बुधवार, 31 मई 2017

मनुष्यता की नीलामी

अज्ञानी (भोले) व्यक्ति का अनुचित लाभ, आप तो नहीं उठाते हैं न? आपका जिसके साथ लेन-देन हो, वह यदि अज्ञानी हो तो आप क्या करेंगे, क्या सोचेंगे? अच्छा मौका मिला, ऐसा तो आपको नहीं लगता है न? जो अपने भरोसे रहे, उसे कैसे ठगा जाए? जिसने हम पर भरोसा किया, उसने हमें अच्छा व्यक्ति माना है न? अच्छे व्यक्ति के रूप में उसने हमें मान दिया है न? भले ही हम अच्छे न हों, फिर भी जिसने हमें अच्छा माना, उसके प्रति तो हमें बुरा नहीं बनना चाहिए न?
जैसे क्षत्रिय लडते तो थे, परन्तु लडने के लिए आए हुए के साथ लडते थे। बिना कारण लडाई नहीं करते थे और यदि सामने वाले के पास हथियार न हो, तो उसे स्वयं हथियार देने के बाद लडते थे। इसमें भी नीति का पालन करते थे। शस्त्र-रहित के सामने शस्त्र लेकर नहीं लडते थे। वैसे ही आप व्यापार तो करते हैं, परन्तु व्यापार में नीति का पालन करते हैं या नहीं? आप पर कोई विश्वास करे तो उसके विश्वास का अनुचित लाभ तो आप नहीं उठाते हैं न? विश्वास रखकर आपकी पेढी पर आने वाले के साथ आप खोटा माप-तौल तो नहीं करते हैं न? शुद्ध वस्तु लेने आए हुए को मिलावटी वस्तु तो नहीं देते हैं न? किसी की अमानत में खयानत तो नहीं करते हैं न?

आज हालात ऐसे हो गए हैं कि विश्वास रखने वाला सरलता से ठगा जाता है। यह तो मनुष्यता की भी नीलामी है। विश्वासी की गरदन मरोडे वह शूरवीर तो है ही नहीं, परन्तु मानव भी नहीं हो सकता। ऐसे लोग निश्चित ही मानव के वेश में दानव ही हैं। मानवता की जब सचमुच कमी हो जाती है, तब धर्म बहुत दुर्बल बन जाता है, यह कोई नई बात नहीं है। आज समाज की ऐसी ही दशा बनती जा रही है। ऐसी दशा में जो आनन्द मानते हैं, वे कदाचित् दानादि भी करते हों, तो भी वह दानादि वे लोग धर्म के लिए ही करते हैं, ऐसा कैसे माना जाए? विश्वासी की गर्दन मरोडने वाले मन्दिर-उपाश्रय में भी जाएं या धर्म का चोला पहिन लें तो भी उसका आध्यात्म की दृष्टि से कोई अर्थ नहीं, वह स्वयं (की आत्मा) को और अन्यों को धोखा देने का काम ही करते हैं, उन्हें किसी भी रीति से धार्मिक कहा ही नहीं जा सकता है, वे पाखण्डी ही हैं। ऐसे ही मिथ्यात्वी, मानवता के दुश्मनों की वजह से आज धर्म कमजोर हो रहा है। आपको भाग्य के योग से सामग्री तो बहुत अच्छी मिल गई है, परन्तु इस सामग्री को आप पहचान सके हैं या नहीं? और इस सामग्री से जो लाभ उठाया जा सकता है, वह उठाने की आपकी भावना है या नहीं? बहुत से तो अज्ञानी हैं और जो शिक्षित हैं, उनमें बहुत सारे संसार-सुख के रस में क्षुब्ध हैं। ऐसों को चाहे जितने अच्छे भगवान मिल जाएं, वे भगवान से किस बात की आशा करेंगे? वे भगवान से तुच्छ सांसारिक सुख ही मांगेंगे न?-सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 30 मई 2017

नेकी कर दरिया में डाल

किसी से तुलना करना और किसी से अपेक्षा करना, अपने मन में दुःख और क्लेश उत्पन्न करना है।व्यक्ति की यह सामान्य प्रवृत्ति है कि वह जब किसी के लिए कोई कार्य या भलाई करता है तो उससे अपेक्षा करने लगता है कि बदले में वह भी उसके लिए कुछ करे और जब उसकी यह अपेक्षा पूरी नहीं होती है तो वह दुःखी होने लगता है। किसी ने अपने पुत्र के लिए अपना जीवन दांव पर लगा दिया, लेकिन बुढापे में वह उसकी लाठी नहीं बना। पत्नी के लिए सुख-सुविधा के तमाम साधन जुटाए, लेकिन उसने साथ नहीं दिया। मित्रों के लिए बहुत कुछ किया, लेकिन जब जरूरत पडी तो सबने दगा दे दिया।
इस तरह की तमाम बातें व्यक्ति के साथ होती रहती हैं और वह दूसरे लोगों और नाते-रिश्तेदारों से अपनी अपेक्षाएं पूरी नहीं होने पर दुःखी होता रहता है, लेकिन वह आगमों में मौजूद जिनेश्वर देवों के वचनों, कथा साहित्य आदि के रूप में पूर्वजों के ज्ञान की थाती का अवलोकन करे तो उसे जीवन का मर्म समझाने और दिशा देनेवाले ऐसे बहुत से उदाहरण, ऐतिहासिक चरित्र, धर्म कथाएं, अमूल्य नीतिवचन और सूत्रवाक्य मिल सकते हैं, जिनसे उसका मार्गदर्शन हो सकता है, प्रेरणा मिल सकती है।
एक कहावत है नेकी कर दरिया में डाल।यानी भलाई करो और इस बात की बिल्कुल अपेक्षा मत करो कि सामने वाला उसके बदले में तुम्हें भी कुछ देगा। इस बात को जिस भी व्यक्ति ने अपने जीवन में उतार लिया, तय मानिए कि सुख उससे अधिक दूर नहीं है।
हालांकि यह आसान नहीं है कि किसी की मदद करो, सेवा करो और वह दगा दे जाए तो भी उसे विराट मन से क्षमा कर दो, लेकिन यह लाख टके की बात है कि मदद करने के बाद उसे भूलने की आदत जितनी विकसित होती जाएगी, मनुष्य उतना ही सुखी रहेगा।

व्यक्ति को कोशिश करनी चाहिए कि पुष्प की तरह सुगंध बांटना ही उसका धर्म बने और इसके बदले उसके मन में कोई अपेक्षा न हो। जीवन को सरल एवं तनाव रहित बनाना चाहते हैं तो दो चीजों से बचें- दूसरों से तुलना करना और दूसरों से अपेक्षा करना। इस जगत में यदि आपने नेकी कर दरिया में डालका सही मर्म समझ लिया तो संसार रूपी भवसागर को पार करने में बहुत आसानी होगी। इसी प्रकार दूसरों से कभी तुलना न करें। अमुक के पास यह है और मेरे पास यह नहीं। इस प्रकार का भाव मन में आ गया तो आपका चैन चला जाएगा, जीवन बेचैन हो जाएगा, मन अशान्त हो जाएगा। मन में हमेशा प्रशस्त भाव रखें, अपनी कमियों और कमजोरियों को देखें और उन्हें दूर करने का प्रयास करें।-सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 29 मई 2017

धैर्य और संयम सफलता की सीढी

जब मन इन्द्रियों के वशीभूत होता है, तब संयम की लक्ष्मण रेखा लाँघे जाने का खतरा बन जाता है, भावनाएँ बेकाबू हो जाती हैं, असंयम से मानसिक संतुलन बिगड जाता है, इंसान असंवेदनशील हो जाता है, मर्यादाएँ भंग हो जाती हैं। इन सबके लिए मनुष्य की भोगवृत्ति जिम्मेदार है। भौतिक सुख-सुविधाएँ, जबर महत्वाकांक्षाएँ, तेजी से सब कुछ पाने की चाहत मन को असंयमित कर देती है, जिसके कारण मन में तनाव, अवसाद, संवेदनहीनता, दानवी प्रवृत्ति उपजती है; फलस्वरूप हिंसा, भ्रष्टाचार, अत्याचार, उत्पीडन, घूसखोरी, नशे की लत जैसे परिणाम सामने आते हैं। काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या असंयम के जनक हैं व संयम के परम शत्रु हैं। इसी तरह नकारात्मक प्रतिस्पर्धा आग में घी का काम करती है।
असल में सारे गुणों की डोर संयम से बँधी होती है। जब यह डोर टूटती है तो सारे गुण पतंग की भाँति हिचकोले खाते हुए व्यक्तित्व से गुम होते प्रतीत होते हैं। चंद लम्हों के लिए असंयमित मन कभी भी ऐसे दुष्कर्म को अंजाम देता है कि पूर्व में किए सारे सद्कर्म उसकी बलि चढ जाते हैं। असंयम अनैतिकता का पाठ पढाता है। अपराध की ओर बढते कदम असंयम का नतीजा हैं। इन्द्रियों को वश में रखना, भावनाओं पर काबू पाना संयम को परिभाषित करता है। इंसान को इंसान बनाए रखने में यह मुख्य भूमिका अदा करता है। विवेक, सहनशीलता, सद्विचार, संवेदनशीलता, अनुशासन, संतोष संयम के आधार स्तम्भ हैं। धैर्य और संयम सफलता की पहली सीढी हैं। अच्छे संस्कार, शिक्षा, सत्संग आदि से विवेक को बल मिलता है। मेहनत, सेवाभाव, सादगी से सहनशीलता बढती है। चिंतन, मंथन, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त आदि से विचारों का शुद्धिकरण होता है। पभु की प्रार्थना, भक्ति से मनुष्य संवेदनशील होता है। दृढ निश्चय से जिंदगी अनुशासित होती है। यह सब मिलकर इंसान को संयमशील बनाते हैं, यही अध्यात्म है।

अध्यात्म वह यज्ञ है, जिसमें सारे दुर्गणों की आहुति दी जा सकती है एवं गुणों को सोने-सा निखारा जा सकता है। सोने में निखार के लिए उसे अग्नि में तपाया जाता है, आग में तपकर वह कुंदन बन जाता है, उसी प्रकार जीवन (आत्मा) में निखार के लिए संयम का मार्ग है। संयम की तपिश में दुर्गुण जल कर नष्ट हो जाते हैं। आधुनिक दौर में संयम-पालन सहज नहीं है, लेकिन नामुमकिन भी नहीं है। जिन लोगों के लिए भोग से योग की ओर लौटना मुश्किल है, वे दोनों में संतुलन बनाकर तो रख ही सकते हैं। आज जीवनशैली व दिनचर्या में बदलाव की दरकार है। यदि हम इस विनाशक विकास, भौतिकता की चकाचौंध में धर्म को अपने साथ नहीं रख पाए तो पतन निश्चित है। मनुष्य में देव और दानव दोनों बसते हैं, हम भले ही देव न बन पाएँ, लेकिन दानव बनने से तो हमें बचना ही चाहिए।-सूरिरामचन्द्र

रविवार, 28 मई 2017

सांसारिक सुख की भावना से धर्म न करें

इस संसार में पुरुषार्थ चार हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इन चार पुरुषार्थों में सबसे पहला स्थान धर्म का है। धर्म से ही अर्थ, काम या मोक्ष की प्राप्ति होती है। यों करने जैसा पुरुषार्थ एक ही है, धर्म। सवाल यह है कि आप धर्म किस अपेक्षा से कर रहे हैं? अर्थ की प्राप्ति के लिए, काम की प्राप्ति के लिए या मोक्ष प्राप्ति के लिए?
कदाचित आप धर्म नहीं कर रहे हैं, तब आपको जो अर्थ और काम की शक्ति प्राप्त है, वह पूर्व जन्मों के अर्जित पुण्य के फलस्वरूप है और उसी अर्थ व काम को बढाने के लिए ही पुरुषार्थ है तो उसकी प्राप्ति की सीमा वहीं तक है, जहां तक आपका पूर्व कृत पुण्य शेष है, जिस दिन आपका पुण्य का खाता पूरा हो गया, सारा खेल खत्म और फिर महादुःख का प्रारम्भ तय है। लेकिन, यदि आप धर्म भी साथ-साथ कर रहे हैं, तब यह सवाल खडा होगा कि यह धर्म आप किस अपेक्षा से कर रहे हैं? अर्थ, काम, मोक्ष की अपेक्षा से अथवा निर्पेक्ष भाव से?
यहां शास्त्रकार कहते हैं कि अर्थ, काम आदि लौकिक सुखों की प्राप्ति के लिए या देवगति और स्वर्गीय सुख प्राप्ति की कामना से किए गए धर्म से भी पुण्य तो अर्जित होता है, लेकिन यह पुण्य पापानुबंधी पुण्य है। इस पापानुबंधी पुण्य से कदाचित् आपको अर्थ, काम या देवगति तो प्राप्त हो जाएंगे, लेकिन जुगनू की चमक की तरह। पहले चमक और फिर अंधेरा ही अंधेरा। पहले सुखाभास और फिर महादुःख! यह विष मिश्रित दूध की तरह है, जिसमें मिश्री और बादाम आदि हैं और पीने में स्वादिष्ट लगता है, किन्तु विष का प्रभाव होते ही महावेदना और मौत होती है।
अर्थ-काम अनर्थकारी हैं, अर्थ-काम के लिए धर्म नहीं होता, धर्म तो मोक्ष का साधन है। सच्चा साध्य केवल मोक्ष है। मोक्ष की भावना से या निराशंस भाव से धर्म करने का ही ज्ञानी विधान करते हैं। पढ-लिख कर पोपट बनना भिन्न बात है और उसके भीतर के गूढ रहस्य को समझने की शक्ति आना भिन्न बात है।
जिस धर्म को करने से अक्षयसुख, अक्षयशान्ति और अक्षयआनंद की प्राप्ति संभव है, उसी धर्म से तुच्छ संसारी वैभव की कामना करना तो हीन मनोवृत्ति ही है। मोक्ष हेतु निराशंस-भाव से किए गए धर्म के योग से पुण्यानुबंधी पुण्य होता है और इसके प्रभाव से मोक्ष प्राप्ति के पूर्व उत्तम प्रकार की सामग्री तो वैसे ही प्राप्त हो जाए, यह बात भिन्न है। लेकिन, मोक्ष प्राप्ति की लालसा वाला आत्मा ऐसी भौतिक सुख-सामग्री में रमता नहीं है।

संसार में सर्वोत्तम प्रकार की विषय-सामग्री धर्मात्मा व्यक्ति को ही प्राप्त होती है, परन्तु इस बात का रहस्य समझने के लिए आत्मा में विवेक चाहिए।-सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 27 मई 2017

शिक्षक विशिष्ट मजदूर बन गया है!

भाषा, व्याकरण और गणित सिखाना, यह वस्तुतः विद्यादान है ही नहीं। यह तो विद्या प्राप्त करने के साधन मात्र हैं। भाषाज्ञान आदि से लिखना-पढना सीख लेने के बाद आखिर करना क्या है? हमारे पूर्वजों ने जो कुछ भी लिखा है, उसका अभ्यास करने की क्षमता सिद्ध करनी है। उन ग्रंथों के रहस्यों को सोचने-समझने की विचार-शक्ति अर्जित करनी है।
दरअसल शिक्षक का वास्तविक कार्य तो यह है कि यह भाषा आदि सब सिखाने के साथ बालक को समझदार बनाए और उसमें ऐसी क्षमता विकसित करे कि वह अपने आप संस्कारी बने। माता-पिता ने यदि योग्य संस्कारों का सिंचन किया होता तो शिक्षक का आधा कार्य पूर्ण हो गया होता। फिर शिक्षक को केवल माता-पिता द्वारा प्रदत्त संस्कारों को विकसित करने की ही जिम्मेदारी रहती।
भाषाज्ञान सिखाना यह वस्तुतः ज्ञान-दान नहीं, अपितु ज्ञान के साधन का दान है। सद्गुण प्राप्ति का और अवगुण त्याग का शिक्षण, यही शिक्षा का साध्य है। परन्तु, आज तो प्रायः जैसी माता-पिता की हालत है, वैसी शिक्षक की भी हालत है। सच्चा शिक्षक मात्र किताबी ज्ञान तक ही सीमित नहीं होता। सच्चा शिक्षक तो विद्यार्थी में सुसंस्कारों का सिंचन करता है। मात्र किताबी ज्ञान तक सीमित रहने वाला और विद्यार्थियों के सुसंस्कारों का लक्ष्य नहीं रखने वाला शिक्षक, शिक्षक नहीं, अपितु एक विशिष्ट मजदूर मात्र है।
यदि यहां मेरी दृष्टि के समक्ष मात्र कॉलेज के प्रोफेसर होते तो मैं यह नहीं कहता, क्योंकि कॉलेज में विद्यार्थी निर्मित होकर आता है। वहां विद्यार्थी यदि अच्छा हो और अध्ययन, अध्यापन रुचिकर हो तो वह आगे बढेगा ही। लेकिन, आज कॉलेजों में जाकर देखो तो आपको दिखेगा कि कक्षाओं में प्रोफेसर का मान-सम्मान ही बच नहीं पाता।
कितने तो कहते हैं कि हमारी इज्जत नहीं ले लेते वही उपकार है। क्लास चलते हैं, प्रोफेसर बोलते रहते हैं और विद्यार्थियों की मौजमस्ती भी चालू रहती है। आने वाले विद्यार्थियों को पूर्णतः सुसंस्कारित करने की जिम्मेदारी प्रोफेसर की है, ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वे तो स्कूल में निर्मित होकर कॉलेज में आए हैं। हालांकि आजकल के प्रोफेसर भी पैसा बनाने की तरफ ही ज्यादा ध्यान देते हैं, बच्चों में योग्यता विकसित करने की तरफ उनका ध्यान कम ही होता है, इसके लिए वे कई तरह के गलत हथकण्डे भी करते रहते हैं, यह उचित नहीं है।

हमारे सोच को और हमारी बेकार हो चुकी समग्र शिक्षा-व्यवस्था को आज बदलने की जरूरत है। सब अपना कर्तव्य पालन करें और आने वाले कल को सुसंस्कारी बनाएं, यही शुभेच्छा है।-सूरिरामचन्द्र

शुक्रवार, 26 मई 2017

व्यस्त रहता है स्वस्थ

एक बादशाह था। वह बडा ही दयालु और परोपकारी था। सभी का आदर करना और विनम्रतापूर्ण व्यवहार करना उसके स्वभाव का स्थायी अंग था। उसकी अपने राज्य के एक साधु के प्रति बडी श्रद्धा-भक्ति थी। वह साधु अपने शिष्यों के साथ राजधानी से दूर किसी दूसरे नगर में बिराजमान था। वहां कोई अच्छा इलाज करने वाला नहीं था।
एक दिन बादशाह ने सोचा कि यदि उन साधु के उपाश्रय में कोई बीमार हो जाए तो बडी परेशानी होगी, इसलिए उसने अपने शाही हकीम से कहा कि तुम उस नगर में जाकर रहो और यदि साधु या उनका कोई शिष्य बीमार पड जाए तो समय पर उनका उपचार करना। हकीम वहां पहुंच गया।
दिन पर दिन बीतते गए, किन्तु साधु के उपाश्रय से कोई भी हकीम के पास उपचार के लिए नहीं पहुंचा। हकीम खाली बैठे-बैठे परेशान हो गया। जब काफी वक्त गुजर गया, दिन-सप्ताह-महीने बीत गए तो वह साधु के पास गया। उसने देखा, यहां तो हर कोई शास्त्राभ्यास में और अपनी-अपनी क्रिया में व्यस्त है, सभी के आभामण्डल खिले हुए हैं और चेहरे तेजोमय हैं। वह पहले तो सहम गया, लेकिन फिर भी चूँकि राजा ने उसे उपचार के लिए भेजा था तो उसने साहस कर राजा के गुरु से पूछा- महाराज! मुझे बादशाह ने आपके शिष्यों का उपचार करने के लिए भेजा है, किन्तु इतने महीनों में कोई भी मेरे पास नहीं आया। इसका कारण क्या है?’
साधु ने जवाब दिया- हकीमजी! मेरे शिष्य दिन-रात अप्रमत्त भाव में शास्त्राभ्यास और स्वाध्याय में ही व्यस्त रहते हैं, उन्हें शास्त्रों के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं। उनकी आदत है कि जब तक उन्हें जोर की भूख नहीं लगती, वे खाना नहीं खाते। जब खाते हैं, तब थोडी भूख रहते खाना छोड देते हैं।
हकीम समझ गया कि ऐसी जगह रोग नहीं आ सकता। उसी समय उसने वह स्थान छोड दिया।
कथा का सार यह है कि स्वस्थ रहने के लिए यह जरूरी है कि व्यक्ति अपने लक्ष्य के प्रति पूरी तरह सर्वतोभावेन समर्पित रहे, दिन-रात उसका चिंतन आत्म-केंद्रित रहे। शास्त्राभ्यास और स्वाध्याय में मस्त और व्यस्त रहे, कम व सुपाच्य भोजन किया जाए। इससे इन्द्रिय निग्रह को बल मिलता है, जो स्वस्थ और सुखी जीवन के लिए आवश्यक है।

प्रमाद महारोग है। प्रमाद पांच हैं- मद्य, विषय, कषाय, विकथा और निद्रा। विषय और कषाय यह भी प्रमाद हैं। इस रूप में जो प्रमाद के अधीन रहता है, वह बीमार रहता है।-सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 25 मई 2017

वैराग्य क्या है ?

वैराग्य क्या है? संयम क्या है? वैराग्य किसे कहते हैं? संयम किसे कहते हैं? वैरागी या संयमी का आचार-विचार-व्यवहार कैसा होता है? किस प्रकार वह पौद्गलिक सुखों को दुःखरूप मानता है और पौद्गलिक दुःखों को सुखरूप मानकर उन्हें आनन्द पूर्वक सहन कर लेता है? वैरागी कितना फक्कड होता है, कितना मस्तमौला कि उसे लोकप्रवाह की कोई परवाह ही नहीं होती, वह तो अपनी ही धुन में अपनी ही आत्मा में रमण करने वाला होता है। उसे इस बात की कतई चिन्ता नहीं होती कि कौन बुरा मानेगा या कौन अच्छा मानेगा, वह तो निष्कपट भाव से, बिना किसी लाग-लपेट के, बिना किसी राग-द्वेष के जो सत्य होता है उसे कहने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करता। वह चौबीसों घण्टे आत्म-रमण में, आत्मा की शुद्धि कर उसे परिपुष्ट बनाने वाली क्रियाओं में ही व्यस्त रहता है। उसे न सुख-दुःख का भान होता है और न ही किसी शारीरिक बीमारी की चिन्ता-फिक्र होती है, भोजन मिला तो क्या और न मिला तो क्या, शरीर को जितनी आवश्यकता है, उससे कम खाना, बिना रसास्वाद के खाना और मस्त रहना, यही उसकी नियति है।
वैराग्य पर कई मनीषियों ने विचार किया है, मात्र विचार ही नहीं, उसे बडी गहराई और उदाहरणीय ढंग से अपने चरित्र में प्रतिबिम्बित किया है, जिया है, जी रहे हैं; इसलिए वैराग्य को किसी अकल्पनीय, अव्यावहारिक, स्वप्निल अथवा अनुपयोगी वृत्ति के रूप में नहीं देखा जा सकता। कुछ लोग जो वैराग्य के बुनियादी अर्थ को जानने का प्रयत्न नहीं करते, इसे जीवन और जगत को नकारने वाली अथवा पलायनवादी प्रवृत्ति के रूप में समझते-समझाते हैं। वस्तुतः वैराग्य जीवन की निषेधात्मक वृत्ति नहीं है। इसे उलट-पलट कर सब ओर से देखने पर इसकी प्रभावशाली रचनात्मकता स्पष्ट होने लगती है। वैराग्य को जब हम अनुराग या अतिरिक्त पाने की विरोधी वृत्ति के रूप में देखते हैं तो बात बिगडने लगती है। विरोध, चाहे वह जैसा हो बहुधा काम बिगाड देता है। भावना जगत में हमें विरोध की जगह संवेदना और सापेक्षता को देनी चाहिए तथा इसी नजरिए से देखना चाहिए कि वैराग्य का मूल संदर्भ क्या है? अंग्रेजी में एक शब्द है "डिटेचमेंट", जिसका सीधा अर्थ है निष्काम पार्थक्य। इस शब्द के माध्यम से हमें वैराग्य के अलग-अलग रंग देखने चाहिए।
वैराग्य एक बहुप्रयत्न शब्द है। वैराग्य-महल की बुनियादी ईंट निष्काम चित्त है। कामना-शून्य होना एक कठिन काम है। हर आदमी कामनाओं की एक हरीभरी फसल होता है। कोई काम न हो तो भी कामना तो करनी ही है। शेखचिल्ली के पास कोई साधन नहीं थे, किन्तु उसकी नगण्य कामना के एक बिन्दु में से कई सिन्धु जन्म लेने लगे। निष्कामता संयम की अनुपस्थिति में संभव नहीं है। संयमी हुए बिना निष्काम-चित्त होना करीब-करीब स्वप्न ही है। हम चाहें कि नींव के बिना कोई महल उठाए, तो वह स्वप्न ही होगा, महल नहीं, ठीक ऐसे ही संयम के बिना वैराग्य संभव नहीं है।
संयम का सीधा संबंध मन से है। मन पर इतना शासन या काबू हो कि मन चाहे समय पर उससे मन चाहा काम लिया जा सके। मन का साम्राज्य अनंत है, उसे पराजित करना और उस पर सत्ता कायम करना किसी राजनीतिक तकरीर की तरह आसान नहीं है। एक तो वह गंजे आदमी या वक्त की भांति बडी स्निग्ध युक्तियों की पकड से बाहर बना रहता है और कभी जाल में फंस भी गया तो उसके चूहे दोस्त उसे व्यूह से निकालने के लिए मुस्तैदी से तैनात रहते हैं, इसलिए वैराग्य प्राप्त करने के लिए पहला काम होगा मन पर कडा अंकुश। वह यदि दृढता से आदमी के आत्मानुशासन की पकड में आ गया तो फिर निष्काम और विरक्त होने में वक्त नहीं लगता।
भारतीय दर्शन में प्रवृत्ति और निवृत्ति शब्द बहुत चर्चित हैं। हम डूब जाएं और समझ बैठें कि हम उससे भिन्न नहीं हैं, तो यह प्रवृत्ति है। वस्तुतः प्रवृत्त होना शायद उतना घातक नहीं है, जितना प्रवृत्त होने के बाद अपनी मूल सत्ता और स्वरूप का भान न रखना और चित्त के ऐसे स्वामित्व से वंचित हो जाना कि "जब चाहा तब संलग्न और जब चाहा तब विलग्न"। इसे प्रवृत्ति सूचक निवृत्ति की संज्ञा दी जा सकती है। असल में प्रवृत्ति और निवृत्ति के बिना जीवन की व्यवस्था हो ही नहीं सकती। प्रतिक्षण हम किसी न किसी रूप में प्रवृत्त या निवृत्त होते ही हैं; किन्तु जब हम इतने स्वाधिकार सम्पन्न होते हैं कि जब चाहा तब प्रवृत्त और जब चाहा तब निवृत्त, तब हमारे उस कर्तव्य में एक ओज और आभा दिखलाई देती है। साधारण प्रवृत्ति के बारे में हम यहां विचार नहीं कर रहे हैं।
बहुत साधारण-सा सवाल है कि हम खाने के लिए जी रहे हैं या जीने के लिए खा रहे हैं? प्रवृत्ति और निवृत्ति, संयम और वैराग्य की समझ इस सवाल की गहराई में है, यदि इसका जवाब प्रतिपल हमारे मन, विचार और व्यवहार में रहे। एक और बात कि मैं शरीर से संचालित नहीं हूं, शरीर मुझसे संचालित है। मैं अपनी अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं को खुद-ब-खुद देखता हूं। शरीर मेरा दृष्टा और नियामक नहीं है। इसीलिए जब चाहता हूं तब और जितनी देर चाहता हूं, उतनी देर सो लेता हूं। मेरे हिसाब में दिन काम करने के लिए और रात सोने के लिए नहीं है। यह विभाजन साधारणतः ठीक हो सकता है, किन्तु इसे अंतिम हर्गिज नहीं मानना चाहिए। यदि यह अंतिम सत्य होता तो भगवान ऋषभदेव अपने एक हजार वर्ष के संयमी जीवन में कुल मिलाकर मात्र एक माह के समय जितनी निद्रा, वह भी टुकडों-टुकडों में; इसी प्रकार प्रभु महावीर साढे बारह वर्ष के अपने छद्मस्थकाल में सिर्फ एक अंतर्मुहूर्त (48 मिनिट और वह भी टुकडों-टुकडों में जैसे सामान्य रूप से झपकी लेते हैं वैसे) ही क्यों सोते? नींद प्रमाद है। शरीर को समय-असमय छूट देने से उसमें कुछ व्यसन पैदा हो जाते हैं। रात हुई नहीं कि पलकें झपकने लगती है। किन्तु, विरागी जब चाहता है तब सोता है और जब आवश्यक समझता है, जागता है। नींद उसकी चेरी है, वह नींद का गुलाम नहीं, वह विरागी की मालकिन नहीं। जीवन की ऐसी उपलब्धि वैराग्य का दर्पण है, वैराग्य की यह पहली शर्त है।
वैराग्य जीवन और जगत को झुठलाने का नाम नहीं है, वह इन्हें माँझने और इनके यथार्थ रूप को उघाडने की एक प्रक्रिया है। वैराग्य सम्पन्न व्यक्ति प्रवृत्ति में हर्ष और निवृत्ति में शोक नहीं देखते। उनका प्रसन्न और खिन्न होना किसी अन्य के हाथ में नहीं होता। उन्हें परिस्थितियां सम्पन्नता-विपन्नता और संयोग-वियोग में प्रसन्न या अप्रसन्न करने में समर्थ नहीं होती। सच्चा वैरागी झुंझलाना तक नहीं जानता; वह चित्तवृत्तियों के नियमन की कला भलीभाँति जानने लगता है।
वैराग्य से मिलता-जुलता एक शब्द है, ‘अनासक्ति। किसी परिस्थिति या जीवन-संदर्भ में लगाव का न होना अनासक्ति है। इसे योग का दर्जा दिया गया है। इसके लिए बडे अभ्यास की और एकाग्रचित्त होने की जरूरत है। आसक्त होना जितना आसान है, अनासक्त होना उतना ही मुश्किल। राग और आसक्ति लगभग समानार्थक हैं। अनासक्ति में भी मन पर नियमन अन्तर्निहित है। निष्पक्ष सोच-विचार की दृष्टि से अनासक्त होना आवश्यक है।

एक दूसरा शब्द है, "उदासीनता"। यह शब्द मन की खिन्नता, पलायनवृत्ति और जडता को व्यक्त करता है, वैराग्य इससे अलग है। निराशा इस शब्द में बैठी झांक रही है। उदासीन व्यक्ति घबराकर भागता है, उसने यह काम बहुत सोच-समझ कर नहीं किया। कई लोग उदासीनता को वैराग्य से जोड देते हैं, लेकिन यह वैराग्य पथ पर बढने का एक निमित्त कदाचित हो सकता है, सम्पूर्ण वैराग्य उसमें अंतर्निहित हर्गिज नहीं है। वैराग्य में साहस है, पराक्रम है।-सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 24 मई 2017

पुण्य से मिली लक्ष्मी का उपयोग किसमें?

आज श्रीमंत धर्म नहीं करते हैं। इसके भी अनेक कारण हैं। धर्म की भावना भी सुयोग्य आत्माओं में ही उत्पन्न होती है। समृद्धिमान जो सुज्ञपन से विचार करें तो धर्म की आवश्यकता समझ सकते हैं। श्रीमंतों को विचार करना चाहिए कि स्वयं समृद्धिमान क्यों? और दूसरे गरीब क्यों? पूर्व के पुण्य-पाप का यह प्रभाव है। लेकिन, श्रीमंतता में भान भुले हुए भविष्य का वास्तविक विचार नहीं कर सकते हैं।
समृद्धि का उपयोग करना आए तो मोक्षमार्ग की आराधना में सहायक बन सकते हैं और उपयोग करना नहीं आए, तो उसके मद में बेहोंश होकर देव-गुरु-धर्म के लिए जैसे-तैसे बोले। इन्द्रियों पर अंकुश नहीं रखा जाए तो यही श्रीमंतपना दुर्गति में ले जाने के कारणरूप बनता है।
आज के श्रीमंतों में बहुतायत करके लक्ष्मी को देव जैसी मानते हैं। लेकिन, विवेकवान लक्ष्मीवान् इसे खोटी मानते हैं, उपाधिरूप मानते हैं, तभी धर्म कर सकते हैं। यदि श्रीमंतों के हृदय में धर्म-भावना बस जाती तो वे स्वयं धर्म की उत्तम प्रकार से आराधना कर सकते थे और साथ ही साथ संख्याबद्ध गरीबों को भी धर्म के मार्ग से जोड सकते थे, यह स्पष्ट बात है। पर यह विचार किसको आए? पुण्यानुबंधी पुण्य हो तो ही प्रायः इस प्रकार के विचार आ सकते हैं।
याद रखो कि धर्मी कदापि दुःखी नहीं होता है। दुःख पाप से और सुख धर्म से, ऐसा तत्त्व ज्ञानी परमर्षियों ने कहा है। पूर्व भव की तपस्या के प्रभाव से विशल्या के स्नान-जल से भी जनता रोग-रहित हो जाती है। आज तो धर्म बराबर करे नहीं, अन्दर हृदय में जहर भरा हो और कहेंगे कि धर्म फलता नहीं।ऐसों को कहा जाए कि धर्म किया हो तो फलेगा न?’ व्यर्थ में धर्म को बदनाम न करो। धर्मी आत्मा तो दुःख में सुख का अनुभव कर सकती है। समभाव से दुःख को सहन करे, कर्म की दशा को समझे और धर्म करे, तो दुःख में भी सुख का स्वाद चख सकती है। धर्म की परिणति यह ऐसी वस्तु है।
राजा कुमारपाल की तरह धर्महीन दशा वाली चक्रवर्ती की अपेक्षा, धर्म वाली दरिद्र अवस्था भी मुझे प्राप्त हो जाए’, ऐसा कब बोला जाता है? तभी ऐसा हृदयपूर्वक बोला जा सकता है कि जब यह समझ पक्की बन जाए कि धर्म के बिना कल्याण नहीं। धर्महीन चक्रवर्तीता तो आत्मा का एकांत रूप से नाश करने वाली है।ऐसा हृदय में बराबर जच जाए। उसके बाद तो चक्रवर्ती की अपेक्षा भी उस दरिद्रता में आत्मा सच्चे सुख का अनुभव कर सकती है। यही धर्म का अनुपम प्रभाव है।

पूर्वकृत पुण्य से मिली लक्ष्मी से पाप करना या पुण्य को बढाना? यह आपके हाथ में है। विवेक पूर्वक आप इस पर विचार करें। आप इससे अपने लिए नरक के द्वार भी खोल सकते हैं और मोक्षमार्ग के द्वार भी खोल सकते हैं।-सूरिरामचन्द्र