मंगलवार, 31 जनवरी 2017

शान्ति पाने का तरीका

सभी जीव शान्ति चाहते हैं, अशान्ति कोई नहीं चाहता, लेकिन शान्ति और अशान्ति के साधन के बारे में अनेक मतभेद हैं। एक जिसे अशान्ति का कारण मानता है, दूसरा उसे शान्ति का साधन मानता है। एक को जिसके योग में शान्ति लगती है, दूसरे को उसी के योग में अशान्ति लगती है। आजकल सभी लोग येन-केन-प्रकारेण अपना स्वार्थ साधने में लगे हैं, उससे दूसरे को कष्ट पहुंच रहा है, इसकी रत्तीभर चिन्ता उन्हें नहीं है। यह वृत्ति कई बार इंसान को जानवर से भी बदतर बना देती है। विवेकी मनुष्य के मन में होता है कि मुझे जिस तरह अनुकूलता पसंद है और प्रतिकूलता पसंद नहीं है, वैसे सभी जीवों को अनुकूलता अच्छी लगती है और प्रतिकूलता खराब लगती है। इसलिए मुझे ऐसा व्यवहार करना चाहिए जो किसी के लिए प्रतिकूल न हो और जिसके कारण किसी को अशान्ति न हो। ऐसी वृत्ति से आपको अवश्य ही शान्ति मिलेगी और धर्म आए बिना नहीं रहेगा, क्योंकि किसी की पसंद में बाधक न बनना हो तो मुझे कैसे जीना चाहिए’, यह भाव पैदा हुए बिना नहीं रहेगा और इससे आज जो मनुष्य, मनुष्य कोटि में आने लायक नहीं रहा है, वह सच्चा मनुष्य बन जाएगा।-सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 30 जनवरी 2017

शान्ति दे, वह धर्म

धर्म की एक सर्वसाधारण व्याख्या है कि जो आत्मा की अशान्ति को हटाकर शान्ति प्रदान करे, उसे धर्म कहते हैं।जीवन में अशान्ति पैदा करने वाली परिस्थितियों के बावजूद जिसके कारण शान्ति का अनुभव किया जा सके और जिसके कारण क्रमशः सम्पूर्ण शान्ति बिना मांगे मिले, वही धर्म है। जीवन में शान्ति की कितनी जरूरत है और यह कितनी कीमती है, इसका पता वास्तव में तब चलता है, जब अशान्ति के समय आदमी को रास्ता नहीं सूझता है। जीवन में कुछ ऐसे प्रसंग, कुछ ऐसे संयोग उपस्थित होते हैं कि आदमी अपनी सुध-बुध खो बैठता है, मन पर काबू खो बैठता है। उस समय उसकी बुद्धि काम नहीं करती। क्या करे, क्या न करे, यह समझ में नहीं आता और उसे अशान्ति की आग घेर लेती है। ऐसे समय में कितना भी धृष्ट आदमी क्यों न हो, उसे शान्ति का महत्त्व ज्ञात हो ही जाता है। इसी शान्ति को जो प्राप्त कराए और अशान्ति को दूर करे, वह धर्म है। जो शान्ति से जीने दे और शान्ति से मरने दे, वह धर्म है। इतना होने पर भी दुःख की बात यह है कि इस आर्य देश में जन्म पाए मनुष्य ऐसी चीजों में उलझ गए हैं कि उन्हें इतने महत्त्व की बात पर सोचने-विचारने की मानो फुरसत ही नहीं हो। वास्तव में शान्ति और अशान्ति देने वाले कारणों पर तात्त्विक विचारों के आदान-प्रदान की प्रवृत्ति हमारे यहां लगभग बंद सी हो गई है।-सूरिरामचन्द्र

रविवार, 29 जनवरी 2017

तप के बिना इंसान शैतान हो जाता है

अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म उत्कृष्ट मंगल है। जिन आत्माओं का अंतःकरण धर्म में सदा लीन रहता है, उन आत्माओं को देवता भी पूज्य मानते हैं।अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म की उत्कृष्ट आराधना करने की जो शक्ति मनुष्य में है, वह देवों में भी नहीं है। इसी कारण देव भव से मनुष्य भव को ऊंचा माना गया है। यह बात बराबर खयाल में आ जाए तो अपना अनुचित वर्तन अखरे बिना और जीवन सुधरे बिना नहीं रहेगा।

धर्म के तीन भेद अहिंसा, संयम और तप बतलाए हैं। उसमें सबसे पहले तप को समझना चाहिए। तप के साथ संयम आने लगता है और संयम आएगा तो अहिंसा भी अवश्य आएगी। इसलिए कह सकते हैं कि व्यक्ति जब तक तपस्वी नहीं बनता है अथवा तपस्वी बनने की इच्छा नहीं करता है, तब तक इंसान नहीं बनता है। सिर्फ भूखे-प्यासे रहना, उसी को तप नहीं कहा जाता है। ज्ञानियों ने इच्छा निरोध को तप कहा है। आज अनेक तपस्वियों को यह बात खयाल में नहीं है। सदाचार की नींव इच्छा-निरोध है। इच्छा निरोध का अभाव आदमी को शैतान भी बना दे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आज मनुष्य का व्यवहार-वर्तन कैसा है? हम सच्चे मनुष्य हैं या नहीं? इसका विवेक पूर्वक प्रतिदिन थोडा विचार किया जाए तो स्वयं को खयाल आ सकता है।-सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 28 जनवरी 2017

नाशवंत पदार्थों के लिए क्या हाय-हाय ?

तत्वज्ञानी महापुरुषों ने संसार के सभी पदार्थों का विचार कर आत्मा के स्वभाव को प्रकट करने के लिए प्रयत्नशील बनने का उपदेश दिया है, क्योंकि आत्मा के शुद्ध स्वरूप के प्रकटीकरण के बाद शाश्वत काल वह शुद्ध ही रहता है, उसमें परिवर्तन नहीं आता है। दुनियावी पदार्थ नाशवंत हैं, कितनी ही मेहनत व कितने ही पाप करके दुनियावी पदार्थ प्राप्त किए हों, फिर भी वे पदार्थ टिकने वाले नहीं हैं। कई लोग तो उन्हें प्राप्त करने के बाद इस जीवन में ही खो देते हैं। प्राप्त सुख चला जाए, यह किसी को पसन्द नहीं है, फिर भी पदार्थों का वियोग निश्चित है, तो फिर उन पदार्थों में संयोग का सुख पाने के लिए प्रयत्न करना कौनसी बुद्धिमत्ता है?

प्राप्त सुख का साधन स्थाई हो तो प्राप्त सुख स्थाई रह सकता है। वह सुख आत्मा के सिवाय किसी में नहीं है। अतः अपनी आत्मा को ऐसी शुद्ध बना दें कि अनंतकाल के बाद भी शुद्धस्वरूप में परिवर्तन होने न पाए। जब तक आत्मा पुण्य-पाप से लिप्त है, तब तक आत्मा शाश्वत सुख प्राप्त नहीं कर सकती है। पुण्य-पाप से रहित बनने पर ही आत्मा शाश्वत सुख में स्थिर हो सकती है। उस स्थिति को पाने का वास्तविक उपाय ही जैन धर्म है। आत्मा को पाप व पुण्य से रहित बनाने के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र की आराधना बताई गई है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूपी रत्नत्रयी ही मोक्षमार्ग है।-सूरिरामचन्द्र

शुक्रवार, 27 जनवरी 2017

पशुओं से अधिक हिंसक है स्वार्थी मनुष्य

आत्मा, पुण्य, पाप आदि का जिसे खयाल नहीं और जो संसार-सुख का तीव्र पिपासु है, ऐसा मनुष्य, जगत के लिए श्रापरूप न बने तो एक आश्चर्य ही होगा। विषय-कषाय में आनंद और अर्थ-काम के योग में सुख मानने वाले मनुष्य हिंसक पशुओं से भी ज्यादा खतरनाक हैं। स्वार्थी मनुष्य जितना उपद्रव मचाता है, उतना उपद्रव पशु भी नहीं मचाते हैं। संसार में आसक्त मनुष्य में दुनियावी पदार्थ पाने व उन पदार्थों के संग्रह-संरक्षण की जो भूख होती है, वैसी भूख और संग्रहवृत्ति पशुओं में भी नहीं होती है। मनुष्य योजनापूर्वक जो अमर्यादित हिंसा करता है, उतनी हिंसा पशु भी नहीं करता है। मनुष्य योजनापूर्वक पाप करता है और उन पापों को छिपाता है। कई ऐसे ठग होते हैं जो सरकार से भी पकडे नहीं जाते हैं और कदाचित् पकडे जाएं तो वकीलों द्वारा अपना बचाव कर लेते हैं। आज मनुष्य मात्र के सभी पाप प्रकट हो जाएं तो कानून के हिसाब से ही कितने लोग जेल से बाहर रहने योग्य निकलेंगे? ऐसे मनुष्यों को मानव कहें या राक्षस, यही विचारणीय है। जगत में ऐसे मनुष्य ज्यों-ज्यों बढते हैं, त्यों-त्यों उपद्रव भी बढते हैं, यह स्वाभाविक है।-सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 26 जनवरी 2017

धर्म ही दूर कर सकता है मनुष्य का जहर

मनुष्य के हृदय में रहे जहर को दूर करने का काम धर्म करता है। जिसके हृदय में धर्म का प्रवेश होता है, उसके हृदय में से जहर दूर हो जाता है। आज जो धर्म के नाम पर लोगों में जहर पैदा किया जा रहा है, वह वास्तव में धर्म है ही नहीं, धर्म के पाखण्ड में और वास्तविक धर्म में बड़ा फर्क है. आज मनुष्य के हृदय में इतना जहर उछल रहा है कि जिसके कारण संहार के साधन बढ रहे हैं। आज मानव, मानवता छोडकर राक्षस बनता जा रहा है। अपने स्वार्थ में बाधक बनने वाले का संहार किया जाता है, उसमें वीरता और सेवा मानी जाती है। आर्य देश में यह मनोवृत्ति नहीं होनी चाहिए, परन्तु आज वातावरण बिगड रहा है।

यह भव भोग के लिए नहीं, त्याग के लिए है। दुनियावी पदार्थों की ममता दूर हो और आत्म-सुख प्रकट करने की कामना उत्पन्न हो, तब मानव, दानव के बजाय देव बन सकता है। आपको क्या बनना है, इसका निर्णय आप ही कीजिए। पाप से उपार्जित सभी वस्तुएं यहीं रहने वाली है और पाप साथ चलने वाला है, यदि ऐसा विश्वास हो तो पाप से बचने के लिए प्रयत्नशील बनो, स्वार्थी मनोवृत्ति का त्याग करो। स्वार्थ पाप कराता है, ‘पाप से दुःख और धर्म से सुख’, इस बात पर आपको विश्वास है, इसलिए सीधी बात करता हूं कि पाप छोडो और धर्म का सेवन करो, जिससे आपका दुःख चला जाए और सुख प्राप्त हो।-सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 25 जनवरी 2017

स्वार्थी मनुष्य के हृदय में जहर होता है।

आज स्वार्थवृत्ति इतनी अधिक बढ गई है कि अपने सामान्य स्वार्थ के लिए भी व्यक्ति अन्य जीवों के प्राण ले लेता है। सांप ने नहीं काटा हो तब भी यह विषैला प्राणी है, कदाचित् काट लेगा’, इस भय से उसे मार दिया जाता है। आज स्वार्थी मनुष्य जितना हिंसक व क्रूर बन गया है, उतने हिंसक व क्रूर तो हिंसक व विषैले प्राणी भी नहीं हैं। सांप विषैला होने पर भी उस सांप से मदारी अपनी आजीविका चलाता है। सिंह, बाघ, चित्ता आदि हिंसक होने पर भी सर्कस वाले उनसे अपनी कमाई करते हैं। इस दृष्टि से वे विषैले और हिंसक प्राणी भी मनुष्य की कमाई कराने में सहायक बनते हैं, जबकि अति स्वार्थी मनुष्य किसी का सहायक नहीं बनता, बल्कि वह तो अनेकों का बुरा ही करता है।

सांप काट लेगा।इस भय से सांप को मारने वाला क्या कम विषैला है? सांप के तो दांत में जहर होता है, जबकि स्वार्थी मनुष्य के हृदय में जहर होता है। ज्ञानियों द्वारा निर्दिष्ट हिताहित का विवेक जिसमें नहीं है, ऐसा व्यक्ति अपना विरोध करने वालों को क्या-क्या नुकसान नहीं पहुंचाता है? उसके हृदय में तो इतना भयंकर जहर होता है कि वह अपने स्वार्थ के लिए सामने वाले का खून भी कर सकता है।-सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 24 जनवरी 2017

परिणामों का विचार किया है?

संसार के ऐश्वर्य भोगने में सुख नाम मात्र का और परिणाम में दुःख का पार नहीं, इसीलिए ही तारकों ने केवल मोक्ष मार्ग का उपदेश दिया। ज्ञानीगण परिणामदर्शी थे। दुनिया में भी चतुर वे ही गिने जाते हैं जो कि परिणाम का विचार करते हैं। आप परिणाम का विचार करते हैं क्या? आप इस संसार में जो प्रवृत्ति कर रहे हैं, उसका क्या परिणाम आएगा, इसका खयाल करते हैं? शायद कोई भाग्यवान ही ऐसा खयाल करता होगा।
पाप प्रवृत्ति के परिणाम का आदमी को वास्तविक खयाल आ जाए तो वह कंपित हुए बिना नहीं रहेगा। परिणाम के खयाल वाला पापभीरू नहीं हो, ऐसा संभव नहीं। भीरुता की कोई प्रशंसा नहीं करता है। ज्ञानी भी भीरुता को निकालने और वीरता धारण करने का उपदेश देते हैं। तदुपरांत भी वे ही ज्ञानीगण फरमाते हैं कि पाप की भीरुता अवश्य ही सीखनी चाहिए। पाप भीरुता, यह सामान्य कोटि का सद्गुण नहीं है।

एक तरफ सत्वशील बनने का उपदेश, दूसरी तरफ पाप भीरू बनने का उपदेश, इन दोनों संबंधों का परस्पर विचार कर देखो। इनमें परस्पर विरूद्ध भाव नहीं है। पापभीरुता सच्ची सत्वशीलता को विकसित करने वाली वस्तु है। विचार तो करके देखो कि पाप किए बगैर जीवन बिताना कठिन है या जीवन को पापमय दशा में बिताना कठिन है? पाप करना सरल है या पाप से बचना सरल है? निष्पाप जीवन जीना हो तो इन्द्रियों के ऊपर नियंत्रण रखना पडता है। मन-वचन-काया के ऊपर संयम धारण करना पडता है और भूख-तृषा, मान-अपमान, सर्दी-गर्मी आदि सहन करना पडता है।-सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 23 जनवरी 2017

पुण्य-पाप ही साथ जाने वाले हैं



यह सत्य है कि जो जन्मे हैं उनका मरण निश्चित है। इच्छा या अनिच्छा से, मरे बिना चलता नहीं है। किन्तु, यह विचार करो कि मरता कौन है? आत्मा मरती नहीं है। आत्मा तो है और रहने वाली है। यहां से मरण के बाद सारा खेल समाप्त हो जाता होता तो ज्ञानियों ने धर्म का उपदेश न दिया होता। किन्तु, यहां से मरने के बाद खेल समाप्त नहीं होता है। यहां से मर कर जो आत्माएं मोक्ष में नहीं जाती है, उन समस्त आत्माओं के लिए यह नियम है कि यह शरीर छूटा और कृतकर्मानुसार निश्चित समय में नूतन शरीर का संबंध बन जाता है। मनुष्य मरता है, उसके साथ उसके पुण्य-पाप नहीं मरते हैं।

आप जानते हैं कि यह शरीर यहां रहेगा, किन्तु कार्मन और तेजस शरीर साथ में जाता है। मनुष्य यहां से मरता है, इसलिए पुण्य-पाप के योग से दूसरे स्थान पर निश्चित समय पर वह आत्मा नवीन शरीर धारण करता है। इससे यह स्पष्ट है कि पुण्य-पाप यह सभी आत्मा के साथ ही जाते हैं। इसीलिए बांधे हुए कर्म शान्ति पूर्वक भोगने के सिवाय या तप आदि से उन्हें खपाए बिना सुख के अर्थी को छुटकारा नहीं है। कर्म का संबंध छूटे नहीं, वहां तक मरण के पीछे जन्म निश्चित है। कर्म से छूटना और कर्म छूटने के योग से दुःख और जन्म से मुक्त होना ही सच्चे सुख का मार्ग है।-सूरिरामचन्द्र

रविवार, 22 जनवरी 2017

मौत तो निश्चित है !


जिनका जन्म हुआ, उनका मरना निश्चित है। मरण के बाद जन्म नियम से होता ही हो, ऐसा नहीं है। जो-जो मरते हैं, वे-वे जन्म लेते हैं, ऐसा एकान्त नियम नहीं है। किन्तु जो-जो जन्मते हैं, वे मरण प्राप्त किए बिना नहीं ही रहते, यह तो निश्चित ही है। अनंतकाल में अनंत आत्माओं ने मरण के बाद वापस जन्म नहीं लिया, ऐसा हुआ है। किन्तु अनंतकाल में एक भी आत्मा ऐसा नहीं जन्मा कि जो वापस मरा नहीं हो। मृत्यु के साथ जन्म यह एकान्त नियम नहीं है, किन्तु जन्म के साथ मुत्यु यह एकान्त सत्य है। यहां से मरकर श्री सिद्धगति को प्राप्त आत्माएं यानी मोक्ष में जाने वाली आत्माएं पुनः जन्म नहीं लेतीं। जो जन्म लेगा, उसकी मृत्यु निश्चित है।
आप मरोगे या नहीं? आज जिस शरीर का आप संस्कार करते हैं, बारम्बार साफ किया करते हैं, जिसके ऊपर अत्यंत मोह रखते हैं, वह एक दिन अग्नि में भस्मीभूत हो जाएगा, ऐसा आपको लगता है? शरीर यहां रहेगा और आपको अपने कर्मों के साथ किसी अन्यत्र स्थान पर जाना पडेगा, ऐसा लगता है? आपका सर्वाधिक प्रिय स्नेही आपके शरीर को मोटी-मोटी लकड़ियों पर सज्जित करेगा, आपके शरीर पर बडे-बडे लकडे रखेगा और उसके बाद उसमें आग लगा देगा, इतना ही नहीं आपका शरीर जल्दी से जल्दी भस्मीभूत हो इसके लिए वह आग में घी और डालेगा, राल फेंकेगा ताकि जल्दी से जल्दी आग पकडे और दाह-संस्कार फटाफट हो, ऐसा आपको लगता है?
लोगों को मरते हुए या उनके शव के दाह संस्कार को तो आपने आपकी जिन्दगी में कई बार अवश्य देखा होगा। कभी आपको लगा कि एक दिन मेरे शरीर की भी यही हालत होनी है? किसी के अंतिम संस्कार के लिए, किसी को जलाने के लिए श्मशान गए हो, तब कभी आपको ऐसा लगा कि इस प्रकार से किसी दिन मेरे शरीर को भी स्नेहीगण, संबंधीगण, पडौसी आदि ले जाएंगे और मेरा खून ही मेरे शरीर को आग लगा देगा? धन-सम्पत्ति कुछ भी साथ नहीं लेजा सकोगे।
आपको यह निश्चित हो कि मेरा यह शरीर अमर रहने वाला है तो बोलो! किन्तु भयंकर से भयंकर पापात्माएं भी अंतिम कोटि के नास्तिक होने पर भी यह बात तो अंत में जानते हैं कि एक दिन ऐसा अवश्य आएगा कि जिस दिन इस शरीर को कोई संग्रह करने वाला नहीं है। या तो जला देंगे या तो दफनाकर छोड देंगे। मानो कि अशुभ के योग से जो कोई ऐसे स्थान में मरे हों तो जंगल में पशु-पक्षी, चील-कौए उसका भक्षण करेंगे। समुद्र इत्यादि में फेंक देंगे, किन्तु शरीर के लिए ऐसा कुछ न कुछ होने वाला ही है, यह निश्चित बात है। तो फिर संसार में संसार को और बढाने की लालसा या हायतौबा क्यों, किसके लिए? -सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 21 जनवरी 2017

अहंकार और चापलूसी डुबोने वाले हैं



वर्तमान मौजशोख के साधन व भौतिकता की चकाचौंध में ही जो स्वर्ग व मोक्ष की कल्पना करता हो, उसे तो धर्मशास्त्र भी सिर्फ बोझारूप लगेंगे। भावी जीवन को सुधारने और आत्महित की चिंता के प्रति जो बेपरवाह हैं, उन्हें अपने स्वयं के दोष सुनने की इच्छा भी नहीं होती है, फलस्वरूप शिष्ट पुरुषों का समागम और तत्त्वचिंतन आदि गुणों का आगमन बन्द हो जाता है और जीवन में अहंकार आ जाता है। ऐसे लोगों को फिर चापलूसी ही अच्छी लगती है, जो स्वयं भी डूबता है और दूसरे को भी डुबो देता है। चापलूसी तीन घोर घृणित दुर्गुणों का मिश्रण है- असत्य, दासत्व और विश्वासघात। आज अधिकांश लोगों को चापलूसी ही पसंद है, उनमें अपनी कमियां या क्षतियां सुनने की ताकत नहीं रही है, इस कारण कोई खरी-खरी कहे तो बुरा लगता है; परन्तु जब आत्मज्ञान होगा, तब अपनी भूल बताने वाले उपकारी लगेंगे।-सूरिरामचन्द्र

शुक्रवार, 20 जनवरी 2017

मर्यादा का दिवाला निकल रहा है



मर्यादा रहेगी वहां तक धर्म रहेगा। महापुरुष भी किसी की निश्रा में रहते थे, उनकी आज्ञानुसार चलते थे। आज चारों ओर मर्यादा का दिवाला निकलता जा रहा है। कोई किसी की सुनने या मानने को तैयार नहीं। पुत्र माता-पिता की बात नहीं मानते और विद्यार्थी शिक्षक का उपहास करते हैं। आज युवकों की क्या दशा है, यह तो अखबार पढनेवाले आप लोगों को मालूम ही है, ये युवक अपने बाप के भी बाप बन गए हैं। और प्रोफेसर के भी प्रोफेसर बन गए हैं। कॉलेजों के संस्थापक कॉलेजों को कैसे चलावें, इस चिंता में हैं और नए कॉलेज न खोलने के निर्णय पर आए हैं। दुनिया में पढे-लिखे गिने जानेवाले अपनी होंशियारी का उपयोग भी दुनिया को परेशान करने में और स्वयं का स्वार्थ साधने में कर रहे हैं।

आत्मा का ज्ञान हुए बिना, जितना अधिक पढा जाए उतना अधिक गंवारपन आता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण आज के कॉलेज हैं। आत्म-ज्ञान से रहित व्यक्तियों को ज्ञान देने का यह परिणाम है। आत्म-ज्ञान से, धर्म से जीवन में मर्यादा आती है और मर्यादा होने से घरों का संचालन भी ठीक तरह से होता है। मर्यादा से रहित घरों में हमेशा झगडे हुआ करते हैं। मिथ्याज्ञान पाकर आपके लडके आपके न रहें यह आप सहन कर सकते हैं, परन्तु सम्यग्ज्ञान से आपके लडके आपके न रहकर साधु बन जाएं तो यह आप सहन नहीं कर सकते। कैसी गजब की बात है? -सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 19 जनवरी 2017

जंगली जमाना



देश बरबाद हो रहा है। मनुष्य, मनुष्य नहीं रहा। मनुष्य के अतिरिक्त अन्य जीवों को तो मानो जीने का अधिकार ही नहीं, ऐसी हवा फैलगई है। वर्तमान युग, हिंसक युग है। जिस युग को आप अच्छा मानते हैं, वह घोर घातकी युग है। लाखों जीव काटे जाते हैं; वह भी कानून का ठप्पा लगाकर। आप इस हिंसा को रोक भी नहीं सकते। यदि रोकने का प्रयत्न करो तो देशप्रेमीन गिनाओ। आज मनुष्य, मनुष्य से घबराकर चलता है। जानवर से तो थोडी दूरी पर रहे तो निर्भय, परन्तु मनुष्य तो पीछे पडजाता है। अतः उससे डरकर रहना पडता है। ऐसा यह युग है। कैसा विचित्र है यह युग !! इतनी अधिक अधोगति हो रही है, तथापि प्रगति हो रही हैऐसा बोलने वालों को लज्जा तक नहीं आती। यह अचरज की बात नहीं है? ऐसा जंगली जमाना तो कभी नहीं रहा होगा।

आजकल एकता की बातों के नाम पर ही एकता के टुकडे हो रहे हैं। धर्म के नाम पर जाति के नाम पर राजनीति हो रही है। भूतकाल में जो एकता थी, वह आज देखने को नहीं मिलती। अमेरिका का अनाज यहां आता है, परन्तु यहां के एक प्रांत का अनाज दूसरे प्रांत के काम नहीं आता। विदेशी भी अनाज देकर कोई उपकार नहीं करते! वे अपना कचरा यहां सरका देते हैं और यहां की अच्छी चीज वहां जाती है। कैसी विरोधाभासी और विनाशक नीतियां है और कहते हैं कि प्रगति हो रही है। यह कितने शर्म की बात है! आज देश का उद्धार नहीं, अधःपतन हो रहा है। शक्ति बढने के साथ आपके घरों में मौज-शौक के साधन तो बढते ही जाते हैं, परन्तु धर्म के साधन बढते हुए कहीं नजर नहीं आते हैं।-सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 18 जनवरी 2017

तृष्णा का आतंक




मन की तृष्णा ने आज कितना भयानक आतंक फैलाया है? पिता-पुत्र, पति-पत्नी, बडा भाई, छोटा भाई, सास-बहू इन सब लोगों के बीच का व्यवहार देखो। जरा सोचो तो सही एक दूसरे के लिए कितनी ईर्ष्या, द्वेष-भावना दिल में भरी हुई है? मन की तृष्णा बढी है। पर-वस्तुओं को प्राप्त करने की व भोगने की लालसा बढी है और त्याग-भावना नष्टप्रायः हो गई है। इसके परिणामस्वरूप आज के संसार में भयानक भगदड और भागदौड मच रही है। लोग भौतिकता की चकाचौंध में अंधे हो गए हैं। जब तक मन की भयानक भूख नहीं मिटेगी और त्याग की भावना पैदा नहीं होगी, तब तक ऐसी भगदड और भागदौड मची रहेगी, इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है। इस तरह विचार किया जाए तो अवश्य समझ में आएगा कि मन की भौतिक भूख ही सारे विनाश का कारण है। संसार के प्रति अरुचि न हो तो, धर्म किस काम का? अधिक प्राप्त करने के लिए धर्म किया जाता हो तो वह धर्म, धर्म रहता ही नहीं, धंधा हो जाता है, बिना पैसे के धंधे जैसा। आज आपको साधुओं की आवश्यकता क्यों है? बहराने के लिए? इनके पगल्ये हों तो घर में लक्ष्मी के पगल्ये हो जाएं इसलिए? या धर्म करने हेतु शास्त्र की विधि का ज्ञान आवश्यक है इसलिए?

पूर्व के कई जन्मों के असीम पुण्योदय से यह मानव जीवन मिला, आर्य संस्कृति और उच्च कुल मिला, धर्म गुरुओं का सान्निध्य और धर्म श्रवण का लाभ मिला, वैभव मिला। पूर्व संचित पुण्य से जो कुछ मिला उसे भोग कर नष्ट कर रहे हो और पुराना पुण्य का खाता बन्द कर रहे हो और भौतिक संसारी सुख में बेभान होकर नया पाप का खाता चालू कर रहे हो तो आगे क्या बनोगे- कीडे मकोडे, सांप-बिच्छू? अरे कुछ तो समझो!-सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 17 जनवरी 2017

मोक्ष-साधक यज्ञ



शरीर वेदिका है, आत्मा यज्ञ की कर्ता है, तप अग्नि है, ज्ञान घी है, कर्म समिधा (काष्ठ) है, क्रोध आदि पशु हैं, सत्य यज्ञ स्तम्भ है, समस्त प्राणियों की रक्षा ही दक्षिणा है और रत्नत्रयी (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र) त्रिवेदी है। इस प्रकार किया गया यज्ञ मोक्ष का साधन होता है। रत्नत्रयी (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र) रूपी त्रिवेदी में स्थिर होने वाली आत्मा स्वयं ही यज्ञ की कर्ता है और वेदिका अपना शरीर ही है। उसमें वह तपस्या रूपी अग्नि जलाता है और उस अग्नि को प्रज्वलित रखने के लिए ज्ञानरूपी घृत की धारा अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित रखी जाती है। उस प्रज्वलित अग्नि में कर्मरूपी काष्ठों को डालकर क्रोध आदि कषायोंरूपी पशुओं की उसमें आहुति दी जाती है। सत्य यज्ञ का स्तम्भ है। प्राणी-मात्र की रक्षा करना दक्षिणा है। इस प्रकार का मन, वचन और कायारूपी तीनों योगों की तल्लीनतापूर्वक यज्ञ करने वाला मनुष्य उस यज्ञ को मुक्ति का साधन बनाता है।-सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 16 जनवरी 2017

अच्छे माता-पिता कब उपालंभ देते हैं?



आप कदाचित सुखी घर में जन्मे होंगे, परन्तु बचपन में आपके माता-पिता ने आपको पीटा है या नहीं? थोडा-बहुत गिराने पर या तोडने-फोडने पर मार पडी होगी न? संस्कार बचपन से ही कैसे मिले हैं? सुखी मनुष्य सांसारिक चीज का नुकसान सहन न होने से मारता है और खराब मार्ग में जाने से रोकने के लिए पीटता है, इन दोनों में भेद है या नहीं है? सुखी मनुष्य सज्जन हो तो सांसारिक चीज को महत्त्व नहीं देता है। स्नेह और सम्बंध के सामने उस नुकसान की कोई कीमत नहीं। वह कहता है कि ऐसी भूल तो होती रहती है। परन्तु स्नेही-सम्बंधियों में कोई खराब काम हो जाए तो उसके लिए उपालम्भ दिए बिना वह नहीं रहता।

प्रामाणिकता से धंधा करते हुए बाजार की उथल-पुथल से पुत्र लाख रुपये खो आता है तो वह मुंह नहीं बिगाडता और पुण्य-पाप की बात करके आश्वासन देता है। जबकि वही पिता लडके द्वारा अनीति से पांच लाख कमाकर आने की स्थिति में मुंह बिगाडता है और अनीति से धनवान बनने की अपेक्षा नीति से जो मिले उसी में जीवन चला लेना अच्छा है, ऐसा समझता है। अनीति से पांच लाख लेकर आए तो भी उपालम्भ देना और नीति से व्यवहार करते हुए लाख खोकर आए तो भी उपालम्भ न देना, यह बात आपको रुचती है?

आर्यदेश के सामान्य संस्कार ऐसे होते हैं कि अच्छे कुटुम्बों में सांसारिक कार्य बडों को पूछे बिना नहीं होते। परन्तु, किसी प्रसंग पर अच्छा काम बडों को पूछे बिना भी किया जाता है। ऐसे भी पिता होते हैं कि किसी अच्छे काम में पूछे बिना लडका लाख रुपया दे आया हो तो कहते हैं कि मेरा लडका है न? ऐसे काम में तो वह देकर आएगा ही।इस प्रकार धर्मी मां-बाप का लडका समझता है कि धर्म करने का मन हो जाए और माता-पिता को पूछने का अवसर न हो, तो बिना पूछे भी धर्म करने में कोई आपत्ति नहीं है। उसे विश्वास होता है कि मेरे माता-पिता धर्म के काम में बाधा देने वाले नहीं हैं। अवसर हो तो वे पुत्र-पुत्री वयस्क होने पर विनय धर्म का लोप न करें और माता-पिता की अनुमति अच्छे काम में भी ले लें। परन्तु, ऐसा अवसर न हो और धर्म करने का मन हो जाए तो वह धर्म करने से रुक जाए, ऐसा नहीं होता। इसलिए उत्तम कुल-जाति आदि के महत्त्व को शास्त्र ने मान्य रखा है। ऐसा होते हुए भी अकुलीन कुल में कोई जीव पाप के उदय से आ गया हो, परन्तु पूर्व में धर्म करके आया हो और उसके पूर्व भव के संस्कार जागृत हो जाएं तो वह धर्म पा सकता है। बात यह है कि हम कुल, जाति आदि के असर को नहीं मानते हैं, ऐसा नहीं। परन्तु, इस काल में, उत्तम गिने जाने वाले जाति, कुल में पहले जो उत्तम प्रभाव था, वह बहुत क्षीण हो चुका है। क्योंकि, आचार-विचार और संस्कार में बडा अंतर आ गया है।-सूरिरामचन्द्र

रविवार, 15 जनवरी 2017

लक्ष्मी का अति लोभ पागल बना देता है



यदि लक्ष्मी के रागी मनुष्य के हृदय में यह बात बराबर जंच जाती है कि मेहनत करने पर भी लक्ष्मी उसको ही मिलती है, जिसका पुण्य हो और पुण्य बांधने का अच्छे से अच्छा उपाय प्राप्त लक्ष्मी का दान करना है’, तो वह प्रेम से दान देता है। उसके पास कोई मांगने जाता है तो उसे ऐसा लगता है कि यह मुझे पुण्य-बंध कराने आया है।

विवेक हो तो तैरने का साधन आया, ऐसा लगता है, परन्तु केवल पुण्य पर विश्वास हो तो भी आए हुए को पुण्य का साधन मानकर जो देता है, वह आनंद के साथ देता है। वह ऐसा नहीं कहता कि मैंने कैसे कमाया है, तू नहीं जानता। खून का पानी किया है! मैंने कमाया वह इस तरह दे-देकर उडाने के लिए नहीं कमाया! पैसा चाहिए तो मेहनत करो! ऐसा व्यक्ति जब चार लोगों के बीच बैठा हो, तब ऐसा कहे कि पुण्य से लक्ष्मी मिली है’, तो क्या वह अपने दिल की बात बोलता है?

लक्ष्मी का अतिलोभ मनुष्य को पागल बना देता है। सरोवर भरा हो तो वहां प्यासे जीव पानी पीने आते हैं न? जहां पानी हो, वहां मनुष्य पानी भरने जाए और जानवर पानी पीने आए, इसमें क्या नवीनता है? आपके पास कोई मांगने आया, वह आपको सुखी जानकर आया न? इस अवसर पर पुण्य का विचार कहां भाग जाता है? ‘मुझे पुण्य से मिला है’, ऐसा मानने वाला, ‘मांगने वाले का पुण्य नहीं था, जिससे उसे नहीं मिला’, इतना भी नहीं समझता?

पुण्य न हो तो मांगने पर मजदूरी भी नहीं मिलती!इतना भी विचार वह नहीं करता। उसे ऐसा भी विचार नहीं आता कि मुझे अभी तो पुण्य से मिला है, परन्तु यहां यदि मैं पुण्य उपार्जन न करूं तो भविष्य में कदाचित इससे भी खराब दशा आ सकती है।परन्तु मेरा पुण्य’, इस प्रकार जो बोलता है, उसके हृदय में भी ऐसा ही हो तो उस पुण्यशाली को ऐसा विचार आता है न? सच बात तो यह है कि जिनका पुण्य पापानुबंधी होता है, वे प्रायः पुण्य भोगते हैं और पाप बांधते हैं। तात्पर्य यह है कि केवल पापानुबंधी पुण्यवालों के पास तो अपनी प्राप्त लक्ष्मी का सद्व्यय करावे, इस प्रकार का दिल होता ही नहीं है।

पुण्य से मिला है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता, परन्तु अकर्मी के हाथ में पेढी आ जाने जैसी बात है। ऐसा होता है न? जो लडके कमाते तो नहीं, परन्तु बाप की पूंजी को सुरक्षित भी नहीं रख सकते, उन्हें जगत् में क्या कहा जाता है? वैसे ही आप भी इस सामग्री का सदुपयोग न कर सको, इस सामग्री की कीमत को न समझ सको और यहां से फिर संसार में भटकने के लिए चल पडो तो क्या कहा जाए?-सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 14 जनवरी 2017

संसार जैसा राग धर्म में नहीं



विद्यार्थी पाठशाला से घर जाता है तो क्या पढा हुआ भूल जाता है? विद्यार्थी केवल पाठशाला में ही पढता है या घर पर भी पढता है। व्यापारी दुकान से घर जाता है, तो क्या उसके दिमाग से व्यापार की सब बात निकल जाती है? चाहे वह घर पर व्यापार की बात न भी करे तो भी उसके दिमाग से व्यापार की सब बात नहीं निकल जाती। तेजी का व्यापार किया हो और घर पर आराम से समाचार पत्र पढते हुए मंदी होने के समाचार देखने में आएं तो व्यापार की याद आए बिना रहेगी? दुकान पर गया हुआ गृहस्थ, घर पर क्या है, कैसे है, यह भूल जाता है क्या? नहीं। दुकान पर बैठा हुआ व्यक्ति घर की खबर है’, ऐसा कहता है और घर पर बैठा हुआ व्यक्ति दुकान की खबर है’, ऐसा कहता है।

वहां घर-दुकान-संसार में जैसा राग है, वैसा यहां धर्म में नहीं है, इसलिए जागृति टिकती नहीं है। धर्म के राग में कमी संसार के सुख के प्रति गाढ राग के कारण है, यह आपको अनुभव होता है क्या? इन सबको सुरक्षित रखते हुए धर्म हो तो करना, ऐसा लगता है न? परलोक में कौन उपयोगी होगा, धर्म या संसार का सुख? आपको और नहीं तो इतना विचार तो आता है न कि यहां से मुझे जाना है और जो मैंने यहां बहुत सारा इकट्ठा किया है, वह साथ आने वाला नहीं है?’ ऐसा विचार आए तो उस पर से राग घटे।

आपको ऐसी चिन्ता नहीं होती है कि यहां से जाना है, और कहीं उत्पन्न भी होना है, तो यहां से नरकादि में चला जाऊंगा तो मेरा क्या होगा? ऐसी चिन्ता जिसको होती है, वह पाप करते हुए भी रोता है। पाप करने से डरता है। आप विचार करें तो आपको भी प्रतीत हो कि इन सबके पीछे मैं दौडधूप करता हूं, परन्तु यह सब यहीं रहने वाला है, जाना मुझे है और मैंने जो कुछ किया, उसका फल भी मुझे ही भोगना पडेगा! मैं पाप के उदय से बीमार पडूं तो मेरा लडका अधिक से अधिक दवा आदि दे देगा, मेरी सेवा कर देगा, हाथ-पांव दबा देगा, परन्तु क्या वह मेरी पीडा ले सकेगा? सगे-संबंधी बहुत प्रेमी होंगे तो पास में बैठकर रो लेंगे, परन्तु मेरे पाप का फल तो मुझे ही भोगना पडेगा।उस समय यदि आप झुरते भी हों, कराहते हों और लडके से देखा न जाता हो तो भी वह क्या कर सकता है? आप थाली पर जीमने बैठते हैं तो अधिक न खाने की सावधानी किसको रखनी चाहिए? खाने वाले को ही अधिक न खाने की सावधानी रखनी पडती है न? अधिक खा ले, बीमार पडे और फिर कहे कि परोसने वाले ने ऐसा किया, तो क्या यह चल सकता है? पेट दुःखने लग जाए तो आपको पीडा होती है, दस्त लगने लग जाए तो आपको परेशानी होती है या परोसने वाले को? यह बात शीघ्र समझ में आती है न? तो संसार का राग घटाइए और धर्म का राग बढाइए! -सूरिरामचन्द्र