सोमवार, 30 नवंबर 2015

धर्म सदैव साथ होना चाहिए



आज धर्म करने वालों ने भी धर्म को प्रायः अवसरवादी बना दिया है। धर्म करने वालों में ऐसे भी हैं, जिनके हृदय में धर्म वास्तव में बसा ही नहीं है। आज साधु की भी अच्छी बात सुनने के लिए कितनों के पास समय है? सुसाधु के पैर छूने के लिए कभी गए हो? क्या आपने सुसाधु की चिन्ता की है? यद्यपि सुसाधु अपने धर्म के बल पर जीते हैं, न कि किसी की कृपा पर। लेकिन, आपका कर्त्तव्य क्या है? आज अधिकांश लोग वास्तव में धर्म नहीं, धर्म का दिखावा मात्र करते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि धर्म करेंगे तो दुनिया में अपना काम चलेगा, यह वृत्ति आज आप लोगों में बहुत बढ गई है, इसलिए धर्म का दिखावा चल रहा है। ऐसे कम ही लोग हैं, जिनके हृदय में वास्तव में धर्म का निवास है। जिसमें कोई खामी न हो, किसी की जरूरत न हो, इस तरह दुनिया के सुख में लीन रहने की बुद्धि से, धर्मदर्शक आत्माओं की परवाह किए बिना, केवल धर्माचरण का दिखावा करे और उसमें होने वाली गलतियों को गलती के रूप में समझते हुए भी उन्हें पाल रखे और इसके बावजूद भी वह धर्म वास्तव में हमें सहायक बनकर उन्नति प्रदान करे; यदि ऐसी आशा आप रखते हैं तो यह व्यर्थ है। हमें ऐसे धर्म की जरूरत है जो जीवन में हर पल, हर क्षण साथ रहे। कुछ स्थानों या समय पर ही धर्म हो, ऐसा नहीं। धर्म तो जीवन में सर्वत्र और हर पल होना चाहिए। आप पेढी पर बैठे हों, बाजार में व्यवसाय करते समय कोई सौदा कर रहे हों, अपने मित्रों के साथ बातचीत कर रहे हों या आनंद-प्रमोद की कोई क्रियाएं करते हों, इन सभी अवसरों पर धर्म आपके साथ होना चाहिए। इतना ही नहीं, आप खाते-पीते हों, उठते-बैठते हों, बातचीत करते हों या कहीं घूमते-फिरते हों, सब काल और सब काम में धर्म होना आवश्यक है।

इस तरह हर समय धर्म साथ में रहने से किसी भी काम के समय आपको विचार आएगा कि मैं जो प्रवृत्ति कर रहा हूं, वह किसी को भी प्रतिकूल तो नहीं है न? किसी की प्रतिकूलता मेरी अनुकूलता नहीं बननी चाहिए या किसी की अनुकूलता खत्म करके, मुझे अनुकूलता नहीं चाहिए।यह विचार आपको तभी आएगा, जब आपकी आत्मा सच्ची विवेकी और जागृत बनेगी। आपको सोचना चाहिए कि दूसरों की अनुकूलता छीनने का मुझे क्या हक है? यदि ऐसा नहीं सोचेंगे तो आपकी आत्मा हर पल, हर क्षण पाप करने का मौका मिलते ही कोई न कोई पाप अवश्य करेगी। आप बाजार में व्यापारी के रूप में घूम रहे हैं, लेकिन आप उद्योग-धंधे में कितनी अनीतियां करते हैं? क्या आप वास्तव में समाज में प्रतिष्ठा के लायक हैं? आज की दशा ऐसी है कि सब एक समान हो गए हैं, कौन किसको ताना मारेगा? इसका कारण यह है कि आपने धर्म को पकडा नहीं और दूसरी ही वस्तुओं के गुलाम हो गए हैं। यदि आपने धर्म को अपना साथी बनाया होता तो पौद्गलिक सुख के आप इतने बडे शौकिन नहीं बनते और आपकी मनुष्यता भी इतनी धूमिल नहीं होती।-सूरिरामचन्द्र

रविवार, 29 नवंबर 2015

रामचंद्रजी को क्रोध क्यों नहीं आया?



मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्रजी भाग्य की प्रबलताको मानते थे और उसी के अनुरूप उनका चिंतन होता था। यदि भाग्य की मान्यता उनके दिल में न होती तो श्री रामचन्द्रजी को क्रोध न आए, ऐसा नहीं होता। उनके संयोगों को देखिए। राजगद्दी मिलने के समय पिताजी दूसरों को राजगद्दी दे दें तो स्वाभाविक था कि उन्हें क्रोध आए, पर रामचन्द्रजी ने क्रोध नहीं किया, ऐसा शास्त्रों में लिखा है। आप सोचिए कि उन्हें क्रोध क्यों नहीं आया? कितना बडा राज्य और उसका राजा बनना, कितनी समृद्धि और सत्ता थी। सोचकर देखिए, यह सब आँखों के निमेष की तरह एक पल में बह गया, फिर भी उन्हें क्रोध नहीं आया। क्या आप से यह सहन होता? शक्ति आजमाने की इच्छा नहीं होगी?

विशेषता यह थी कि श्री रामचन्द्रजी यह सब पिता के वचन पालन के लिए सहते थे। वचन उनके पिताजी ने दिया था, रामचन्द्रजी ने नहीं, और वह वचन उन्होंने रामचन्द्रजी को पूछकर नहीं दिया था। ऐसे में सौतेली मां अपने पुत्र के लिए राज्य मांग लेती है, उनके पिताजी दे भी देते हैं और वह रामचन्द्रजी को स्वीकार्य भी होता है। यह सब क्या इतना सरल है? ऐसा क्यों हुआ? उन्हें ऐसे समय में भी न क्रोध आया, न दुःख हुआ, क्योंकि वे विवेकी थे। उन्हें कर्मसत्ता की प्रबलता का खयाल था। रामचन्द्रजी को राज्य नहीं मिलने में उनका तात्कालिक कोई अपराध नहीं था, पर ज्ञानी कहते हैं कि उनके पूर्व भव का कोई कर्मविपाक था। इसी प्रकार आप भी समझ लीजिए कि हमें जो अनुकूल या प्रतिकूल मिलता है, उसमें केवल बुद्धि काम नहीं करती। अच्छे संयोग अचानक परिवर्तित हो जाएं तो समझिए कि केवल इस भव का दोष नहीं है, अपितु पूर्व संचित पुण्य-पाप के उदय अनुसार भवितव्यता के मुताबिक जो होना होता है, वह हुए बिना नहीं रहता। ऐसा विश्वास दृढ कर लेने की जरूरत है।

रामचन्द्रजी को क्रोध नहीं आया, क्योंकि उनमें ऐसा विश्वास था। आज ऐसा कुछ साधारण-सा प्रसंग भी बन जाए तो क्या बाप को अदालत में गए बिना छुटकारा मिल सकता है? उसमें भी यह सिद्ध हो जाए कि यह पूर्वजों की सम्पत्ति है तो क्या होगा? बाप को जेल और बेटे सम्पत्ति पाकर खुश ! पिता-पुत्र का रिश्ता तो वही है, जो पहले था, लेकिन पहले और आज में काफी अंतर है। अच्छा या बुरा बनना अपने हाथ की बात है। दुनिया के चाहे जैसे संयोग हों पर आत्मा स्वभाव में रहे तो बहुत काम हो जाए। कितनी भी कीमती वस्तु मिले या चली जाए, मिले या न मिले, सुरक्षित रहे या खो जाए, पर यह विश्वास रखना चाहिए कि चीजों का मिलना, रहना या टिकना, यह भाग्याधीन है। पहले की अपेक्षा आज बहुत परिवर्तन आ गया है। फिर भी अच्छा बनना अपने हाथ की बात है। आर्य होकर भी अनार्य की तरह जीवन जीना, यह कोई कम अधमता नहीं है। इस दशा का कारण यह है कि आपके हृदय में धर्म को स्थान ही नहीं दिया गया है।-सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 28 नवंबर 2015

शाश्वत शान्ति कैसे मिले?



अशान्ति किसी को भी पसन्द नहीं है और शान्ति सबको पसन्द है, लेकिन शान्ति और अशान्ति के साधन के बारे में अनेक मतभेद हैं। एक जिसे अशान्ति का कारण मानता है, दूसरा उसे शान्ति का साधन मानता है। एक को जिसके योग में शान्ति लगती है, दूसरे को उसी के योग में अशान्ति लगती है। प्रत्येक की शान्ति और अशान्ति की व्याख्या भिन्न-भिन्न है। शान्ति और अशान्ति के स्वरूप में भी भिन्नता है। इनके साधनों के बारे में भी मतभेद हैं। किसी ने किसी में शान्ति या अशान्ति मानी है तो किसी ने उसमें अशान्ति या शान्ति मानी है। ऐसी परिस्थिति में अशान्ति निकाल दे और शान्ति को रहने दे, ऐसे धर्म के विषय में गहरा विचार करने से पहले कौनसी दशा होगी तो शान्ति प्राप्त होगी’, यह निश्चित कर लेना चाहिए। किस प्रकार की मनोवृत्ति हो तो अशान्ति का प्रादुर्भाव न हो और शान्ति स्थिर रहे’, इस बात का भी विचार आपको करना चाहिए।

अनहद की शान्ति, सम्पूर्ण और शाश्वत शान्ति तो जब प्राप्त होगी तब होगी, परन्तु आपकी आत्मा को पहले शान्ति का अनुभव हो और धीरे-धीरे सम्पूर्ण शाश्वत शान्ति के मार्ग पर आपकी आत्मा आगे बढती रहे, ऐसी मनोवृत्ति कैसी होती है, उसका विचार करना है। आपने कुछ इष्ट संयोगों में शान्ति और अनिष्ट संयोगों में अशान्ति, ऐसा मान लिया है, इसलिए आपकी शान्ति और अशान्ति का मेल बैठता नहीं है। यह मेल यदि बैठ जाए तो आपको भी ऐसा ही लगेगा कि जब तक खास प्रकार की मनोवृत्ति नहीं होगी, तब तक अशान्ति से बचना प्रायः अशक्य होगा और शान्ति का अनुभव नहीं होगा। शान्ति के अभाव में यह अमृत तुल्य जीवन भी विषरूप बन जाएगा।

आज की दुनिया जिस प्रकार की प्रवृत्ति कर रही है, जितनी दौडधूप कर रही है, जिसके लिए अपना जीवन खर्च कर रही है और जिसमें अपना तथा अपने परिवार का कल्याण मान रही है, उस तरफ दृष्टिपात करना चाहिए और ज्ञानदृष्टि से सोचना चाहिए। ऐसा किया तो आपको अवश्य महसूस होगा कि आज की दुनिया को सच्चे अर्थ में यह मानव-जीवन कीमती नहीं लग रहा है, क्योंकि कीमती लगता तो आज आपकी यह दशा दिखाई नहीं पडती। आजकल सभी लोग येन-केन-प्रकारेण अपना स्वार्थ साधने में लगे हैं, उससे दूसरे को कष्ट पहुंच रहा है, इसकी रत्तीभर चिन्ता उन्हें नहीं है। यह वृत्ति कई बार इंसान को जानवर से भी बदतर बना देती है। विवेकी मनुष्य के मन में होता है कि मुझे जिस तरह अनुकूलता पसंद है और प्रतिकूलता पसंद नहीं है, वैसे सभी जीवों को अनुकूलता अच्छी लगती है और प्रतिकूलता खराब लगती है। इसलिए मुझे अन्य के साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि जिससे मैं मेरी प्रिय प्राप्ति के लिए किसी की प्रिय प्राप्ति में बाधक बनकर दुश्मन न बन जाऊं। ऐसी वृत्ति से धर्म आए बिना नहीं रहेगा, क्योंकि किसी की पसंद में बाधक न बनना हो तो मुझे कैसे जीना चाहिए’, यह भाव पैदा हुए बिना नहीं रहेगा और इससे मनुष्य, मनुष्य बन जाएगा।-सूरिरामचन्द्र

शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

शान्ति दे वही धर्म



जीवन में धर्म की जरूरत कितनी, कब और किसलिए है? इन प्रश्नों पर विचार करना, यह हर मनुष्य या जो आत्माएं अपना आत्म-कल्याण करना चाहती हैं, ऐसे सबके लिए अत्यावश्यक है। प्राणीमात्र को कल्याण की आवश्यकता होती है, इसलिए वे सभी इस प्रश्न पर गंभीर चिंतन करें तो अच्छा है। परन्तु दुनिया के सभी जीव इस प्रश्न पर या दूसरे भी सभी प्रश्नों पर विचार कर सकें, यह शक्य नहीं है, क्योंकि सभी जीवों के पास चिंतन करने की शक्ति नहीं होती। चिंतन करने की शक्ति तो केवल मनुष्य जीवन में ही संभव है। इसलिए सर्वसाधारण यह चिंतन करे कि उसे जीवन में सर्वाधिक जरूरत किस चीज की है? गहन चिंतन-मनन करेंगे तो सहज उत्तर मिलेगा कि शान्ति की

धर्म की एक सर्वसाधारण व्याख्या है कि जो आत्मा की अशान्ति को हटाकर शान्ति प्रदान करे, उसे धर्म कहते हैं।जीवन में अशान्ति पैदा करने वाली परिस्थितियों के बावजूद जिसके कारण शान्ति का अनुभव किया जा सके और जिसके कारण क्रमशः सम्पूर्ण शान्ति बिना मांगे मिले, वही धर्मरूप है। जीवन में शान्ति की कितनी जरूरत है और यह कितनी कीमती है, इसका पता वास्तव में तब चलता है, जब अशान्ति के समय आदमी को रास्ता नहीं सूझता है। जीवन में कुछ ऐसे प्रसंग, कुछ ऐसे संयोग उपस्थित होते हैं कि सुध-बुध खो बैठा आदमी अपने मन पर काबू खो बैठता है। उस समय उसकी बुद्धि काम नहीं करती। क्या करे, क्या न करे, यह समझ में नहीं आता और उसे अशान्ति की आग घेर लेती है। ऐसे समय में कितना भी धृष्ट आदमी क्यों न हो, उसे शान्ति का महत्त्व ज्ञात हो ही जाता है। इसी शान्ति को जो प्राप्त कराए और अशान्ति को दूर करे, उसे धर्म समझ कर हम चल रहे हैं। यह धर्म अच्छा है और यह खराब’, उसकी चर्चा करने का यह समय नहीं है, क्योंकि जीवन में धर्म की आवश्यकता यथार्थरूप में जँच जाने के बाद किस धर्म से मुझे सच्ची और शाश्वत शान्ति मिलेगी और किससे नहीं, इसका विचार सच्चे अर्थी लोग स्वयमेव करलेंगे।

इसलिए फिलहाल इतना ही पर्याप्त है कि एक बार जीवन के लिए धर्म की अनिवार्यता तो महसूस हो जाए। जिसके सेवन से जीवन में अशान्ति का प्रादुर्भाव न हो, अशान्ति-जनक प्रसंग में भी जिसके प्रभाव से शान्ति प्राप्त हो या किसी तरह अशान्ति का प्रादुर्भाव हो भी जाए तो वह जिसके कारण चला जाए और जो शान्तिपूर्ण व स्वस्थ जीवन जीने में मददरूप हो और मृत्यु के समय भी जो शान्ति दे, वह धर्म है। जो शान्ति से जीने दे और शान्ति से मरने दे, वह धर्म है।

इतना होने पर भी दुःख की बात यह है कि इस आर्य देश में जन्म पाए मनुष्य ऐसी चीजों में उलझ गए हैं कि उन्हें इतने महत्त्व की बात पर सोचने-विचारने की मानो फुरसत ही नहीं हो। वास्तव में शान्ति और अशान्ति देने वाले कारणों पर तात्त्विक विचारों के आदान-प्रदान की प्रवृत्ति हमारे यहां लगभग बंद सी हो गई है।-सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 26 नवंबर 2015

पाप का मूल इच्छाएं



अनंत उपकारी महापुरुष फरमाते हैं कि अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म उत्कृष्ट मंगल है। जिन आत्माओं का अंतःकरण धर्म में सदा लीन रहता है, उन आत्माओं को देवता भी पूज्य मानते हैं।अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म की उत्कृष्ट आराधना करने की जो शक्ति मनुष्य में है, वह देवों में नहीं है। इसी कारण देव भव से मनुष्य भव को ऊंचा माना गया है। यह बात बराबर खयाल में आ जाए तो अपना अनुचित वर्तन अखरे बिना और जीवन सुधरे बिना नहीं रहेगा।

ज्ञानियों ने धर्म के तीन भेद अहिंसा, संयम और तप बतलाए हैं। उसमें सबसे पहले तप को समझना चाहिए। तप के साथ संयम आने लगता है और संयम आएगा तो अहिंसा भी अवश्य आएगी। इसलिए कह सकते हैं कि व्यक्ति जब तक तपस्वी नहीं बनता है अथवा तपस्वी बनने की इच्छा नहीं करता है, तब तक इंसान नहीं बनता है। सिर्फ भूखे-प्यासे रहना, उसी को तप नहीं कहा जाता है। ज्ञानियों ने इच्छा निरोध को तप कहा है। आज अनेक तपस्वियों को यह बात खयाल में नहीं है। ज्ञानी निर्दिष्ट तप करने का प्रयास किया जाए तो व्यक्ति संयमी व सच्चा अहिंसक बने बिना नहीं रहेगा। सदाचार की नींव इच्छा निरोध है। सदाचारी बनने के लिए इच्छाओं का निरोध किए बिना नहीं चलेगा। इच्छा निरोध का अभाव आदमी को शैतान भी बना दे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आज मनुष्य का व्यवहार-वर्तन कैसा है? हम सच्चे मनुष्य हैं या नहीं? इसका विवेक पूर्वक प्रतिदिन थोडा विचार किया जाए तो स्वयं को खयाल आ सकता है। मनुष्य को स्वयं अपना परीक्षक बनना चाहिए। इसके लिए अनंतज्ञानियों की दृष्टि का उपयोग करना चाहिए। हम अपने जीवन के परीक्षक बनेंगे तो अनंत ज्ञानियों ने मनुष्य जीवन की महत्ता का जो हेतु बताया है, उसे सिद्ध करने के लिए हम प्रयत्न कर सकेंगे।

मनुष्य जीवन की महत्ता का खयाल आए तो ही मनुष्य का जीवन सुधर सकता है। मनुष्य जीवन को सुधारने वाली चीज अहिंसा, संयम और तप है। अहिंसा, संयम और तप का जितना अधिक पालन होगा, उतना ही यह जीवन सार्थक होगा। यह बात हृदय में बैठ जानी चाहिए। जो पदार्थ आत्मा के नहीं हैं, आत्म-स्वरूप में जिन्हें स्थान नहीं है, जो आत्म-स्वरूप या आत्म-गुणों को विकसित करने में मददरूप नहीं हैं, ऐसे पदार्थों की इच्छा का निरोध करना, उसी को ज्ञानियों ने सच्चे अर्थ में तप कहा है। जब तक आत्मा संसार के बंधन में है, शरीर मन के बंधन में है, तब तक इच्छा हुए बिना नहीं रहेगी। आत्म-श्रेय के लिए आत्म-गुण व आत्म-शक्ति को विकसित करने के लिए जो इच्छा जरूरी है, उसे रोकना तप नहीं है, बल्कि जो आत्म-कल्याण में बाधक है, उसे रोकना तप है। दुनियावी सुख तथा नाशवंत इच्छाओं का निरोध करना, उसी का नाम तप है। यह तप आ जाए तो मानव, सच्चा मानव बन जाता है।-सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 25 नवंबर 2015

स्थाई सुख के लिए प्रयत्नशील बनें



तत्वज्ञानी महापुरुषों ने संसार के सभी पदार्थों का विचार कर आत्मा के स्वभाव को प्रकट करने के लिए प्रयत्नशील बनने का उपदेश दिया है, क्योंकि आत्मा के शुद्ध स्वरूप के प्रकटीकरण के बाद शाश्वत काल वह शुद्ध ही रहता है, उसमें परिवर्तन नहीं आता है। दुनियावी पदार्थ नाशवंत हैं, कितनी ही मेहनत व कितने ही पाप करके दुनियावी पदार्थ प्राप्त किए हों, फिर भी वे पदार्थ टिकने वाले नहीं हैं। कई लोग तो उन्हें प्राप्त करने के बाद इस जीवन में ही खो देते हैं। प्राप्त सुख चला जाए, यह किसी को पसन्द नहीं है, फिर भी पदार्थों का वियोग निश्चित है, तो फिर उन पदार्थों में संयोग का सुख पाने के लिए प्रयत्न करना कौनसी बुद्धिमत्ता है?

प्राप्त सुख का साधन स्थाई हो तो प्राप्त सुख स्थाई रह सकता है। वह सुख आत्मा सिवाय किसी में नहीं है। अतः अपनी आत्मा को ऐसी शुद्ध बना दें कि अनंतकाल के बाद भी शुद्धस्वरूप में परिवर्तन होने न पाए। जब तक आत्मा पुण्य-पाप से लिप्त है, तब तक आत्मा शाश्वत सुख प्राप्त नहीं कर सकती है। पुण्य-पाप से रहित बनने पर ही आत्मा शाश्वत सुख में स्थिर हो सकती है। आत्मा को पाप व पुण्य से रहित बनाने के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र की आराधना बताई है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूपी रत्नत्रयी ही मोक्षमार्ग है। इस रत्नत्रयी की आराधना करने से आत्मा का रत्नत्रयीमय स्वरूप प्रकट होता है। आत्मा पुण्य-पाप से सर्वथा रहित बनती है।

रत्नत्रयी की सर्वश्रेष्ठ आराधना करने के लिए अन्य सभी साधनाओं से मुक्त हो जाना चाहिए। उसके लिए ज्ञानियों ने संसार-त्याग पूर्वक संयम पालन का उपदेश दिया है। संसार में रहकर आत्मा रत्नत्रयी की आराधना नहीं कर सकती है। संसारी लोगों का जीवन पाप से सर्वथा मुक्त व सिर्फ रत्नत्रयी की आराधनामय संभव नहीं है। अतः इसके लिए साधु जीवन ही सर्वश्रेष्ठ जीवन है। इसमें शंका को कोई स्थान नहीं है। आत्म-कल्याण के लिए इच्छुक विवेकी आत्मा साधु जीवन को न चाहे या अनुमोदन न करे, यह संभव नहीं है, क्योंकि आत्मा के स्वभाव को प्रकट करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय साधु जीवन ही है। इसलिए शक्य हो तो साधु जीवन ही स्वीकार करना चाहिए, परन्तु इतनी उच्च भूमिका तक पहुंचना जिनके लिए अभी संभव न हो, उन्हें संसार में रहते हुए भी रत्नत्रयी की शक्य आराधना करनी चाहिए। साधु के लिए हिंसा-विरमण आदि महाव्रत हैं तो गृहस्थों के लिए स्थूल प्राणातिपात विरमण आदि अणुव्रत हैं। महाव्रतों के लिए जो असमर्थ हों वे अणुव्रतधारी बनें। अणुव्रतों के पालन में वह इस प्रकार प्रयत्नशील बनें कि जिसके प्रभाव से निकट भविष्य में महाव्रतों की प्राप्ति सुगम हो जाए।-सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 24 नवंबर 2015

आत्मा का भान ही लाभदायी



दुनिया के लोगों को जागृत करने के लिए प्रयत्न करना, यह हमारा कर्त्तव्य है। संयम में मलीनता न आए और जनता को अदृष्ट वस्तु का भान हो, इस ध्येय से ज्ञानियों ने हमें सतत विहार करने की आज्ञा फरमाई है। सुख के इच्छुक जनसमूह को सच्चे सुख के स्थान का भान हो और उस स्थान पर पहुंचने के मार्ग का भान हो, उसमें उस मार्ग के अनुसरण की प्रबल इच्छा पैदा हो, ऐसे प्रयत्न हमें अपनी मर्यादा में रहकर करना है।

ज्ञानी महापुरुष फरमाते हैं कि दुःख से पीड़ित और सुख के इच्छुक जगत के जीवों को अदृष्ट वस्तु का भान हो, पुण्य-पाप का खयाल आए, आत्मा के स्वरूप का ज्ञान हो, अनंत शक्तिसंपन्न आत्मा की यह दुर्दशा क्योंकर हुई, उसका ज्ञान हो और जगत के जीवों में आत्म-कल्याण की भावना प्रकट हो, इसी में जगत का एकांत हित है। जगत के मनुष्यों को जितने अंश में यह ज्ञान कम होगा, उतने अंश में मनुष्य का ही नहीं, पशु-पक्षी आदि प्राणियों का भी अकल्याण होगा, अशान्ति बढेगी। जितने अंश में अदृष्ट वस्तु का ज्ञान बढेगा, आत्म-भान और आत्म-कल्याण की कामना पैदा होगी, उतने ही अंश में उनके जीवन में शान्ति बढेगी।

आत्मा, पुण्य, पाप आदि का जिसे खयाल नहीं और जो दुनियावी सुख का तीव्र पिपासु है, ऐसा मनुष्य, जगत के लिए श्रापरूप न बने तो एक आश्चर्य ही होगा। विषय-कषाय में आनंद और अर्थ-काम के योग में सुख मानने वाले मनुष्य हिंसक पशुओं से भी ज्यादा खतरनाक हैं। स्वार्थी मनुष्य जितना उपद्रव मचाता है, उतना उपद्रव पशु भी नहीं मचाते हैं। संसार में आसक्त मनुष्य में दुनियावी पदार्थ पाने व उन पदार्थों के संग्रह-संरक्षण की जो भूख होती है, वैसी भूख और संग्रहवृत्ति पशुओं में भी नहीं होती है। पाप के प्रति उपेक्षाभाव रखने वाला मानवी योजनापूर्वक जो अमर्यादित हिंसा करता है, उतनी हिंसा पशु भी नहीं करता है। मनुष्य योजनापूर्वक पाप करता है और उन पापों को छिपाता है। कई ऐसे ठग होते हैं जो सरकार से भी पकडे नहीं जाते हैं और कदाचित् पकडे जाएं तो वकीलों द्वारा अपना बचाव कर लेते हैं। आज मनुष्य मात्र के सभी पाप प्रकट हो जाएं तो कानून के हिसाब से ही कितने लोग जेल से बाहर रहने योग्य निकलेंगे? ऐसे मनुष्यों को मानव कहें या राक्षस, यही विचारणीय है। जगत में ऐसे मनुष्य ज्यों-ज्यों बढते हैं, त्यों-त्यों उपद्रव भी बढते हैं, यह स्वाभाविक है।

मनुष्य ऐसे अधम कार्य कर सकता है, इस कारण ज्ञानियों ने मनुष्य भव की प्रशंसा नहीं की है, बल्कि धर्मशास्त्रकारों ने उसी के मनुष्य भव की प्रशंसा की है, जो मुक्ति की साधना के लिए आगे बढे हों। मनुष्य भव की उत्तमता मुक्ति की साधना के कारण है। मनुष्य को मनुष्य बनना है और प्राप्त मानव भव को सार्थक बनाना है तो आत्मा का भान करना चाहिए, पशु सुलभ निर्विवेक तथा देव सुलभ भोगमयता का त्याग करना चाहिए।-सूरिरामचन्द्र