शनिवार, 31 दिसंबर 2016

सच्चा शिक्षण



मौज-शौक के खर्चे से ऐसा पाप बंधता है कि भवांतर में भीख मांगने पर भी पैसे नहीं मिलते। अनीति लाभान्तराय का बंध कराती है और मौज-शौक भोगान्तराय का बंध कराता है। यह सब आज आपको नहीं सीखना है। सीखोगे तो आपके मौज-शौक में बाधा पडेगी और दुर्गति में घूमने जाने के द्वार बंद हो जाएंगे। आपने आपकी संतानों को जिस प्रकार पढाया है, उसको देखते हुए यह नहीं माना जा सकता कि आप में सम्यग्दर्शन है। आपने उन्हें ऐसा शिक्षण दिलाया है कि वे आपको पाठ पढावें, यहां तक तो ठीक, परन्तु आपको ही उठालें तो कोई अचरज की बात नहीं। शिक्षण किसे कहा जाए? इसकी समझ आज न तो मां-बाप को है और न शिक्षकों को। और ये सब शिक्षण देने निकले हैं। ऐसे शिक्षण से तो आज पागलों की पैदावार बढ रही है। सुख में विराग और दुःख में समाधि, यह ऊॅंचे से ऊॅंचा शिक्षण है। ऐसे शिक्षण में प्रायः अधिकांश लोगों की रुचि नहीं है, इससे बहुत विकृतियां हो रही हैं। आप अपनी संतानों को स्वार्थ के लिए ही पढाते हैं। शिक्षण देकर भी आप अपकार कर रहे हैं। ज्ञान का दान करके भी अज्ञानी बनाने का काम आपने शुरू किया है। ये कमाकर लावें, यही आप चाहते हैं, परन्तु असंतोष की आग में ये जल मरें, इसकी आपको चिन्ता नहीं है। पेट के लिए विद्या पढाना यह पाप है। आज तो सा विद्या या विमुक्तयेका बोर्ड लगाकर ठगने का धंधा किया जाता है, क्योंकि आज के शिक्षण में मुक्ति की तो कोई बात होती ही नहीं। सा विद्या या विमुक्तयेका अर्थ तो यह कि जो विद्या मुक्ति का बोध दे, लेकिन आज के स्कूल-कॉलेजों में मुक्ति के शिक्षण का स्थान तो स्वच्छंदता और विनाशक-विज्ञान ने ले लिया है। सारी पीढी बिगड रही है, यह आप आँखों से देख रहे हैं, फिर भी हम से पूछते हैं कि शिक्षण में खराबी क्या है?’, यह क्या अभी निर्णय करना शेष रह गया है? खराबी न हो तो संतान बिगड गई है’, ऐसी बूम क्यों मारते हो?

जीवन का निर्माण बाल्यकाल से प्रारम्भ हो जाता है। बच्चों को हृदय की पवित्रता का मूल्य उतना नहीं बताया जाता, जितना दूसरी चीजों का बताया जाता है। आज शिक्षा में नैतिक अवमूल्यन की समस्या पर ध्यान नहीं दिया जा रहा। हृदय की पवित्रता केवल साधुओं के लिए ही महत्त्वपूर्ण नहीं है, शासकों और परिवार के सदस्यों के लिए भी बहुत जरूरी है। साधारण व्यक्ति प्रवाह के पीछे चलता है। यथा राजा तथा प्रजाकहावत ही नहीं, यथार्थ है। जब एक व्यक्ति किसी भी उचित-अनुचित ढंग से सत्ता प्राप्त कर तथाकथित बडा आदमी बन जाता है, तब दूसरा आदमी भी सोचता है कि भ्रष्ट तरीके से पैसा कमाकर बडा आदमी बना जा सकता है। राजनीति जीवन का अंग हो गई है, लेकिन यह जीवन कदापि नहीं है। सत्ता पर जब धर्म का अंकुश नहीं रहता, तो वह निरंकुश हो जाती है। सत्ता राष्ट्र की हो या परिवार की, उस पर से जब-जब धर्म का अंकुश हटता है, तब-तब वह उन्मादी हो जाती है। प्रवाह को वही मोड सकता है, जो असाधारण हो, सत्ता और अर्थ प्राप्ति के लिए भ्रष्ट उपायों का सहारा न ले।-सूरिरामचन्द्र

शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

असत्य-अधर्म का विरोध करना ही चाहिए



यदि सत्य-धर्म का पक्ष रखना, असत्य-अधर्म का विरोध करना झगडा करना माना जाता है तो ऐसा झगडालू होना उचित है, साधु धर्म का तो यह प्रमुख दायित्त्व है। जिस साधु में अपने सत्य-धर्म के प्रति इतनी-सी निष्ठा भी न हो, वह पंच महाव्रतों का पालन किस प्रकार कर सकता है? यदि न्याय-नीति की बात करना, धर्म की रक्षा के लिए अडजाना, झगडा करना है तो ऐसा झगडालू होना, अपने सत्य-धर्म का पालन करना है। कहने वाले प्रभु महावीर को भी तो झगडालू कहते थे। श्री जिन आज्ञा का पालन करना और जिन आज्ञा विरोधी गतिविधियों पर अंकुश के लिए संघर्ष करना झगडा करना है तो ऐसे झगडालू होने पर हमें गर्व है, संतोष है, क्योंकि ऐसा करके ही साधु अपने साधुपन को बचा पाता है। ऐसी परिस्थिति में मूकदर्शक रहना, साधुपन पर दोष लगाना है। महाव्रतों का खण्डन करने जैसा है। एक महाव्रत टूटता है तो पांचों महाव्रत टूटते हैं।

आजकल सर्व धर्म समभाव और सर्व धर्म ममभाव की बातें जोरशोर से चल रही है। यह विषय आजकल एक तरह का फैशन हो गया है, वाचाल लोगों के लिए वाणी-विलास का एक माध्यम बन गया है, जहां वे भोलीभाली, भावुक जनता को बरगला सकते हैं। लेकिन, इस युग में भी सोने को सोना और पीतल को पीतल ही कहा जाता है। किन्तु जब धर्म को धर्म और अधर्म को अधर्म कहते हैं तो झगडाखोरमाने जाते हैं। कैसी विचित्र और विडम्बनापूर्ण हालत है? पर साधु को इसकी कोई चिन्ता नहीं होनी चाहिए। सत्य के लिए मरना पडे तो मंजूर है, किन्तु झूठ के आगे समर्पण तो किसी कीमत पर स्वीकार्य नहीं ही है। ऐसे प्रसंगों पर सहनशीलताधारण करने वाला सहनशीलनहीं है, अपितु काम को बिगाडने वाला है, कायर है। यह सहनशीलता का गलत अभिप्राय है।भगवान का संघ, भगवान के सिद्धान्तों की रक्षा के लिए लडना पडे तो लडता है, शेष दुनिया की किसी चीज के लिए वह नहीं लडता। लडते समय भी सामने वाले के हित की चिन्ता तो उसके हृदय में रही हुई होती है। क्योंकि, यह तो धर्मयुद्ध है। ये सिद्धान्त तो जगत मात्र का कल्याण करने वाले हैं। इन सिद्धान्तों का हनन होता है तो उसे रोकने के लिए कषाय करने पडते हैं। जब धर्म के ऊपर संकट के बादल मंडरा रहे हों, देव-गुरु-धर्म पर हमला हो, अन्याय हो; तब उसका प्रतिकार न करना मानवता के लिए घोर कलंक है, श्रावकत्व पर कलंक है, समाज पर कलंक है। सच्चा धर्मवीर ऐसे अन्याय के विरूद्ध अलख जगाता है। वह न तो स्वयं अन्याय करता है और न अपने सामने होने वाले अन्याय को देख सकता है। वह सदैव अन्याय और अनीति के प्रतिकार के लिए कटिबद्ध रहता है। अन्याय का प्रतिकार करने के लिए देव-गुरु-धर्म-समाज-संस्कृति के चरणों में वह अपने प्राणों को हंसते-हंसते बलिदान कर देता है। असत्य-अधर्म का साधु को विरोध करना ही चाहिए। झूठी बातों का विरोध किए बिना सच्चे साधु को चैन नहीं पडता। यदि चैन पडे तो उसका साधुपन नहीं रहता।-सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

वैराग्य क्या है ?



वैराग्य क्या है? संयम क्या है? वैराग्य किसे कहते हैं? संयम किसे कहते हैं? वैरागी या संयमी का आचार-विचार-व्यवहार कैसा होता है? किस प्रकार वह पौद्गलिक सुखों को दुःखरूप मानता है और पौद्गलिक दुःखों को सुखरूप मानकर उन्हें आनन्द पूर्वक सहन कर लेता है? वैरागी कितना फक्कड होता है, कितना मस्तमौला कि उसे लोकप्रवाह की कोई परवाह ही नहीं होती, वह तो अपनी ही धुन में अपनी ही आत्मा में रमण करने वाला होता है। उसे इस बात की कतई चिन्ता नहीं होती कि कौन बुरा मानेगा या कौन अच्छा मानेगा, वह तो निष्कपट भाव से, बिना किसी लाग-लपेट के, बिना किसी राग-द्वेष के जो सत्य होता है उसे कहने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करता। वह चौबीसों घण्टे आत्म-रमण में, आत्मा की शुद्धि कर उसे परिपुष्ट बनाने वाली क्रियाओं में ही व्यस्त रहता है। उसे न सुख-दुःख का भान होता है और न ही किसी शारीरिक बीमारी की चिन्ता-फिक्र होती है, भोजन मिला तो क्या और न मिला तो क्या, शरीर को जितनी आवश्यकता है, उससे कम खाना, बिना रसास्वाद के खाना और मस्त रहना, यही उसकी नियति है।

वैराग्य पर कई मनीषियों ने विचार किया है, मात्र विचार ही नहीं, उसे बडी गहराई और उदाहरणीय ढंग से अपने चरित्र में प्रतिबिम्बित किया है, जिया है, जी रहे हैं; इसलिए वैराग्य को किसी अकल्पनीय, अव्यावहारिक, स्वप्निल अथवा अनुपयोगी वृत्ति के रूप में नहीं देखा जा सकता। कुछ लोग जो वैराग्य के बुनियादी अर्थ को जानने का प्रयत्न नहीं करते, इसे जीवन और जगत को नकारने वाली अथवा पलायनवादी प्रवृत्ति के रूप में समझते-समझाते हैं। वस्तुतः वैराग्य जीवन की निषेधात्मक वृत्ति नहीं है। इसे उलट-पलट कर सब ओर से देखने पर इसकी प्रभावशाली रचनात्मकता स्पष्ट होने लगती है। वैराग्य को जब हम अनुराग या अतिरिक्त पाने की विरोधी वृत्ति के रूप में देखते हैं तो बात बिगडने लगती है। विरोध, चाहे वह जैसा हो बहुधा काम बिगाड देता है। भावना जगत में हमें विरोध की जगह संवेदना और सापेक्षता को देनी चाहिए तथा इसी नजरिए से देखना चाहिए कि वैराग्य का मूल संदर्भ क्या है? अंग्रेजी में एक शब्द है "डिटेचमेंट", जिसका सीधा अर्थ है निष्काम पार्थक्य। इस शब्द के माध्यम से हमें वैराग्य के अलग-अलग रंग देखने चाहिए।

वैराग्य एक बहुप्रयत्न शब्द है। वैराग्य-महल की बुनियादी ईंट निष्काम चित्त है। कामना-शून्य होना एक कठिन काम है। हर आदमी कामनाओं की एक हरीभरी फसल होता है। कोई काम न हो तो भी कामना तो करनी ही है। शेखचिल्ली के पास कोई साधन नहीं थे, किन्तु उसकी नगण्य कामना के एक बिन्दु में से कई सिन्धु जन्म लेने लगे। निष्कामता संयम की अनुपस्थिति में संभव नहीं है। संयमी हुए बिना निष्काम-चित्त होना करीब-करीब स्वप्न ही है। हम चाहें कि नींव के बिना कोई महल उठाए, तो वह स्वप्न ही होगा, महल नहीं, ठीक ऐसे ही संयम के बिना वैराग्य संभव नहीं है।

संयम का सीधा संबंध मन से है। मन पर इतना शासन या काबू हो कि मन चाहे समय पर उससे मन चाहा काम लिया जा सके। मन का साम्राज्य अनंत है, उसे पराजित करना और उस पर सत्ता कायम करना किसी राजनीतिक तकरीर की तरह आसान नहीं है। एक तो वह गंजे आदमी या वक्त की भांति बडी स्निग्ध युक्तियों की पकड से बाहर बना रहता है और कभी जाल में फंस भी गया तो उसके चूहे दोस्त उसे व्यूह से निकालने के लिए मुस्तैदी से तैनात रहते हैं, इसलिए वैराग्य प्राप्त करने के लिए पहला काम होगा मन पर कडा अंकुश। वह यदि दृढता से आदमी के आत्मानुशासन की पकड में आ गया तो फिर निष्काम और विरक्त होने में वक्त नहीं लगता।

भारतीय दर्शन में प्रवृत्ति और निवृत्ति शब्द बहुत चर्चित हैं। हम डूब जाएं और समझ बैठें कि हम उससे भिन्न नहीं हैं, तो यह प्रवृत्ति है। वस्तुतः प्रवृत्त होना शायद उतना घातक नहीं है, जितना प्रवृत्त होने के बाद अपनी मूल सत्ता और स्वरूप का भान न रखना और चित्त के ऐसे स्वामित्व से वंचित हो जाना कि "जब चाहा तब संलग्न और जब चाहा तब विलग्न"। इसे प्रवृत्ति सूचक निवृत्ति की संज्ञा दी जा सकती है। असल में प्रवृत्ति और निवृत्ति के बिना जीवन की व्यवस्था हो ही नहीं सकती। प्रतिक्षण हम किसी न किसी रूप में प्रवृत्त या निवृत्त होते ही हैं; किन्तु जब हम इतने स्वाधिकार सम्पन्न होते हैं कि जब चाहा तब प्रवृत्त और जब चाहा तब निवृत्त, तब हमारे उस कर्तव्य में एक ओज और आभा दिखलाई देती है। साधारण प्रवृत्ति के बारे में हम यहां विचार नहीं कर रहे हैं।

बहुत साधारण-सा सवाल है कि हम खाने के लिए जी रहे हैं या जीने के लिए खा रहे हैं? प्रवृत्ति और निवृत्ति, संयम और वैराग्य की समझ इस सवाल की गहराई में है, यदि इसका जवाब प्रतिपल हमारे मन, विचार और व्यवहार में रहे। एक और बात कि मैं शरीर से संचालित नहीं हूं, शरीर मुझसे संचालित है। मैं अपनी अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं को खुद-ब-खुद देखता हूं। शरीर मेरा दृष्टा और नियामक नहीं है। इसीलिए जब चाहता हूं तब और जितनी देर चाहता हूं, उतनी देर सो लेता हूं। मेरे हिसाब में दिन काम करने के लिए और रात सोने के लिए नहीं है। यह विभाजन साधारणतः ठीक हो सकता है, किन्तु इसे अंतिम हर्गिज नहीं मानना चाहिए। यदि यह अंतिम सत्य होता तो भगवान ऋषभदेव अपने एक हजार वर्ष के संयमी जीवन में कुल मिलाकर मात्र एक माह के समय जितनी निद्रा, वह भी टुकडों-टुकडों में; इसी प्रकार प्रभु महावीर साढे बारह वर्ष के अपने छद्मस्थकाल में सिर्फ एक अंतर्मुहूर्त (48 मिनिट और वह भी टुकडों-टुकडों में जैसे सामान्य रूप से झपकी लेते हैं वैसे) ही क्यों सोते? नींद प्रमाद है। शरीर को समय-असमय छूट देने से उसमें कुछ व्यसन पैदा हो जाते हैं। रात हुई नहीं कि पलकें झपकने लगती है। किन्तु, विरागी जब चाहता है तब सोता है और जब आवश्यक समझता है, जागता है। नींद उसकी चेरी है, वह नींद का गुलाम नहीं, वह विरागी की मालकिन नहीं। जीवन की ऐसी उपलब्धि वैराग्य का दर्पण है, वैराग्य की यह पहली शर्त है।

वैराग्य जीवन और जगत को झुठलाने का नाम नहीं है, वह इन्हें माँझने और इनके यथार्थ रूप को उघाडने की एक प्रक्रिया है। वैराग्य सम्पन्न व्यक्ति प्रवृत्ति में हर्ष और निवृत्ति में शोक नहीं देखते। उनका प्रसन्न और खिन्न होना किसी अन्य के हाथ में नहीं होता। उन्हें परिस्थितियां सम्पन्नता-विपन्नता और संयोग-वियोग में प्रसन्न या अप्रसन्न करने में समर्थ नहीं होती। सच्चा वैरागी झुंझलाना तक नहीं जानता; वह चित्तवृत्तियों के नियमन की कला भलीभाँति जानने लगता है।

वैराग्य से मिलता-जुलता एक शब्द है, ‘अनासक्ति। किसी परिस्थिति या जीवन-संदर्भ में लगाव का न होना अनासक्ति है। इसे योग का दर्जा दिया गया है। इसके लिए बडे अभ्यास की और एकाग्रचित्त होने की जरूरत है। आसक्त होना जितना आसान है, अनासक्त होना उतना ही मुश्किल। राग और आसक्ति लगभग समानार्थक हैं। अनासक्ति में भी मन पर नियमन अन्तर्निहित है। निष्पक्ष सोच-विचार की दृष्टि से अनासक्त होना आवश्यक है।

एक दूसरा शब्द है, "उदासीनता"। यह शब्द मन की खिन्नता, पलायनवृत्ति और जडता को व्यक्त करता है, वैराग्य इससे अलग है। निराशा इस शब्द में बैठी झांक रही है। उदासीन व्यक्ति घबराकर भागता है, उसने यह काम बहुत सोच-समझ कर नहीं किया। कई लोग उदासीनता को वैराग्य से जोड देते हैं, लेकिन यह वैराग्य पथ पर बढने का एक निमित्त कदाचित हो सकता है, सम्पूर्ण वैराग्य उसमें अंतर्निहित हर्गिज नहीं है। वैराग्य में साहस है, पराक्रम है।-सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 28 दिसंबर 2016

अपने दोष छिपाने के लिए दूसरे की निंदा



इस दुनिया में स्वयं के बचाव के खातिर, स्वयं के दुष्कर्म को ढँकने के खातिर, स्वयं के पाप को छुपाने की खातिर, ऊॅंची कोटि के महात्माओं को भी कल्पित रीति से कलंकित करने वाले कहां नहीं होते। आज तो अधिकांशतः यह दशा हो गई है कि स्वयं के दोष देखते नहीं और दूसरों के दोष खोजे अथवा कल्पित किए बिना रहना नहीं।

पिता और पुत्र के मध्य में कोई, जो पुत्र को शिक्षा देने जाए तो पुत्र पिता के कल्पित दोषों को भी गाने लग जाता है। और जो पिता को शिक्षा देने के लिए कोई जाए तो वह पुत्र के कल्पित दोषों को भी गाने लग जाता है। कारण कि दोनों को स्वयं के दोष छिपाने हैं। इस प्रकार का आज पति-पत्नी के बीच में, भाई-भाई के बीच में, माता-पुत्री के बीच में, मित्र-मित्र के बीच में, सगे-संबंधियों के बीच में प्रायः सर्वत्र कमोबेश प्रमाण में चल रहा है।

इस दशा में धर्म के द्रोही सुसाधुओं के ऊपर भी कल्पित कलंक चढाते हैं, इसमें आश्चर्य क्या? घर से और बाहर से अधिकांश भाग में उनको ऐसा ही शिक्षण मिला है कि स्वयं के दोष छिपाने के लिए अथवा किसी भी प्रकार का स्वार्थ सिद्ध करने के लिए पराए व्यक्ति पर कल्पित दोषारोपण करना। आज कितनी ही बार कुशिष्य भी क्या करते हैं। स्वयं उद्दण्ड बनकर गुरु की आज्ञा में न रहते हों, किन्तु कोई पूछे तो स्वयं खराब न कहलाने की दृष्टि से, वे गुरु पर भी कल्पित दोष लगाते हैं। कितने ही पतित भी ऐसा धंधा करते रहते हैं। स्वयं पतित हुआ है, किन्तु निन्दा दूसरे साधुओं की और गुरु की करते हैं। साधु और गुरु खराब थे, इसीलिए मुझे साधुपना छोडना पडा’, ऐसा कहने वाले पतित भी हैं।

ऐसे स्वयं के बचाव के लिए कीर्ति की तुच्छ अभिलाषा के अधीन बनकर, पूर्णतया सच्ची भी अपकीर्ति से डरकर स्वयं के उपकारियों पर पूर्णतः झूठे आरोप-कलंक डालते हुए भी वे घबराते नहीं हैं। स्वयं के पतन को युक्तियुक्त बताने के लिए इस कल्याणकारी मार्ग की निन्दा करने वाले भी हैं। इससे भी खराब वस्तु तो यह है कि ऐसों के ऐसी पूर्णतः दाम्भिक और झूठी बातों को ताली बजाकर बिरदाने वाले भी मिले रहते हैं। इसके पीछे ईर्ष्या एक बहुत बडा कारण है। आज कितने ही धर्मद्रोही, साधु-धर्म और साधु-संस्था के विरूद्ध प्रचार कर रहे हैं।

स्वयं का क्षुद्र स्वार्थ-साधन करने के लिए सामने वाले का कितना नुकसान होगा, धर्म की कितनी हानि होगी, यह देखने की या विचारने की बुद्धि उन स्वार्थियों के पास नहीं होती है। वैसे स्वार्थी स्वयं के भविष्य का भी विवेक पूर्वक विचार नहीं कर सकते। उनकी दृष्टि मात्र इस लोक के, दुनिया के स्वार्थ पर ही टिकी रहती है। ऐसी स्वार्थ-परायणता इस आर्यदेश में भी दिन-प्रतिदिन बढती जाती है और इससे सच्चरित्र को और सद्विचारों को देशनिकाला मिलता जा रहा है।-सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 27 दिसंबर 2016

संसार की शाश्वतता



विद्यमानता की दृष्टि से संसार शाश्वत है और परिवर्तन की दृष्टि से संसार अशाश्वत भी गिना जाता है। अनन्त आत्माएं मोक्ष में जाएं, ऐसा होने पर भी एक निगोद का अनंतवां भाग ही मुक्ति में गया है। इसलिए जीवों का बहुत बडा समूह संसार में रहता ही है। संसार का कभी भी अंत आने वाला नहीं है। संसार तो था, है और रहेगा। सारे संसार का अस्तित्व मिट जाए, ऐसा होता भी नहीं है और होगा भी नहीं। इससे संसार शाश्वत भी है। जीवों की अपेक्षा से संसार अशाश्वत भी है। कारण कि संसार का छेदन कर अनंत आत्माएं मुक्ति में गई हैं। संख्याबद्ध आत्माएं वर्तमान में भी महाविदेह क्षेत्र में से मुक्ति में जा रही हैं और अनंत आत्माएं मुक्ति में जाएंगी।

मोक्षगामी भव्यात्माओं का संसार अशाश्वत होता है। कारण कि संसार छूटता नहीं है, तब तक ही मोक्ष जाना संभव नहीं होता। ऐसा होने पर भी, दूसरे अनंत जीव संसार में होने से संसार तो शाश्वत ही रहता है। किन्तु, मोक्ष को प्राप्त हुई आत्माओं की संसारी मिट जाती है। मनुष्य भव किसी का भी शाश्वत नहीं था, शाश्वत नहीं है और होगा भी नहीं। शाश्वत स्थिति मोक्ष-प्राप्ति के बिना शक्य नहीं है और मोक्ष संसारीपन से मुक्त हुए बिना संभव नहीं है।

संसारीपन से मुक्त होने के लिए एकमात्र अनुपम साधन अनंतज्ञानी श्री जिनेश्वर देवों द्वारा उपदिष्ट धर्म है। श्री जिनेश्वर देवों की आज्ञा की आराधना, संसारी के रूप में हमारी उपस्थिति को नेस्तनाबूद करने की है। श्री जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित धर्म की आराधना करने का वास्तविक हेतु यही है कि स्वयं का संसार नष्ट हो। श्री जिनेश्वर देव के स्वरूप को जानने वाले और मानने वाले में स्वयं का अथवा दूसरे का किसी का संसार टिकाए रखने की भावना हो, ऐसा नहीं है। श्री जिनेश्वर देव को पहचानने वाले तो स्वयं के संसार का जैसे-तैसे शीघ्र ही नाश हो, इसी अभिलाषा को सेवन करने वाले होते हैं। जिसको संसार में रहने की रुचि हो, जिनको संसार में रहना अच्छा लगता है, उनमें साधुपन भी नहीं और श्रावकपन भी नहीं है। स्वयं का और सबके संसार के नाश की अभिलाषा रखना, यह ऊॅंची में ऊॅंची कोटि की इच्छा है। आत्मा में भाव-दया प्रकट हुए बिना इस प्रकार की उत्तम इच्छा प्रकटे, यह संभव नहीं है। जीव मात्र के संसार का नाश हो’, ऐसी अभिलाषा की उत्कृष्टता से तो तीर्थंकरत्व पुण्य का उपार्जन होता है। श्री तीर्थंकर नाम कर्म की निकाचना ऐसी ही पुण्याभिलाषा की उत्कटता से होती है। संसार अर्थात् विषय और कषाय। विषय-कषाय का नाश अर्थात् संसार का नाश। जिसके विषय-कषाय दूर हो गए, उसका दुःख भी दूर हो गया। उसका संसार परिभ्रमण भी टल गया है। विषय-कषाय के योग से ही आत्मा को जन्ममरणादि का दुःख भोगना और चार गति चौरासी लाख जीव योनियों में भटकना पडता है। आत्मा स्वभाव से शाश्वत होने पर भी विषय-कषाय के योग से यह दशा भोग रही है। यह मानव-भव उसमें से निकलने के लिए है।-सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 26 दिसंबर 2016

मानव जीवन की सार्थकता



अमूल्य मानव जीवन आयु के अनुरूप चेष्टाओं में ही नष्ट कर डालना विवेकी मनुष्यों के लिए लज्जास्पद है। जो पुरुष बचपन में विष्टातुल्य मिट्टी में लीन रहते हैं, युवावस्था में काम-चेष्टा में लीन रहते हैं एवं वृद्वावस्था में अनेक प्रकार की दुर्बलताओं से पीडित रहते हैं, वे किसी भी आयु में पुरुष नहीं हैं, अपितु बाल्यावस्था में शूकर, युवावस्था में गर्धभ हैं और वृद्धावस्था में अत्यंत वृद्ध बैल हैं।

मानव जन्म पाकर भी बचपन में माता की ओर ताकते रहने, युवावस्था में पत्नी का मुँह ताकते रहने और वृद्ध अवस्था में पुत्र का मुँह ताकते रहने में मूर्खता है। जो मनुष्य सिर्फ धन की आशा और भौतिक सुख-सुविधाओं की आकांक्षाओं में विह्वल होकर अपना जन्म दूसरों की नौकरी में, कृषि में, अनेक आरम्भ युक्त व्यवसाय में एवं पशुपालन में व्यतीत करते हैं, वे अपना जीवन व्यर्थ नष्ट करते हैं। जो मनुष्य अपना जीवन धर्म-क्रियाओं में व्यतीत करने के बदले सुख के समय काम-वासना में एवं दुःख के समय दीनतापूर्ण रुदन में व्यतीत करते हैं, वे मोहान्ध हैं। क्षण भर में अनेक कर्मों के समूह को क्षीण करने की क्षमता वाले मनुष्य-जीवन को पाकर भी जो पाप-कर्म करते हैं, वे सचमुच पापी हैं।

सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र के पात्ररूपी मानव-जन्म को पाकर भी जो मनुष्य पाप करते हैं, वे स्वर्ण पात्र में मदिरा भरने वाले हैं। स्वर्ग एवं मोक्ष प्राप्त कराने वाले मानव-जन्म को पाकर भी जो मनुष्य नरक प्राप्त करानेवाले कर्मों में उद्यमशील रहते हैं, वे सचमुच खेद उत्पन्न कराने वाले हैं, क्योंकि ऐसे मनुष्यों को देखने से हितैषी सज्जनों को वास्तव में खेद होता है।

जिस मानव जन्म को प्राप्त करने के लिए अनुत्तर देवता भी प्रयत्नशील रहते हैं, उस मानव जीवन को पाप कार्यों में नष्ट कर डालना पुण्यशाली मनुष्यों का कार्य नहीं है, अपितु पापियों का ही कार्य है। जीवन को हर वक्त समस्याओं, निराशाओं और नासमझी के साथ जीना जीना नहीं है, मात्र जीवन का बोझ ढोना ही है। ऐसे व्यक्ति बहुमूल्य मानव जन्म को नष्ट कर अक्षय सुख-शान्ति-आनंद से वंचित ही रहते हैं।

अतः पुण्योदय से प्राप्त मानव जन्म को सफल एवं सार्थक करने के उपाय करने चाहिए। उसे सार्थक करने के लिए मुक्ति का लक्ष्य बनाकर अर्थ एवं काम की आसक्ति से बचने, जिनेश्वर देव की सेवा में ही आनंद अनुभव करने, सद्गुरुओं की सेवामें रत रहने तथा श्री वीतराग परमात्मा के धर्म की आराधना में निरंतर प्रयत्न करने अर्थात् भाव सहित अनुकम्पा-दान एवं सुपात्र-दान देने, शील-सदाचार का सेवक बनने, तृष्णा का नाश करने वाले तप में रत रहने और अपने साथ दूसरों की कल्याण-कामना करने, मैत्री आदि चार एवं अनित्यादि बारह तथा अन्य भावनाओं का सच्चे हृदय से उपासक बनने के प्रयत्न करने चाहिए। तभी मानव-जन्म की सार्थकता है।-सूरिरामचन्द्र