गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

आत्म-कल्याण के लिए 9 कर्त्तव्य



शास्त्रकारों ने, तत्त्वज्ञानी महापुरुषों ने, विश्व के जीव मात्र का भला चाहने वालों ने यह उपदेश दिया है कि संसार की नाशवंत वस्तुओं को एक न एक दिन तो छोडना ही पडेगा, यह निश्चित है, इसलिए तुम इन्हें स्वयं ही क्यों न छोड दो? यदि न छोड सको तो कम से कम अपने नव कर्त्तव्यों का पालन तो अवश्य करो ताकि शान्तिपूर्वक जी सको, शान्तिपूर्वक मर सको और बाद के भव में भी क्रमशः आत्मा का श्रेयः साध सको।

इसके लिए प्रथमतः जीवन में शान्ति प्रदाता, मृत्यु के समय आत्मा को आक्रंद से बचाने वाले एवं अंतिम समय कल्याण की उत्कट साधना में सहायक, आत्मा को पाप से दूर करके आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्रकट करने वाले श्री वीतराग परमात्मा जो राग-द्वेष से परे हैं, संसार के समस्त बंधनों का नाश करके जो श्रेष्ठ अवस्था को प्राप्त हुए हैं, जिन्होंने संसार से पार होने का मार्ग प्रस्थापित किया है, स्वच्छ दर्पण की भाँति जो हमें आत्मदशा का ज्ञान कराते हैं, उनकी भक्ति करें, उनके द्वारा निषेधित कार्य नहीं करने का संकल्प करें, करने योग्य कार्यों को शक्ति के अनुसार करने का संकल्प करें।

दूसरा, छोटा हो या बडा, अपना हो या पराया, दुश्मन हो या मित्र सभी जीवों के प्रति करुणाभाव रखें। तीसरा, यथाशक्ति दान करें। जिस जीव को जिस समय जो आवश्यकता हो, उसे योग्य वस्तु देकर उसके दुःख का समाधान करें। भूख से पीडित दुःखियों को आहार, वस्त्रादि का दान करना, धर्म के मूल को पोषने के समान है।

अनंत ज्ञानियों द्वारा संसार सागर से पार होने के लिए दर्शित मार्ग की प्ररूपणा करने वाले शास्त्रों का श्रद्धापूर्वक श्रवण करना, यह चौथा कर्त्तव्य है।

पांचवां, ‘पाप पोहे समीहापूर्व में कृत और वर्तमान में हो रहे पापों को नष्ट करने के लिए पश्चाताप करें, उन्हें स्वीकार कर उनका प्रायश्चित करें, उसके लिए दण्ड स्वीकार करें और भविष्य में वे पाप नहीं करने की इच्छा रखें।

छठा, विषय-कषायरूप भव की भीति, अर्थात् संसार का डर। स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द ये पांच इन्द्रियों के पांच विषय हैं। क्रोध, अभिमान, प्रपंच और लोभ ये चार कषाय जो संसार के कारण हैं, उनसे भयभीत होना चाहिए।

आत्मा के शुद्ध स्वरूप का प्रकटीकरण और उस स्वरूप को प्रकट करने का जो मार्ग है, उसे मुक्ति मार्ग कहते हैं, उस मार्ग का अनुराग सातवां कर्त्तव्य है। संसार के प्रति विराग भाव प्रकटे, ऐसे सत्पुरुषों का संसर्ग करना आठवां कर्त्तव्य है। और नवां, विषयों से विरक्त बनने का प्रयास करें। विषयविरागी भले ही संसार में रहता हो, गृहत्याग न किया हो, फिर भी वह अनेक पापों से बच जाता है, दूसरों को भी बचा सकता है।-सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 30 दिसंबर 2015

परस्त्री का त्याग और स्व-स्त्री में संतोषवृत्ति



विषय सुख की वासना अच्छे-अच्छे आदमियों को भी हैवान एवं पाप से डरने वालों को भी पापासक्त बना सकती है। साधु पुरुषों के लिए तो काम-भावना के उद्देश्य से इन्द्रियों का यत्किंचित विचार भी धिक्कार और दोष रूप होता है। उन्हें तो मन, वचन, काया से सर्व प्रकार के सम्भोगों का त्याग ही करना होता है। गृहस्थों में जो सर्वथा ब्रह्मचर्य पालन करने में अशक्त होते हैं, ऐसे गृहस्थों को पर-स्त्री मात्र का त्याग करना चाहिए तथा अपनी विवाहिता स्त्री में ही संतोष वाले बनना चाहिए।

परस्त्री से विमुखता और स्वस्त्री से संतोष यह दो बातें गृहस्थ के रूप में उत्तम ब्रह्मचारी बनाने वाली मानी गई है। सच तो यह है कि गृहस्थ को भी विषय सेवन के प्रति ग्लानि होनी चाहिए। गृहस्थ को अपनी दृष्टि ऐसी निर्मल बनानी चाहिए कि कोई भी स्त्री नजर में आए तो उसके मन में विकार उत्पन्न न हो। अपनी पत्नी में भी काम का रंग चढाने की वृत्ति नहीं होनी चाहिए। वेदोदय रूप रोग के कारण यदि सहवास के बिना असमर्थ हो जाए तो बने जिस प्रकार रोगी दवा लेता है, उस प्रकार गृहस्थ भोग को भोगे, परन्तु मन को विषय-वासना का घर न बनने दे।

इन सबके लिए अनेक मर्यादाओं का पालन करना चाहिए। खराब संयोग भी आ जाए तो दृढ रहना एक बात है और खराब संयोगों में जानबूझकर जाना अलग बात है। विकार उत्पन्न करे, ऐसे प्रसंग मात्र से दूर रहने का प्रयत्न करना चाहिए। इसी हेतु ज्ञानी पुरुषों ने ब्रह्मचर्य की नौ बाडों का वर्णन किया है। माता और बहन के साथ भी युवा पुत्र या भाई को एकान्त में नहीं रहना चाहिए। यह जरूरी नहीं कि प्रत्येक का इस प्रकार पतन हो, परन्तु ये भी पतन की ओर ले जाने वाले संयोग उत्पन्न कर सकते हैं।

आज तो इस विषय में अनेक अमर्यादाएं बढ रही है, इसका कारण है विषयाभिलाषा की तीव्रता। जवान लडके और लडकियां आज जिस छूट-छाट को भोगने के लिए ललचा रहे हैं, उनके कितने गंभीर परिणाम आते हैं? इसका विचार सबको करना चाहिए। सिनेमा आदि विषय-विकारों को बढाने वाले संसाधन आज बढते ही जा रहे हैं। आज की शिक्षा भी इस आग में घी का काम कर रही है। विषय-वासना के कारणों ने आज विवाह संबंधी प्रश्नों को भी विकट बना दिया है।

पहले तो मां-बाप समान कुल, शील आदि देखकर विवाह करते थे और विवाहित बच्चे भी संतोष से जीवन व्यतीत करते थे। आज विषय-वासनाएं बढ गई है और इसलिए पति-पत्नी में मनमेल भी नहीं रहता। प्रेम-विवाह के नाम पर भी अनेक अनाचार चल रहे हैं और इन सभी स्थितियों में तलाक की आँधी चल रही है। क्या आर्य देश में ऐसा होना चाहिए? ब्रह्मचर्य तो ऐसा गुण है कि उसके बिना अन्य कोई गुण शोभित ही नहीं हो सकता और न ही स्थिरता को प्राप्त कर सकता है।-सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

जो जितना बडा परिग्रही, वो उतना ही बडा चोर



धन का लोभी व्यक्ति, लूट-खसोट करता है। एक दूसरे को लूटता है। परिग्रह में आसक्त होता है। फिर वह परिग्रही चित्त वाला व्यक्ति, आसक्ति वाला व्यक्ति छः काय-जीवों की विराधना करता है। हिंसादि में दौडता है। वह, यह सब कुछ किसलिए करता है? वह व्यक्ति ये सब कुछ पाप करता हुआ सोचता है कि इससे मेरा मनोबल बढ जाएगा। मेरा आत्मबल बढ जाएगा और मेरे पास का संग्रह-परिग्रह अधिक हो जाएगा। तो फिर मेरा मित्र-बल भी बढ जाएगा। मेरा देव-बल बढ जाएगा। मेरा राजबल बढ जाएगा और गिनाते-गिनाते वह पाप कार्य में आसक्त व्यक्ति कहता है, सोचता है कि मेरा चोर-बल भी बढ जाएगा।

जो जितना ज्यादा परिग्रही होता है, उतना ही बडा चोर होता है। वह टेक्स की चोरी करता है, अब वह व्यक्ति धन्धे भी तो कैसे करता है? चोरी के धन्धे, तस्करी के धन्धे करता है। कालाबाजारी, ब्लेकमेल के धन्धे, (रिश्वतखोरी, भ्रष्ट कर्म) तो वह करता ही है और यह धन्धा सरकार से छुप-छुप कर किया जाता है, तो यह भी तो अपने आप में एक प्रकार की चोरी ही है। अब यह बात अलग है कि वह थोडा सभ्य चोर है। वे चोर जो चोरी करते हैं, सेठों के घर में धन चुराते हैं, वे थोडे असभ्य चोर होते हैं, गांठ खोलकर चोरी करते हैं। लेकिन ये चोर थोडी सभ्यता से चोरी करते हैं।

इस दुनिया में चारों ओर चोर ही चोर हैं। सारी दुनिया ही चोरों से भरी हुई है। परिग्रही व्यक्ति सत्ता वाला बन जाएगा, आसक्ति वाला बन जाएगा, तो वह बडा चोर बन जाएगा। और जब उसकी सत्ता बढ जाती है, तो फिर वह व्यक्ति सोचता है कि मेरा अतिथि-बल भी बढ जाएगा? अतिथि बल कैसे बढेगा? वह परिग्रही व्यक्ति समाज में बडा सम्मानी हो जाएगा, उसका मान-सम्मान बढ जाएगा। समाज में उसकी प्रतिष्ठा बढ जाएगी। फिर उसे लोग अपने यहाँ आमंत्रित करेंगे और उसके यहाँ भी आने-जाने वाले व्यक्तियों की संख्या बढ जाएगी। फिर वह जहाँ भी जाएगा उसका बढ़िया से बढ़िया आतिथ्य किया जाएगा। क्योंकि उसके पास धन-सम्पत्ति बढ गई है और आज समाज में किसकी पूछ है? पैसे ही की तो पूछ होती है।

वह परिग्रही व्यक्ति चिन्तन करता है कि मैं भी लोगों का आतिथ्य-सत्कार करूँगा तो मेरी भी पूछ-परख बढ जाएगी। फिर मेरा श्रमण बल भी बढ जाएगा। साधु-सन्तों में भी मेरी पूछ-परख बढ जाएगी। साधु-सन्त मुझे ही पूछेंगे कि ओहो, सेठ साहब, सेठ साहब! शास्त्रकार कहते हैं कि वह व्यक्ति इस प्रकार का चिन्तन करता हुआ विविध प्रकार के हिंसादि कार्यों में रूचि लेने लगता है, अधिकाधिक आसक्त होता हुआ पाप कार्य की ओर गतिशील होता है और नरक का मेहमान बनता है।-सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 28 दिसंबर 2015

पाप के प्रति पश्चाताप है?



एक सझदार व्यक्ति पाप करता है और एक व्यक्ति जो पाप को पाप जानता ही नहीं, पाप को पाप समझता ही नहीं है, वह भी पाप करता है। अब पाप किसको ज्यादा लगेगा? एक तो अज्ञानता में पाप करता है, एक ज्ञान में पाप करता है। सामान्य दृष्टि से यही माना जाता है कि भला जानबूझकर जो इतना बडा पाप कर रहा है, जानबूझकर जो जहर खा रहा है तो मरेगा ही। तो क्या बिना जाने जहर खाने वाला व्यक्ति जहर से नहीं मरेगा? मरेगा तो वह भी, लेकिन जो जान बूझकर पाप कर रहा है, उसके मन में जागृति है कि मैं कितनी मजबूरी के कारण, परवशता के कारण यह पाप कर रहा हूँ। इस पाप से मैं कब मुक्त बनूँगा? इसके कारण मुझे कितने कर्म-बन्धन करने पड रहे हैं?

उसका पश्चाताप पूर्वक चिन्तन चलता रहता है। लेकिन, जो व्यक्ति अज्ञानता पूर्वक पाप करता है, वह पाप में रचा-पचा होता है। पाप में आसक्त होकर वह पाप कार्य करता है। दूसरी बात यह है कि उसने ज्ञान प्राप्त नहीं किया। वह भी तो उसके जीवन का एक बहुत बडा पाप है। क्योंकि उसने अपने जीवन में जीव-अजीव का, पुण्य-पाप का, जड-चेतन का ज्ञान प्राप्त किया ही नहीं। और जीवन भर यह कहकर पाप करता रहा कि मुझे तो मालूम हीं नहीं है कि यह पाप है? तुम अज्ञानी बने रहो और जीवन भर पाप करते रहो, यह भी तो जीवन का सबसे बडा पाप है।

तो यह जो एक धारणा है कि जानबूझकर पाप करने वाले को अधिक पाप लगता है, ऐसा नहीं है। यह धारणा गलत है। जानबूझकर पाप करने वाले के मन में तो पश्चाताप की भावना है। एक संसार में अनासक्त भाव से रहता है कि संसार में बैठा हूं, इसलिए निर्वहन के लिए मुझे यह सब करना पड रहा है, मेरे लिए वह दिन धन्य होगा, जब मैं इससे मुक्त हो सकूंगा। दूसरा संसार में आसक्त होकर, मस्त होकर, बिना किसी पछतावे के पाप कर रहा है, उसे किसी प्रकार की चिन्ता ही नहीं है। एक तो वह व्यक्ति पाप कर रहा है, जो जानकार है कि यह दवाई छिडकने से कितनी जीव हिंसा होगी? कितने जीवों की विराधना होगी? इन सबका पाप भी लगेगा। उस समय मन में पश्चाताप की भावना भी उठेगी। पाप के प्रति आसक्ति या लगाव नहीं होगा।

एक आपका नौकर है, वह यदि आप के घर की सफाई कर रहा है, तो उसके मन में पश्चाताप होगा क्या? वहाँ पश्चाताप नहीं होता है, क्योंकि उसे जीव-अजीव का ज्ञान ही नहीं है। जानकार है, तो मन में पश्चाताप करता है कि क्या करें, घर में जीव-जन्तु इतने बढ गए कि किसी तरह जाते ही नहीं हैं। इनकी सफाई करने के लिए हमें विवश होकर दवाई छिडकनी पडती है। जिसे पश्चाताप है, उसे पाप कम लगेगा और जो अज्ञानी है, उसे पाप अधिक लगेगा।-सूरिरामचन्द्र

रविवार, 27 दिसंबर 2015

तप क्यों?



खाने में कितनी उपाधि है? खाने में जो उपाधि है, उसे देख, भोजन पर गुस्सा न आए, वह बुद्धिशाली नहीं है। पेट की मांग नहीं होती तो क्या हल्के व्यक्तियों की गुलामी करनी पडती? कई लोग कहते हैं, ‘पेट कराए वेठ। भोजन के पहले और भोजन के बाद क्या कम उपाधि है? पहली चिन्ता भोजन प्राप्ति की, भोजन मिल जाए तो यह जीभ भूल कराती है, फिर पाचनतंत्र बिगडता है और उपाधि बढ जाती है। ज्यादा खाया तो मौत के मुँह में भी जा सकते हैं। खाने के पहले समस्या और खाने के बाद समस्या। भोजन के बाद दूसरे दिन मल-शुद्धि न हो तो भी चिन्ता, उसके लिए अरण्डे का तेल भी पीना पडता है। खाने में सुख कितना? थोडा। जीभ खुश हो उतना। मात्र शरीर के निर्वाह और धर्म आराधन के लिए भोजन करने वाले कितने? खाने को कितना चाहिए और उसके लिए परिग्रह कितना? खाने के लिए जी रहे हैं या जीने के लिए खाना है?

तप किसलिए? तप भूख से मरने के लिए नहीं है, बल्कि खाने की उपाधि दूर करने के लिए तप है। इन्द्रियां वश में रह सके, इसके लिए तप है। ज्यादा खाया तो इन्द्रियां बेकाबू, तामसिक खाया तो बेकाबू, राजसिक खाया तो इन्द्रियां बेकाबू। सात्विक और सीमित आहार, ताकि शरीर धर्म आराधन के लिए सक्रिय रह सके, ऐसा कितने लोग सोचते हैं? जो नहीं सोचते वे दुःख भोगते हैं। भोजन की तरह हर सुख में यही समस्या है। पहले प्राप्ति की चिन्ता, फिर उसके भोग में भी दुःख का अभाव नहीं। ज्ञानियों का कथन है, ‘जिस सुख में दुःख रहा हुआ है, वह सुख वर्ज्य है।

ज्ञानियों ने धर्म के तीन भेद अहिंसा, संयम और तप बतलाए हैं। उसमें सबसे पहले तप को समझना चाहिए। तप के साथ संयम आने लगता है और संयम आएगा तो अहिंसा भी अवश्य आएगी। इसलिए कह सकते हैं कि व्यक्ति जब तक तपस्वी नहीं बनता है अथवा तपस्वी बनने की इच्छा नहीं करता है, तब तक इंसान नहीं बनता है। सिर्फ भूखे-प्यासे रहना, उसी को तप नहीं कहा जाता है। ज्ञानियों ने इच्छा निरोध को तप कहा है। आज अनेक तपस्वियों को यह बात खयाल में नहीं है। ज्ञानी निर्दिष्ट तप करने का प्रयास किया जाए तो व्यक्ति संयमी व सच्चा अहिंसक बने बिना नहीं रहेगा। सदाचार की नींव इच्छा निरोध है। सदाचारी बनने के लिए इच्छाओं का निरोध किए बिना नहीं चलेगा। इच्छा निरोध का अभाव आदमी को शैतान भी बना दे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मानव भव जैसी उत्तम सामग्री मिलने पर भी जो इस बात को नहीं समझ सका, वह कल्पतरु की प्राप्ति में भी भिखारी ही रहा है। यह भौतिक सुख वर्ज्य नहीं है और अच्छा है, ऐसी बुद्धि पैदा कराने वाला मिथ्यात्व है। कर्म का प्रभाव नहीं होता तो ऐसी मिथ्या बुद्धि कहां से होती? ऐसे कर्मों की निर्जरा के लिए तप है। जब तक मिथ्यात्व न जाए, तब तक आत्मा में सम्यक्त्व प्रकट नहीं होता है। मिथ्यात्व की मंदता बिना जो धर्म होता है, वह बालक की गति जैसा होता है।-सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 26 दिसंबर 2015

अज्ञान सबसे बडा पाप !



हमारी यह चेतना अनन्त-अनन्त काल से संसार में परिभ्रमण कर रही है। यह बात हम अनेकों बार सुन चुके हैं, अनेकों बार पढ चुके हैं। उसकी पुनरावृत्ति शायद इतनी बार हो चुकी होगी कि उसकी गणना नहीं की जा सकती है। लेकिन, फिर भी लगता है यह बात हमारे अन्तरंग की गहराई में पैठ नहीं कर पाई है। अगर अन्तरंग में यह बात उतर जाती कि हमारी आत्मा, हमारी चेतना अनन्त-काल से भटक रही है और इस भटकाव के कारणों को अगर हम समझ लेते तो यह बात भी हमारी समझ में आ जाती कि इस भटकाव से हम मुक्त हो सकते हैं। समझ ही नहीं लेते फिर मुक्त होने के लिए हमारा प्रयास प्रारम्भ हो जाता।

लेकिन, विरली ही आत्माएँ होती हैं, जो इस ओर गतिशील हो पाती हैं। कछ आत्माएँ सामान्य रूप से इस ओर गतिशील होती हैं, कुछ विशेष रूप से इस ओर अपना प्रयास कर देती हैं।

जीवन का सर्वस्व अज्ञानता के कारण, भ्रान्तियों के कारण हम लुटा देते हैं। जो सिद्धि देने वाला जीवन-रस है, जो हमें सामर्थ्य दे सकता है, शक्ति दे सकता है, वही जीवन-रस जो मन, वचन, काया के योग से हमें सिद्धालय तक पहुँचा सकने में समर्थ है। वही जीवन-रस हम अज्ञानता के कारण कहाँ गवाँ रहे हैं? अज्ञानता के कारण हम कहाँ चले जाते हैं? नरक, तिर्यंच तक चले जाते हैं।

अगर ज्ञान है तो उससे हम मन, वचन, काया के योग से सम्यकत्व का बोध प्राप्त कर सकते हैं। और तो और उस सम्यक बोध से सिद्धालय तक पहुंचा जा सकता है। बहुत गहराई से चिन्तन का विषय है यह। हम अपने को बुद्धिजीवी मानते हैं। लेकिन हम यह सोचें कि हमारी बुद्धि का उपयोग हम कहाँ कर रहे हैं? मुक्ति के द्वार खोलने में कर रहे हैं या अन्य कार्यों को करने के लिए करते हैं? अपने जीवन-रस का हम दुरुपयोग कर रहे हैं।

न जाने कितनी विकृतियों से, कितनी ही भ्रान्तियों से हमारा जीवन घिरा हुआ है? इनसे क्या हम मुक्ति के द्वार खोल सकेंगे? अगर, हम अपनी मुक्ति के द्वार नहीं खोल पाते हैं, तो हम अपने जीवन-रस का दुरुपयोग करते हैं। इस जीवन-रस के ही द्वारा हम मुक्ति धाम को प्राप्त कर सकते हैं। उसे भी छोडिए, वर्तमान में भी हम उस जीवन-रस का आनन्द प्राप्त कर सकते हैं।

लेकिन, आज हम अपने उस जीवन रस को इन्द्रिय सुखों में समाप्त कर रहे हैं। संसार के भोगों में लगा रहे हैं। ऐसा करते-करते हमें अनन्त काल हो गया है। अज्ञानता के कारण हम ये करते चले जा रहे हैं। और इसीलिए ज्ञानी जन कहते हैं कि अज्ञान सबसे बडा पाप है। कौन सा पाप है? अज्ञान? अज्ञान-मिथ्यात्व है। और मिथ्यात्व तो अपने आप में सबसे बडा पाप बताया ही गया है।-सूरिरामचन्द्र