सोमवार, 29 फ़रवरी 2016

जीव और कर्म का योग अनादि है



जीव और अजीव, ये दोनों तत्त्व जैसे अनादिकाल से हैं, वैसे जीव और अजीव तत्त्व का, अर्थात् जीव और कर्म का योग भी अनादि से ही है। पहले जीव शुद्ध था और बाद में कर्म के योग वाला बना’, ऐसा मानने पर प्रश्न खडा होगा कि शुद्ध जीव, कर्म के योग वाला अर्थात् अशुद्ध क्यों कर बना? जिस जीव में राग-द्वेष या अज्ञान आदि कुछ न हो और जो केवल शुद्ध स्वरूप वाला हो, वह जीव कर्म के संयोग वाला बन ही नहीं सकता। क्योंकि, ऐसा मानने से किसी प्रकार का कार्य-कारण भाव घटित नहीं हो सकता।

जो अशुद्ध हो और यदि उसमें शुद्ध होने की योग्यता हो, तो वह शुद्ध बन सकता है, परन्तु जिसका कोई कारण न हो, अर्थात् जो जीव शुद्ध स्वरूपवाला है, वह अशुद्ध स्वरूप वाला बने, यह संभव नहीं है। सच्चिदानंदमय जिसका स्वरूप है और जिसके शरीर, इन्द्रियां आदि कुछ न हो, वह जीव कर्म के योग वाला बना, ऐसा यदि कोई कहे तो उसे यह समझाना पडेगा कि वह जीव किस कारण से कर्म के योग वाला बना? शुद्ध जीव के लक्षण में ऐसी एक भी बात नहीं है, जो शुद्ध जीव को कर्म के योग वाला बना सकती हो। राग नहीं, द्वेष नहीं, अज्ञान नहीं, इन्द्रियां नहीं; ऐसा जीव कर्म के योग वाला कैसे बन सकता है? नहीं बन सकता।

इसलिए जैसे जीव और अजीव के अस्तित्व को अनादिकालीन मानना पडता है, वैसे जीव के साथ कर्म के योग के अस्तित्व को भी अनादिकालीन ही मानना पडता है। हमारी आत्मा कर्म से सम्बद्ध है न? हां! कब से हमारी आत्मा कर्म से सम्बद्ध है? अनादिकाल से। ऐसा माना, इसीलिए जीव और अजीव का अस्तित्व अनादिकालीन है, यह बात सिद्ध हुई। हम कभी नहीं थे और पैदा हुए, ऐसा नहीं है। यह जगत् कभी नहीं था और पैदा हुआ, ऐसा भी नहीं है। इसी तरह हम पहले शुद्ध ही थे और बाद में कर्म के योग से अशुद्ध बन गए, ऐसा भी नहीं है। जीव का अस्तित्व भी अनादिकालीन है; अजीव का अस्तित्व भी अनादिकालीन है और जीव एवं कर्म का योग भी अनादिकाल से है।

जीव और अजीव का अस्तित्व जैसे अनादिकाल से है, वैसे जीव और अजीव का अस्तित्व कितने काल तक रहने वाला है? कोई काल ऐसा नहीं आने वाला है, जिसमें जीव और अजीव का अस्तित्व मिट ही जाता हो। अस्तित्व मिटता हो तो ये जाएं कहां? जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य अनादिकालीन हैं, नित्य हैं; परन्तु उनकी अवस्थाएं बदलती ही रहती हैं। जीव ने यहां जन्म लिया तो कहीं से मर कर और यहां जीव मरा तो यहां से रवाना होकर कहीं उत्पन्न हुआ। वस्तुतः जीव न तो जन्मता है और न मरता है। शरीर का परिवर्तन होता है, उसे हम जन्म-मरण कह देते हैं।-सूरिरामचन्द्र

रविवार, 28 फ़रवरी 2016

ईश्वर किसी का कर्ता और हर्ता नहीं !



मोक्ष का अर्थ क्या है? आत्मा कर्म के योग से सर्वथा मुक्त बने, यही न? यदि कर्म का योग ही न हो तो मोक्ष-प्राप्ति की बात ही नहीं उठती, अर्थात् मोक्ष तत्त्व को मानने की जरूरत ही नहीं रहती। जो आत्मा की मोक्षपर्याय को मानते हैं, उन्हें आत्मा के साथ कर्म के योग को मानना पडता है। यह कर्म का योग ही आत्मा की मोक्ष पर्याय को प्रकट करने में बाधक है, यह मानना पडता है। वैसे तो जीव और अजीव, ये दो प्रकार के ही तत्त्व इस जगत् में विद्यमान हैं। किसी भी वस्तु का जब स्वतंत्र रूप से विचार करते हैं तो प्रतीत होता है कि या तो वह जीव है या अजीव है।

ये दोनों तत्त्व किसी के द्वारा रचित हैं या अरचित ही हैं? जीव या अजीव को किसी ने बनाया है क्या? नहीं! यदि जीव या अजीव को किसी ने पैदा किया हो तो वह पैदा करने वाला जीव है या अजीव? यदि उत्पन्न करने वाला जीव था, तो जीव का अस्तित्व (पूर्व में) था ही, यह निश्चित हो जाता है और अजीव तत्त्व था तो यह भी निर्णित हो जाता है। क्योंकि, अकेला जीव, अजीव को कैसे पैदा कर सकता है? दूसरी बात यह है कि जो जिसमें न हो, वह उसमें से कैसे पैदा हो सकता है? अर्थात् एक जीव था और उसने दूसरे जीवों को पैदा किया, यह भी संभव नहीं है।

कतिपय लोगों का कहना है कि, ‘ईश्वर ने सब जीवों को पैदा किया।तो सब जीवों को पैदा करने वाला ईश्वर देहधारी था या देहरहित? यदि देहधारी था तो यह कर्म से युक्त ही होना चाहिए और यदि देहधारी नहीं था, तो वह जगत् की रचना कर ही नहीं सकता। दूसरा प्रश्न यह होता है कि ईश्वर शुद्ध था या अशुद्ध? यदि अशुद्ध था, तो उसे ईश्वर नहीं कहा जा सकता। यदि वह शुद्ध था तो उसमें कर्तृत्व नहीं हो सकता। तीसरा प्रश्न यह होता है कि ईश्वर स्वतंत्र था या परतंत्र? यदि परतंत्र था तो उसमें ईश्वरत्व घटित नहीं हो सकता। यदि वह स्वतंत्र था तो उसे जीवों की रचना करने की आवश्यकता क्यों पडी? कदाचित् कोई कहे कि लीला (क्रीडा) के लिए बनाए, तो जिसमें राग या द्वेष न हो, उसमें लीला कैसे हो सकती है? लीला करने की इच्छा होना, राग है न? जिसमें राग का अंश भी न हो, उसे लीला करने की इच्छा कैसे हो सकती है? यदि उसमें राग माना जाए तो रागी को ईश्वर कैसे माना जा सकता है? अतः ईश्वर ने जीवों को पैदा किया, ऐसा कहने वालों को तत्त्व का सच्चा ज्ञान ही नहीं है। जीव तत्त्व और अजीव तत्त्व को किसी ने बनाया नहीं, अपितु ये दोनों तत्त्व अनादिकाल से हैं ही। क्योंकि, यदि ये नहीं थे तो उत्पन्न कैसे हुए? यह प्रश्न खडा होता है। यदि आपने तत्त्वज्ञान पाया हो तो तत्त्वों के स्वरूप का इस प्रकार विचार कर सकते हैं न?-सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

अज्ञान के साथ आग्रह मिल जाए तो दुर्दशा तय है



अज्ञान बहुत बुरा है, परन्तु जब अज्ञान के साथ आग्रह मिल जाता है तो वह बहुत दुर्दशा कर डालता है। ऐसी स्थिति में करेला और नीम चढा’, वाली कहावत ही चरितार्थ होती है। वहां घोर मिथ्यात्व की कडुवाहट ही होती है, सम्यक्त्व का माधुर्य वहां नहीं हो सकता। अज्ञान और आग्रह इन दो पर मिथ्यात्व जीवित रहता है, फलता है, फूलता है।

बहुत अज्ञान हो अथवा बहुत दुराग्रह हो तो मिथ्यात्व अच्छी तरह जीवित रहता है। अज्ञान के साथ आग्रह मिल जाए तो दुर्दशा तय है। इसलिए जिसे मिथ्यात्व की कडुवाहट नहीं चाहिए, जो दुर्गति में नहीं जाना चाहता और जिसे सम्यक्त्व का माधुर्य व अक्षय सुख, अक्षय आनंद स्वरूप मोक्ष चाहिए, उसे इन दोनों से बचना चाहिए। आभिग्रहिक मिथ्यात्व के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए परम उपकारी वाचकशेखर श्रीमद् यशोविजयजी महाराज फरमाते हैं कि-

तत्त्वों के स्वरूप के विषय में जिसे वास्तविक ज्ञान न हो, ऐसे अज्ञानी जीव का स्व-अभ्युपगत अर्थ का ऐसा श्रद्धान कि जिससे उस स्वीकृत अर्थ से विपरीत बात को वह समझ ही न सके या सुनना-समझना ही न चाहे, उसे आभिग्रहिक मिथ्यादृष्टि जीव कहते हैं।

जो तत्त्व को नहीं जानता और स्वयं द्वारा स्वीकृत वस्तु के प्रति जिसमें ऐसी दृढ श्रद्धा हो या ऐसा दृढ आग्रह हो कि उसकी मान्यता मिथ्या होने पर भी, यह मान्यता मिथ्या है, ऐसा मानने-समझने का जिसे अवकाश ही नहीं, ऐसा जो मिथ्यात्व है, वह आभिग्रहिक मिथ्यात्व कहा जाता है।

कुदर्शन के आग्रहियों और वितंडावादियों में भी यह मिथ्यात्व होता है। वे स्वयं जो कुछ मानते हैं, वही सत्य है, ऐसा मानकर वे चलते हैं और उनकी मान्यता से भिन्न बात आए तो इतनी शंका भी उन्हें नहीं होती कि कदाचित् मेरा माना हुआ मिथ्या और इनका माना हुआ सत्य तो नहीं है? इतनी भी शंका पैदा हो तो जिज्ञासा प्रकट हो सकती है।

शंका हो तो अपनी मान्यता का आग्रह ढीला पडता है और दूसरे के विचारों को सुनने का मन होता है। वह तो ऐसा आग्रही होता है कि कदाचित् सामने वाले की बात को सुने और विचारे तो भी इस दृष्टि से कि उसकी बात को किस युक्ति से झूठी सिद्ध की जा सकती है। सामने वाले की बात समझनी है, ऐसी श्रद्धा उसमें नहीं होती। परन्तु, येन-केन-प्रकारेण उसकी बात को खण्डित करना है, ऐसी भावना उसमें होती है। जहां तक मिथ्यात्व इतना जोरदार हो, वहां तक चाहे जैसा सुन्दर योग मिले तो भी जीव मिथ्यात्व को हटाकर सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर सकता। जो सम्यक्त्व प्राप्त नहीं कर सकता, उसका कुल और मानव जीवन व्यर्थ है।-सूरिरामचन्द्र

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

पुत्र तत्त्वज्ञान रहित हो तो कलेजा कांपता है?



आज अधिकांश को धर्म-विषयक अज्ञान खटकता ही नहीं है। व्यावहारिक ज्ञान के प्रति जैसी ललक है, धार्मिक ज्ञान या तात्विक ज्ञान के प्रति वैसी ललक लगभग नहीं है। व्यावहारिक विषयों का अज्ञान इतना अधिक खटकता है कि अनपढ माँ-बाप भी पुत्रों को शक्ति से उपरांत जाकर भी पढाने का प्रयत्न करते हैं। व्यवहार में तो लडका जरा-भी बडा हुआ कि उसे पढाने की सावधानी रखी जाती है। पढाने की मेहनत करने पर भी यदि लडका ठीक से नहीं पढ पाता है तो विचार आता है कि इसकी जिन्दगी बरबाद हो जाएगी; और मुझे इसका पालन-पोषण करना पडेगा, इस भय से अपने प्रिय पुत्र को भी बात-बात में ताना मारा जाता है। क्या ऐसा विचार आपको तत्त्वज्ञान-रहित पुत्र के विषय में भी आता है?

संतान की व्यावहारिक जिम्मेदारी तो आप समझते हैं, परन्तु धार्मिक जिम्मेदारी नहीं समझते हैं तो क्या कहना चाहिए? जो भगवान को, गुरु को और भगवान द्वारा प्ररूपित धर्म को नहीं मानते, उनकी बात अलग है; ऐसे लोग अपने और अपनी संतान के परलोक सम्बन्धी हित की चिन्ता न करें तो कोई अचरज की बात नहीं है, परन्तु आप तो शुद्ध देवादि को मानने का दावा करते हैं, फिर भी आपका पुत्र देव-गुरु-धर्म के स्वरूप के विषय में अज्ञानी रहे, इसकी आपको चिन्ता न हो तो आप में धर्म आया है, यह कैसे माना जाए?

कतिपय गांव ऐसे थे, जहां अंग्रेजी भाषा की शिक्षा और व्यावहारिक शिक्षा की सरकारी व्यवस्था नहीं थी, तो ग्रामवासियों ने पैसे एकत्रित कर वैसी व्यवस्था खडी की। गांव की स्थिति यदि कमजोर थी तो बाहर से भी पैसे एकत्रित करके वैसी व्यवस्था की। क्योंकि, उसकी आवश्यकता महसूस हो गई! इसके बिना चल नहीं सकता, ऐसा माना गया। वैसे ही यदि लडका 20 वर्ष का हो गया, फिर भी उसे प्रतिक्रमणादि न आए तो क्या आपको उसका दुःख होता है?

कुटुम्ब में स्त्रियों को रसोई बनाना न आए तो खटकने लायक बात होती है, परन्तु धर्म न आए तो क्या आपको खटकता है? यदि लडका व्यवहार के विषय में होशियार न हो तो कलेजा कांपता है, परन्तु यदि वह धर्म के सामने भी नहीं देखता हो, तो अधिक से अधिक इसके कर्म भारी हैं’, ऐसा कहकर ही संतोष कर लेते हैं न? मिथ्यात्व एक रूप में नहीं, अपितु अनेक रूप में नाचता है और नचवाता है। मिथ्यात्व हटे और सम्यक्त्व प्रकटे तो अनेक गुण स्वयमेव प्रकट होने लगते हैं।

मिथ्यात्व को हटाने के लिए जीवादि तत्त्वों के स्वरूप का ज्ञाता बनने का प्रयत्न करना चाहिए और जीवादि तत्त्वों के निश्चय के अभाव रूप, अनधिगम रूप मिथ्यात्व को टालना चाहिए। धार्मिक अज्ञान खटकना ही चाहिए। ऐसे के ऐसे अज्ञानी रहना और मिथ्यात्व टल जाएगा, ऐसा मानना योग्य नहीं है।-सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016

कैसा जीवन जीएं?



आज आवश्यकताओं की कोई सीमा नहीं है। इसी कारण मनुष्य, मनुष्य न रहकर पशु बन गया है। अपनी बढी हुई आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए रास्ते में आने वाले बाधक तत्त्वों को फेंकदेने, मिटादेने की वृत्ति फैल रही है। समर्थ न हो तो दबकर रहेगा, लेकिन वृत्ति तो यही रहती है। ऐसी दशा में भी यह आदर्श आँखों के सामने आ जाए कि किसी का सुख छीनकर मुझे अपना स्वार्थ सिद्ध नहीं करना है’, तो अवश्य फर्क पडेगा। मुझे किसी का बाधक नहीं बनना है, यह वृत्ति और ऐसी प्रबल भावना प्रकट हो जाए तो मानव के जीवन में बडा परिवर्तन आए बिना नहीं रह सकता।

यहां यह सवाल सहज ही उठ सकता है कि मैं किसी का बाधक न बनूं, पर कोई मेरा बाधक बन जाए तो मुझे क्या करना चाहिए?’ इसका सीधा जवाब यही है कि आप अधिक विवेकी हैं, इसलिए आपको सहन कर लेना चाहिए। दूसरा अपना बाधक बने तो भी हमें उसका बाधक नहीं बनना चाहिए। बल्कि उसके अज्ञान को समझ कर, उस पर दया कर के, उसे भी सीधे रास्ते पर लाने की कोशिश करनी चाहिए। यही आदर्श प्रत्येक मनुष्य का होना चाहिए, भले ही इसका अमल पूर्ण रूप से न हो सके, पर फिर भी यह आदर्श निश्चित हो जाना चाहिए। इस आदर्श का जितना अमल होगा, जीवन में उतना ही लाभ होगा। यह स्वाभाविक है कि सबसे इस आदर्श का पूर्णतया पालन संभव नहीं है, पर इसे जीवन का आदर्श बना लेने पर परिवर्तन आए बिना नहीं रहता, यह भी निश्चित है।

मुझे किसी का बाधक नहीं बनना चाहिए, ऐसी भावना आने के बाद आत्मा धर्म के बिना एक क्षण भी नहीं रह सकती और कोई मेरा बाधक बने तब भी मुझे उसके विरूद्ध नहीं होना है, ऐसी उमदा वृत्ति का प्रादुर्भाव धर्म के कारण हुए बिना नहीं रहता।

मनुष्य सभी जीवों में श्रेष्ठ है’, यह बात दार्शनिक मानते हैं और जडवादी भी मानते हैं। मनुष्यों में भी जो ज्ञानी हैं, वह अन्यों से महान हैं और ज्ञानियों में भी जो विवेकयुक्त हैं, वे उनसे महान हैं। अब सोचिए कि महान को महान कब कहा जाएगा? जो नीच व्यक्ति के द्वारा किए गए अपने प्रति खराब व्यवहार को माफ कर दे, वही महान कहा जाएगा। अज्ञानी, ज्ञानी को गाली दे और उसके बदले में ज्ञानी भी अज्ञानी को गाली दे तो आप उसे क्या कहेंगे? दोनों एक जैसे हैं! आपको लगना चाहिए कि मुझे प्राप्त होने वाली प्रतिकूलता किसी न किसी तरह मेरे ही किसी कृत्य का फल है, चाहे वह कृत्य इस जन्म का हो या पिछले जन्म का। इसलिए अब किसी भी हालत में दुष्कृत्य नहीं करना है। पिछले जन्मों के कृत्यों के आधार पर भाग्य का निर्माण हुआ है और उसी के अनुरूप अनुकूलताएं या प्रतिकूलताएं मिलती हैं, यह सिद्धान्त याद रखने योग्य है। भाग्य के साथ इस जन्म का पुरुषार्थ आदि अन्य चीजों की भी जरूरत पडती है, लेकिन भाग्य तो परमावश्यक है। इसके अभाव में प्राप्त वस्तुएं भी हाथ से निकल जाती हैं। ऐसी परिस्थिति में भी क्रोध का जन्म न हो, यह तभी संभव है कि जब उपर्युक्त सिद्धान्त हृदय में बैठ जाए।-सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

लोभी व्यक्ति परिताप सहता है!



जो लोभ वाला व्यक्ति है, आकांक्षा वाला व्यक्ति है, जिसके मन में अनेकों इच्छाएँ हैं, वह रात दिन परिताप को सहन करता रहता है। अनेकों संकल्प-विकल्प उसके मन में उठते रहते हैं। उसको अपने लोभ में, अपनी तृष्णा में न काल का ध्यान रहता है, न अकाल का ही ध्यान रहता है। ऐसे व्यक्ति को समय-असमय का कोई ध्यान नहीं रहता है। उसके लिए तो फिर 4 बजे भी कहीं उठकर जाना है तो जाना है और 1 बजे उठकर जाना है तो जाना है। शास्त्रकार कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति संयोगार्थी होता है। अपने जीवन के लिए पारिवारिक जनों के लिए, बाह्य यश-प्रतिष्ठा को प्राप्त करने के लिए, वह विविध प्रकार के संयोगों को जुटाता है।

उसके मन में बस एक ही आकांक्षा होती है कि मैं कैसे अधिक से अधिक यश-प्रतिष्ठा अर्जित करूँ, कैसे देश में प्रतिष्ठित व्यक्ति बनूँ? कैसे मेरी समाज में पूछ-परख बढ जाए? ऐसी आकांक्षाएँ रखने वाला व्यक्ति फिर अर्थ का लोभी हो जाता है। रात-दिन उसका ध्यान अर्थ के प्रति लगा रहता है। उसका यही चिन्तन चलता रहता है कि कैसे मैं अधिक से अधिक धन एकत्र करूँ? भौतिक पदार्थों के प्रति ही उसका ध्यान लगा रहता है। उस अर्थ के लोभी व्यक्ति को यदि धन नहीं मिलता है तो फिर वह लूट-खसोट का काम भी करने लगता है। क्या करता है? एक दूसरे का गला काटने लगता है। ये माया के चक्कर, ये लोभ किस दृष्टि के व्यक्तियों में जागृत होते हैं, जिनका आत्मा पर ध्यान नहीं होता है। केवल जड पदार्थों के प्रति ही जिनका ध्यान लगा होता है। ऐसा व्यक्ति फिर बिना विचार किए ही कार्य करने वाला बन जाता है। फिर वह यह चिन्तन करना भी भूल जाता है कि मैं किसलिए धन को इकट्ठा कर रहा हूँ? किसके लिए धन-सम्पत्ति जुटा रहा हूँ?

जो संयम-साधना के प्रति सक्रिय होता है, उसकी जीवन-दृष्टि कुछ और ही होती है। इसके विपरीत जो लोभ के प्रति आसक्त बना होता है, उसकी जीवन-दृष्टि कुछ और ही होती है। उसके जीवन की गति ही विपरीत होती है। हम अपने अज्ञान के आवरणों को तोडें। सम्यकज्ञान का बोध हमें हो। तत्वातत्व का विवेक हमारे भीतर जागे। जन्म-मरण से बचने का प्रयास करें। मुक्ति को पाने का प्रयास हमारा बने। अन्यथा हजारों बार हम उच्चारण कर लें कि हमारा जन्म-मरण हो रहा है, हम हजारों बार जन्म-मरण कर रहे हैं। तो केवल उच्चारण करने मात्र से कुछ नहीं होता है। हमारे अन्तरंग में यह बात सम्यक रूप से बैठनी चाहिए तो जीवन की दिशा बदल सकती है। ऐसे हमारे जीवन की दिशा अगर बदलेगी, तो हमारा आत्म-कल्याण होगा।-सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

मरण से नहीं, जन्म से डरो



एक दिन सबको मरना है। जन्म पाने वाला मरता ही है, यह सुनिश्चित बात है। जब मरण आना ही है और वह भी अपनी जानकारी के बगैर अचानक, तो फिर सावचेत रहने में बुद्धिमत्ता या लापरवाह रहने में बुद्धिमत्ता? ज्ञानियों ने मरण से डरने की मनाई की है। ज्ञानीगण तो मरण से डरने वालों को कहते हैं कि मृत्यु से तुम डरो या न डरो, यह तो आनेवाली ही है। कारण कि जन्म के बाद मृत्यु निश्चित है। मरण नहीं चाहिए तो जन्म नहीं हो, ऐसा प्रयत्न करो, क्योंकि जिसका जन्म नहीं, उसकी मृत्यु नहीं। इस रीति से कहकर, मरण से नहीं डरते हुए जन्म से डरने का ज्ञानियों ने सूचित किया है और शाश्वत काल के लिए जन्म से छुटकारा मिल जाए, इस प्रकार का इस जीवन में प्रयत्न करने की प्रेरणा की है।

यहां यह बात स्पष्ट ध्यान में रखने की है कि मृत्यु से निर्लज्ज होकर नहीं डरना, यह तो उल्टा नुकसान कारक है। मृत्यु से बेफिक्र बनकर स्वयं के जीवन को पापमय बना देना, यह तो एकान्त रूप से अनर्थ कारक है। मृत्यु का डर निकालने का कहने वालों ने जन्म से डरने का और जन्म से डरकर पुनः-पुनः जन्म न करना पडे, ऐसा सुप्रयत्न करने का साथ में फरमाया है। इससे स्पष्ट है कि मृत्यु से डरकर मृत्यु को दूर भगाने का प्रयत्न करना, इसका कोई अर्थ नहीं। मृत्यु से डरे बिना जन्म न करना पडे, ऐसा प्रयत्न करना, यही हितकारक है। जो आत्मा इस प्रयत्न में जीवन व्यतीत करता है, उसको पश्चाताप नहीं करना पडता। किसी भी क्षण में मौत आ जाए तो भी सच्चे धर्मात्मा व्यथित नहीं रहते हैं, किन्तु यह दशा आना आसान नहीं है।

आप जीवन को एकदम निष्पाप न बना सको, यह संभव है। किन्तु, जीवन को निष्पाप बनाने के पहले कदम के रूप में पापभीरुता तो अपनाओ। सबसे पहले यह काम करो कि आत्मा को पाप से डरने वाला बनाओ। पाप से डरने वाला तीव्र बंध नहीं करता है। पाप का विचार आने पर भी उसको दुःख होता है। पाप करना उसे अच्छा नहीं लगता है। इसलिए बहुत से पाप तो इससे दूर ही रहते हैं। जो थोडे पाप वह करता है, वह भी मन में दुःख, ग्लानि और पश्चाताप के साथ करता है अथवा तो दूसरों की तरह रसपूर्वक नहीं करता है। इसलिए उसको पापकर्म का बंध, वैसा दृढ नहीं ही होता है। जीवन में सच्ची पापभीरुता आ जाए तो निष्पाप जीवन बहुत दूर नहीं रहता है। ऐसी आत्मा जिसमें थोडा-बहुत पाप का डर है, उसमें अवसर-अवसर पर शुभ भावना आनी आसान है। जीवन के अंतिम समय में दुनियादारी के राग-द्वेष जिसको व्यथित करते हैं, वह दुर्गति में ही जाता है। अन्त समय की दशा अच्छी होती है तो गति अच्छी ही होती है। इसलिए अन्तिम समय में आत्मा दुनियादारी की ममता छोडे और एकमात्र देव, गुरु, धर्म का शरण स्वीकार करे। इस दशा को लाने के लिए अभी से आत्मा को भावित करना चाहिए।-सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

विपत्ति और समाधि



विपत्ति तो आएगी जब आएगी, किन्तु विपत्ति आएगीऐसा खयाल मात्र भी कैसी विपत्ति को खडा कर देता है? व्यथित होने से या घबराने से अवश्य आने वाली विपत्ति कोई थोडे ही रुक सकती है? जब व्यथित होने से या घबराने से, विपत्ति का आवागमन रोक नहीं सकते तो फिर विपत्ति आने के पहले खेदित होना, दुःख का अनुभव करना, ‘आह-आह क्या होगा?’ इस प्रकार करना, इससे फायदा क्या? ऐसी व्यथा और घबराहट दुःख में कुछ भी कमी नहीं कर सकती, अपितु दुःख में बढोतरी करने वाली ही होती है। विपत्ति आने वाली है, यह जानकर तो व्यक्ति को सावधान बन जाना चाहिए।

इस विपत्ति के समय आत्म-सम्पत्ति नष्ट न हो जाए, इसकी विशेष सावचेती रखनी चाहिए। आई हुई विपत्ति के निमित्त से आत्म-सम्पत्ति को विशेष रूप से प्रकट कर सकें, ऐसा प्रयत्न करना चाहिए। अचानक विपत्ति आती है तो तैयारी करने का समय नहीं रहता, किन्तु यदि पूर्व में ही उसकी सूचना मिल जाती है तो उस विपत्ति के समय समाधि रह सके, ऐसा हो सकता है। किन्तु, यह किसके लिए? विवेकी के लिए। अविवेकी तो विपत्ति आने वाली है, ऐसा जानकर ही व्यथा में अर्द्धमृतक जैसा हो जाता है। कितनी ही बार तो विपत्ति से भी, विपत्ति आएगी, यह विचार बडी विपत्तिरूप बन जाता है। कई बार तो ऐसे विचारों-विचारों में ही लोग पागल बन जाते हैं।

मतलब यह कि ऐसी व्यथा अथवा घबराहट इस लोक की और परलोक की, उभयदृष्टि से एकान्त हानिकारक ही है, इससे जगत के जीवमात्र के प्रति उपकार की भावना वाले ज्ञानी महापुरुष फरमाते हैं कि हित का उपाय तो यह है कि विपत्ति आनेवाली है, यह जानकर सद्विचारों में लीन बन जाएं और इस प्रकार आत्मा को सुस्थिर बना लें। विपत्ति के समय टिकने वाली समाधि तो दूसरी अनेकविध विपत्तियों के मूल का उच्छेदन कर देती है।

कर्माधीन आत्माओं के सब दिन एक समान नहीं होते हैं। कर्माधीन आत्मा का एक भी भव किसी न किसी प्रकार के दुःख के बिना ही बीत जाए, यह संभव ही नहीं है। विशेष पुण्यवान हो तो सुख का प्रमाण अधिक और विशेष पापी हो तो दुःख का प्रमाण अधिक। किन्तु, आदि से अंत तक एकान्त सुखमय जीवन कर्माधीन जीवों को प्राप्त होता ही नहीं है। क्या कोई एक भी मनुष्य कह सकता है कि मुझे मेरी जिन्दगी में दुःख का लवलेश भी अनुभव नहीं हुआ।ऐसा होने पर भी, दुःख में भी सुख का अनुभव कर सके, ऐसा मार्ग उपकारी महापुरुषों ने दिखाया है। श्री जिनशासन के रहस्य को पाए हुए परमोपकारी महापुरुषों के द्वारा दिखाए गए मार्ग का यथास्थितिरूप से सेवन किया जाए तो भयंकर दुःख के योग में भी आत्मिक सुख का सुन्दर से सुन्दर आस्वादन प्राप्त कर सकते हैं और साथ ही साथ दुःखमात्र की जड के समान कर्मसमूह की निर्जरा भी सिद्ध हो सकती है।-सूरिरामचन्द्र