रविवार, 30 अप्रैल 2017

चिन्ता और चिता

दुनिया में कहावत है कि चिन्ता चिता समान। चिता बाहर से सुलगाती है और चिन्ता अन्दर से सुलगाती है। चिता में सुलगते हुए को सब देख सकते हैं और चिन्ता में सुलगते हुए को कोई-कोई व्यक्ति ही देख पाता है। चिता जल्दी से सुलगाकर शरीर को राख कर देती है और चिन्ता कई दिनों तक, कई वर्षों तक जलाती, सताती रहती है। इस प्रकार चिता से भी चिन्ता अत्यधिक भयंकर है।
चिन्ता से घिरे हुए आदमी को खाना-पीना अच्छा नहीं लगता है। खाता अवश्य है, किन्तु उस खाने में उसे रस नहीं आता है। खाया न खाया ऐसा करके उठ जाता है। चाहे जैसा भी रसमय भोजन हो, मिठाइयों का थाल सामने रखा हो, भिन्न-भिन्न सब्जी, भिन्न-भिन्न चटनियां-नमकीन के साथ रखी हुई हो और रसोई गरमागरम हो, किन्तु चिन्ता से घिरे हुए आदमी को इसमें से कोई भी वस्तु आनन्द देने वाली नहीं लगती है। ग्रास मुंह में डालता जरूर है, किन्तु दिमाग पर दूसरी ही धुन चलती रहती है।
चिन्तातुर आदमी को निकट रहने वाले आज्ञाकारी और सदा अनुकूल व्यवहार करने वाले स्वजनों का मिलाप भी अच्छा नहीं लगता है। चिन्ता से घिरने के पूर्व जिनका मुखदर्शन मोह उपजाता था, जिनके पास बैठकर मधुर वार्तालाप करने में चाहे जितना भी समय लग जाए, वह समय आराम से गुजर जाता था, जिनका कुछ घण्टों का विरह भी सहन नहीं होता था और जिनके साथ आनन्द करता हुआ व्यक्ति सारी दुनिया को भूल जाता था; ऐसे ही स्वजनों का मिलन चिन्ता से घिरे आदमी को कंटक भरा लगने लगता है।
तुम्हे क्या चिन्ता है?’ उसको यदि कोई ऐसा पूछे तो भी उसे अच्छा नहीं लगता है। निकट के स्नेहियों पर भी बात-बात में गुस्सा आ जाता है, वह झुंझला उठता है, चिडचिडा हो जाता है, ऐसा क्यों होता है? एक मात्र चिन्ता से! जिस बात के कारण मन चिन्तातुर बना हो, उसके विचार दिन-रात आया करते हैं। नींद उड जाती है। चिन्ता जिस प्रकार बल का नाश करती है, उसी प्रकार निद्राहारिणी भी है।

ऐसी सांसारिक चिन्ता पतन की ओर ले जाती है, लेकिन यही चिन्ता आत्मा की हो तो? आत्म-चिन्ता साधना का प्रबल साधन है। आत्मचिन्ता विवेकशून्य नहीं होनी चाहिए। सांसारिक चिन्ता आदमी को पागल बना देती है, जबकि आत्मचिन्ता व्यक्ति को धीर, वीर और गंभीर बनाती है। सचमुच में सम्यक्त्व की प्राप्ति के योग से जिस आत्मा में सच्ची आत्मचिन्ता प्रकट हुई हो, उस आत्मा की विचारदशा ही बदल जाती है। आत्मचिन्ता उत्पन्न हो और उसमें त्वरा आए तो यह चिन्ता विरति के मार्ग पर ले जाती है और इसी से आत्मा के उत्साह में वृद्धि होती है। यही आत्मचिन्ता कर्मों को खपाती है, आत्मा को निर्मल बनाती है और मोक्ष की ओर गति करती है।-सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 29 अप्रैल 2017

पौद्गलिक संयोग ही दु:ख का कारण

मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के अनुज श्री भरत परिणामदर्शी थे। इसीलिए अथाह भोग सामग्री और सत्ता मिलने पर भी उसमें वे मूर्छित नहीं हुए और कब यह संसार छूटे, ऐसी भावना में रमण करते रहे। पुद्गल-योग से प्राप्त हुआ बडा से बडा सुख भी श्री भरत को दुःखरूप लगता था। कारण कि इस संसार के सुखों में लीन बना हुआ आत्मा ज्यों-ज्यों सुख भोगता जाता है, त्यों-त्यों भविष्य के लिए भयानक दुःखों को खरीदता जाता है, ऐसा श्री भरत जी समझते थे, क्योंकि वे परिणामदर्शी थे। आप भी ऐसे ही परिणामदर्शी बनेंगे तो आपको भी इस मनुष्यलोक के ही नहीं, देवलोक के भी सुख दुःखरूप लगे बिना नहीं रहेंगे।
दुनिया के दुःख नहीं चाहिए, यह बात सत्य है और सुख चाहिए, यह बात भी सत्य है। फिर भी दुनिया के जीव सुख की इच्छा से ऐसा प्रयत्न करते हैं कि जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें दुःखमय दशा प्राप्त हो जाती है। कारण कि उन्हें सच्चे सुख का ज्ञान ही नहीं है। उनको सच्चे सुख के उपाय की जानकारी ही नहीं है। दुःख के स्वरूप और दुःख के निदान की भी खबर नहीं है। सुख और दुःख दोनों का स्वरूप समझ लें और उसके निदान का खयाल आ जाए तो ज्ञानी कहते हैं कि आत्मा को ऐसा लगे कि संसार रूपी भट्टी में मैं सिका जा रहा हूं। उसको चैन नहीं पडेगा। दुनिया जिसको सुख मानकर पागल के समान जिसके पीछे दौड रही है, वह सुख उसको भयंकर लगता है। यह भौतिक सुख कैसे अनर्थों का सर्जक है, यह बात जिसे समझ में आ जाए, उसकी दिशा ही बदल जाएगी।
एक भी पौद्गलिक वस्तु के योग के बिना का जो सुख है, वही सच्चा सुख है। दुःखमात्र का मूल पुद्गल का योग है। जहां पुद्गल का योग नहीं, वहां दुःख का नाम नहीं और सुख की कमी नहीं। आज तो बहुत लोगों को घबराहट यह होती है कि कोई भी पुद्गल वस्तु के योग के बिना सुख होता ही कैसे है?’ यह आकुलता, यही मिथ्यात्व है। जिसका मिथ्यात्व जाता है, उसकी घबराहट स्वतः चली जाती है।

बुद्धिपूर्वक विचार करें तो इस विचक्षणता को समझा जा सकता है। दुनिया को पौद्गलिक वस्तुओं का वियोग होता है तो दुःख होता है न? वियोग का दुःख क्यों? संयोग में सुख माना इसीलिए न? संयोग ही न होता तो वियोग कैसे होता? कितनी ही बार पौद्गलिक वस्तुओं का वियोग दुःख उत्पन्न करता है तो कितनी ही बार पौद्गलिक वस्तुओं का संयोग दुःख उत्पन्न करता है। मनपसंद चला जाए तो भी दुःख और मनपसंद मिले तो भी दुःख। इसलिए वस्तुतः सुख पौद्गलिक वस्तुओं के न वियोग में है और न संयोग में। पौद्गलिक वस्तुओं का स्वभाव स्थिर रहने का नहीं है। सडन, गलन, पतन पुद्गल का स्वभाव है, इसलिए इसके योग में सुख की कल्पना, यही दुःख की जड है। आत्मा इसी में लीन रहने के कारण दुर्गति में डूब जाती है। जो वस्तु दुःख की हेतुभूत होती है, उसको सुखरूप मानना मूर्खता है।-सूरिरामचन्द्र

शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

धर्महीन मनुष्य सबसे ज्यादा क्रूर

धर्म इतना मूल्यवान है कि उसकी जरूरत सिर्फ किसी समय विशेष के लिए ही नहीं होती, अपितु सदा-सर्वदा के लिए होती है। यदि इस जीवन में धर्म नहीं होगा तो यह जीवन इतना व्यर्थ, तुच्छ और कष्टकारक होगा कि जिसका कोई जोड न हो। ऐसे आदमी इस दुनिया में बहुत आतंक मचाने वाले सिद्ध होते हैं। हर समय धर्महीन मनुष्य दुनिया में हिंसक से हिंसक पशु से भी अधिक खतरनाक साबित हुए हैं। इतिहास कभी नहीं लिखता कि किसी भी पशु ने देश के देश तबाह कर दिए, लेकिन मनुष्य ने अपनी पापवृत्ति के आधीन होकर कई देशों को नष्ट कर दिया है, यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है। आप कह सकते हैं कि यह तो राजाओं का काम है, लेकिन ऐसा नहीं है। धर्म विहीन सभी आत्माएं ऐसा ही करती है।
आप कौन हैं और आपके पास क्या है, इसे भूलकर यदि आप अपनी मनोवृत्ति की गहराई में जाकर वस्तुस्थिति को सही-सही रूप में जाँचेंगे तो आपको पता चलेगा। आप में शक्ति न हो, संयोग न हो, साधन का अभाव हो, तो आपसे ऐसे पाप न हों, यह बात अलग है। लेकिन, आप स्वयं ही उस परिस्थिति में हों तो क्या करोगे, इसे आप अपने हृदय की गहराई में छिपी वृत्ति के आधार पर जाँचिए। जब आपके पास शक्ति, सामग्री, संयोगादि उपलब्ध हों, तब परीक्षा होती है। अत्यंत दरिद्र कहे कि मैंने दिवाला नहीं निकाला’, तो इस बात का कोई मतलब नहीं है। शायद वह ऐसा भी कहे कि मैंने किसी का पैसा घर में छुपाया नहीं है’, तो आप उसकी हंसी उडाते हुए कहोगे कि तुझे पैसा देगा कौन? तुझे तो कोई कर्ज देने वाला होगा ही नहीं, क्योंकि कर्ज देने वाला देखकर देता है कि मेरा पैसा वापस चुकाने की उसकी सामर्थ्य है या नहीं?’ इसलिए यह कोई बडाई की बात नहीं है।

जब भी साधन-सम्पन्न आदमी का कुत्सित चित्र आपके सामने आए तो उस समय उसकी अपेक्षा अपने को उत्कृष्ट और उसे नीच मानने या कहने के पहले आप सोचिए कि यदि मैं उस परिस्थिति में होता तो मेरी क्या दशा होती?’ अपनी मनोदशा का विचार करने के साथ दूसरे की परिस्थिति आदि का भी विचार करना चाहिए। उत्तम आत्माओं की उत्तमता को समझना हो तो भी ऐसा ही वर्तन करना चाहिए। आपकी मनोदशा के आधार पर दूसरे की करनी का न्यायसंगत माप निकालो, तब आपको उत्तम आत्माओं की उत्तम दशा का ज्ञान होगा, लेकिन याद रखना कि उस समय हृदय की अप्रामाणिकता तनिक भी नहीं होनी चाहिए। जिसे यह जीवन कीमती लगता है, उसकी जीवन-साधना कीमती बन जाती है। जिसे कीमती नहीं लगता, वह क्या नहीं करता, यह कह नहीं सकते। वह जहां-तहां कुछ भी खाकर, जितना हो सके औरों को लूटकर, जितना दे सके उतना दूसरों को दुःख देकर, केवल अपनी ही स्वार्थ-सिद्धि में लीन रहकर जीवन बिताता है। उसका जीवन कीमती नहीं है, क्योंकि वह पशु-पक्षी से जरा भी बेहतर ढंग से नहीं जीता है।-सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

पैदल विहार : एक अनुचिंतन

पैदल विहार पर यूं तो शास्त्रों में बहुत गहन चर्चा है, किन्तु आम व्यक्ति इसके महत्व को समझ सके, इसके लिए मैं बहुत ही साधारण बातें यहां प्रस्तुत कर रहा हूं, ताकि विमान यात्रा व कार-ट्रेन से विहार-यात्रा की बात कर रहे लोग भी समझना चाहें तो समझ सकें और अपना विवेक जागृत कर सकें। -डॉ. मदन मोदी
हमारे यहां त्यागमय जीवन की प्रधानता है और त्याग में धर्म माना है।
जो पैदल विहार करते हैं, जिनके मन में किसी अंचल या वस्तु विशेष को लेकर कोई आसक्ति नहीं होती, वे साधु होते हैं। वे चलते ही इसलिए हैं कि मन में जन्म-जन्मांतरों से घर किए बैठी जो आसक्तियां हैं, सुविधा-भोग की जो प्रवृत्तियां हैं, उनकी जडें किसी तरह ढीली की जाएं, उन्हें हिलाया जाए।
पांव-पैदल चलने में यही होता है। वस्तु-स्वरूप समझ में आता है। दुनिया और दुनियादारी दोनों को नजदीक से देखने का मौका मिलता जाता है। संसार की असारता का भान होता है, त्याग-वैराग्य की जडें मजबूत होती है।
बात यह है कि जो भी जल्दबाजी में होता है, वह अपच की ओर ले जाता है। उसमें अपूर्णताएं रह जाती हैं। जो लोग आहिस्ता; किन्तु पुख्ता शैली में स्थितियों को पकडते हैं, उन्हें उन स्थितियों की समीक्षा में काफी सुविधा होती है।
"चरैवेति चरैवेति" की स्थिति में बहुत कुछ हासिल होता है, लेकिन हवाई उडान से नहीं। गतिशीलता का ज्ञान और ताजगी, निर्मलता और स्वास्थ्य से गहरा संबंध है; किन्तु विमान की गति से नहीं, पैदल गतिमान रहने से। विमान द्वारा तेज चलने और कुछ भी न पाने में कोई तुक नहीं है। देखा गया है कि प्रायः जो लोग भागमभाग की जिन्दगी जीते हैं, वे खिन्न और क्षुब्ध रहते हैं। उनकी लिप्सा/जिज्ञासा लगभग मर जाती है। मार्ग का तो वे कुछ ले नहीं पाते। एक बिंदु से दूसरे बिंदू तक दौडना और कुछ भी न पाना कोई यात्रा है? यात्रा की तो सफलता ही इसमें है कि जितना अधिक बने अपने अनुभव के खजाने में डाला जाए और जितना अधिक व गहरा जाना जा सके, जाना जाए।
आँख मूँद कर विमान से एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु तक जाना जादू तो हो सकता है, जिन्दगी नहीं हो सकता। जिन्दगी और जादू में काफी फर्क होता है। जादू चौंकाता है, जिन्दगी यथार्थ/हकीकत की आँखें उघाडती है। चलकर ही सत्य तक पहुंचा जा सकता है, तेज चलने में सत्य तो क्या अर्द्धसत्य तक पहुंच पाना भी संभव नहीं होता। श्रमण जो पैदल चलते हैं, वे मात्र जीवन की सच्चाई तक गहरी पकड बनाने और यांत्रिक हिंसा के पाप से बचने के लिए, क्योंकि उन्होंने अहिंसा का संकल्प लिया है। वे जब पैदल चलते हैं, उनकी करुणा से, उनकी भावना से उत्सर्जित तरंगें कितने जीवों को त्राण देती है, जिनका वैज्ञानिक-मनोवैज्ञानिक आंकलन आज आसानी से किया जा सकता है।
सुविधाओं का कोई अंत नहीं है। एक सुविधा की पीठ पर चढकर दूसरी सुविधा आ धमकती है। एक शिथिलता दूसरी शिथिलता को बटोर लाती है। हम अपनी अनुकूलताओं के अनुसार परिभाषाएं बनाने-बदलने लगते हैं। क्या आप चाहते हैं कि व्रती/संकल्प का धारक अपने निर्धारित मार्ग से विचलित हो जाए?
दो स्थितियां हैं- साध्य और साधन। यदि हमें साध्य की पवित्रता को कायम रखना है तो साधनों को भी निर्मल/निष्कलुष रखने की जरूरत है। निर्मलता जब भी हो, जहां भी हो, उसे शत-प्रतिशत होना चाहिए। लोगों का ध्यान साध्य पर तो होता है, किन्तु साधन को वे भुला बैठते हैं। यह आधुनिक समाज का दुर्भाग्य है। साधु के लिए यह अपरिहार्य है कि वह साध्य और साधन दोनों की पावनता पर ध्यान दे।
मेरे विचार में यह तभी संभव है जब साधु दीन-दुनिया का अनुभव करे। पांव-पग घूमे और पैदल विहार में रस ले। उसे ग्रहण और त्याग की तात्कालिकताओं का अनुभव करना चाहिए। जब तक वह संयोग-वियोग को उनकी आत्यंतिक तीव्रताओं में महसूस नहीं करेगा, तब तक आसक्तियों को वह घटा नहीं सकेगा।

ज्ञान का और गति का गहरा संबंध है। ज्ञान के सारे पर्याय शब्द गत्यर्थक हैं। आगम, निगम, अधिगम, अवगम; सब में "गम्" धातु बिराजमान है। आगम का अर्थ है विज्ञान, प्रमाण, ज्ञान; निगम का अर्थ है पवित्र ज्ञान, आप्रवचन, प्रामाणिक कथन; अधिगम का अर्थ है सम्यक अध्ययन, या ज्ञान और अवगम के मायने हैं समझ, अंडरस्टेंडिंग। इस तरह ज्ञान गतिमय है और गति ज्ञानमय, लेकिन विमान की गति नहीं, पैदल विहार की गतिकता। साधु की यह गतिकता रुकेगी तो उसके ज्ञान की, भेदविज्ञान की तलवार जंग खा जाएगी।

बुधवार, 26 अप्रैल 2017

धर्म सदैव साथ होना चाहिए

आज धर्म करने वालों ने भी धर्म को प्रायः अवसरवादी बना दिया है। धर्म करने वालों में ऐसे भी हैं, जिनके हृदय में धर्म वास्तव में बसा ही नहीं है। आज साधु की भी अच्छी बात सुनने के लिए कितनों के पास समय है? सुसाधु के पैर छूने के लिए कभी गए हो? क्या आपने सुसाधु की चिन्ता की है? यद्यपि सुसाधु अपने धर्म के बल पर जीते हैं, न कि किसी की कृपा पर। लेकिन, आपका कर्त्तव्य क्या है? आज अधिकांश लोग वास्तव में धर्म नहीं, धर्म का दिखावा मात्र करते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि धर्म करेंगे तो दुनिया में अपना काम चलेगा, यह वृत्ति आज आप लोगों में बहुत बढ गई है, इसलिए धर्म का दिखावा चल रहा है। ऐसे कम ही लोग हैं, जिनके हृदय में वास्तव में धर्म का निवास है। जिसमें कोई खामी न हो, किसी की जरूरत न हो, इस तरह दुनिया के सुख में लीन रहने की बुद्धि से, धर्मदर्शक आत्माओं की परवाह किए बिना, केवल धर्माचरण का दिखावा करे और उसमें होने वाली गलतियों को गलती के रूप में समझते हुए भी उन्हें पाल रखे और इसके बावजूद भी वह धर्म वास्तव में हमें सहायक बनकर उन्नति प्रदान करे; यदि ऐसी आशा आप रखते हैं तो यह व्यर्थ है। हमें ऐसे धर्म की जरूरत है जो जीवन में हर पल, हर क्षण साथ रहे। कुछ स्थानों या समय पर ही धर्म हो, ऐसा नहीं। धर्म तो जीवन में सर्वत्र और हर पल होना चाहिए। आप पेढी पर बैठे हों, बाजार में व्यवसाय करते समय कोई सौदा कर रहे हों, अपने मित्रों के साथ बातचीत कर रहे हों या आनंद-प्रमोद की कोई क्रियाएं करते हों, इन सभी अवसरों पर धर्म आपके साथ होना चाहिए। इतना ही नहीं, आप खाते-पीते हों, उठते-बैठते हों, बातचीत करते हों या कहीं घूमते-फिरते हों, सब काल और सब काम में धर्म होना आवश्यक है।

इस तरह हर समय धर्म साथ में रहने से किसी भी काम के समय आपको विचार आएगा कि मैं जो प्रवृत्ति कर रहा हूं, वह किसी को भी प्रतिकूल तो नहीं है न? किसी की प्रतिकूलता मेरी अनुकूलता नहीं बननी चाहिए या किसी की अनुकूलता खत्म करके, मुझे अनुकूलता नहीं चाहिए।यह विचार आपको तभी आएगा, जब आपकी आत्मा सच्ची विवेकी और जागृत बनेगी। आपको सोचना चाहिए कि दूसरों की अनुकूलता छीनने का मुझे क्या हक है? यदि ऐसा नहीं सोचेंगे तो आपकी आत्मा हर पल, हर क्षण पाप करने का मौका मिलते ही कोई न कोई पाप अवश्य करेगी। आप बाजार में व्यापारी के रूप में घूम रहे हैं, लेकिन आप उद्योग-धंधे में कितनी अनीतियां करते हैं? क्या आप वास्तव में समाज में प्रतिष्ठा के लायक हैं? आज की दशा ऐसी है कि सब एक समान हो गए हैं, कौन किसको ताना मारेगा? इसका कारण यह है कि आपने धर्म को पकडा नहीं और दूसरी ही वस्तुओं के गुलाम हो गए हैं। यदि आपने धर्म को अपना साथी बनाया होता तो पौद्गलिक सुख के आप इतने बडे शौकिन नहीं बनते और आपकी मनुष्यता भी इतनी धूमिल नहीं होती।-सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

रामचंद्रजी को क्रोध क्यों नहीं आया?

मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्रजी भाग्य की प्रबलताको मानते थे और उसी के अनुरूप उनका चिंतन होता था। यदि भाग्य की मान्यता उनके दिल में न होती तो श्री रामचन्द्रजी को क्रोध न आए, ऐसा नहीं होता। उनके संयोगों को देखिए। राजगद्दी मिलने के समय पिताजी दूसरों को राजगद्दी दे दें तो स्वाभाविक था कि उन्हें क्रोध आए, पर रामचन्द्रजी ने क्रोध नहीं किया, ऐसा शास्त्रों में लिखा है। आप सोचिए कि उन्हें क्रोध क्यों नहीं आया? कितना बडा राज्य और उसका राजा बनना, कितनी समृद्धि और सत्ता थी। सोचकर देखिए, यह सब आँखों के निमेष की तरह एक पल में बह गया, फिर भी उन्हें क्रोध नहीं आया। क्या आप से यह सहन होता? शक्ति आजमाने की इच्छा नहीं होगी?
विशेषता यह थी कि श्री रामचन्द्रजी यह सब पिता के वचन पालन के लिए सहते थे। वचन उनके पिताजी ने दिया था, रामचन्द्रजी ने नहीं, और वह वचन उन्होंने रामचन्द्रजी को पूछकर नहीं दिया था। ऐसे में सौतेली मां अपने पुत्र के लिए राज्य मांग लेती है, उनके पिताजी दे भी देते हैं और वह रामचन्द्रजी को स्वीकार्य भी होता है। यह सब क्या इतना सरल है? ऐसा क्यों हुआ? उन्हें ऐसे समय में भी न क्रोध आया, न दुःख हुआ, क्योंकि वे विवेकी थे। उन्हें कर्मसत्ता की प्रबलता का खयाल था। रामचन्द्रजी को राज्य नहीं मिलने में उनका तात्कालिक कोई अपराध नहीं था, पर ज्ञानी कहते हैं कि उनके पूर्व भव का कोई कर्मविपाक था। इसी प्रकार आप भी समझ लीजिए कि हमें जो अनुकूल या प्रतिकूल मिलता है, उसमें केवल बुद्धि काम नहीं करती। अच्छे संयोग अचानक परिवर्तित हो जाएं तो समझिए कि केवल इस भव का दोष नहीं है, अपितु पूर्व संचित पुण्य-पाप के उदय अनुसार भवितव्यता के मुताबिक जो होना होता है, वह हुए बिना नहीं रहता। ऐसा विश्वास दृढ कर लेने की जरूरत है।

रामचन्द्रजी को क्रोध नहीं आया, क्योंकि उनमें ऐसा विश्वास था। आज ऐसा कुछ साधारण-सा प्रसंग भी बन जाए तो क्या बाप को अदालत में गए बिना छुटकारा मिल सकता है? उसमें भी यह सिद्ध हो जाए कि यह पूर्वजों की सम्पत्ति है तो क्या होगा? बाप को जेल और बेटे सम्पत्ति पाकर खुश ! पिता-पुत्र का रिश्ता तो वही है, जो पहले था, लेकिन पहले और आज में काफी अंतर है। अच्छा या बुरा बनना अपने हाथ की बात है। दुनिया के चाहे जैसे संयोग हों पर आत्मा स्वभाव में रहे तो बहुत काम हो जाए। कितनी भी कीमती वस्तु मिले या चली जाए, मिले या न मिले, सुरक्षित रहे या खो जाए, पर यह विश्वास रखना चाहिए कि चीजों का मिलना, रहना या टिकना, यह भाग्याधीन है। पहले की अपेक्षा आज बहुत परिवर्तन आ गया है। फिर भी अच्छा बनना अपने हाथ की बात है। आर्य होकर भी अनार्य की तरह जीवन जीना, यह कोई कम अधमता नहीं है। इस दशा का कारण यह है कि आपके हृदय में धर्म को स्थान ही नहीं दिया गया है।-सूरिरामचन्द्र