मंगलवार, 31 मई 2016

भोग से भोगवृत्ति तृप्त नहीं होती


भोग भोगने से भोगवृत्ति तृप्त होती है, यह बात पूर्णतया गलत है। भोग भोगने से जो भोगवृत्ति तृप्त होती हो तो संसार में कितने ही मनुष्य वृद्धावस्था को प्राप्त होने पर भी भोग के पीछे पागल बने हुए नजर आते हैं, वे दिखते नहीं। आज वृद्ध बने हुए भी जवान कैसे बनें, उसकी खोज में हैं। उसी के लिए दवाएं खाते हैं। वे इसके लिए अभक्ष्य, अपेय आदि का विवेकपूर्ण विचार भूल जाते हैं और आर्यदेश को शोभित न हो, शर्मसार करने वाले हों, ऐसे खान-पान मौज से खाते हैं। कारण कि उनकी भोग-लालसा बढ गई है। उनको चाहे जैसा भी पाप करके शक्ति प्राप्त करनी है और शक्ति प्राप्त कर वृद्धावस्था में भी युवक के समान भोग भोगने की इच्छा है।

आज के विषय-भोग में आसक्त बने हुओं की एक-एक कार्यवाही का पृथक-करण करके जो कहने लगे तो सुनना भी भारी हो जाता है, ऐसी आज की दुर्दशा है। विषय-भोग भोगने से विषय-भोग की वृत्ति तृप्त हो जाती है, यह बात बिलकुल ही असत्य है। ज्यों-ज्यों आदमी विषय-भोग भोगता जाता है, त्यों-त्यों उसकी भोगवृत्ति भी प्रायः बढती जाती है। कुछ ही आत्माएं भोग में पडने के बाद भी भोगवृत्ति को काबू में ले सकती हैं और भोगवृत्ति को एक बार काबू में लेने के बाद भी वैसे भुक्तभोगी आत्माओं में से थोडी-सी आत्माएं जीवन पर्यन्त उस वृत्ति को नियंत्रण में रख सकती हैं। इसलिए यह मिथ्या प्रलाप मात्र ही है कि भोग भोगे बिना उसका त्याग नहीं किया जा सकता और यदि बिना भोगे कोई त्याग करता है तो वह गिरे बिना नहीं रह सकता है। ऐसा मिथ्या प्रलाप जिन-शासन के विरोधियों, दीक्षा धर्म के विरोधियों की साजिश मात्र है।-सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 30 मई 2016

मोह-ममत्व ही दुःख का कारण



दुनिया में हजारों लोग प्रतिदिन मरते हैं, लेकिन क्या सभी के मरने का दुःख हमें होता है? किसी की अकाल मृत्यु सुनकर दया भावना के कारण क्षणिक दुःख-संवेदना हो, इसे छोड दीजिए तो बाकी दूसरा कोई मृत्यु को प्राप्त होता है तो दुःख नहीं होता है, जिसको अपना मान लिया हो, वैसा कोई मृत्यु को प्राप्त हो तो दुःख होता है। तब सोचिए कि इस दुःख को उत्पन्न करने वाला मरण है या ममत्त्व? जहां ममत्त्व नहीं है, वहां दयाभावना प्रकट हो अथवा कोई उपकारी चला जाए और इससे दुःख हो, यह बात पृथक है। किन्तु, इसके अतिरिक्त तो जिसके प्रति ममत्त्व नहीं है, उसकी मृत्यु से दुःख नहीं होता है, यह बात निश्चित है। पुत्र-पुत्री का मरण, माता-पितादि का मरण, संबंधियों का मरण, मोह के घर का दुःख उत्पन्न करता है। कारण कि यहां ममत्व बैठा हुआ है। तब इस दुःख में मुख्य कारण मरण है या ममत्व? यह ममत्व निकल जाए तो ऐसे मरण के कारण भी मोह के घर का दुःख उत्पन्न नहीं होगा, यह सुनिश्चित बात है। इसी प्रकार स्वयं के शरीर का ममत्व भी दूर हो जाए तो? स्वयं के शरीर पर आपत्ति आए, स्वयं का शरीर रोग से घिर जाए, ऐसे समय में समभाव को स्थिर रखने के लिए सहनशीलता की विशेष अपेक्षा रहती है। सामर्थ्यहीन जीव वैसे अशुभोदय के समय में असमाधि को प्राप्त हो जाते हैं, यह असंभव वस्तु नहीं है। सच्चा साधु स्वयं के शरीर को भी पर मानने वाला होता है। इस कारण वह प्रत्येक स्थिति में समभावजनित सुख का अनुभव कर सकता है।-सूरिरामचन्द्र

रविवार, 29 मई 2016

जो ‘ठकुर सुहाती’ करे वह साधु नहीं



यह रजोहरण (ओघा) तो विश्वास का धाम है। इसे देखकर सब मस्तक नमाने आते हैं। यह जिसके हाथ में होता है, उसे हर घर में जगह मिल जाती है। ओघा ऐसा विश्वास पैदा करता है कि इसे रखने वाला रूप, रस, गंध, स्पर्श में से एक का भी चोर नहीं होता। इस विश्वास का भंग हो, ऐसा जो करता है, वह कितने पाप बांधता है? मुनि तो स्वयं तिरता है और दूसरे को तारता है, परन्तु जो इस वेश के प्रति वफादार नहीं रहता, वह स्वयं मरता है और दूसरे को मारता है। यह जमानावाद तात्कालिक स्वाद है, पेट में जाकर गडबड करने वाला है, जहर फैलाने वाला है। जो आपको रुचिकर बातें कहें, उनका भक्त कभी मत बनना। त्यागी होकर भी जो आपको मान दे, उससे सावधान रहना। समझना चाहिए कि उसके त्याग में कहीं पोल है। साधु ठकुर सुहातीनहीं कहता, वह तो शास्त्रानुसारी खरी-खरी कहता है। वह न तो स्वयं चापलूसी करता है और न ही अपनी चापलूसी करने वालों को गोद में बिठाता है। जिस शास्त्र के आधार पर कुटुम्ब-कबीला छोडा, घरबार छोडा, मां-बाप छोडे, उस शास्त्र की बात आए वहां शास्त्र की बात बीच में न लावें’, ऐसा बोला जा सकता है क्या? ऐसा बोलने वाले वेश पहिनने के और साधु कहलाने के अधिकारी नहीं हैं।-सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 28 मई 2016

अनाचार से विवेकपूर्वक बचें



विवेकवान, कुशल व्यक्ति दम्भी आदमियों के दम्भ को निष्फल कर देते हैं, किन्तु पुण्य होता है और लोक का दुर्भाग्य होता है तो लोग दम्भियों के आगे समझदार की भी अवगणना कर देते हैं। उस अवसर में अज्ञानी लोग समझदार लोगों को भी बेवकूफ मानते हैं। इसीलिए लोकप्रवाह के अनुसार नाचना हितप्रद नहीं है। खोजकर, बुद्धि को विवेकमय बनाकर, यथार्थ कल्याणकारी मार्ग का अनुसरण करने का प्रयत्न करना चाहिए। आज का वात्याचक्र विचित्र है। आज के वात्याचक्र से विवेकशील आत्माएं ही बच सकती हैं। कारण कि आज बहुत ही योजनाबद्ध ढंग से अनाचार का प्रचार हो रहा है। आज परोपकार की बातें करके, अनाचार के मार्ग में प्रेरित करने के प्रयास हो रहे हैं। अहिंसा और सत्य के नाम से हिंसा और मृषावाद की ऐसी ही प्रवृत्तियां हो रही हैं। एक तरफ द्वेष करना नहीं, क्रोध करना नहीं, इत्यादि कहा जाता है और दूसरी तरफ दुनिया की सत्ता आदि का लोभ बढे, इस प्रकार के प्रयत्न हो रहे हैं। ये लोभ और क्रोध को बढाते हैं या घटाते हैं? अहिंसा का पालन कब होता है? पहले तो हिंसा की जड की तरफ तिरस्कार होना चाहिए। अर्थ और काम की लालसा, पौद्गलिक सुखों की अभिलाषा यह हिंसा की जड है। जब तक पौद्गलिक सुखों की अभिलाषा से हृदय ओतप्रोत रहेगा, वहां तक सच्ची अहिंसा आए, ऐसा शक्य ही नहीं है। समझदार कभी लोक प्रवाह में नहीं बहता। वह सम्पूर्ण विवेक के साथ आत्मा के हिताहित का चिन्तन करते हुए आगे बढता है।-सूरिरामचन्द्र

शुक्रवार, 27 मई 2016

लोक-प्रवाह में न बहें



लीक-लीक गाडी चले, लीक ही चले कपूत।

तीनों लीके ना चले- शायर, सिंह, सपूत।।

लोकवाद की शरण में रहने से धोबी के कुत्ते जैसी दशा होती है। धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का’, उसी प्रकार लोकप्रवाद की शरण में रहने वाला स्वयं न तो अपना सुधार कर सकता है और न दूसरों का सुधार कर सकता है, उसकी तो दोनों ओर अवगति ही होती है। लोक की गति हवा जैसी है, लोग हवा के प्रवाह के साथ चलते हैं। पवन एक दिशा में नहीं बहता है, उसी प्रकार लोग भी एक दिशा का आग्रह नहीं रखते हैं। वे तात्कालिक रूप से सुविधावादी होते हैं। उनको जिस प्रकार का निमित्त मिल जाता है, उसी में ढल जाते हैं। वे प्रायः अनुस्रोतगामी होते हैं और बहाव के साथ बहते हैं। लोकप्रवाद प्रमुखतः हिताहित और तथ्यातथ्य आदि के विवेक पर निर्भर नहीं होता है। इसीलिए कहा जाता है कि केवल लोकवाद के ऊपर से किसी वस्तु का निष्कर्ष निकालना, यह मूर्खता है। लोक में भी कहा जाता है कि दुनिया झुकती है, झुकाने वाला चाहिए’, इसी कारण से इस दुनिया में भयंकर दुराचारी भी आडम्बर से पूज्य माने जाते हैं। दम्भी कुशल हो और उस प्रकार के पुण्य वाला हो तो वह लगभग सम्पूर्ण दुनिया को भी बेवकूफ बना सकता है। इसलिए हवा के साथ नहीं, अपने विवेक से जिनाज्ञा को सामने रखकर चलें।

दशवैकालिक सूत्र की चूलिका में प्रभु महावीर की वाणी है-

अणुसोय-पट्ठिए+बहुजणम्मि पडिसोयलद्धलक्खेणं ।

पडिसोयमेव अप्पा, दायव्वो होउकामेणं ।।

अणुसोयसुहो लोगो, पढिसोओ आसवो सुविहियाणं ।

अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स उत्तारो ।।

तम्हा आयारपरक्कमेण संवर-समाहि-बहुलेणं ।

चरिया गुणा य नियमा य, होंति साहूण दट्ठववा ।।

‘(नदी के जल-प्रवाह में गिर कर प्रवाह के वेग से समुद्र की ओर बहते हुए काष्ठ के समान) बहुत-से लोग अनुस्रोत (विषय प्रवाह के वेग से संसार-समुद्र) की ओर प्रस्थान कर रहे (बहे जा रहे) हैं, किन्तु जो मुक्त होना चाहता है, जिसे प्रतिस्रोत (विषय-भोगों के प्रवाह से विमुख-विपरीत हो कर संयम के प्रवाह) में गति करने का लक्ष्य प्राप्त है, उसे अपनी आत्मा को प्रतिस्रोत की ओर (सांसारिक विषय भोगों के स्रोत से प्रतिकूल) ले जाना चाहिए।

अनुस्रोत (विषय-विकारों के अनुकूल प्रवाह) संसार (जन्म-मरण की परम्परा) है और प्रतिस्रोत उसका उत्तार (जन्म-मरण के पार जाना) है। साधारण संसारी जन को अनुस्रोत चलने में सुख की अनुभूति होती है, किन्तु सुविहित साधुओं के लिए प्रतिस्रोत आस्रव (इन्द्रिय-विजय) होता है।

इसलिए (प्रतिस्रोत की ओर गमन करने के लिए) आचार (-पालन) पराक्रम करके तथा संवर में प्रचुर समाधियुक्त हो कर, साधुओं को अपनी चर्या, गुणों (मूल-उत्तर गुणों) तथा नियमों की ओर दृष्टिपात करना चाहिए।

प्रवाह के साथ गेंडे-भेडें चलती है, केवल मरी मछलियां ही बहाव के साथ बहती हैं। धारा के साथ तो हर कोई सुविधावादी मूर्ख चलता-बहता है। महापुरुष धारा के प्रवाह में नहीं बहते। धारा के विपरीत चल कर अपना एक अलग मुकाम बनाने वाले, अपनी अलग पहचान बनाने वाले बिरले ही महापुरुष होते हैं।-सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 26 मई 2016

आत्म-निन्दा आत्मा की योग्यता



आत्म-निन्दा, यह आत्मा की योग्यता को सूचित करने वाली है, मनुष्य में प्रमादवश या अज्ञानवश पाप हो जाना, यह स्वाभाविक है, किन्तु पाप यदि हृदय में चुभे नहीं तो धर्म को पाने की भी योग्यता चली जाती है। तो धर्म आचरण करने की तो बात ही कहां रही? इसलिए जो कोई स्वयं को धर्म पाने के योग्य बनाने की इच्छा रखता हो अथवा प्राप्त धर्म को स्थिर रखने की इच्छा रखता हो, उनके पाप कम हो जाएं तब तक आत्म-निन्दा करते हुए स्वयं पर धिक्कार की वर्षा करते रहना सीखना चाहिए। इस प्रकार से जो स्वयं के पाप के लिए आत्म-निन्दा का शिक्षण लेते हैं, वे क्रमशः पाप से पीछे हटते जाते हैं। लेकिन, जिनको पाप का भय नहीं होता, पाप की तरफ तिरस्कार नहीं होता, स्वयं की जात को पाप से बचाने की इच्छा नहीं होती और पापकर्म के प्रति जिनके हृदय में घृणा नहीं होती है, वे पाप से बच नहीं सकते हैं, अपितु उल्टे पापमयता में अधिक से अधिक डूबते जाते हैं। बहुत से लोग कहते हैं कि इसमें पाप, उसमें पाप, तो फिर करना क्या?’ सबसे पहले पाप से बचने के लिए हृदय में पाप का भय पैदा करना चाहिए।

पाप का भय और पश्चात्ताप जरूरी

जिस आत्मा को पाप से भय उत्पन्न होगा, वह इसमें पाप, उसमें पापऐसा ज्ञानी पुरुषों के द्वारा कही हुई बातों को सुनने से ऊब नहीं जाता है, अपितु आनंदित होता है। हृदय में जो भय पैदा हुआ होगा तो, ‘पाप! यह आचरण करने लायक वस्तु नहीं है’, ऐसा वास्तविक निर्णय हो जाने के बाद, उस आत्मा को पाप करना भी पडे तो भी वह रसिकता के साथ नहीं करता। पाप होने के बाद भी मन में पश्चाताप करता है। इसके कारण से उसका बंध तीव्र रूप से नहीं होता है और उस पाप से छूटते उसे देर भी नहीं लगती है।

इसीलिए पाप हो जाए तो उसके लिए आत्मा की निन्दा करना सीखना चाहिए। पर-निन्दा से बचना चाहिए और स्व-निन्दा (आत्म-निन्दा) को बढाना चाहिए, प्रोत्साहित करना चाहिए। ऐसा करने पर ही कर्मों की निर्जरा होगी, कषाय समाप्त होंगे, आत्मा पाप से पीछे हटेगी, धर्म को पाने की योग्यता आएगी, शान्ति की ओर गति होगी, आत्मा की निर्मलता, सरलता और पवित्रता बढेगी जो आत्मा को मोक्ष मार्ग का, मुक्ति का पथिक बनाएगी। इसलिए आत्म-निन्दा करना सीखें। यह आत्म-निन्दा सिर्फ औपचारिकता भर न हो, केवल लोक-दिखावा भर न हो, अंतःकरण से हो, तभी इसकी सार्थकता है।-सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 25 मई 2016

आध्यात्मिक क्षति के कारण अशान्ति



आर्यजाति एवं आर्यकुलों में से परलोक का ध्यान तक लुप्त हो जाना क्या आध्यात्मिक दृष्टि से साधारण क्षति है? आर्य यदि अपने आर्यत्व को समक्ष रखकर इस बात पर विचार करें तो वे स्वयं ही अपनी निर्घृण दशा से अवश्य ही कांप उठेंगे, परन्तु इस सब का विचार कौन करे? इस प्रकार के चिन्तन के अभाव से वर्तमान व्यवहार में भी ऐसी कलुषित भावना आई है कि उसके कारण शान्ति ने निष्कासन अपना लिया है और अशान्ति ने घर बना लिया है। आज अहिंसा, सत्य, संयम अथवा तप भी वही सच्चे माने जाते हैं, जो वर्तमान विश्व की मांग और सुविधा के अनुरूप हों। आज अधिकतर जनता को जितनी चिन्ता अपने ऐहिक उदय की है, उसके करोडवें भाग जितनी चिन्ता भी अपने देव, गुरु अथवा धर्म की नहीं है।

जो लोग देव, गुरु और धर्म की शास्त्र-निर्दिष्ट आराधना में श्रद्धा नहीं रखते, वे लोग तो आज इतनी अधिक अधम दशा को पहुंच चुके हैं कि रत्नत्रयी, उसकी आराधना और उसके आराधकों की निंदा करने में ही अपने दुर्लभ मानव जीवन की सार्थकता मानते हैं। उनके योग्य नायक भी उन्हें अनायास ही मिल गए हैं, जो सत्य के नाम पर देव एवं गुरु की आज्ञा से परांगमुख बनकर मति-कल्पना एवं अन्तरध्वनि पर स्थिर होने एवं शास्त्रों व शास्त्रकारों के प्रति अध्ययन किए बिना ही इच्छानुसार आक्षेप करना सिखाते हैं, संयम के नाम पर अनंत उपकारियों द्वारा बाँधी हुई सुन्दरतम मर्यादाओं को उलट कर, किसी प्रकार की रोक-टोक बिना अधमाधम अनाचार सरलता से प्रारम्भ हो सकें, ऐसा बोध देते हैं। क्या यह सब हमें उत्तेजित नहीं करता, खासकर तब, जब वे आचार-विचारहीन होकर धर्म कि जड़ें खोदने पर आमादा हों? -सूरिरामचन्द्र

एक सफेद बाल आते ही संसार छूट जाता



पुण्यशाली मनुष्यों को अपने सिर में केवल एक श्वेत बाल देखने से ही कितना विचार उत्पन्न हो जाता था कि वे सबकुछ छोडकर आत्म-कल्याण के मार्ग पर निकल पडते थे। क्या आज हमारे समक्ष ऐसे व्यक्ति नहीं हैं, जिनके सिर पर एक भी काला बाल दृष्टिगोचर नहीं होता? ऐसे अनेक व्यक्ति हमारे समक्ष हैं, जिनका पूरा सिर सफेद बालों से घिरा हुआ है, फिर भी हम उनकी भावनाओं में किसी भी प्रकार का सुन्दर परिवर्तन नहीं देख पा रहे हैं। कारण क्या है? तनिक सोचो। वर्तमान भयानक वातावरण ने भी धर्म-भावना पर कितना क्रूर प्रहार किया है, इस पर भी विचार करो। स्पष्ट है कि धर्मात्मा कुलों में से उत्तम प्रकार के आचरण नष्ट हो गए हैं, उसका ही यह परिणाम है। आज विचारों को उधार लेकर विचारक बने हुए मनुष्यों ने शुद्ध आचारों की मर्यादा के समक्ष काला वातावरण उपस्थित करके निर्घृण परिस्थिति उत्पन्न की है, अन्यथा आर्यदेश, आर्यजाति और आर्यकुल में उत्पन्न मनुष्यों में यह निर्घृण स्थिति उत्पन्न होनी असंभव थी। आज तो सफेद को डाई कराकर काला करने और जवान दिखने की होड मची है।-सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 23 मई 2016

स्वयं की प्रभावना में लगना नीचता है



स्वयं को सर्वमान्य बनाने के मोह में पडकर शास्त्र की दृष्टि से जिनका मुँह तक देखना पाप हो, उन्हें बात-बात में आगे लाना, शासन के हित को ध्यान में रखकर उन्हें समाज के समक्ष लाने और उनकी पोल खोलने वाले पुण्य-पुरुषों को झगडालू अथवा अशान्ति-प्रिय बताने में अपना सम्मान समझना; यह कितनी दुर्भाग्यपूर्ण और अफसोसजनक बात है। ऐसे व्यक्तियों को कहना पडता है कि स्वयं की प्रभावना भूले बिना आप कदापि शासन की प्रभावना नहीं कर सकेंगे। शासन प्रभावना के नाम पर स्वयं की प्रभावना करने में तल्लीन होना, यह प्रभु-शासन का घोर द्रोह है। शासन के प्रभाव से प्राप्त बडप्पन एवं ख्याति का उपयोग स्वयं की प्रभावना में करने के समान नीचता कोई नहीं है। जिस शासन के कारण उच्च स्थान प्राप्त हुआ हो, उसी शासन के द्रोहियों का स्वार्थ के लिए पोषण करना भी जिन-शासन का महान् द्रोह है।

प्रभु शासन के मर्म को अच्छी तरह जानने की डींग मारकर खोटा और सच्चा स्पष्ट दिखाई देवे, वैसे पक्षों में भी मध्यस्थ होने का कपट या आडम्बर करना, यह भद्रिक जनता के धर्म-धन को लुटाने का निकृष्ट धंधा करके विश्वासघात का महान् पाप करने के तुल्य है। यह बात उन्हें कटु लगेगी अथवा मधुर लगेगी, उसका विचार हमें नहीं करना है, क्योंकि उपकार-भावना से कटु, परन्तु हितकर बात कहने की परम् पुरुषों की हमें आज्ञा है और भारी से भारी जोखिम उठाकर भी यदि हममें शक्ति हो तो उन परम् पुरुषों की तारणहार आज्ञा का पालन करना अपना आवश्यक कर्तव्य है।-सूरिरामचन्द्र

रविवार, 22 मई 2016

आत्मघात राग-द्वेष का घिनौना रूप



पति के अभाव में पतिव्रता स्त्रियों का जीवन प्रायः दुःखी ही होता है, जिससे वे पति के वियोग में शोक के कारण अग्नि में प्रवेश करती हैं, यह कहकर कि "पति के शोक से पतिव्रता स्त्रियों का अग्नि में प्रवेश करना उचित है"। यह कहना भारी अज्ञानता है। पतिव्रता स्त्रियां पतिव्रत धर्म का पालन करें। जहां तक वे पत्नी हैं, तब तक उन्हें अन्य पुरुष को पति के रूप में स्थान नहीं देना चाहिए। उन्हें चाहिए कि वे पति की समस्त शुभ प्रवृत्तियों में मन, वचन और देह से सहायक हों, पति की समस्त विपदाओं को अपनी मानकर उन्हें शान्तिपूर्वक सहन करें और कुमार्ग गामी पति को सुमार्ग गामी बनाने का प्रयत्न करें। पतिव्रता स्त्रियों का यह कर्तव्य है, परन्तु पति की सेवा को ही धर्म मानकर परम् तारणहार परमात्मा की, सद्गुरुओं की और धर्म की सेवा को गौण मानना और पति के पीछे मर जाना, किसी भी प्रकार से धर्म नहीं है। यह तो अज्ञान की चरम सीमा है। पति के शोक में अग्नि में प्रविष्ट होना अज्ञान-मृत्यु है। इस प्रकार की मृत्यु से न तो उसे पति मिलता है और न वह सद्गति ही प्राप्त करती है। ऐसी मृत्यु प्रायः आत्मा को दुर्ध्यान-मग्न बनाकर भयानक दुर्गति में ही धकेलती है।

यही बात उन लोगों से भी कहनी है जो विपरीत संयोगों से घबराकर आत्महत्या, आत्मघात का कदम उठाते हैं, इसमें क्रूरता भी है और कायरता भी। असीम पुण्योदय से प्राप्त मनुष्य जीवन का इस प्रकार सांसारिक कारणों से घात करना, किसी भी रीति से उचित नहीं ठहराया जा सकता, यह राग-द्वेष का सबसे घिनौना रूप है, जो तिर्यंच और नरक गति में ले जाने वाला है।-सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 21 मई 2016

पाप से बचने में प्रयत्नशील रहें



पाप से बचने का प्रयत्न ही वास्तविक कुलीनता है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि आत्मा संसार के त्याग और मोक्ष की साधना में ही प्रयत्नशील रहती है, उसी प्रकार कुलीन आत्मा पाप से बचने के सुप्रयत्न में लीन रहती है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि आत्मा को समस्त संसार कडवा लगता है, उसी प्रकार कुलीन आत्मा को पाप कडवा लगता है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि आत्मा पूर्व के कर्म बंधन के अतिरिक्त संसार में नहीं रह सकती, उसी प्रकार कुलीन आत्मा तीव्र अशुभ उदय के बिना पाप की ओर प्रवृत्त नहीं होती।

जिन आत्माओं ने पाप का भय त्याग दिया है, वे सम्यग्दृष्टि तो हैं ही नहीं, कुलीन भी नहीं हैं, क्योंकि पाप से निर्भीकता के समान अन्य कोई अयोग्यता ही नहीं है। जिस आत्मा को पाप का भय नहीं है, वह आत्मा चाहे जैसी भी हो तो भी अयोग्य ही है। ऐसी आत्मा को तो भगवान का शासन धर्म की अधिकारी भी नहीं मानता। अतः स्पष्ट है कि जो लोग निर्भयता के नाम पर यथेच्छ प्रवृत्तियां चलाते हैं और उन्हें वे धर्म के रूप में प्रकाश में लाते हैं, वे अपने स्वयं के संहारक होने के साथ अज्ञानी लोगों के भी संहारक होते हैं। इस कारण ऐसी संहारक आत्मा की किसी भी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देना अपनी कुलीनता का भी संहार करने जैसा है।-सूरिरामचन्द्र

शुक्रवार, 20 मई 2016

"भगवान की सौगंध"



आज तो ग्राहक को प्रसन्न करने के लिए धर्म की सौगन्ध भी खाई जाती है, यह भी कह दिया जाता है कि "भगवान को मध्य रखकर सत्य बात कह रहा हूं""भगवान की सौगंध" लेकर कोर्ट में झूठी गवाही दे दी जाती है। बताइए यह धर्म का सम्मान है या अपमान? ऐसे में धर्म की प्राप्ति कैसे हो सकती है भला? अनीति करते रहना और कहना कि "समय के अनुसार आवश्यक है"। गलत को समय के नाम पर सत्य बताना क्या ठीक है? साधु लोग यदि अधिक कहेंगे तो वे कह देंगे कि "ये लोग तो उपाश्रय में रहते हैं, इन्हें बाजार की हालत का क्या पता? निर्वाह का धन लाना कहां से?" धर्म कोई बाजारू वस्तु है जो धन के लिए धर्म को बाजार में घसीटा जाए? गलत हथकण्डों से धन प्राप्त करने के लिए धर्म का सहारा लिया जाए?

मैं कहता हूं कि जब तक इस प्रकार की मान्यता है, तब तक धर्म हृदय में प्रविष्ट नहीं होगा। धर्म को बाजार में न घसीटो। आपकी यह मान्यता दृढ होनी चाहिए कि "कम धन की प्राप्ति होगी तो कम ही सही, परन्तु पाप तो नहीं होगा, उसके लिए धर्म की आड तो नहीं ही ली जाएगी।" यह मान्यता यदि आपके हृदय में दृढ हो जाए तो काम हो जाए। धर्मनिष्ठ मनुष्यों के हृदय में पाप पर सद्भाव तो होना ही नहीं चाहिए।-सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 19 मई 2016

जर, जमीन और जोरू, ये तीनों कजिया के छोरू



"जर, जमीन और जोरू, ये तीनों कजिया के छोरू"। जर यानी धनमाल, जमीन यानी भूमि, मकान आदि और जोरू यानी स्त्री; ये तीनों झगड़े के कारण हैं। इनके संसर्ग में रहकर शान्ति की बात करना निरर्थक है। जर, जमीन और जोरू का मोह शान्त होना बहुत मुश्किल होता है। ये तीनों भयंकर विषय-कषाय के कारण हैं और दुर्गति में ले जाने वाले हैं, लेकिन जमानावादी इन्हीं में मस्त और मशगूल रहते हैं। संसार में मस्त रहने वाली आत्माओं को दुर्गति में ले जाने वाले कार्यों से भी आनन्द होता है। इन तीनों पौद्गलिक वस्तुओं की ममता छुडवाने के लिए तीर्थ की स्थापना है। लेकिन, पौद्गलिक लालसाओं में सडने वाली आत्माएं वास्तविक भक्ति कर ही नहीं सकती। उन आत्माओं को यह ज्ञान ही नहीं होता कि भक्ति का उत्कर्ष किस बात में है और अपकर्ष किस बात में है? संसार में मग्न, भोगों में आसक्त और एकान्त विषयों के अधीन बनी आत्माओं को यह ध्यान ही नहीं रहता। अतः यदि धर्मात्मा बनना चाहो तो अधर्म को खोटा मानना सीखो। धर्मपरायण होना हो तो पाप को पाप समझो। अधर्म का त्याग किए बिना हृदय में धर्म नहीं आ सकता। जब तक आप पाप को पाप नहीं मानेंगे, तब तक पुण्य कार्य के प्रति आपके हृदय में सच्चा प्रेम उत्पन्न नहीं होगा। यदि पाप को पाप मानते हो तो संसार की कोई भी वस्तु आपको व्याकुल नहीं कर सकेगी।-सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 18 मई 2016

तुच्छ वस्तुओं के पीछे आत्मा बर्बाद न हो



संसार का यश तो तुच्छ वस्तु है। मिला तो भी क्या और न मिला तो भी क्या? हमें मान-सम्मान की अभिलाषा ही नहीं रखनी चाहिए। ऐसी तुच्छ वस्तुओं के पीछे आत्मा बर्बाद न हो जाए, इसके लिए इस जीवन में अधिकतम आराधना करने के लक्ष्य वाला बनना चाहिए। हम स्वयं शुद्ध हैं अथवा नहीं, यह अवश्य देखना चाहिए। हम स्वयं सन्मार्ग पर हैं अथवा नहीं, उसका ध्यान रखने में तनिक भी उपेक्षा नहीं आने देनी चाहिए। हम सन्मार्ग पर हों, शुद्ध रहने के लिए प्रयत्नशील हों, केवल स्व-पर कल्याण के आशय से ही कार्य कर रहे हों, फिर भी गालियां सुननी पडे, कष्ट सहने पडें, तो उसका सत्कार करें। परिणाम में एकांत लाभ ही होता है। भक्ष्याभक्ष्य के एवं शील-मर्यादा आदि के उत्तम आचार-विचार दिन-प्रतिदिन खत्म होते जा रहे हैं। अभक्ष्य व अनंत काय का उपयोग अधिक होता जा रहा है। अभक्ष्य एवं अनंत काय का उपयोग उच्च कुलों में नहीं होना चाहिए, ऐसी-ऐसी बातें कोई करे तो उसकी भी मजाक की जाती है। शील-मर्यादा-विषयक उत्तम आचार छोडने के विरूद्ध हित शिक्षा दी जाए तो उन्हें यह कहने में भी लज्जा नहीं आती कि इन्हें जमाने का होंश नहीं है। सभी लोग ऐसे हो गए हों, यह बात नहीं है। कतिपय कुलों में अभी भी उत्तम आचार-विचार कायम हैं, परन्तु ऐसा अत्यंत अल्प प्रमाण में है। जडवाद की हवा का वेग इतने प्रमाण में है कि यदि उसके समक्ष सचेत न रह सके तो आत्महित का नाश हुए बिना नहीं रहेगा।-सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 17 मई 2016

संतान धर्महीन न बन जाए!



आज उत्तम कुल के संस्कार कितने अधिक नष्ट हो गए हैं? घर के मुखिये को घर का कोई भी व्यक्ति आराधना से वंचित रह न जाए उसकी चिन्ता हो, ऐसे घर कितने हैं? आपको अपना पुत्र इज्जतदार, पेढीदार या धनवान बनाने की जितनी चिन्ता है, उतनी ही चिन्ता वह धर्म का आराधक बने इस बात की है क्या? पुत्र पेढीदार अथवा धनवान न बन पाए, उसमें अधिक हानि और चिन्ता है या वह धर्महीन बनकर इस मंहगे जीवन को नष्ट कर दुर्गति के कर्मों का बंध करे, उसमें अधिक हानि और चिन्ता है? पुत्र पूजा, सामायिक आदि न करे तो उसके लिए कितना खटकता है और विद्यालय अथवा दुकान पर न जाए तो उसके लिए कितना खटकता है? सचमुच, आज पारस्परिक सच्ची कल्याण भावना लुप्त होती जा रही है। आज तो प्रायः यह दशा है कि पिता, पुत्र, माता, भगिनी आदि संबंधी एवं स्नेही परस्पर आत्मा के शत्रु रूप बने हैं। इन आत्माओं की क्या दशा होगी, यहां से मृत्यु के पश्चात उनकी क्या गति होगी, उन्हें धर्म पुनः कब प्राप्त होगा और कब वह जन्म-मरण आदि के इन अनन्त काल से भोगे जाते दुःखों से मुक्त होंगे? इस प्रकार के वास्तविक कल्याणकारी विचार करने का भाव तो आज प्रायः नष्ट हो गया है।-सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 16 मई 2016

वेशधारी वंचक शासन के लिए खतरनाक



आज वेशधारी वंचक लाखों रुपयों का व्यय उन्मार्ग की पुष्टि में करवा रहे हैं। अधर्म में भी धर्म मनवा कर वेशधारी वंचक उदार एवं विवेकी श्रावकों के धन का भी पानी करवा रहे हैं। जो क्षेत्र आज अभावग्रस्त हैं और जिन सुक्षेत्रों की पुष्टि एवं वृद्धि के लिए आज बहुत कुछ करने की जरूरत है, उन सुक्षेत्रों की ओर वेशधारी वंचक उदार श्रावकों के हृदय में अरुचि उत्पन्न कर रहे हैं और अपनी ख्याति आदि के लिए धर्म के नाम पर कितना ही धन व्यय करवा रहे हैं। इस प्रकार भी श्री जैन शासन पर आक्रमण करने वाले पुष्ट बनें और बढें, उन वेशधारी वंचकों की जय-जयकार होती रहे, ऐसा भी आज बहुत-बहुत हो रहा है। यह कतई उचित नहीं है। धन का व्यय करने वाला यदि धर्म के, शासन के लिए समर्पण की भावना से अनुप्रेरित होकर कर रहा है तो यह उसकी भावनाओं का शोषण है, इसमें शासन की हानि है। वेशधारी वंचक शासन को हानि पहुंचाने वाले हैं और आराधना के कार्य में विक्षेप डालने वाले हैं। भगवान की अनुपस्थिति में रक्षक तो वे ही हैं न? वे रक्षक ही भक्षक बन जाएं तो भयानक अनर्थ मचेगा ही, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। कोतवालों के वेश में चोर बने साधुओं से शासन श्रेष्ठ कैसे रह सकता है? जो पुण्यात्मा चकोर बनकर विराधना से बचेंगे और आराधना में तत्पर बनेंगे, वे इस काल में भी अपना कल्याण सर्वोत्तम प्रकार से कर सकेंगे, बाकी तो जिसका जैसा भाग्य!

वेशधारी वंचकों से सावधान

इस काल की महिमा यह है कि आज साधु वेशधारी वंचक शीथिलाचारी बहुसंख्यक हो गए हैं। जिस शासन के नाम पर ये मौज करते हैं, जिस शासन के नाम पर ये मान-सम्मान का उपभोग करते हैं, जिस शासन के नाम पर ये लोगों में पूजे जाते हैं और जिस शासन के नाम पर ये संसार में गुरु बने घूमते हैं; उसी शासन के लिए ये वंचक शत्रु का कार्य करते हैं। जिनकी ओर से शासन की प्रभावना की आशा कर सकते हैं, वे ही शासन की बदनामी करते हैं. वेशधारियों के पाप से कतिपय आत्मा सन्मार्ग से च्युत हो जाएंगे और वे उन्मार्ग पर बढ जाएंगे। ऐसे समय में कल्याणार्थियों को तो अधिकाधिक सावधान होना चाहिए। अशक्ति के कारण आराधना कम-अधिक हो, उसकी वैसी चिन्ता नहीं है, परन्तु आराधना के मार्ग से भ्रष्ट न हो जाएं, इसकी तो पूर्ण सावधानी रखनी चाहिए। जहां तक हो सके वहां तक आराधना अधिक करने की भावना तो सम्यग्दृष्टि की होती ही है, परन्तु किसी वंचक के जाल में फंसकर मार्ग न चूक जाएं, यह विशेष संभालने योग्य है।-सूरिरामचन्द्र

रविवार, 15 मई 2016

पुरुषार्थ तो केवल धर्म में ही करणीय



संसार में चार पुरुषार्थ कहे गए हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इनमें सबसे पहला स्थान धर्म का है। धर्म से ही अर्थ, काम या मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसलिए करने जैसा पुरुषार्थ एक ही है, धर्म। सवाल यह है कि आप धर्म किस अपेक्षा से कर रहे हैं? अर्थ-काम की प्राप्ति के लिए या मोक्ष प्राप्ति के लिए? कदाचित आप धर्म नहीं कर रहे हैं, तब आपको जो अर्थ और काम की शक्ति प्राप्त है, वह पूर्व जन्मों के अर्जित पुण्य के फलस्वरूप है और उसी अर्थ व काम को बढाने के लिए ही पुरुषार्थ है, तो उसकी प्राप्ति की सीमा वहीं तक है, जहां तक आपका पूर्व कृत पुण्य शेष है, जिस दिन आपका पुण्य का खाता पूरा हो गया, सारा खेल खत्म और फिर महादुःख का प्रारम्भ तय है। लेकिन, यदि आप धर्म भी साथ-साथ कर रहे हैं, तब यह सवाल खडा होगा कि यह धर्म आप किस अपेक्षा से कर रहे हैं? अर्थ, काम आदि लौकिक सुखों की प्राप्ति के लिए या देवगति और स्वर्गीय सुख प्राप्ति की कामना से किए गए धर्म से भी पुण्य तो अर्जित होता है, लेकिन यह पापानुबंधी पुण्य है। इससे कदाचित् आपको अर्थ, काम या देवगति तो प्राप्त हो जाएंगे, लेकिन जुगनू की चमक की तरह। पहले सुखाभास और फिर महादुःख! यह विष मिश्रित दूध की तरह है, जिसमें मिश्री और बादाम आदि हैं और पीने में स्वादिष्ट लगता है, किन्तु विष का प्रभाव होते ही महावेदना और मौत होती है। अर्थ-काम अनर्थकारी हैं, इनके लिए धर्म नहीं होता, धर्म तो मोक्ष का साधन है। मोक्ष की भावना से या निराशंस भाव से धर्म करने का ही ज्ञानी विधान करते हैं।-सूरिरामचन्द्र