धर्म की एक सर्वसाधारण व्याख्या है कि ‘जो आत्मा की अशान्ति को हटाकर
शान्ति प्रदान करे,
उसे धर्म कहते हैं।’ जीवन में अशान्ति पैदा करने
वाली परिस्थितियों के बावजूद जिसके कारण शान्ति का अनुभव किया जा सके और जिसके
कारण क्रमशः सम्पूर्ण शान्ति बिना मांगे मिले, वही धर्म है। जीवन में शान्ति
की कितनी जरूरत है और यह कितनी कीमती है, इसका पता वास्तव में तब चलता
है, जब अशान्ति के समय आदमी को रास्ता नहीं सूझता है। जीवन में कुछ ऐसे प्रसंग, कुछ
ऐसे संयोग उपस्थित होते हैं कि आदमी अपनी सुध-बुध खो बैठता है, मन
पर काबू खो बैठता है। उस समय उसकी बुद्धि काम नहीं करती। क्या करे, क्या
न करे, यह समझ में नहीं आता और उसे अशान्ति की आग घेर लेती है। ऐसे समय में कितना भी
धृष्ट आदमी क्यों न हो,
उसे शान्ति का महत्त्व ज्ञात हो ही जाता है। इसी शान्ति को
जो प्राप्त कराए और अशान्ति को दूर करे, वह धर्म है। जो शान्ति से
जीने दे और शान्ति से मरने दे, वह धर्म है। इतना होने पर भी दुःख की बात
यह है कि इस आर्य देश में जन्म पाए मनुष्य ऐसी चीजों में उलझ गए हैं कि उन्हें
इतने महत्त्व की बात पर सोचने-विचारने की मानो फुरसत ही नहीं हो। वास्तव में
शान्ति और अशान्ति देने वाले कारणों पर तात्त्विक विचारों के आदान-प्रदान की
प्रवृत्ति हमारे यहां लगभग बंद सी हो गई है।-सूरिरामचन्द्र
गुरुवार, 31 मार्च 2016
बुधवार, 30 मार्च 2016
तप के बिना इंसान शैतान हो जाता है
‘अहिंसा, संयम
और तप रूप धर्म उत्कृष्ट मंगल है। जिन आत्माओं का अंतःकरण धर्म में सदा लीन रहता
है, उन आत्माओं को देवता भी पूज्य मानते हैं।’ अहिंसा, संयम
और तप रूप धर्म की उत्कृष्ट आराधना करने की जो शक्ति मनुष्य में है, वह
देवों में भी नहीं है। इसी कारण देव भव से मनुष्य भव को ऊंचा माना गया है। यह बात
बराबर खयाल में आ जाए तो अपना अनुचित वर्तन अखरे बिना और जीवन सुधरे बिना नहीं
रहेगा।
धर्म के तीन भेद अहिंसा, संयम और तप बतलाए हैं। उसमें सबसे पहले तप
को समझना चाहिए। तप के साथ संयम आने लगता है और संयम आएगा तो अहिंसा भी अवश्य
आएगी। इसलिए कह सकते हैं कि व्यक्ति जब तक तपस्वी नहीं बनता है अथवा तपस्वी बनने
की इच्छा नहीं करता है,
तब तक इंसान नहीं बनता है। सिर्फ भूखे-प्यासे रहना, उसी
को तप नहीं कहा जाता है। ज्ञानियों ने इच्छा निरोध को तप कहा है। आज अनेक
तपस्वियों को यह बात खयाल में नहीं है। सदाचार की नींव इच्छा-निरोध है। इच्छा
निरोध का अभाव आदमी को शैतान भी बना दे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आज मनुष्य
का व्यवहार-वर्तन कैसा है?
हम सच्चे मनुष्य हैं या नहीं? इसका विवेक पूर्वक
प्रतिदिन थोडा विचार किया जाए तो स्वयं को खयाल आ सकता है।-सूरिरामचन्द्र
नाशवंत पदार्थों के लिए क्या हाय-हाय ?
तत्वज्ञानी महापुरुषों ने संसार के सभी पदार्थों का विचार कर आत्मा के स्वभाव
को प्रकट करने के लिए प्रयत्नशील बनने का उपदेश दिया है, क्योंकि
आत्मा के शुद्ध स्वरूप के प्रकटीकरण के बाद शाश्वत काल वह शुद्ध ही रहता है, उसमें
परिवर्तन नहीं आता है। दुनियावी पदार्थ नाशवंत हैं, कितनी ही मेहनत व
कितने ही पाप करके दुनियावी पदार्थ प्राप्त किए हों, फिर भी वे पदार्थ
टिकने वाले नहीं हैं। कई लोग तो उन्हें प्राप्त करने के बाद इस जीवन में ही खो
देते हैं। प्राप्त सुख चला जाए, यह किसी को पसन्द नहीं है, फिर
भी पदार्थों का वियोग निश्चित है, तो फिर उन पदार्थों में संयोग का सुख पाने
के लिए प्रयत्न करना कौनसी बुद्धिमत्ता है?
प्राप्त सुख का साधन स्थाई हो तो प्राप्त सुख स्थाई रह सकता है। वह सुख आत्मा के
सिवाय किसी में नहीं है। अतः अपनी आत्मा को ऐसी शुद्ध बना दें कि अनंतकाल के बाद
भी शुद्धस्वरूप में परिवर्तन होने न पाए। जब तक आत्मा पुण्य-पाप से लिप्त है, तब
तक आत्मा शाश्वत सुख प्राप्त नहीं कर सकती है। पुण्य-पाप से रहित बनने पर ही आत्मा
शाश्वत सुख में स्थिर हो सकती है। उस स्थिति को पाने का वास्तविक उपाय ही जैन धर्म
है। आत्मा को पाप व पुण्य से रहित बनाने के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान
और सम्यग्चारित्र की आराधना बताई गई है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान
और सम्यग्चारित्र रूपी रत्नत्रयी ही मोक्षमार्ग है।-सूरिरामचन्द्र
शनिवार, 26 मार्च 2016
पशुओं से अधिक हिंसक है स्वार्थी मनुष्य
आत्मा, पुण्य, पाप आदि का जिसे खयाल नहीं और जो संसार-सुख का तीव्र पिपासु है, ऐसा
मनुष्य, जगत के लिए श्रापरूप न बने तो एक आश्चर्य ही होगा। विषय-कषाय में आनंद और
अर्थ-काम के योग में सुख मानने वाले मनुष्य हिंसक पशुओं से भी ज्यादा खतरनाक हैं।
स्वार्थी मनुष्य जितना उपद्रव मचाता है, उतना उपद्रव पशु भी नहीं
मचाते हैं। संसार में आसक्त मनुष्य में दुनियावी पदार्थ पाने व उन पदार्थों के
संग्रह-संरक्षण की जो भूख होती है, वैसी भूख और संग्रहवृत्ति
पशुओं में भी नहीं होती है। मनुष्य योजनापूर्वक जो अमर्यादित हिंसा करता है, उतनी
हिंसा पशु भी नहीं करता है। मनुष्य योजनापूर्वक पाप करता है और उन पापों को छिपाता
है। कई ऐसे ठग होते हैं जो सरकार से भी पकडे नहीं जाते हैं और कदाचित् पकडे जाएं
तो वकीलों द्वारा अपना बचाव कर लेते हैं। आज मनुष्य मात्र के सभी पाप प्रकट हो
जाएं तो कानून के हिसाब से ही कितने लोग जेल से बाहर रहने योग्य निकलेंगे? ऐसे
मनुष्यों को मानव कहें या राक्षस, यही विचारणीय है। जगत में ऐसे मनुष्य
ज्यों-ज्यों बढते हैं,
त्यों-त्यों उपद्रव भी बढते हैं, यह
स्वाभाविक है।-सूरिरामचन्द्र
धर्म ही दूर कर सकता है मनुष्य का जहर
मनुष्य के हृदय में रहे जहर को दूर करने का काम धर्म करता है। जिसके हृदय में
धर्म का प्रवेश होता है,
उसके हृदय में से जहर दूर हो जाता है। आज मनुष्य के हृदय
में इतना जहर उछल रहा है कि जिसके कारण संहार के साधन बढ रहे हैं। आज मानव, मानवता
छोडकर राक्षस बनता जा रहा है। अपने स्वार्थ में बाधक बनने वाले का संहार किया जाता
है, उसमें वीरता और सेवा मानी जाती है। आर्य देश में यह मनोवृत्ति नहीं होनी चाहिए, परन्तु
आज वातावरण बिगड रहा है।
यह भव भोग के लिए नहीं,
त्याग के लिए है। दुनियावी पदार्थों की ममता दूर हो और
आत्म-सुख प्रकट करने की कामना उत्पन्न हो, तब मानव, दानव
के बजाय देव बन सकता है। आपको क्या बनना है, इसका निर्णय आप ही कीजिए। पाप
से उपार्जित सभी वस्तुएं यहीं रहने वाली है और पाप साथ चलने वाला है, यदि
ऐसा विश्वास हो तो पाप से बचने के लिए प्रयत्नशील बनो, स्वार्थी
मनोवृत्ति का त्याग करो। स्वार्थ पाप कराता है, ‘पाप से दुःख और धर्म से सुख’, इस
बात पर आपको विश्वास है,
इसलिए सीधी बात करता हूं कि पाप छोडो और धर्म का सेवन करो, जिससे
आपका दुःख चला जाए और सुख प्राप्त हो।-सूरिरामचन्द्र
गुरुवार, 24 मार्च 2016
स्वार्थी मनुष्य के हृदय में जहर होता है।
आज स्वार्थवृत्ति इतनी अधिक बढ गई है कि अपने सामान्य स्वार्थ के लिए भी व्यक्ति
अन्य जीवों के प्राण ले लेता है। सांप ने नहीं काटा हो तब भी ‘यह
विषैला प्राणी है, कदाचित् काट लेगा’,
इस भय से उसे मार दिया जाता है। आज स्वार्थी मनुष्य जितना
हिंसक व क्रूर बन गया है,
उतने हिंसक व क्रूर तो हिंसक व विषैले प्राणी भी नहीं हैं।
सांप विषैला होने पर भी उस सांप से मदारी अपनी आजीविका चलाता है। सिंह, बाघ, चित्ता
आदि हिंसक होने पर भी सर्कस वाले उनसे अपनी कमाई करते हैं। इस दृष्टि से वे विषैले
और हिंसक प्राणी भी मनुष्य की कमाई कराने में सहायक बनते हैं, जबकि
अति स्वार्थी मनुष्य किसी का सहायक नहीं बनता, बल्कि वह तो अनेकों का बुरा
ही करता है।
‘सांप
काट लेगा।’ इस भय से सांप को मारने वाला क्या कम विषैला है? सांप के तो दांत में
जहर होता है,
जबकि स्वार्थी मनुष्य के हृदय में जहर होता है। ज्ञानियों
द्वारा निर्दिष्ट हिताहित का विवेक जिसमें नहीं है, ऐसा व्यक्ति अपना
विरोध करने वालों को क्या-क्या नुकसान नहीं पहुंचाता है? उसके
हृदय में तो इतना भयंकर जहर होता है कि वह अपने स्वार्थ के लिए सामने वाले का खून
भी कर सकता है।-सूरिरामचन्द्र
बुधवार, 23 मार्च 2016
आत्महित-बाधक प्रवृत्तियों में रस न लें
‘पाप
बिना दुःख नहीं और धर्म बिना सुख नहीं’, ऐसा बोलने वालों की दुनिया
में कमी नहीं है,
परन्तु इस बात को स्वीकार कर जीवन में आचरण में लाने वाले
बहुत थोडे ही लोग हैं। उसमें भी धर्म और पाप के वास्तविक स्वरूप को समझने वाले
बहुत कम हैं। दुनिया में अधिकांश लोग पाप से डरते नहीं हैं, पाप
करने से पीछे नहीं हटते हैं, इतना होने पर भी वे अपने आपको पापी नहीं
मानते हैं। हित-बुद्धि से कोई उन्हें पाप से बचने के लिए कहे तो भी सहन नहीं होता, ऐसी
स्थिति में दुःख कहां से जाए और सुख कहां से आए?
जो लोग समझते हैं कि पौद्गलिक वासनाएं आत्महित के लिए विषतुल्य हैं, उन्हें
आत्म-स्वभाव को प्रकट करने में सहायक प्रवृत्तियों में रस पैदा करना चाहिए और
आत्महित में बाधक प्रवृत्तियों में से रस उड जाना चाहिए। इस प्रकार करने पर ही
दुःख-मुक्ति और सुख-प्राप्ति हो सकती है। इसके बिना अनंतकाल से दुःख का अनुभव करते
आए हैं और भविष्य में भी दुःख निश्चित है।-सूरिरामचन्द्र
मंगलवार, 22 मार्च 2016
संसार विषतुल्य है
मदारी सांप से आजीविका चलाता है, किन्तु कितना सावधान रहता है।
मदारी सांप का जहर निकाल देता है, फिर भी वह सांप नुकसान न पहुंचाए, इसलिए
सावधान रहता है। जरूरत पडने पर व्यक्ति विषैली दवाई का उपयोग करता है, परन्तु
वह जहर पेट में न चला जाए इसके लिए सावधान रहता है। इसी प्रकार संसार से भय लग
जाना चाहिए, संसार के सुख भी दुःखरूप लगने चाहिए, क्योंकि संसार की पौद्गलिक
वासनाएं आत्महित के लिए विषतुल्य हैं, यह खयाल सतत रहना चाहिए।
संसार में रहते हुए भी कीचड-पानी में कमलवत निर्लिप्त रहें, संसार
में दृष्टाभाव से रहें,
संसार के जहर से बचकर रहें, राग-द्वेष-कषाय से
बचकर रहें।-सूरिरामचन्द्र
सोमवार, 21 मार्च 2016
परिणामों का विचार किया है?
संसार के ऐश्वर्य भोगने में सुख नाम मात्र का और परिणाम में दुःख का पार नहीं, इसीलिए
ही तारकों ने केवल मोक्ष मार्ग का उपदेश दिया। ज्ञानीगण परिणामदर्शी थे। दुनिया
में भी चतुर वे ही गिने जाते हैं जो कि परिणाम का विचार करते हैं। आप परिणाम का
विचार करते हैं क्या?
आप इस संसार में जो प्रवृत्ति कर रहे हैं, उसका क्या परिणाम आएगा, इसका खयाल करते हैं? शायद
कोई भाग्यवान ही ऐसा खयाल करता होगा।
पाप प्रवृत्ति के परिणाम का आदमी को वास्तविक खयाल आ जाए तो वह कंपित हुए बिना
नहीं रहेगा। परिणाम के खयाल वाला पापभीरू नहीं हो, ऐसा संभव नहीं। भीरुता
की कोई प्रशंसा नहीं करता है। ज्ञानी भी भीरुता को निकालने और वीरता धारण करने का
उपदेश देते हैं। तदुपरांत भी वे ही ज्ञानीगण फरमाते हैं कि पाप की भीरुता अवश्य ही
सीखनी चाहिए। पाप भीरुता,
यह सामान्य कोटि का सद्गुण नहीं है।
एक तरफ सत्वशील बनने का उपदेश, दूसरी तरफ पाप भीरू बनने का
उपदेश, इन दोनों संबंधों का परस्पर विचार कर देखो। इनमें परस्पर विरूद्ध भाव नहीं है।
पापभीरुता सच्ची सत्वशीलता को विकसित करने वाली वस्तु है। विचार तो करके देखो कि
पाप किए बगैर जीवन बिताना कठिन है या जीवन को पापमय दशा में बिताना कठिन है? पाप
करना सरल है या पाप से बचना सरल है? निष्पाप जीवन जीना हो तो इन्द्रियों
के ऊपर नियंत्रण रखना पडता है। मन-वचन-काया के ऊपर संयम धारण करना पडता है और भूख-तृषा, मान-अपमान, सर्दी-गर्मी
आदि सहन करना पडता है।-सूरिरामचन्द्र
रविवार, 20 मार्च 2016
पुण्य-पाप ही साथ जाने वाले हैं
यह सत्य है कि जो जन्मे हैं उनका मरण निश्चित है। इच्छा या अनिच्छा से, मरे
बिना चलता नहीं है। किन्तु,
यह विचार करो कि मरता कौन है? आत्मा मरती नहीं है।
आत्मा तो है और रहने वाली है। यहां से मरण के बाद सारा खेल समाप्त हो जाता होता तो
ज्ञानियों ने धर्म का उपदेश न दिया होता। किन्तु, यहां से मरने के बाद
खेल समाप्त नहीं होता है। यहां से मर कर जो आत्माएं मोक्ष में नहीं जाती है, उन
समस्त आत्माओं के लिए यह नियम है कि यह शरीर छूटा और कृतकर्मानुसार निश्चित समय
में नूतन शरीर का संबंध बन जाता है। मनुष्य मरता है, उसके साथ उसके
पुण्य-पाप नहीं मरते हैं।
आप जानते हैं कि यह शरीर यहां रहेगा, किन्तु कार्मन और तेजस शरीर
साथ में जाता है। मनुष्य यहां से मरता है, इसलिए पुण्य-पाप के योग से
दूसरे स्थान पर निश्चित समय पर वह आत्मा नवीन शरीर धारण करता है। इससे यह स्पष्ट
है कि पुण्य-पाप यह सभी आत्मा के साथ ही जाते हैं। इसीलिए बांधे हुए कर्म शान्ति
पूर्वक भोगने के सिवाय या तप आदि से उन्हें खपाए बिना सुख के अर्थी को छुटकारा
नहीं है। कर्म का संबंध छूटे नहीं, वहां तक मरण के पीछे जन्म
निश्चित है। कर्म से छूटना और कर्म छूटने के योग से दुःख और जन्म से मुक्त होना ही
सच्चे सुख का मार्ग है।-सूरिरामचन्द्र
शनिवार, 19 मार्च 2016
मौत तो निश्चित है !
जिनका जन्म हुआ, उनका मरना निश्चित है। मरण के बाद जन्म
नियम से होता ही हो,
ऐसा नहीं है। जो-जो मरते हैं, वे-वे जन्म लेते हैं, ऐसा
एकान्त नियम नहीं है। किन्तु जो-जो जन्मते हैं, वे मरण प्राप्त किए बिना नहीं
ही रहते, यह तो निश्चित ही है। अनंतकाल में अनंत आत्माओं ने मरण के बाद वापस जन्म नहीं
लिया, ऐसा हुआ है। किन्तु अनंतकाल में एक भी आत्मा ऐसा नहीं जन्मा कि जो वापस मरा
नहीं हो। मृत्यु के साथ जन्म यह एकान्त नियम नहीं है, किन्तु
जन्म के साथ मुत्यु यह एकान्त सत्य है। यहां से मरकर श्री सिद्धगति को प्राप्त
आत्माएं यानी मोक्ष में जाने वाली आत्माएं पुनः जन्म नहीं लेतीं। जो जन्म लेगा, उसकी
मृत्यु निश्चित है।
आप मरोगे या नहीं?
आज जिस शरीर का आप संस्कार करते हैं, बारम्बार
साफ किया करते हैं,
जिसके ऊपर अत्यंत मोह रखते हैं, वह
एक दिन अग्नि में भस्मीभूत हो जाएगा, ऐसा आपको लगता है? शरीर
यहां रहेगा और आपको अपने कर्मों के साथ किसी अन्यत्र स्थान पर जाना पडेगा, ऐसा
लगता है? आपका सर्वाधिक प्रिय स्नेही आपके शरीर को मोटी-मोटी लकड़ियों पर सज्जित करेगा, आपके
शरीर पर बडे-बडे लकडे रखेगा और उसके बाद उसमें आग लगा देगा, इतना
ही नहीं आपका शरीर जल्दी से जल्दी भस्मीभूत हो इसके लिए वह आग में घी और डालेगा, राल
फेंकेगा ताकि जल्दी से जल्दी आग पकडे और दाह-संस्कार फटाफट हो, ऐसा
आपको लगता है?
लोगों को मरते हुए या उनके शव के दाह संस्कार को तो आपने आपकी जिन्दगी में कई
बार अवश्य देखा होगा। कभी आपको लगा कि एक दिन मेरे शरीर की भी यही हालत होनी है? किसी
के अंतिम संस्कार के लिए,
किसी को जलाने के लिए श्मशान गए हो, तब
कभी आपको ऐसा लगा कि इस प्रकार से किसी दिन मेरे शरीर को भी स्नेहीगण, संबंधीगण, पडौसी
आदि ले जाएंगे और मेरा खून ही मेरे शरीर को आग लगा देगा? धन-सम्पत्ति
कुछ भी साथ नहीं लेजा सकोगे।
आपको यह निश्चित हो कि मेरा यह शरीर अमर रहने वाला है तो बोलो! किन्तु भयंकर
से भयंकर पापात्माएं भी अंतिम कोटि के नास्तिक होने पर भी यह बात तो अंत में जानते
हैं कि एक दिन ऐसा अवश्य आएगा कि जिस दिन इस शरीर को कोई संग्रह करने वाला नहीं
है। या तो जला देंगे या तो दफनाकर छोड देंगे। मानो कि अशुभ के योग से जो कोई ऐसे
स्थान में मरे हों तो जंगल में पशु-पक्षी, चील-कौए उसका भक्षण करेंगे।
समुद्र इत्यादि में फेंक देंगे, किन्तु शरीर के लिए ऐसा कुछ न कुछ होने
वाला ही है, यह निश्चित बात है। तो फिर संसार में संसार को और बढाने की लालसा या हायतौबा
क्यों, किसके लिए? -सूरिरामचन्द्र
शुक्रवार, 18 मार्च 2016
अहंकार और चापलूसी डुबोने वाले हैं
वर्तमान मौजशोख के साधन व भौतिकता की चकाचौंध में ही जो स्वर्ग व मोक्ष की
कल्पना करता हो,
उसे तो धर्मशास्त्र भी सिर्फ बोझारूप लगेंगे। भावी जीवन को
सुधारने और आत्महित की चिंता के प्रति जो बेपरवाह हैं, उन्हें
अपने स्वयं के दोष सुनने की इच्छा भी नहीं होती है, फलस्वरूप शिष्ट
पुरुषों का समागम और तत्त्वचिंतन आदि गुणों का आगमन बन्द हो जाता है और जीवन में
अहंकार आ जाता है। ऐसे लोगों को फिर चापलूसी ही अच्छी लगती है, जो
स्वयं भी डूबता है और दूसरे को भी डुबो देता है। चापलूसी तीन घोर घृणित दुर्गुणों
का मिश्रण है- असत्य,
दासत्व और विश्वासघात। आज अधिकांश लोगों को चापलूसी ही पसंद
है, उनमें अपनी कमियां या क्षतियां सुनने की ताकत नहीं रही है, इस
कारण कोई खरी-खरी कहे तो बुरा लगता है; परन्तु जब आत्मज्ञान होगा, तब
अपनी भूल बताने वाले उपकारी लगेंगे।-सूरिरामचन्द्र
गुरुवार, 17 मार्च 2016
संसार में रस लेने वाले हिये के अंधे
जिन्हें संसार ही चाहिए और मोक्ष नहीं ही चाहिए, वे सब हिये (हृदय) से
अंधे हैं। भगवान राजपाट छोडकर साधु बने। साधु बनने का अर्थ है- सुखों को लात मारकर
दुःखों को निमंत्रण देना। जिन सुखों को भगवान ने छोड दिया, उनके
पीछे आप पड रहे हैं और इसमें आपको कुछ भी अनुचित नहीं लगता है तो आप भगवान के भक्त
नहीं रह जाते हैं। ‘मुझे यह शरीर छोडकर अन्यत्र जाना है’, इस बात को आज लगभग सभी भूल गए
हैं। ‘यहां से जाने के बाद मेरा क्या होगा?’ यह चिन्ता आज लगभग नष्ट हो गई
है। मैं मरने वाला हूं,
यह खयाल हर पल रहे तो जीवन में बहुत-सी समझदारी आ जाए। भावी
जीवन को मोक्ष मार्ग का आधार बनाने के प्रयत्न शुरू हो जाएं। सिर्फ वर्तमान की
क्रियाएं, पेट भरना,
बाल-बच्चे पैदा करना और मौजमजा करना, ये
क्रियाएं तो कौन नहीं करता है? तुच्छ प्राणी भी अपने रहने के लिए घर बना
देते हैं, वर्तमान की इच्छापूर्ति करते हैं और विपत्ति में भागदौड भी करते हैं। मात्र
वर्तमान का विचार तो क्षुद्र जंतुओं में भी होता है। भावी जीवन का विचार छोडकर जो
सिर्फ वर्तमान के ही विचारों में डूबा रहता है, वह अपने कर्त्तव्य पालन से
च्युत हुए बिना नहीं रहता है।-सूरिरामचन्द्र
बुधवार, 16 मार्च 2016
मर्यादा का दिवाला निकल रहा है
मर्यादा रहेगी वहां तक धर्म रहेगा। महापुरुष भी किसी की निश्रा में रहते थे, उनकी
आज्ञानुसार चलते थे। आज चारों ओर मर्यादा का दिवाला निकलता जा रहा है। कोई किसी की
सुनने या मानने को तैयार नहीं। पुत्र माता-पिता की बात नहीं मानते और विद्यार्थी
शिक्षक का उपहास करते हैं। आज युवकों की क्या दशा है, यह
तो अखबार पढनेवाले आप लोगों को मालूम ही है, ये युवक अपने बाप के भी बाप
बन गए हैं। और प्रोफेसर के भी प्रोफेसर बन गए हैं। कॉलेजों के संस्थापक कॉलेजों को
कैसे चलावें,
इस चिंता में हैं और नए कॉलेज न खोलने के निर्णय पर आए हैं।
दुनिया में पढे-लिखे गिने जानेवाले अपनी होंशियारी का उपयोग भी दुनिया को परेशान
करने में और स्वयं का स्वार्थ साधने में कर रहे हैं।
आत्मा का ज्ञान हुए बिना, जितना अधिक पढा जाए उतना अधिक गंवारपन आता
है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण आज के कॉलेज हैं। आत्म-ज्ञान से रहित व्यक्तियों को
ज्ञान देने का यह परिणाम है। आत्म-ज्ञान से, धर्म से जीवन में मर्यादा आती
है और मर्यादा होने से घरों का संचालन भी ठीक तरह से होता है। मर्यादा से रहित
घरों में हमेशा झगडे हुआ करते हैं। मिथ्याज्ञान पाकर आपके लडके आपके न रहें यह आप
सहन कर सकते हैं,
परन्तु सम्यग्ज्ञान से आपके लडके आपके न रहकर साधु बन जाएं
तो यह आप सहन नहीं कर सकते। कैसी गजब की बात है? -सूरिरामचन्द्र
मंगलवार, 15 मार्च 2016
वृद्धाश्रम समाज के लिए शर्म की बात
आज आप लोगों के घरों में बुजुर्गों की स्थिति ऐसी हो गई है कि ‘जो
कमावे वह खावे और दूसरा मांगे तो मार खावे’। ऐसी स्थिति हो जाने के कारण
ही इस देश में वृद्धाश्रम या विधवाश्रम की बातें चलने लगी हैं। ऐसे आश्रम स्थापित
हों, यह कोई गौरव की बात नहीं है; अपितु उन बुजुर्गों और विधवाओं के
परिवारों के लिए तथा समाज और संस्कृति के लिए शर्म की बात है।
आपसे मेरा पहला प्रश्न यह है कि आपका राग आपके माता-पिता पर अधिक है या
पत्नी-बच्चों पर अधिक है?
भगवान पर राग होने का दावा करने वाले को मेरा यह
महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। योग की भूमिका में माता-पिता की पूजा लिखी है, पत्नी-बच्चों
की नहीं। मुझे तो ऐसा महसूस होता है कि आज के लोगों को कम से कम कीमत की कोई चीज
लगती हो तो वह उसके मां-बाप हैं।-सूरिरामचन्द्र
सोमवार, 14 मार्च 2016
जंगली जमाना
देश बरबाद हो रहा है। मनुष्य, मनुष्य नहीं रहा। मनुष्य के अतिरिक्त अन्य
जीवों को तो मानो जीने का अधिकार ही नहीं, ऐसी हवा फैलगई है। वर्तमान
युग, हिंसक युग है। जिस युग को आप अच्छा मानते हैं, वह घोर घातकी युग है।
लाखों जीव काटे जाते हैं;
वह भी कानून का ठप्पा लगाकर। आप इस हिंसा को रोक भी नहीं
सकते। यदि रोकने का प्रयत्न करो तो ‘देशप्रेमी’ न
गिनाओ। आज मनुष्य,
मनुष्य से घबराकर चलता है। जानवर से तो थोडी दूरी पर रहे तो
निर्भय, परन्तु मनुष्य तो पीछे पडजाता है। अतः उससे डरकर रहना पडता है। ऐसा यह युग है।
कैसा विचित्र है यह युग!! इतनी अधिक अधोगति हो रही है, तथापि
‘प्रगति हो रही है’
ऐसा बोलने वालों को लज्जा तक नहीं आती। यह अचरज की बात नहीं
है? ऐसा जंगली जमाना तो कभी नहीं रहा होगा।
आजकल एकता की बातों के नाम पर ही एकता के टुकडे हो रहे हैं। धर्म के नाम पर
जाति के नाम पर राजनीति हो रही है। भूतकाल में जो एकता थी, वह
आज देखने को नहीं मिलती। अमेरिका का अनाज यहां आता है, परन्तु
यहां के एक प्रांत का अनाज दूसरे प्रांत के काम नहीं आता। विदेशी भी अनाज देकर कोई
उपकार नहीं करते! वे अपना कचरा यहां सरका देते हैं और यहां की अच्छी चीज वहां जाती
है। कैसी विरोधाभासी और विनाशक नीतियां है और कहते हैं कि प्रगति हो रही है। यह
कितने शर्म की बात है! आज देश का उद्धार नहीं, अधःपतन हो रहा है। शक्ति बढने
के साथ आपके घरों में मौज-शौक के साधन तो बढते ही जाते हैं, परन्तु
धर्म के साधन बढते हुए कहीं नजर नहीं आते हैं।-सूरिरामचन्द्र
रविवार, 13 मार्च 2016
तृष्णा का आतंक
मन की तृष्णा ने आज कितना भयानक आतंक फैलाया है? पिता-पुत्र, पति-पत्नी, बडा
भाई, छोटा भाई,
सास-बहू इन सब लोगों के बीच का व्यवहार देखो। जरा सोचो तो
सही एक दूसरे के लिए कितनी ईर्ष्या, द्वेष-भावना दिल में भरी हुई
है? मन की तृष्णा बढी है। पर-वस्तुओं को प्राप्त करने की व भोगने की लालसा बढी है
और त्याग-भावना नष्टप्रायः हो गई है। इसके परिणामस्वरूप आज के संसार में भयानक
भगदड और भागदौड मच रही है। लोग भौतिकता की चकाचौंध में अंधे हो गए हैं। जब तक मन
की भयानक भूख नहीं मिटेगी और त्याग की भावना पैदा नहीं होगी, तब
तक ऐसी भगदड और भागदौड मची रहेगी, इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है। इस तरह
विचार किया जाए तो अवश्य समझ में आएगा कि मन की भौतिक भूख ही सारे विनाश का कारण
है। संसार के प्रति अरुचि न हो तो, धर्म किस काम का? अधिक
प्राप्त करने के लिए धर्म किया जाता हो तो वह धर्म, धर्म रहता ही नहीं, धंधा
हो जाता है, बिना पैसे के धंधे जैसा। आज आपको साधुओं की आवश्यकता क्यों है? बहराने
के लिए? इनके पगल्ये हों तो घर में लक्ष्मी के पगल्ये हो जाएं इसलिए? या
धर्म करने हेतु शास्त्र की विधि का ज्ञान आवश्यक है इसलिए?
पूर्व के कई जन्मों के असीम पुण्योदय से यह मानव जीवन मिला, आर्य
संस्कृति और उच्च कुल मिला,
धर्म गुरुओं का सान्निध्य और धर्म श्रवण का लाभ मिला, वैभव
मिला। पूर्व संचित पुण्य से जो कुछ मिला उसे भोग कर नष्ट कर रहे हो और पुराना
पुण्य का खाता बन्द कर रहे हो और भौतिक संसारी सुख में बेभान होकर नया पाप का खाता
चालू कर रहे हो तो आगे क्या बनोगे- कीडे मकोडे, सांप-बिच्छू? अरे
कुछ तो समझो!-सूरिरामचन्द्र
शनिवार, 12 मार्च 2016
कायरता से समाज सड़ता है
आज अधिकांश लोग धर्मशासन में पसर रही शीथिलता, मनमानी और दुराचार के प्रति उदासीनता दिखाते हुए अक्सर कह देते हैं कि यह तो पांचवां
आरा है और भगवान ने भी कहा है कि इस आरे में धर्म का हृास होने ही वाला है, आचार-विचार में शीथिलाचार की कोई सीमा नहीं होगी, इसलिए कुछ भी कहने-सुनने या करने का कोई फायदा नहीं है। यह दुष्प्रचार
है और अपनी अकर्मण्यता छिपाने का बहाना है। प्रभु ने ऐसा एकांत रूप से कहीं नहीं कहा
है।
अभी पांचवें आरे के 18 हजार
से ज्यादा वर्ष बाकी हैं और प्रभु ने यह फरमाया है कि पांचवें आरे के अंत तक श्रमण
संस्कृति की धारा अपने शुद्ध स्वरूप में अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित होती रहेगी। पतन
होगा, किन्तु क्रान्तियां होगी और उत्थान
भी अवश्यमेव साथ-साथ होता रहेगा। श्रमण संस्कृति की धारा अपने उत्कृष्ट स्वरूप में
प्रवाहित होती रहेगी, भले ही भीड छंटती जाए।
यहां संख्या बल का महत्व नहीं है, सिर्फ
चारित्र का महत्व है।
इसलिए कुंए में भांग घोलने की कोशिश न करें।
‘चलने
दो, अपने को क्या करना है’,
ऐसे मंद विचारों और लापरवाही, कायरता से समाज सड
जाता है और फिर सडे हुए समाज में हृदय को हर्ष या तृप्ति नहीं मिलती, आत्मकल्याण
का मार्ग निष्कंटक नहीं रह जाता, समाज शोषित हुआ चला जाता है। खेत के पाक
को पूर्ण रीति से फलने देने के लिए पास ही उत्पन्न हुए कचरे का नाश करना ही चाहिए।
फसल अच्छी हो इसके लिए खरपतवार को तो नष्ट करना ही पडता है। आप लोग धर्म-विरूद्ध
प्रवृत्तियों को रोक नहीं सकते, इसी कारण तो हमें विरोध का झण्डा उठाना
पडता है।
शुक्रवार, 11 मार्च 2016
धर्म संघ के लिए पांच बातें
जो अर्थ-काम को हेय माने, धर्म-मोक्ष को उपादेय माने, वही
संघ में गिना जाए। संघ छोटा हो तो हर्ज नहीं, लेकिन वह भगवान की आज्ञा
मानने वाला हो।
धर्म संघ के चारित्र का मूलाधार तादात्म्य तथा प्रेम है। यह मेरा संघ है, मैं
इसका अंश हूं,
इसकी भलाई में ही मेरी भलाई है; यह
भाव जब उत्पन्न होता है,
तब संघ-चरित्र का निर्माण होता है। मेरे कार्य से संघ को
भले ही लाभ न हो,
कम से कम हानि तो न हो; यह भाव उत्पन्न होने पर संघ
का चारित्र प्रकट होता है। जब यह विचार जाग्रत होता है और अहो रात्र संघ का चिन्तन
होता है, संघ को उठाने का,
संघ-समाज को सुखी करने का, संघ के प्रत्येक
व्यक्ति के प्रति कर्त्तव्य पूर्ति का विचार होता है, मैं
रहूं या न रहूं,
उससे क्या; संघ रहना चाहिए, यह
सोच बनना चाहिए।
चरित्र या स्नेह का आधार एकात्मता है। जो इस एकात्मता को पहचानेगा, वही
स्नेह कर सकेगा,
वही असुखी होते हुए भी प्रेम करेगा। अतः केवल चारित्र्य का
आग्रह करने से चारित्र्य निर्माण नहीं होगा, उसके लिए ठोस आधार लेना
पडेगा। प्राचीन काल से चला आनेवाला हमारा संस्काररूप जीवन, जिसे
संस्कृति कहते हैं,
वही सामान्य अधिष्ठान है। उसके जागरण से ही एकात्मता संभव
है। प्रत्येक व्यक्ति एकात्मता का व्यक्त रूप है, यह समझ कर समाज की
सेवा करना ही धर्म है। जैसे जीवाणु शरीर की सेवा करते हैं, कोई
भी आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करता; वैसे ही समाज को एकात्मस्वरूप
जानकर (केवल मानकर नहीं) जीवन को समष्टिरूप समाज की सेवा में लगा देना ही जीवन का
साफल्य है। एकात्मता का भाव ही समाज को सुसंगठित रूप दे सकेगा।
शारीरिक शक्ति आवश्यक है, किन्तु चरित्र उससे भी अधिक महत्व का है।
बिना चरित्र के केवल शारीरिक शक्ति मनुष्य को पशु बना देगी। चरित्र की शुद्धता ही
वैभव एवं महानता की जीवन-प्राण होती है।
यदि महान जागतिक लक्ष्य में हम सफलता प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें प्रथमतः
अपना उदाहरण प्रस्तुत करना होगा। हमें वादों की मानसिक श्रृंखलाओं और आधुनिक जीवन
के व्यवहारों तथा अस्थिर फैशनों से मुक्ति कर लेनी होगी। परानुकरण से बढकर संघ की
अन्य कोई अवमानना नहीं हो सकती। हम स्मरण रखें कि अन्धानुकरण का अर्थ प्रगति नहीं, वह
तो आत्मिक पराधीनता की ओर ले जाता है।
समाज इसे समझे और वैश्विक आवश्यकताओं पर खरा उतरे। आज चहूं ओर जो घोर निराशा व
भय का वातावरण है,
उसमें जैन धर्म के सिद्धान्त ही आशा की एक किरण हैं।-सूरिरामचन्द्र
गुरुवार, 10 मार्च 2016
संयम सहज नहीं है
पेट भरने के लिए दीक्षा नहीं ली जाती। जो ऐसा बोलते हैं कि बेचारा दुःखी था, पेट
भरने का साधन नहीं था,
इसलिए दीक्षा ले ली, वे वास्तव में भयंकर पापात्मा
हैं। उन लोगों को अपना पेट भरने के लिए चाहे जैसे निर्दय काम करते हुए भी शर्म
नहीं आती है। चाहे जैसी गुलामी करने में भी उनको निर्बलता नहीं दिखाई देती। दूसरे
पेट भरने के लिए दीक्षा लेते हैं, ऐसा कहने वाले पापात्माओं को भागवती
दीक्षा पर या धर्म के ऊपर तनिक भी प्रेम नहीं होता है।
मांग कर लाना और मिले उससे पेट भरना। मिले तो खाना, न
मिले तो पूरी मन की प्रफुल्लता से तप करना और संयम पालना, यह
कोई सहज वस्तु नहीं है। इसलिए ऐसे यथेच्छ बोलने वाले, ऐसा
बोलते भले ही हों,
परन्तु वे समझते हैं कि ‘संयम पालना सहज नहीं
है’। नहीं तो बदमाशी करके पेट भरने वाले उन लोगों ने कभी का वेश पहनकर यह
कपटपूर्ण प्रयत्न किया ही होता।-सूरिरामचन्द्र
बुधवार, 9 मार्च 2016
मोक्ष-साधक यज्ञ
शरीर वेदिका है,
आत्मा यज्ञ की कर्ता है, तप अग्नि है, ज्ञान
घी है, कर्म समिधा (काष्ठ) है,
क्रोध आदि पशु हैं, सत्य यज्ञ स्तम्भ है, समस्त
प्राणियों की रक्षा ही दक्षिणा है और रत्नत्रयी (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान
और सम्यग्चारित्र) त्रिवेदी है। इस प्रकार किया गया यज्ञ मोक्ष का साधन होता है।
रत्नत्रयी (सम्यग्दर्शन,
सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र) रूपी त्रिवेदी में स्थिर
होने वाली आत्मा स्वयं ही यज्ञ की कर्ता है और वेदिका अपना शरीर ही है। उसमें वह
तपस्या रूपी अग्नि जलाता है और उस अग्नि को प्रज्वलित रखने के लिए ज्ञानरूपी घृत
की धारा अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित रखी जाती है। उस प्रज्वलित अग्नि में कर्मरूपी
काष्ठों को डालकर क्रोध आदि कषायोंरूपी पशुओं की उसमें आहुति दी जाती है। सत्य
यज्ञ का स्तम्भ है। प्राणी-मात्र की रक्षा करना दक्षिणा है। इस प्रकार का मन, वचन
और कायारूपी तीनों योगों की तल्लीनतापूर्वक यज्ञ करने वाला मनुष्य उस यज्ञ को
मुक्ति का साधन बनाता है।-सूरिरामचन्द्र
मंगलवार, 8 मार्च 2016
केवल मुक्ति की अभिलाषा हो
धर्म-प्रिय व्यक्ति को धर्म की रक्षार्थ सर्वस्व त्याग करने को सदैव तत्पर
रहना चाहिए। केवल मुक्ति की अभिलाषा से किया गया धर्म ही शुद्ध धर्म होता है। अन्य
सभी धर्म मलिन हैं और उनसे कब आत्मा का अधःपतन हो जाए, कहा
नहीं जा सकता। इसलिए शाश्वत सुख की अभिलाषा करने वाले मनुष्य को धर्म का आचरण केवल
मुक्ति की अभिलाषा से ही करना उचित है, क्योंकि उस प्रकार किए गए
धर्म से संसार का कोई भी मंगल असाध्य नहीं रहता। शुद्ध धर्म से प्राप्त ऐश्वर्य
आत्मा को पाप कर्मों में उलझने नहीं देता, बल्कि पाप से सचेत कर मुक्ति
की आराधना सरल बनाता है।-सूरिरामचन्द्र
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