सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

अर्थ और काम शान्ति नहीं दे सकेंगे



धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ कहे जाते हैं। इन चारों में पुरुषार्थ की अपेक्षा से समानता है, क्योंकि इन चारों में प्रयत्न तो आवश्यक है। चारों में से एक की भी सिद्धि, बिना प्रयत्न के संभव नहीं है, परन्तु संसार के अधिकतम लोग किस पुरुषार्थ के लिए प्रयत्न करते हैं? अर्थ और काम के लिए ही न? धर्म और मोक्ष के लिए कितने लोग उद्यमवंत रहते हैं और अर्थ तथा काम के लिए कितने लोग उद्यम करते हैं? मोक्ष के विषय में तो आज अनेक मनुष्य कहते हैं कि इसे कैसे मानें? है या नहीं? कदाचित गप्प न हो? क्या विश्वास? किसने देखा है मोक्ष? यह तो भोलेभाले लोगों को फंसाने का एक जाल लगता है।जब मोक्ष के विषय में ऐसी अनर्गल धारणा है तो फिर उसे प्राप्त करने की कामना तो रहेगी ही क्यों? और जब मोक्ष की कामना उड गई तो फिर धर्म की भी क्या आवश्यकता?

इससे स्पष्ट है कि संसार की कामना अधिकतर अर्थ और काम के लिए है। संसार का काफी बडा भाग अर्थ और काम के लिए ही दौडधूप कर रहा है। लोग जीवन का सम्पूर्ण भाग इसीलिए नष्ट करते हैं, परन्तु यह अर्थ-काम आत्मा के साथ कितने समय तक रहने वाले हैं? अन्त में जाने वाले ही हैं, इसका विचार ही आज प्रायः लोग लगभग भूल बैठे हैं। जब देह में असाध्य व्याधि उत्पन्न हो जाए और डॉक्टर हजारों रुपयों की फीस लेकर भी हाथ झटक दें, उस समय आत्मा को अर्थ और काम की विपुल सामग्री भी शान्ति दे सकती है क्या? नहीं दे सकती। आज अनेक लोग कहते हैं कि इस संसार में अर्थ और काम के बिना चल ही नहीं सकता, अतः उनके त्याग की बात करना तो मूर्खता है। यह भावना इस युग में लगभग रूढ बन गई है। इसलिए लोगों का धर्म की ओर रुझान नहींवत् है।

धर्म और पौद्गलिक सुख के त्याग की बात करने वाले आज पागल समझे जाते हैं, परन्तु परम उपकारी शास्त्रकार महर्षियों ने गहन खोज कर के कहा है कि अर्थ और काम जीवन में शरण-स्वरूप हैं ही नहीं।मान लीजिए कि अर्थ और काम की सामग्री के अम्बार लगे हों, जो मांगें वह मिल सके इतने साधन उपलब्ध हों, अर्थ की अथवा भोग की कमी न हो और नौकर-चाकर, स्नेही-संबंधी भी अनुकूल हों; ऐसे सुखी मनुष्य को भी अन्तिम अवस्था में जब वह मृत्यु-शैय्या पर पडा हो, इन समस्त वस्तुओं में से कौनसी वस्तु शान्ति प्रदान करने में समर्थ है? कहना पडेगा कि एक भी वस्तु ऐसी नहीं है। सब पास में खडे हों फिर भी वे कर क्या सकते हैं? देह में तीव्र वेदना उत्पन्न होने पर करना क्या? समस्त साधन-सामग्री उल्टी उस समय अधिक व्याकुलता उत्पन्न करती है। ऐसे विकट अंतिम समय में जीवन में शान्ति प्रदान करने वाली वस्तु कौनसी है? अर्थ और काम या धर्म? इस विषय में ही गहनता पूर्वक चिन्तन करने की आज आवश्यकता है।-सूरिरामचन्द्र

रविवार, 30 अक्तूबर 2016

अशान्ति का विस्तार


जिस आत्मा में प्राणी मात्र के कल्याण की उर्मियां नहीं उठती, जो आत्मा हृदय से यह नहीं चाहती कि प्राणी मात्र परहित में सक्रिय हो, जो आत्मा दोषों के नाश में उदासीन है और जिस आत्मा में सबको सुखी देखने की शक्ति नहीं है; उस आत्मा के जीवन में यदि अशान्ति हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। जिस शान्ति के लिए हम लालायित हैं, उस शान्ति की प्राप्ति के लिए साधन-सामग्री प्राप्त किए बगैर चलेगा ही नहीं। परन्तु, आज के शान्ति चाहकों की तो भावना ही विलक्षण है। दूसरों के सुख देखने की शक्ति भी दिन-प्रतिदिन विलीन होती जा रही है। दूसरे को सुखी देखते ही वह चौंक जाता है कि मैं तो दुःखी हूं और वह सुखी क्यों? यह सोच ईर्ष्या है, विनाश, विध्वंश और अशान्ति का कारण है।

यदि इस तरह दूसरे को सुखी देखकर चौंकें नहीं, ईर्ष्या नहीं करें और उसे सुखी व अपने को दुःखी देखकर सुख-दुःख के कारणों का चिंतन-विवेचन करें; साथ ही साथ अपने दुःख के कारणों को दूर करें व सुख के कारणों को अपनाएं तो-तो उसी समय से शान्ति का साक्षात्कार होने लग जाए; लेकिन ऐसा करने की बजाय आज तो अधिकांश लोग सामने वाले को सुखी देखकर चौंकते हैं, ईर्ष्या करते हैं और विचार करते हैं कि उसे अपना सुख हमें भी बांटना चाहिए, नहीं तो उससे उसका सुख छीन लेना चाहिए, जब तक हम दुःखी हैं, किसी और को सुखी होने का क्या अधिकार है?’ यह अशान्ति का विस्तार है।

इस विचारधारा के परिणाम स्वरूप आत्मा के ऊपर जो नियंत्रण था, वह समाप्त हो गया, मनुष्यों के मर्यादापूर्ण जीवन में परिवर्तन आ गया और अन्तर्भावना का उक्त रूपक बाहर आया; इसके ही योग से चारों ओर अशान्ति की भीषण ज्वाला विशेष रूप से धधक रही है। जिस समय ऐसे विचारों का साम्राज्य हो, उस समय कोई सुखी हो ही नहीं सकता। आज साधन तो अनेक हैं, पर शान्ति का नामोनिशान नहीं दिखता। सच्चा साधन वही कि जो साध्य को सिद्ध कर सके। उसका नाम साधन नहीं है जो हमें साध्य से दूर ला पटके। इस सत्य को आज का विश्व भूलता जा रहा है। साधन उसे माना जाना चाहिए जो जीव के लिए सहायक हो, बोझ रूप नहीं हो। विवेक से यदि हम सोचें तो आज के साधन जीवन पर भार हैं अर्थात् जीवन में बोझा बढाने वाले हैं। सचमुच जहां स्वयं को ही अपनी आत्मा के हित की चिन्ता नहीं, वहां समस्त विश्व के कल्याण की भावना और प्राणी मात्र परहित में लीन रहे, ऐसी उत्कृष्ट भावना आएगी कहां से? स्वयं दोषपूर्ण हो और दोष दूर भी नहीं करना चाहता हो, वहां लोक में सबके दुःख दूर हों’, ऐसी भावना भी आएगी कहां से? ‘मैं दुःखी हूं तब दूसरे सुखी क्यों?’ यह दुष्ट विचार, यह ईर्ष्या जब तक हृदय में है, तब तक जगत के सब जीव सुखी हों’, ऐसा बोलना थोथापन है।-सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 29 अक्तूबर 2016

सच्ची शान्ति का अमोघ उपाय



विश्व में प्रत्येक प्राणी शान्ति चाहता है, यह तो निःशंक सत्य है। अशान्ति कोई नहीं चाहता। छोटे-बडे सभी केवल शान्ति चाहते हैं और शान्ति प्राप्त करने की अभिलाषा से सभी यथासंभव प्रयत्न भी करते हैं, परन्तु शान्ति का अनुभव करने वाले विरले ही हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि प्राणी जब तक स्वयं शान्ति-रूप न बन सके, तब तक उसे शान्ति मिले कैसे?’ कहावत है कि जैसा बोओगे, वैसा काटोगेऔर जैसा करोगे, वैसा भरोगे। चाहते तो हैं शान्ति और काम ऐसे करते हैं जो अशान्ति देने वाले हों तो फिर कितने ही उपाय करने पर भी शान्ति कैसे मिलेगी?

आज तो अनेकों को वास्तविक शान्ति का अर्थ भी ज्ञात नहीं है। शान्ति ऐसी होनी चाहिए कि जिसके संयोग से आत्मा शाश्वत सुख प्राप्त कर सके। हमें जो शान्ति चाहिए वह कार्य-साधक होनी चाहिए। जिससे हमारा कार्य सिद्ध हो सके, ऐसी शान्ति चाहिए। हम श्मशान-तुल्य शान्ति नहीं चाहते। हमें तो जीवित शान्ति चाहिए। जब तक जीवन शान्तिमय नहीं बनता, तब तक सच्ची वस्तु की प्राप्ति नहीं हो सकती। इस दृष्टि से यह विचारणीय है कि संसार में यदि सभी शान्ति के उपासक हैं तो आज कदम-कदम पर अशान्ति का वातावरण क्यों है? प्रत्येक को कुछ न कुछ अशान्ति है। यदि हम अशान्ति के उन कारणों का निवारण कर दें तो जीवन को शान्तिपूर्ण बना सकते हैं। जिस वस्तु की हमें आवश्यकता है, उसे, उसके स्वरूप को और उसके साधनों को न सोचें और उसे बिगाडने वाले साधनों को जीवन से दूर कर दें तो हमारा कार्य कैसे होगा? महापुरुषों ने तो फरमाया है कि यदि शान्ति चाहते हैं तो स्वयं शान्तिमय बनें।'

सामने वाला कैसा है, यह मत देखो; अपितु आप कैसे हैं, यह देखो। आप यदि सचमुच शान्त बनोगे तो दूसरे में यदि वह योग्य होगा तो स्वतः शान्ति ला सकोगे। जीवन को शान्तिमय बनाने के लिए महापुरुषों ने उपाय बताए हैं, उन उपायों का यदि जीवन में अभ्यास किया जाए और उन पर आचरण किया जाए तो सच्ची शान्ति प्राप्त करना असंभव नहीं है। महापुरुषों ने फरमाया है कि-

शिवमस्तु सर्वजगतः, परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः।

दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखी भवतु लोकः।।

समस्त विश्व का कल्याण हो, सब प्राणी परहित रत हों, समस्त दोषों का नाश हो और सर्वत्र लोक सुखी हो।इस तरह चार भागों में विभक्त यह भावना शान्ति चाहने वालों में होनी ही चाहिए। संसार की कोई भी आत्मा हो, उसके साथ हमारा संबंध हो या न हो, उससे लाभ मिले या हानि, पर हम उसके कल्याण की ही कामना करें। जीवन को शान्तिमय बनाने का यह अमोघ उपाय है। इन विचारों में रंगी, इन विचारों से ओतप्रोत आत्मा ही सच्ची शान्ति का साक्षात्कार कर सकती है।-सूरिरामचन्द्र

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

युवावस्था सृजन में लगे



यदि बालक के मन को कोई सुसंस्कारों के ढाँचे में ढालने वाला हो तो वह ढल जाता है। यदि वह कुमार्ग पर चलता है तो पालक का दोष और सुमार्ग पर चले तो पालक का उपकार मानते हैं। वृद्धावस्था भी अमुक अंशों में पराधीन है। केवल युवावस्था में ही स्वाधीनता है। शक्ति-सम्पन्न मनुष्य यदि उचित दिशा में अपनी शक्ति न लगाए, इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं रखे, बात-बात में इन्द्रियों के आधीन होता रहे तो उसका उद्धार होना कठिन है।

आज अधिकांश यही दशा है कि युवक के बडे हो जाने पर माता-पिता उसे कुछ कह नहीं सकते और यदि कोई कह दे तो युवक उसे सहन नहीं कर सकते। आज युवकों के पतन-पराभव, युवकों में बढ रही स्वच्छंदता और स्वैच्छाचारिता के कई कारण है, उनमें सबसे अहम कारण है इन्द्रिय-आकर्षण, इन्द्रियों की गुलामी। अतः युवावस्था का सदुपयोग यदि करना है, सृजन में उसे लगाना है, सफलता यदि प्राप्त करनी है तो सबसे पहले इन्द्रियों पर अंकुश जरूरी है। कारण कि आज इन्द्रियों के भटकाव, इन्द्रिय आकर्षण, इन्द्रिय लोलुपता के कई साधन संसार में उपस्थित हो गए हैं और सारा वातावरण प्रदूषित होता जा रहा है, जहां युवा-शक्ति का पतन हो रहा है।

युवक को यह समझ लेना चाहिए कि ये इन्द्रियां मेरी हैं, इन्हें मैं जिस योग्य राह पर ले जाना चाहूं, वहीं ये जानी चाहिए।ऐसा न मानकर यदि वह अपने ऊपर नियंत्रण नहीं रखता है तो उसकी विकट दशा तय है। उसकी दशा फिर कई बार उस अंधे के समान हो जाती है, जो स्वयं तो देख नहीं सकता है और दूसरा कोई सन्मार्ग पर लेजाना चाहे तो वह जाता नहीं है। अतः युवावस्था में जब तक इन्द्रियों पर पूर्णतया नियंत्रण नहीं हो जाए, तब तक उनका सदुपयोग के बदले दुरुपयोग होने की ही प्रबल संभावना रहती है।

साधन प्राप्त करना जितना कठिन है, साधन का सदुपयोग करना उससे भी अधिक कठिन है। यौवन से यदि सृजन करना है, सफलता प्राप्त करनी है, तो फिर उसके दुरुपयोग से काम नहीं बनेगा, अपनी शक्ति का, अपनी इन्द्रियों पर पूरी तरह अंकुश रखते हुए उनका सदुपयोग करना होगा। जो लोग जवानी में दीवाने बनकर कर्तव्याकर्तव्य का होश भूल जाते हैं, वे अपना जीवन तो नष्ट करते ही हैं, अन्य अनेक जीवों के जीवन भी मिट्टी में मिला देते हैं।

गहन युवावस्था को यदि अपवाद रहित व्यतीत करना है तो योग्य सज्जनों के सम्पर्क में रहकर, केवल अन्तर्नाद के भरोसे उछलकूद छोडकर योग्य व्यक्ति की निश्रा स्वीकार करनी पडेगी। इस तरह योग्य की निश्रा अंगीकार कर के जो युवक अपनी सृष्टि का सृजन करेंगे, वे अपनी तथा अपने सहयोगियों की आत्मा को डूबने से बचाकर अपना व दूसरों का कल्याण कर सकेंगे।-सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2016

तमसो मा ज्योतिर्गमयः


असतो मा सद्गमय:

तमसो मा ज्योतिर्गमयः

मृत्योर्मा अमृतम्गमयः

ओम् शान्ति: शान्ति: शान्ति:

असत्य से सत्य की ओर गमन हो, अंधकार से प्रकाश की ओर गमन हो, जन्म-जरा और मृत्यु से अमृत्व की ओर गमन हो और आप अखण्ड शान्ति और अक्षय सुख को प्राप्त करें; इसके लिए हार्दिक शुभकामनाएं !

दीपावली का यह प्रकाश पर्व हमारे सभी शुभ चिन्तकों, सहयोगियों एवं आलोचकों के मन को आलोकित करे। वे अंधकार के साथ मजबूती से लोहा ले सकें व प्रकाश की ओर बढ सकें, इसी शुभ कामना के साथ- डॉ. मदन मोदी

तृष्णा है पतन का कारण



एक मनुष्य के पास उसके रहने के लिए एक कुटिया थी। एक दिन जब वह कुटिया से बाहर निकला तो उसने एक सुन्दर आलीशान प्रासाद (महल) देखा। वह प्रासाद देखते ही उसे अपनी कुटिया छोटी लगने लगी और उसके मन में आया कि मेरे पास भी एक ऐसा ही आलीशान महल हो तो ठीक रहे। यह इच्छा क्यों उत्पन्न हुई? जो आत्मा थोडी वस्तु में निर्वाह कर रही थी, अब बडप्पन से निर्वाह करने की उसमें अभिलाषा उत्पन्न हुई। यही पतन है।

संसार के पदार्थों की तीव्रतम अभिलाषा, उन्हें येन-केन-प्रकारेण प्राप्त करना और प्राप्त कर के उनका उपभोग करने की भावना होना; यही तृष्णा है और इसी से पतन की उत्पत्ति होती है। यह तृष्णा ही पतन का मूल है। यदि तृष्णा न हो तो गलत मार्ग पर अग्रसर होने की और पतन की संभावना ही नहीं रहती है। नीति मार्ग से पतन नहीं होता, अनीति के मार्ग से पतन होता है’, यह बात मान लें, तब भी अनीति के मार्ग का उद्भव कहां से हुआ? यदि संयम रखा होता कि मेरा कोई काम इसके बिना रुकता नहीं है, मैं कम साधनों में भी निर्वाह कर सकता हूं’, तो यह तृष्णा उत्पन्न होती क्या? नहीं होती।

तृष्णा आत्म-भाव को जगाने वाली है अथवा डुबाने वाली? पुद्गल की तृष्णा दोष स्वरूप होती है कि गुण स्वरूप? जो लोग पुद्गल की तृष्णा को भी लाभदायक मानते हैं, वे बहुत भारी भूल कर रहे हैं। उन्हें वस्तु-स्वरूप का ध्यान ही नहीं है। आत्मा को वे पहचानते ही नहीं हैं। पौद्गलिक पदार्थों की तृष्णा को उन्नति का साधन मूर्ख लोग मानते हैं। पौद्गलिक पदार्थों की तृष्णा धर्म-स्वरूप नहीं है। यह आत्मा का पतन है। जितने हम तृष्णा से दूर रहें, उतना ही हमारा उदय है और वही हमारी वास्तविक प्रगति है। आँखों से उसने महल देखा, तब उसकी इच्छा हुई कि वह या वैसा मुझे भी चाहिए। परिणाम स्वरूप उसका पतन हुआ। युवावस्था में इन्द्रियां बलिष्ठ होती हैं, चक्षु आदि दौडते हैं। ज्यों-ज्यों हम नवीन वस्तु देखते हैं, त्यों-त्यों उन्हें प्राप्त करने की हमारी इच्छा बलवती होती जाती है।

जब तक सुसंस्कार होते हैं, तब तक नीति स्थिर रहती है। सुसंस्कार मिटने पर तृष्णा अनीति की ओर ले जाती है, व्यक्ति तृष्णा की तरंगों में खिंचता हुआ सांसारिक वस्तुओं के प्रति लालायित हो जाता है, दुराचार की भावना उत्पन्न होती है, सदाचार नष्ट होता है, उसकी इच्छाओं में वृद्धि होती रहती है; परिणाम स्वरूप उसका मानव जीवन भ्रष्ट हो जाता है, उसका पतन हो जाता है। हमारा जीवन यौवन के ऐसे ही आवर्त में फंसकर नष्ट न हो जाए, करने योग्य करना शेष न रह जाए, इसलिए आत्मा विषयों से दूर हटकर मुक्ति-साधना में रत बने, ऐसा प्रयत्न करना अत्यंत आवश्यक है। यदि ऐसा हो सके तो फिर संसार में कोई अभाव नहीं रहेगा।-सूरिरामचन्द्र