बुधवार, 30 सितंबर 2015

नीच और कुलांगार मत बनो!



पुत्र चार प्रकार के होते हैं- 1. अभिजात, 2. सुजात, 3. नीच और 4. कुलांगार। अभिजात उसे कहते हैं, जो अपने पिता की साख को बढाए। पिता की प्रतिष्ठा को रोशन करे और उसमें चार चांद लगाए। सुजात अपने पिता की प्रतिष्ठा का उचित रूप से उपयोग करे। नीच वह है जो अपने बाप की प्रतिष्ठा को खराब करे और कुलांगार वो जो पिता की प्रतिष्ठा को मटियामेट कर देता है। नीच पुत्र तो मात्र पिता की प्रतिष्ठा में बट्टा लगाता है अर्थात् इतना ही करता है, जिससे उसके पिता की निन्दा हो। परन्तु कुलांगार तो उससे भी भयंकर होता है, पिता की समस्त प्रतिष्ठा को जला देता है।

हमारे पिता तो भगवान महावीर हैं और हम उनकी सन्तान कहलाते हैं। अभिजात भले न बन सकें, परन्तु सुजात तो बनना ही है न? सुजात वही बन सकता है, जो आज्ञा का उलंघन करने वाली एक भी प्रवृत्ति नहीं करे। सुजात सन्तान कदापि जमाने की हवा के अनुसार नहीं चलती, वह महावीर पिता की आज्ञा के अनुसार चलती है। यदि वह आज्ञा की अनदेखी करके जमाने की हवा के अनुसार चलने लगे, तब समझ लो कि वह नीच की श्रेणी में आ गई है और आज्ञा के विरुद्ध होकर जमाने के अनुसार गुण गाने लगे, तब वह चौथी कोटि में आती है। इसमें आश्चर्य करने जैसी कोई बात नहीं है? सुजात बनने का आशय आज्ञा को मानना है, पालन करना है और अच्छी तरह से पालन करने में समर्थ न हो, तब जो आज्ञा का पालन करते हैं, उनकी हाथ जोडकर अनुमोदना करे तथा दूसरों को आज्ञा का पालन करने के लिए प्रेरणा देवे।-सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 29 सितंबर 2015

धर्मस्थान कल्याण कब कर सकते हैं?



आजकल ज्यों-ज्यों धर्म करने वालों की संख्या में वृद्धि हो रही है, त्यों-त्यों धर्मस्थान प्रायः खतरे में पडते दृष्टिगोचर होते हैं, क्योंकि वे किसी की आज्ञा में रहना नहीं चाहते। बिना स्वामी वाले बडे-बडे कारखानों की कैसी विषम स्थिति हुई है, यह किसी से छिपा नहीं है। स्वयं के स्वामित्व में जो कारखाने अपार लाभ कमाते थे, वे ही कारखाने सरकारी अधिग्रहण के बाद भीख मांगते हो गए। स्वामी के हाथ से सेवकों के हाथों में काम जाने का ही यह परिणाम है। धर्म क्षेत्र में भी स्वामी के अभाव में ऐसी स्थिति होगी ही।

आपको समझना चाहिए कि मन्दिर, उपाश्रय इच्छानुसार तमाशा करने के अखाडे नहीं हैं। ये तो विधिपूर्वक धर्म-क्रिया करने के तारणहार धर्म-स्थल हैं। जो लोग यह बात नहीं समझते, उनका कल्याण धर्म स्थानों से भी नहीं हो सकेगा, यह निश्चित है। धर्मात्मा लोग गुरुओं के अधीन होने चाहिए। यदि इस तरह हों तो ही मन्दिर और उपाश्रय कल्याणकारी सिद्ध हो सकते हैं। आपकी दाढी पर हाथ फिरा-फिराकर आपका धन धर्म में व्यय कराने से धर्म को कोई बडा लाभ होता हो, ऐसा मुझे नहीं लगता। ज्ञान और आवश्यकता दोनों का अभाव होने से ऐसे धर्मात्माओं से तो यदि ध्यान नहीं रखा जाए तो साधु भी लुट जाएं। आज तो अविधि ही मानो विधि हो गई है। यदि इसी प्रकार चलता रहा तो आत्म-कल्याण तो कोसों दूर ही रहेगा। धन को त्याज्य मानने वाला व्यक्ति ही धन से धर्म कर सकता है। जिसे धन त्याज्य ही न लगे, वह धन से धर्म कर ही नहीं सकता। वह तो धर्म को टुकडा फेंकता है। ऐसे व्यक्ति से तो दान कराना भी खतरनाक हो सकता है।-सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 28 सितंबर 2015

पाप के बाप



संसार असार है और मनुष्य जन्म दुर्लभ’, हमारी ये बातें आज हवा में उड जाती हैं। दुर्लभ मनुष्य जन्म भी यदि मुक्ति की साधना में उपयोगी न हो तो वह महापाप का बंध कराता है। अरिहंत देवों ने दुनिया के जीवों से सांसारिक सुख, जिसके पीछे दुःख छिपा हुआ है, उसे ही छुडवाने के लिए मेहनत की है, सांसारिक सुख, सुखाभास या क्षायिक सुख देने के लिए मेहनत नहीं की। अपितु जीव अक्षय सुख-शान्ति पा सके, इसके लिए सारी मेहनत है। किसी भी सांसारिक सुख के विषय में सुख का अनुभव करना मैथुन है! मैथुन की यह विशद व्याख्या है। चौथा और पांचवां पाप नरक व तिर्यंच का कारण है। यह जानने के बाद भी दोनों पापों में आनन्द आए और उस आनन्द आने का दुःख भी न हो, यह मूर्खता नहीं तो और क्या है? मैथुन और परिग्रह नाम के इन चौथे पांचवें पाप के बल से ही आगे-पीछे के अन्य पाप पनपते हैं। ये ही सारे पापों के बाप हैं, ऐसा कहा जा सकता है। जो इन दो पापों का आचरण नहीं करता, उन्हें अन्य पाप नहींवत् लगते हैं। संसार का सुख भोगना, यह चौथा पाप और उस सुख की सामग्री, यह पांचवां पाप है। यदि ये दोनों आपको पाप रूप लगें तो ही मेरा धर्मोपदेश आगे चलता है। इन पापों को पाप मानने की योग्यता वाले जीव ही संसार को असार समझने की योग्यता रखते हैं। परिग्रह को पाप बताते समय, ‘पैसे से ही मन्दिर उपाश्रय बनते हैं’, ऐसा कहने वालों से मेरा प्रश्न है कि कितने पैसों से मन्दिर उपाश्रय बनवाए और कितने पैसे मौज-मजे में खर्च किए?’ मैं जब पैसे को बुरा कहता हूं, तब मन्दिर-उपाश्रय मेरी आँखों से ओझल नहीं होते। पैसा अच्छा है’, इस बात में आप हमारी स्वीकृति लेने का प्रयास मत करिए, क्योंकि पैसा तो हर हाल में पाप का मूल ही है, उसे अच्छा कहकर कमाने का समर्थन नहीं किया जा सकता है. -सूरिरामचन्द्र

रविवार, 27 सितंबर 2015

मां-बाप या सांप ?



शास्त्र में श्रावकों को साधु के माता-पिता कहा है। श्रावक को मां-बाप जैसा भी कहा है और सांप जैसा भी कहा है। आप यदि मां-बाप बनो तो हमारा काम हो जाए। मां-बाप बनोगे? लेकिन जिनको अपने स्वयं के बच्चों का मां-बाप बनना नहीं आया, वे साधुओं के किस प्रकार बनेंगे? महाव्रतधारी के मां-बाप बनना क्या इतना सरल है? श्रावक मां-बाप जैसे बन जाएं तो तो साधुओं की सारी चिन्ता खत्म हो जाए; साधुओं के संयम की चिन्ता आपको होने लगे कि साधुओं के संयम में किस प्रकार वृद्धि हो, किस प्रकार टिके, किस प्रकार शुद्ध हो, कैसे फैले, ये सब चिन्ताएं श्रावक करें तो फिर बाकी क्या रहे?

व्यवहार में बेटा अच्छा कैसे बने, लाख के करोड कैसे करे, आलीशान गाड़ियों में कैसे घूमे; यह सारी चिन्ता मां-बाप को होती है न? इसी प्रकार साधुओं का संयम कैसे पले, कैसे बढे, कैसे जगत में उस संयम का फैलाव हो; यह चिन्ता श्रावक करे तो इसमें हमें आनन्द होगा या दुःख? मैं तो मांग करता हूं कि आप ऐसे मां-बाप बनें। आपने मां-बाप का फर्ज छोड दिया, उसी की यह परेशानी और चर्चा है। आपको यह बात महसूस होनी चाहिए।

आज साधुओं में शीथिलाचार आया कहां से? इसके लिए कौन जिम्मेदार हैं? सांप अपने ही बच्चों को नष्ट कर देता है, श्रावक ही साधुओं को संयम से नीचे गिरने के साधन सुलभ कराते हैं। मां-बाप ही बच्चे की कमजोरियों पर पर्दा डालकर उसे बिगाडते हैं। ऐसे मां-बाप क्या वाकई अच्छे मां-बाप हैं जो अपनी औलादों को गलत रास्ते पर धकेल देते हैं? नहीं। आप अच्छे मां-बाप बनिए! -सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 26 सितंबर 2015

धर्म पर विपत्ति के समय कर्तव्य


कलिकालसर्वज्ञ, भगवान श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज फरमाते हैं कि धर्म के नाश के समय, उत्तम क्रिया का लोप हो रहा हो या होने की संभावना लगती हो उस समय और स्व-सिद्धान्त यानी कि कोई गलत अर्थ अथवा अपना अर्थ थोपकर श्री जिनेश्वरदेव द्वारा प्ररूपित सिद्धान्त के अर्थ का अनर्थ करता हो, गलत व्याख्या करता हो; तब उसे रोकने के लिए बिना पूछे भी समर्थ आत्मा को अवश्य बोलना चाहिए।

ऐसे समय बनावटी, दिखावटी और नाशक शान्ति के जाप नहीं जपे जाते। खोटी शान्ति और समता के पाठ पढकर तो वस्तु को गुमा देंगे। ऐसा खोटी समता-शान्ति का पाठ पढाने वाले कोई गुरु हों तो वे सुगुरु नहीं हैं। सन्मार्ग का लोप होता हो, तब श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा जैसे भी फरमाते हैं कि सामर्थ्यवान आत्मा बिना पूछे भी ऐसी प्रवृत्ति का निषेध करती है, विरोध करती है। जो करेगा वो भरेगा’, तो आप क्या करोगे?

ऐसे प्रसंग के समय घर के कोने में दुबकने की बजाय मर-खपजाना श्रेयस्कर है। शासन की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जाया जा सकता है। ज्ञानी फरमाते हैं कि सत्य का अनुरागी उत्तम क्रियाओं के लोप के समय गूंगा बनकर नहीं रहता है। जो शक्ति होते हुए भी मूक बनकर रहे, उसकी परिणाम स्वरूप आस्तिकता चली जाती है और उसमें नास्तिकता आ जाती है। आपकी सामर्थ्य न हो तो आपकी भावना और चिन्तन तो यही होना चाहिए कि कोई सामर्थ्यवान जागे, कोई उन्मार्गियों को रोके। और कोई जागे तो आपको खुश होना चाहिए। ऐसा कोई जागे तो अच्छा’, ऐसा हृदय में बार-बार होना चाहिए। सच्चा सन्मार्ग प्रेम तो यही है।-सूरिरामचन्द्र

शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

सच्ची मौन



अरिहंत परमात्मा के शासन की सत्य बातों को प्रकाशित करते हुए, खण्डन करने योग्य का खण्डन भी करना पडता है। इसके बिना सत्य का यथार्थ ज्ञान नहीं होता। चावल खाने हों तो धान (तुष सहित चावल) को खाण्डना ही पडता है। इसके लिए ऊखल और मूसल चाहिए। अपने में खाण्डने की शक्ति न हो तो मजदूर बुलवाने पडते हैं। कोई भी अनाज छिलके उखाडे बिना नहीं खाया जाता। परमात्मा का शासन मिला तो आडे आने वाले आवरणों को हटाए बिना, आत्मा पर चिपके हुए कर्म और शासन के विरोधियों के विरूद्ध युद्ध किए बिना आराधना का सच्चा आनन्द, सच्चा स्वाद नहीं मिल सकता।

कस वाली किसी भी चीज के अन्तिम सत्व को प्राप्त करने के लिए आवश्यक सब क्रियाएं करनी पडती हैं और कचरे को दूर करना पडता है। सच्चा दर्शन पाने के लिए, सब कुदर्शनों और दुनिया की सब अवास्तविक मान्यताओं का त्याग करना ही पडता है। इन आवरणों को हटाने से ही जैन शासनकी प्राप्ति सार्थक हो सकती है। खण्डन की बात आते ही कितने ही लोग मौन रहने को कहते हैं। पाप वाली भाषा न बोलना ही सच्चा मौन है और पाप के प्रतिकार के लिए बोलना, यह भी मौन ही है। उन्मार्ग के उन्मूलन बिना, सन्मार्ग की स्थापना शक्य ही नहीं है। उन्मार्ग के उन्मूलन में जैसे आवश्यक उग्रता चाहिए, वैसे सन्मार्ग की स्थापना में वास्तविक शान्ति चाहिए। अकेली ठंडक तो हिम जैसी है, उससे फसल जल जाती है, जबकि वर्षा में ठंडक और गर्मी दोनों हैं। इसीलिए वह फसल को पकाती है। उन्मार्ग का उन्मूलन कर के सन्मार्ग का स्थापन करने में दोनों चीजों की आवश्यकता रहती है।-सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 24 सितंबर 2015

सुख-दुःख में समभाव हो



यह संसार सुख-दुःख का मेला है। दुःख अधिक है, सुख थोडा है। इन दो के सिवाय संसार में और है ही क्या? ऐसे संसार के दुःख में दुःख मानना और सुख में सुख मानना मूर्खता है। इसके विपरीत, दुःख में जिन्होंने आनन्द माना वे ही मोक्ष में गए। सुख को जिन्होंने लात मारी वे ही त्यागी बन सके। पाप से प्राप्त दुःख में नाराजी और पुण्य से प्राप्त सुख में प्रसन्नता, इसी का नाम अविरति है। जगत को अविरतिका भान नहीं। यह बात जैन शासन में ही है। परन्तु, जैन भी आजकल अविरतिको नहीं समझते। आजकल इस संसार रूपी नक्कारखाने में अविरति की ही नौबत बज रही है, ऐसे में हमारी तूती कौन सुने? सुख के साधनों में मौज करने वाले, उसकी अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा करने वाले और उसकी कमी के लिए खेद प्रकट करने वाले; सब अविरति में फंसे हुए हैं।

मिथ्यात्व कहता है कि जहां तक मेरी अविरति आनन्द में है, वहां तक मुझे कोई चिन्ता नहीं। जब अविरति रोने लगती है, तब मुझे घबराहट होती है।कर्म के उदय से जीव को दुःख आने ही वाला है। उस समय कदाचित् ऐसे संयोग मिल जाएं कि उस पर दया करने वाला कोई न रहे। आज हजारों जानवर बिना किसी अपराध के काटे जा रहे हैं और किसी के पेट का पानी नहीं हिल रहा है। जानवरों के पाप का उदय भी ऐसा आया है कि वे काटे जा रहे हैं और उन पर दया करने वाला कोई नहीं है; आपके लिए भी दुःख के प्रसंग में ऐसा नहीं होगा, इस बात का क्या भरोसा है? इसलिए इस बात को गहराई से समझो और दुःख में दुःख व सुख में सुख मानना और वैसा व्यवहार करना छोडो। समभाव से रहो।-सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 23 सितंबर 2015

सुख का दुःख



आप दुनिया में जिस-जिस सुख की कल्पना करते हैं, उनमें से एक भी सुख ऐसा नहीं है, जिसमें दुःख रहा हुआ न हो, दुःख अन्तर्निहित न हो। वह सुख अमुक काल से अधिक काल के लिए एकधारा में नहीं भोगा जा सकता। आपकी दृष्टि से मान लें कि खाने में सुख है, परन्तु क्या कोई दिनभर खाता रह सकता है? पीने में सुख है तो क्या बिना प्यास ही पानी पीते रहा जा सकता है? इसी तरह संसार का कोई भी सुख लीजिए, वह निरंतर नहीं भोगा जा सकता। साथ ही ऐसे सुख, दुःख के होने पर ही भोगे जा सकते हैं। भूख लगे बिना खाना क्या सुखरूप लगता है? तब आप भूख को दुःख ही कहेंगे न? प्यास को भी दुःख ही कहेंगे न? जितना भूख-प्यास का दुःख अधिक होता है, उतना ही खाने और शीतल जल पीने का सुख अधिक होता है। जो सुख स्वतंत्र नहीं होता, उस सुख की अनुभूति करने से पहले दुःख अवश्य होना चाहिए। ऐसे सुख को सुख मानना मूर्खतापूर्ण ही है।

भूख न लगे तो दवा लेने पहुंच जाते हो न? भूख दुःख है। यह दुःख न आए तो मरने का भय लगता है। खाते-खाते कभी ऐसा विचार आया क्या कि कर्म के अधीन होकर मैं कैसा रागी बन गया हूं कि जो सुख स्वतंत्र नहीं, उसका स्नेही बनकर, यदि दुःख न आए तो भी जी न सकूं, ऐसी मेरी दुर्दशा हो गई है। ऐसा विचार आए तो भूख ही न लगे, आहार की अपेक्षा ही न रहे। ऐसी दशा का विचार आए तो सच्चे सुख को पाने हेतु मोक्ष की मुसाफिरी करने का मनोरथ जागे। भौतिक सुख का यही एक बडा दुःख है कि उसमें सुख देने की स्वतंत्र शक्ति नहीं है। दुःख की मात्रा के अनुसार ही वह सुख देता है।-सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 22 सितंबर 2015

शरीर और इन्द्रियों के प्रति कठोर बनिए



शरीर और इन्द्रियों के प्रति जब तक कठोरता का व्यवहार न किया जाए, तब तक कर्मों को धक्का लगता ही नहीं। शरीर को पंपोलने, शरीर की सार-संभाल करने और उसी की सेवा में लगा व्यक्ति वास्तविक धर्म कर ही नहीं सकता। शरीर की पूजा में से सब पाप पैदा होते हैं। भगवान की सच्ची पूजा करने की फुरसत शरीर के पुजारी को नहीं मिलती। आजकल शरीर की गंदगी दूर करने के लिए आत्मा में गंदगी भरी जा रही है, यह कैसी मूर्खता है। भगवान शरीर के प्रति कठोर थे, इसीलिए कर्मों के लिए कठोर बन सके। भगवान ने उपसर्गों और परीषहों को जिस प्रकार सहन किया, यह उक्त बात की साक्षी देता है।

शरीर कष्ट भोगने का साधन है या भौतिक सुख भोगने का साधन? शरीर से सुख भोगने से संसार घटता है या समभाव पूर्वक कष्ट भोगने से संसार घटता है? जिस शरीर से सुख भोगा जा सकता था, उस शरीर से भगवान ने कष्ट ही सहन किए, यह बात आप जानते हैं न? ‘यह जन्म भोग के लिए है’, ऐसा मानने वालों ने दरअसल भगवान को माना ही नहीं है। यह जन्म त्याग के लिए है’, ऐसा मानने वालों ने ही भगवान को सही रूप में माना है। संसार में लगभग सभी जीव सुख में सडने के लिए और दुःख में संतप्त होने के लिए सर्जित हैं। सुख के समय में इन जीवों में ऐसी सडान पैदा हो जाती है, जिसके कारण ये जीव दुःख में संतप्त होने के लिए चले जाते हैं। ऐसा क्रम चलता रहता है। दुःख से घबराकर भवोद्वेग पैदा हो, यह विराग नहीं है, यह तो दुःख पर द्वेष ही है। इसमें जागृति आए और सुख के प्रति विरक्ति पैदा हो तो बेडा पार हो जाए।-सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 21 सितंबर 2015

आज की प्रगति अवगति का मूल



कर्म हरे, वह हरि। दुःख हरे, वह हरि नहीं। दुःख हरने की बात स्वार्थ से पैदा हुई है। कर्म हरने की बात परमार्थ से पैदा हुई है। इस संसार में सुख एक ऐसा पदार्थ है, जो सब जीवों को अच्छा लगता है और फिर विचित्रता यह है कि यह सुख ही जीव को दुःख दिलवाता है। जगत को सुखमय संसार पाने की आदत है और जैन को सुखमय संसार छोडने की आदत होती है। धर्म से मिलने वाली संसार की छोटी से छोटी चीज भी अच्छी या उपयोग करने योग्य जिसे न लगे, वह धर्मी और धर्म से प्राप्त वस्तुओं को भोगने में क्या दोष’, ऐसा जिसे लगे, वह मिथ्यादृष्टि। श्रीमन्तों की बात छोड दें, मध्यम वर्ग के लोग भी यदि अपने घरों से बेकार का कचरा निकाल फेंके, जरूरी वस्तुओं से ही जीने का संकल्प करें तो आज के बहुत से दुःख भाग जाएं। श्रीमन्ताई की हमारी व्याख्या अलग ही है। श्रीमन्ताई जिसके पीछे फिरे वह श्रीमन्त। श्रीमन्ताई के पीछे जो फिरे वह भिखारी। आज के वादों का सच्चा लक्षण ही कोई नहीं बतलाता और खूबी यह है कि वादों के अग्रगण्य सब पूँजीवादी ही हैं। स्वयं मौज उडाकर लोगों को वाद और वादों के चक्कर में डालते हैं। जब श्रीमन्त सच्चे अर्थों में श्रीमन्त थे, तब आज के एक भी वाद और वादे का जन्म ही नहीं हुआ था, सिवाय अध्यात्मवाद के। आज ज्ञाति-जाति और कुटुम्ब की सब अच्छी रीतियों का नाश कर दिया गया है और पापमय कानूनों का ढेर लगा दिया गया। परन्तु, यह मंच एक दिन टूट पडनेवाला है। आज की प्रगति भयानक अवगति का मूल है। इसे जितना जल्द समझ लें, उतना ठीक है।-सूरिरामचन्द्र

रविवार, 20 सितंबर 2015

जस्मीन तपस्वी बालक के माता-पिता-गुरुओं को भेजेंगे जेल ?



फेसबुक पर विश्वबंधु सोसायटी, पालडी, अहमदाबाद निवासी मात्र पांच वर्षीय बालक वत्सल दोशी के मासक्षमण की तपस्या का समाचार पढकर हृदय अहोभाव से भर गया, तप की अनुमोदना में और धर्म की प्रभावना में अंतःकरण से मैं नतमष्तक हो गया।

किन्तु अगले ही क्षण मुझे भय लगने लगा कि कहीं जस्मीन शाह जैसे दुराचारी, सिरफिरे लोग वत्सल के माता-पिता और धर्म-गुरुओं के खिलाफ जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में मुकदमा नहीं ठोक दे और इनकी गिरफ्तारी के लिए वारंट निकलवाकर, इन्हें जेल नहीं भेज दे! क्योंकि बालदीक्षा यदि बच्चों पर अत्याचार है तो उससे अधिक बर्बरतापूर्ण अत्याचार यह है कि एक पांच वर्षीय बच्चे को एक माह तक भूखा रखा जा रहा है, जिसके परिणाम स्वरूप उस बच्चे की मृत्यु भी हो सकती है। इस प्रकार इस तपस्या के खिलाफ तो हत्या के प्रयासों का मुकदमा भी बनता है। इसमें बच्चे के माता-पिता, परिवारजन और पचक्खाण करवाने वाले गुरुभगवंत आदि सभी फंसते हैं, अब क्या होगा? जस्मीन को तो यह सब मालूम ही होगा, क्योंकि भले ही उस बच्चे की आत्मा पर एक तिथि या दो तिथि का लेबल चिपका हुआ नहीं है, किन्तु यह परिवार है तो उन्हीं का अनुयायी जो अपनी ईर्ष्या व द्वेष की आग बुझाने के लिए जस्मीन जैसे लोगों का इस्तेमाल कर रहे हैं। जस्मीन ने अब तक मुकदमा भी इसीलिए नहीं किया है। अच्छा है।

यह बात द्वेष में अंधे लोगों को समझ में आए या न आए, लेकिन तपस्या की यह घटना मामूली नहीं है। बहुत ही स्तुत्य, बहुत ही अद्भुत और वंदनीय है। मैं यदि अहमदाबाद में होता तो निश्चित ही उस तपस्वी बालक आत्मा को नमन करने और उसके तप की अनुमोदना, बहुमान के लिए वहां जाता। यहां जस्मीन और उसके तथाकथित गुरुओं से एक सवाल है कि देशभर में पांच वर्ष के बच्चों की संख्या करोडों में है, उनमें से कितने बच्चों ने भूतकाल में या वर्तमानकाल में मासक्षमण की तपस्या की है? कितने नाम वे गिना सकते हैं? यह रेयर ऑफ रेयर केस में ही संभव है। ठीक इसी प्रकार बालदीक्षा भी आम बात नहीं है। लेकिन, इन्होंने गुजरात उच्च न्यायालय में और अहमदाबाद की एम.एम. कोर्ट व सेशनकोर्ट में जिस प्रकार की शर्मनाक व झूठी दलीलें दी है, उससे तो यही लगता है कि जैनधर्म में धडल्ले से बालदीक्षाएं हो रही है और दीक्षार्थियों पर भयंकर जुल्मोसितम ढहाए जा रहे हैं। धिक्कार है ऐसे लोगों को और ऐसे लोगों का पिष्टपोषण करनेवालों को।

कितना प्रबल पुण्य होता है, पूर्वजन्म के संस्कार होते हैं और वर्तमान निमित्त ऐसे मिलते हैं, ऐसे संस्कार मिलते हैं तब बालदीक्षा या इतनी बडी तपश्चर्या संभव होती है? लेकिन धर्म का सत्यानाश करने पर आमादा लोगों को यह कैसे समझ आएगा? उनका बस चलता तो वे जरूर तपस्वी बालक के माता-पिता व गुरु को जेल में बिठाकर ही छोडते, लेकिन उनके ही टुकडों पर पल रहे हों तो वे ऐसा कैसे करेंगे?

शनिवार, 19 सितंबर 2015

मूल में भूल



आप दिन भर जो मेहनत-मजदूरी करते हैं, उसका कोई टाइम-टेबल बनाते हैं क्या? आप स्वयं-स्फूर्त सोना, उठना, खाना, पीना, शोच आदि नित्यकर्म करते हैं, क्योंकि यह सब आपके वर्तमान शरीर की जरूरतें हैं और आत्मा की जरूरत के लिए? जन्म से लेकर पूरे बचपन और तरुणावस्था तक माता का मुँह ताकते रहना, जवानी में पत्नी का मुँह ताकते रहना और बुढापे में लडकों का मुँह ताकते रहना ही है तो फिर आत्मा की तरफ अपनी दृष्टि कब गुमाओगे? बाल्यकाल नासमझी और मूर्खताभरी क्रीडाओं में बीत जाए, यौवन विषयों की परवशता में बीत जाए और वृद्धत्व कच-कच में पूरा हो जाए तो आत्मा का साधन किस काल में होगा?

यहां मरे इसका अर्थ सब कुछ समाप्त होना नहीं है और यहां के नाते-रिश्तेदार या धन-दौलत, साधन-सुविधाएं भी साथ आने वाले नहीं हैं। मरने के बाद आत्मा अन्य स्थान में जाता है, स्थान-परिवर्तन होता है, परन्तु कर्म तो बने रहते हैं। कर्म साथ रहते हैं, तो दुःख बना रहता है। अतः प्रयत्न यह करना चाहिए कि आत्मा कर्म-रहित बने। यह ध्येय निश्चित कर लो। इसके बाद छोटी-सी भी धर्मक्रिया आपको सच्चे सुख की सच्ची दिशा में आगे बढने में सहायक बनेगी।

आज की दुनिया की एक मात्र इच्छा यही है कि सुख मिले और दुःख टले। प्राणी मात्र की प्रवृत्ति भी सुख पाने की और दुःख टालने की है। तथापि यह सत्य है कि दुनिया दुःखी है। ऐसा क्यों? कहना होगा कि मूल में भूल है। सुख-दुःख की सच्ची समझ ही नहीं है। सच्चे सुख की समझ आ जाए और इसे पाने का ध्येय निश्चित हो जाए तो सुख मिले बिना न रहे और दुःख टले बिना न रहे।-सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 17 सितंबर 2015

धर्म रहित आधुनिक शिक्षा विनाशक है


धर्म रहित आधुनिक शिक्षा विनाशक है

आत्म-शुद्धि के विचार और उस विषयक बात करने से पूर्व आत्मा का खयाल न हो तो क्या हो? आपको यदि किसी भी तरह अपना और अपनी संतान का कल्याण करना हो, उनका उद्धार करना हो तो सर्व प्रथम मनुष्यत्व प्राप्त करना होगा। मनुष्यत्व आने के पश्चात यह निश्चित होगा कि मैं विश्व का रक्षक हूं, भक्षक नहीं; सहायक हूं, विनाशक नहीं और परमार्थ के लिए वचनबद्ध हूं।प्राचीन समय में सब कलाओं का ज्ञान प्राप्त करने वाले के लिए भी जब तक वह धर्म-कला से अनभिज्ञ होता, तब तक उसकी सारी कलाएं व्यर्थ मानी जाती थी। धर्म के बिना सारा ज्ञान, विवेकहीन गुणों के समान होता है। शरीर अत्यंत सुन्दर हो, परन्तु नाक न हो; वैसे ही धर्म के बिना का ज्ञान है। आज जिस प्रकार धर्म का शोर मचाया जा रहा है, वह वास्तविक धर्म नहीं है, बल्कि धर्म के नाम पर होता अधर्म है.

सब जानता हो, परन्तु आत्मा क्या है और आत्म-सुख के साधन कौनसे हैं’, यह नहीं जानता हो, तब तक समस्त ज्ञान निष्फल है, विनाशक है। धर्म-कला पर ही समस्त कलाओं की सफलता अवलम्बित है। उसके बिना समस्त कलाएं निष्फल हैं। धर्म के बिना सारा ज्ञान अधूरा और विनाश की ओर ले जाने वाला है। आज जो धांधली और शोरगुल हो रहा है, जो विनाशक-विकास हो रहा है, जो उत्पात और हिंसा का विभत्स ताण्डव दिखाई दे रहा है; उसका सबसे बडा कारण धार्मिक-शिक्षण का अभाव है। बडे भारी डिग्रीधारी बन गए, पदवी प्राप्त कर ली, लेकिन उनकी इंसानियत मर गई, मनुष्यता मर गई, जीने का सलीका नहीं आया; कारण कि धार्मिक शिक्षा प्राप्त नहीं की, पुण्य-पाप आदि तत्त्व नहीं समझे, हेय-ज्ञेय-उपादेय को नहीं समझा तो विवेक कहां से आएगा, उदय कैसे संभव है, कल्याण कैसे होगा? -सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 16 सितंबर 2015

धोखेबाजों से सावधान


धर्म के नाम पर आज जो त्याग की बातें चल रही हैं, वे अनावश्यक हैं।इस तरह की बातों का आज स्थान-स्थान पर प्रचार हो रहा है। बीसवीं शताब्दी में त्याग की बातें करना मूर्खता है। त्याग की क्या आवश्यकता है?’ इस तरह कहने वालों को सच्चे उपकारियों का आदेश समझाने के साथ-साथ मैं कहना चाहता हूं कि जिसे सुख से जीना हो, उसे त्याग की भावना हृदय में अपनाए बिना चलेगा ही नहीं।वर्तमान समय प्राचीन काल से भयंकर है। प्राचीन समय में जो धार्मिक बंधन थे, उनमें इस समय अनेक गुनी वृद्धि करने की आवश्यकता है, क्योंकि दम्भ, अहंकार में वृद्धि होती जा रही है। आज जो शठ हैं, वे अपने आपको सेठ लिखवाते हैं। मनुष्यत्व नहीं है फिर भी मनुष्य के रूप में प्रकाश में आने हेतु प्रयासरत हैं।

उदारता का नाम नहीं, फिर भी दानवीर की उपाधि लेने वाले अनेक हैं। आते हैं पूर्व से और भागते हैं पश्चिम में’, ऐसे कायर भी वीरता का दम्भ बताकर हर्ष से घूम सकते हैं। तिजोरी खाली है, फिर भी लाल पगडी बांधकर आज अनेक व्यक्ति मोटरों में फिरते हैं। प्राचीन समय में जितना धन पास में होता था, उसमें से भी थोडा घर में रखकर ही व्यापार करते थे; जबकि आज तो पांच रुपये हों तो पचास का व्यापार करते हैं, क्योंकि उनके भाव भिन्न हैं। कमा गए तो ठीक है और हानि हो जाए तो पगडी ही उल्टी फिरानी है, इस तरह की मनोवृत्ति हो गई है। वे समाज के साथ-साथ स्वयं की आत्मा को भी धोखा दे रहे हैं। ऐसों के सामने आत्म-शुद्धि के उपाय रखने में भी खतरा है। ऐसे लोग अपने दोष छिपाने के लिए आत्म-शुद्धि के उपायों और धर्म को भी कलंकित कर सकते हैं। इसलिए बहुत सावधानी रखनी है।-सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 15 सितंबर 2015

अंतर स्वर



प्रत्येक शून्य का अपना महत्व है, पर बिना अंक के उसका मूल्यांकन नहीं होता, अंक शून्य से पहले लगकर दो काम करता है - खुद का मूल्यांकन तो बढाता ही है, शून्य की महत्ता भी वह स्थापित करता है. यूं देखें तो अकेले शून्यों की कोई कीमत नर्ही है, पर अंक के साथ मिल जाने पर हर शून्य की अपनी कीमत बढती चली जाती है. क्षमा अंक है और शेष सारी सत्प्रवृत्तियां जैसे कि पूजा-अर्चना, तप-जप, सेवा-सुश्रुषा, दान-पुण्य इत्यादि शून्यों के बराबर है. इन धर्म-प्रवृतियों की चाहे जितनी संख्या हो, क्षमा-रहित इनका कोई मूल्य नहीं होता, किन्तु क्षमा के साथ जब भी ये सत्प्रवृत्तियां आचरित होती हैं; इनमें से हर एक की कीमत बढती चली जाती है. यही उपादेय है कि हम शून्यों के मूल्यांकन को सिद्ध करने व बढाने के लिए शून्यों से पहले अंक को रखें. क्षमा के अभाव में जो कुछ भी किया जाएगा, वह निष्प्राण होगा. क्षमा ही धर्म और सदाचरण का प्राण है.

और अन्त में...

खमिअ खमाविअ मई खमह, सव्वह जीवनिकाय; सिद्वह-साख आलोयणह, मुज्झह वइर न भाव।। जं जं मणेण बद्धं, जं जं वाएण भासिअं पावं; जं जं काएण कयं, मिच्छा मि दुक्कडं तस्स।।

मैं सभी को क्षमा करता हूं, सभी मुझे क्षमा करें. सिद्धात्माओं की साक्षी में मैं प्रायश्चित करता हूं कि मेरा किसी से वैर-भाव नहीं है. जो-जो पाप मैंने मन से बांधे हों, जो-जो दुर्वचन वाणी से उच्चारित किए हों, उन सभी की मैं क्षमायाचना करता हूं... -जैन संथारा पोरिसी सूत्र (1517)

धर्म में सहायक कौन?



धर्म में सहायक कौन? अनुकूलता या प्रतिकूलता? इन दो परिस्थितियों में से कौनसी परिस्थिति जीवन में धर्म के लिए सहायक है? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि निश्चय नय की दृष्टि से धर्म करने के लिए न तो अनुकूलता सहायक है और न ही प्रतिकूलता। केवल जीव के अध्यवसाय, उसकी भावना और विवेकयुक्त अहिंसक क्रिया ही सहायक होते हैं, यह निश्चय नय का उत्तर है।

व्यवहार नय कहता है कि योग्य जीव के लिए अनुकूलता अधिक सहायक कही जा सकती है। यदि जीव सत्वहीन है तो प्रतिकूलता में किसी समय कठिनाइयां पैदा हो जाती हैं, इसलिए ऐसे व्यक्तियों के लिए अनुकूलता को धर्म में सहायक कहा जा सकता है। अनुकूलता हो तो ही धर्म हो सकता है, यदि ऐसा हो तो धर्म के लिए अनुकूलता चाहने वाला क्षम्य है। उनमें प्रतिकूलताओं का सामना करने का माद्दा नहीं होता। ऐसे लोग प्रतिकूलता आने पर धर्म करने से पीछे हट जाते हैं।

अन्यथा जिसे धर्म करना है, वह जीव तो धर्म करेगा ही चाहे अनुकूलता हो या प्रतिकूलता। भूतकाल के महापुरुषों ने तो प्रतिकूलता में अधिक से अधिक और अच्छे में अच्छा धर्म किया है। इतना ही नहीं, उन्होंने तो अनुकूलता को ठोकर मारी है। जिसे साधुपना पालना है, उसे अनुकूलता छोडनी होगी और प्रतिकूलता को अपनाना होगा, तभी साधुपने में सच्चा स्वाद आएगा। साधु तो अनुकूलता का वैरी होता है। वह जितनी अनुकूलता लेने जाता है, उतने ही दोषों की वृद्धि होती है। ज्यों-ज्यों दोष बढते हैं, त्यों-त्यों पाप बढता जाता है और वह धीरे-धीरे साधुत्व से स्खलित होने लगता है। अतः साधु में तो प्रतिकूलता में संयम-पालन की शक्ति होनी ही चाहिए।-सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 14 सितंबर 2015

आजादी के 68 साल


आजादी के 68 सालों बाद भी देश की स्थिति यह है कि यहां के बच्चे अनाथालयों में पैदा होते हैं, युवक अंधेरों में भटकते हैं, वयस्क-प्रौढ पेट की भूख के गुलाम हैं और बूढे मुरझाई आंखों से, पिचके गालों और सिमटे हुए पेट को दबाए मौत की इंतजार में सांस लेते रहते हैं।

देश में कई स्थानों पर एक दृश्य देखा जा सकता है। होटलों में जूठी प्लेटें साफ कर के उनकी बची जूठन जब बाहर फेंकी जाती है, तो इंसानों के बच्चे कुत्तों की तरह झपट कर उन जूठे दानों से अपना खाली पेट भरते हैं।

स्वर्ग में बैठी आजादी के शहीदों की आत्माएं जब देश की यह स्थिति देखती होंगी तो क्या सोचती होंगी; यह सोचकर रगों का खून जमने लगता है। देश की सम्पूर्ण स्थिति पर दृष्टिपात करने पर लगता है कि देश अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होकर इसी देश के चन्द राजनीतिबाजों एवं कालाबाजारियों की गुलामी के चंगुल में फंस गया है।

आप से हाथ जोडकर एक विनति है कि भोजन में जूठन कभी नहीं छोडें और कोशिश करें कि पेट में जितनी गुंजाइश हो उससे थोडा कम खाएं व बाकी का बचाकर किसी और को खिलाएं। इससे आपकी सेहत भी अच्छी रहेगी और किसी और की भूख भी बुझ सकेगी।

मन व इन्द्रियों को साधो



मन-शुद्धि और मन की शान्ति तभी आ सकती है, जब आत्मा में भविष्य के लिए चिन्ता जागृत हो और विवेक पूर्वक आगे-पीछे का हम विचार कर सकें।

जीवन को सार्थक करने के लिए हमें अपने मन में उठने वाली अनुचित एवं नकारात्मक, विनाशक तरंगों, इच्छाओं और अनुचित तृष्णाओं को दबा देना चाहिए। विषय-वासनाओं में लीन पांचों इन्द्रियों पर अंकुश लगाना चाहिए और उनके कारण जो पाप हो रहा है, उससे बचकर इस जीवन को सुन्दर बनाना चाहिए। ऐसा करने से आप झूठ, चोरी, अनाचार और लोभ के वशीभूत होकर किसी भी प्राणी को दुःखी करना नहीं चाहेंगे और इस प्रकार की उत्तम नीति यदि जीवन में उतारोगे तो इस लोक में उच्च कोटि की उत्तम आत्म-शान्ति अनुभव करते हुए, जहां जाओगे वहां भी अनुकूल स्थिति और सामग्री प्राप्त करके, उन्नतगामी बनकर आधि, व्याधि और उपाधि से मुक्त होकर जैसा सुख चाहते हो वैसा प्राप्त कर सकोगे। उस सुख को प्राप्त करने की स्थिति में आप पहुंच सकें, तभी आपका जीवन सार्थक होगा।

हमें मन की इच्छा के आधीन नहीं होना है, अपितु उसे अपनी इच्छा के आधीन बनाना है। मन जो कुछ मांगे, वह उसे नहीं देना है, बल्कि हम जो उसे देना चाहें, वही उसे देना है। मन पर अंकुश रखने के लिए उसे तृष्णा से सदा दूर रखना चाहिए। जो-जो बुरी इच्छाएं हैं, उन्हें पूरी नहीं करना चाहिए और अच्छी इच्छाओं को पूरा करने का प्रबल पयत्न करना चाहिए। केवल साधुओं को ही नहीं, गृहस्थियों को भी सुखी होना हो तो उन्हें अपने मन पर अंकुश रखना चाहिए। मन और इन्द्रियों को नहीं साधा तो चौरासी लाख जीव-योनियों में ही भटकते रहना पडेगा।-सूरिरामचन्द्र

रविवार, 13 सितंबर 2015

विभिन्न धर्मों में क्षमा


खमियव्वं खमावियव्वं, जोउवसमइ तस्स अत्थि आराहण, जो न उवसमइ तस्स णत्थि आराहण।

क्षमा मांगनी चाहिए, क्षमा देनी चाहिए, जो क्रोध, अभिमान, कपट, लोभ व राग-द्वेष को शान्त कर क्षमा-याचना करता है, उसी की आराधना सार्थक होती है और जो ऐसा नहीं करता उसकी सारी साधना-आराधना निरर्थक हो जाती है. -भगवान महावीर (कल्पसूत्र 1/35)

इमेण चेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ।

अपने आन्तरिक विकारों से ही युद्ध करो, किसी अन्य से लडने से तुम्हें क्या मिलेगा? -भगवान महावीर (आचारांग सूत्र 1/5/3)

सरिसो होइ बालाणं

बुरे के साथ बुरा बनना, बचकानापन है. -भगवान महावीर (उत्तराध्ययन सूत्र 2/24)

खमावणयाए ण्ं पल्हायणभावं जाणयइ।

क्षमापना से आत्मा में प्रसन्नता की अनुभूति होती है. -भगवान महावीर (उत्तराध्ययन सूत्र 29/17)

योस्मान् द्वेष्ठि तमात्मा द्वेष्टु।

जो किसी से द्वेष करता है, वह अपनी आत्मा से ही द्वेष कर रहा है. (अथर्ववेदः16/7/5)

उद्वरेदात्मनात्मानं, नात्मानमवसादयेत्। आत्मैव हृयात्मनो, बन्धरात्मैव रिपुरात्मनः।।

स्वयं ही अपना उद्धार करो. स्वयं स्वयं को नीचे मत गिराओ. क्योंकि हम स्वयं ही स्वयं के मित्र हैं. और स्वयं ही स्वयं के शत्रु, -योगीश्वर श्री कृष्ण (भगवद्गीताः 6/8)

क्षमा गुणोहृयशक्तानां, शक्तानां भूषणं क्षमा।

क्षमा असमर्थ मनुष्यों का गुण है और समर्थों का भूषण है. -वेदव्यास (महाभारत, उद्योगपर्वः 33/49)

आत्मा वै प्राणिनां प्रेष्ठः।

जो किसी के साथ वैर-भाव रखता है, उसके मन को कभी शान्ति नहीं मिल पाती. -वेदव्यास (विष्णुपुराणः 10/80/40)

अच्चयं देसयन्तीनं, यो चे न पटिगण्हति। कोयंतरो दोसगुरू, स वेरं पटिमुण्चति।।

अपराध स्वीकार करनेवालों को जो क्षमा नहीं करता, वह भीतर ही भीतर क्रोध रखनेवाला महाद्वेषी, वैर को और अधिक बांध लेता है. -महात्मा गौतमबुद्ध(संयुत्तनिकायः 1/1/35)

द्वेवे, भिक्खवे, बाला। यो च अच्चयं अच्चयतो न पस्सति। यो च अच्चयं देसें तस्य, यथाधम्मं नप्पटिग्गण्हाति।

भिक्षुओं! मूर्ख दो प्रकार के होते हैं, एक वे जो अपने अपराध को अपराध के रूप में नहीं देखते, और दूसरे वे जो दूसरों द्वारा अपराध स्वीकार कर लेने पर भी उन्हें क्षमा नहीं करते. -महात्मा गौतमबुद्ध (संयुत्तनिकायः 1/11/24)

नही वेरेण वेराणि, सम्मन्तीध कुदाचनं। अवेरेण च सम्मन्ती, एस धम्मो सनन्तनो।

वैर से वैर कभी शान्त नहीं होता, सिर्फ प्रेम से ही वैर शांत होता है, यही शाश्वत नियम है. -महात्मा गौतमबुद्ध (सुत्तपिटक, धम्मपदः 1/5)

क्षान्त्या शुद्ध्यन्ति विद्वांसः।

विद्वान् क्षमा-भाव से ही पवित्र बनते हैं. -मनुस्मृतिः 6/107

मरणान्तानि वैराणि।

हम चाहें तो वैर-विरोध मरते दम तक भी रख सकते हैं. -ऋषि वालिमकि (रामायण, उत्तरकाण्डः 110/26)

जो वक्त पर धैर्य रखे और क्षमा कर दे, तो निश्चय ही यह बडे साहस के कामों में से एक है. -हजरत मुहम्मद पैगम्बर (कुरान शरीफः 42/43)

क्षमा करने की आदत डाल, नेकी का हुक्म देता जा और जाहिलों से दूर रह. -हजरत मुहम्मद पैगम्बर (कुरान शरीफः 7/199)

जो गुस्सा पी जाते हैं और लोगों को माफ कर देते हैं, अल्लाह ऐसी नेकी करनेवालों को प्यार करता है. -हजरत मुहम्मद पैगम्बर (कुरान शरीफः 3/134)

अपने शत्रुओं से प्रेम रखो और जो तुम्हें सताता है, उसके लिए प्रार्थना करो. -बाइबिल, नया नियम (मत्तीः 5/44)

वैरी से मत हारो, बल्कि क्षमा से वैरी को जीत लो. -बाइबिल, नया नियम (रोमियों: 12/21)

प्रार्थना में यदि किसी के प्रति तुम्हारे मन में कोई विरोध खड़ा हो, तो तत्काल क्षमापना कर दो, अन्यथा परम पिता तुम्हें क्षमा नहीं करेगा. -बाइबिल, नया नियम (मरकुसः 11/25-26)

हे पिता! इन्हें क्षमा करना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं. -बाइबिल, नया नियम (लूकाः23/24)

यदि कोई दुर्बल मनुष्य तुम्हारा अपमान करता है, तो उसे क्षमा कर दो, क्योंकि क्षमा करना वीरों का काम है. -गुरू गोविन्दसिंह

परदेशी से भी प्रेम कर, अपने मन में किसी के प्रति वैर या दुश्मनी का भाव मत रख. -यहूदी धर्म प्रवर्तकः यहोवा (लैब्य-व्यवस्थाः 19/17)

यदि तुम्हारा शत्रु तुम्हें मारने आए और वह भूखा-प्यासा तुम्हारे घर पहुंचे, तो तुम उसे खाना दो, पानी दो. -यहूदी धर्म प्रवर्तकः यहोवा (नितिः 25/21 मिदराश)

मन से सदैव यही सोचो कि सभी मेरे भाई हैं और उनके प्रति मैंने किसी भी तरह का कोई अपराध किया हो, तो प्रभु मुझे क्षमा करो. -पारसी धर्म प्रवर्तक जरथुश्त्र (पहेलवी टेक्स्ट्स)

अवरद्धेसु वि खमिउं, सुयणोच्चिय नवरि जाणेइ।

अपने प्रति किये अपराधों को भी क्षमा करना केवल सज्जन ही जानता है. -महाकवि हाल (वज्जालग्गं: 44)

जग में बेरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय, तुलसी इतना याद रख, दया करे सब कोय. -संत तुलसीदास

जिस मनुष्य के हाथ में क्षमारूपी शस्त्र हो, उसका दुष्ट क्या बिगाड़ सकता है? यदि दावाग्नि में तृण न पड़े, तो वह स्वयं ही बुझ जाती है. -संत तुकाराम (तुकाराम अभंग गाथा, 3995)

जो अपने दुश्मनों को क्षमा कर देते हैं, वे स्वर्ण की तरह बहुमूल्य समझे जाते हैं. -संत तिरूवल्लुवर

क्षमा ही मूलं सर्वतपसाम्।

क्षमा सभी तपस्याओं का मूल है. -बाणभट्ट (हर्षचरितः 12)

संसार में ऐसे अपराध कम नहीं हैं कि जिन्हें हम चाहें और क्षमा न कर सकें. -शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (गृहदाह, पृष्ठ-261)

रोक लो गर गलत चले कोई, बख्श दो गर खता करे कोई. -गालीब (दीवान)

दण्ड देने की शक्ति होने पर भी दण्ड न देना सच्ची क्षमा है. -महात्मा गांधी सर्वोदय, 98

क्षमा पर मनुष्य का अधिकार है, वह पशु के पास नहीं मिल सकती. -जयशंकर प्रसाद (स्कंदगुप्त, द्वितीय अंक)

क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो. उसको क्या, जो दंतहीन, विषरहित, विनीत, सरल हो? -रामधारीसिंह दिनकर’ (कुरूक्षेत्र, तृतीय सर्ग)