बुधवार, 30 नवंबर 2016

आत्मा के विचार बिना जीवन श्रापभूत



जिसको आत्मा का विचार नहीं और परभव का खयाल नहीं, ऐसा व्यक्ति परोपकार की चाहे जैसी बात करे, वह सच्चा परोपकारी नहीं बन सकता। इस भव के सुख के लिए जिसको हिंसक पशुओं का भी विनाश करने का मन होता है, वह आदमी दुनिया में चाहे जितने भी ऊँचे पद पर चढा हो, तत्त्वज्ञानी महात्माओं की दृष्टि से तो वह अधम कोटि का ही है। आत्मा के सुख का जिसको खयाल नहीं और पौद्गलिक सुख, यही जिसका साध्य हो, वैसी आत्माओं का जीवन तो जगत के जीवों के लिए केवल श्रापभूत ही है। ऐसी आत्माओं को उसके पूर्व के पुण्य योग से प्राप्त हुई बुद्धि, शक्ति और सामग्री जगत के जीवों के लिए एकान्ततः अकल्याण का कारण बनती है और इससे ऐसे आत्माओं का स्वयं का भविष्य भी अंधकारमय बन जाता है।

मनुष्य मात्र को यह विचार करना चाहिए कि हमको जिस प्रकार हमारा जीवन प्रिय है, उसी प्रकार जगत के सभी जीवों को भी उनका जीवन प्रिय है। जगत में कोई जीव दुःखी नहीं होना चाहता, सभी सुखी होने की इच्छा रखते हैं। दुःख को दूर करने का और सुखी बनने का एक ही मार्ग है और वह है- हम दूसरे को दुःख न दें और जहां तक संभव हो सके दूसरे को सुख पहुंचाने का प्रयास करें। हमें दुःख प्रिय नहीं है तो दूसरे को दुःखी करने, दुःख पहुंचाने से दूर रहना और हमें सुख अच्छा लगता है तो कम से कम किसी दूसरे का सुख नहीं छीनना। दूसरे को दुःख देना या किसी का सुख छीनने का प्रयास करना, यह तो अपने ही हाथों से अपने लिए दुःख उत्पन्न करना है।

किन्तु, आत्मभाव के बिना पौद्गलिक सुखों की लालसा में पडी आत्माएं इस बात का विचार नहीं करती है। ऐसी आत्माएं तो एकान्ततः कल्याण करने वाली बातों का उपदेश देने वाले महात्मा पुरुषों का भी अवसर पाकर तिरस्कार करने से चूकती नहीं है। कारण कि उनको सच्चे महात्माओं का महात्मापन खटकता रहता है। दुर्जन लोग सज्जन पुरुषों के अकारण ही शत्रु होते हैं। कारण कि सज्जन पुरुषों द्वारा आचरण की जाती सत्प्रवृत्तियां दुर्जन लोगों को संसार के सामने आचरण से स्वतः दुर्जनरूप घोषित कर देती है और इसीलिए सज्जन पुरुष दुर्जनों को खटकते हैं और वे अपने मन में सज्जनों के प्रति वैर पालते हैं।

सच्ची बात यह है कि पौद्गलिक स्वार्थ की रसिकता ही भयंकर है। पौद्गलिक स्वार्थ की प्रीति ज्यों-ज्यों बढती जाती है, त्यों-त्यों सद् वृत्ति और सदाचार दोनों का नाश होता जाता है। पौद्गलिक स्वार्थ की अत्यंत प्रीति आदमी को आदमी नहीं रहने देती, अपितु शैतान बना देती है। इसलिए आत्म-कल्याण की अभिलाषी आत्माओं को स्वयं में रही हुई पौद्गलिक स्वार्थवृत्ति को जडमूल से ही समाप्त करने के लिए प्रयत्नशील बनना चाहिए।-सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 29 नवंबर 2016

अंजाम क्या होगा, सोचिए !



संसार की स्वार्थ परायणता पर विचार करो। राग-द्वेष और अज्ञान से घिरे हुए तथा उसी कारण से अर्थ और काम में अतिलुब्ध बनी हुई आत्माएं, अपने ही पिता, मां, पत्नी, पुत्र या भाई के वध जैसा भयंकर कोटि का विचार करें, निर्णय करें या उसकी पालना करें तो भी इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं है। अर्थ और काम की प्राप्ति में ही स्वयं का कल्याण मानकर बैठे हुए लोगों को, स्वयं के कल्पित कल्याण की साधना के लिए कितनी ही बार तो भयंकर में भयंकर कोटि के भी दुष्कृत्यों का आचरण करते हुए विचार नहीं आता है।

ऐसी आत्माओं को स्वयं के किंचित स्वार्थ के लिए सामने वाले की पूरी जिन्दगी भी तुच्छ लगती है। स्वयं के क्षुद्र स्वार्थ के लिए दूसरों के प्राणों का हरण करते हुए भी, किंचित् भी क्षुब्ध नहीं होने वाली आत्माएं इस युग में बहुत हैं। पूर्व के पुण्य योग से मिली हुई सामग्री का उपयोग वे लोग इस भव में दूसरे जीवों का संहार करने में करते हैं। किन्तु, वे लोग अपने भविष्य को भूल जाते हैं।

पूर्व का पुण्य एक दिन तो खत्म होने ही वाला है और इस भव का पाप भी एक दिन जरूर उदय में आने वाला है। उस समय अभी रसपूर्वक पाप सेवन करने वालों की कैसी भयंकर दशा होगी? ऐसों के भविष्य पर विचार करते हुए हृदय में दया उत्पन्न हो, यह स्वाभाविक है। स्वयं के सुख की खातिर दूसरे के सुख को झुठलाने की इच्छा भी उत्तम आत्माओं में उत्पन्न नहीं होती है। वहां ऐसी प्रवृत्ति की तो बात ही क्या करनी? स्वयं के निमित्त से संसार के किसी भी जीव को दुःखी नहीं करने की वृत्ति के प्रकट हुए बिना, आत्मा में उत्तमता प्रकट होती ही नहीं है। हम दूसरी आत्माओं को सुखी न बना सकें, उसकी कोई चिन्ता नहीं है; किन्तु संसार के किसी भी जीव को दुःखी करने की वृत्ति तो हममें से जानी ही चाहिए। हमें मिली हुई सामग्री दूसरे जीवों को सुख प्राप्त कराने वाली न हो सके तो भी वह कम से कम उन्हें दुःख देने वाली तो न हो, ऐसी सावधानी, सावचेती तो प्रत्येक हृदय में अवश्य होनी ही चाहिए।

शक्य हो तो दूसरे को सुखी बनाने का और शक्य न हो तो भी कम से कम दूसरे को दुःखी नहीं बनाने का विचार जिस आत्मा में प्रकट होता है, वह आत्मा क्रमशः स्वयं की उन्नति सिद्ध कर सकती है। आत्मा किसी भी काल में संसार के समस्त जीवों को सुखी बना देने का सामर्थ्य प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु आत्मा में ऐसा तो हो सकता है कि संसार के किसी भी जीव के दुःख का कारण वह नहीं बने, उसका पद भव्यात्माओं के लिए सुख का प्रेरक बने। ऐसी आत्मदशा, अर्थात् आत्मा का ऐसा सुविशुद्ध स्वरूप प्राप्त करने के लिए ही सुख के अर्थी आत्माओं को प्रयत्न करना चाहिए। यह प्रयत्न तभी हो सकता है, जब आत्मा में प्राणीमात्र के प्रति कल्याण की भावना हो।-सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 28 नवंबर 2016

चिन्ता और चिता



दुनिया में कहावत है कि चिन्ता चिता समान। चिता बाहर से सुलगाती है और चिन्ता अन्दर से सुलगाती है। चिता में सुलगते हुए को सब देख सकते हैं और चिन्ता में सुलगते हुए को कोई-कोई व्यक्ति ही देख पाता है। चिता जल्दी से सुलगाकर शरीर को राख कर देती है और चिन्ता कई दिनों तक, कई वर्षों तक जलाती, सताती रहती है। इस प्रकार चिता से भी चिन्ता अत्यधिक भयंकर है।

चिन्ता से घिरे हुए आदमी को खाना-पीना अच्छा नहीं लगता है। खाता अवश्य है, किन्तु उस खाने में उसे रस नहीं आता है। खाया न खाया ऐसा करके उठ जाता है। चाहे जैसा भी रसमय भोजन हो, मिठाइयों का थाल सामने रखा हो, भिन्न-भिन्न सब्जी, भिन्न-भिन्न चटनियां-नमकीन के साथ रखी हुई हो और रसोई गरमागरम हो, किन्तु चिन्ता से घिरे हुए आदमी को इसमें से कोई भी वस्तु आनन्द देने वाली नहीं लगती है। ग्रास मुंह में डालता जरूर है, किन्तु दिमाग पर दूसरी ही धुन चलती रहती है।

चिन्तातुर आदमी को निकट रहने वाले आज्ञाकारी और सदा अनुकूल व्यवहार करने वाले स्वजनों का मिलाप भी अच्छा नहीं लगता है। चिन्ता से घिरने के पूर्व जिनका मुखदर्शन मोह उपजाता था, जिनके पास बैठकर मधुर वार्तालाप करने में चाहे जितना भी समय लग जाए, वह समय आराम से गुजर जाता था, जिनका कुछ घण्टों का विरह भी सहन नहीं होता था और जिनके साथ आनन्द करता हुआ व्यक्ति सारी दुनिया को भूल जाता था; ऐसे ही स्वजनों का मिलन चिन्ता से घिरे आदमी को कंटक भरा लगने लगता है।

तुम्हे क्या चिन्ता है?’ उसको यदि कोई ऐसा पूछे तो भी उसे अच्छा नहीं लगता है। निकट के स्नेहियों पर भी बात-बात में गुस्सा आ जाता है, वह झुंझला उठता है, चिडचिडा हो जाता है, ऐसा क्यों होता है? एक मात्र चिन्ता से! जिस बात के कारण मन चिन्तातुर बना हो, उसके विचार दिन-रात आया करते हैं। नींद उड जाती है। चिन्ता जिस प्रकार बल का नाश करती है, उसी प्रकार निद्राहारिणी भी है।

ऐसी सांसारिक चिन्ता पतन की ओर ले जाती है, लेकिन यही चिन्ता आत्मा की हो तो? आत्म-चिन्ता साधना का प्रबल साधन है। आत्मचिन्ता विवेकशून्य नहीं होनी चाहिए। सांसारिक चिन्ता आदमी को पागल बना देती है, जबकि आत्मचिन्ता व्यक्ति को धीर, वीर और गंभीर बनाती है। सचमुच में सम्यक्त्व की प्राप्ति के योग से जिस आत्मा में सच्ची आत्मचिन्ता प्रकट हुई हो, उस आत्मा की विचारदशा ही बदल जाती है। आत्मचिन्ता उत्पन्न हो और उसमें त्वरा आए तो यह चिन्ता विरति के मार्ग पर ले जाती है और इसी से आत्मा के उत्साह में वृद्धि होती है। यही आत्मचिन्ता कर्मों को खपाती है, आत्मा को निर्मल बनाती है और मोक्ष की ओर गति करती है।-सूरिरामचन्द्र

रविवार, 27 नवंबर 2016

त्याग में वैराग्य जरूरी



जितने वैरागी होंगे उतने त्यागी ही होंगे, ऐसा नियम नहीं है। घर-गृहस्थी में रहने वाला भी वैरागी हो सकता है। नहीं छूटे, छोड न सके, परन्तु छोडने जैसा माने और कब छूट जाए, ऐसी भावना का सेवन करे तो वह वैरागी है। इस पद्धति से कितनी ही आत्माएं वैरागी होने पर भी त्यागी नहीं होती, ऐसा संभव है। किन्तु, त्यागी तो नियमतः वैरागी होना ही चाहिए।

विरागपूर्वक त्याग ही प्रशंसनीय है। जो वस्तु हेय है, अर्थात् छोडी जाती है, उन-उन वस्तुओं को लेने के लिए ही छोडते हों तो यह महाअज्ञान है। संसार-सुख प्राप्त करने के लिए संसार-सुख का त्याग करना, यह किसी भी रूप में प्रशंसनीय नहीं है। संसार के सुखों का त्याग करने वाले सांसारिक सुखों के प्रति विरागी होने ही चाहिए। विराग बिना का त्याग संसार को बढाने वाला होता है, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। यानी त्याग विराग वाला होना चाहिए। यह बात सत्य है।

किन्तु, विरागी त्यागी ही होना चाहिए, ऐसा नियम बांधा नहीं जा सकता। विराग बिना का त्याग, त्याग नहीं, ऐसा अवश्य कहा जाता है। सम्यकदृष्टि विरागी होने पर भी घर-गृहस्थी वाला हो, यह संभव है। वह घर-गृहस्थी को अच्छा नहीं मानता, छोडना चाहता है, लेकिन कदाचित् किन्हीं कारणों से छोड नहीं पाता और मजबूरीवश रहना पडता है तो भी वह उसमें रमता नहीं, दृष्टाभाव से रहता है, क्योंकि जब तक चारित्रमोहनीय कर्म का सम्पूर्ण क्षय नहीं हो जाता, वह विरागी होते हुए भी त्यागी नहीं हो सकता। त्याग के लिए उत्तम कोटि का विराग और उसके लिए मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का क्षयोपशम आवश्यक है।

ये विरागी आत्माएं नित्य-प्रति आत्म-निन्दा करती रहती हैं, संसार में अपनी फंसावट को धिक्कारती रहती हैं और सोचती रहती हैं कि मेरा चारित्र मोहनीय कर्म कब क्षय होगा और कब मैं यह सब छोडकर मोक्षमार्ग का पथिक बन सकूंगा? ऐसी पुण्यात्माएं संसार में रह कर भी विषयों में अत्यधिक आसक्त नहीं होती, लीन नहीं होती, अपितु विरक्त भाव से रहती हैं।

उनको स्वयं के विरतिधर न बन सकने का और धर्माचरण नहीं कर पाने का गहरा दुःख होता है और वे अपनी अधमता पर सोचते हैं कि मैं विषयासक्त बन गया, अपने आत्म-कल्याण के मार्ग पर अग्रसर न हो सका। यह आत्म-निन्दात्मक सोच प्रशंसनीय है, क्योंकि यह सन्मार्ग का प्रेरक सोच है। पुण्यात्माओं के ऐसे आत्म-निन्दात्मक वचनों को आगे करके आप अपनी शिथिलता को छिपाने का प्रयास करो तो यह उचित नहीं है। आज तो भयंकर विषयासक्ति को अशक्ति और अन्तराय के बहाने नीचे छुपाने का प्रयत्न होता है। इसीलिए इस तरफ भी ध्यान देने की जरूरत पडी है।-सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 26 नवंबर 2016

पौद्गलिक संयोग ही दु:ख का कारण



मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के अनुज श्री भरत परिणामदर्शी थे। इसीलिए अथाह भोग सामग्री और सत्ता मिलने पर भी उसमें वे मूर्छित नहीं हुए और कब यह संसार छूटे, ऐसी भावना में रमण करते रहे। पुद्गल-योग से प्राप्त हुआ बडा से बडा सुख भी श्री भरत को दुःखरूप लगता था। कारण कि इस संसार के सुखों में लीन बना हुआ आत्मा ज्यों-ज्यों सुख भोगता जाता है, त्यों-त्यों भविष्य के लिए भयानक दुःखों को खरीदता जाता है, ऐसा श्री भरत जी समझते थे, क्योंकि वे परिणामदर्शी थे। आप भी ऐसे ही परिणामदर्शी बनेंगे तो आपको भी इस मनुष्यलोक के ही नहीं, देवलोक के भी सुख दुःखरूप लगे बिना नहीं रहेंगे।

दुनिया के दुःख नहीं चाहिए, यह बात सत्य है और सुख चाहिए, यह बात भी सत्य है। फिर भी दुनिया के जीव सुख की इच्छा से ऐसा प्रयत्न करते हैं कि जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें दुःखमय दशा प्राप्त हो जाती है। कारण कि उन्हें सच्चे सुख का ज्ञान ही नहीं है। उनको सच्चे सुख के उपाय की जानकारी ही नहीं है। दुःख के स्वरूप और दुःख के निदान की भी खबर नहीं है। सुख और दुःख दोनों का स्वरूप समझ लें और उसके निदान का खयाल आ जाए तो ज्ञानी कहते हैं कि आत्मा को ऐसा लगे कि संसार रूपी भट्टी में मैं सिका जा रहा हूं। उसको चैन नहीं पडेगा। दुनिया जिसको सुख मानकर पागल के समान जिसके पीछे दौड रही है, वह सुख उसको भयंकर लगता है। यह भौतिक सुख कैसे अनर्थों का सर्जक है, यह बात जिसे समझ में आ जाए, उसकी दिशा ही बदल जाएगी।

एक भी पौद्गलिक वस्तु के योग के बिना का जो सुख है, वही सच्चा सुख है। दुःखमात्र का मूल पुद्गल का योग है। जहां पुद्गल का योग नहीं, वहां दुःख का नाम नहीं और सुख की कमी नहीं। आज तो बहुत लोगों को घबराहट यह होती है कि कोई भी पुद्गल वस्तु के योग के बिना सुख होता ही कैसे है?’ यह आकुलता, यही मिथ्यात्व है। जिसका मिथ्यात्व जाता है, उसकी घबराहट स्वतः चली जाती है।

बुद्धिपूर्वक विचार करें तो इस विचक्षणता को समझा जा सकता है। दुनिया को पौद्गलिक वस्तुओं का वियोग होता है तो दुःख होता है न? वियोग का दुःख क्यों? संयोग में सुख माना इसीलिए न? संयोग ही न होता तो वियोग कैसे होता? कितनी ही बार पौद्गलिक वस्तुओं का वियोग दुःख उत्पन्न करता है तो कितनी ही बार पौद्गलिक वस्तुओं का संयोग दुःख उत्पन्न करता है। मनपसंद चला जाए तो भी दुःख और मनपसंद मिले तो भी दुःख। इसलिए वस्तुतः सुख पौद्गलिक वस्तुओं के न वियोग में है और न संयोग में। पौद्गलिक वस्तुओं का स्वभाव स्थिर रहने का नहीं है। सडन, गलन, पतन पुद्गल का स्वभाव है, इसलिए इसके योग में सुख की कल्पना, यही दुःख की जड है। आत्मा इसी में लीन रहने के कारण दुर्गति में डूब जाती है। जो वस्तु दुःख की हेतुभूत होती है, उसको सुखरूप मानना मूर्खता है।-सूरिरामचन्द्र

शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

धर्महीन मनुष्य सबसे ज्यादा क्रूर



धर्म इतना मूल्यवान है कि उसकी जरूरत सिर्फ किसी समय विशेष के लिए ही नहीं होती, अपितु सदा-सर्वदा के लिए होती है। यदि इस जीवन में धर्म नहीं होगा तो यह जीवन इतना व्यर्थ, तुच्छ और कष्टकारक होगा कि जिसका कोई जोड न हो। ऐसे आदमी इस दुनिया में बहुत आतंक मचाने वाले सिद्ध होते हैं। हर समय धर्महीन मनुष्य दुनिया में हिंसक से हिंसक पशु से भी अधिक खतरनाक साबित हुए हैं। इतिहास कभी नहीं लिखता कि किसी भी पशु ने देश के देश तबाह कर दिए, लेकिन मनुष्य ने अपनी पापवृत्ति के आधीन होकर कई देशों को नष्ट कर दिया है, यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है। आप कह सकते हैं कि यह तो राजाओं का काम है, लेकिन ऐसा नहीं है। धर्म विहीन सभी आत्माएं ऐसा ही करती है।

आप कौन हैं और आपके पास क्या है, इसे भूलकर यदि आप अपनी मनोवृत्ति की गहराई में जाकर वस्तुस्थिति को सही-सही रूप में जाँचेंगे तो आपको पता चलेगा। आप में शक्ति न हो, संयोग न हो, साधन का अभाव हो, तो आपसे ऐसे पाप न हों, यह बात अलग है। लेकिन, आप स्वयं ही उस परिस्थिति में हों तो क्या करोगे, इसे आप अपने हृदय की गहराई में छिपी वृत्ति के आधार पर जाँचिए। जब आपके पास शक्ति, सामग्री, संयोगादि उपलब्ध हों, तब परीक्षा होती है। अत्यंत दरिद्र कहे कि मैंने दिवाला नहीं निकाला’, तो इस बात का कोई मतलब नहीं है। शायद वह ऐसा भी कहे कि मैंने किसी का पैसा घर में छुपाया नहीं है’, तो आप उसकी हंसी उडाते हुए कहोगे कि तुझे पैसा देगा कौन? तुझे तो कोई कर्ज देने वाला होगा ही नहीं, क्योंकि कर्ज देने वाला देखकर देता है कि मेरा पैसा वापस चुकाने की उसकी सामर्थ्य है या नहीं?’ इसलिए यह कोई बडाई की बात नहीं है।

जब भी साधन-सम्पन्न आदमी का कुत्सित चित्र आपके सामने आए तो उस समय उसकी अपेक्षा अपने को उत्कृष्ट और उसे नीच मानने या कहने के पहले आप सोचिए कि यदि मैं उस परिस्थिति में होता तो मेरी क्या दशा होती?’ अपनी मनोदशा का विचार करने के साथ दूसरे की परिस्थिति आदि का भी विचार करना चाहिए। उत्तम आत्माओं की उत्तमता को समझना हो तो भी ऐसा ही वर्तन करना चाहिए। आपकी मनोदशा के आधार पर दूसरे की करनी का न्यायसंगत माप निकालो, तब आपको उत्तम आत्माओं की उत्तम दशा का ज्ञान होगा, लेकिन याद रखना कि उस समय हृदय की अप्रामाणिकता तनिक भी नहीं होनी चाहिए। जिसे यह जीवन कीमती लगता है, उसकी जीवन-साधना कीमती बन जाती है। जिसे कीमती नहीं लगता, वह क्या नहीं करता, यह कह नहीं सकते। वह जहां-तहां कुछ भी खाकर, जितना हो सके औरों को लूटकर, जितना दे सके उतना दूसरों को दुःख देकर, केवल अपनी ही स्वार्थ-सिद्धि में लीन रहकर जीवन बिताता है। उसका जीवन कीमती नहीं है, क्योंकि वह पशु-पक्षी से जरा भी बेहतर ढंग से नहीं जीता है।-सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 23 नवंबर 2016

धर्म सदैव साथ होना चाहिए



आज धर्म करने वालों ने भी धर्म को प्रायः अवसरवादी बना दिया है। धर्म करने वालों में ऐसे भी हैं, जिनके हृदय में धर्म वास्तव में बसा ही नहीं है। आज साधु की भी अच्छी बात सुनने के लिए कितनों के पास समय है? सुसाधु के पैर छूने के लिए कभी गए हो? क्या आपने सुसाधु की चिन्ता की है? यद्यपि सुसाधु अपने धर्म के बल पर जीते हैं, न कि किसी की कृपा पर। लेकिन, आपका कर्त्तव्य क्या है? आज अधिकांश लोग वास्तव में धर्म नहीं, धर्म का दिखावा मात्र करते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि धर्म करेंगे तो दुनिया में अपना काम चलेगा, यह वृत्ति आज आप लोगों में बहुत बढ गई है, इसलिए धर्म का दिखावा चल रहा है। ऐसे कम ही लोग हैं, जिनके हृदय में वास्तव में धर्म का निवास है। जिसमें कोई खामी न हो, किसी की जरूरत न हो, इस तरह दुनिया के सुख में लीन रहने की बुद्धि से, धर्मदर्शक आत्माओं की परवाह किए बिना, केवल धर्माचरण का दिखावा करे और उसमें होने वाली गलतियों को गलती के रूप में समझते हुए भी उन्हें पाल रखे और इसके बावजूद भी वह धर्म वास्तव में हमें सहायक बनकर उन्नति प्रदान करे; यदि ऐसी आशा आप रखते हैं तो यह व्यर्थ है। हमें ऐसे धर्म की जरूरत है जो जीवन में हर पल, हर क्षण साथ रहे। कुछ स्थानों या समय पर ही धर्म हो, ऐसा नहीं। धर्म तो जीवन में सर्वत्र और हर पल होना चाहिए। आप पेढी पर बैठे हों, बाजार में व्यवसाय करते समय कोई सौदा कर रहे हों, अपने मित्रों के साथ बातचीत कर रहे हों या आनंद-प्रमोद की कोई क्रियाएं करते हों, इन सभी अवसरों पर धर्म आपके साथ होना चाहिए। इतना ही नहीं, आप खाते-पीते हों, उठते-बैठते हों, बातचीत करते हों या कहीं घूमते-फिरते हों, सब काल और सब काम में धर्म होना आवश्यक है।

इस तरह हर समय धर्म साथ में रहने से किसी भी काम के समय आपको विचार आएगा कि मैं जो प्रवृत्ति कर रहा हूं, वह किसी को भी प्रतिकूल तो नहीं है न? किसी की प्रतिकूलता मेरी अनुकूलता नहीं बननी चाहिए या किसी की अनुकूलता खत्म करके, मुझे अनुकूलता नहीं चाहिए।यह विचार आपको तभी आएगा, जब आपकी आत्मा सच्ची विवेकी और जागृत बनेगी। आपको सोचना चाहिए कि दूसरों की अनुकूलता छीनने का मुझे क्या हक है? यदि ऐसा नहीं सोचेंगे तो आपकी आत्मा हर पल, हर क्षण पाप करने का मौका मिलते ही कोई न कोई पाप अवश्य करेगी। आप बाजार में व्यापारी के रूप में घूम रहे हैं, लेकिन आप उद्योग-धंधे में कितनी अनीतियां करते हैं? क्या आप वास्तव में समाज में प्रतिष्ठा के लायक हैं? आज की दशा ऐसी है कि सब एक समान हो गए हैं, कौन किसको ताना मारेगा? इसका कारण यह है कि आपने धर्म को पकडा नहीं और दूसरी ही वस्तुओं के गुलाम हो गए हैं। यदि आपने धर्म को अपना साथी बनाया होता तो पौद्गलिक सुख के आप इतने बडे शौकिन नहीं बनते और आपकी मनुष्यता भी इतनी धूमिल नहीं होती।-सूरिरामचन्द्र