शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

आत्मानुलक्षी बनें



शिक्षण से क्या तात्पर्य है? शिक्षण से हम में वक्रता न आकर कोमलता उत्पन्न होनी चाहिए। शिक्षित होने का अर्थ है- सीधा, सादा और सरल प्रकृति का बनना। शिक्षण प्राप्त करते समय पूर्ण अंकुश में रहना चाहिए। अंकुश मनुष्य को सही अर्थ में मनुष्य बनाता है। मैं कौन हूं, मुझे क्या करना चाहिए?’ इन और ऐसी बातों का अभ्यास जो कोई महापुरुष करा सके, हमारी चेतना को जागृत और झंकृत कर सके, उन्हीं की निश्रा में रहकर हमें ऐसा शिक्षण लेना चाहिए, यही वास्तविक शिक्षण है।

आप यदि अच्छी बातों को अंगीकार न करें और बुरी बातों को त्यागें नहीं, उसमें हमें क्या हानि है? ‘आप हमें पूजेंगे या हमें गाली देंगे’, ऐसी बातों का भय हमें नहीं है। हम तो उपकारियों की आज्ञानुसार जो-जो वस्तु आपको बिगाडने वाली है, उन्हें बिना किसी लाज-संकोच के आपको कह देना चाहते हैं। जो समझेंगे और मानेंगे उनका कल्याण हो जाएगा और जो विपरीत भाव वाले हों, उनके लिए तो यही है कि जैसा उनका भाग्य। यदि हम आप से प्रभावित हो जाएं तो हम कर्तव्य च्युत होते हैं। इसलिए ठकुर सुहाती नहीं, खरी-खरी कहने का ही हमारा कर्तव्य है।

आप अर्थ और काम में लिप्त व आसक्त हैं, उनसे आपको बचाने का प्रयत्न हमें करना है। आप बचना चाहते हैं या नहीं, आप बच सकेंगे या नहीं; परन्तु विशुद्ध बुद्धि से विशुद्ध प्रयत्न करने वाले को तो लाभ ही होगा। जब तक हम में उपकार वृत्ति और आज्ञापालन है, तब तक हम अपने कर्तव्य से भ्रष्ट नहीं होंगे, यह निश्चित है। इस जीवन में अर्थ एवं काम की प्रवृत्ति जीवन को दूषित-कलंकित करने वाली है और वैमनस्य बढाने वाली है। अतः विश्व के परम उपकारकों ने एक ही बात कही है कि यदि सुखी होना हो तो ऐसे बन जाओ कि आप अपने कार्य-कलापों से किसी के लिए दुःखदायी सिद्ध न हों।ऐसा कब संभव है? हिंसा आदि सब वस्तुओं का त्याग कर डालो तो ही ऐसा संभव हो सकता है। मात्र एक विषय-वासना में से सैकडों दुर्गुण स्वतः ही प्रकट हो जाते हैं। पहले राग और फिर उसमें से द्वेष, क्रोध, प्रपंच आदि अनेक दुर्गुण प्रकट हो जाते हैं।

वे कहां तक पहुंचेंगे? तो बताया गया है कि उसकी कोई सीमा, मर्यादा और अवधि नहीं है। अतः उससे सावधान हो जाओ, भय खाओ और रुक जाओ। देह की ममता से दूर हटकर आप आत्मा की तरफ ध्यान दीजिए और आत्मोद्धार के लिए सच्चे ज्ञानियों की इस जीवन में शरण स्वीकार करेंगे तो आपने बहुत कुछ उपार्जित कर लिया, ऐसा कहा जा सकेगा। सभी को इस प्रकार आत्मानुलक्षी बनना है, जड वस्तुओं के सेवन से परांगमुख बनना है, मित्रता आदि चार भावनाओं में रत बनना है। उनके योग से हिंसा आदि का त्यागी बनना है और ऐसे व्यवहार से इस मानव जीवन को सार्थक करना है, ताकि निकट भविष्य में आप मुक्ति-सुख के भोक्ता बन सको।-सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 29 सितंबर 2016

मौत तो कभी भी आ सकती है !



आज कई लोगों में यह मान्यता घर कर गई है कि भगवान तो पत्थर का पुतला है, गुरु किसी काम के नहीं और धर्म प्राचीन काल की वस्तु है।अतः मैं यह पूछना चाहता हूं कि क्या संसार के सब पदार्थ आत्मा की रक्षा करने में समर्थ हैं, सक्षम हैं?’ तो उत्तर मिलेगा कि नहीं, ये सब पदार्थ आत्मा की रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं।इसीलिए मैं पुनः प्रश्न करता हूं कि संसार के प्रत्येक कार्य के अभ्यास की तैयारी जीवन के प्रारम्भ से अंत तक चलती ही रहती है, तब फिर इस क्षेत्र का, आत्म-कल्याण का अभ्यास आप कब करेंगे?’ आत्मा एवं आत्म-धर्म ये व्यर्थ की वस्तुएं हैं अथवा कुछ उपयोग की हैं? यदि ये कुछ उपयोग की हैं तो रात्रि में सोने से पहले इतना ही सोचिए कि हमने हमारे स्वयं के लिए, आत्मा के लिए क्या किया? यदि आपको आत्मा के प्रति श्रद्धा होगी तो कुछ नवीनता ही दृष्टिगोचर होगी।

आज ऐसा सोच बनता जा रहा है कि इन निरर्थक बातों का क्या लाभ? आज तो राज्य, ऋद्धि, सिद्धि, पांच लाख, पच्चीस लाख किस तरह प्राप्त हो सकते हैं, ऐसी बातें करनी चाहिए। मैं आपको कहना चाहता हूं कि अर्थ और काम का प्रलोभन बताकर समस्त विश्व को अपना अनुयायी बनाना हो, उसके लिए प्राणोत्सर्ग करने को तत्पर बनाना हो तो उसमें कोई महत्ता, विशेषता नहीं है।जब देव, गुरु और धर्म की बात आती है, तब कहा जाता है कि छोडिए न झंझट, यह सब तो वृद्धों को सौंप दीजिए।इस पर मैं पूछता हूं कि वृद्ध होने के बाद ही मौत आएगी या बीच में भी आ सकती है?’ सभी लोग जानते हैं कि माता के गर्भ में भी मृत्यु हो सकती है, जन्म के समय, पांच, पच्चीस या पचास वर्ष की आयु में भी मृत्यु हो सकती है। ऐसा कोई समय नहीं कि जब मृत्यु नहीं हो सकती। मृत्यु कभी पूर्व सूचना देने नहीं आती। आज तो नाना प्रकार के रोगों के बीज ऐसे हो गए हैं कि बिलकुल स्वस्थ मनुष्य हो और उसका हार्ट-फेल हो जाता है। रोग भी आज इतने भयंकर हैं कि जिनके नाम भी पहले सुनने में नहीं आते थे। अतः इस युग में धर्म कल करेंगे’, यह कहना ही पागलपन है।

कालचक्र घूमता जा रहा है। कौन कब उसका शिकार होगा, यह किसी को ज्ञात नहीं है। यह सोचकर ही हिंसा आदि का परित्याग करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। सम्पूर्ण त्याग संभव नहीं हो तो थोडा-थोडा त्याग करते रहना चाहिए। मृत्यु से निर्भयता तो केवल उन पुण्यात्माओं में ही हो सकती है, जिन्होंने न तो कभी किसी का अनिष्ट किया-कराया और न किसी के अनिष्ट की कामना की है। चौबीसों घण्टे अहर्निश पाप कार्यों में रत रहने वाले यदि कहें कि हमें मृत्यु का कोई भय नहीं है तो उसका कोई अर्थ नहीं है। आत्मा और परलोक को मानने वाले ऐसा कभी नहीं कह सकते। निर्भयता, नम्रता, क्षमा, शान्ति आदि के अर्थ हमें समझने होंगे।-सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 28 सितंबर 2016

शिष्ट पुरुषों के आधीन रहो



पराई वस्तु के प्रति लगा हुआ मोह और उससे लिप्त अपनत्व हटाकर अपने स्वरूप की ओर आत्मा मुड जाए, उसके लिए धार्मिक क्रियाओं के विधि-विधान, प्रवचन आदि के माध्यम से यह सब प्रयत्न हो रहा है। जब तक जड पदार्थों के प्रति आप में अरुचि उत्पन्न नहीं हो, जड वस्तु जाने पर आपको हर्ष न हो, उसे सुखकर मानने की आपकी बुद्धि नहीं मिटेगी और जब तक जड पदार्थों को प्राप्त करने और उन्हें संभालने-सहेजने में ही आपका जीवन व्यतीत हो रहा है, तब तक आप सत्य कैसे प्राप्त कर सकेंगे? फिर यदि आपको कोई प्रश्न कर बैठे कि आपने प्राप्त क्या किया? उस समय आप क्या यह कहेंगे कि मैंने पांच बंगलों का निर्माण कराया, अमरीका व जापान में अपनी दुकानें खोली और मैं अनेक कम्पनियों का प्रधान बना। परन्तु, इन सब कार्यों में आपका अपना क्या है? इनसे क्या आपका जीवन सुधर सकेगा? आज के मानव-जीवन के लेखे-जोखे में मात्र यही वस्तु है, जिसमें तत्त्व का सर्वथा अभाव है।

ज्येष्ठ व्यक्तियों का अपनी संतान के प्रति क्या कर्तव्य है? बालक में एक भी दोष-अवगुण प्रविष्ट न हो जाए और अधिकतम गुणों का विकास हो, उसकी पूर्ण सावधानी रखने का कर्तव्य बडों का है। जब पांव में कांटा चुभ जाता है, तब उससे भी तेज नोक वाली सुई से उसे निकालना पडता है। यदि सुई से भी नहीं निकले तो उसे कटवाना पडता है, चीरा लगाना पडता है, खून निकलता है। लेकिन, ऐसा इसलिए करना पडता है कि वह पक न जाए। इतना छोटा-सा कांटा यदि पैर में रह जाए तो वह सारी देह बिगाड देता है, देह में सडांध लग जाती है और प्राण चले जाते हैं; तो फिर असंख्य अवगुणों के योग से अपनी आत्मा की क्या दशा होगी? आत्मा में कोई दोष प्रविष्ट हो जाने पर क्या कांटे के समान उस दोष को अपने भीतर से निकालने का कभी आपने परिश्रम किया है?

जहर खाने से प्राण चले जाते हैं, ऐसा आपने सुना है, इसलिए मानते हैं या आपको स्वयं को ऐसा अनुभव है? विनाशक वस्तुओं का कभी अनुभव नहीं किया जाता। शिष्ट पुरुषों के कथनानुसार तत्काल ऐसी बातों पर विश्वास कर लेना चाहिए। आज तो वातावरण ऐसा विषाक्त हो गया है कि शास्त्रों और शिष्ट पुरुषों ने जो कुछ कहा है, वह सब जैसे निरर्थक है, व्यर्थ है।परिणाम यह हुआ कि सत्संगति, उत्तम शास्त्रों का अध्ययन-मनन सबकुछ चला गया और अर्थ एवं काम की साधना में आप शक्तिशाली, प्रमुख एवं प्रवीण बन गए। धन अर्जित करने के साधारण स्वार्थ हेतु आपको अधीनता, विवेक और विनय संभालने पडते हैं तो फिर आत्म-कल्याणार्थ, आत्मा की अनंत शक्ति प्राप्त करने के लिए आपको सुदेव, सुगुरु और सुधर्म की शरण स्वीकार करनी चाहिए या नहीं? आत्म-कल्याण तो इसी से संभव है।-सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 27 सितंबर 2016

अपने कर्मों का लेखा-जोखा कभी किया है?



देह परित्याग कर जाना तो निश्चित ही है। जिस व्यक्ति के मन से ममता उतर गई है, वह तो इच्छानुसार उसे त्याग देगा और जिसके मन से ममता नहीं उतरी हो, उसे अनिच्छा से भी देह का परित्याग करना ही पडेगा, फिर भी नश्वर वस्तुओं की रक्षार्थ जितने प्रयत्न हो रहे हैं, उतने आत्मा के लिए नहीं होते, जबकि ये प्रयत्न तो अत्यावश्यक हैं। संसार की कलाएं सीखने के लिए प्रशिक्षणालय एवं विद्यालय होते हैं, देह की खबर आदि पूछने के लिए भी स्थान होते हैं और व्यापार-व्यवसाय के लिए परामर्शदाता व व्यावसायिक-व्यावहारिक सलाहकार, उपदेशक मिल जाते हैं। इन्हें प्राप्त करने के लिए तो शक्ति, ज्ञान, विज्ञान का उपयोग धडल्ले से हो रहा है। इनके लिए टाइम-टेबल भी रखे जाते हैं। सारे मित्र भी उसके हैं, सहवास एवं सम्पर्क भी उसी का है और वस्तु का लेखा-जोखा भी है; परन्तु कभी अपने गुण-दोषों का हिसाब लगाया है? इस विश्व में जन्म लेकर उत्तम कार्य, पुण्य कार्य कितने किए और अधम कार्य कितने किए? आपने दान-पुण्य कितना किया और लूटा कितना, उसका हिसाब कभी लगाया है? आप यह मत कहना कि हमने सबको डाकू कह डाला।

जो कुछ कहा जाता है, वह आपके कल्याण हेतु कहा जाता है, दुर्गुणों को दूर करने के लिए कहा जाता है और जिनमें दुर्गुण न हों, उनमें दुर्गुण आ न जाएं, उसकी सावधानी रखने के लिए कहा जाता है। आप में दुर्गुण न हों तो मुझे तो हर्ष है, परन्तु मैं अपने कर्तव्य से च्युत नहीं होऊंगा। उस कर्तव्य के कारण मैं आपको पूछता हूं कि आपने सदाचार कितना किया है और अनाचार व दुराचार का सेवन कितना किया है? आपने जीवन में सहिष्णुता कितनी रखी है और धांधली कितनी चलाई है? आप विषय-वासनाओं में आसक्त रहे या उनसे विरक्त रहे? आपने इन्द्रियों के वशीभूत होकर अनुचित कार्य किए अथवा जितेन्द्रिय बनकर अनुचित कार्यों से बचे रहे। आपने अन्य जीवों का कल्याण कितना किया और अनिष्ट कितना किया?’ इन सब बातों का लेखा-जोखा आपने कभी किया है क्या?

किसी कवि ने कहा है कि ज्ञानेन हीनाः पशुभिः समानाः’, अर्थात् ज्ञान हीन मनुष्य पशु-तुल्य होते हैं। अब पशु कहा है तो फिर पशुओं के लिए तो सींग और पूंछ की भी आवश्यकता होती है। अतः कवि ने आगे कहा कि श्रंगपुच्छविहीना। इस उक्ति के द्वारा कवि का आशय क्या मानव जाति का अपमान करना है अथवा उसे गाली देने का उसका आशय है? नहीं, ऐसा नहीं है। कवि का आशय तो यह है कि मनुष्यों को अपने मनुष्यत्व, मानवता का ध्यान रहे, वे अपना स्वरूप समझें, अपना मूल्यांकन करें, आत्मालोचन करें और मानव होते हुए भी उनमें पशुता प्रवेश कर रही हो तो वे सचेत हो जाएं। कहने का यह केवल एक ही तात्पर्य है, परन्तु अवगुण बताने वाले के प्रति सद्भाव उत्पन्न नहीं होता, वहां क्या हो? -सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 26 सितंबर 2016

चार उत्तम भावनाएं



आत्मा के उद्धार के लिए जीवन को चार उत्तम भावनाओं से ओतप्रोत कर लेना चाहिए- मित्रता, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थता। जिस व्यक्ति में ये चार भावनाएं प्रकट होंगी, वह निःसंदेह पाप-भीरू और धर्म-सेवी बनेगा। मित्रता की भावना से तात्पर्य है- विश्व में मेरा कोई भी शत्रु नहीं है, फिर भी कदाचित हो तो उसका भी कल्याण हो।यही परहित-चिंतन स्वरूप मित्र-भाव है। परहित चिन्तक व्यक्ति को हृदय में हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार एवं परिग्रह स्थाई रूप से खटकेंगे, क्योंकि हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार एवं परिग्रह से अन्य व्यक्ति को निःसंदेह कष्ट पहुंचता है और भावना यह है कि शत्रु का भी कल्याण हो। इन भावनाओं को हिंसा आदि पाप व्यापारों से सर्वथा निवृत्त हुए बिना तो यथार्थ रूप से अमल में ला ही नहीं सकते। गृहस्थ जीवन में इन भावनाओं को पूर्णरूपेण अमल में लाना संभव नहीं है, फिर भी उस गृहस्थ में भावना तो ऐसी ही होनी चाहिए। गृहस्थ को कभी अपराधी व्यक्ति को दंड देना पडे तो वह उसका अनिष्ट नहीं सोचे, बल्कि सुधार की भावना से दंड दे।

प्रमोद भावना से तात्पर्य है कि किसी भी व्यक्ति के गुण देखकर आनंद की प्राप्ति होना। शत्रु के गुण देखकर भी हर्ष हो। इस प्रकार के गुणों की मुझ में और अन्य व्यक्तियों में भी वृद्धि हो तो अति उत्तम। करुणा भावना से आशय है कि गुणहीन, दोषी और दुःखी आत्माओं के प्रति करुणा-भाव होना चाहिए। करुणा भाव वाले व्यक्ति में उपकार करने की वृत्ति होती है। यथा अवसर योग्य जीव को उचित उपदेश देने की वृत्ति भी उसमें उत्पन्न हुए बिना नहीं रह सकती। करुणा भाव वाला व्यक्ति उग्र होकर भी यदि सामने वाले व्यक्ति को दोष-मुक्त कर सकता हो तो वह वैसा भी करता है।

माध्यस्थ भावना से तात्पर्य है कि करुणा भाव वाला व्यक्ति सामने वाले के सुधार के लिए जब सभी प्रयास कर ले, उसके बावजूद भी सामने वाला नहीं सुधरे और गलत मार्ग का अनुसरण छोडने के लिए कतई तैयार न हो, तब शास्त्र ने चौथा उपेक्षा भाव प्रतिपादित किया है, अर्थात् तस्य भाग्यम्। उसके लिए मुझे अपना सबकुछ बिगाडने की आवश्यकता नहीं है, जिसे चौथी माध्यस्थ भावना कहते हैं।

इन चार भावनाओं वाली आत्मा की हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार एवं परिग्रह के प्रति कैसी मनोवृत्ति होगी? कदाचित वह व्यक्ति हिंसा आदि सभी वस्तुएं छोडने में असमर्थ हो तो भी उसकी मान्यता तो यही होगी कि ये पांचों वस्तु चार भावनाओं के लिए बाधक हैं।जीवन में से सुगन्ध कब प्रस्फुटित होगी? आत्मा लोकोपकारी कब सिद्ध होगी? हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार एवं परिग्रह का संसर्ग आत्मा को मलिन बनाता है। इनके त्याग के बिना आनंद की अनुभूति नहीं हो सकती और इनके त्याग के लिए जीवन में मित्रता, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थता को विकसित करना होगा।-सूरिरामचन्द्र