देव में देवबुद्धि और अदेव में अदेवबुद्धि, गुरु में गुरुबुद्धि और अगुरु
में अगुरुबुद्धि तथा धर्म में धर्मबुद्धि और अधर्म में अधर्मबुद्धि, यह
सम्यक्त्व है। इससे विपरीत मिथ्यात्व है। यदि समझें तो इतने में सब तत्त्वार्थों
का समावेश हो जाता है। देव कौन और अदेव कौन, गुरु कौन और अगुरु कौन, धर्म
कौनसा और अधर्म कौनसा,
यह निर्णय हो जाने के बाद कौनसा निर्णय शेष रह जाता है? अज्ञानी
को भी यह बात निश्रा से ही माननी होती है। देव में अदेवबुद्धि और अदेव में
देवबुद्धि आदि जैसे मिथ्यात्व हैं, वैसे ही अज्ञानी रहना अच्छा
लगे तो यह भी मिथ्यात्व है। तत्त्वों के विषय में अज्ञान आपको खटकता है? हम
अज्ञानी हैं,
अतः सुगुरु की निश्रा में ही चलें, ऐसा
आपका निर्णय है क्या?
ज्ञानी सुगुरु जो कहे, उसे मान लेने की आपकी तैयारी
है? आज अधिकांश को धर्म-विषयक अज्ञान खटकता ही नहीं है। व्यावहारिक ज्ञान के प्रति
जैसी ललक है,
धार्मिक ज्ञान या तात्विक ज्ञान के प्रति वैसी ललक लगभग
नहीं है। व्यावहारिक विषयों का अज्ञान इतना अधिक खटकता है कि अनपढ मां-बाप भी
पुत्रों को शक्ति से उपरांत जाकर भी पढाने का प्रयत्न करते हैं। यदि लडका ठीक से
नहीं पढ पाता है तो विचार आता है कि इसकी जिन्दगी बरबाद हो जाएगी; इस
भय से अपने पुत्र को बात-बात में ताना मारा जाता है। क्या ऐसा विचार आपको
तत्त्वज्ञान-रहित पुत्र के विषय में भी आता है? -सूरिरामचन्द्र
रविवार, 26 जून 2016
शनिवार, 25 जून 2016
पापात्माओं से बचें
धर्मीति
ख्यातिलोभेन,
प्रच्छादितनिजाश्रवः।
तृणाय
मन्यते विश्वं,
हीनोऽपि धृतकैतवः।।1।।
आत्मोत्कर्षात्ततो
दम्भी, परेषां चापवादतः।
बध्नाति
कठिनं कर्म्म,
बाधकं योगजन्मनः।।2।।
'कपट को धारण करने वाली आत्मा धर्मीपन की ख्याति के रूप से स्वयं के आस्रव को
छुपाकर,
स्वयं हीन होते हुए भी जगत को तृण के समान मानते हैं।'
'उस कारण से दम्भी आत्मा स्वयं का उत्कर्ष करके और दूसरों के अपवाद बोलकर, योगजन्म
के बाधक बनने वाले कठिन कर्म को बांधते हैं।'
इस विश्व में मायावी और प्रपंची आत्माओं का पंथ ही अलग होता है और इसी कारण से
ऐसी आत्माएं स्वयं के पंजे-परिचय में आने वाली आत्माओं का जितना अहित न करे, उतना
ही कम है तथा विश्व के उपकारियों को नीचा दिखाने की बेशर्मी की, जितनी
कार्यवाही न करे,
उतना कम है ! ऐसी आत्माओं के द्वारा कोई भी अच्छा कार्य करवाने
की आशा रखना,
उसके जैसी भयंकर मूर्खता दूसरी एक भी नहीं है। इसलिए कल्याण
के अर्थी सभी आत्माओं का तो यह कर्त्तव्य है कि "ऐसे शासन
के सत्य की और इस सत्य का प्रचार करने वाली आत्माओं को गलत रीति से नीचा दिखाने की
कोशिश करने वाली,
कराने वाली और करने वाले को इरादापूर्वक सहयोग देने वाले पापात्माओं
से स्वयं की जात को बचानी चाहिए, ऐसे पापात्माओं के सहवास से बचने में ही कल्याण
है।"-सूरिरामचन्द्र
शुक्रवार, 24 जून 2016
क्षण मात्र का भी प्रमाद न करें
जीवन के भोग, मेघ रूपी वितान में चमकती हुई बिजली के
समान चंचल हैं और आयु, अग्नि में तपाये हुए लोहे पर पडी
जल-बिन्दु के समान क्षणिक है। जिस प्रकार सर्प के मुँह में पडा हुआ भी मेंढक
मच्छरों को ताकता रहता है; उसी प्रकार लोग काल रूपी सर्प से ग्रस्त
हुए भी अनित्य भोगों को चाहते रहते हैं। हमने विषयों को तो भोगा नहीं, उलटे
विषयों ने ही हमें भोग लिया, हम तप न तपे, परन्तु
ताप ने हमें तपा दिया और समय नहीं बीता, परन्तु आयु अलबत्ता व्यतीत हो
गई। परन्तु इतने पर भी तृष्णा बूढी नहीं हुई, बल्कि हम ही वृद्ध हो गए।
इतना सब हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं और संसार की असारता को भी जान रहे हैं, फिर
भी हमारे कदम धर्माचरण की ओर न बढें तो यह दुर्भाग्य ही है। पिता, माता, पुत्र, भाई, स्त्री
और बंधु-बांधवों का संयोग प्याऊ पर एकत्रित हुए जीवों अथवा नदी प्रवाह से इकट्ठी
हुई लकड़ियों के समान चंचल है। यह निःसंदेह दिखाई पडता है कि लक्ष्मी छाया के समान
चंचल और यौवन जल-तरंग के समान अनित्य है, स्त्री-सुख स्वप्न के समान
मिथ्या और आयु अत्यंत अल्प है, तिस पर भी प्राणियों का इनमें कितना
प्रमाद-भाव, कितना अभिमान है?
जीवन की इस सच्चाई को, इस वास्तविकता को अनदेखा न
करें और इसी समय से अपने आत्म-कल्याण के उपायों में लग जाएं। भगवान महावीरदेव ने इसीलिए
बार-बार गौतमस्वामी को भी ध्यान दिलाया है कि "समय मात्र
का प्रमाद मत करो।"-सूरिरामचन्द्र
गुरुवार, 16 जून 2016
संसार की क्षणभंगुरता का विचार करें
यह संसार क्षणभंगुर है,
नाशवान है। मनोहर दिखाई देने वाला प्रत्येक पदार्थ प्रति
क्षण विनाश की प्रक्रिया से गुजर रहा है। जो कल था, वह आज नहीं है और जो
आज है, कल नहीं होगा। संसार प्रतिक्षण नाशवान और परिवर्तनशील है। फिर हम क्यों बाह्य
पदार्थों, जड तत्त्वों में भटक रहे हैं? क्यों हम नश्वरता के पीछे बेतहाशा दौडे जा
रहे हैं, पगला रहे हैं?
हम आत्म-स्वरूप को समझकर शाश्वत सुख की ओर क्यों न बढें? जहां
जीना थोडा, जरूरतों का पार नहीं,
फिर भी सुख का नामोनिशान नहीं; ऐसा
है संसार और जहां जीना सदा,
जरूरतों का नाम नहीं, फिर भी सुख का शुमार नहीं; वह
है मोक्ष! फिर भी हमारी सोच और गति संसार से हटकर मोक्ष की ओर नहीं होती, यह
कितना दुर्भाग्यपूर्ण है?
हम अनन्त काल से संसार की क्षणभंगुरता को समझे बिना परभाव
में रमण करते चले आ रहे हैं, यही हमारे जन्म-मरण और संसार परिभ्रमण का
कारण है, यही दुःख-शोक-विषाद का कारण है। 24 घण्टे हम परभाव में व्यस्त
रहते हैं, एक क्षण के लिए भी यह विचार नहीं करते कि हम आत्मा के लिए क्या कर रहे हैं? जो
भी आत्मा से ‘पर’ है, वह नाशवान है और संसार के नाशवान पदार्थ ही सब झगडों की जड़ हैं; जब
तक यह चिन्तन नहीं बनेगा,
संसार से आसक्ति खत्म नहीं होगी, हम
स्व-बोध को, आत्म-बोध को प्राप्त नहीं कर सकेंगे और उसके बिना आत्मिक आनंद, परमसुख
की उपलब्धि असम्भव है।-सूरिरामचन्द्र
बुधवार, 15 जून 2016
संयम में विकार न हो
संयम जीवन बहुत कठोर है। जो उस पर चल पाता है, वह महान बन जाता है, लेकिन
जो व्यक्ति संयमी जीवन का वेश पहिनने के बाद भी पालन नहीं कर पाता है, वह
उससे नीचे गिरता है तो उसका समस्त अस्तित्व चकनाचूर हो जाता है। कहा गया है-
साधु जीवन कठिन है, ऊँचा पेड खजूर।
चढे तो चाखे प्रेम रस, गिरे तो चकनाचूर।।
व्यक्ति क्षणिक मोह के वशीभूत होकर पथ से हट जाता है, पथभ्रष्ट
बन जाता है और अपने तुच्छ स्वार्थों में अंधा होकर सुसाधुओं को आघात पहुंचाता है, छद्मवेश
में धर्म को आघात पहुंचाता है, धर्मतीर्थ को आघात पहुंचाता है और अपना
संसार सजाता है। श्री अरिहंत परमात्मा ने मोक्ष पाने हेतु ही धर्मतीर्थ की
संस्थापना की है। इसी धर्मतीर्थ का उपयोग संसार सजाने (संसार के सुख पाने) के लिए
करना परमात्मा का घोर अपराध है। हमारी साधना ऐसी होनी चाहिए कि हमें बाहर के कितने
ही निमित्त मिलें,
लेकिन हमारे में विकार उत्पन्न न हो, हम
अपने संयम की मर्यादाओं से जरा भी विचलित न हों।-सूरिरामचन्द्र
मंगलवार, 14 जून 2016
बुद्धि-प्रज्ञा का उपयोग आत्म-कल्याण में करें
चौरासी लाख जीवयोनियों में मानव अपनी बुद्धि-प्रज्ञा के कारण ही सर्वश्रेष्ठ
माना गया है। हम इस बुद्धि-प्रज्ञा का उपयोग केवल रोटी-कपडे की व्यवस्था या
विध्वंसक कार्यों में न करें, वर्ना मानव बुद्धि का सम्पूर्ण महत्त्व ही
धूमिल हो जाएगा। हम इस प्रज्ञा का उपयोग मृत्यु पर विजय प्राप्त करने में करें या
यों कहें कि हमें जन्म ही न लेना पडे, ऐसा पुरुषार्थ हम अपनी
बुद्धि-प्रज्ञा द्वारा करें, जन्म-मरण की श्रृंखला का सदा-सदा के लिए
निर्मोचन करें। इसके लिए अपनी बुद्धि-प्रज्ञा का उपयोग अपने आत्म-स्वरूप को जानने
में करें। आत्म-चिंतन करें कि मैं कौन हूं? कहां से आया हूं? मेरे
क्या कर्त्तव्य हैं?
मैं जन्म-जरा और मृत्यु से किस प्रकार छुटकारा प्राप्त कर
सकता हूं? विचार करें! गम्भीरता पूर्वक चिन्तन करने से शुभ भावों का उदय होगा, आप
अन्तर्मुखी-सम्यग्दृष्टि बनेंगे और जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे।
पुण्य के उदय से प्राप्त साधन-सामग्री का मजे से भोग-उपभोग करना यानी अपने ही
हाथों अपनी दुर्गति खडी करना; इस तथ्य को गहराई से विचार करें। मानव
जीवन आत्म-कल्याण के लिए है, इसे भोगोपभोग में लगाकर व्यर्थ गंवा देना
स्वयं अपनी आत्मा का अपराध करना है।-सूरिरामचन्द्र
सोमवार, 13 जून 2016
नशे का कारोबार
कहावत है कि किसी जाति, समाज या देश को नष्ट करना हो तो उसकी युवा पीढ़ी को नशे
में डुबो दो. पंजाब में नशे के कारोबार पर इन
दिनों बडी हायतौबा मची हुई है, इस पर
फिल्म भी बन गई है और नशे के इस कारोबार में राजनेता, पुलिस, बीएसएफ, ड्रग माफिया और विदेशी एजंसियां भी शामिल है। इससे पंजाब की
युवा-शक्ति बर्बाद हो रही है, कई जिंदगियां
समाप्त हो गई है।
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि यह रैकेट राजस्थान व गुजरात में भी सक्रिय है, किन्तु राजस्थान व गुजरात खामोश है। राजस्थान व मध्य प्रदेश
में तो नशे के इस कारोबार में काम आने वाली अफीम की खेती होती है, इसे यहां काला
सोना बोला जाता है और इससे हेरोइन आदि बनाने के कई गैर कानूनी कारखाने चल रहे हैं,
यहां भी इस कारोबार में राजनेता, पुलिस, और ड्रग माफिया का बड़ा मजबूत नेक्सस बना हुआ है.
आपको यह भी जानकर आश्चर्य होगा कि इस रैकेट में कई डॉक्टर भी शामिल हैं।
आपको यह भी जानकर घोर आश्चर्य होगा कि नशे के इस कारोबार में अवसाद निरोधक दवाओं
का भी बडे पैमाने पर उपयोग हो रहा है।
दुःख की बात तो यह है कि कई मनोचिकित्सक अनावश्यक रूप से बिना इसके साइड इफेक्ट
बताए तनाव व अवसादग्रस्त लोगों को ये दवाएं और इनके भी हाईडोज देकर कई जिंदगियों को
अपने स्वार्थ के लिए पंगु बना रहे हैं, ताकि वे इनके परमानेंट मरीज बनकर इनको फीस चुकाते रहें। धिक्कार है!
बिना संस्कारों के तो रोना ही पड़ेगा
प्रत्येक मानव परम आनंद की प्राप्ति करना चाहता है, किन्तु
आज चारों तरफ अंधकार के सघन बादल आच्छादित हो रहे हैं। प्रायः हर व्यक्ति ने अपनी
जिन्दगी की नाव को पाप व पीडा के बोझ से भर रखा है, फिर वह भवसागर में
डूबेगी नहीं तो क्या होगा?
इस डूबने के लिए हमारे संस्कार ही बहुत हद तक जिम्मेदार
हैं। क्यों न हम भावी पीढी में सुसंस्कारों का बीजारोपण करें, ताकि
वह वास्तविक आनंद-परमानंद की प्राप्ति कर सके। किन्तु, आजकल
माता-पिता अपने बच्चों के संस्कारों की तरफ कितना ध्यान दे पाते हैं? दोनों
अर्थोपार्जन या भौतिक उपलब्धियों की दौड में बेतहाशा दौड रहे हैं या आधुनिक बनने
के चक्कर में कॉकटेल पार्टियों व क्लबों में ही व्यस्त हैं। ऐसे में बच्चे कई बार
माता-पिता के वात्सल्य प्रेम को तरस जाते हैं और बचपन से ही सुसंस्कारों के
बीजारोपण के बजाय वे तनावग्रस्त होकर भटक जाते हैं। बडे होकर वे अपने माता-पिता, समाज
या देश के लिए समस्या नहीं बनेंगे क्या? क्या ऐसे बच्चे अपने आत्मगौरव
को प्राप्त कर सकते हैं?
अपना कल्याण साध सकते हैं? आप जितना महत्त्व
आधुनिक शिक्षा और शिक्षापद्धति को देते हैं, उतना संस्कारों और धार्मिक
शिक्षण को देते हैं क्या?
इसके बिना बच्चों का जीवन सफल कैसे हो सकता है? जरूर
आपको और आपके बच्चों को भविष्य में रोना ही पडेगा। यदि नहीं रोना चाहते हैं तो
अपने बच्चों में सुसंस्कारों का सिंचन करिए, उन्हें सन्मार्ग की ओर अग्रसर करिए।-सूरिरामचन्द्र
रविवार, 12 जून 2016
कल-कल करते काल ही आता है
यहां न कुछ तेरा है,
न मेरा है। न ही यह धन-सम्पत्ति, यह
भौतिकता की चकाचौंध या नाते-रिश्तेदार अंतिम समय में साथ आने वाले हैं, फिर
अहंकार/अभिमान किस पर?
क्यों हम सिर्फ बाह्य वस्तुओं और व्यवस्थाओं के प्रति ही
सजग हैं? आत्मा के प्रति हम सजग क्यों नहीं? हम भौतिक संसाधनों को जुटाने
में और अधिकाधिक अर्थोपार्जन की दौड में इतने अधिक लिप्त हो गए हैं कि प्रायः
चौबीसों घण्टे हमारी क्रियाएं उन्हीं पर केन्द्रित रहती हैं और हम कल का काम भी आज
ही निबटा लेना चाहते हैं,
लेकिन धर्म-साधना अथवा परोपकार का काम कल पर छोडते हैं और
वह कल कभी नहीं आता,
‘काल’
ही आता है। तब हमारा यह जीवन व्यर्थ हो जाता है। हमारी
आत्मा अनादिकाल से सोई हुई है। मिथ्यात्व मोह और अज्ञान निद्रा का आवरण हमारी
आत्मा पर छाया हुआ है। जब हमारी आत्मा में जागृति आ जाएगी, तब
हमें अपने अंतरंग शत्रु दिखाई देने लगेंगे कि इन्होंने हमारे भीतर की आत्मा को
कैसे दूषित कर रखा है? -सूरिरामचन्द्र
शनिवार, 11 जून 2016
बाढ आने से पहले पाल बांधो
विपत्ति आने के बाद जागृत होने के बजाय पहले ही जागृत हो जाओ। पहले ही सावधान
हो जाओ तो फिर तुम्हें कष्ट ही नहीं आएगा। आग लगने के बाद कुंआ खोदने की सोचे तो
वह समझदार पुरुष माना जाता है क्या? नहीं! समझदार पुरुष तो वह
माना जाता है,
जो बाढ आने से पहले ही पाल बांध लेता है। यह मानव जीवन
दुर्लभ है। देवता भी इसके लिए तरसते हैं, क्योंकि इसी से आत्म-कल्याण
संभव है। हमने असीम पुण्योदय से यह मानव जीवन पाया है, क्या
इसे हम यों ही गंवा देना चाहते हैं? जो उम्र चली गई, वह
तो व्यर्थ गई,
लेकिन जो जीवन बचा है, उसे संभालिए। मृत्यु की घड़ियों
में साथ आने वाला केवल धर्म ही है। जिन भौतिक पदार्थों को आप एकत्रित कर रहे हैं, वे आपके
साथ आने वाले नहीं हैं। उन्हें यहीं पर छोडकर जाना पडेगा। जरा सोचिए कि आपने कौनसी
चीज बनाई है?
क्या कमाया है आपने? इस जीवन से जाते समय कितना
साथ ले जाएंगे?
चौबीस घंटे भौतिक साधनों की कमाई कर रहे हैं, पापकर्मों
का उपार्जन कर रहे हैं,
आत्मा की उपेक्षा कर रहे हैं, तो भविष्य क्या होगा? आपके
जीवन का उद्देश्य क्या है?
निरुद्देश्य जीवन का कोई महत्त्व नहीं है। धर्म को आचरण में
लाओ। सम्यग्दृष्टि बनो। सम्यग्दृष्टि व्यक्ति का जीवन तनाव रहित होता है। आज जितने
तनाव और संघर्ष परिलक्षित हो रहे हैं, यह सब मिथ्यात्व के कारण हैं।
हम शान्ति की खोज में बाहर भटक रहे हैं, भौतिक साधनों में उसे खोज रहे
हैं, किन्तु वह उनमें कहीं नहीं मिलती। हम अंतर्मुखी होकर सम्यग्दृष्टि बनेंगे तो
चिरस्थाई शान्ति को प्राप्त कर सकेंगे। सम्यग्दृष्टि भाव का जागरण होने के पश्चात
हमारे सामने जो घोर तिमिर छाया हुआ है; नष्ट हो जाएगा और अलौकिक
ज्योति से हमारा जीवन जगमगाने लगेगा। हम वीतरागवाणी को जीवन में उतार कर
आत्म-कल्याण के मार्ग को प्रशस्त करें, तभी यह जीवन सार्थक है।-सूरिरामचन्द्र
शुक्रवार, 10 जून 2016
शिक्षा-व्यवस्था को बदलने की जरूरत
शिक्षक का वास्तविक कार्य तो यह है कि वह भाषा आदि सब सिखाने के साथ बालक को
समझदार बनाए और उसमें ऐसी क्षमता विकसित करे कि वह अपने आप संस्कारी बने।
माता-पिता ने यदि योग्य संस्कारों का सिंचन किया होता तो शिक्षक का आधा कार्य
पूर्ण हो गया होता। फिर शिक्षक को केवल माता-पिता द्वारा प्रदत्त संस्कारों को
विकसित करने की ही जिम्मेदारी रहती। भाषाज्ञान सिखाना यह वस्तुतः ज्ञान-दान नहीं, अपितु
ज्ञान के साधन का दान है। सद्गुण प्राप्ति का और अवगुण त्याग का शिक्षण, यही
शिक्षा का साध्य है। परन्तु, आज तो प्रायः जैसी माता-पिता की हालत है, वैसी
शिक्षक की भी हालत है। सच्चा शिक्षक मात्र किताबी ज्ञान तक ही सीमित नहीं होता।
सच्चा शिक्षक तो विद्यार्थी में सुसंस्कारों का सिंचन करता है। मात्र किताबी ज्ञान
तक सीमित रहने वाला और विद्यार्थियों के सुसंस्कारों का लक्ष्य नहीं रखने वाला
शिक्षक, शिक्षक नहीं,
अपितु एक विशिष्ट मजदूर मात्र है। हमारे सोच को और हमारी
बेकार हो चुकी समग्र शिक्षा-व्यवस्था को आज बदलने की जरूरत है। सब अपना कर्तव्य
पालन करें और आने वाले कल को सुसंस्कारी बनाएं।-सूरिरामचन्द्र
गुरुवार, 9 जून 2016
शिक्षा के नाम पर ठगी
शिक्षा संस्थानों में आज तो "सा विद्या या विमुक्तये" का बोर्ड लगाकर ठगने का धंधा किया जाता है, क्योंकि आज के शिक्षण में
मुक्ति की तो कोई बात होती ही नहीं है। "सा विद्या या विमुक्तये" का अर्थ तो यह कि जो विद्या मुक्ति का बोध दे, लेकिन आज के
स्कूल-कॉलेजों में मुक्ति के शिक्षण का स्थान तो स्वच्छंदता और विनाशक-विज्ञान ने
ले लिया है। सारी पीढी बिगड रही है, यह आप आँखों से देख रहे हैं, फिर
भी हम से पूछते हैं कि ‘शिक्षण में खराबी क्या है?’ जीवन का निर्माण बाल्यकाल से प्रारम्भ हो
जाता है। बच्चों को हृदय की पवित्रता का मूल्य उतना नहीं बताया जाता, जितना
दूसरी चीजों का बताया जाता है। आज शिक्षा में नैतिक अवमूल्यन की समस्या पर ध्यान
नहीं दिया जा रहा है। हृदय की पवित्रता केवल साधुओं के लिए ही महत्त्वपूर्ण नहीं
है, शासकों और परिवार के सदस्यों के लिए भी बहुत जरूरी है। साधारण व्यक्ति प्रवाह
के पीछे चलता है। ‘यथा राजा तथा प्रजा’
कहावत ही नहीं, यथार्थ है। जब एक व्यक्ति
उचित-अनुचित ढंग से सत्ता प्राप्त कर कथित बडा आदमी बन जाता है, तब
दूसरा आदमी भी सोचता है कि भ्रष्ट तरीके से पैसा कमाकर बडा आदमी बना जा सकता है।
सत्ता पर जब धर्म का अंकुश नहीं रहता, तो वह निरंकुश हो जाती है।
सत्ता राष्ट्र की हो या परिवार की, उस पर से जब-जब धर्म का अंकुश
हटता है, वह उन्मादी हो जाती है। प्रवाह को वही मोड सकता है, जो
असाधारण हो, जो सत्ता और अर्थ प्राप्ति के लिए भ्रष्ट उपायों का सहारा न ले।-सूरिरामचन्द्र
बुधवार, 8 जून 2016
भिखारी बनाने वाली शिक्षा
अब से लगभग 90 वर्ष पूर्व जब देश में अंग्रेजी हुकूमत
थी, मुम्बई में एक धर्मसभा का आह्वान करते हुए सूरिरामचन्द्रजी ने अत्यंत वेदना के
साथ जो कहा, वह आज की शिक्षा-व्यवस्था के मद्देनजर कितना प्रासंगिक
है, विचार जरूर करिएगा-
"वैज्ञानिक युग के नाम पर आज कोई कानूनविद् बना तो कोई डॉक्टर बना। उनके कपडे
तो उजले, किन्तु उनकी कार्यवाही देखो तो बदबू मारते गटर
जैसी है। कानून पढा हुआ गुनाह करता है? कानून पढा हुआ चोरी करता
है? कानून पढा हुआ किसी को ठगता है? कानून
पढा हुआ सौ के बिल पर एक और जीरो बढाता है? हिसाब पढा हुआ जमा
को उधार और उधार को जमा करता है? इतिहास पढा हुआ गप्पे लगाता
है? हिसाब-किताब की बहियां दो, जुबान दो,
दिल में दूसरा और मुँह पर दूसरा; ऐसी यह बीसवीं
सदी? सब ऐसे पैगम्बर? अपराधी को निरपराधी
ठहराना यह शिक्षा है? ऐसी शिक्षा, ऐसा विद्या
प्रचार यह तो जहर का प्रचार है? पढे इसलिए नीचे नहीं बैठे,
पढे इसलिए चाय, पान, बीडी,
सिगरेट बिना नहीं चले। पढे नहीं ये तो भूले हैं। शिक्षा को लजाया है।
ऐसी शिक्षा-संस्थाओं को नहीं निभाया जा सकता। एक नए पैसे का भी दान ऐसी संस्थाओं को
नहीं दिया जाना चाहिए। यह तो पाप का दान है। आपको यह खंजर के घाव जैसा लगेगा,
बहुत कडवा लगेगा; किन्तु सच्ची शिक्षा हो तो ऐसी
दशा हो? पढे-लिखे आज पैसों के लिए भीख मांगते हैं, लोगों की दाढी में हाथ डालते हैं। आज आवाज उठ रही है कि पढे हुए भीख मांग रहे हैं
और इससे शिक्षा के प्रति कई लोगों के मन में तिरस्कार का भाव जागृत हो रहा है। मैं
कहता हूं कि पेट भरने के लिए पढनेवाले तो भूखे मरें, इसमें नई बात क्या है? विद्या जैसी अनुपम चीज पेट के
लिए खरीदी जाए तो परिणाम यही आएंगे। पेट के लिए विद्या पढनेवालों का पुण्य जागृत हो
तो बात अलग है, नहीं तो कटोरे के लिए ही इस विद्या
को समझना। पहिनने की टोपी में ही चने फांकने के दिन आएंगे, क्योंकि आपने विद्या का अपमान किया है। आज इस बात का अनुभव होता है और भविष्य में
भी होगा।"
"पापक्रिया बढी, उसकी अनुमोदना बढी, उसकी प्रशंसा बढी, परिणाम स्वरूप दरिद्रता और भिखारीपन
आया। जो मांगा वह आया दिखता है और ऐसा ही चलता रहेगा तो अधिक आनेवाला है। इसमें पुण्यवान
को भी शामिल होना पडेगा। पडौस में आग लगती है तब बगल वाले घर में भी जार लगती है, आँच आती है। पापी के साथ बसनेवाले पुण्यवान को भी आँच लगने ही वाली है। सावधान
रहेंगे तो बचेंगे। आपको सावधान करने के लिए यह मेहनत है।"
आज समाज में संस्कारों की कितनी कमी होती जा रही है? आजकल
के माता-पिता को फुर्सत नहीं है कि वे आधा घंटा भी अपने बच्चों के पास बैठकर
उन्हें धर्म की शिक्षा दें,
समझाएं, अच्छे संस्कार दें। वह माता शत्रु के समान
है, जिसने अपने बालक को संस्कारित नहीं किया। वह पिता वेरी के समान है, जिसने
अपने बच्चे को संस्कार नहीं दिए। आजकल के माता-पिता तो अपने बच्चों को अच्छी
शिक्षा के नाम पर कान्वेन्ट में डाल देते हैं। आप सोचते हैं कि कान्वेन्ट में पढने
जाएगा तो हमारा बच्चा इन्टेलीजेन्ट (चतुर) बनेगा। पढ-लिखकर होशियार बन जाएगा और
बडा आदमी बन जाएगा। लेकिन,
वहां जो शिक्षा परोसी जाती है, उसमें
आत्मा कहां है?
वहां तो जहर ही जहर है।-सूरिरामचन्द्र
मंगलवार, 7 जून 2016
परमात्मा के प्रति समर्पण
परमात्म-भाव में लवलीन होने की बात हम कई बार करते हैं। लय होने का अर्थ होता
है, अपने संपूर्ण अस्तित्व को प्रभु के प्रति समर्पित कर देना। अपनी संपूर्ण सत्ता
को परमात्म-भाव के प्रति अर्पित कर देना। हम समर्पण करते हैं। संसार में एक दूसरे
व्यक्ति के प्रति हमारा समर्पण होता है। संसार के भिन्न-भिन्न पदार्थों के प्रति
हमारी समर्पणा होती है। लेकिन, जिस मूल सत्ता के प्रति हमारा समर्पण होना
चाहिए, वह समर्पण हमारा प्रायः नहीं बनता है। जहां हमें समर्पित होना है, वहां
से हम प्रायः अपने आप को बचा लेते हैं और जहां हमें समर्पित नहीं होना है, वहां
हम अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर देते हैं। यह दृष्टि का विपर्यय-भ्रम, दृष्टि-विपर्यास
हमें इस संसार में उलझाए हुए है। जन्म-मरण के चक्कर में फंसाए हुए है। यहां तक कि
अपने आप के परिचय से भी हमें वंचित किए हुए है। हमें स्वयं का परिचय नहीं होता है।
स्वयं का बोध नहीं होता है। शरीर का परिचय होता है, इन्द्रियों का परिचय
होता है और बाह्य पदार्थों का परिचय होता है। लेकिन, चेतना का परिचय, आत्म-शक्ति
का बोध बहुत कम को हो पाता है, विरली ही आत्माओं को होता है। उसके लिए
पदार्थों के प्रति नहीं,
परमात्मा के प्रति समर्पण होना जरूरी होता है।-सूरिरामचन्द्र
सोमवार, 6 जून 2016
मोह का नशा विवेकशून्य बना देता है
किसी व्यक्ति को क्लोरोफार्म सुंघा दिया जाए या बेहोशी का इंजेक्शन लगा दिया
जाए या वह व्यक्ति शराब अथवा अन्य मादक पदार्थों का नशा कर लेता है तो बेभान, उसकी
चेतना सक्रिय नहीं रहती,
विवेकशून्य हो जाती है; फिर भाषा वर्गणा के पुद्गल
कर्ण शुष्कली तक पहुंचेंगे तो सही, लेकिन सुनाई नहीं देगा। जब तक
भाव इन्द्रियां सक्रिय नहीं होती हैं, तब तक शब्द वर्गणा के पुद्गल
ग्रहण नहीं कर सकती है। इसी प्रकार चेतना मोह के नशे में बेहोश हो रही है।
शास्त्रकारों ने मोह को नशा कहा है। जिस तरह शराब पीने से नशा चढ जाता है, उसी
तरह आत्मा पर मोह का नशा चढ जाता है। वह फिर अपने हिताहित के विवेक से रहित हो
जाता है। मोह के नशे में मदहोश व्यक्ति के लिए कहा गया है कि ऐसा व्यक्ति सत और
असत् की विशिष्टता को नहीं समझता है। वास्तविक और अवास्तविक का अन्तर न जानने से,
विचार शून्य होने से, वह उन्मत्त की तरह रहता है, उसका ज्ञान भी अज्ञान
ही है। वह उन्मत्त की तरह व्यवहार करता है। शराब की दशा में व्यक्ति उन्मत्त हो
जाता है, उसे भान नहीं रहता है। उसी तरह मोह की निन्द्रा में सोया व्यक्ति, मोह
से अभिभूत व्यक्ति अपने हिताहित का ध्यान नहीं रखता है। उसका विवेक, उसकी
प्रज्ञा इतनी नहीं होती है कि वह सत्-असत् का विशिष्ट विश्लेषण कर सके, अपना
हिताहित सोच सके।-सूरिरामचन्द्र
रविवार, 5 जून 2016
सम्यक्त्व रहित तप, तप नहीं
व्यक्ति के जीवन में यदि शुद्ध दर्शन नहीं, शुद्ध-विशुद्ध श्रद्धा नहीं
और सम्यक्त्व नहीं है तो उसके अभाव में वह कितना ही धर्म कर ले, सब
प्रभावहीन ही सिद्ध होगा। धर्म स्थान में आने वाले, धर्म क्रियाएँ करने
वाले वास्तव में कितने धार्मिक हैं, यह उनके सम्यक्त्व की शुद्धि
पर निर्भर करता है। जो धर्म का प्रदर्शन करते हैं, धार्मिक होने का दम
भरते हैं, यदि उनकी श्रद्धा सम्यग् न हो, तो उन्हें क्या कहेंगे? श्रद्धा
के अभाव में सम्यक्त्व हो ही नहीं सकता। जिनके जीवन में, विचारों
में धर्म अवतरित नहीं हुआ है, वे वस्तुतः अभी धर्म के गहन तत्त्व से
अनभिज्ञ ही कहे जाएंगे। मास खमण की तपश्चर्या करके पारणे में कुश या चावल के अग्र
भाग पर आए, उतना सा आहार ले और फिर से मास खमण पचक्ख ले, इस प्रकार जो तपस्या
की जाती है, वह कितनी उग्र तपस्या होगी, लेकिन उसमें सम्यग्ज्ञान नहीं है, सच्ची
श्रद्धा नहीं है,
तो वह इतना कठोर तपस्वी धर्म के तत्त्व के विषय में कुछ
नहीं जानता। उसका वह तप,
वह कायक्लेश अध्यात्म की कोटि में नहीं गिना जाएगा, क्योंकि
वह सम्यक्त्व से रहित है। यदि सम्यक्त्व विशुद्ध है, यदि हमारी श्रद्धा
विशुद्ध है तो धर्म का आचरण धर्म की कोटि में आएगा, अन्यथा वह कुछ मायने
नहीं रखता।-सूरिरामचन्द्र
शनिवार, 4 जून 2016
अधम आत्माएं दया की पात्र हैं
संसार में भटकते जीवों के आत्म-निस्तार में सहायक बनना और आत्म-निस्तार के एक
बेजोड साधनरूप धर्मतीर्थ की प्रभावना करना, इससे बढकर दूसरा कोई उत्तम
कार्य इस संसार में न था,
न है और न होगा। ऐसे उत्तम कार्य करने-करवाने वाली आत्माएं
तो उत्तम हैं ही,
ऐसे कार्य की सच्चे हृदय से सद्भाव पूर्वक अनुमोदना करने
वाली आत्माएं भी उत्तम हैं। अधम आत्माएं न तो ऐसे कार्य करती हैं, न
करवाती हैं और न ही अनुमोदना कर सकती हैं। इतना ही नहीं, ऐसे
पवित्र कार्यों की निन्दा करने वाली आत्माएं भी मौजूद है। ऐसी अधम आत्माएं बहुत ही
दया की पात्र हैं,
क्योंकि वे बेचारे अपनी आत्मा के लिए अपनी प्रवृत्तियों से
कई प्रकार की विडम्बनाएं उपस्थित कर रहे हैं और उसका उन्हें कोई मलाल भी नहीं है।
ऐसी अधम आत्माएं दया की पात्र हैं। हम चाहते हैं कि वे भी तीर्थ की महिमा को समझें, तीर्थ
की आराधना करें और अपनी आत्मा का उद्धार करें। ऐसी दयाभावना से हो सके तो उन्हें
उन्मार्ग से सन्मार्ग की ओर लाने का प्रयास करना चाहिए, साथ
ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि उनकी दुष्ट प्रवृत्ति के कारण दूसरी आत्माएं
तीर्थ सेवा से वंचित न रह जाएं और वे तीर्थों के संबंध में झूठे खयाल न फैला पाएं।-सूरिरामचन्द्र
शुक्रवार, 3 जून 2016
विषय-कषाय की आधीनता बुरी है
‘विषय-कषाय
की आधीनता बुरी चीज है’,
ऐसी प्रतीति जब तक न हो, तब तक संसार को तारने वाले
तीर्थ के प्रति प्रेम कैसे जागृत होगा? तीर्थ की यात्रा करने वालों
में भी अधिकांश में यह विचार नहीं होता है। ऐसे लोगों की तीर्थयात्रा निरर्थक या
मूल्यहीन हो जाए,
तो कोई विशेष आश्चर्य की बात नहीं है। ज्ञानियों ने फरमाया
है कि ‘संसार तो सागर है और उसे तैरकर पार करने योग्य है। जब तक तैरकर किनारे नहीं
पहुंचेंगे, तब तक विपत्तियों से घिरे रहेंगे।’ ज्ञानियों के इस कथन पर
प्रतीति जागृत होनी चाहिए। अनंतज्ञानियों का एक-एक वचन शंका आदि दोषों से रहित है, ऐसी
प्रतीति जागृत होगी तो ही आत्मा विपत्ति के कारण व निवारण के उपाय से सुपरिचित
बनेगी और फलतः विपत्तियों के कारणों का त्याग व विपत्तियों के निवारण के उपाय का
आचरण भी कर सकेगी। लेकिन,
इस जागृति का अभाव ही अनर्थों की जड है। ‘आत्मा
के साथ कर्म का योग’,
यही संसार है और विषय-कषाय की आधीनता, यही
कर्म के योग का कारण,
इसलिए प्रकारांतर से विषय-कषाय ही संसार है’, लेकिन
यह बात आपके दिल को जंचती नहीं है; किन्तु यह बात जंचे बिना
सच्चा कल्याण होने वाला नहीं है। इसलिए परोपकारी बार-बार एक ही बात कहते रहते हैं।
रूपक को बदले,
शब्द को बदले, पद्धति को बदले, लेकिन
उपदेश्य बात तो यह एक ही है। क्योंकि विषय और कषाय की आधीनता ही सब दुःखों की जड
है।-सूरिरामचन्द्र
गुरुवार, 2 जून 2016
विषय-मुक्ति के बिना तीर्थ बेकार है
जिन आत्माओं को विषयों से प्रेम है, उनको क्रोध आए बिना नहीं
रहता। उनके मान-माया या लोभ की सीमा नहीं रहती है। ‘आज आपको कितने में संतोष
है?’ ऐसा कोई प्रश्न करे तो बात कहां जाकर रुकेगी? पांच, दस, बीस, पचास
लाख या इससे भी अधिक लोभ! लोभ की सीमा ही नहीं होती और लोभी प्रपंची बने बिना भी
नहीं रहता। जिसमें विषय का राग है, उसमें क्रोध, मान,
माया और लोभ चारों कायम होते हैं। इनकी आधीनता, इसी का नाम ही तो संसार है।
यह आधीनता भयंकर लगे,
तब ही उससे मुक्त होने की इच्छा होगी, तभी
तीर्थ आवश्यक लगेगा और तभी तीर्थयात्रा का सच्चा भाव पैदा होगा। हृदय में से
विषयों की लालसा हटती नहीं और विषयों की आधीनता के कारण कषाय चुगते नहीं और आत्मा
को विषय-कषाय रूप संसार से तैरने की भावना प्रकट नहीं होती, तब
तक तीर्थ अच्छा कैसे लगेगा?
विषय दुनिया से जाने वाले नहीं हैं, हमें
ही विषयों की आसक्ति से मुक्त होना है।-सूरिरामचन्द्र
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