकुश लगा सकता है तथा वास्तविक अक्षय सुख का आनंद प्राप्त कर सकता है। वर्तमान मौजशौख के साधन व भौतिकता की चकाचौंध में ही जो स्वर्ग व मोक्ष की कल्पना करता हो, उसे तो धर्मशास्त्र भी सिर्फ बोझारूप लगेंगे।-सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 28 जून 2017

धर्म की यह कैसी अधोदशा?

आज धर्म का माल लेने वाले थोडे हैं और माल देने वाले बहुत हो गए हैं। इसलिए धर्म का माल नीलाम हो रहा है, ऐसा अनुभव होता है। माल अधिक हो और खपत कम हो, इस तरह हर किसी को धर्म चिपकाने के प्रयत्न हो रहे हैं। ज्ञानी तो कहते हैं कि धर्म पात्र व्यक्तिको ही देना चाहिए, हर किसी को नहीं। धर्म बहुत मंहगी वस्तु है। मांगने आने पर इसकी कीमत समझाकर देने जैसी यह चीज है। परन्तु आजकल तो प्रायः धर्म का नीलाम हो रहा है। नीलाम में रुपये का माल पैसों में बिकता है। ऐसी अधो दशा आज धर्म की हो रही है।

संसार के प्रति अरुचि न हो तो, धर्म किस काम का? अधिक प्राप्त करने के लिए धर्म किया जाता हो तो वह धर्म, धर्म रहता ही नहीं, धंधा हो जाता है, बिना पैसे के धंधे जैसा। कई लोग अपने व्यापार को बढाने के लिए मन्दिर दर्शन करने जाते हैं, उन्हें होंश ही नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं? भगवान को व्यापार में भागीदार बना रहे हैं? मुझे इतना लाभ होगा तो आपको इतना प्रतिशत भेंट करूंगा। उन्हें ऐसा करते हुए शर्म भी नहीं आती? जो अपार रिद्धि-सिद्धि को ठोकर मारकर निकल गए, जो भगवान वितरागी हैं, राग-द्वेष, मोह-माया रहित हो गए हैं, जिनका कोई परिग्रह नहीं है, उनसे सौदा कर रहे हैं? उन्हें व्यवसाय में भागीदार बना रहे हैं और उनकी सेवा में लगे देवों को कमीशन एजेंट, दलाल बना रहे हैं? यह कैसा पागलपन है? -सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 27 जून 2017

कृतघ्न नहीं, कृतज्ञ बनें

अच्छा हो तो किसी का गुण नहीं मानना और बुरा हो तो किसी को दोष देना, यह अज्ञानता की निशानी है। सज्जन सबके गुणों को याद करते हैं और बुरा हो तो स्वयं की निन्दा करते हैं, जबकि दुर्जन समस्त आदमियों में कोई गुण नहीं देखता, स्वयं की योग्यता ही सिद्ध करता है और काम खराब होने पर दूसरों को दोष दिए बगैर नहीं रहता। सामने वाले व्यक्ति ने आपके लिए अच्छा चिंतन किया, आपका भला हो, इस आशय से उसने प्रयत्न किया और अपने पुण्योदय के योग से उनका वह प्रयत्न सफल भी रहा; किन्तु ऐसा जानते हुए भी हम उसका उपकार न मानें तो स्वयं कृतघ्न ही कहलाएंगे न? कृतज्ञता, यह भी एक अनुपम गुण है। कृतज्ञता गुण सामने वाले की और स्वयं की परहित की भावना को विकसित करता है। कृतघ्न आत्माएं परहित-चिन्तारूप मैत्री की मालिक कभी नहीं बन सकती। स्वयं के ऊपर उपकार करने वाले का उपकार वे गिनते ही नहीं हैं। ऐसे लोग दूसरे पर उपकार करने की वृत्ति वाले बनें, यह असंभव है। सच्ची बात तो यह है कि कल्याणार्थी आत्माएं संसार के सभी प्राणियों का भला चाहती हैं, किसी का भी बुरा नहीं चाहतीं। आत्मा को ऐसा बनाना चाहिए कि वह सबके कल्याण में अपनी प्रवृत्ति दिखाए, लेकिन किसी के अनिष्ट कार्य में भाग न ले, बुरा न चाहे। अनजान में किसी का बुरा हो जाए तो उसका हमें दुःख होना चाहिए। बुरा करने वाले का भी भला हो, यह भावना सदा रहनी चाहिए। मेरे प्रति दुश्मनी रखने वालों का भी कल्याण हो, ऐसा व्यवहार होना चाहिए। जब दुश्मन के भी कल्याण की भावना हो तो अपना अच्छा करने वाले के प्रति उपकार मानने की भावना होनी चाहिए कि नहीं?

जिनके हृदय में कृतज्ञता गुण होता है, वे उपकार मानने में भूल नहीं करते हैं। कृतज्ञता गुण के सामान्य रूप से अनेक फायदे होते हैं। इससे सामने वाले में उपकार करने की भावना और दृढ होती है, उसे प्रोत्साहन मिलता है और वह अन्य आत्माओं का भी भला करने के लिए तत्पर बनता है। इस पद्धति से कृतज्ञ आत्माएं स्व-पर-उभय का उपकार साध सकती हैं। दूसरी तरफ कृतघ्न आत्माएं स्व-पर की उपकार वृत्ति की घातक बनती हैं। उपकारी के प्रति यदि हमने कृतघ्नतापूर्ण व्यवहार किया, उपकार का बदला अपकार से दिया और वह सामान्य कोटि की आत्मा हुई तो क्या सोचेगी- इस दुनिया में किसी का भला करने का जमाना नहीं है। वह भविष्य में किसी की मदद करने में कतराएगा। उपकार करने वाले के हृदय में ऐसी दुर्भावना पैदा करने में हमारी कृतघ्नता निमित्तरूप बने तो यह हमारे लिए ही बहुत पापकारी है। कृतघ्नतावृत्ति से दूसरों का तो नुकसान है ही, इससे हमारे लिए भी नुकसान की संभावनाएं बढ जाती है।-सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 26 जून 2017

प्राणीमात्र के प्रति कल्याण का भाव हो

संसार की स्वार्थ परायणता पर विचार करो। राग-द्वेष और अज्ञान से घिरे हुए तथा उसी कारण से अर्थ और काम में अतिलुब्ध बनी हुई आत्माएं, अपने ही पिता, मां, पत्नी, पुत्र या भाई के वध जैसा भयंकर कोटि का विचार करे, निर्णय करे या उसकी पालना करे तो भी इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं है। अर्थ और काम की प्राप्ति में ही स्वयं का कल्याण मानकर बैठे हुए लोगों को, स्वयं के कल्पित कल्याण की साधना के लिए कितनी ही बार तो भयंकर में भयंकर कोटि के भी दुष्कृत्यों का आचरण करते हुए विचार नहीं आता है। ऐसी आत्माओं को स्वयं के किंचित स्वार्थ के लिए सामने वाले की पूरी जिन्दगी भी तुच्छ लगती है। स्वयं के क्षुद्र स्वार्थ के लिए दूसरों के प्राणों का हरण करते हुए भी, किंचित् भी क्षुब्ध नहीं होने वाली आत्माएं इस युग में बहुत हैं। पूर्व के पुण्य योग से मिली हुई सामग्री का उपयोग वे लोग इस भव में दूसरे जीवों का संहार करने में करते हैं। किन्तु, वे लोग अपने भविष्य को भूल जाते हैं।
शक्य हो तो दूसरे को सुखी बनाने का और शक्य न हो तो भी कम से कम दूसरे को दुःखी नहीं बनाने का विचार जिस आत्मा में प्रकट होता है, वह आत्मा क्रमशः स्वयं की उन्नति सिद्ध कर सकती है। आत्मा किसी भी काल में संसार के समस्त जीवों को सुखी बना देने का सामर्थ्य प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु आत्मा में ऐसा तो हो सकता है कि संसार के किसी भी जीव के दुःख का कारण वह नहीं बने, उसका पद भव्यात्माओं के लिए सुख का प्रेरक बने। ऐसी आत्मदशा, अर्थात् आत्मा का ऐसा सुविशुद्ध स्वरूप प्राप्त करने के लिए ही सुख के अर्थी आत्माओं को प्रयत्न करना चाहिए। यह प्रयत्न तभी हो सकता है, जब आत्मा में प्राणीमात्र के प्रति कल्याण की भावना हो।
जिसको आत्मा का विचार नहीं और परभव का खयाल नहीं, ऐसा व्यक्ति परोपकार की चाहे जैसी बात करे, वह सच्चा परोपकारी नहीं बन सकता। इस भव के सुख के लिए जिसको हिंसक पशुओं का भी विनाश करने का मन होता है, वह आदमी दुनिया में चाहे जितने भी ऊॅंचे पद पर चढा हो, तत्त्वज्ञानी महात्माओं की दृष्टि से तो वह अधम कोटि का ही है। आत्मा के सुख का जिसको खयाल नहीं और पौद्गलिक सुख, यही जिसका साध्य हो, वैसी आत्माओं का जीवन तो जगत के जीवों के लिए केवल श्रापभूत ही है। ऐसी आत्माओं को उसके पूर्व के पुण्य योग से प्राप्त हुई बुद्धि, शक्ति और सामग्री जगत के जीवों के लिए एकान्ततः अकल्याण का कारण बनती है और इससे ऐसे आत्माओं का स्वयं का भविष्य भी अंधकारमय बन जाता है।
मनुष्य मात्र को यह विचार करना चाहिए कि हमको जिस प्रकार हमारा जीवन प्रिय है, उसी प्रकार जगत के सभी जीवों को भी उनका जीवन प्रिय है। जगत में कोई जीव दुःखी नहीं होना चाहता, सभी सुखी होने की इच्छा रखते हैं। दुःख को दूर करने का और सुखी बनने का एक ही मार्ग है और वह है- हम दूसरे को दुःख न दें और जहां तक संभव हो सके दूसरे को सुख पहुंचाने का प्रयास करें। हमें दुःख प्रिय नहीं है तो दूसरे को दुःखी करने, दुःख पहुंचाने से दूर रहना और हमें सुख अच्छा लगता है तो कम से कम किसी दूसरे का सुख नहीं छीनना। दूसरे को दुःख देना या किसी का सुख छीनने का प्रयास करना, यह तो अपने ही हाथों से अपने लिए दुःख उत्पन्न करना है।

किसी को दुःख नहीं देना है और किसी का सुख नहीं छीनना है, ऐसा दृढ निश्चय होते ही आप उसका अनुसरण कर देंगे तो आपके लिए अक्षय सुख के द्वार खुलते देर नहीं लगेगी।-सूरिरामचन्द्र

रविवार, 18 जून 2017

चिन्ता और चिता

चिन्ता चिता समान है। चिता बाहर से सुलगाती है और चिन्ता अन्दर से सुलगाती है। चिता में सुलगते हुए को सब देख सकते हैं और चिन्ता में सुलगते हुए को कोई-कोई व्यक्ति ही देख पाता है। चिता जल्दी से सुलगाकर शरीर को राख कर देती है और चिन्ता कई दिनों तक, कई वर्षों तक जलाती, सताती रहती है। इस प्रकार चिता से भी चिन्ता अत्यधिक भयंकर है। चिन्ता से घिरे हुए आदमी को कुछ भी खाना-पीना अच्छा नहीं लगता है। चिन्तातुर आदमी को स्वजनों का मिलाप भी अच्छा नहीं लगता है। बात-बात में गुस्सा आ जाता है, वह झुंझला उठता है, चिडचिडा हो जाता है, ऐसा क्यों होता है? एक मात्र चिन्ता से! जिस बात के कारण मन चिन्तातुर बना हो, उसके विचार दिन-रात आया करते हैं। नींद उड जाती है। चिन्ता जिस प्रकार बल का नाश करती है, उसी प्रकार निद्राहारिणी भी है।
ऐसी सांसारिक चिन्ता पतन की ओर ले जाती है, लेकिन यही चिन्ता आत्मा की हो तो? आत्म-चिन्ता साधना का प्रबल साधन है। आत्मचिन्ता विवेकशून्य नहीं होनी चाहिए। सांसारिक चिन्ता आदमी को पागल बना देती है, जबकि आत्मचिन्ता व्यक्ति को धीर, वीर और गंभीर बनाती है। सचमुच जिस आत्मा में सच्ची आत्मचिन्ता प्रकट हुई हो, उस आत्मा की विचारदशा ही बदल जाती है। आत्मचिन्ता उत्पन्न हो और उसमें त्वरा आए तो यह चिन्ता विरति के मार्ग पर ले जाती है और इसी से आत्मा के उत्साह में वृद्धि होती है। यही आत्मचिन्ता कर्मों को खपाती है, आत्मा को निर्मल बनाती है और मोक्ष की ओर गति करती है।-सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 17 जून 2017

धर्म हर क्षण साथ रहना चाहिए

हमें ऐसे धर्म की जरूरत है जो जीवन में हर पल, हर क्षण साथ रहे। कुछ स्थानों या समय पर ही धर्म हो, ऐसा नहीं। धर्म तो जीवन में सर्वत्र और हर पल होना चाहिए। आप पेढी पर बैठे हों, बाजार में व्यवसाय करते समय कोई सौदा कर रहे हों, अपने मित्रों के साथ बातचीत कर रहे हों या आनंद-प्रमोद की कोई क्रियाएं करते हों, इन सभी अवसरों पर धर्म आपके साथ होना चाहिए। इतना ही नहीं, आप खाते-पीते हों, उठते-बैठते हों, बातचीत करते हों या कहीं घूमते-फिरते हों, सब काल और सब काम में धर्म होना आवश्यक है।
इस तरह हर समय धर्म साथ में रहने से किसी भी काम के समय आपको विचार आएगा कि मैं जो प्रवृत्ति कर रहा हूं, वह किसी को भी प्रतिकूल तो नहीं है न? किसी की प्रतिकूलता मेरी अनुकूलता नहीं बननी चाहिए या किसी की अनुकूलता खत्म करके, मुझे अनुकूलता नहीं चाहिए।यह विचार आपको तभी आएगा, जब आपकी आत्मा सच्ची विवेकी और जागृत बनेगी। आपको सोचना चाहिए कि दूसरों की अनुकूलता छीनने का मुझे क्या हक है? यदि ऐसा नहीं सोचेंगे तो आपकी आत्मा हर पल, हर क्षण पाप करने का मौका मिलते ही कोई न कोई पाप अवश्य करेगी और फिर इसके दुष्परिणाम आपको भुगतने ही होंगे, आपके मन की शान्ति भंग हुए बिना नहीं रहेगी।-सूरिरामचन्द्र

शुक्रवार, 16 जून 2017

शान्ति पाने का तरीका

सभी जीव शान्ति चाहते हैं, अशान्ति कोई नहीं चाहता, लेकिन शान्ति और अशान्ति के साधन के बारे में अनेक मतभेद हैं। एक जिसे अशान्ति का कारण मानता है, दूसरा उसे शान्ति का साधन मानता है। एक को जिसके योग में शान्ति लगती है, दूसरे को उसी के योग में अशान्ति लगती है। आजकल सभी लोग येन-केन-प्रकारेण अपना स्वार्थ साधने में लगे हैं, उससे दूसरे को कष्ट पहुंच रहा है, इसकी रत्तीभर चिन्ता उन्हें नहीं है। यह वृत्ति कई बार इंसान को जानवर से भी बदतर बना देती है। विवेकी मनुष्य के मन में होता है कि मुझे जिस तरह अनुकूलता पसंद है और प्रतिकूलता पसंद नहीं है, वैसे सभी जीवों को अनुकूलता अच्छी लगती है और प्रतिकूलता खराब लगती है। इसलिए मुझे ऐसा व्यवहार करना चाहिए जो किसी के लिए प्रतिकूल न हो और जिसके कारण किसी को अशान्ति न हो। ऐसी वृत्ति से आपको अवश्य ही शान्ति मिलेगी और धर्म आए बिना नहीं रहेगा, क्योंकि किसी की पसंद में बाधक न बनना हो तो मुझे कैसे जीना चाहिए’, यह भाव पैदा हुए बिना नहीं रहेगा और इससे आज जो मनुष्य, मनुष्य कोटि में आने लायक नहीं रहा है, वह सच्चा मनुष्य बन जाएगा।-सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 15 जून 2017

शान्ति दे, वह धर्म

धर्म की एक सर्वसाधारण व्याख्या है कि जो आत्मा की अशान्ति को हटाकर शान्ति प्रदान करे, उसे धर्म कहते हैं।जीवन में अशान्ति पैदा करने वाली परिस्थितियों के बावजूद जिसके कारण शान्ति का अनुभव किया जा सके और जिसके कारण क्रमशः सम्पूर्ण शान्ति बिना मांगे मिले, वही धर्म है। जीवन में शान्ति की कितनी जरूरत है और यह कितनी कीमती है, इसका पता वास्तव में तब चलता है, जब अशान्ति के समय आदमी को रास्ता नहीं सूझता है। जीवन में कुछ ऐसे प्रसंग, कुछ ऐसे संयोग उपस्थित होते हैं कि आदमी अपनी सुध-बुध खो बैठता है, मन पर काबू खो बैठता है। उस समय उसकी बुद्धि काम नहीं करती। क्या करे, क्या न करे, यह समझ में नहीं आता और उसे अशान्ति की आग घेर लेती है। ऐसे समय में कितना भी धृष्ट आदमी क्यों न हो, उसे शान्ति का महत्त्व ज्ञात हो ही जाता है। इसी शान्ति को जो प्राप्त कराए और अशान्ति को दूर करे, वह धर्म है। जो शान्ति से जीने दे और शान्ति से मरने दे, वह धर्म है। इतना होने पर भी दुःख की बात यह है कि इस आर्य देश में जन्म पाए मनुष्य ऐसी चीजों में उलझ गए हैं कि उन्हें इतने महत्त्व की बात पर सोचने-विचारने की मानो फुरसत ही नहीं हो। वास्तव में शान्ति और अशान्ति देने वाले कारणों पर तात्त्विक विचारों के आदान-प्रदान की प्रवृत्ति हमारे यहां लगभग बंद सी हो गई है।-सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 14 जून 2017

तप के बिना इंसान शैतान हो जाता है

अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म उत्कृष्ट मंगल है। जिन आत्माओं का अंतःकरण धर्म में सदा लीन रहता है, उन आत्माओं को देवता भी पूज्य मानते हैं।अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म की उत्कृष्ट आराधना करने की जो शक्ति मनुष्य में है, वह देवों में भी नहीं है। इसी कारण देव भव से मनुष्य भव को ऊंचा माना गया है। यह बात बराबर खयाल में आ जाए तो अपना अनुचित वर्तन अखरे बिना और जीवन सुधरे बिना नहीं रहेगा।

धर्म के तीन भेद अहिंसा, संयम और तप बतलाए हैं। उसमें सबसे पहले तप को समझना चाहिए। तप के साथ संयम आने लगता है और संयम आएगा तो अहिंसा भी अवश्य आएगी। इसलिए कह सकते हैं कि व्यक्ति जब तक तपस्वी नहीं बनता है अथवा तपस्वी बनने की इच्छा नहीं करता है, तब तक इंसान नहीं बनता है। सिर्फ भूखे-प्यासे रहना, उसी को तप नहीं कहा जाता है। ज्ञानियों ने इच्छा निरोध को तप कहा है। आज अनेक तपस्वियों को यह बात खयाल में नहीं है। सदाचार की नींव इच्छा-निरोध है। इच्छा निरोध का अभाव आदमी को शैतान भी बना दे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आज मनुष्य का व्यवहार-वर्तन कैसा है? हम सच्चे मनुष्य हैं या नहीं? इसका विवेक पूर्वक प्रतिदिन थोडा विचार किया जाए तो स्वयं को खयाल आ सकता है।-सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 13 जून 2017

पशुओं से अधिक हिंसक है स्वार्थी मनुष्य

आत्मा, पुण्य, पाप आदि का जिसे खयाल नहीं और जो संसार-सुख का तीव्र पिपासु है, ऐसा मनुष्य, जगत के लिए श्रापरूप न बने तो एक आश्चर्य ही होगा। विषय-कषाय में आनंद और अर्थ-काम के योग में सुख मानने वाले मनुष्य हिंसक पशुओं से भी ज्यादा खतरनाक हैं। स्वार्थी मनुष्य जितना उपद्रव मचाता है, उतना उपद्रव पशु भी नहीं मचाते हैं। संसार में आसक्त मनुष्य में दुनियावी पदार्थ पाने व उन पदार्थों के संग्रह-संरक्षण की जो भूख होती है, वैसी भूख और संग्रहवृत्ति पशुओं में भी नहीं होती है। मनुष्य योजनापूर्वक जो अमर्यादित हिंसा करता है, उतनी हिंसा पशु भी नहीं करता है। मनुष्य योजनापूर्वक पाप करता है और उन पापों को छिपाता है। कई ऐसे ठग होते हैं जो सरकार से भी पकडे नहीं जाते हैं और कदाचित् पकडे जाएं तो वकीलों द्वारा अपना बचाव कर लेते हैं। आज मनुष्य मात्र के सभी पाप प्रकट हो जाएं तो कानून के हिसाब से ही कितने लोग जेल से बाहर रहने योग्य निकलेंगे? ऐसे मनुष्यों को मानव कहें या राक्षस, यही विचारणीय है। जगत में ऐसे मनुष्य ज्यों-ज्यों बढते हैं, त्यों-त्यों उपद्रव भी बढते हैं, यह स्वाभाविक है।-सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 12 जून 2017

पुण्य-पाप ही साथ जाने वाले हैं

यह सत्य है कि जो जन्मे हैं उनका मरण निश्चित है। इच्छा या अनिच्छा से, मरे बिना चलता नहीं है। किन्तु, यह विचार करो कि मरता कौन है? आत्मा मरती नहीं है। आत्मा तो है और रहने वाली है। यहां से मरण के बाद सारा खेल समाप्त हो जाता होता तो ज्ञानियों ने धर्म का उपदेश न दिया होता। किन्तु, यहां से मरने के बाद खेल समाप्त नहीं होता है। यहां से मर कर जो आत्माएं मोक्ष में नहीं जाती है, उन समस्त आत्माओं के लिए यह नियम है कि यह शरीर छूटा और कृतकर्मानुसार निश्चित समय में नूतन शरीर का संबंध बन जाता है। मनुष्य मरता है, उसके साथ उसके पुण्य-पाप नहीं मरते हैं।

आप जानते हैं कि यह शरीर यहां रहेगा, किन्तु कार्मन और तेजस शरीर साथ में जाता है। मनुष्य यहां से मरता है, इसलिए पुण्य-पाप के योग से दूसरे स्थान पर निश्चित समय पर वह आत्मा नवीन शरीर धारण करता है। इससे यह स्पष्ट है कि पुण्य-पाप यह सभी आत्मा के साथ ही जाते हैं। इसीलिए बांधे हुए कर्म शान्ति पूर्वक भोगने के सिवाय या तप आदि से उन्हें खपाए बिना सुख के अर्थी को छुटकारा नहीं है। कर्म का संबंध छूटे नहीं, वहां तक मरण के पीछे जन्म निश्चित है। कर्म से छूटना और कर्म छूटने के योग से दुःख और जन्म से मुक्त होना ही सच्चे सुख का मार्ग है।-सूरिरामचन्द्र

रविवार, 11 जून 2017

मौत तो निश्चित है !

जिनका जन्म हुआ, उनका मरना निश्चित है। मरण के बाद जन्म नियम से होता ही हो, ऐसा नहीं है। जो-जो मरते हैं, वे-वे जन्म लेते हैं, ऐसा एकान्त नियम नहीं है। किन्तु जो-जो जन्मते हैं, वे मरण प्राप्त किए बिना नहीं ही रहते, यह तो निश्चित ही है। अनंतकाल में अनंत आत्माओं ने मरण के बाद वापस जन्म नहीं लिया, ऐसा हुआ है। किन्तु अनंतकाल में एक भी आत्मा ऐसा नहीं जन्मा कि जो वापस मरा नहीं हो। मृत्यु के साथ जन्म यह एकान्त नियम नहीं है, किन्तु जन्म के साथ मुत्यु यह एकान्त सत्य है। यहां से मरकर श्री सिद्धगति को प्राप्त आत्माएं यानी मोक्ष में जाने वाली आत्माएं पुनः जन्म नहीं लेतीं। जो जन्म लेगा, उसकी मृत्यु निश्चित है।
आप मरोगे या नहीं? आज जिस शरीर का आप संस्कार करते हैं, बारम्बार साफ किया करते हैं, जिसके ऊपर अत्यंत मोह रखते हैं, वह एक दिन अग्नि में भस्मीभूत हो जाएगा, ऐसा आपको लगता है? शरीर यहां रहेगा और आपको अपने कर्मों के साथ किसी अन्यत्र स्थान पर जाना पडेगा, ऐसा लगता है? आपका सर्वाधिक प्रिय स्नेही आपके शरीर को मोटी-मोटी लकड़ियों पर सज्जित करेगा, आपके शरीर पर बडे-बडे लकडे रखेगा और उसके बाद उसमें आग लगा देगा, इतना ही नहीं आपका शरीर जल्दी से जल्दी भस्मीभूत हो इसके लिए वह आग में घी और डालेगा, राल फेंकेगा ताकि जल्दी से जल्दी आग पकडे और दाह-संस्कार फटाफट हो, ऐसा आपको लगता है?
लोगों को मरते हुए या उनके शव के दाह संस्कार को तो आपने आपकी जिन्दगी में कई बार अवश्य देखा होगा। कभी आपको लगा कि एक दिन मेरे शरीर की भी यही हालत होनी है? किसी के अंतिम संस्कार के लिए, किसी को जलाने के लिए श्मशान गए हो, तब कभी आपको ऐसा लगा कि इस प्रकार से किसी दिन मेरे शरीर को भी स्नेहीगण, संबंधीगण, पडौसी आदि ले जाएंगे और मेरा खून ही मेरे शरीर को आग लगा देगा? धन-सम्पत्ति कुछ भी साथ नहीं लेजा सकोगे।

आपको यह निश्चित हो कि मेरा यह शरीर अमर रहने वाला है तो बोलो..! किन्तु भयंकर से भयंकर पापात्माएं भी अंतिम कोटि के नास्तिक होने पर भी यह बात तो अंत में जानते हैं कि एक दिन ऐसा अवश्य आएगा कि जिस दिन इस शरीर को कोई संग्रह करने वाला नहीं है। या तो जला देंगे या तो दफनाकर छोड देंगे। मानो कि अशुभ के योग से जो कोई ऐसे स्थान में मरे हों तो जंगल में पशु-पक्षी, चील-कौए उसका भक्षण करेंगे। समुद्र इत्यादि में फेंक देंगे, किन्तु शरीर के लिए ऐसा कुछ न कुछ होने वाला ही है, यह निश्चित बात है। तो फिर संसार में संसार को और बढाने की लालसा या हायतौबा क्यों, राग-द्वेष, छल-कपट किसके लिए....? -सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 10 जून 2017

अहंकार और चापलूसी डुबोने वाले हैं

वर्तमान मौजशोख के साधन व भौतिकता की चकाचौंध में ही जो स्वर्ग व मोक्ष की कल्पना करता हो, उसे तो धर्मशास्त्र भी सिर्फ बोझारूप लगेंगे। भावी जीवन को सुधारने और आत्महित की चिंता के प्रति जो बेपरवाह हैं, उन्हें अपने स्वयं के दोष सुनने की इच्छा भी नहीं होती है, फलस्वरूप शिष्ट पुरुषों का समागम और तत्त्वचिंतन आदि गुणों का आगमन बन्द हो जाता है और जीवन में अहंकार आ जाता है। ऐसे लोगों को फिर चापलूसी ही अच्छी लगती है, जो स्वयं भी डूबता है और दूसरे को भी डुबो देता है। चापलूसी तीन घोर घृणित दुर्गुणों का मिश्रण है- असत्य, दासत्व और विश्वासघात। आज अधिकांश लोगों को चापलूसी ही पसंद है, उनमें अपनी कमियां या क्षतियां सुनने की ताकत नहीं रही है, इस कारण कोई खरी-खरी कहे तो बुरा लगता है; परन्तु जब आत्मज्ञान होगा, तब अपनी भूल बताने वाले उपकारी लगेंगे।-सूरिरामचन्द्र

शुक्रवार, 9 जून 2017

मर्यादा का दिवाला निकल रहा है

मर्यादा रहेगी वहां तक धर्म रहेगा। महापुरुष भी किसी की निश्रा में रहते थे, उनकी आज्ञानुसार चलते थे। आज चारों ओर मर्यादा का दिवाला निकलता जा रहा है। कोई किसी की सुनने या मानने को तैयार नहीं। पुत्र माता-पिता की बात नहीं मानते और विद्यार्थी शिक्षक का उपहास करते हैं। आज युवकों की क्या दशा है, यह तो अखबार पढनेवाले आप लोगों को मालूम ही है, ये युवक अपने बाप के भी बाप बन गए हैं। और प्रोफेसर के भी प्रोफेसर बन गए हैं। कॉलेजों के संस्थापक कॉलेजों को कैसे चलावें, इस चिंता में हैं। दुनिया में पढे-लिखे गिने जानेवाले अपनी होंशियारी का उपयोग भी दुनिया को परेशान करने में और स्वयं का स्वार्थ साधने में कर रहे हैं।

आत्मा का ज्ञान हुए बिना, जितना अधिक पढा जाए उतना अधिक गंवारपन आता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण आज के कॉलेज हैं। आत्म-ज्ञान से रहित व्यक्तियों को ज्ञान देने का यह परिणाम है। आत्म-ज्ञान से, धर्म से जीवन में मर्यादा आती है और मर्यादा होने से घरों का संचालन भी ठीक तरह से होता है। मर्यादा से रहित घरों में हमेशा झगडे हुआ करते हैं। मिथ्याज्ञान पाकर आपके लडके आपके न रहें यह आप सहन कर सकते हैं, परन्तु सम्यग्ज्ञान से आपके लडके आपके न रहकर साधु बन जाएं तो यह आप सहन नहीं कर सकते। कैसी गजब की बात है? -सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 8 जून 2017

वृद्धाश्रम समाज के लिए शर्म की बात

आज आप लोगों के घरों में बुजुर्गों की स्थिति ऐसी हो गई है कि जो कमावे वह खावे और दूसरा मांगे तो मार खावे। ऐसी स्थिति हो जाने के कारण ही इस देश में वृद्धाश्रम या विधवाश्रम की बातें चलने लगी हैं। ऐसे आश्रम स्थापित हों, यह कोई गौरव की बात नहीं है; अपितु उन बुजुर्गों और विधवाओं के परिवारों के लिए तथा समाज और संस्कृति के लिए शर्म की बात है।

आपसे मेरा पहला प्रश्न यह है कि आपका राग आपके माता-पिता पर अधिक है या पत्नी-बच्चों पर अधिक है? भगवान पर राग होने का दावा करने वाले को मेरा यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। योग की भूमिका में माता-पिता की पूजा लिखी है, पत्नी-बच्चों की नहीं। मुझे तो ऐसा महसूस होता है कि आज के लोगों को कम से कम कीमत की कोई चीज लगती हो तो वह उसके मां-बाप हैं।-सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 7 जून 2017

जंगली जमाना

देश बरबाद हो रहा है। मनुष्य, मनुष्य नहीं रहा। मनुष्य के अतिरिक्त अन्य जीवों को तो मानो जीने का अधिकार ही नहीं, ऐसी हवा फैलगई है। वर्तमान युग, हिंसक युग है। जिस युग को आप अच्छा मानते हैं, वह घोर घातकी युग है। लाखों जीव काटे जाते हैं; वह भी कानून का ठप्पा लगाकर। आप इस हिंसा को रोक भी नहीं सकते। यदि रोकने का प्रयत्न करो तो देशप्रेमीन गिनाओ। आज मनुष्य, मनुष्य से घबराकर चलता है। जानवर से तो थोडी दूरी पर रहे तो निर्भय, परन्तु मनुष्य तो पीछे पडजाता है। अतः उससे डरकर रहना पडता है। ऐसा यह युग है। कैसा विचित्र है यह युग !! इतनी अधिक अधोगति हो रही है, तथापि प्रगति हो रही हैऐसा बोलने वालों को लज्जा तक नहीं आती। यह अचरज की बात नहीं है? ऐसा जंगली जमाना तो कभी नहीं रहा होगा।

आजकल एकता की बातों के नाम पर ही एकता के टुकडे हो रहे हैं। धर्म के नाम पर जाति के नाम पर राजनीति हो रही है। भूतकाल में जो एकता थी, वह आज देखने को नहीं मिलती। अमेरिका का अनाज यहां आता है, परन्तु यहां के एक प्रांत का अनाज दूसरे प्रांत के काम नहीं आता। विदेशी भी अनाज देकर कोई उपकार नहीं करते! वे अपना कचरा यहां सरका देते हैं और यहां की अच्छी चीज वहां जाती है। कैसी विरोधाभासी और विनाशक नीतियां है और कहते हैं कि प्रगति हो रही है। यह कितने शर्म की बात है! आज देश का उद्धार नहीं, अधःपतन हो रहा है। शक्ति बढने के साथ आपके घरों में मौज-शौक के साधन तो बढते ही जाते हैं, परन्तु धर्म के साधन बढते हुए कहीं नजर नहीं आते हैं।-सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 6 जून 2017

तृष्णा का आतंक

मन की तृष्णा ने आज कितना भयानक आतंक फैलाया है? पिता-पुत्र, पति-पत्नी, बडा भाई, छोटा भाई, सास-बहू इन सब लोगों के बीच का व्यवहार देखो। जरा सोचो तो सही एक दूसरे के लिए कितनी ईर्ष्या, द्वेष-भावना दिल में भरी हुई है? मन की तृष्णा बढी है। पर-वस्तुओं को प्राप्त करने की व भोगने की लालसा बढी है और त्याग-भावना नष्टप्रायः हो गई है। इसके परिणामस्वरूप आज के संसार में भयानक भगदड और भागदौड मच रही है। लोग भौतिकता की चकाचौंध में अंधे हो गए हैं। जब तक मन की भयानक भूख नहीं मिटेगी और त्याग की भावना पैदा नहीं होगी, तब तक ऐसी भगदड और भागदौड मची रहेगी, इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है। इस तरह विचार किया जाए तो अवश्य समझ में आएगा कि मन की भौतिक भूख ही सारे विनाश का कारण है। संसार के प्रति अरुचि न हो तो, धर्म किस काम का? अधिक प्राप्त करने के लिए धर्म किया जाता हो तो वह धर्म, धर्म रहता ही नहीं, धंधा हो जाता है, बिना पैसे के धंधे जैसा। आज आपको साधुओं की आवश्यकता क्यों है? बहराने के लिए? इनके पगल्ये हों तो घर में लक्ष्मी के पगल्ये हो जाएं इसलिए? या धर्म करने हेतु शास्त्र की विधि का ज्ञान आवश्यक है इसलिए?

पूर्व के कई जन्मों के असीम पुण्योदय से यह मानव जीवन मिला, आर्य संस्कृति और उच्च कुल मिला, धर्म गुरुओं का सान्निध्य और धर्म श्रवण का लाभ मिला, वैभव मिला। पूर्व संचित पुण्य से जो कुछ मिला उसे भोग कर नष्ट कर रहे हो और पुराना पुण्य का खाता बन्द कर रहे हो और भौतिक संसारी सुख में बेभान होकर नया पाप का खाता चालू कर रहे हो तो आगे क्या बनोगे- कीडे मकोडे, सांप-बिच्छू? अरे कुछ तो समझो!-सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 5 जून 2017

धर्म संघ के लिए पांच बातें

जो अर्थ-काम को हेय माने, धर्म-मोक्ष को उपादेय माने, वही संघ में गिना जाए। संघ छोटा हो तो हर्ज नहीं, लेकिन वह भगवान की आज्ञा मानने वाला हो।
धर्म संघ के चारित्र का मूलाधार तादात्म्य तथा प्रेम है। यह मेरा संघ है, मैं इसका अंश हूं, इसकी भलाई में ही मेरी भलाई है; यह भाव जब उत्पन्न होता है, तब संघ-चरित्र का निर्माण होता है। मेरे कार्य से संघ को भले ही लाभ न हो, कम से कम हानि तो न हो; यह भाव उत्पन्न होने पर संघ का चारित्र प्रकट होता है। जब यह विचार जाग्रत होता है और अहो रात्र संघ का चिन्तन होता है, संघ को उठाने का, संघ-समाज को सुखी करने का, संघ के प्रत्येक व्यक्ति के प्रति कर्त्तव्य पूर्ति का विचार होता है, मैं रहूं या न रहूं, उससे क्या; संघ रहना चाहिए, यह सोच बनना चाहिए।
चरित्र या स्नेह का आधार एकात्मता है। जो इस एकात्मता को पहचानेगा, वही स्नेह कर सकेगा, वही असुखी होते हुए भी प्रेम करेगा। अतः केवल चारित्र्य का आग्रह करने से चारित्र्य निर्माण नहीं होगा, उसके लिए ठोस आधार लेना पडेगा। प्राचीन काल से चला आनेवाला हमारा संस्काररूप जीवन, जिसे संस्कृति कहते हैं, वही सामान्य अधिष्ठान है। उसके जागरण से ही एकात्मता संभव है। प्रत्येक व्यक्ति एकात्मता का व्यक्त रूप है, यह समझ कर समाज की सेवा करना ही धर्म है। जैसे जीवाणु शरीर की सेवा करते हैं, कोई भी आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करता; वैसे ही समाज को एकात्मस्वरूप जानकर (केवल मानकर नहीं) जीवन को समष्टिरूप समाज की सेवा में लगा देना ही जीवन का साफल्य है। एकात्मता का भाव ही समाज को सुसंगठित रूप दे सकेगा।
शारीरिक शक्ति आवश्यक है, किन्तु चरित्र उससे भी अधिक महत्व का है। बिना चरित्र के केवल शारीरिक शक्ति मनुष्य को पशु बना देगी। चरित्र की शुद्धता ही वैभव एवं महानता की जीवन-प्राण होती है।
यदि महान जागतिक लक्ष्य में हम सफलता प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें प्रथमतः अपना उदाहरण प्रस्तुत करना होगा। हमें वादों की मानसिक श्रृंखलाओं और आधुनिक जीवन के व्यवहारों तथा अस्थिर फैशनों से मुक्ति कर लेनी होगी। परानुकरण से बढकर संघ की अन्य कोई अवमानना नहीं हो सकती। हम स्मरण रखें कि अन्धानुकरण का अर्थ प्रगति नहीं, वह तो आत्मिक पराधीनता की ओर ले जाता है।

समाज इसे समझे और वैश्विक आवश्यकताओं पर खरा उतरे। आज चहूं ओर जो घोर निराशा व भय का वातावरण है, उसमें धर्म-संघ के सिद्धान्त ही आशा की एक किरण हैं।-सूरिरामचन्द्र