आतंकवाद....अलगाववाद.....!
प्रधानमंत्री जी के 56 ईंच के सीने के बावजूद हमारे देश के माथे पर
आज भी आतंकवाद और अलगाववाद उसी प्रकार मंडरा रहा है, जिस प्रकार
सर्जिकल स्ट्राईक के पहले मंडरा रहा था। सर्जिकल स्ट्राईक तो कांग्रेस शासन में भी
हुई हैं,
लेकिन हमारे देश के जवान तब भी बडी संख्या में शहीद हो रहे थे
और पिछले तीन वर्षों में भी बडी संख्या में आतंकवाद की भेंट चढ गए हैं। भाजपा की देश-भक्ति
पर किसी प्रकार का संदेह करने की कोई गुंजाईश नहीं है, यह बात
दावे के साथ कही जा सकती है। संघ के स्वयंसेवकों को प्रारम्भ से ही देशभक्ति का पाठ
पढाया जाता है,
इसलिए वहां मन में और दृढ विश्वास पैदा होता है, लेकिन तब भी आतंकवादियों और अलगाववादियों की खुलकर पैरवी करने वाली महबूबा मुफ्ति
के साथ सरकार बनाने की रणनीति पर सवाल उठता है। हालांकि भाजपा का प्रयास एक बार वहां
सत्ता में आकर सबकुछ ठीक करने का रहा होगा, लेकिन
हालात जस के तस बने हुए हैं। क्या अभी साल-डेढ साल इस आतंकवाद को और झेलना होगा, कुछ जवानों को और कुर्बानी देनी होगी, ताकि
2019
के लोकसभा चुनावों से कुछ समय पहले 1971 में इंदिराजी द्वारा जैसी की गई वैसी कार्यवाही की जा सके, युद्ध या कोई बडा कदम.....ताकि जनता से किए गए सारे वादों, मुद्दों को पीछे छोडकर सिर्फ इस कार्यवाही के बूते 2019 के चुनावों में फिर से प्रचण्ड बहुमत हासिल किया जा सके.....? कुछ राजनीतिक चिंतकों-विश्लेषकों का ऐसा कयास लग रहा है। यदि ऐसी मानसिकता और रणनीति
है तो यह चिंता का विषय है, क्योंकि आम जनजीवन इस समय काफी
त्रस्त है। यदि नरेन्द्रभाई मोदी 2014 के अपने चुनावी अभियान के दौरान
दिए गए भाषणों का पुनरावलोकन करें और उन मुद्दों पर ईमानदारी से काम करें, तो जनता 2019
में उन्हें वैसे ही प्रचण्ड बहुमत दे देगी, क्योंकि विपक्ष तो औंधे मुंह बेसुध पडा है। लेकिन, यदि वे
जनता के साथ धोखा कर केवल पाकिस्तान को सबक सिखाने के नाम पर फिर से सत्ता में आने
का गंदा खेल खेलते हैं तो यह घटिया राजनीतिक सोच होगा। हमारे देश की जनता तो देशभक्ति
के सरूर में वोट दे भी देगी, किन्तु यह उसके साथ न्याय नहीं
होगा। आतंकवाद और अलगाववाद पर काबू पाने के लिए आज ही ठोस कदम उठाने की जरूरत है, उसके लिए 2019 के चुनावों का इंतजार करने की जरूरत नहीं है।
शुक्रवार, 31 मार्च 2017
बाढ आने से पहले पाल बांधो
विपत्ति आने के बाद जागृत होने के बजाय पहले ही जागृत हो जाओ। पहले ही सावधान
हो जाओ तो फिर तुम्हें कष्ट ही नहीं आएगा। आग लगने के बाद कुंआ खोदने की सोचे तो
वह समझदार पुरुष माना जाता है क्या? नहीं! समझदार पुरुष तो वह
माना जाता है,
जो बाढ आने से पहले ही पाल बांध लेता है। यह मानव जीवन
दुर्लभ है। देवता भी इसके लिए तरसते हैं, क्योंकि इसी से आत्म-कल्याण
संभव है। हमने असीम पुण्योदय से यह मानव जीवन पाया है, क्या
इसे हम यों ही गंवा देना चाहते हैं? जो उम्र चली गई, वह
तो व्यर्थ गई,
लेकिन जो जीवन बचा है, उसे संभालिए। मृत्यु की घड़ियों
में साथ आने वाला केवल धर्म ही है। जिन भौतिक पदार्थों को आप एकत्रित कर रहे हैं, वे आपके
साथ आने वाले नहीं हैं। उन्हें यहीं पर छोडकर जाना पडेगा। जरा सोचिए कि आपने कौनसी
चीज बनाई है?
क्या कमाया है आपने? इस जीवन से जाते समय कितना
साथ ले जाएंगे?
चौबीस घंटे भौतिक साधनों की कमाई कर रहे हैं, पापकर्मों
का उपार्जन कर रहे हैं,
आत्मा की उपेक्षा कर रहे हैं, तो भविष्य क्या होगा? आपके
जीवन का उद्देश्य क्या है?
निरुद्देश्य जीवन का कोई महत्त्व नहीं है। धर्म को आचरण में
लाओ। सम्यग्दृष्टि बनो। सम्यग्दृष्टि व्यक्ति का जीवन तनाव रहित होता है। आज जितने
तनाव और संघर्ष परिलक्षित हो रहे हैं, यह सब मिथ्यात्व के कारण हैं।
हम शान्ति की खोज में बाहर भटक रहे हैं, भौतिक साधनों में उसे खोज रहे
हैं, किन्तु वह उनमें कहीं नहीं मिलती। हम अंतर्मुखी होकर सम्यग्दृष्टि बनेंगे तो
चिरस्थाई शान्ति को प्राप्त कर सकेंगे। सम्यग्दृष्टि भाव का जागरण होने के पश्चात
हमारे सामने जो घोर तिमिर छाया हुआ है; नष्ट हो जाएगा और अलौकिक
ज्योति से हमारा जीवन जगमगाने लगेगा। हम वीतरागवाणी को जीवन में उतार कर
आत्म-कल्याण के मार्ग को प्रशस्त करें, तभी यह जीवन सार्थक है।-सूरिरामचन्द्र
गुरुवार, 30 मार्च 2017
सवाल-8
नोटबंदी....!
नोटबंदी अब तक भी अनसुलझी पहेली है। यह एक बहुत बडा राजनीतिक पैंतरा था और इस पैंतरे
को सही साबित करने के लिए सरकार ने पैंतरे पर पैंतरे, कई पैंतरे
चले और विपक्ष सही होते हुए अपने को सही साबित नहीं कर पाया, जनता ठगी गई, किन्तु वह पूंजीपतियों के प्रति ईर्ष्या और
देश-भक्ति के दिखावे में छली गई। सारे तथ्यों के बावजूद विपक्ष जनता के गले अपनी बात
नहीं उतार पाया,
जबकि भाजपा ने अपने झूठ को सच के रूप में लोगों के गले उतार
दिया। अधिकांश मीडिया ने इसमें पूरा साथ दिया। फिर प्रधानमंत्री जी कभी घडयाली आंसू
बहाकर तो कभी अपने छप्पन ईंच के सीने से आम जनता में जोश भरकर उसे भावुक बनाने में
पूरी तरह सफल रहे, अपने जिग्री पार्टी अध्यक्ष के माध्यम से उनकी
रणनीति परवान चढी। किस-किस मुद्दे का कहां, कब और
कैसे इस्तेमाल करना है, इस कला में उनके मुकाबले विपक्ष
जीरो साबित हुआ। तीन तलाक भी इसी प्रकार का एक राजनैतिक पैंतरा था। बहरहाल हम नोटबंदी
की बात करते हैं। लोकसभा चुनाव के समय नरेन्द्रभाई मोदी द्वारा बढचढ कर घोषणाएं करने
के बावजूद विदेशों में जमा कालाधन तो लाया नहीं जा सका, यह विपक्ष
के लिए एक बडा मुद्दा था, लेकिन विपक्ष इसका ढोल नहीं बजा
सके,
इसकी हवा निकालनी जरूरी थी। दूसरा भाजपा सत्ता में लम्बी पारी
खेल सके इसके लिए प्रचण्ड बहुमत से उत्तरप्रदेश का चुनाव जीतना उसके लिए बहुत जरूरी
था। यहीं पूरी गोपनीयता के साथ ताबडतोबड नोटबंदी करने का खयाल परवान चढा और रिजर्व
बैंक की पूरी तैयारी के अभाव और ना-नुकुर के बावजूद इसे लागू किया गया। घोषणा से पहले
दो हजार के नोट भारी तादाद में छाप लिए गए और भाजपा के कुछ खास लोगों को और खास उद्योगपतियों
को यह कह दिया गया कि वे पूरी गोपनीयता के साथ अपने नोट बदलवा लें। दूसरे किसी राजनीतिक
दल कांग्रेस,
सपा, बसपा आदि को इसकी भनक भी नहीं
लगने दी। रणनीति यह थी कि ये पार्टियां आर्थिक संकट में आ जाएं और ठीक से चुनाव नहीं
लड सकें,
चुनावों में वोट लेने के लिए जो पैसे-शराब आदि की बंदरबांट होती
है,
वह नहीं हो सके। विपक्ष टूट जाए और भाजपा खुलकर खेल सके। बैंकों
में जमा पैसा भी निकालने नहीं दिया। आम आदमी परेशान हुआ तो उसे देश के लिए थोडा कष्ट
झेलने का वास्ता दिया और यह जलन-ईर्ष्या उसमें पैदा की गई कि यह कार्यवाही कालाधन दबा
कर बैठे पूंजीपतियों के खिलाफ है, साले सब रो रहे हैं। तो आम आदमी
को दुःख में भी मजा आ गया। यही नहीं, इसके लिए समय-समय पर माहौल
के अनुसार कई बातें की गई, जैसे- इससे आतंकवाद की कमर टूट
गई है,
टेक्स चोर धमाधम टेक्स जमा करवा रहे हैं, कालाधन जमा करने वालों के पसीने छूट रहे हैं, फिर दो-दो
हजार के नोटों की करोडों की संख्या में बरामदगी दिखाई गई, लोग यही
नहीं सोच सके कि अभी तो नोटबंदी की गई है, बैंक
और एटीएम इतना पैसा दे नहीं रहे हैं तो इतनी मात्रा में ये नोट कहां से आए और कैसे
बरामद हो रहे हैं? अब वे सब नोट कहां हैं? कौन है इस सारे नाटक के पीछे? यह देश की घृणित राजनीति का अलग
चेहरा है। नोटबंदी के कारण बैंकों के बाहर लगी लाइन में सौ से ज्यादा लोग मर गए, वे किसी धन्ना सेठ के नोट बदलवाने के लिए लाइन में नहीं थे। बेटी की शादी, अपना ही ईलाज करवाने के लिए अपना जमा पैसा लेना चाहते थे।
नोटबंदी
से राजनीतिक लाभ-हानि का खेल तो हुआ, लेकिन सरकार को क्या मिला....? इसके आंकडे अब तक भी कोई बताने के लिए तैयार नहीं है कि कितना धन आया और उसकी तुलना
में नए नोटों की छपाई व अन्य लागत में कितना गया...? सरकार
तो तीन साले में अपने वादे के मुताबिक नए रोजगार नहीं दे सकी, लेकिन इस नोटबंदी से कितने लोगों का रोजगार छिन गया? विपक्ष
इस मुद्दे को ठीक से नहीं उठा सका और लोगों के गले नहीं उतार सका, बल्कि इसके विपरीत नरेन्द्रभाई मोदी लोगों के पेट में यह बात उतारने में सफल रहे
कि मायावती जी और दूसरी पार्टियों के पास गलत ढंग से जमा किया गया धन बक्सों में पडा
रह गया,
बेकार हो गया, इसीलिए वे नोटबंदी के खिलाफ रोना रो रहे हैं, एक मौका
मांग रहे हैं कि कैसे भी एक मौका मिल जाए तो वे अपने नोट बदलवा लें। खैर....इस नोटबंदी
के कई रंग हैं....लेकिन आम आदमी को हुई तकलीफों के बावजूद प्रधानमंत्री अपना खेल खेलने
में सफल रहे हैं। परन्तु, देश को इसका खामियाजा तो भुगतना
ही पडेगा। विपक्ष इस समय बेसुध, बेहोंश, औंधे मुंह पडा है, लेकिन सरकार को देर-सबेर कई तथ्य और सच्चाई
देश के सामने रखनी ही पडेगी।
शिक्षा-व्यवस्था को बदलने की जरूरत
शिक्षक का वास्तविक कार्य तो यह है कि वह भाषा आदि सब सिखाने के साथ बालक को
समझदार बनाए और उसमें ऐसी क्षमता विकसित करे कि वह अपने आप संस्कारी बने।
माता-पिता ने यदि योग्य संस्कारों का सिंचन किया होता तो शिक्षक का आधा कार्य
पूर्ण हो गया होता। फिर शिक्षक को केवल माता-पिता द्वारा प्रदत्त संस्कारों को
विकसित करने की ही जिम्मेदारी रहती। भाषाज्ञान सिखाना यह वस्तुतः ज्ञान-दान नहीं, अपितु
ज्ञान के साधन का दान है। सद्गुण प्राप्ति का और अवगुण त्याग का शिक्षण, यही
शिक्षा का साध्य है। परन्तु, आज तो प्रायः जैसी माता-पिता की हालत है, वैसी
शिक्षक की भी हालत है। सच्चा शिक्षक मात्र किताबी ज्ञान तक ही सीमित नहीं होता।
सच्चा शिक्षक तो विद्यार्थी में सुसंस्कारों का सिंचन करता है। मात्र किताबी ज्ञान
तक सीमित रहने वाला और विद्यार्थियों के सुसंस्कारों का लक्ष्य नहीं रखने वाला
शिक्षक, शिक्षक नहीं,
अपितु एक विशिष्ट मजदूर मात्र है। हमारे सोच को और हमारी
बेकार हो चुकी समग्र शिक्षा-व्यवस्था को आज बदलने की जरूरत है। सब अपना कर्तव्य
पालन करें और आने वाले कल को सुसंस्कारी बनाएं।-सूरिरामचन्द्र
बुधवार, 29 मार्च 2017
सवाल-7
मंहगाई....!
2014
से पहले तक हमारे यहां आलम यह था कि किसी भी चीज के दाम 5-10 रुपये भी बढ जाते तो भाजपा के नेतृत्व में चक्का जाम हो जाता था, बाजार बंद करवा दिए जाते, भाजपा के शूरवीर भारी पुलिस जाब्ते
के बावजूद कलक्ट्रेट की फाटक चढ जाते और सत्तारूढ कांग्रेस की हालत खराब कर देते थे।
अब वही भाजपा सत्ता में है। केन्द्र में भी और राज्य में भी। भाजपा के सत्ता में आने
से पहले जो गैस सिलेण्डर 415 रुपये में आता था, अब 770
रुपये का हो गया है। जो दालें 45 रुपये
किलो के आसपास थी, 200 रुपये तक चली गई। पेट्रोल, डीजल,
बीजली, पानी सबकुछ भाजपा सरकारों ने मंहगा
कर दिया। अब वे कलक्ट्रेट की फाटकें चढने वाले, बंद का
आयोजन करने वाले, शहर में तूफान मचा देने वाले शूरवीर कहीं दिखाई
नहीं पडते। सत्तासुख और सत्ता की दलाली का मामला ऐसा ही है, जनता तो बेचारी है। कांग्रेस के एक बडे मिनिस्टर रहे हुए नेता सवेरे टिनोपॉल लगा
सफेद जक्क कुर्ता-पाजामा पहिनकर घूमने निकले, रास्ते
में मिल गए,
मैंने पूछा जनता दुःखी है, आप जनता
के लिए कोई आंदोलन.....मंहगाई इतनी बढ गई है कि जीना दुभर हो गया है.....! नेताजी बोले, क्या करना है यार....अभी हम आह्वान करेंगे तो 50 लोग जमा
नहीं होंगे......कोई मतलब नहीं है.....जनता दुःखी होकर वापस हमें ही सत्ता सौंपने वाली
है....! मैंने कहा, इस बार इस भूलभुलैया में मत रहना.....! लाठियां
खाना,
कलक्ट्रेट की फाटक चढना नहीं सीखोगे तो इस बार भाजपा वसुन्धरा
रानी को बदल कर नया चेहरा लाएगी और जनता कांग्रेस को मरी हुई लाश समझ कर उसे रौंदते
हुए फिर नरेन्द्रभाई मोदी के पीछे हो जाएगी, वो बडा
जादूगर है,
जनता को घुमाने में खिलाडी है...! नेताजी मन ही मन कुढते हुए
निकलने लगे.....तो मैंने जाते-जाते पूछ लिया कि आज देश में विपक्ष नाम की चीज है कहां......और
राजस्थान में तो बिलकुल ही मैदान साफ है.....भाजपा का कोई विकल्प ही नहीं है......कांग्रेसी
कहीं नजर ही नहीं आते हैं.....शायद एकदम लू के थपेडे शुरू हो गए हैं, इसलिए अपने एसी में आराम कर रहे होंगे..! नेताजी बुरा मान गए और चले गए। यह सच तो सामने दिख रहा है कि भाजपा की धोबी पछाट
से विपक्ष बेहोंश है। न उसे मुद्दों का पता है, न उन
मुद्दों पर देश को कैसे आंदोलित किया जा सकता है, यह पता
है,
विपक्ष बिलकुल बेसुध है। भाजपा की तो नीति ही यह है कि कोई विपक्ष
में बोलने लगे कि तुरंत उसका मुंह नोंच लो, उसे देशद्रोही
होने का सर्टिफिकेट पकडा दो, पाकिस्तान जाने के लिए कह दो।
उत्तरप्रदेश में भाजपा विरोधियों की जो रणनीतिक दुर्गति भाजपा ने की है, उससे उबरने में अभी वक्त लगेगा। भाजपा 2019 और 2024
की तैयारियों में जुटी हुई है। मैदान साफ है, कोई उसके खिलाफ ताल ठोंकने वाला अभी तो दिखाई नहीं देता। लेकिन मंहगाई से अपनी
बदहाली का रोना जनता कहां रोए.....? एक छोटा
सा उदाहरण लेते हैं। भाजपा के सत्ता में आने से पहले आयात किए जाने वाले कच्चे तेल
की अन्तर राष्ट्रीय कीमतें बहुत ऊंची थी। लेकिन, हालात
कुछ ऐसे बने कि इधर भाजपा सत्ता में आई और उधर कच्चे तेल की कीमतें ऐसी धडाम हुई कि
150
का माल 30 का हो गया। नरेन्द्रभाई मोदी उस
समय अपने भाग्य पर इठला रहे थे। उम्मीद की जा रही थी कि बाजार आधारित कीमतों के हिसाब
से पेट्रोल-डीजल के दाम आधे से कम हो जाएंगे। आम आदमी को बडा लाभ मिलेगा। इससे अन्य
चीजें भी सस्ती हो जाएगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। पर क्यों? विपक्ष
ने कभी इसके लिए आंदोलन भी नहीं किया। आम आदमी की बात कौन करे? सिर्फ उद्योगपतियों ने इसका पूरा लाभ लिया और सरकार ने पैसा जमा किया। क्या भाजपा सरकारों को आम आदमी की मंहगाई की यह पीडा दिखाई देगी....? अपने चहेते उद्योगपतियों के घर आपने बहुत भर लिए न भाई.... अब तो थोडा जनता के दर्द का खयाल करो.....! 2014 के आम चुनावों में स्वयं नरेन्द्रभाई मोदी ने कोंग्रेस के
खिलाफ मंहगाई को एक बड़ा मुद्दा बनाया था, किन्तु आज वे स्वयं जब सत्ता के शीर्ष पर
हैं, शायद उनके लिए अब यह कोई मुद्दा नहीं है....!
शिक्षा के नाम पर ठगी
शिक्षा संस्थानों में आज तो "सा विद्या या विमुक्तये" का बोर्ड लगाकर ठगने का धंधा किया जाता है, क्योंकि आज के शिक्षण में मुक्ति
की तो कोई बात होती ही नहीं है। "सा विद्या या विमुक्तये" का अर्थ तो यह कि जो विद्या मुक्ति का बोध दे, लेकिन आज के
स्कूल-कॉलेजों में मुक्ति के शिक्षण का स्थान तो स्वच्छंदता और विनाशक-विज्ञान ने
ले लिया है। सारी पीढी बिगड रही है, यह आप आँखों से देख रहे हैं, फिर
भी हम से पूछते हैं कि ‘शिक्षण में खराबी क्या है?’ जीवन का निर्माण बाल्यकाल से प्रारम्भ हो
जाता है। बच्चों को हृदय की पवित्रता का मूल्य उतना नहीं बताया जाता, जितना
दूसरी चीजों का बताया जाता है। आज शिक्षा में नैतिक अवमूल्यन की समस्या पर ध्यान
नहीं दिया जा रहा है। हृदय की पवित्रता केवल साधुओं के लिए ही महत्त्वपूर्ण नहीं
है, शासकों और परिवार के सदस्यों के लिए भी बहुत जरूरी है। साधारण व्यक्ति प्रवाह
के पीछे चलता है। ‘यथा राजा तथा प्रजा’
कहावत ही नहीं, यथार्थ है। जब एक व्यक्ति
उचित-अनुचित ढंग से सत्ता प्राप्त कर कथित बडा आदमी बन जाता है, तब
दूसरा आदमी भी सोचता है कि भ्रष्ट तरीके से पैसा कमाकर बडा आदमी बना जा सकता है।
सत्ता पर जब धर्म का अंकुश नहीं रहता, तो वह निरंकुश हो जाती है।
सत्ता राष्ट्र की हो या परिवार की, उस पर से जब-जब धर्म का अंकुश
हटता है, वह उन्मादी हो जाती है। प्रवाह को वही मोड सकता है, जो
असाधारण हो, जो सत्ता और अर्थ प्राप्ति के लिए भ्रष्ट उपायों का सहारा न ले।-सूरिरामचन्द्र
मंगलवार, 28 मार्च 2017
सवाल-6
देश के
चोटी के 50
उद्योगपति बैंकों से करोडों रुपये का कर्जा लेकर खा गए और अलग-अलग
बैंकों ने ऐसे उद्योगपतियों का छः लाख करोड रुपया डूबत खाते डाल दिया है। इसमें किसी
राजनेता को जोर नहीं आया, बैंकों को आंसू नहीं बहाने पडे।
लेकिन भुखमरी के शिकार, बर्बादी के और आत्महत्या के कगार
पर खडे किसानों का हजार-दो हजार से लेकर अधिकतम एक लाख का कर्जा या ब्याज माफ करने
में सबको गलत लग रहा है। जितना रुपया पचास उद्योगपतियों ने डुबाया है और देश को कुछ
भी नहीं मिला,
उसके एक चौथाई भाग में तो देश के सारे किसानों को राहत दी जा
सकती है,
उनके जीवन बचाए जा सकते हैं और वे देश में अच्छी पैदावार के
लिए,
कृषि के लिए उत्साहित होकर देश को नई खुशहाली दे सकते हैं। सरकार
क्या केवल अमीर उद्योगपतियों के लिए ही काम करने के लिए होती है, गरीब व अन्नदाता किसानों के लिए उसका कोई फर्ज नहीं है? कृषि पर भी किस प्रकार बडे धन्ना सेठों का कब्जा हो सकता है, ऐसे प्रयास तो सामने दिखाई दे रहे हैं, लेकिन
क्या एक सामान्य किसान को मानवीय गरिमा के अनुरूप जीने का कोई हक नहीं है? हमारे यहां आदिवासी क्षेत्र में ऐसे भी किसान हैं, जिन्होंने
बैंक से 20
हजार का कर्ज लिया और 25 हजार
जमा भी करवा दिए, लेकिन फिर भी बैंक उसके पांच हजार बकाया निकाल
रहा है। नहीं देने पर कुर्की ला रहा है, पुलिस के माध्यम से उसे
थाने में मुर्गा बनाया जा रहा है। हिसाब पूछो तो बैंक कहता है कि उसने जो जमा करवाया
वह तो ब्याज पेटे जमा हो गया, अभी पांच हजार और बाकी है। अब
ऐसी स्थिति में विजय माल्या भला या यह आदिवासी किसान भला...? आदिवासी किसान ने कुछ तो जमा करवाया ही है. बैंक
वालों ने आज तक 6 लाख करोड रुपये खा जाने वाले उद्योगपतियों
में से कितनों को थाने में मुर्गा बनाया है? कितनों
के यहां कुर्की की है? क्या यह गरीब-अमीर का भेदभाव संविधान सम्मत
है? क्यों नहीं ऐसे किसानों का कर्ज माफ होना चाहिए..?
चिकित्सा सेवाओं के हाल-बेहाल
एक महिला
के पुत्रवत् देवर राजस्थान के माने हुए सर्जन रहे हैं। देवर भी उस महिला का मातृवत्
बहुत खयाल रखते हैं। महिला की पुत्री और दामाद दोनों बहुत अच्छे डॉक्टर और उनके पुत्र-पुत्री
भी डॉक्टर। यानी, महिला का दिलोजान से ध्यान
रखने वाले घर के पांच-पांच डॉक्टर। इसके बावजूद उस महिला को देश के माने हुए दिल्ली
के सर गंगाराम होस्पिटल, फोर्टीज
होस्पिटल के डॉक्टरों की लापरवाही ने मौत के मुंह में धकेल दिया। पिछले 6-7 माह में परिवार वालों ने पानी की तरह पैसा खर्च किया और कुल
मिलाकर लगभग दो करोड रुपये खर्च हो गए। उदयपुर के अमरीकन होस्पिटल में महिला का लम्बे
समय तक इलाज चला। फेंफडों में संक्रमण के कारण श्वांस लेने में तकलीफ हो रही थी। डॉक्टरों
ने बिना सोचे-समझे खूब एंटीबॉयोटिक दवाएं दी, जिनका किडनी पर असर पडने लगा। तबियत थोडी ठीक लगने लगी तो यहां से जयपुर और जयपुर
से कुछ दिनों बाद दिल्ली के गंगाराम अस्पताल में ले जाया गया। वहां वेंटीलेटर पर.....
15 दिनों में इतनी हेवी एंटीबॉयोटिक
दी गई कि दोनों किडनियां पूरी तरह फेल हो गई। किडनियों के लिए डॉयलिसिस करना था तो
गले और कंधे के बीच एक वेन में नली डाली गई, उसमें ध्यान नहीं रखा तो उस नली डालने में हुई जोर आजमाईश से अंदर काफी ब्लडिंग
हो गई और यह खून छाती में जमने लगा, जिससे
श्वांस नली पर दबाव और बढ गया। यहां से फोर्टीज में शिफ्ट किया गया। दूसरी नली डाली
गई और डायलिसिस शुरू हुआ, लेकिन
अंदर का खून साफ नहीं हुआ। अंततोगत्वा महिला की हालत और बिगड गई। महिला तो अचेत थी, वेंटीलेटर पर ही थी। परिवार ने विचार किया कि वेंटीलेटर और डॉयलिसिस
पर ही रखना है तो अब उदयपुर ले जाते हैं, वहां गीतांजलि में सुविधा कर लेंगे। दिल्ली के दोनों अस्पतालों में घर के पांचों
डॉक्टर बेबस थे। प्लेन में विशेष सुविधा से महिला को उदयपुर लाया गया। 40 दिन गीतांजलि में रखने के बाद आखिर महिला को नहीं बचाया जा सका।
एक दूसरा
उदाहरण- मेरे पास बछार गांव से एक आदिवासी परिवार एक महिला को लेकर आया। लम्बे समय
तक महाराणा भूपाल चिकित्सालय में उपचार करवाने के बाद वहां महिला की बच्चेदानी में
केंसर की गाँठ है, यह कहकर अमरीकन केंसर होस्पिटल
ले जाने के लिए बोल दिया। परिवार वालों ने मुझ से पूछा तो मैंने स्पष्ट रूप से कह दिया
कि यहां एक बार पूछ लो, गीतांजलि
में भी ऑपरेशन हो सकता है, वहां
भी पूछ लो, नहीं तो इसे अहमदाबाद के सिविल
होस्पिटल में ले जाओ। परिवार वाले अमरीकन होस्पिटल में गए तो बहुत भारी खर्चा बताया, वे गीतांजलि में गए तो कहा गया कि जांच के तीन हजार लगेंगे और
फिर ऑपरेशन करना पडेगा तो उसके चार लाख रुपये लगेंगे, जिसमें अस्पताल में रहने का खर्च शामिल है। परिवार वाले वापस मेरे पास आए और कहने
लगे कि इतना पैसा तो मैं अपनी जमीन-घर सबकुछ बेच दूं तो भी नहीं जुटा सकता। मैंने उन्हें
अहमदाबाद के सिविल होस्पिटल जाने को कहा। आश्चर्य होगा आपको यह जानकर कि उस परिवार
के वहां जाने-आने-ठहरने-खाने और उपचार के लगभग 15 हजार रुपये मात्र खर्च हुए। ऑपरेशन हो गया और महिला पूरी तरह स्वस्थ है।
अब डॉक्टरों
की, निजी अस्पतालों की और आने वाले
समय में पांच-पांच करोड रुपये खर्च कर जो डॉक्टरों की नई खेप तैयार होने वाली है, उन सबका विचार करिए। हमारी स्वास्थ्य सेवाओं का और हमारा क्या
हाल होने वाला है, यदि समय रहते कुछ नहीं
किया गया तो.......
भिखारी बनाने वाली शिक्षा
अब से लगभग 90 वर्ष पूर्व जब देश में अंग्रेजी हुकूमत
थी, मुम्बई में एक धर्मसभा का आह्वान करते हुए सूरिरामचन्द्रजी ने अत्यंत वेदना के
साथ जो कहा, वह आज की शिक्षा-व्यवस्था के मद्देनजर कितना प्रासंगिक
है, विचार जरूर करिएगा-
"वैज्ञानिक युग के नाम पर आज कोई कानूनविद् बना तो कोई डॉक्टर बना। उनके कपडे
तो उजले, किन्तु उनकी कार्यवाही देखो तो बदबू मारते गटर
जैसी है। कानून पढा हुआ गुनाह करता है? कानून पढा हुआ चोरी करता
है? कानून पढा हुआ किसी को ठगता है? कानून
पढा हुआ सौ के बिल पर एक और जीरो बढाता है? हिसाब पढा हुआ जमा
को उधार और उधार को जमा करता है? इतिहास पढा हुआ गप्पे लगाता
है? हिसाब-किताब की बहियां दो, जुबान दो,
दिल में दूसरा और मुँह पर दूसरा; ऐसी यह बीसवीं
सदी? सब ऐसे पैगम्बर? अपराधी को निरपराधी
ठहराना यह शिक्षा है? ऐसी शिक्षा, ऐसा विद्या
प्रचार यह तो जहर का प्रचार है? पढे इसलिए नीचे नहीं बैठे,
पढे इसलिए चाय, पान, बीडी,
सिगरेट बिना नहीं चले। पढे नहीं ये तो भूले हैं। शिक्षा को लजाया है।
ऐसी शिक्षा-संस्थाओं को नहीं निभाया जा सकता। एक नए पैसे का भी दान ऐसी संस्थाओं को
नहीं दिया जाना चाहिए। यह तो पाप का दान है। आपको यह खंजर के घाव जैसा लगेगा,
बहुत कडवा लगेगा; किन्तु सच्ची शिक्षा हो तो ऐसी
दशा हो? पढे-लिखे आज पैसों के लिए भीख मांगते हैं, लोगों की दाढी में हाथ डालते हैं। आज आवाज उठ रही है कि पढे हुए भीख मांग रहे हैं
और इससे शिक्षा के प्रति कई लोगों के मन में तिरस्कार का भाव जागृत हो रहा है। मैं
कहता हूं कि पेट भरने के लिए पढनेवाले तो भूखे मरें, इसमें नई बात क्या है? विद्या जैसी अनुपम चीज पेट के
लिए खरीदी जाए तो परिणाम यही आएंगे। पेट के लिए विद्या पढनेवालों का पुण्य जागृत हो
तो बात अलग है, नहीं तो कटोरे के लिए ही इस विद्या
को समझना। पहिनने की टोपी में ही चने फांकने के दिन आएंगे, क्योंकि आपने विद्या का अपमान किया है। आज इस बात का अनुभव होता है और भविष्य में
भी होगा।"
"पापक्रिया बढी, उसकी अनुमोदना बढी, उसकी प्रशंसा बढी, परिणाम स्वरूप दरिद्रता और भिखारीपन
आया। जो मांगा वह आया दिखता है और ऐसा ही चलता रहेगा तो अधिक आनेवाला है। इसमें पुण्यवान
को भी शामिल होना पडेगा। पडौस में आग लगती है तब बगल वाले घर में भी जार लगती है, आँच आती है। पापी के साथ बसनेवाले पुण्यवान को भी आँच लगने ही वाली है। सावधान
रहेंगे तो बचेंगे। आपको सावधान करने के लिए यह मेहनत है।"
आज समाज में संस्कारों की कितनी कमी होती जा रही है? आजकल
के माता-पिता को फुर्सत नहीं है कि वे आधा घंटा भी अपने बच्चों के पास बैठकर
उन्हें धर्म की शिक्षा दें,
समझाएं, अच्छे संस्कार दें। वह माता शत्रु के समान
है, जिसने अपने बालक को संस्कारित नहीं किया। वह पिता वेरी के समान है, जिसने
अपने बच्चे को संस्कार नहीं दिए। आजकल के माता-पिता तो अपने बच्चों को अच्छी
शिक्षा के नाम पर कान्वेन्ट में डाल देते हैं। आप सोचते हैं कि कान्वेन्ट में पढने
जाएगा तो हमारा बच्चा इन्टेलीजेन्ट (चतुर) बनेगा। पढ-लिखकर होशियार बन जाएगा और
बडा आदमी बन जाएगा। लेकिन,
वहां जो शिक्षा परोसी जाती है, उसमें
आत्मा कहां है?
वहां तो जहर ही जहर है।-सूरिरामचन्द्र
सोमवार, 27 मार्च 2017
सवाल-5
शिक्षा
की तरह ही बुरी स्थिति चिकित्सा की है। आजादी के 70 साल बाद
भी आज आम आदमी को बुनियादी चिकित्सा सुविधा नहीं मिल पा रही है। गांवों में डॉक्टर, नर्स और दवाओं की तो क्या बात करें, शहर के जिला अस्पतालों, संभागीय मुख्यालय के सरकारी अस्पतालों में विशेषज्ञ डॉक्टरों की सुविधा, आधुनिक संसाधन और पर्याप्त दवाएं उपलब्ध नहीं है। वहीं निजी अस्पतालों में पूरी
लूटमार मची हुई है। पूरा पैसा है तो उपचार है, अन्यथा
उपचार संभव नहीं है। तो क्या इसी प्रकार गरीब आदिवासियों और आम आदमी को मरने के लिए
छोड दिया जाएगा?
सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों ही सेवाओं में अपना बजट घटा
रही है,
जो सरकार की मूलभूत जिम्मेदारी है। चिकित्सा के भी निजीकरण और
व्यापारीकरण को बढावा दे रही है...। क्या यह देश के और आम आदमी के हित में है...? क्या आम आदमी केवल बरगला कर वोट लेने के लिए ही है...? यदि नीतियां नहीं बदली गई तो आने वाले समय में चिकित्सा क्षेत्र का तो और भी विभत्स
रूप देखने को मिलेगा, जब आम आदमी के जीवन भर की कमाई मामूली बिमारी
में ही साफ हो जाएगी। क्योंकि आज जिस प्रकार एक करोड और दो करोड रुपये फीस लेकर डॉक्टरी
की खेती की जा रही है, क्या ऐसे डॉक्टर गरीबों के लिए श्राप सिद्ध
नहीं होंगे...?
मोह का नशा विवेकशून्य बना देता है
किसी व्यक्ति को क्लोरोफार्म सुंघा दिया जाए या बेहोशी का इंजेक्शन लगा दिया
जाए या वह व्यक्ति शराब अथवा अन्य मादक पदार्थों का नशा कर लेता है तो बेभान, उसकी
चेतना सक्रिय नहीं रहती,
विवेकशून्य हो जाती है; फिर भाषा वर्गणा के पुद्गल
कर्ण शुष्कली तक पहुंचेंगे तो सही, लेकिन सुनाई नहीं देगा। जब तक
भाव इन्द्रियां सक्रिय नहीं होती हैं, तब तक शब्द वर्गणा के पुद्गल
ग्रहण नहीं कर सकती है। इसी प्रकार चेतना मोह के नशे में बेहोश हो रही है।
शास्त्रकारों ने मोह को नशा कहा है। जिस तरह शराब पीने से नशा चढ जाता है, उसी
तरह आत्मा पर मोह का नशा चढ जाता है। वह फिर अपने हिताहित के विवेक से रहित हो
जाता है। मोह के नशे में मदहोश व्यक्ति के लिए कहा गया है कि ऐसा व्यक्ति सत और
असत् की विशिष्टता को नहीं समझता है। वास्तविक और अवास्तविक का अन्तर न जानने से,
विचार शून्य होने से, वह उन्मत्त की तरह रहता है, उसका ज्ञान भी अज्ञान
ही है। वह उन्मत्त की तरह व्यवहार करता है। शराब की दशा में व्यक्ति उन्मत्त हो
जाता है, उसे भान नहीं रहता है। उसी तरह मोह की निन्द्रा में सोया व्यक्ति, मोह
से अभिभूत व्यक्ति अपने हिताहित का ध्यान नहीं रखता है। उसका विवेक, उसकी
प्रज्ञा इतनी नहीं होती है कि वह सत्-असत् का विशिष्ट विश्लेषण कर सके, अपना
हिताहित सोच सके।-सूरिरामचन्द्र
रविवार, 26 मार्च 2017
सवाल-4
सरकारी
स्कूलों के शिक्षक वेल क्वालिफाईड और ट्रेण्ड होते हैं। एसटीसी, बीएड,
एमएड, एमफिल, पीएचडी आदि...। सरकार इसके लिए बहुत सी धनराशि निवेश करती है। उनकी नियुक्ति के
लिए उन्हें कठिन परीक्षा से गुजरना होता है। दूसरी ओर निजी शिक्षा संस्थानों का शिक्षक
वर्ग उतना प्रशिक्षित नहीं होता है। सरकारी स्कूलों के शिक्षकों के वेतन, भत्तों,
मेडिकल, ग्रेच्युटी, पेंशन व अवकाश-सुविधा आदि के मुकाबले निजी शिक्षा संस्थानों के शिक्षक वर्ग को
20-25
प्रतिशत वेतन और सुविधा भी नहीं मिलती। कक्षाओं में छात्र संख्या
सरकारी स्कूलों के मुकाबले निजी स्कूलों में दुगुनी होती है, यानी निजी स्कूलों के शिक्षकों पर काम का दुगुना दबाव होता है। फिर भी क्या कारण
है कि मां-बाप अपने बच्चे को सरकारी स्कूलों में नहीं भेजकर प्राईवेट स्कूलों में भेजना
चाहते हैं,
जबकि सरकारी स्कूलों में न के बराबर खर्च है और निजी स्कूलों
में उन्हें प्रतिमाह हजारों रुपये शिक्षा पर खर्च करने पडते हैं...? प्राईवेट स्कूलों के मुकाबले क्यों सरकारी स्कूलों का परीक्षा परिणाम शून्यवत्
होता है?
सरकार इस बात पर कभी गौर क्यों नहीं करती? और यदि करती है तो दिन-प्रतिदिन हालात क्यों बिगडते जा रहे हैं? क्यों नहीं हर बच्चे को गुणवत्ता युक्त शिक्षा का मौलिक अधिकार मिले...? क्या शिक्षा का निजीकरण और व्यापारीकरण देश के हित में है...?
विषय-मुक्ति के बिना तीर्थ बेकार है
जिन आत्माओं को विषयों से प्रेम है, उनको क्रोध आए बिना नहीं
रहता। उनके मान-माया या लोभ की सीमा नहीं रहती है। ‘आज आपको कितने में
संतोष है?’ ऐसा कोई प्रश्न करे तो बात कहां जाकर रुकेगी? पांच, दस, बीस, पचास
लाख या इससे भी अधिक लोभ! लोभ की सीमा ही नहीं होती और लोभी प्रपंची बने बिना भी
नहीं रहता। जिसमें विषय का राग है, उसमें क्रोध, मान,
माया और लोभ चारों कायम होते हैं। इनकी आधीनता, इसी का नाम ही तो संसार है।
यह आधीनता भयंकर लगे,
तब ही उससे मुक्त होने की इच्छा होगी, तभी
तीर्थ आवश्यक लगेगा और तभी तीर्थयात्रा का सच्चा भाव पैदा होगा। हृदय में से
विषयों की लालसा हटती नहीं और विषयों की आधीनता के कारण कषाय चुगते नहीं और आत्मा
को विषय-कषाय रूप संसार से तैरने की भावना प्रकट नहीं होती, तब
तक तीर्थ अच्छा कैसे लगेगा?
विषय दुनिया से जाने वाले नहीं हैं, हमें
ही विषयों की आसक्ति से मुक्त होना है।-सूरिरामचन्द्र
शनिवार, 25 मार्च 2017
सवाल - 3
एक आठवीं पास चपरासी (स्थाईकर्मी) से कम वेतन है एक संविदा पर रखे गए कोलेज व्याख्याता
का। एक क्लीनर (सफाई कर्मी) से कम वेतन है एक डॉक्टर, जिला
कार्यक्रम अधिकारी, काउंसलर, नर्स
व लेब टेक्नीशियन का। बाजार में काम करनेवाले एक दिहाडी मजदूर से कम वेतन है डाटा ऑपरेटर
व अकाउन्टेंट का। कारण यह है कि एक स्थाई राजकीय कर्मचारी है और दूसरा संविदा पर, यानी सरकार की और अफसरों की मेहरबानी से ठेके पर काम करने वाला। स्त्री का जैसे
देवी कहकर दासी की तरह इस्तेमाल किया जाता है, वैसी ही हालत संविदाकर्मियों की है।
बेरोजगारी का सबसे ज्यादा लाभ कोई उठा रहा है तो वह है कल्याणकारी राज्य का दावा करने
वाली सरकारें। स्थाई कर्मचारियों की तुलना में संविदा पर रखे गए कर्मचारियों से चार
गुना अधिक काम लेकर चौथाई वेतन देना और इस बात का दावा करना कि इतने लोगों को रोजगार
दिया जा रहा है। शोषण की यह त्रासदी बहुत भयावह है। अपने बच्चों को अच्छे स्कूल में
पढाना तो दूर का सपना है, संविदाकर्मी दो वक्त का भोजन भी
ठीक से न कर सकें इतनी ही उनकी तनख्वाह है।
सरकार
यानी नेता और अफसर...! इन्हें देश सेवा से कोई सरोकार नहीं, ये कैसे अपनी कुर्सी पर जमे रहें और कैसे अधिकतम
धन-सम्पत्ति बटोर सकें, इसी
उधेडबुन में ये लगे रहते हैं। सेवा निवृत्ति की आयु पहले 55 साल थी। कर्मचारी रिटायर होता, नौजवान को मौका मिलता। कर्मचारी चूंकि मरते दम तक
कुर्सी छोडना नहीं चाहता, इसलिए
चालाकी से उसने अपनी सेवा निवृत्ति की आयु बढवा ली। 55 से 58 और फिर 60 साल; अब वह 62 और
65 करवाने की जोडतोड में लगा है। इस बीच मर जाएंगे तो
बच्चे को अनुकम्पा नौकरी मिल जाएगी, कब्जा
बना रहेगा। अपनी वेतन वृद्धियां भी नेता और कर्मचारी आराम से करवा लेते हैं, क्योंकि मंहगाई सिर्फ उन्हीं को सताती है। हर छ: माह
में स्थाई कर्मचारियों का मंहगाई भत्ता बढाता है, किन्तु संविदाकर्मियों के लिए
कुछ नहीं.
नई
भर्तियां रोक दी गईं। कर्मचारी कुछ मर-खप गए तो कुछ को रिटायर होना ही पडा, लेकिन नेताओं और कर्मचारियों ने सरकार को इतना
दिवालिया कर दिया कि पद रिक्त होने के बावजूद जहां-जहां और जितना नई भर्तियों को
टाल सकती थी टालती रही। अब जब सरकारी काम और सरकार लडखडाने लगे तो इन्होंने शोषण
का नया फण्डा तैयार किया, जिसने
संविधान को टाक में रख दिया और दुष्टता की, निर्दयता की शोषण की सारी हदें लांघ दी है। पिछले 10-15 वर्षों में सरकार ने गैर सरकारी संगठनों के पेटर्न पर
संस्थाएं बनाकर काम शुरू किया। जैसे नाको, एड्स कंट्रोल सोसायटी, एनआरएचएम, आदि-आदि।
इसमें ऊपर के स्तर पर कुछ सरकारी अधिकारी प्रतिनियुक्ति पर बैठ गए और नीचे के स्तर
पर संविदा के आधार पर मामूली वेतन पर कर्मचारी रखे जाते हैं। अफसर मजे कर रहे हैं, नेताओं को कमीशन देकर घोटाले भी कर रहे हैं, विदेश यात्राएं भी कर रहे हैं और उनकी वेतन वृद्धियां
तो रूटीन में हो ही रही हैं। नीचे संविदाकर्मियों की तरफ देखने की जरूरत ही नहीं, चां-चूं करेंगे तो नौकरी से निकाल देंगे। कैसी है यह
दुष्ट मनोवृत्ति?
क्या असंगठित व्यक्ति को मानवीय गरिमा से जीने का, अपनी
उदरपूर्ति का,
अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने का अधिकार नहीं है? सरकार इस प्रकार का भेदभाव कर क्या संदेश देना चाहती है?
हालत यह है कि इन अस्थाई कर्मचारियों के बीमा आदि के प्रावधान होते हुए भी सरकार
ने पिछले 15 वर्षों में एक भी संविदाकर्मी
का बीमा नहीं करवाया है, जबकि ये संविदाकर्मी एचआईवी, टीबी आदि के रोगियों के मध्य हाई रिस्क में भी काम करते हैं, कई संक्रमण के शिकार होकर या दुर्घटना के शिकार होकर मर भी गए, किन्तु उनकी फाइलें वहीं बंद हो गई। जनकल्याणकारी सरकार का यह असली चेहरा है।
क्या
सरकार ने असंगठित संविदाकर्मिर्यों के लिए भी कभी कुछ सोचा है? जिस योग्यता और काम के आधार पर सरकारी कर्मचारी को 40 हजार से एक लाख रुपये मासिक वेतन मिल रहा है, उसी योग्यता और काम के आधार पर एक संविदा कर्मी को 6,500 से 15,000 रुपये मासिक मिल रहा है। काम संविदाकर्मी ज्यादा करता
है और स्थाई कर्मचारी हरामी ज्यादा करता है। फिर भी वेतन वृद्धियां और मंहगाई
भत्ता स्थाई कर्मचारी का बढता है, संविदाकर्मी
रोता है। कैसा शोषण और विडम्बना है? स्थाई
कर्मचारी रिश्वत और घेटाले में भी लिप्त होता है, संविदाकर्मी के परिवार को दो वक्त का भोजन और उसके
बच्चे को अच्छे स्कूल में शिक्षण नसीब नहीं होता है। क्या यह संविधान और मानवीय
गरिमा के अनुरूप है? समान
काम के लिए समान वेतन का सिद्धान्त कहां है? क्या सरकार की यह नीति अराजकता को जन्म नहीं देगी?
जरा
हिसाब तो लगाएं कि 10-15 साल
पहले एक स्थाई कर्मचारी को कितना वेतन मिलता था और आज कितना मिलता है? वहीं एक संविदाकर्मी को उस समय कितना वेतन मिलता था
और आज कितना मिलता है? आप
चाहे उसे स्थाई न करो, जब
तक अच्छा और ईमानदारी से काम करे तब तक ही रखो, लेकिन रोटी तो पूरी दो, इतना पैसा तो दो कि वह भी अपने बच्चे को अच्छा पढा
सके।
पूरे
देश में कॉलेज व्याख्याता, अध्यापक, व्याख्याता, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य
विभाग में लाखों की संख्या में विभिन्न कर्मचारी, डाटा ऑपरेटल, अकाउन्टेंट, क्लर्क, आंगनवाडी
कार्यकर्ता आदि कल्याणकारी राज्य में ठेके पर जी रहे हैं।
·
सरकार ने बेरोजगार युवकों की हालत
तो ऐसी की है कि रिक्तियों में आवेदन के लिए प्रार्थनापत्र के लिए एक हजार से पांच
हजार आवेदन शुल्क मांगा जा रहा है। राजस्थान स्वास्थ्य विज्ञान विश्वविद्यालय द्वारा
आवेदन पत्रों के लिए पांच-पांच हजार रुपये लिए गए। अन्य विश्वविद्यालयों में भी आवेदन-पत्रों
के एक-एक हजार रुपये लिए जा रहे हैं। बेरोजगार युवकों के साथ इससे बडा भद्दा मजाक और
क्या हो सकता है?
कल्याणकारी
राज्य कि यह कैसी दुष्ट प्रवृत्ति है? संविदाकर्मी नौकरी
से
निकाल
दिए
जाने
के भय से अन्दर ही अन्दर घुटता है, लेकिन न
मीडिया
उसकी
पीडा
को
देखता
है
और
न
न्यायपालिका। क्या
यह
संविधान
और
मानवीय
गरिमा
के
अनुरूप
है? समान काम के लिए समान वेतन का सिद्धान्त
कहां
है? क्या सरकार की यह नीति अराजकता को जन्म नहीं देगी?
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