अज्ञानी आत्माएं पाखण्डी एवं स्वार्थी मनुष्यों के जाल में फंसने के कारण महान
भयानक पाप को भी धर्म मान लेती है और धर्म के नाम पर अनेक प्रकार के हिंसादि घृणित
कार्य प्रारम्भ करती है। ऐसे मनुष्यों को यदि पाप-मार्ग से कोई उबारना चाहे और
सत्य का ज्ञान कराना चाहे तो वह भी उन पापात्माओं से सहन नहीं होता। सत्य का ज्ञान
कराने के लिए उपकारी पुरुष कठोर शब्दों का प्रयोग भी करते हैं और उसके लिए उन्हें
अनेक कष्ट सहन करने पडते हैं। सच्चा धर्म-प्रेमी मनुष्य धर्म की रक्षा के लिए अपनी
ताकत का उपयोग करने में लेशमात्र भी प्रमाद अथवा उपेक्षा नहीं करता और उसी में
उसके धर्म-प्रेम की कसौटी होती है। जिन्हें जैन शासन के प्रति प्रेम नहीं है वे तो
बात-बात में यह कह देते हैं कि ‘होगा, जो करेगा वो भरेगा, हम
क्यों व्यर्थ समय नष्ट करें?’ ‘चलने दो’ अपने को क्या करना है, ऐसे
मंद विचारों और लापरवाही से समाज सड जाता है। शासन का सच्चा प्रेमी तो ऐसे समय पर
शान्त बैठा रह ही नहीं सकता।-सूरिरामचन्द्र
शनिवार, 30 अप्रैल 2016
शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016
भक्ति में हृदय का रस प्रवाहित होना चाहिए
गीत तो सभी गाते हैं,
परन्तु जिस गीत में हृदय का रस प्रवाहित होता हो, उस
गीत का आनंद निराला ही होता है, चाहे गले में मधुरता न भी हो। हृदय की
भक्ति के प्रत्येक शब्द में रस प्रवाहित होता है। जिन-भक्ति करते समय भला वैराग्य
का रस क्यों न प्रवाहित हो?
अपूर्व आराधनाओं के कारण जो आत्माएं तीर्थंकरों के रूप में
अवतरित हुई, अपूर्व दान देकर निर्ग्रन्थ बनीं, घोर तपस्याएं की और अनेक
भयानक उपसर्गों व परिषहों के समय भी अपने मूल स्वरूप में स्थिर रहकर केवलज्ञान
प्राप्त किया और मुक्ति-पद प्राप्त किया, उन आत्माओं के समक्ष बैठकर
भक्तिपूर्ण हृदय से स्तवन करते हुए आत्मा में कैसी-कैसी ऊर्मियें उठनी चाहिए, इस
पर तनिक विचार करो।
गृहस्थ जीवन में जाँचकर देखो कि जहां हमारा स्वार्थ होता है, वहां
विनय और भक्ति करना सबको आता है। संसार के अनुभव का उपयोग करना यहां सीख जाओ तो
कार्य हो सकता है। गुण तो विद्यमान हैं, सिखाने की आवश्यकता नहीं है, परन्तु
जो प्रवाह पश्चिम की ओर हो रहा है, उसे पूर्व की ओर मोडो। आप में
गुण, योग्यता,
शक्ति सबकुछ है, परन्तु वह सब इस ओर मोडने की
आवश्यकता है। बताइए,
आप यह चाहते हैं क्या? क्या आप चाहते हैं कि आपके
गुण आदि का पथ मोडने वाला कोई मिले? यदि कोई प्रवाह को मोड दे तो
आपको आनन्द प्राप्त होगा या नहीं? कल्याण की कामना करने वाले व्यक्ति को ऐसा
आनन्द अवश्य होना चाहिए। आत्म-गुणों का विकास हो गया तो देवता भी आपको नमस्कार
करेंगे ही।-सूरिरामचन्द्र
गुरुवार, 28 अप्रैल 2016
धर्मपरायण को देवता भी नमन करते हैं
मधुर स्वर में,
किसी को खलल न हो ऐसे स्वर से, गम्भीर
अर्थपूर्ण स्तवन,
पूरी तन्मयता और हृदय के उल्लास से भगवान के समक्ष गाने
चाहिए कि जिससे दोषों का पश्चाताप टपक पडे और भगवान के गुण आविर्भूत हों। इस
प्रकार आत्मा दोषों से पीछे हटती है, यानी जिनालय से बाहर जाने पर
वह पुनः पूर्ववत् विषयों एवं कषायों में अनुरक्त नहीं होती। हृदय की उमंग के साथ
वास्तविक भक्ति तो सचमुच मनुष्य ही कर सकते हैं। देवतागण विषयों एवं कषायों के
अधीन रहते हैं और उस प्रकार की सामग्री से प्रतिपल घिरे हुए रहते हैं, इसलिए
जितनी उच्च कोटि की भक्ति मनुष्य कर सकते हैं, उतनी उच्च कोटि की भक्ति
देवता नहीं कर सकते।
देवता लोग अरिहंत परमात्मा के कल्याणक महोत्सव मनाने आते हैं, तब
भी वे मूल रूप में नहीं आते, बल्कि उत्तरगुण ही आते हैं। समस्त सामग्री
से विलग होकर वास्तविक ‘निसीहि’ से जैसी श्रेष्ठ भक्ति मनुष्य कर सकते हैं, वैसी भक्ति देवता लोग नहींरूप
से कर सकते हैं,
इसलिए देवता भी धर्म-परायण मनुष्यों को नमस्कार करते हैं।-सूरिरामचन्द्र
बुधवार, 27 अप्रैल 2016
दुःख को सहें और सुख में लिप्त न हों
हम आपको सहलाने या बहलाने के लिए पाट पर नहीं बैठते, अपितु
आपको चेताने के लिए पाट पर बैठते हैं। नहीं चेतोगे तो नहीं जाने कहां फेंक दिए
जाओगे? यह संसार बहुत लम्बा-चौडा है। दुनिया बिना पैसे वालों पर दया खाती है, परन्तु
मुझे पैसे वालों पर दया आती है कि उनकी क्या दशा होगी? सुख
के लोभ से आज कुछ कम खराबियां पैदा नहीं हुई है। बडे गिने जाने वाले लोग आज पैसे
के पीछे मरने-मारने को तैयार हैं और पैसे से वे खरीदे जा सकते हैं। यह है उनकी
स्थिति!
दुःख को सहन करना सीखना भी धर्म है। दुःख को निकालने का प्रयास करने से दुःख
जाता नहीं है। कदाचित् चला जाए तो वापस आएगा ही। लेनदार आए और उसे आप धकेल दो तो
भी वह पांचवें दिन फिर आएगा ही। शक्ति वाला तो देना चुकाकर ही उसे वापस भेजता है, जिससे
दुबारा उसका मुँह न देखना पडे। इसी तरह शक्ति हो तो दुःख को सहन कर ही लेना चाहिए।
शक्ति होने पर भी दुःख सहन न करना और सुख की सामग्री मिले तो आवश्यकता न होने पर
भी उसका उपयोग करना,
इतना ही नहीं, अपितु पाप करके भी उस सामग्री
को प्राप्त करना,
ऐसी स्थिति में धर्म हममें प्रवेश कैसे कर सकता है? भौतिक
सुख आशीर्वाद नहीं,
वह तो अभिशाप है। कर्मराजा जिसे दुर्गति में डालकर दुःखी
करना चाहता है,
उसे वह पहले सुख में सुला देता है।-सूरिरामचन्द्र
मंगलवार, 26 अप्रैल 2016
संसार सामग्री पर राग पापोदय
संसार जिसको बुरा लगता है और मोक्ष जिसको अच्छा लगता है, वही
महात्मा कहा जाता है। उसके तीनों योग अवंचक होते हैं। उसको धर्म सामग्री ही अच्छी
लगती है, संसार सामग्री नहीं। वह न दूसरे को छलता है और न अपनी आत्मा को।
आपको धर्म सामग्री का योग तो मिल गया है, परन्तु उसकी कीमत आपने नहीं
समझी है। गृहस्थ के लिए हैसियत के अनुपात में धर्म सामग्री में जितना अधिक पैसा
खर्च हो, वह पहले नम्बर पर है। उससे ही धर्म की सामग्री रुचने का माप निकलता है।
श्रीमंत गृहस्थ पैसे बचाकर धर्म करना चाहता हो तो वह वास्तविक रूप में धर्म करता
ही नहीं है। योग की अवंचकता आते ही जीव का संसार-सामग्री के प्रति आकर्षण मिटकर, धर्म
सामग्री के प्रति आकर्षण पैदा हो जाता है। अब तक जीव का संसार-सामग्री के प्रति
आकर्षण था, उसमें जब बाधा पडती है,
तब उसे साधने के लिए ही उसे धर्म-सामग्री की आवश्यकता महसूस
होती है, अन्यथा नहीं;
परन्तु यह अवंचकता आते ही उसकी स्थिति बदल जाती है। संसार
की सामग्री पर राग होता है,
तब उसे अपना पापोदय लगता है? -सूरिरामचन्द्र
सोमवार, 25 अप्रैल 2016
संसार के सुख ही दुःख का कारण
इस संसार में सुख नाम का एक ऐसा कसाई है, जो अपनी शरण में आए हुए
व्यक्ति से अनेक पाप करवाकर उसे नरकादि में धकेल देता है। संसारी सुख एक ऐसा शत्रु
है, जो व्यक्ति का स्वागत करके उसको दुःख के गर्त में पटक देता है। वैसे ऊपरी तौर
पर देखने से पुण्य अच्छा प्रतीत होता है, परन्तु भौतिक (दुनियावी) सुख
के लिए बांधा गया पुण्य भी बहुत खराब है। संसार में जो सुख हैं, वही
आपको संसार में भटकाते रहते हैं। संसार के सुख ही आपके दुःख का कारण हैं। धर्म
करने वालों के लिए यह आधारभूत ज्ञान है। आपका पुण्य आज आपको पाप में ही प्रायः
सहायक बन रहा है। इसीलिए तो आज आप घर में या बंगलों में आराम से बैठे हैं। यदि ऐसा
न होता तो आज के अधिकांश लोगों का स्थान जेल में होता। आपके कर्म से सत्ता भी ऐसी
है कि जो अयोग्य की ही सहायता करती है; अच्छे और प्रामाणिक लोग तो आज
पिसा रहे हैं।
आपको देव,
गुरु, धर्म का योग मिलने पर भी आज आपकी दशा ऐसी
है कि आप अधिकांश में योगवंचक, क्रियावंचक और फलवंचक बने हुए हैं। आप देव, गुरु, धर्म
के आसपास चक्कर लगाते हैं,
परन्तु यह संसार बढाने के लिए या संसार की ममता उतारने के
लिए? योग न मिलना जिस प्रकार योगवंचकता है, वैसे ही योग मिलने पर भी उसका
उपयोग न करना,
यह भी योगवंचकता है। इतना ही नहीं, यह
अपने आपको धोखा देना है। अपनी आत्मा के साथ छलावा है।-सूरिरामचन्द्र
रविवार, 24 अप्रैल 2016
धर्म, भावों की निर्मलता पर आधारित है
भावनाओं का आज टोटा हो गया है। दान, शील और तप में भी आज आडम्बर, दिखावा, प्रदर्शन
और स्वार्थ घुस गया है। भौतिक आकाँक्षाएं इसमें घुस गई हैं। विशुद्ध रूप से
कर्म-क्षय और मोक्ष प्राप्ति की एक मात्र भावना आज तिरोहित हो गई है, क्योंकि
धर्म का सही स्वरूप लोग नहीं जानते। धर्म बहुत मंहगी वस्तु है। मांगने आने पर इसकी
कीमत समझाकर देने जैसी यह चीज है। परन्तु आजकल तो प्रायः धर्म का नीलाम हो रहा है।
नीलामी में रुपयों का माल पैसे में बिकता है। ऐसी अधोदशा आज धर्म की हो रही है, इसका
हमें अपार दुःख है। आज देश का उद्धार नहीं, अधःपतन हो रहा है। शक्ति
(हैसियत) बढने के साथ आपके घरों में मौज-शौक के साधन तो बढते ही जाते हैं, परन्तु
धर्म के साधन बढते हुए कहीं नजर नहीं आते हैं। बढेंगे कहां से जब तक कि मोक्ष पाने
की प्रबल भावना और प्रयास नहीं हों? मोक्ष की इच्छा/भावना जहां तक
न हो, वहां तक सब धर्म भी औपचारिक, अधर्मरूप ही बनते हैं। अन्तर
इतना ही है कि अधर्म सीधा दुःख देता है, जबकि प्रबल भाव रहित धर्म
थोडा पुण्य बंध कराकर उस पुण्य के उदयकाल में महापाप का बंध कराकर, बाद
में भारी दुःख देता है। धर्म-अधर्म सब प्रायः भावों की निर्मलता के आधार पर होते
हैं और भावों की तरतमता,
प्रगाढता के आधार पर ही परिणामों की तरतमता, प्रगाढता
होती है।-सूरिरामचन्द्र
शनिवार, 23 अप्रैल 2016
मन के परिणाम पवित्र रखें
धर्म के चार प्रकार बताए गए हैं : दान, शील, तप
और भाव! इन चारों को आप धर्म मानते हैं? यदि इन्हें आप धर्म मानते हैं, तो
धन, भोग, आहार और संसार की सब इच्छाओं को अधर्म मानना ही पडेगा। इन चारों में भी ‘भाव’ सबसे
प्रमुख है। भाव अर्थात् मन का पवित्र परिणाम! शालिभद्र ने ग्वाले के भव में जिस
भाव से दान दिया था,
उस ग्वाल-बाल जैसी भी आपकी मनोदशा नहीं है। जिसे किसी दूसरे
का लेने में आनंद आता है,
उसमें तो उस ग्वाले के लडके का नाम लेने की पात्रता भी नहीं
है। आपका दान हमें दान नहीं लगता। नहीं तो साधु को दूध बहोराने वाला, भगवान
के अभिषेक के लिए दूध क्यों नहीं भेजे? आपका दूध लेते समय तो हमें
घबराहट होती है। इस बहोराने के पीछे रहे हुए कारण को, भाव
को प्रकट करो तो मालूम हो कि आपका दान, दान है या नहीं? दान, शील
और तप ये तीनों भाव सहित होने चाहिए। भाव रहित होने पर ये तीनों निरर्थक हैं, इतना
ही नहीं, अपितु संसार बढाने वाले हैं। दान, शील और तप; चाहे देशविरति
संबंधी हों या सर्वविरति संबंधी, इनमें भाव के मिलने पर ही ये सफल होते
हैं। भाव के प्रभाव से ही ये धर्म, धर्म बन सकते हैं।-सूरिरामचन्द्र
शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016
नव कर्तव्यों का पालन करें
शास्त्रकारों ने,
तत्त्वज्ञानी महापुरुषों ने, विश्व के जीव मात्र का
भला चाहने वालों ने यह उपदेश दिया है कि संसार की नाशवंत वस्तुओं को एक न एक दिन
तो छोडना ही पडेगा,
यह निश्चित है, इसलिए तुम इन्हें स्वयं ही
क्यों न छोड दो?
यदि न छोड सको तो कम से कम अपने नव कर्त्तव्यों का पालन तो
अवश्य करो ताकि शान्तिपूर्वक जी सको, शान्तिपूर्वक मर सको और बाद
के भव में भी क्रमशः आत्मा का श्रेयः साध सको।
इसके लिए प्रथमतः परमात्मा द्वारा निषेधित कार्य नहीं करने का संकल्प करें।
दूसरा, सभी जीवों के प्रति करुणाभाव रखें। तीसरा, यथाशक्ति दान करें। अनंत
ज्ञानियों द्वारा संसार सागर से पार होने के लिए दर्शित मार्ग की प्ररूपणा करने
वाले शास्त्रों का श्रद्धापूर्वक श्रवण करना, यह चौथा कर्त्तव्य है।
पांचवां, पूर्व में कृत और वर्तमान में हो रहे पापों को नष्ट करने के लिए पश्चात्ताप
करें। छठा, विषय-कषायरूप भव की भीति, अर्थात् संसार का डर। आत्मा के शुद्ध
स्वरूप के प्रकटीकरण हेतु मुक्ति मार्ग का अनुराग सातवां कर्त्तव्य है। सत्पुरुषों
का संसर्ग करना आठवां कर्त्तव्य है। और नवां, विषयों से विरक्त बनने का
प्रयास करें।-सूरिरामचन्द्र
गुरुवार, 21 अप्रैल 2016
विषयाभिलाषा की बढती तीव्रता
ज्ञानी पुरुषों ने ब्रह्मचर्य की नौ बाडों का वर्णन किया है। माता और बहन के
साथ भी युवा पुत्र या भाई को एकान्त में नहीं रहना चाहिए। यह जरूरी नहीं कि
प्रत्येक का इस प्रकार पतन हो, परन्तु ये भी पतन की ओर ले जाने वाले
संयोग उत्पन्न कर सकते हैं। आज तो इस विषय में अनेक अमर्यादाएं बढ रही है, इसका
कारण है विषयाभिलाषा की तीव्रता। जवान लडके और लडकियां आज जिस छूट-छाट को भोगने के
लिए ललचा रहे हैं,
उनके कितने गंभीर परिणाम आते हैं? इसका
विचार सबको करना चाहिए। सिनेमा आदि विषय-विकारों को बढाने वाले संसाधन आज बढते ही
जा रहे हैं। आज की शिक्षा भी इस आग में घी का काम कर रही है। विषय-वासना के कारणों
ने आज विवाह संबंधी प्रश्नों को भी विकट बना दिया है। पहले तो मां-बाप समान कुल, शील
आदि देखकर विवाह करते थे और विवाहित बच्चे भी संतोष से जीवन व्यतीत करते थे। आज
विषय-वासनाएं बढ गई है और इसलिए पति-पत्नी में मनमेल भी नहीं रहता। प्रेम-विवाह के
नाम पर भी अनेक अनाचार चल रहे हैं और इन सभी स्थितियों में तलाक की आँधी चल रही
है। पतन की ये परिस्थितियां घर-परिवार-समाज सबको तोड रही है। क्या आर्य देश में
ऐसा होना चाहिए?
ब्रह्मचर्य तो ऐसा गुण है कि उसके बिना अन्य कोई गुण शोभित
ही नहीं हो सकता और न ही स्थिरता को प्राप्त कर सकता है।-सूरिरामचन्द्र
बुधवार, 20 अप्रैल 2016
मन को विषय-वासना का घर न बनाएं
विषय सुख की वासना अच्छे-अच्छे आदमियों को भी हैवान एवं पाप से डरने वालों को
भी पापासक्त बना सकती है। साधु पुरुषों के लिए तो काम-भावना के उद्देश्य से इन्द्रियों
का यत्किंचित विचार भी धिक्कार और दोष रूप होता है। उन्हें तो मन, वचन, काया
से सर्व प्रकार के सम्भोगों का त्याग ही करना होता है। गृहस्थों में जो सर्वथा
ब्रह्मचर्य पालन करने में अशक्त होते हैं, ऐसे गृहस्थों को पर-स्त्री
मात्र का त्याग करना चाहिए तथा अपनी विवाहिता स्त्री में ही संतोष वाले बनना
चाहिए।
परस्त्री से विमुखता और स्वस्त्री से संतोष यह दो बातें गृहस्थ के रूप में
उत्तम ब्रह्मचारी बनाने वाली मानी गई है। सच तो यह है कि गृहस्थ को भी विषय सेवन
के प्रति ग्लानि होनी चाहिए। गृहस्थ को अपनी दृष्टि ऐसी निर्मल बनानी चाहिए कि कोई
भी स्त्री नजर में आए तो उसके मन में विकार उत्पन्न न हो। अपनी पत्नी में भी काम
का रंग चढाने की वृत्ति नहीं होनी चाहिए। वेदोदय रूप रोग के कारण यदि सहवास के
बिना असमर्थ हो जाए तो बने जिस प्रकार रोगी दवा लेता है, उस
प्रकार गृहस्थ भोग को भोगे,
परन्तु मन को विषय-वासना का घर न बनने दे।-सूरिरामचन्द्र
मंगलवार, 19 अप्रैल 2016
चारों ओर चोर ही चोर
धन का लोभी व्यक्ति,
लूट-खसोट करता है। एक दूसरे को लूटता है। परिग्रह में आसक्त
होता है। फिर वह परिग्रही चित्त वाला व्यक्ति, आसक्ति वाला व्यक्ति छः
काय-जीवों की विराधना करता है। हिंसादि में दौडता है। वह, यह
सब कुछ किसलिए करता है?
वह व्यक्ति ये सब कुछ पाप करता हुआ सोचता है कि इससे मेरा
मनोबल बढ जाएगा,
आत्मबल बढ जाएगा और मेरे पास का संग्रह-परिग्रह अधिक हो
जाएगा तो फिर मेरा मित्र-बल भी बढ जाएगा, मेरा देव-बल बढ जाएगा, मेरा
राजबल बढ जाएगा और गिनाते-गिनाते वह पाप कार्य में आसक्त व्यक्ति कहता है, सोचता
है कि मेरा चोर-बल भी बढ जाएगा।
जो जितना ज्यादा परिग्रही, वह उतना ही बडा चोर। अब वह व्यक्ति धन्धे
भी तो कैसे करता है?
चोरी के धन्धे, तस्करी के धन्धे करता है।
कालाबाजारी, ब्लेकमेल के धन्धे,
(रिश्वतखोरी, भ्रष्ट कर्म) तो वह करता ही
है और यह धन्धा सरकार से छुप-छुप कर किया जाता है, तो यह भी तो अपने आप
में एक प्रकार की चोरी ही है। इस दुनिया में चारों ओर चोर ही चोर हैं। वह परिग्रही
व्यक्ति अपने परिग्रह के बूते पर समाज में अपना मान-सम्मान बढा लेता है। समाज में
उसकी प्रतिष्ठा बढ जाती है। फिर उसे लोग अपने यहां आमंत्रित करते हैं और उसके यहां
भी आने-जाने वाले व्यक्तियों की संख्या बढ जाती है। वह मिथ्यात्व में जीता है और
नरक का मेहमान बनता है। ऐसे व्यक्ति प्रशंसा-पात्र नहीं होते, यह
सम्यक्त्व में दोष है।-सूरिरामचन्द्र
सोमवार, 18 अप्रैल 2016
सावधान ! मर्यादाएं टूट रही हैं !
जब मर्यादा टूटती है तो विनाश आता है। नदी-नाले भी जब तक मर्यादा में बहते हैं, तब
तक तो अच्छे लगते हैं। किनारों के बीच बहते रहते हैं, तब
तक तो खेतों को पानी देते हैं, उन्हें हरियाली से भर देते हैं।
खेतों-खलिहानों को लहलहाता बनाकर मनुष्यों को भी खुशहाली से, प्रसन्नता
से भर देते हैं,
लेकिन वे ही नदी-नाले जब मर्यादाएं छोड देते हैं, मर्यादा
से बाहर बहने लगते हैं तो क्या होता है? बाढ आ जाती है, विनाश-लीला
सामने खडी हो जाती है। हजारों घर पानी में डूब जाते हैं। चारों ओर तबाही का आलम ही
नजर आता है।
माता-पिता की पुत्र के प्रति क्या मर्यादा होती है? पुत्र
की माता-पिता के प्रति क्या मर्यादा होती है? एक गुरु का शिष्य के प्रति
क्या कर्त्तव्य होता है?
शिष्य का गुरु के प्रति क्या कर्त्तव्य होता है? इन
सारी बातों का पालन आज कौन कर रहा है? और कहां कर रहा है? खान-पान, रहन-सहन
आदि हर चीज में मर्यादा की जरूरत होती है। लेकिन, आज सभी ओर मर्यादाएं
टूट रही हैं। अमर्यादित जीवनशैली ने समाज में कई तरह के संकट पैदा कर दिए हैं।
वीतरागता का नाम लेकर आज हम अनेकों मर्यादाओं को लांघते जा रहे हैं। अपनी संस्कृति
को छोडते चले जा रहे हैं। जीवन से एक मर्यादा भी अगर जाती है, अथवा
भंग होती है तो उसके साथ-साथ सारी मर्यादाएं धराशायी हो जाती हैं और जब जीवन
मर्यादा विहीन हो जाता है,
तो महाविनाश होता है।-सूरिरामचन्द्र
रविवार, 17 अप्रैल 2016
जीवन को सही रूप में समझें
भौतिक सुख एक उत्तेजना है, और दुःख भी। प्रीतिकर उत्तेजना को सुख और अप्रीतिकर
को हम दुःख कहते हैं। आनन्द दोनों से भिन्न है। वह उत्तेजना की नहीं, शान्ति
की अवस्था है। भौतिक सुख जो चाहता है, वह निरंतर दुःख में पडता है।
क्योंकि, एक उत्तेजना के बाद दूसरी विरोधी उत्तेजना वैसे ही अपरिहार्य है, जैसे
कि पहाडों के साथ घाटियां होती हैं और दिनों के साथ रात्रियां। किन्तु, जो
सुख और दुःख दोनों को छोड कर सर्वविरति के लिए तत्पर हो जाता है, वह
उस आनन्द को उपलब्ध होता है, जो कि शाश्वत है।
आत्मा से उत्पन्न होने वाले वास्तविक आनन्द की बजाय, जो
वस्तुओं और विषयों से निकलने वाले सुख को ही आनन्द समझ लेते हैं, वे
जीवन की अमूल्य सम्पदा को अपने ही हाथों नष्ट कर देते हैं। ध्यान रहे कि जो कुछ भी
बाहर से मिलता है,
वह छीन भी लिया जाएगा। उसे अपना समझना भूल है। स्वयं का तो
वही है, जो कि स्वयं में ही उत्पन्न होता है। वही वास्तविक सम्पदा है। उसे न खोजकर, जो कुछ
और खोजते हैं,
वे चाहे कुछ भी पा लें, अंततः वे पाएंगे कि उन्होंने
कुछ भी नहीं पाया है और उल्टे उसे पाने की दौड में वे स्वयं जीवन को ही गंवा बैठे
हैं।-सूरिरामचन्द्र
शनिवार, 16 अप्रैल 2016
तृष्णा जीर्ण नहीं होती
देवत्व के भोगों की तुलना में मानवीय भोग अति तुच्छ हैं। देवताओं के भोगों से
परिचित नहीं होने के कारण मनुष्य इन तुच्छ भोगों में लीन हो जाते हैं। ऐसे भोगों
को वर्षों तक भोगने पर भी तृप्ति नहीं होती। इससे यह सूचित होता है कि भोग-सुख
भोगने से भोगवृत्ति तृप्त होती ही नहीं है। भोगों की तृष्णा हटाए बिना सुख और आनंद
प्राप्त नहीं होगा। यदि आनंद चाहिए, तृप्ति चाहिए तो तृष्णा को
त्यागना होगा। तृष्णा युक्त मन रखने वाला मनुष्य इस लोक के भोगों को भोग कर तृप्ति
प्राप्त करे,
आनंद प्राप्त करे, यह संभव नहीं है। इंसान भोग
से कभी तृप्त नहीं हो सकता,
उसकी भोगवृत्ति बढती ही जाती है और एक दिन भोग ही उसका भोग
कर लेते हैं। तृष्णा कभी जीर्ण नहीं होती, इंसान का जीवन और शरीर
जीर्णशीर्ण हो जाता है। जीवन की वास्तविकताओं को समझकर सम्यक्त्व धारण करने वाला
और संयम धारण करने वाला ही भोग और तृष्णा पर अंकुश लगा सकता है तथा वास्तविक अक्षय
सुख का आनंद प्राप्त कर सकता है। वर्तमान मौजशौख के साधन व भौतिकता की चकाचौंध में
ही जो स्वर्ग व मोक्ष की कल्पना करता हो, उसे तो धर्मशास्त्र भी सिर्फ
बोझारूप लगेंगे।-सूरिरामचन्द्र
शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016
भविष्य का विचार करें
आज तो अधिकांश रूप से मात्र वर्तमान काल की और वह भी विवेकशून्य चिन्ता ने ही
मनुष्य के मन पर स्वामित्व स्थापित कर लिया है। प्रत्येक दार्शनिक ने स्वीकार किया
है कि ‘यदि भविष्य में सुखी होना हो तो वर्तमान के कष्टों की चिन्ता मत करो।’ सिर्फ
वर्तमान की दृष्टि का अनुसरण करने से सारे जीवन के सार का विवेक प्रकट नहीं हो
सकता। अच्छे-बुरे का भेद कर सके, ऐसी योग्यता भी प्राप्त हो जाए, तो
भी वह एकमात्र वर्तमान की दृष्टि के अनुसरण से स्वयं ही नष्ट हो जाती है। वर्तमान
में कुछ भी स्थिति हो,
परन्तु भविष्य में क्या? इसका पहले विचार करना चाहिए।
क्या भविष्य के लाभ के लिए व्यापारी अनेक कष्टों को नहीं उठाता? उसका
मन-वचन एवं काय अहर्निश किस चिंतन में रहता है? मनुष्य को जिस भविष्य का
विचार करना है,
उसे छोडकर यदि कोरे वर्तमान में ही चिपका रहे, तो
वह अपने कर्तव्य से च्युत हुए बिना नहीं रहेगा। इससे अनेक अनिष्ट स्वयं उत्पन्न हो
जाएंगे। अनंत शक्ति का स्वामी आत्मा, जिस प्रकार की चिंता, विकल्प
एवं अपार आधि-व्याधि-उपाधि के दुःख का अनुभव कर रहा है, उन्हें
नष्ट करने हेतु दीर्घ दृष्टा बनना पडेगा। भविष्य हेतु विचारक बनना पडेगा।-सूरिरामचन्द्र
गुरुवार, 14 अप्रैल 2016
मृत्यु का खयाल हमेशा रहे
ज्ञान-बुद्धि एवं सामग्री का जैसा सदुपयोग इस मनुष्य जीवन में होना चाहिए, वैसा
यदि न हो तो,
वैसा करने के लिए अन्य कोई भी स्थान नहीं है। जब तक आत्मा
और आत्मा के धर्मों का स्वरूप समझ में न आए, तब तक कोई भी अपना कर्तव्य
यथास्थित स्वरूप में नहीं कर पाएगा। जिस दिन हर व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी समझ जाएगा, उस
दिन विग्रहों का स्वयं शमन हो जाएगा। हम अपना कर्तव्य नहीं समझ पाते उसका मुख्य
कारण है कि हम ‘आत्म-तत्व’
को ही भूल गए हैं।
‘मुझे
यह शरीर छोडकर अन्यत्र जाना है’, यह विचार जो प्रत्येक व्यक्ति के मन में
सदैव जीवित-जागृत रहना चाहिए, वह बिसर गया है। ‘यहां
से जाने के बाद मेरा क्या होगा?’ यह चिन्ता आज लगभग नष्ट हो गई है। "मैं
मरने वाला हूं",
यह खयाल हर पल रहे तो जीवन में बहुत-सी समझदारी आ जाए। भावी
जीवन को मोक्ष मार्ग का आधार बनाने के प्रयत्न शुरू हो जाएं। सिर्फ वर्तमान की
क्रियाएं, पेट भरना,
बाल-बच्चे पैदा करना और मौजमजा करना, ये
क्रियाएं तो कौन नहीं करता है? पशु-पक्षी और तुच्छ प्राणी भी अपने रहने
के लिए घर बना देते हैं,
वर्तमान की इच्छापूर्ति करते हैं और आपत्ति में भागदौड भी
करते हैं। मात्र वर्तमान का विचार तो क्षुद्र जंतुओं में भी होता है। भावी जीवन का
विचार छोडकर जो सिर्फ वर्तमान के ही विचारों में डूबा रहता है, वह
अपने कर्त्तव्य पालन से च्युत हुए बिना नहीं रहता है।-सूरिरामचन्द्र
बुधवार, 13 अप्रैल 2016
कृतघ्न आत्माएं स्व-पर की घातक
जिनके हृदय में कृतज्ञता गुण होता है, वे उपकार मानने में भूल नहीं
करते हैं। कृतज्ञता गुण के सामान्य रूप से अनेक फायदे होते हैं। इससे सामने वाले
में उपकार करने की भावना और दृढ होती है, उसे प्रोत्साहन मिलता है और
वह अन्य आत्माओं का भी भला करने के लिए तत्पर बनता है। इस पद्धति से कृतज्ञ
आत्माएं स्व-पर-उभय का उपकार साध सकती हैं। दूसरी तरफ कृतघ्न आत्माएं स्व-पर की
उपकार वृत्ति की घातक बनती हैं। उपकारी के प्रति यदि हमने कृतघ्नतापूर्ण व्यवहार
किया, उपकार का बदला अपकार से दिया और वह सामान्य कोटि की आत्मा हुई तो क्या सोचेगी-
‘इस दुनिया में किसी का भला करने का जमाना नहीं है’। वह
भविष्य में किसी की मदद करने में कतराएगा। उपकार करने वाले के हृदय में ऐसी
दुर्भावना पैदा करने में हमारी कृतघ्नता निमित्तरूप बने तो यह हमारे लिए ही बहुत
पापकारी है। कृतघ्नतावृत्ति से दूसरों का तो नुकसान है ही, इससे
हमारे लिए भी नुकसान की संभावनाएं बढ जाती है।-सूरिरामचन्द्र
मंगलवार, 12 अप्रैल 2016
कृतघ्न नहीं, कृतज्ञ बनें
अच्छा हो तो किसी का गुण नहीं मानना और बुरा हो तो किसी को दोष देना, यह
अज्ञानता की निशानी है। सज्जन सबके गुणों को याद करते हैं और बुरा हो तो स्वयं की
निन्दा करते हैं,
जबकि दुर्जन समस्त आदमियों में कोई गुण नहीं देखता, स्वयं
की योग्यता ही सिद्ध करता है और काम खराब होने पर दूसरों को दोष दिए बगैर नहीं
रहता। सामने वाले व्यक्ति ने आपके लिए अच्छा चिंतन किया, आपका
भला हो, इस आशय से उसने प्रयत्न किया और अपने पुण्योदय के योग से उनका वह प्रयत्न सफल
भी रहा; किन्तु ऐसा जानते हुए भी हम उसका उपकार न मानें तो स्वयं कृतघ्न ही कहलाएंगे न? कृतज्ञता, यह
भी एक अनुपम गुण है। कृतज्ञता गुण सामने वाले की और स्वयं की परहित की भावना को
विकसित करता है। कृतघ्न आत्माएं परहित-चिन्तारूप मैत्री की मालिक कभी नहीं बन
सकती। स्वयं के ऊपर उपकार करने वाले का उपकार वे गिनते ही नहीं हैं। ऐसे लोग दूसरे
पर उपकार करने की वृत्ति वाले बनें, यह असंभव है। सच्ची बात तो यह
है कि कल्याणार्थी आत्माएं संसार के सभी प्राणियों का भला चाहती हैं, किसी
का भी बुरा नहीं चाहतीं। आत्मा को ऐसा बनाना चाहिए कि वह सबके कल्याण में अपनी
प्रवृत्ति दिखाए,
लेकिन किसी के अनिष्ट कार्य में भाग न ले, बुरा
न चाहे। अनजान में किसी का बुरा हो जाए तो उसका हमें दुःख होना चाहिए। बुरा करने
वाले का भी भला हो,
यह भावना सदा रहनी चाहिए। मेरे प्रति दुश्मनी रखने वालों का
भी कल्याण हो,
ऐसा व्यवहार होना चाहिए। जब दुश्मन के भी कल्याण की भावना
हो तो अपना अच्छा करने वाले के प्रति उपकार मानने की भावना होनी चाहिए कि नहीं? -सूरिरामचन्द्र
सोमवार, 11 अप्रैल 2016
अपनी कमी सुनने-सुधारने वाले का ही कल्याण संभव
स्वयं की कमी को नहीं सुनने वाला व्यक्ति हितशिक्षा देने वाले को उपकारी मानने
के बजाय उस पर क्रोध करता है, उसका भला कभी नहीं होता, यह
निश्चित बात है। जिसमें स्वयं की कमी सुनने की क्षमता ही न हो, उसका
कल्याण किस प्रकार हो सकता है? आप यहां व्याख्यान सुनने के लिए आते हैं
या वखाण? यहां जीवाजीवादि के स्वरूप की व्याख्या चलती हो तो आपको रुचिकर लगता है या
आपका वखाण-प्रशंसा आपको रुचिकर लगती है? यहां आने का हेतु क्या है? कमी
सुनने का या प्रशंसा सुनने का? आप आप में रही हुई कमियों को दूर करने के
लिए यहां आते हैं और हम आपका वखाण करें, यह कैसे हो सकता है? हमें
आपकी कमी बतानी चाहिए या नहीं? अमुक-अमुक कमियां अमुक-अमुक रीति से दूर
की जा सकती है,
ऐसा हमें कहना चाहिए या नहीं? कल्याण चाहते हो तो
कमी सुनने और उसे दूर करने के लिए सदा तैयार रहो।-सूरिरामचन्द्र
रविवार, 10 अप्रैल 2016
स्वयं के कर्मों को देखें
मिथ्यात्व के उदय से आत्मा दोष को दोष के रूप में नहीं देख सकती। ऐसे भी
व्यक्ति होते हैं कि स्वयं का एक सामान्य काम भी बिगड जाए तो उसमें सैकडों प्रकार
की गालियां दे दें। अमुक ने बिगाड किया, अमुक बीच में आया, अमुक
ने मदद न की। इस प्रकार अनेकों को दोष देता है। स्वयं का दोष नहीं देखता है। ऐसे
व्यक्ति को धर्म का निंदक बनते हुए भी देर नहीं लगती है। कहेंगे कि ‘धर्म
बहुत किया, पर अन्त में दशा तो यही हुई न?’ किन्तु, यह
विचार नहीं करता है कि ‘यह फल धर्म का है या पूर्व कृत पापों के उदय का?’ ऐसे व्यक्तियों को
धर्म रुचिकर नहीं लगता। धर्म करणी विधि-विधान के अनुसार करने की मनोवृत्ति ऐसों की
नहीं होती, यह भाग्य से ही होता है। धर्म-कर्म करते समय ऐसे व्यक्तियों के हृदय में पापमय
वासना हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। फिर भी यह कहेंगे कि ‘धर्म
बहुत किया, किन्तु फलदायी नहीं हुआ’। धर्म करणी भी धर्म का अपमान हो इस
प्रकार से करते हैं और फल अच्छा चाहते हैं, तो वह मिलेगा कहां से? इस
प्रकार के विचार तो उन्हीं को सूझते हैं, जिनमें स्वयं की कमी देखने की, सुनने
की योग्यता नहीं होती।-सूरिरामचन्द्र
शनिवार, 9 अप्रैल 2016
उन्मार्ग के रसिकों से सावधान
‘कुएं
के मुख पर वस्त्र नहीं बांधा जा सकता और लोगों के मुँह पर ताला नहीं लगाया जा सकता
है’। यह कहावत लोक के स्वभाव का परिचय देने वाली है। लोकनिन्दा से सर्वथा बचना, यह
कठिन है, उसमें भी उन्मार्ग के उन्मूलन पूर्वक सन्मार्ग की स्थापना करने के लिए
प्रयत्नशील बने हुए महापुरुषों की कठिनाइयों का तो कोई पार ही नहीं है। उन्मार्ग
के रसिक वैसे महापुरुषों के लिए पूर्ण रूप से कल्पित बातें फैलाकर उन्हें कलंकित
करने के जी-तोड प्रयत्न करने से चूकते नहीं हैं। इस प्रकार वे तीन सिद्धियां
प्राप्त कर सकते हैं। एक तो यह कि उन्मार्ग के उच्छेदक और सन्मार्ग के संस्थापक
महापुरुषों को अधम कोटि का बताकर, अज्ञानी लोगों को उनके पवित्र संसर्ग से
दूर भगा सकते हैं। दूसरी,
उन्मार्ग के उन्मूलन का और सन्मार्ग के संस्थापन का पवित्र
कार्य करने वालों में भी जो लोकनिन्दा के सामने टिकने की हिम्मत नहीं रखते, उनको
फरजीयात मौन स्वीकार करना पडता है और तीसरी सिद्धि यह कि लोकवायका के अर्थी, उन्मार्गनाश
और सद्धर्म प्रचार का कार्य छोडकर वे रुकते नहीं हैं, अपितु
स्वयं भी उन्मार्गगामी बन जाते हैं। ऐसों के पाप से अनेक आत्माएं सद्धर्म से वंचित
रह जाती हैं। ऐसे व्यक्ति शासन के भयंकर दुश्मन होते हैं और वे समाज को
अस्त-व्यस्त कर देते हैं। वे लोग स्वयं का पाप छिपाने के लिए वफादार शासन सेवकों
की भी निन्दा करते हैं। सत्त्वशील महापुरुष तो ऐसी आफतों की उपेक्षा करके स्वयं का
पवित्र कार्य करते ही जाते हैं, लेकिन कल्याण के अर्थियों को भी इसे समझकर
सावचेती रखनी चाहिए।-सूरिरामचन्द्र
शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016
पर-निन्दा नहीं, स्व-निन्दा करो
निन्दा-रसिक बनो,
तो वह रसिकता स्वयं की आत्मा के प्रति ही धारण करो। स्वयं
में जो-जो दोष हों,
उन-उन दोषों की अहर्निश निन्दा करो और उन दोषों को दूर करने
के लिए प्रयत्नशील बनो। परन्तु, यह तो करना है किसको? इस
जगत में आत्म-निन्दा में मस्त रहने वाली आत्माओं की संख्या बहुत ही कम है, जबकि
परनिन्दा के रसिक तो इस जगत में भरे हुए हैं। दूसरों के दोषों को देखकर उनके प्रति
विशेष दयालु बनना चाहिए। उनको उन-उन दोषों से मुक्त करने के शक्य प्रयत्न करने
चाहिए। कब यह दोष से मुक्त बने और कब यह अपने अकल्याण से बचे, यह
भावना होनी चाहिए। इस वृत्ति, इस भावना के साथ परनिन्दा रसिकता का तनिक
भी मेल है क्या?
नहीं ही। लेकिन, स्वयं में अविद्यमान गुणों को
स्वयं के मुख से गाने की जितनी तत्परता है, उतनी ही दूसरों के अविद्यमान
भी दोषों को गाने की तत्परता है और इसीलिए ही संख्याबद्ध आत्माएं हित के बदले अहित
साध रही हैं। अपना हित साधना है तो पर-निन्दा नहीं, स्व-निन्दा करो।-सूरिरामचन्द्र
गुरुवार, 7 अप्रैल 2016
दुःख न दें, सुख न छीनें
मनुष्य मात्र को यह विचार करना चाहिए कि हमको जिस प्रकार हमारा जीवन प्रिय है, उसी
प्रकार जगत के सभी जीवों को भी उनका जीवन प्रिय है। जगत में कोई जीव दुःखी नहीं
होना चाहता, सभी सुखी होने की इच्छा रखते हैं। दुःख को दूर करने का और सुखी बनने का एक ही
मार्ग है और वह है- हम दूसरे को दुःख न दें और जहां तक संभव हो सके दूसरे को सुख
पहुंचाने का प्रयास करें। हमें दुःख प्रिय नहीं है तो दूसरे को दुःखी करने, दुःख
पहुंचाने से दूर रहना और हमें सुख अच्छा लगता है तो कम से कम किसी दूसरे का सुख
नहीं छीनना। दूसरे को दुःख देना या किसी का सुख छीनने का प्रयास करना, यह
तो अपने ही हाथों से अपने लिए दुःख उत्पन्न करना है।
किसी को दुःख नहीं देना है और किसी का सुख नहीं छीनना है, ऐसा
दृढ निश्चय होते ही आप उसका अनुसरण कर देंगे तो आपके लिए अक्षय सुख के द्वार खुलते
देर नहीं लगेगी।-सूरिरामचन्द्र
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