शनिवार, 26 अगस्त 2017

आज की युवा-शक्ति कहां जा रही है..?

जो युवक अपने बल का प्रयोग दूसरों को सताने में करता हो, वह युवक सचमुच युवक नहीं है; अपितु अपने उस कार्य के प्रताप से वह राक्षस तुल्य लगता है। आज विश्व में जो उपद्रव चल रहे हैं, वे इस तथाकथित युवावस्था के नाम पर उन्मत्त बनकर भटकने वाले राक्षसों के प्रताप से हैं। जिस देश में युवक बहुसंख्यक हों, युवकों का बोलबाला हो क्या उस देश में बिचारे निर्बल दुःखी होंगे...? जिस नगर में पुलिस अधिक हो, उस नगर में चोरियां कम होनी चाहिए या अधिक...? जहां युवक नूतन सृष्टि का सर्जनहार माना जाता हो, वहां होना क्या चाहिए और हो क्या रहा है...? आप अपने आपको युवक मानते हैं तो सोचो कि आपने किया क्या और करना क्या चाहिए था...? युवक किधर जा रहे हैं, इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो परिणाम अच्छे नहीं निकलेंगे, यह मानकर चलिए...! इसलिए आज युवा पीढी को संभालने की सबसे ज्यादा जरूरत है।
काले सिर वाला मानव भला क्या नहीं कर सकता...?’ यह बात कही जाती है तो यह किस विचार से कहा गया होगा...? आज लोग कहते हैं कि जहां युवक अधिक संख्या में एकत्र हों, वहां से चला जाना चाहिए, क्योंकि जब कोई युवक तर्क करते-करते परास्त होने लगेगा तो वह अंत में आपकी पगडी (इज्जत) उछालने की नीचता तक कर बैठेगा...!’ आज के युवकों की यह इज्जत...? यह प्रतिष्ठा...? यह ख्याति...? यह समस्त युवा वर्ग पर कलंक है। जिस सभा-समुदाय में युवक हों, वहां से क्या बुजुर्गों को भागना पडे...? बालक तो बिचारे कहीं दब जाएं, क्योंकि वे ऐसे माहौल में सीखेंगे भी तो क्या...? इस प्रकार की पैठ वाले युवकों का संसार में साम्राज्य हो जाए तो वे कैसी नवीन सृष्टि का सृजन करेंगे...?
आज क्रान्ति शब्द खूब फैल गया है। बस, क्रान्ति करो, विद्रोह जगाओ, परन्तु क्रान्ति का सही अर्थ क्या है...? अरे, आज तो क्रान्ति की डींग हाँकने वालों में से, क्रान्ति का नारा लगाने वालों में से अधिकांश तो उसका भावार्थ तक नहीं जानते। क्रान्ति किसे कहते हैं...? क्रान्ति की संभावना कहां है...? किसकी क्रान्ति होती है...? क्रान्ति में से किसका सृजन होना चाहिए...? कुछ पता नहीं...! युवकों की प्रतिष्ठा ऐसी होनी चाहिए कि वे स्वयं अपना बलिदान देकर भी बुजुर्गों, महिलाओं और बच्चों की जान बचाएंगे।अपने विचार दूसरों पर थोपने हैं, पर किस तरह...? क्या वकील अपना पक्ष न्यायाधीश को जंचाने के लिए स्टेज पर चढकर उसका गला पकडता है...? युवक यदि अपने विचारों से लोगों को सहमत करना चाहते हों तो उनका व्यवहार कैसा होना चाहिए...? विद्रोह सुख का साधन न होकर, सब कुछ जला कर राख कर देने वाला साधन है। आप अपने विचारों को इतना प्रौढ और परिपक्व बनाइए कि समस्त संसार आपकी ओर झुक जाए, लोग स्वयंस्फूर्त आपकी शरण आएं।
युवावस्था धर्म की, आत्म-कल्याण की एवं सत्कार्य करने की प्रवृत्तियों के लिए प्रबलतम साधन है। जिस युवा अवस्था को ज्ञानियों ने साध्य की सिद्धि के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानी, उस अवस्था के मनुष्यों की आज की दशा अत्यंत लज्जाजनक है, सुशोभित करने वाली नहीं है। यह साधन कहीं जीवन का विनाश करने का साधन नहीं बन जाए, यह हम समझाना चाहते हैं। साथ ही साथ यह भी बता देना चाहते हैं कि ऐसे सुन्दर साधन का यदि दुरुपयोग किया गया तो परिणाम स्वरूप आत्मा का भयंकर विनाश होने के अतिरिक्त कुछ नहीं होगा। जिस युवावस्था को हम अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण बता रहे हैं, वह युवावस्था प्रत्येक को निर्भय बनाने वाली होनी चाहिए। उत्तम वस्तु वह है जो आशीर्वाद सिद्ध हो, अभिशाप नहीं। इसीलिए तो कहा गया है कि यह अत्यंत गहन युवावस्था जिसने निष्कलंक व्यतीत कर ली, अपनी प्रतिष्ठा पर आँच नहीं आने दी, उसने सम्पूर्ण मानव-जीवन का फल प्राप्त कर लिया।

युवावस्था आनन्द दायक है, यह सोचा हुआ कार्य पूर्ण करने में अत्यंत उपयोगी है; परन्तु यदि वह गलत रास्ते पर जा रही हो तो उसे सही मार्ग पर लाने का हमारा प्रयत्न है। प्रशस्त भाव से ही युवावस्था आशीर्वाद बन सकती है।-सूरिरामचन्द्र

शुक्रवार, 25 अगस्त 2017

आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत्

प्राणी मात्र सुख चाहता है, इसमें कोई दो राय नहीं है। संसार की शानौशोकत और राग-रंग में सुख नहीं है; दुःख रहित, सम्पूर्ण और शाश्वत सुख धर्म में ही है। पाप से दुःख और धर्म से सुख होता है, यह भी तय है। तो हम इस पर विचार करें कि जिससे सुख मिलता है, वह धर्म कौनसा है..? आर्यावृत्त के सर्वोत्तम आदर्शों के अनेक प्रतिबिम्बों में से एक सुन्दर प्रतिबिम्ब हृदय में धारण कर एक कवि ने संसार के प्राणियों को संक्षेप में सभी धर्मों का सार तत्त्व समझाने का प्रयास किया है-
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं, श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत्।।
अर्थात् धर्म का सर्वस्व जिसमें समाया है, ऐसे धर्म का सार सुनिए और सुनकर हृदय में उतारिए कि अपनी आत्मा को जो दुःखदायी लगे, वैसा आचरण दूसरों के साथ मत करिए।
अपमान, तिरस्कार, मारपीट, गाली क्या आपकी आत्मा को अच्छी लगेगी...? कोई बलवान मनुष्य यदि आपको सताए, आपका गला दबाए तो उससे आपको दुःख होगा या हर्ष...? दुःख ही होगा। अतः मन में यह पक्का करना है कि जितनी वस्तु मुझे दुःख रूप लगे, उनका मैं दूसरों के प्रति आचरण न करूं।इतना यदि प्रत्येक व्यक्ति सीख जाए तो संसार में कोई झगडा ही न रहे। यही उत्तम कोटि का धर्म है।
आप में मात्र इतना विवेक और विचार आ जाए कि मेरा धन कोई चुरा ले तो मुझे कष्ट होगा, अतः मुझे भी किसी का धन नहीं चुराना है। मेरी अमानत कोई छीन ले या हडप कर जाए तो मुझे बुरा लगेगा, अतः मैं किसी की अमानत हडपने का विचार ही न करूं, मेरे साथ कोई छल-षडयंत्र करे तो मुझे बुरा लगेगा, अतः मैं किसी के साथ छल-षडयंत्र न करूं, मुझे कोई सताए तो मुझे दुःख होगा, अतः मैं किसी को नहीं सताऊं, मेरी कोई हंसी उडाए, उपहास करे तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा, अतः मैं भी किसी की हंसी न उडाऊं, किसी का उपहास न करूं’, तो सारी समस्या ही समाप्त हो जाए। इसी का नाम मनुष्यत्व और मानवता है। यदि आप में यह विवेक नहीं है तो आप में मानवता नहीं है। यदि इस प्रकार का विवेक और विचार आ जाए तो अनीति, हिंसा, असत्य, चोरी, दूसरों के घर में बलात् घुसना, दूसरों का धन छीनना, क्रोध अथवा अक्कडपन रहेगा ही नहीं।

जो मनुष्य स्वार्थ, रस, लालसा, मौज-शौक आदि के लिए हजारों मनुष्यों, जीवों को कष्ट पहुंचाने में हिचकिचाते, लजाते नहीं हैं और ऐसी हिंसा में ही जिन्हें आनंद आता है, वे वास्तव में तो कभी सुखी नहीं हो सकते। मैं कभी भी, किसी हालत में, किसी के प्रति प्रतिकूल आचरण नहीं करूंगा’, यह बात पूरी तरह पालन करने की भावना जिस दिन आप में आ जाएगी, समझिए सच्चे सुख का प्रारम्भ हो गया।-सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 24 अगस्त 2017

करणीय-अकरणीय का विवेक

हेय (अकरणीय) का त्याग और उपादेय (करणीय) का आचरण; इन दो मुख्य गुणों को स्थाई करने के लिए अन्य दो वस्तुओं की आवश्यकता होगी। ये दो वस्तुएं हैं- जो प्रशंसा के योग्य हैं, उसी की प्रशंसा करनी और श्रवण-पठन योग्य हो, उसी को सुनना-पढना। लेकिन, आज तो चारण-भाटों सा धंधा हो गया है। चाहे जैसे व्यक्ति के गुण गाना, उसकी वाहवाही करना, यह धंधा हो गया है। आज पागल को समझदार और मूर्ख को बुद्धिमान, झूठे को सच्चा और सच्चे को झूठा, चोरों को दानवीर, दुराचारियों को धर्मात्मा आदि कहने का भारी पापाचार बढ गया है। जिसमें गुण हों, उसके समक्ष तो नतमस्तक हो जाना चाहिए; गुणी व्यक्ति के चरणों की धूल भी सिर पर चढा लो; परन्तु, जैसे सौन्दर्य और स्वच्छता गुण हैं, फिर भी क्या वैश्या के सौन्दर्य की प्रशंसा होगी...? नहीं होगी। जिस गुण का परिणाम उत्तम हो, उसी गुण की प्रशंसा होगी और जिससे भविष्य में आत्मा को लाभ हो सके, ऐसे गुणों की प्रशंसा होगी। इनके अतिरिक्त अन्य गुणों की प्रशंसा नहीं होगी।
पापी के प्रशंसक पाप-मार्ग को प्रशस्त करने वाले हैं, इसलिए जो प्रशंसा के योग्य हों, उन्हीं की प्रशंसा करनी चाहिए। अयोग्य व्यक्तियों की प्रशंसा करने से आज जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गई है, उसे सुधारने में कई वर्ष लग सकते हैं। वह भी परिश्रम करेंगे तो होगा। चाहे कैसा ही विरोध हो, तब भी उचित प्रयास तो करना ही पडेगा। उचित प्रयास करना सबका कर्तव्य है और कर्तव्य पूर्ण करना संभव है, फिर भी कर्तव्य-पथ से च्युत हो जाएं तो प्राप्त मानव-जीवन हमने निरर्थक ही खोया, ऐसा माना जाएगा।

इसी प्रकार गुणों को स्थिर रखने के लिए सुनने-पढने योग्य हो, उसी को सुनें और पढें। आज सार्वजनिक स्थानों और चौराहों पर बै-सिर-पैर की इतनी बातें चलतीं हैं कि उन सबको सुनने से हानि ही हानि है। सुनने योग्य न हो, वह सुनना ही नहीं, यदि यह नियम हो जाए तो बुरों की प्रशंसा नहीं होगी, बुरे काम रुक जाएंगे और त्यागने योग्य को त्याग दिया जाएगा। अयोग्य बातें करने वालों के फंदे में फंस गए तो आपका उद्धार होने की आशा नहीं है। परन्तु, आज कान तेज हो गए हैं, श्रवणेन्द्रिय तीव्र हो गई है, अतः बुरी बातें भी सुने बिना नहीं रहा जाता। आज अपठनीय पढकर और नहीं श्रवण करने योग्य सुनकर अनेक पाप, अनेक कारस्तानियां हो रही है। एक ओर तो ऐसी भयंकर दशा हो गई है और दूसरी ओर श्रवण करने योग्य सुनने में बेपर्वाही बढ गई है। अपने स्वयं के दोषों को सुनने की शक्ति आज अधिकांश व्यक्तियों में नहीं रही। तत्त्वज्ञान की सुनने, समझने और स्मरण रखने योग्य बातें भी यदि कोई सुनाने वाला मिले तो भी आज कइयों को आनंद नहीं आता। परन्तु वास्तविक सुनने योग्य तो वही है, क्योंकि उसके बिना हमारा उद्धार नहीं है।-सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 23 अगस्त 2017

करने योग्य चार बातें

करने योग्य चार बातें कही गई हैं- दान, शील, तप और भाव। समझाने के लिए इन चारों को उदारता, सदाचार, इच्छा-निरोध और सद्विचार भी कह सकते हैं। उदारता अर्थात् स्वार्थ की बलि देकर परमार्थ का आचरण। अपने सांसारिक स्वार्थ की अवगणना कर के दूसरे जीवों के लिए कल्याणकारी आचरण ही उदारता है। त्याग भावना से लक्ष्मी का त्याग भी उदारता है, अर्थात् पांच देकर पचास प्राप्त करने का सट्टा नहीं। मन में ऐसा विचार नहीं कि यहां दूंगा तो मुझे आगे कई गुणा मिलेगा। ऐसा सोच आत्मघाती है। इसलिए बदले में कुछ पाने की अपेक्षा किए बिना मुक्त हृदय से उदारता करना, दान देना, यह पहली करणीय वस्तु है। सदाचार अर्थात् अपने शरीर द्वारा भी लेशमात्र पाप न हो जाए, ऐसी बुद्धि और विवेक से उत्तम आचार का पालन। शरीर से अनेक पाप होते हैं वे न हों; उन्हें रोकने के लिए उत्तम आचरण को सदाचार अथवा शील कहते हैं। यह दूसरी करणीय वस्तु है।
तप अर्थात् इच्छाओं का निरोध या दमन। यह चाहिए - वह चाहिए’, ऐसी तृष्णा का लोप तप कहलाता है। सच्चा तप यही है। दूसरे सब तो इस तप के साधन हैं। वास्तविक तप का अर्थ है- किसी भी अनुचित इच्छा के आधीन नहीं होना।तप से तात्पर्य समस्त पाप-वासनाओं का नाश है। वासनाओं के पोषक कारणों में रसना इन्द्रिय (जीभ) प्रमुख है। होटल में जाने की प्रेरणा किसने दी...? रोटी और एक सब्जी से पेट भर सकता है या नहीं...? पर रोटी तो एक और उसके आसपास दस अन्य पदार्थ हैं। शरीर के लिए पोषक क्या है- रोटी या अन्य आसपास के पदार्थ...?

घर से शाम को खाकर निकलने पर भी बाजार की बासी और सडी हुई वस्तुएं रात्रि में खाना किसने सिखाया...? केवल स्वाद ने...! घर के खर्च से आज होटल के खर्चे बढे हुए हैं। उनमें से अनेक दुर्गुणों की उत्पत्ति हुई है। मादक व तामसिक खाद्य पदार्थों के सेवन से और अयोग्य पदार्थ पेट में जाने से विकार उत्पन्न होते हैं और बुद्धि भ्रष्ट होती है, तामसिक वृत्ति पैदा होती है। इनका और भी पोषण होता है टीवी, विज्ञापनों और सिनेमा द्वारा। पत्नी-बच्चों को खुश करने के लिए महिने में चार-पांच बार तो देखने ही पडते हैं। वहां क्या देखते हैं...? कुचेष्टाएं; और उनसे हमारी ऐसी उन्मत्त दशा हुई है। परिणाम स्वरूप अनेक प्रकार के दुर्व्यसन और मानसिक विकार उत्पन्न होते हैं। भावी पीढी पर भी इसके दुष्प्रभाव पडते हैं। किसी भी पाप-वासना के आधीन नहीं होना, यह तीसरा इच्छा-निरोध कर्तव्य है। चौथी वस्तु सद्विचार है। किसी का बुरा नहीं सोचना। सबका भला सोचना। मन, वचन और काया से किसी का बुरा न हो, उसकी सावधानी रखनी चाहिए। इनका सदा लेखा रखना पडेगा- आज लक्ष्मी का कितना त्याग किया, कोई बुरा कार्य तो नहीं किया, जीभ तो नहीं लपलपाई, किसी का बुरा तो नहीं सोचा...? -सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 22 अगस्त 2017

जैन समाज में बढता मिथ्यात्व दुर्भाग्यपूर्ण

आजकल नाकोडा भैरव की पूजा मूलनायक पार्श्वनाथ भगवान से भी अधिक प्रचलित होने लगी है, जबकि भैरव तीर्थंकर भगवान की सेवा में रहने वाले एक देव मात्र हैं। एक सम्यग्दृष्टि देव होने के नाते उन्हें नमन अथवा उनका गुणानुवाद ठीक है, लेकिन उन्हें अपने व्यवसाय में भागीदार बनाना दोषपूर्ण और महामूर्खता है, मिथ्यात्व है। इससे आपका सम्यक्त्व नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है।
आजकल नाकोडाजी की भक्ति के नाम पर भक्ति-संध्या के आयोजनों अथवा भेरूजी की आरती के समय अथवा कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा परोक्ष व्यापार की दृष्टि से नाकोडाजी की भक्ति के नाम पर शरीर में भेरूजी का आना और पछाडे खाना (ओतरना, भाव आना), शरीर को मरोडना-पटकना; यह सब एक नया सिलसिला चला है। यह महामूर्खता और महामिथ्यात्व का चरम है। आज किसी के शरीर में भेरूजी आ रहे हैं, कल पद्मावतीजी आएंगे और फिर भगवान भी आ जाएं तो क्या आश्चर्य...!
यह समझना चाहिए कि भेरूजी एक सम्यग्दृष्टि देव हैं, वे किसी के शरीर में नहीं ही आ सकते हैं। ये देवरे वाले भेरूजी नहीं हैं, जिन्हें आप शादी-ब्याह में पूजते हैं। यदि आप वाकई जैनी हैं और जैनी होने का गर्व है तो इसे समझना चाहिए और इस मिथ्यात्व से दूर रहना चाहिए। दुःख है कि कई मंदिरों में यह तमाशा होने लगा है जो अत्यंत दुःखद है। महिलाएं वहीं नतमष्तक होना शुरू हो जाती हैं, कुछ सोचती नहीं। कई भोले लोग इसकी चपेट में आ जाते हैं।

बहुत विस्तार से यहां लिखना संभव नहीं है, लेकिन समझदार जैनियों को इस प्रवृति पर तुरंत अंकुश लगाना चाहिए। यह धर्म को बेच खाने जैसा है, महापाप है। जो लोग भेरूजी आने का दावा करते हैं, वे मनोरोगी हैं, उनके जीवन के फ्रस्ट्रेशन को देखिए, यह हिस्टिरिया है।