बुधवार, 31 अगस्त 2016

परिग्रह अच्छा या बुरा?



साधु कौन? अहिंसक, सत्यवादी, अदत्त न लेने वाला, ब्रह्मचारी और निष्परिग्रही बनने वाला ही। साधु के ये पांच मूल गुण तो मुख्य हैं। ये गुण निश्चित हैं। इन गुणों के बिना साधु को एक क्षण भी नहीं चल सकता है। साधु, किसी भी प्राणी को मन से, वचन से और काया से मारेगा नहीं, मरवाएगा नहीं और मारने वाले को अच्छा मानेगा या कहेगा नहीं। झूठ बोलेगा नहीं, बुलवाएगा नहीं और बोलते हुए को अच्छा मानेगा नहीं या कहेगा नहीं। दूसरे की चीज तृण के समान भी अनुमति के बिना लेता नहीं है, दूसरे से लिवाता नहीं है और लेने वाले को अच्छा मानता नहीं है। स्त्री-संसर्ग करता नहीं है, करवाता नहीं है तथा करने वाले को अच्छा मानता नहीं है या कहता नहीं है। धन-धान्यादि नौ प्रकार के परिग्रह को रखता नहीं है, रखवाता नहीं है और रखने वाले को अच्छा मानता नहीं है या कहता नहीं है। इन पांचों मूल-गुण को धारण करने वाले एवं गुरुकुलवास में रह कर, ग्रहण-शिक्षा और आसेवन-शिक्षा पाकर व्यवहार, नयादि के ज्ञाता बनकर, गुरुपद को प्राप्त हुए धर्मगुरु आपको क्या कहते हैं? "क्या खुशी से हिंसा करने को कहते हैं? क्या इस युग में झूठ बोले बिना नहीं चलता है तो बोलो, ऐसा कहते हैं, इसमें कोई दिक्कत नहीं है, ऐसा कहते हैं? क्या इस युग में सीधे प्रकार से कोई नहीं देता है तो चोरी में भी दिक्कत नहीं है, ऐसा कहते हैं? क्या इस युग में मन काबू में न रहे, तो स्त्री-संसर्ग में भी हरकत नहीं है, ऐसा कहते हैं? क्या इस युग में परिग्रह के बिना चलता नहीं है, इसलिए परिग्रह रखना ही चाहिए, ऐसा कहते हैं?" कहना ही पडेगा कि इसमें से एक भी बात, धर्मगुरु कह सकें, ऐसी नहीं है। कारण कि धर्मगुरु के लिए शास्त्रों में कुछ कम नहीं कहा है। जिस प्रकार वे हिंसा, असत्य, अस्तेय और अब्रह्म को आचरण नहीं करते हैं, आचरण नहीं करवाते हैं और आचरण करने वाले का अनुमोदन नहीं करते हैं; उसी प्रकार परिग्रह भी रखते नहीं हैं, रखवाते नहीं हैं और रखने वाले को अच्छा भी नहीं मानते हैं। परिग्रह रखने को यदि अच्छा मानें तो परिग्रह रखने की भावना हुए बिना भी रहेगी ही नहीं। परिग्रह रखना यदि अच्छा होता तो उसको छोडना अच्छा क्यों गिना जाता? और यदि छोडना अच्छा है तो रखना अच्छा कैसे गिना जाए? यदि दिवालिया अच्छा कहलाता हो तो साहूकार साहूकारी किसलिए रखेगा? उसी प्रकार यदि परिग्रह अच्छा होता, यदि द्रव्य-धन रखने को अच्छा कहा जाता तो घरबार, पैसे-टके आदि छोडकर आए हुओं को हाथ जोडने का काम क्यों होता? बल्कि उल्टे साधु आपको हाथ जोडने चाहिए।

आपके पास घर-बार, बंगला, बगीचा सब ही है और पत्नी, बगीची, गाडी तमाम वस्तुएं हैं और साधु के पास तो इनमें से कुछ भी नहीं है, साधु तो रमते राम हैं, अर्थात् यदि परिग्रह अच्छा होता और परिग्रह रखना यह अच्छा, ऐसा होता तो साधुओं को तो उल्टे आपको हाथ जोडने चाहिए। फिर भी आप लोग उनको हाथ जोडते हो, इसका कारण क्या है? यदि आप आपके पास है उन सबको छोडकर बैठे हुए साधुओं को हाथ जोडते हो; तो आप लोग जो लेकर के बैठे हो उसको गलत कहो। परिग्रह को अच्छा मानना और निष्परिग्रही को हाथ भी जोडना, यह दोनों बातें नहीं बन सकतीं। दो नावों की एक साथ सवारी नहीं की जा सकती। आप लेकर के बैठे हो यह अच्छा होता तो हमने छोडा इसमें भूल है। इसमें भूल की है, ऐसा कहो और यदि इसे भूल न कहो तो आप जिसमें बैठे हो, उसको गलत कहो। एक रास्ता निकालो। मैं तो मानता हूं कि हमने छोडने में भूल नहीं की, किन्तु अच्छा ही किया है। इस प्रकार होने पर भी हमने जो छोडा है, उसमें यदि आप भूल मानते हो तो आप मुझे समझाओ और छोडने को अच्छा मानते हो तो छोडने का प्रयत्न करो। मेरा तो आपको आह्वान है कि या तो आप सुधरो या हमारी भूल हो तो हमें भी सुधारो।किन्तु अवसरवादी बनो, बिना पैंदे के भरतपुरी लोठे की तरह इधर-उधर गुडको तो यह नहीं चलेगा।-सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 30 अगस्त 2016

राग संसार का या धर्म का ?




जिनको संसार अच्छा लगता है, उनको धर्म किस प्रकार रुचिकर लगेगा? धर्म तो आत्मा को सच्चा अहिंसक बनाता है, सच्चा सत्यवादी बनाता है, सच्चा अस्तेय का उपासक बनाता है, सच्चा ब्रह्मचारी बनाता है और सच्चा अपरिग्रही बनाता है। धर्म के सच्चे राग से, आत्मा में संयम तथा तप आता है। दान, शील, तप और भाव अर्थात् उदारता, सदाचार, इच्छानिरोध अथवा सहिष्णुता तथा सद्विचार यह सब कुछ सच्चे धर्म के राग से आता है।


अब विचार करो कि लक्ष्मी को आप अच्छी और स्वयं की मानते हो, उसमें सच्ची उदारता आती है क्या? विषयानन्दी, सच्चा और शुद्ध शील पालेगा क्या? स्वादिष्ट पदार्थों को खाने के लिए भटकने वाला, सच्चा तपस्वी बनेगा क्या? और अशुद्ध भावना वाले को अच्छे विचार आते हैं क्या?’ कहना ही पडेगा कि नहीं ही। कारण कि ये परस्पर विरोधी वस्तुएं हैं। अर्थ और काम के प्रेमी सच्चे अहिंसक, सच्चे सत्यवादी, सच्चे अचौर्य व्रतधारी, सच्चे ब्रह्मचारी और सच्चे निष्परिग्रही बनेंगे यह असंभव है। कारण कि दुनिया के राग के साथ धर्म का राग अशक्य है।


दुनिया के पदार्थ में, दुनिया के कामों में राग स्थिर है इसलिए वहां मजा आता है और यहां वह नहीं है, इसलिए मजा नहीं आता है। पुद्गलानन्दियों की तरफ से दान भी दिया जाता है, वह भी अधिक मिलने की लालसा से ही दिया जाता है। ऐसों को समझना चाहिए कि यह सच्चा दान नहीं है, अपितु विलक्षण प्रकार का सट्टा है, सौदा है। किसी को अच्छे व्यवहार से मान मिलता है, किन्तु मान के लिए अच्छा व्यवहार करना, यह कैसे हो सकता है? लोग अच्छा कहें, इसलिए अच्छा करना, इसमें वस्तुतः फल नहीं है। आज दान देने पर भी, धर्म-क्रिया करने पर भी, आत्मा की जो उच्च स्थिति होनी चाहिए, वह नहीं होती, इसका कारण यही है कि जिसके लिए धर्म-क्रियाएं करनी चाहिए, उसके लिए नहीं करते, अपितु अन्य तुच्छ और हेय वस्तुओं के लिए की जाती है।


जगत के जीवों को ऊंचे लाने के लिए एक धर्म की उपादेयता समझाने की आवश्यकता है।अर्थ और काम तो जगत के जीवों को अनादिकाल से रुचिकर लगे ही हैं। अर्थकाम रुचिकर न लगते हों, ऐेसा कौनसा जीव है? अर्थ-काम प्राप्त करने के लिए कौन प्रयत्न नहीं करता है। अर्थ-काम के साधन समझने के लिए कौनसी आत्मा तत्पर नहीं है? इसमें बिना कहे ही जो करने के लिए दुनिया की आत्माएं तैयार हैं, उस तरफ दुनिया को खींचना उसमें महत्ता नहीं है। देव, गुरु और धर्म, यह दुनिया से भिन्न चीज है। इस भिन्न चीज को मानने का प्रयोजन निश्चित न हो, तब तक दुनिया की आत्माएं दुनिया में भटकने वाली ही हैं। इतना ही नहीं, किन्तु इस भटकने का अन्त भी नहीं आने वाला है।-सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 29 अगस्त 2016

कल्पतरु कौन और कंटकतरु कौन ?



पढा हुआ मनुष्य सीधा हो तो काम निकाल देता है। सीधे उतरे तो ज्ञानी कल्पतरु कहलाता है, किन्तु विपरीत होता है वह कण्टक-तरु कहलाता है। विनीत ज्ञानी कल्पतरु है, कर्मक्षय की प्रवृत्ति को करने वाला होता है, वह ज्ञानी और यह ज्ञानी कल्पतरु कहा जाता है, किन्तु जो उद्धत होता है, वह स्वच्छन्दी होता है, स्वेच्छाचारी होता है, वैसा ज्ञानी तो कण्टकतरु है। वह जहां जाता है वहां सत्यानाश ही करता है, क्योंकि वह पढा-लिखा है, इसीलिए यानी दांव-प्रपंच करना आता है।

शास्त्रकार कहते हैं कि मर्यादाशील ज्ञानी तो ऐसी सुन्दर योजना करता है कि जिससे योग्य मात्र का भला ही होता है। ऐसे उन्नत ज्ञानियों की शरण में आई हुई हजारों आत्माएं उत्तम विचार और उत्तम आचार की पालनकर्ता होती हैं और वे भक्षक न होकर रक्षक होती हैं। किन्तु ज्ञानी यदि स्वेच्छाचारी बनता है, तो जहां जाता है वहां विपरीत योजना-पूर्वक कार्य करता है, जिसके योग से हजारों आत्माओं का संहार होता है। इसी प्रकार श्रीमान भी दो प्रकार के होते हैं, एक श्रीमान तो ऐसा होता है कि जिसकी छाया में आने वाला आश्रय प्राप्त करता है और एक ऐसा होता है कि जिसकी छाया में आने वाले का सत्यानाश होता है। यह ऐसा होता है कि स्वयं की छाया में आने वाले का कस निकालता है और वह श्रीमान ऐसा होता है कि स्वयं की छाया में आने वाले को थोडा या बहुत भी देता है। इसकी छाया में आने वाले को ऐसा लगता है कि श्रीमान हों तो ऐसे हों।

जिस प्रकार श्रीमान, उसी प्रकार रूपवान, बलवान, सत्तावान; किन्तु वे भी दो प्रकार के, एक अच्छे और एक बुरे। एक बलवान तो ऐसा होता है कि जो निर्बल की रक्षा ही करता है और अपने ऊपर आए हुए प्रहार को भी सहन कर लेता है। किसी को दूसरा मारता है तो स्वयं उसको बचाता है, किन्तु स्वयं को यदि कोई मारता हो तो सहन कर जाता है। ऐसा बलवान तो सबको प्रिय होता है। अनन्त बली ऐसे होते हैं। जिसमें ऐसी योग्यता न हो, उसको वैसा बल मिलता भी नहीं है। दुर्जन को जो याचना करे जैसा बल मिलता होता, तो जगत में एक भी सज्जन जीवित नहीं रहता और रह भी नहीं सकता। क्योंकि दुर्जन उसको जीने भी नहीं देते। किन्तु ऐसा बल उनको मिलता ही नहीं है। दुर्जन की यह मान्यता है कि मैं अकेला हूं और मेरे जैसा दूसरा कोई भी नहीं ही है।इस मान्यता के होने से वह दूसरों पर जुल्म करता है। किन्तु, बात यह है कि उसको याचना के अनुसार बल मिलता ही नहीं है। क्योंकि, उसमें बल के दुरुपयोग की संभावना अधिक है। अनन्त बली तो निर्बल को बचाते हैं और स्वयं पर आए तो सहन कर जाते हैं। इन तारकों के बल का उपयोग दूसरों को बचाने में होता है तथा स्वयं पर आई हुई विपत्ति को सहन करने में होता है। दूसरा बलवान ऐसा होता है कि दुर्बल मात्र को पीटता है, इतना होने पर भी जो उसके सम्मुख कोई किंचित् भी आँख दिखाए तो उसकी आँख फोड डालता है और गर्व के साथ कहता है कि मुझे आँख दिखाने वाला कौन?’ उपकारीगण तो ऐसे को कहते हैं कि सम्पूर्ण दुनिया तेरे सामने आँख करती है और करेगी। तूं मारकर मिंया होता है, अतः सम्पूर्ण दुनिया तेरे सामने नहीं तो भी तेरे पीछे तो यही कहती है कि यह नंग पैदा हुआ है।कोई तेरे सामने कदाचित् नहीं करे, किन्तु पीछे तो तिरस्कार ही करेगी।

इसी प्रकार ज्ञानी भी दो प्रकार के होते हैं। एक ज्ञानी तो कल्पतरु के समान अर्थात् स्वयं की आत्मा को भी पाप से बचाने वाला तथा दूसरे को भी बचाने वाला और एक ज्ञानी ऐसा होता है कि स्वयं की स्वार्थ सिद्धि के लिए दूसरे का कितना भी नुकसान हो, उसकी परवाह नहीं करने वाला। ऐसे ज्ञानी न हों तो अच्छा। इसी प्रकार श्रीमन्त, सुभग, सत्तावान और बलवान के लिए भी समझ लेना चाहिए।-सूरिरामचन्द्र

रविवार, 28 अगस्त 2016

गुरु



गुरु किसे कहते हैं? "गु" शब्द का अर्थ हैं अंधकार और "रु" शब्द का अर्थ है- उसका नाश करने वाला। अज्ञानरूपी अन्धकार का नाश करने वाला गुरु कहलाता है। गुरु ज्ञानरूपी सूर्य है।  गुरु भी उसे कहते हैं जो संसार से सर्वथा मुक्त न होने पर भी संसार का त्यागी हो और मुक्ति की आराधना में मस्त हो। कंचन और कामिनी को पाने की वृत्ति से जो परनहीं और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूप रत्नत्रयी के जो आराधक नहीं, वे साधु वेष में हों तो भी गुरु नहीं। जो गुरु आत्मज्ञान से युक्त हो, समदर्शिता और समता का आचरण करे, आत्मस्वभाव में रमण करे, वीतराग परमात्मा की वाणी सुने-सुनाए और परमश्रुत (जिनागमाक्त आज्ञा) के अनुसार अपना जीवन चलाए, वही सद्गरु है। जैन तत्त्व दर्शन में कहा गया है कि गुरु निर्ग्रन्थ हो, अर्थात् उसके मन में राग-द्वेष, मोह-माया, छल-कपट, विषय-कषाय की गांठें न हो, वह गुरु। ऐसे निर्ग्रन्थ गुरु के आवश्यक सूत्र में 36 गुण बताए हैं-

पंचिंदिय-संवरणो, तह नवविह-बंभचेर-गुत्तिधरो

चउव्विह-कसायमुक्को, इअ अट्ठारसगुणेहिं संजुत्तो

पंच-महवयजुत्तो, पंचविहाऽऽयार-पालण-समत्थो

पंचसमिओ, तिगुत्तो, छत्तीसगुणो गुरु मज्झं

जो पांचों इन्द्रियों की विषयासक्ति को रोकने वाला (वश में करने वाला) हो, ब्रह्मचर्य की नवविध गुप्तियों (बाडों) को धारण करने वाला हो, क्रोधादि चार प्रकार के कषायों से मुक्त हो, इस प्रकार इन 18 गुणों से युक्त हो, तथा अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांच महाव्रतों से युक्त हो; ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इन पांच आचारों का पालन करने में समर्थ हो, पांच समिति और तीन गुप्ति का सम्यक आचरण करता हो, इस प्रकार इन 36 गुणों से सम्पन्न साधक ही मेरा गुरु है। सच्चे साधु दुनिया के त्यागी होते हैं। "जो दुनिया के त्यागी नहीं होते, वे सच्चे साधु ही नहीं हैं", यह मान्यता आर्यदेश में रूढ थी, परंतु आजकल जिस किसी को साधु कहने की कुटेव बढ गई है। तीर्थ शब्द का जैसे दुरुपयोग किया जाता है, वैसे साधु शब्द का भी दुरुपयोग किया जा रहा है। यह नहीं होना चाहिए।-सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 27 अगस्त 2016

अज्ञानी दया के पात्र हैं



शास्त्रकार कहते हैं कि "कदाग्रही को उपदेश करना, यह कुतिया के शरीर पर कस्तूरी का लेप करने के बराबर है।" वास्तव में दुराग्रही के लिए ज्ञानी के वचन भी बेकार हैं। इतना ही नहीं, अपितु ये तो ज्ञानियों के दुश्मन होते हैं और दुश्मनों को भी बढाते हैं। ऐसे दुश्मन रूप से बढें और दुश्मनों को बढ़ाएँ इसी में ही ज्ञानी की महत्ता सूचित होती है। ज्ञानी के पीछे अज्ञानियों का बहुत बडा टोला होता ही है, यह सनातन नियम है। सम्यक्त्व और मिथ्यात्व यह शाश्वत चीज है। सम्यक्त्व का मार्ग स्थापित होता है कि मिथ्या-मार्ग के अंकुर फूटने लग जाते हैं। इस दुनिया में जिस प्रकार तिरने और तिराने वाले होते हैं, उसी प्रकार डूबने और डुबाने वाले भी होते ही हैं। संसार की पिपासा जिनके रोम-रोम में व्याप्त है और जो मोक्ष के ही शत्रु हैं, वे ज्ञानी के शत्रु बन कर शत्रु बढाने के सिवाय दूसरे काम करें भी क्या? अज्ञानी जो विरोध करते हैं, वे तो दया के पात्र ही हैं।-सूरिरामचन्द्र

शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

ध्यान



मन-वचन-काया को अयोग्य क्रियाओं से रोककर योग्य में जोडेंगे तभी ध्यान आएगा। ध्यान पाने की योग्यता के लिए पहले तो संयम में स्थिरता चाहिए, अर्थात् प्राणांत में भी संयम में अस्थिर नहीं होना चाहिए। प्राण की बलि देकर भी संयम को सम्हालने की भावना वाला आत्मा ही सच्चा ध्यानी बन सकता है। अब विचार करो कि जो संयम के लिए प्राण अर्पण करने को तैयार हो, उसको खोटे मानापमान बाधा डाल सकते हैं क्या? -सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 25 अगस्त 2016

धर्म से ही मनुष्यों की महत्ता है



प्रतिष्ठाहीन व्यापारी जैसे व्यापारी नहीं, लेन-देन संबंधी इज्जत बिना का सेठिया जैसे सेठ नहीं, सत्ता व नीति रहित अधिकारी जैसे अधिकारी नहीं, उसी प्रकार धर्महीन आदमी, वह आदमी नहीं है। दुनिया में योजनापूर्वक अधिक से अधिक पाप तिर्यंच कर सकता है या मनुष्य? जंगल में शिकारी पशु तो दो-पांच मनुष्यों को मारता है। सिंह यदि नगर में चला जाए तो पांच-पचास मनुष्यों को मारता है, परंतु मनुष्य धारे तो योजनापूर्वक कितनों को मारेगा? जो मनुष्य योजनापूर्वक संसार से मुक्त भी हो सकता है, वही मनुष्य योजनापूर्वक सातवीं नरक में भी जा सकता है।

मनुष्यपन न आए तो मनुष्य भयंकर है। मनुष्य में मनुष्यत्व आ जाए तो वह देव जैसा है। यह हजारों का पालक है, रक्षक है और हजारों को शान्ति देने वाला है। हजारों आत्माओं को स्वयं के संबंध से मुक्ति में भेज सकता है। ऐसे भी मनुष्य हैं कि जिनके सहवास में गया, वह गया ही गया। तिर्यंच तो जो आदमी सामने आ जाता है, उसको मारता है, किन्तु मनुष्य तो दूर से भी इरादापूर्वक मारता है। तिर्यंच शब्द के लिए कान में कीलें ठोकने का शास्त्र में नहीं कहा है। किन्तु, कई ऐसे मनुष्य हैं, जिनके शब्द सुनने की अपेक्षा कान में कीलें ठोकना ही अच्छा है, ऐसा शास्त्रों में कहा है। तिर्यंच को देखने से अकल्याण होना नहीं कहा है, किन्तु कितने ही मनुष्य ऐसे हैं कि जिनको देखने से भी अकल्याण है, ऐसा शास्त्रों में कहा है।

मनुष्य तारक भी है और डुबाने वाला भी है। जो कप्तान हजारों को बन्दरगाह पर पहुंचा देता है, वही कप्तान निश्चय करे तो हजारों को अधबीच में डुबा देता है। सच्चा मार्ग प्रवर्तन करने वाला भी मनुष्य है और मिथ्यामार्ग प्रवर्तन करने वाला भी मनुष्य है। हिंसा का प्रचार करने वाला भी मनुष्य है और अहिंसा का प्रचार करने वाला भी मनुष्य है। दुराचारों को और सदाचारों को फैलाने वाला भी मनुष्य है, जगत को हिंसक बनाने वाला भी मनुष्य है और जगत में दया का प्रसार करने वाला भी मनुष्य है। स्वयं के स्वार्थ के लिए, हजारों के लिए हिंसा का मार्ग खोलने वाला भी मनुष्य ही है।

एक कुत्ता भोंकता है अथवा काटता है। उसके लिए कुत्ते मात्र को मारने का आदेश देने वाला भी मनुष्य है। कहते हैं कि कुत्ते के भोंकने से निद्रा का नाश होता है।यह तो भौंकता है, तब थोडे समय के लिए ऐसा होता है, ऐसा उसने माना, किन्तु इस मनुष्य की आवाज से कितने आदमियों को नींद नहीं आती है, यह विचार किया है? कुत्ता तो भौंकता है, तब ऐसा होता होगा, किन्तु मनुष्य के स्वयं के तो नाम से कईयों को निद्रा नहीं आती है, इसका क्या? इसका तो नाम भी कईयों पर अत्याचार करता है इसका क्या? जहरीला जन्तु तो झपट में आ जाए तो काटता है, किन्तु ऐसे मनुष्य तो बिना ही झपट में आए काटते हैं। सांड तो चक्कर में आ जाए तो सिंगडे से मारता है, किन्तु मनुष्य तो दूर से भी गोली मारता है। इन सब के मद्देनजर धर्महीन मनुष्य, मनुष्य नहीं है, ऐसा कहने में कोई बाधा है? कहना ही पडेगा कि नहीं! तो स्पष्ट है कि एक धर्म से ही मनुष्य की महत्ता है। धर्म छोड दें, अहिंसा की भावना का कचूमर निकाल दें, भले की भावना चली जाए, फिर भी यह मनुष्य, मनुष्य है, ऐसा कैसे कह सकते हैं? -सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 24 अगस्त 2016

कषायों से होता है सर्वनाश



क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करता है, माया मित्रता का नाश करती है और लोभ, यह सर्वनाशक है। यह चार प्रकार का विपाक प्रायः सबको प्रतीत है।

क्रोध से अन्ध बनकर नहीं बोलने योग्य वचनों के बोलने से प्रीति का देखते-देखते नाश हो जाता है। यह सबके अनुभव की बात है। क्रोध यह ऐसा भयंकर कषाय है कि इसके अधीन बनकर आत्मा अन्धी ही बन जाती है और इससे व्यक्ति स्वयं क्या बोलता है, उसका भी उसे ध्यान नहीं रहता है। इस ध्यानहीनता के प्रताप से प्रीति तो नाश पा ही जाती है। किन्तु, इससे आगे बढकर पुनः प्रीति न हो, ऐसा भयंकर संग्राम भी खडा हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि क्रोध प्रीति का जड-मूल से नाश करने वाला है।

मान, यह विनय का नाश करने वाला है, इसे अस्वीकार कौन कर सकता है? मान यह मानवी को उद्दाम और अक्खड बनाता है, इससे इन्कार कौन कर सकता है? मान के प्रताप से तो आज अनेक आत्माएं ऐसी दृष्टिगोचर होती हैं कि जो सन्मार्ग पा सकें, ऐसी योग्यता वाले होने पर भी उन्मार्ग पर चल जाते हैं। मान तो अनेकों को देवदर्शन, गुरुवंदन और शास्त्रश्रवण से भी वंचित करता है। मान, इसने अनेक आत्माओं में शक्ति होने पर भी शक्ति नहीं है, ऐसा कहना सिखाया है। अनेक आत्माएं आज ऐसी हैं कि जो, ‘अमुक स्थान पर और अमुक समय पर नम्र बनने से फायदा है’, इस प्रकार जानने पर भी मान के प्रताप से नम्र नहीं बन सकते और स्वयं का हित साध नहीं सकते। सहिष्णुता के गुण को जानने पर भी मान से भरी हुई आत्मा इस गुण को स्वप्न में भी नहीं अपनाती है। स्वयं की प्रशंसा स्वयं करना, यह तो महादुर्गुण है। ऐसा जानने वालों को भी मान ने आज स्वयं के गुणों की प्रशंसा के लिए भयंकर से भयंकर कोटि के भाट बना दिया है। मान ने आज निन्दा यह महापाप है, ऐसा जानने वालों और ऐसा मानने वालों को भी महानिन्दक बनाकर भयंकर से भयंकर कोटि के भाण्ड भी बनाए हैं। सचमुच में इस मान ने प्राणियों के उत्तमोत्तम विनय-जीवन का भयंकर रूप से नाश कर दिया है और इसी के प्रताप से, इसके उपासक, औचित्यपूर्ण आचार के भी विरोधी बन जाते हैं। मानी आत्माओं में अहंकार के योग से मूर्खता शीघ्र ही आती है और इस मूर्खता को लेकर प्रत्येक बात में वह उचित आचरण का विरोधी बनकर स्व-पर दोनों का संहारक बनता है।

माया ऐसा दूषण है कि जिस दूषण की उपासना करने वालों का कोई मित्र नहीं बनता और होते हैं वे भी इसकी कुटिलता को देखकर उससे दूर भाग जाते हैं। इसी कारण से माया मित्रों की नाशक है और यह बात बिना विवाद के सिद्ध हो सके ऐसी है। माया कुशलता को पैदा करने में बांझ है। सत्यरूपी सूर्य का अस्त करने के लिए संध्या समान है, कुगति रूप युवती का समागम कराने वाली है, शम रूप कमल का नाश करने के लिए हिम के समूह समान है, दुर्यश की राजधानी है और सैकडों व्यसनों को सहयोग देने वाली है। माया यह अविश्वास के विलास का मंदिर है, इसलिए मायावी, माया के योग से विश्व में अविश्वास का भाजन बनता है। इससे स्पष्ट है कि माया इस लोक और परलोक में हित करने वाली सब लगों की मित्रता की नाशक ही है।

लोभ यह सर्वविनाशक है। कारण कि क्रोध, मान, माया, इन तीनों की उपस्थिति इस लोभ की आभारी है। इसी कारण से महापुरुष फरमाते हैं कि जिस प्रकार व्याधियों का मूल रस है और जिस प्रकार दुःख का मूल स्नेह है, उसी प्रकार पापों का मूल लोभ है। पुनः यह लोभ मोह-रूपी विषवृक्ष का मूल है, क्रोध रूप अग्नि को पैदा करने के लिए अरणी काष्ठ के समान है। प्रताप-रूपी सूर्य को आच्छादित करने के लिए मेघ के समान है, कलि का क्रीडा घर है, विवेकरूपी चन्द्रमा का ग्रास करने के लिए राहु है, आपत्तिरूपी नदियों का सागर है और कीर्तिरूपी लता के समूह का नाश करने के लिए तीस वर्ष के हाथी जैसा है।इससे स्पष्ट है कि लोभ, यह सर्व का विनाश करने वाला है।-सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 23 अगस्त 2016

प्रमाद



जिसके प्रताप से आत्मा मोक्ष-मार्ग के प्रति शिथिल प्रयत्न वाला हो जाता है, उसी का नाम प्रमाद है और यह प्रमाद श्री तीर्थंकर भगवान ने आठ प्रकार का कहा है-

  1. अज्ञान अर्थात् मूढता।
  2. संशय अर्थात् क्या यह वस्तु ऐसी होगी अथवा अन्यथा, इस प्रकार का संदेह।
  3. मिथ्याज्ञान अर्थात् वस्तु जिस स्वरूप में हो, उस रूप में स्वीकार नहीं करते हुए गलत रूप में स्वीकार करना।
  4. राग अर्थात् आत्मा, आत्मा के गुण और उसके विकास के साधनों के अतिरिक्त जो-जो पदार्थ हैं उन पर ममत्व-भरा अत्यन्त प्रेम।
  5. द्वेष अर्थात् अप्रीति।
  6. स्मृति-भ्रंश अर्थात् विस्मरणशीलता।
  7. धर्म में अनादर अर्थात् श्री अरिहंत परमात्मा द्वारा अर्पित धर्म के आराधन में उद्यम न करना।
  8. योगों का दुष्प्रणिधान अर्थात् मन-वचन-काया इन तीनों योगों की दुष्टता करनी।
    यह आठ प्रकार का प्रमाद कर्म-बंध का हेतु होने से त्यागने योग्य है।-सूरिरामचन्द्र