शनिवार, 31 अक्तूबर 2015

काम-भोग से भी भयानक है अर्थ-लोलुपता



समरादित्य केवली चरित्र एवं उपमिति भव प्रपंचा कथा; इन दो महान ग्रंथों में चार प्रकार की कथा बताई गई है। अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा एवं संकीर्णकथा। इनमें कहा गया है कि कामकथा में आसक्त बनने वाले लोग राजस प्रकृति के तथा मध्यम स्तर के हैं। अर्थकथा में आसक्त बनने वाले लोग तामस प्रकृति के तथा अधम स्तर के हैं। क्योंकि, विषय-काम-भोग खराब हैं, यह समझना-समझाना सरल है; जबकि पैसा खराब है, यह समझना-समझाना कठिन है। दूसरे क्रम पर विषय-काम-भोगों की प्रवृत्ति कितनी भी की जाए, उसकी एक मर्यादा होती है। खा-खाकर भी कितना खा सकते हैं? अद्भुत दृश्य देखने को मिलें तो देख-देखकर भी कितना देखेंगे? गंधर्व संगीत सुनने को मिला तो सुन-सुनकर भी कितना सुनेंगे? सुन्दर स्त्री के साथ भोग भोगने को मिले तो भोग-भोगकर भी कितना भोगेंगे? इस प्रकार खाने, देखने, सुनने और भोगने की एक सीमा है। व्यक्ति अंततः इनसे भी थक जाता है। जबकि पैसों का नशा ऐसा होता है कि वह चौबीसों घंटे चढा रहता है। समाज में मान, प्रतिष्ठा, सत्ता एवं प्रशंसा चाहिए; इसके लिए खूब पैसा चाहिए और इसके लिए सबकुछ भूलकर पैसा-पैसा करने वाले लोग हैं कि नहीं? रुपयों के पीछे भागने वाले तो अपने परिवार को भी भूल जाते हैं, उसकी उपेक्षा करते हैं और परिवार मिलना भी चाहे तो भी उससे नहीं मिलते हैं। न अपनी पत्नी से मिलते हैं और न अपनी संतानों से मिलते हैं, इससे अनेक अनर्थ पैदा हो जाते हैं। फिर उनका मन दूसरी ओर आकर्षित होता है और वे सामान्य इंसानियत भी खो बैठते हैं। ऐसों को मानव मानना भी मूर्खता है। उनका राग दूसरे विकल्प को खोजता है। इस प्रकार वे उन्मार्ग पर चले जाते हैं। उनका जीवन अधोगति के मार्ग पर चला जाता है। उनकी धर्म करने की योग्यता समाप्त हो जाती है।-सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 24 अक्तूबर 2015

यह देश की कैसी दशा है?



नीतिशास्त्र तो प्राथमिक शास्त्र है। इसके समक्ष धर्मशास्त्र तो अत्यंत महान् हैं। फिर भी धर्मशास्त्र का विरोध करने वाले नीतिशास्त्र का आदेश मानने का भी निषेध करते हैं। क्यों? कारण कि इस प्रकार के नीतिशास्त्र का भी दृढता पूर्वक कथन है कि इस संसार में अनीति संभव ही नहीं है, क्योंकि तीनों प्रकार के जीव अनीति का आश्रय भी नहीं लेते। उत्तम जीव तो स्वभाव से ही अनीति नहीं करते, मध्यम जीव परलोक के भय से अनीति नहीं करते और अधम जीव इस लोक की प्रतिष्ठा बचाने के उद्देश्य से अनीति का आश्रय नहीं लेते। अब शेष रहे हैं अधमाधम जीव। ये अनीति करते हैं, परन्तु उन्हें मनुष्य ही कौन गिनता है? इसलिए इस देश में अनीति की संभावना नहीं है। इस आर्य देश का नीतिशास्त्र भी इस प्रकार की बातें करता है।

आपकी गिनती किसमें है? क्या आपको अधमाधम की श्रेणी में गिना जाए तो अच्छा लगेगा? यह बहुत ही गम्भीरता से सोचने का विषय है। आपके नीतिशास्त्र और अन्य धर्म-दर्शन चाहे धन को पाप नहीं मानते, परन्तु अनीति को तो पाप मानते ही हैं? आगे जाकर केवल हमारा जैन धर्मशास्त्र कहता है कि नीति तो अच्छी, पर धन तो बुरा ही है। जैनशासन के अतिरिक्त किसी ने यह बात नहीं कही।

मैं ऐसा समय भी देख चुका हूं, जब व्यापारी के एक बही ही हुआ करती थी। हर समय वह खुली पडी रहती थी। उसमें आने वाली धन राशि जमा होती और जो दिया जाता, वह किसी के नाम लिखा जाता था। जो शेष बचत होती वह गिनीगिनाई तिजोरी में पडी रहती। आज तो परिस्थिति भिन्न है। यह सब कब बदल गया? अनेक व्यक्तियों का कथन है कि भारत की स्वतंत्रता के कुछ वर्षों बाद यह परिवर्तन आया है।

यदि यही बात है तो आज जो कहा जा रहा है कि शिक्षा में वृद्धि हुई, विज्ञान में वृद्धि हुई, जनसंख्या में वृद्धि हुई और देश की प्रगति में वृद्धि हुई; यह सब प्रगति की बातें करने वाले चालाक और दम्भी ही हैं न? सेठ नीचे उतर गए और नौकर सेठ बन गए। यह कहा जा रहा है कि यह सब नियमानुसार हो रहा है। यह देश की कैसी दशा है? आज जिधर देखो उधर अनीति का बोलबाला है, क्या यही स्वतंत्रता है और यही प्रगति या विकास है?

नीति की लम्बी-लम्बी बातें अलग रखें, तो भी स्वामी, स्वजन, मित्र अथवा अन्य कोई सज्जन जो आपका विश्वास कर रहा है, उससे विश्वासघात नहीं हो यही नीति है। यह संक्षिप्त व्याख्या तो आप समझ कर उस पर अमल कर सकते हैं न? लेकिन नहीं, आज प्रायः हर आदमी दूसरे को लंगडी लगाकर नीचे गिराने और खुद आगे दौडने में लगा हुआ है। चारों तरफ अनीति का ही साम्राज्य दिखाई दे रहा है, ऐसे में इस आर्य देश का और आने वाली पीढी का भविष्य क्या? -सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2015

धन एवं भोग समस्त जगडे की जड



हमारी आत्मा के सबसे बडे शत्रु तीन हैं- मिथ्यात्व, अविरति एवं कषाय! इसमें तो किसी को दो मत नहीं हो सकते। आज दुनिया में जिधर देखो यही तीन शत्रु नजर आते हैं। इन तीनों शत्रुओं का समस्त नृत्य धन एवं भोग पर ही आधारित है। अतः कहना पडेगा कि संसार में इस धन एवं भोग की प्रतिष्ठा को खडी करने वाले ने विश्व को विनाश के कगार पर पहुंचा दिया है। विश्व में जिधर भी दृष्टिपात करें सभी इन दो वस्तुओं के पीछे ही भागते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। यही दो वस्तुएं समस्त जगडे की जड हैं।

गृहस्थ का काम धन के बिना नहीं चल सकता, यह मैं स्वीकार कर सकता हूं, परन्तु आपके पास जितना धन है, उतने धन के बिना आपका काम नहीं चल सकता, यह बात मानने के लिए मैं तैयार नहीं हूं। आपकी आवश्यकताएं कितनी होनी चाहिए? क्या इस पर आपने कभी सोचा है? आवश्यकता से अधिक धन प्राप्त करने की इच्छा हो जाए और हृदय पर उसका आघात लगे तो समझना चाहिए कि अनन्तानुबंधी का लोभ अस्वस्थ हो गया है। लोभ अस्वस्थ होने पर मैं पूछना चाहता हूं कि आपकी आवश्यकता का प्रमाण कितना है? पिघले हुए घी से चुपडी हुई रोटी और बिना फटे हुए वस्त्र की मात्रा शास्त्रों में बताई है। इससे अधिक सामग्री चाहने वालों के लिए शास्त्रों में उल्लेख है कि धर्मात् पतित। वह धर्म से भ्रष्ट होता है।

आत्मा के तीनों वास्तविक शत्रुओं को यदि आप अच्छी तरह पहचान लो और उनके गाजे-बाजे धन और भोग इन दो वस्तुओं पर चल रहे हैं; उनका वास्तविक स्वरूप पहचान लो, तत्पश्चात ही आप धर्म सही रूप में कर सकते हैं।-सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

शिक्षा-व्यवस्था को बदलने की जरूरत



शिक्षक का वास्तविक कार्य तो यह है कि वह भाषा आदि सब सिखाने के साथ बालक को समझदार बनाए और उसमें ऐसी क्षमता विकसित करे कि वह अपने आप संस्कारी बने, उसका सर्वांगीण विकास हो। माता-पिता ने यदि योग्य संस्कारों का सिंचन किया होता तो शिक्षक का आधा कार्य पूर्ण हो गया होता। फिर शिक्षक को केवल माता-पिता द्वारा प्रदत्त संस्कारों को विकसित करने की ही जिम्मेदारी रहती। भाषाज्ञान सिखाना यह वस्तुतः ज्ञान-दान नहीं, अपितु ज्ञान के साधन का दान है। सद्गुण प्राप्ति का और अवगुण त्याग का शिक्षण, यही शिक्षा का साध्य है। परन्तु, आज तो प्रायः जैसी माता-पिता की हालत है, वैसी शिक्षक की भी हालत है। सच्चा शिक्षक मात्र किताबी ज्ञान तक ही सीमित नहीं होता। सच्चा शिक्षक तो विद्यार्थी में सुसंस्कारों का सिंचन करता है। मात्र किताबी ज्ञान तक सीमित रहने वाला और विद्यार्थियों के सुसंस्कारों का लक्ष्य नहीं रखने वाला शिक्षक, शिक्षक नहीं, अपितु एक विशिष्ट मजदूर मात्र है। हमारे सोच को और हमारी बेकार हो चुकी समग्र शिक्षा-व्यवस्था को आज बदलने की जरूरत है। सब अपना कर्तव्य पालन करें और आने वाले कल को सुसंस्कारी बनाएं।-सूरिरामचन्द्र

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मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

शिक्षा के नाम पर ठगी



शिक्षा संस्थानों में आज तो "सा विद्या या विमुक्तये" का बोर्ड लगाकर ठगने का धंधा किया जाता है, क्योंकि आज के शिक्षण में मुक्ति की तो कोई बात होती ही नहीं है। "सा विद्या या विमुक्तये" का अर्थ तो यह कि जो विद्या मुक्ति का बोध दे, लेकिन आज के स्कूल-कॉलेजों में मुक्ति के शिक्षण का स्थान तो स्वच्छंदता और विनाशक-विज्ञान ने ले लिया है। सारी पीढी बिगड रही है, यह आप आँखों से देख रहे हैं, फिर भी हम से पूछते हैं कि शिक्षण में खराबी क्या है?’ जीवन का निर्माण बाल्यकाल से प्रारम्भ हो जाता है। बच्चों को हृदय की पवित्रता का मूल्य उतना नहीं बताया जाता, जितना दूसरी चीजों का बताया जाता है। आज शिक्षा में नैतिक अवमूल्यन की समस्या पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। हृदय की पवित्रता केवल साधुओं के लिए ही महत्त्वपूर्ण नहीं है, शासकों और परिवार के सदस्यों के लिए भी बहुत जरूरी है। साधारण व्यक्ति प्रवाह के पीछे चलता है। यथा राजा तथा प्रजाकहावत ही नहीं, यथार्थ है। जब एक व्यक्ति उचित-अनुचित ढंग से सत्ता प्राप्त कर कथित बडा आदमी बन जाता है, तब दूसरा आदमी भी सोचता है कि भ्रष्ट तरीके से पैसा कमाकर बडा आदमी बना जा सकता है। सत्ता पर जब धर्म का अंकुश नहीं रहता, तो वह निरंकुश हो जाती है। सत्ता राष्ट्र की हो या परिवार की, उस पर से जब-जब धर्म का अंकुश हटता है, वह उन्मादी हो जाती है। प्रवाह को वही मोड सकता है, जो असाधारण हो, जो सत्ता और अर्थ प्राप्ति के लिए भ्रष्ट उपायों का सहारा न ले।-सूरिरामचन्द्र

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सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

वर्तमान विद्यार्थी-शिक्षक संबंध



वर्तमान समय में विद्यार्थी-शिक्षक का जरा भी संबंध नहीं है। क्लास लेने जितना संबंध। कोई शिक्षक जरा होशियार और कडक हो तो ठीक, नहीं तो शिक्षक आए और बोलकर जाए, विद्यार्थियों में जिसे गरज हो वे सुनें, बाकी के खेलें या नींद निकालें; ऐसी स्थिति है, इनमें है कोई संबंध? आज तो विद्या है कहां? मूर्खता ही है; अन्यथा तो विद्यार्थी कभी शिक्षक के सामने छाती चौडी कर चलते हैं? विद्या हो तो इन्हें कुछ भान नहीं हो? इनमें नम्रता, विनय, लघुता नहीं आए? शिक्षक भी अधिकांशतः नौकरी की खानापूर्ति के लिए आते हैं। ये भी यदि वांचन में अटकें तो शैतान विद्यार्थी तुरन्त शिक्षक की भी खिल्ली उडाए; इसलिए शिक्षक भी घर से चार बार पुस्तक पढकर आते हैं; और यह तैयार किया हुआ खोखला ज्ञान तडाकेबंद बोल जाते हैं। घण्टे-सवाघण्टे दिशासूचक लेक्चर कर रवाना हो जाते हैं। विद्यार्थी भी ऐसे कि जचे तो पढें नहीं तो हुररे...... करते देर नहीं। शिक्षक को भी लगता है कि ऐसे बंदरों को किस प्रकार पढाया जाए? उसे भी बराबर टिपटॉप बनकर ही आना पडता है।

पढे हुए कैसे होते हैं ?

पहले के शिक्षक तो विद्यार्थी क्या पढे इसकी सावधानी रखते थे। पचास प्रश्न पूछते, दो थप्पड भी मारते और घण्टे की बजाय दो घण्टे बैठकर भी पक्का पढाते। खुद का विद्यार्थी मूर्ख नहीं रहे, इसकी उनको चिंता रहती थी; किन्तु ये पढनेवाले भी विद्या के अर्थी होते थे। आज तो ऐसे विद्यार्थी हों तो पढाएं न? पढाई बढे तो ऐसी प्रवृत्ति चलती है? पढे-लिखे जहां-तहां जैसा-तैसा खाते हैं? पढे-लिखे रास्ते में थूंकते हैं? किसी को गाली देते हैं? जैसी-तैसी बकवास करते हैं? आज का विद्यार्थी तो पूछता है कि मुझे क्या मास्टर की सेवा करनी है?’ मैं कहता हूं कि जरूर करनी है। पगचंपी भी करनी पडती है। पहले के राजपुत्र भी करते थे। पाठक खुद का चित्त प्रसन्न हो तब पढाता है। राजपुत्र उपाध्याय के वहीं रहते थे और उनकी सेवा-भक्ति करते थे। विनय, विवेक में जरा भी कमी नहीं और भाषा ऐसी मधुर व आनंददायी बोलते कि मानो मुख से मोती खिरते हों। उस वक्त विद्या फलती थी, आज तो विद्या फूटती है।-सूरिरामचन्द्र

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रविवार, 18 अक्तूबर 2015

आधुनिक शिक्षा में संस्कार नहीं


आज समाज में संस्कारों की कितनी कमी होती जा रही है? आजकल के माता-पिता को फुर्सत नहीं है कि वे आधा घंटा भी अपने बच्चों के पास बैठकर उन्हें धर्म की शिक्षा दें, समझाएं, अच्छे संस्कार दें। वह माता शत्रु के समान है, जिसने अपने बालक को संस्कारित नहीं किया। वह पिता वेरी के समान है, जिसने अपने बच्चे को संस्कार नहीं दिए। आजकल के माता-पिता तो अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा के नाम पर कान्वेन्ट में डाल देते हैं। आप सोचते हैं कि कान्वेन्ट में पढने जाएगा तो हमारा बच्चा इन्टेलीजेन्ट (चतुर) बनेगा। पढ-लिखकर होशियार बन जाएगा और बडा आदमी बन जाएगा। लेकिन, वहां जो शिक्षा परोसी जाती है, उसमें आत्मा कहां है? वहां तो जहर ही जहर है। संसार में बिगडने, भटकने के साधन बढते जा रहे हैं और धार्मिक संस्कारों के साधन घटते जा रहे हैं। ये सब आपने विचार नहीं किया। आप उसे कितना ही सम्हाल कर रखिए, लेकिन जब बचपन से ही बच्चा ऐसे माहौल में पलता है, पढता है, जो सीखता है, उसमें वे संस्कार आएंगे ही।-सूरिरामचन्द्र

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शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

शिक्षा के नाम पर जहर



आज ऐसे सैंकडों परिवार दृष्टिगोचर हो रहे हैं, जिनमें वयोवृद्ध माता-पिता की अत्यंत कारुणिक दशा है। वे तो भूखे मरते हैं और उनके पुत्र-पुत्री ऐश्वर्य युक्त जीवन व्यतीत कर रहे हैं। ऐसा न केवल आम घर-घरानों में हो रहा है, बल्कि तथाकथित उच्च कुलों में भी हो रहा है। यह कितना दुःखद है? यह आपकी वर्तमान शिक्षा का विषैला प्रभाव है। हमारे शास्त्रों में तो प्रमाण है कि सर्वोत्तम पदार्थों से पहले माता-पिता की भक्ति कर के, उन्हें तृप्त करने के बाद बेटे-बहू आदि उपभोग करते थे; यदि माता-पिता जीवित न हों तो भी उनका स्मरण करके, मन ही मन उनके चरणों में नतमस्तक होकर फिर स्वयं भोजन करने की गौरवशाली परम्परा हमारे यहां रही है। वर्तमान शिक्षण संस्थाओं की ढेर सारी पुस्तकों में से किसी एक में भी आप ऐसे उपदेश खोज सकेंगे क्या? नहीं ही बता पाएंगे। जबकि मैं आपको शास्त्रों में सैकडों उदाहरण बता सकता हूं। फिर भी आप आधुनिक शिक्षा का ही गुणगान करते हैं, यह कितनी विचित्र बात है?

मैं यह नहीं कहता कि आप अपनी संतान को अज्ञानी रखो, परन्तु यदि वे शिक्षा प्राप्त कर के भी शैतान ही बनने वाले हैं तो फिर उन्हें अशिक्षित रखना क्या बुरा है? आपने जिन्हें खेल खिलाए, स्वयं घोडा बनकर जिन्हें आपने पीठ पर सवारी करवाई, खुद गीले में सोकर जिन्हें सूखे में सुलाया, जिन्हें पालपोस कर बडा किया; वही सन्तान आज आपको लात मार रही है। वास्तव में तो आपको न तो उन्हें खिलाना आया और न रुलाना आया, अन्यथा आपके धन से शिक्षित सन्तान ऐसी होती क्या? विद्यालयों, छात्रावासों, महाविद्यालयों में ही आज शिक्षा के नाम पर बच्चों में कितना विष भरा जा रहा है? इस पर आपने कभी ध्यान दिया है? तप-त्याग से, विनय-विवेक से और किसी भी परिस्थिति तथा वातावरण में हर्ष पूर्वक हम जीवन व्यतीत कर सकें, ऐसी शिक्षा आज दी जाती है क्या?

वर्तमान शिक्षा का परलोक, पुण्य-पाप, संस्कारों आदि सामान्य बातों के साथ तनिक भी संबंध नहीं है। उन सबको भुलाने वाली यह वर्तमान शिक्षा है। आज तो केवल पैसा कमाना, भक्ष्याभक्ष्य का विवेक रखे बिना तामसिक खाना-पीना, आधुनिकता के नाम पर फूहड रहन-सहन और स्वच्छन्द घूमने-फिरने की सुविधाओं का ही विचार किया जाता है। क्या यह पागलपन नहीं है? ऐसी शिक्षा पाकर, आपकी संतान आपकी न रहे तो आप सहन कर सकते हैं, परन्तु सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर, आपकी संतान दीक्षित होकर साधु हो जाए तो आप सहन नहीं कर सकते। अपनी संतान को ऐसी शिक्षा देकर आप उनका अपकार ही कर रहे हैं, क्योंकि उनके परलोक की चिन्ता किए बिना आप उन्हें सिर्फ धनोपार्जन के लिए ही शिक्षित कर रहे हैं। परन्तु ऐसा करने में वह असंतोष की अग्नि में जल मरे, उसकी आपको तनिक भी चिन्ता नहीं है।-सूरिरामचन्द्र

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शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

धर्म बिना आधुनिक शिक्षा विनाशक है



आत्म-शुद्धि के विचार और उस विषयक बात करने से पूर्व आत्मा का खयाल न हो तो क्या हो? आपको यदि किसी भी तरह अपना और अपनी संतान का कल्याण करना हो, उनका उद्धार करना हो तो सर्व प्रथम मनुष्यत्व प्राप्त करना होगा। मनुष्यत्व आने के पश्चात यह निश्चित होगा कि मैं विश्व का रक्षक हूं, भक्षक नहीं; सहायक हूं, विनाशक नहीं और परमार्थ के लिए वचनबद्ध हूं।प्राचीन समय में सब कलाओं का ज्ञान प्राप्त करने वाले के लिए भी जब तक वह धर्म-कला से अनभिज्ञ होता, तब तक उसकी सारी कलाएं व्यर्थ मानी जाती थी। धर्म के बिना सारा ज्ञान, विवेकहीन गुणों के समान होता है। शरीर अत्यंत सुन्दर हो, परन्तु नाक न हो; वैसे ही धर्म के बिना का ज्ञान है।

सब जानता हो, परन्तु आत्मा क्या है और आत्म-सुख के साधन कौनसे हैं’, यह नहीं जानता हो, तब तक समस्त ज्ञान निष्फल है, विनाशक है। धर्म-कला पर ही समस्त कलाओं की सफलता अवलम्बित है। उसके बिना समस्त कलाएं निष्फल हैं। धर्म के बिना सारा ज्ञान अधूरा और विनाश की ओर ले जाने वाला है। आज जो धांधली और शोरगुल हो रहा है, जो विनाशक-विकास हो रहा है, जो उत्पात और हिंसा का विभत्स ताण्डव दिखाई दे रहा है; उसका सबसे बडा कारण धार्मिक-शिक्षण का अभाव है। बडे भारी डिग्रीधारी बन गए, पदवी प्राप्त कर ली, लेकिन उनकी इंसानियत मर गई, मनुष्यता मर गई, जीने का सलीका नहीं आया; कारण कि धार्मिक शिक्षा प्राप्त नहीं की, पुण्य-पाप आदि तत्त्व नहीं समझे, हेय-ज्ञेय-उपादेय को नहीं समझा तो विवेक कहां से आएगा, उदय कैसे संभव है, कल्याण कैसे होगा?-सूरिरामचन्द्र

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गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

भिखारी बनाने वाली शिक्षा



अब से लगभग 90 वर्ष पूर्व जब देश में अंग्रेजी हुकूमत थी, मुम्बई में एक धर्मसभा का आह्वान करते हुए सूरिरामचन्द्रजी ने अत्यंत वेदना के साथ जो कहा, वह आज की शिक्षा-व्यवस्था के मद्देनजर कितना प्रासंगिक है, विचार जरूर करिएगा-

"वैज्ञानिक युग के नाम पर आज कोई कानूनविद् बना तो कोई डॉक्टर बना। उनके कपडे तो उजले, किन्तु उनकी कार्यवाही देखो तो बदबू मारते गटर जैसी है। कानून पढा हुआ गुनाह करता है? कानून पढा हुआ चोरी करता है? कानून पढा हुआ किसी को ठगता है? कानून पढा हुआ सौ के बिल पर एक और जीरो बढाता है? हिसाब पढा हुआ जमा को उधार और उधार को जमा करता है? इतिहास पढा हुआ गप्पे लगाता है? हिसाब-किताब की बहियां दो, जुबान दो, दिल में दूसरा और मुँह पर दूसरा; ऐसी यह बीसवीं सदी? सब ऐसे पैगम्बर? अपराधी को निरपराधी ठहराना यह शिक्षा है? ऐसी शिक्षा, ऐसा विद्या प्रचार यह तो जहर का प्रचार है? पढे इसलिए नीचे नहीं बैठे, पढे इसलिए चाय, पान, बीडी, सिगरेट बिना नहीं चले। पढे नहीं ये तो भूले हैं। शिक्षा को लजाया है। ऐसी शिक्षा-संस्थाओं को नहीं निभाया जा सकता। एक नए पैसे का भी दान ऐसी संस्थाओं को नहीं दिया जाना चाहिए। यह तो पाप का दान है। आपको यह खंजर के घाव जैसा लगेगा, बहुत कडवा लगेगा; किन्तु सच्ची शिक्षा हो तो ऐसी दशा हो? पढे-लिखे आज पैसों के लिए भीख मांगते हैं, लोगों की दाढी में हाथ डालते हैं। आज आवाज उठ रही है कि पढे हुए भीख मांग रहे हैं और इससे शिक्षा के प्रति कई लोगों के मन में तिरस्कार का भाव जागृत हो रहा है। मैं कहता हूं कि पेट भरने के लिए पढनेवाले तो भूखे मरें, इसमें नई बात क्या है? विद्या जैसी अनुपम चीज पेट के लिए खरीदी जाए तो परिणाम यही आएंगे। पेट के लिए विद्या पढनेवालों का पुण्य जागृत हो तो बात अलग है, नहीं तो कटोरे के लिए ही इस विद्या को समझना। पहिनने की टोपी में ही चने फांकने के दिन आएंगे, क्योंकि आपने विद्या का अपमान किया है। आज इस बात का अनुभव होता है और भविष्य में भी होगा।"

"पापक्रिया बढी, उसकी अनुमोदना बढी, उसकी प्रशंसा बढी, परिणाम स्वरूप दरिद्रता और भिखारीपन आया। जो मांगा वह आया दिखता है और ऐसा ही चलता रहेगा तो अधिक आनेवाला है। इसमें पुण्यवान को भी शामिल होना पडेगा। पडौस में आग लगती है तब बगल वाले घर में भी जार लगती है, आँच आती है। पापी के साथ बसनेवाले पुण्यवान को भी आँच लगने ही वाली है। सावधान रहेंगे तो बचेंगे। आपको सावधान करने के लिए यह मेहनत है।"-सूरिरामचन्द्र

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मंगलवार, 13 अक्तूबर 2015

शिक्षा के नाम पर जहर



आज ऐसे सैंकडों परिवार दृष्टिगोचर हो रहे हैं, जिनमें वयोवृद्ध माता-पिता की अत्यंत कारुणिक दशा है। वे तो भूखे मरते हैं और उनके पुत्र-पुत्री ऐश्वर्य युक्त जीवन व्यतीत कर रहे हैं। ऐसा न केवल आम घर-घरानों में हो रहा है, बल्कि तथाकथित उच्च कुलों में भी हो रहा है। यह कितना दुःखद है? यह आपकी वर्तमान शिक्षा का विषैला प्रभाव है। हमारे शास्त्रों में तो प्रमाण है कि सर्वोत्तम पदार्थों से पहले माता-पिता की भक्ति कर के, उन्हें तृप्त करने के बाद बेटे-बहू आदि उपभोग करते थे; यदि माता-पिता जीवित न हों तो भी उनका स्मरण करके, मन ही मन उनके चरणों में नतमस्तक होकर फिर स्वयं भोजन करने की गौरवशाली परम्परा हमारे यहां रही है। वर्तमान शिक्षण संस्थाओं की ढेर सारी पुस्तकों में से किसी एक में भी आप ऐसे उपदेश खोज सकेंगे क्या? नहीं ही बता पाएंगे। जबकि मैं आपको शास्त्रों में सैकडों उदाहरण बता सकता हूं। फिर भी आप आधुनिक शिक्षा का ही गुणगान करते हैं, यह कितनी विचित्र बात है?

मैं यह नहीं कहता कि आप अपनी संतान को अज्ञानी रखो, परन्तु यदि वे शिक्षा प्राप्त कर के भी शैतान ही बनने वाले हैं तो फिर उन्हें अशिक्षित रखना क्या बुरा है? आपने जिन्हें खेल खिलाए, स्वयं घोडा बनकर जिन्हें आपने पीठ पर सवारी करवाई, खुद गीले में सोकर जिन्हें सूखे में सुलाया, जिन्हें पालपोस कर बडा किया; वही सन्तान आज आपको लात मार रही है। वास्तव में तो आपको न तो उन्हें खिलाना आया और न रुलाना आया, अन्यथा आपके धन से शिक्षित सन्तान ऐसी होती क्या? विद्यालयों, छात्रावासों, महाविद्यालयों में ही आज शिक्षा के नाम पर बच्चों में कितना विष भरा जा रहा है? इस पर आपने कभी ध्यान दिया है? तप-त्याग से, विनय-विवेक से और किसी भी परिस्थिति तथा वातावरण में हर्ष पूर्वक हम जीवन व्यतीत कर सकें, ऐसी शिक्षा आज दी जाती है क्या?

वर्तमान शिक्षा का परलोक, पुण्य-पाप, संस्कारों आदि सामान्य बातों के साथ तनिक भी संबंध नहीं है। उन सबको भुलाने वाली यह वर्तमान शिक्षा है। आज तो केवल पैसा कमाना, भक्ष्याभक्ष्य का विवेक रखे बिना तामसिक खाना-पीना, आधुनिकता के नाम पर फूहड रहन-सहन और स्वच्छन्द घूमने-फिरने की सुविधाओं का ही विचार किया जाता है। क्या यह पागलपन नहीं है? ऐसी शिक्षा पाकर, आपकी संतान आपकी न रहे तो आप सहन कर सकते हैं, परन्तु सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर, आपकी संतान दीक्षित होकर साधु हो जाए तो आप सहन नहीं कर सकते। अपनी संतान को ऐसी शिक्षा देकर आप उनका अपकार ही कर रहे हैं, क्योंकि उनके परलोक की चिन्ता किए बिना आप उन्हें सिर्फ धनोपार्जन के लिए ही शिक्षित कर रहे हैं। परन्तु ऐसा करने में वह असंतोष की अग्नि में जल मरे, उसकी आपको तनिक भी चिन्ता नहीं है।-सूरिरामचन्द्र

रविवार, 11 अक्तूबर 2015

लोभ और तृष्णा दुःख का मूल


स्वभावतः मनुष्य अपने जीवन में सुख-शांति और समृद्धि की कामना करता है। उसकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण इच्छाओं में से एक है धन और यश की इच्छा और उसे हासिल करने के लिए, उसे पाने के लिए वह प्रत्यन करता रहता है। साधारणतया मनुष्य के प्रत्येक कर्म के पीछे यही अंतःप्रेरणा होती है। सभी महान लोगों का भी यही अभिमत है कि सृष्टि इच्छाओं और आकांक्षाओं से प्रेरित है।

इच्छा रखना मनुष्य का स्वभाव है, परंतु इच्छित फल की प्राप्ति के लिए उसे अमर्यादित और अनैतिक ढंग से कभी भी न तो सोचना चाहिए और न ही कर्म करना चाहिए। मनोवांछित फल पाने के लिए हमारी इच्छा इतनी बलवती नहीं होनी चाहिए कि उचित-अनुचित की विवेक बुद्धि ही नष्ट हो जाए और हम उसे येन-केन-प्रकारेण पाने के लिए तत्पर हो उठें। इसे ही लोभ या लालच कहते हैं।

लोभी व्यक्ति कभी भी सुखमय जीवन व्यतीत नहीं कर सकता है। सच्चे मनुष्य की अग्निपरीक्षा तो प्रलोभन से होती है। इस प्रकार अनैतिक इच्छा के वश मनुष्य क्रोध, काम, ईर्ष्या और अहंकार का शिकार भी हो जाता है। संयम के चरमोत्कर्ष बिना इच्छा का सर्वथा त्याग मुश्किल है, किंतु वह इतनी अधिक न बढ जाए कि हमारे सोचने-समझने के सामर्थ्य को समाप्त कर लोभवश अनैतिक कर्मों में लिप्त कर दे। मानव की यही स्थिति पशुतुल्य कही जाती है। ऐसी इच्छा त्याज्य है।

मनुष्य के समस्त विकास और पतन में इच्छा का ही हाथ है। जहाँ एक ओर श्रेष्ठ और शुभ इच्छा विकास की तरफ यात्रा करती है, वहीं विवेक शून्य इच्छा पतन, पराभव की ओर अग्रसर होती है। किसी प्रकार के अभाव की अनुभूति मनुष्य के अंदर विफलता का भाव पैदा करती है और इसी कारण मनुष्य में उस वस्तु को पाने की कामना जागृत होती है। यही कामना मनुष्य की इच्छा कहलाती है।

जब किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा स्थिति के प्रति लोभ-इच्छा-तृष्णा जागती है और आसक्ति बढती है, तब उसे प्राप्त करने के लिए अथवा प्राप्त हुई हो तो अधिकार में रखने के लिए हम बुरे-से-बुरा तरीका अपनाने पर उतारू हो जाते हैं। चोरी-डकैती, झूठ-फरेब, छल-छद्म, प्रपंच-प्रवंचन, धोखाधडी आदि सब कुछ अपनाते हैं। अपने इस पागलपन में मन की सरलता खो देते हैं। साध्य हासिल करने की आतुरता में साधनों की पवित्रता को खो देते हैं।

अंतहीन समुद्र की लहरों की तरह इच्छाओं पर सवार मनुष्य जीवन सागर में भटकता रहता है, जो उसकी आंतरिक चेतना को छिन्न-भिन्न कर देता है। इसलिए कहते हैं- अनियंत्रित इच्छा मनुष्य को अच्छा नहीं बनने देती। सभी बुराइयों की जड यही इच्छा है। इच्छा से दुःख आता है, इच्छा से भय आता है। जो इच्छाओं से मुक्त है, वह न दुःख जानता है और न भय।-सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 10 अक्तूबर 2015

अवसाद निरोधक दवाओं के दुष्प्रभाव

नींद की गोलियां और अवसाद (डिप्रेशन) निरोधक Antidepressants दवाएं
If you're taking or considering taking depression medication, there are important things you need to know.
Yet this is exactly how antidepressants purport to work - by treating levels of neurotransmitters. By understanding how antidepressants work, we can see how they treat a symptom of depression, not the root of the depression, and are therefore ineffective in one to two thirds of sufferers.
This also explains why antidepressants have such a high rate of relapse, compared to other effective therapies for depression.
However, we are not 'anti-drugs'. We simply want to ensure everyone has access to accurate information so they can make the best choice for themselves.
 
Side Effects of Antidepressants
अवसाद निरोधक दवाओं के दुष्प्रभाव
यदि आप नींद की गोलियां और अवसाद (डिप्रेशन) निरोधक दवाएं ले रहे हैं अथवा लेना चाहते हैं तो आपका यह जानना बहुत जरूरी है कि ये दवाएं आपकी सेहत और जीवन के लिए खतरनाक हो सकती हैं। प्रायः ये गोलियां अवसाद के लक्षणों का उपचार करती है, अस्थाई रूप से तंत्रिका तंत्र को शीथिल कर देती हैं, अवसाद के मूल कारणों का उपचार नहीं करतीं। आप डॉक्टर से यह जरूर पूछें कि ये दवाएं कब तक लेनी होगी? क्या जीवन भर? या मैं एक निश्चित अवधि में ठीक हो जाऊंगा? ये दवाएं एक बार शुरू करने के बाद जिन्दगी भर का श्राप तो नहीं बन जाएगी? एडिक्शन तो नहीं करेंगी? इन दवाओं के साइड इफेक्ट तो नहीं होंगे? होंगे तो क्या-क्या होंगे? दवा शुरू करने से पहले यह सब जानना-समझना आपका अधिकार है।
IT IS BECOMING clearer and clearer that antidepressants are far from benign drugs. And unfortunately, the combination of depression and medication, as well as still being very much trial and error, has some unique worries due to the nature of the condition itself.
As with all drugs some people react badly to antidepressants, whilst side effects can seem quite mild in others. The irony here of course is that, helpful as antidepressants may be for some people at some times, these side effects can be very depressing in themselves.
Because no one antidepressant has been proven to be any more effective than any other, the choice of which drug to prescribe often rests on their different side effects!
The overwhelming popularity of SSRIs (selective serotonin reuptake inhibitors) was in part due to their apparent "safety" over more toxic drugs when used improperly. Some of the Tricyclics are extremely toxic in overdose, such as Dothiepin, Amitriptyline and Imiprimine.
However, in addition to other dangers, there is also an established direct link between suicide and violent behaviour and the use of SSRIs. (1)
Actually, all the effects, even the desired effects, can be considered a side effect of taking a pill. The reason there are so many side effects with antidepressants, is really due to the lack of full understanding about how antidepressants, and depression, affect the brain.
This can be very different from case to case. Even the drug companies themselves admit that they don't quite know how the drugs work! (2)
Antidepressant treatment is often very much "a sledgehammer to crack a nut", especially in cases of mild to moderate depression.
 
General side effects of depression medication अवसाद निरोधक दवाओं के दुष्प्रभाव
Some of the various side effects from the different antidepressants are:
  • Dry mouth मुंह सूखना
  • Urinary retention पिशाब में तकलीफ
  • Blurred vision आँखों में मलीनता
  • Constipation कब्ज
  • Sedation (can interfere with driving or operating machinery) उदासी
  • Sleep disruption नींद में बाधा
  • Weight gain वजन बढ जाना
  • Headache सरदर्द या सर भारी रहना
  • Nausea जी मिचलाना
  • Gastrointestinal disturbance/diarrhea गैस-अपच
  • Abdominal pain पेट दर्द
  • Inability to achieve an erection कुछ कर पाने में असमर्थ महसूस करना
  • Inability to achieve an orgasm (men and women) सेक्स के लिए आवेग में असमर्थता
  • Loss of libido कामोत्तेजना की समाप्ति
  • Agitation व्याकुलता, घबराहट
  • Anxiety चिंता, व्यग्रता, आकुलता
Uncovering the new truths about SSRIs
One of the reasons that SSRIs (including Paxil, Prozac, Luvox, Zoloft, Celexa) are so widely prescribed by doctors and psychiatrists is because they are safer in overdose. This is obviously a good thing because traditionally the most common form of suicide was to overdose on the very antidepressants which were meant to help relieve the depression.
However, there are two very real dangers: one that has recently been the basis of an historic court battle in the US.
1.    SSRIs pose greater risks when taken with other drugs, due to their pharmacokinetic and pharmacodynamic properties. For example, SSRIs can be lethal प्राण-घातक when taken with MAOIs.
2.    While being safer in overdose, SSRIs have actually been proven to increase thoughts of suicide or self harm आत्महत्या या स्वयं को चोट पहुंचाने के विचारों में बढोतरी.
Other side effects of SSRIs
Nausea जी मिचलाना, diarrhea अपच, headaches सरदर्द या सर भारी रहना. Sexual side effects सेक्स संबंधी समस्या are also common with SSRIs, such as loss of libido, failure to reach orgasm and erectile problems कामोत्तेजना की समाप्ति और स्तम्भन की समस्या. Seratonergic syndrome is also a worrying condition associated with the use of SSRIs.
Side effects of TCAs (tricyclic antidepressants)
Fairly common side effects include dry mouth मुंह सूखना, blurred vision आँखों में मलीनता, drowsiness निद्रालु, सुस्ती, dizziness भ्रमकारक स्थिति, and tremors sexual problems सेक्स के समय थरथराना, skin rash शरीर पर चकते, and weight gain or loss वजन बढना या घटना.
Side effects of MAOIs (monoamine oxidase inhibitors)
Rare side effects of MAOIs like phenelzine (brand name: Nardil) and tranylcypromine (brand name: Parnate) include liver inflammation, heart attack, stroke, and seizures. लीवर में खराबी, दिल का दौरा, अचानक आघातA Individuals taking MAOIs may have to be careful about eating certain smoked, fermented, or pickled foods, drinking certain beverages, or taking some medications because they can cause severe high blood pressure in combination with the medication. A range of other, less serious side effects occur including weight gain वजन बढना, constipation कब्ज, dry mouth मुंह सूखना, dizziness भ्रमकारक स्थिति, headache सरदर्द, drowsiness सुस्ती, insomnia अनिद्रा, and sexual side effects सेक्स संबंधी समस्या  (problems with arousal or satisfaction).
SSRIs, and SNRIs tend to have fewer बुखार and different side effects, such as nausea जी मिचलाना, nervousness निराशा, insomnia अनिद्रा, diarrhea अपच, rash शरीर पर चकते, agitation व्याकुलता, or sexual side effects सेक्स संबंधी समस्या (problems with arousal or satisfaction). Bupropion generally causes fewer बुखार common side effects than TCAs and MAOIs. Its possible side effects include restlessness व्यग्रता, insomnia अनिद्रा, headache सरदर्द or a worsening of preexisting migraine conditions माइग्रेन की बुरी हालत, tremor थरथराना, dry mouth मुंह सूखना, agitation व्याकुलता, confusion गलतफहमी, rapid heartbeat धडकन तेज होना, dizziness भ्रमकारक स्थिति, nausea जी मिचलाना, constipation कब्ज, menstrual complaints मासिक धर्म संबंधी शिकायत एवं अनियमितता and rash शरीर पर चकते.
Alternative Treatments for Depression
WITH antidepressants being the first line treatment for many medical practitioners, having access to unbiased information about effective alternative treatments is vitally important.
We have listed psychotherapy or counseling (effectively the same thing) under 'alternative' because for much of the medical profession, they are still seen that way. International guidelines for the treatment of depression are well established, and the types of therapy that are recommended for depression are those that are brief, concentrate on problem solving, attributional thinking styles , focusing attention away from emotions and helping sufferers get basic needs met by, for example, helping improve relationship skills.
Overcoming Depression - Counseling and Therapy
Now we can understand the difference between simply treating the symptoms of depression with drugs and overcoming depression for good. Here we're going to look at what research has shown to be the best type of depression counseling for overcoming depression permanently.
Many professionals advocate a combination of drug therapy and psychotherapy, but more and more studies show that medication is unnecessary if the sufferer receives the right sort of help. As well as overcoming depression if you have it now, knowing exactly what depression is means you can recognize the onset of future episodes, if they occur. Gaining new skills, or being able to challenge depressive thinking and behavior at the onset, means you can be confident about leading a depression-free life. Good depression counseling will help you learn these skills.
Counseling or therapy that is effective in overcoming depression focuses on:
  • What we do. (Behavioral therapy)
  • How we think about things. (Cognitive therapy)
  • How we relate to others. (Interpersonal therapy)
  • How things are going to be better in the future. (Solution focused therapy)
  • Getting our basic emotional needs met in the wider world
  • Helping you find solutions to your immediate problems
A combination of these above approaches has been shown to work best.