सोमवार, 31 अगस्त 2015

धर्म किसको कहा है ?



अनन्तज्ञानी उपकारियों ने धर्म किसको कहा है? दान, शील, तप और सद्भाव को? या लक्ष्मी, विषय-विलास, शरीर की पुष्टि और अशुभ विचारों को?’ यह विचार करो, कारण कि यह विचारे बिना धर्म का स्वरूप वास्तविक रूप से समझ में नहीं आता है। दुनिया में दान भी दो प्रकार से दिया जाता है। पांच देकर पांच सौ लेने के लिए और दूसरा सौ हो उस में से पांच देकर उस समय पांच की और परिणाम से सौ की भी ममता उतारने के लिए। लक्ष्मी को अच्छी मानते हो या गलत? यदि खोटी, तो खोटी चीज के लिए धर्म करना, वह दूषित है या निर्दोष? जिस चीज को गलत मानते हो, उसके लिए धर्म का उपयोग होता है? भगवान की पूजा करके भगवान से बंगला और ऐश्वर्य मांगा जाता है? भगवान बडे या ऐश्वर्य बडा? विषय-वासना बढे, उसके लिए पूजा करने की है अथवा घटे उसके लिए? जिसको खोटा मानते हो, त्यागने योग्य मानते हो, उसको प्राप्त करने के लिए धर्म किया जाए, यह ठीक है? इन समस्त प्रश्नों का उत्तर सीधा तभी दिया जा सकता है कि जब उपकारियों ने धर्म क्यों कहा है?’ यह समझो। और इसी कारण से समझो कि उपकारियों ने दान को धर्म कहा है, किन्तु लक्ष्मी को नहीं कहा, शील को धर्म कहा है, किन्तु विषय-विलास को नहीं कहा है, तप को धर्म कहा है, किन्तु शरीर की पुष्टि को नहीं कहा और सद्भाव को धर्म कहा है, किन्तु अशुभ विचारों को नहीं कहा है। जो इस बात को नहीं समझते हों, उनकी दशा आज भिन्न प्रकार की ही है।-सूरिरामचन्द्र

रविवार, 30 अगस्त 2015

रोग भी धनी लोगों के यहीं डेरा जमाते हैं


धन के वशीभूत धनी मनुष्यों पर व्याधियों की दृष्टि भी ठिठक जाती है। जो धनी लोग कृपण होते हैं, वे इस तरह का भोजन करते हैं कि उनके लिए कहना पडता है कि वे भूखों मरते हैं। जो धनी लोग विलासी होते हैं, ‘वे ऐसा भोजन करते हैं कि वे रोगों को निमंत्रण देते हैं’, यह कहना पडता है। कृपण लोग खुद खाते भी नहीं और किसी को खाने भी नहीं देते, खिलाते भी नहीं। विलासी लोग अपथ्य खाद्य पदार्थों को खा-खाकर व्याधियों से ग्रस्त होते हैं। अतः धनी मनुष्य का भोजन प्रायः तुच्छ एवं अपथ्य कहलाता है। रसना के स्वाद के अधीन होकर भी तुच्छ एवं अपथ्य भोजन किया जाता है और कृपण मनुष्य कृपणता के कारण तुच्छ और अपथ्य भोजन करता है।

खान-पान के संबंध में धनी और निर्धनों के दृष्टिकोण में अन्तर होता है, यह आपको ज्ञात है क्या? निर्धन क्यों खाते हैं? वे अपनी क्षुधा शान्त करने के लिए खाते हैं और क्षुधा की ज्वाला शान्त करने के लिए निर्धन किस तरह का भोजन पसंद करते हैं? वे ऐसा भोजन पसंद करते हैं, जिससे क्षुधा की ज्वाला शान्त हो सके और शरीर बलवान हो सके। उनमें से भी जो निर्धन मनुष्य संतोषी स्वभाव के होते हैं, उनकी तो बात ही भिन्न है। वे लोग न तो अजगर की तरह खाते हैं और न वे अपथ्य पदार्थ ही खाते हैं। लक्ष्मी के दास अविवेकी धनी लोग जीभ के स्वाद को संतुष्ट करने के उद्देश्य से खाते हैं।

धनी लोग जब तक क्षुधा लगे तब तक तो रुकते ही नहीं। यद्यपि वर्तमान समय में तो निर्धन और मध्यम वर्ग के मनुष्यों में भी खान-पान संबंधी अनेक बुराइयां उत्पन्न हो गई हैं, जिनके फलस्वरूप वे भी व्याधिग्रस्त होकर पीड़ित रहते हैं; परन्तु निर्धन संतोषी मनुष्य प्रायः ऐसा भोजन करते हैं, जिससे उनका शरीर रोग-ग्रस्त न होकर उलटा हृष्ट-पुष्ट हो। धनी लोग ऐसा नहीं करते। रोग उन धनी लोगों की अभिलाषा करते हैं। कैसी विडम्बना है कि याचकगण तो धनी लोगों की अभिलाषा करते ही हैं, रोग भी उनकी अभिलाषा करते हैं, क्योंकि रोगों का स्थान ही वहां है। ऐसे मनुष्य इस भव में सुख से जीवन जी नहीं सकते, मृत्यु के समय वे शान्ति पूर्वक मर भी नहीं सकते और मृत्यु के उपरांत उन्हें सद्गति भी प्राप्त नहीं हो सकती।

धनी लोग धन के वशीभूत होकर अनेक प्रकार की विपत्तियों से घिरे रहते हैं। वे एक कदम भी निश्चिंत होकर परिभ्रमण नहीं कर सकते। कई प्रकार के भय से वे ग्रस्त रहते हैं। शास्त्रों में धन की तीन गतियां बताई गई है- दान, भोग और नाश। जो धनी, धन की मूर्च्छा से रहित होकर विवेक पूर्वक धन का दान नहीं करता, अपने धन का संयमित उपभोग करते हुए, अन्य को इससे लाभान्वित नहीं करता, धर्म और परोपकार में इसका निवेश नहीं करता, उसके धन और आत्मा का भी नाश होता है।-सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 29 अगस्त 2015

सच्ची उदारता के लिए प्रयत्नशील बनें



प्राणी मात्र का कल्याण चाहना, किसी के उत्तम गुण को देखकर प्रमुदित होना, दुःखी के प्रति दया-भाव रखना और अपराधी को सुधारने के लिए परिश्रम करने पर भी यदि न सुधरे तो उसके प्रति उदासीन हो जाना, लेकिन उसका तिरस्कार तो नहीं ही करना। जिसमें यह उदारता नहीं है, उसमें सदाचार, सहिष्णुता और उत्तम विचार आएंगे? नहीं आएंगे! आपको ऐसा उदार, सदाचारी, सहिष्णु और सद्विचार वाला बनना है? इन गुणों को प्राप्त कर के महान बनना है न? यदि हो, तो इस उदारता को प्राप्त कर के जीवन में उतारने के लिए प्रयत्नशील बनना चाहिए।

आपको पूर्व के किसी प्रबल पुण्य से यह उत्तम भव, उत्तम देश और उत्तम जाति प्राप्त हुई है। यह सामग्री जिसका सदुपयोग हो सके तो उत्तम प्रकार से मोक्ष-मार्ग की आराधना हो सकती है। यह सामग्री प्राप्त कर के आप यदि मोक्ष-मार्ग की आराधना करने में असफल रहें, मोक्ष प्राप्ति के लिए तनिक भी प्रयत्न-पुरुषार्थ न कर सको, प्रयत्न-पुरुषार्थ न कर सको और उसका पश्चात्ताप भी न हो तो यह मिली हुई सब सामग्री निष्फल हो जाएगी। ज्ञानी पुरुषों द्वारा बताई गई क्रिया से सर्वथा विमुख रहकर यदि केवल विपरीत क्रियाओं में ही इन उत्तम सामग्रियों का दुरुपयोग हो तो अपने ही हाथों अपना जीवन नष्ट करने के समान होगा।

अतः ज्ञानी पुरुषों के फरमाने के अनुसार मेरी आपको शिक्षा है-सलाह है कि यदि अधिक न हो सके तो इतना तो करना ही कि जिससे आराधना करने योग्य जो सामग्री प्राप्त हुई है, वह चली नहीं जाए, अपितु टिकी रहे, जिससे भविष्य में भी आत्मा अधिक आराधना कर सकेगी, परन्तु यदि विपरीत प्रवृत्तियों में ही जीवन में उलझ गए तो इतनी सामग्री पुनः कब प्राप्त होगी, यह कहा नहीं जा सकता। इसके लिए सच्ची उदारताप्राप्त करने का सदा प्रयत्न करना चाहिए। जिस मनुष्य में यह गुण आ जाएगा, वह अपना और पराया हित कर सकेगा। ऐसी आत्मा यदि सोच लेगी तो वह जैन शासन की भी अच्छी तरह प्रभावना कर सकेगी। हमने ऐसा अनुपम शासन प्राप्त किया है तो अपना बर्ताव ऐसा नहीं होना चाहिए कि जिससे शासन पर कलंक लगे।

हमें ऐसा जीवन जीना चाहिए कि जिससे शासन की शोभा में वृद्धि हो। देखने वाले को ऐसा लगे कि यह जिस धर्म को मानता है, वह धर्म उत्तम ही होगा। ऐसी छाप उदारता का गुण आए बिना नहीं पड सकती। हम कदाचित् देव-गुरु-धर्म की भक्ति बराबर न कर सकें तो भी हम उन तारकों और उनके धर्म की निन्दा न हो, इसकी सावधानी तो रख ही सकते हैं। जो आत्मा जीवन में सच्ची उदारता प्राप्त करने का प्रयत्न करेंगी और अनन्त ज्ञानियों की आज्ञानुसार आराधना करेंगी, वे आत्माएं इस भव-सागर को अवश्य पर करेंगी।-सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 27 अगस्त 2015

गुणों से प्रमोद



प्रमोद अर्थात् गुणों के प्रति किसी भी प्रकार का भेद किए बिना हृदय की प्रसन्नता। आज तो अनीतिखोर नीति पर चलने वालों की भी टीका करते हैं, आलोचना करते हैं, वहां प्रमोद का भाव भी कहां से होगा? कोई ऐसा गुणवान नहीं होगा कि जिसके गुणों की आज के पामर आलोचना नहीं करें। ऐसे केवल अपनी वाह-वाह के लिए गुणों के शत्रु बने व्यक्तियों की उपस्थिति में प्रमोद-भाव पनप ही नहीं सकता। जहां विश्व का कल्याण देखने की भी बुद्धि नहीं है, वहां प्रमोद-भाव हो ही नहीं सकता। आज जिधर देखो उधर गुणों और गुणवानों के प्रति जलन, ईर्ष्या, द्वेष रखने वालों की कमी नहीं है।

आज के व्यभिचारी बचपन में ब्रह्मचर्य अपनाने वाले को मूर्ख कहने की, युवावस्था में ब्रह्मचर्य अपनाने वाले को वीर्यहीन, पुरुषत्वहीन कहने की और वृद्धावस्था में ब्रह्मचर्य अपनाने वाले को गयागुजरा, नाकारा कहने की धृष्टता करने में भी नहीं लजाते। आज का कृपण अपने साथ रहने वाले उदार आत्मा की कीर्ति को ढकने के लिए तनिक भी हिचकिचाता नहीं। आज इतनी भयंकरता पूर्वक गुणों से द्वेष हो रहा है और येन-केन-प्रकारेण गुणी आत्माओं को निम्न बताने का जोर-शोर से प्रचार चल रहा है। नीति पर चलने वालों को निम्न कोटि के सिद्ध करने वाले अनीतिवानों, भ्रष्टाचारियों की संख्या आज अधिक है।

आज हिंसा, असत्य, चोरी और षडयंत्रों से अपनी उदरपूर्ति करने वाला भी पवित्र साधुओं के लिए हर्ष से ऊंचा-नीचा बोल सकता है और ऐसा निकृष्ट हल्का बोलने में उसे तनिक भी विचार नहीं होता, लज्जा नहीं आती। यदि कोई उसे कुछ कहे तो उद्दाम वृत्ति से निर्भय होकर वह कहने लगता है- क्यों न कहें? साधु तो संसार के लिए बोझ हैं।ऐसे मनुष्य आज अनेक हैं। यदि उन्हें पूछें कि तुमने बोझ रूप तो कह दिया पर प्रमाण देने होंगे। तुम्हें कभी परिचय हुआ है क्या?’ तब तत्काल बोलेंगे- मेरे तो परिचय नहीं हुआ, परन्तु लोग कहते हैं।यह कैसी विडम्बना और कैसा दुष्प्रचार है? कैसी दुष्टता और धृष्टता है?

क्या यह कम भयंकर दशा है? लोगों में आज गुणों के प्रति प्रेम और भक्ति रही ही नहीं। मैत्री-भाव के साथ प्रमोद-भावना भी अत्यंत आवश्यक है। कल्याण चाहक आत्मा को किसी प्रकार का भेदभाव किए बिना सद्गुणी व्यक्ति को देखकर प्रमोद होना ही चाहिए, परन्तु ऐसा प्रमोद-भाव गुण-ग्राहकता आए बिना आएगा ही नहीं और गुण-ग्राहकता आत्मा को शुद्ध बनाने की सच्ची भावना प्रकट हुए बिना नहीं आएगी। इसलिए सबसे पहली जरूरत है कि आत्मा को शुद्ध बनाने की सच्ची भावना प्रकट हो। इसके लिए विषय-कषाय से दूर रहते हुए भव की पीडा से दीन बनी आत्माओं पर सदा करुण-रस से हृदय आर्द्र रहना चाहिए।-सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 26 अगस्त 2015

मैत्री भाव अपनाओ



शान्ति के लिए संसार के समस्त प्राणियों के प्रति मैत्री रखने हेतु उपकारी महर्षियों ने फरमाया है। किसी के प्रति शत्रुता का भाव नहीं होना चाहिए। यह प्रथम चरण है, प्रथम सोपान है। इस सोपान, इस सीढी पर पांव नहीं रखोगे तो ऊपर नहीं चढ सकोगे। इसके बिना चाहे जितने बाह्य रूप से आगे बढ गए तो भी गिरकर मर जाओगे, ऐसा ज्ञानी कहते हैं। अंधा यदि दौडता चला जाएगा तो सिर ही फूटेगा। मैत्री-भाव बिना, विश्व के प्राणीमात्र के कल्याण की भावना के बिना, सभी पर-हित में रत रहें यह भावना, संसार के दोषों के विनाश की भावना और समस्त लोक सुखी हो यह भावना नहीं आएगी।

इन भावनाओं के अभाव में आपको यदि बडप्पन मिल गया तो उसका परिणाम तो भयंकर ही होगा। झूठी शान में बढे हुए राष्ट्र की ओर दृष्टि तो डालिए। कुत्ता भौंका अतः हमारी नींद में खलल हुई। इसे गोली से मार दो, यही परिणाम होगा कि अन्य? अत्यन्त वैभव प्राप्त हो जाए, परन्तु मैत्री-भाव नहीं हो तो परिणाम में अनिष्ट होगा, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।

नदी बह रही है। पानी के प्रवाह को रोको तो खेत हरा-भरा हो जाएगा, अन्यथा बढता हुआ प्रवाह पहाडों को भेद डालता है, तबाही मचा देता है। अनेक गांव चपेट में आकर बह जाते हैं। पानी तो वही है, कोई दूसरा नहीं आया। एक मनुष्य को बचाने के लिए कई प्राणी मारें तो क्या हुआ?’ यह कौनसी भावना है? प्रयोग स्वरूप चार-पांच जीव मारें तो क्या हानि है? यह कौनसी भावना?

स्वयं पर प्रयोग करें तो? एक मनुष्य के उत्सर्ग से हजारों बचते हों तो भी कोई यह प्रयोग करता है? वहां तो पीछे हटेंगे। तो फिर जीवों को मारने का आपको क्या अधिकार? जब तक मैत्री-भावना नहीं आएगी, तब तक सच्चा मनुष्यत्व नहीं आएगा। अपनी संतान को तो पशु भी खिलाता-पिलाता और सम्भालता है। पशुओं को मुक्त छोड दीजिए, परन्तु वे अपने आप शाम को घर आ जाएंगे, जो खिलाओगे वही खाएंगे और स्वयं हमें जो देते हैं वही देंगे। मनुष्य के रूप में आप में क्या अधिकता है, बताइए? मनुष्य के रूप में आप में जो अधिकता होनी चाहिए, वह प्राप्त करने के लिए ज्ञानियों की हित-शिक्षा के अनुसार जगत के प्राणियों के प्रति मैत्री-भाव रखो। यह मत भूलो कि मैत्री का अर्थ है पर-हित-चिन्ता।

शत्रु के, गालियां देने वाले के लिए भी हम अनिष्ट की इच्छा नहीं कर सकते। शत्रु के अनिष्ट की इच्छा करने से लाभ भी क्या होगा? केवल अशुभ विचारों के योग से आत्मा की मलिनता और परिणाम स्वरूप स्वयं का नाश, यही होगा न? इसीलिए किसी के प्रति भी वैर भावना का त्याग करते हुए शान्ति के चाहक को ऐसे विचारों से बचकर मैत्री भाव अपनाना चाहिए।-सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 25 अगस्त 2015

देश से दरिद्रता मिटाने का उपाय



भारतवर्ष में एक ओर गरीबी और भूखमरी के हालात हैं, वहीं दूसरी ओर आबादी का एक चौथाई अभिजात्य वर्ग सिर्फ चाय-पान-अभक्ष्य व शराब आदि के सेवन पर ही इतना पैसा बर्बाद कर देता है कि उसमें एक परिवार आठ परिवारों का पेट पाल सकता है। कई लोग इतना और ऐसा खाते हैं कि उन्हें बदहजमी होती है, जिसे पचाने के लिए वे डाईजिन की गोलियां और नाना प्रकार के चूर्ण खाते हैं, यह सीधा-सीधा सामाजिक अपराध है। यदि यह बर्बादी रुक जाए तो गरीबी और भूखमरी के हालात तो इस देश में रह ही नहीं सकते। अकाल और बेकारी के नाम पर चिल्लाना और निरर्थक व्यय बन्द न करके उनमें वृद्धि करते रहना, यह कहां की परोपकार-वृत्ति है? उद्धार की बातें करने वाले यदि वाकई देश की चिन्ता करते हैं तो क्यों नहीं जीवन को मर्यादित, नियमित और संयमित बनाते हैं?

भारत में पूरी तरह शराबबंदी, अभक्ष्य पर रोक, धूम्रपान पर रोक, यहां तक कि बहुत चाय नहीं पीना, पान नहीं खाना, अश्लीलता और समाज को विकृत करने वाले सिनेमा आदि नहीं देखना’; इन उपकार करने के लिए निकलने वालों ने ऐसे सुधार किए हैं क्या? जूते अधिक मूल्य के क्यों? इन सब वस्तुओं पर होने वाले अपव्यय रोककर जीवन को स्वच्छन्दता से बचाया जाए तो शान्ति दौडी-दौडी आपके चरण चूमेगी।

आप सब रोटी-कपडा-मकान का नाम लेकर चिल्ला रहे हैं, परन्तु यह मुसीबत तो उन स्वच्छन्दी लोगों की देन है। अनाज-पानी बिना नहीं चलता, यह तो ठीक है; परन्तु शराब, अभक्ष्य, चाय, पान, सिनेमा, होटल के बिना भी नहीं चलता; यह कौन मानेगा, क्यों मानेगा? मौज-शौक और राग-रंग में कितना व्यय हो रहा है? ‘यदि नाटक-सिनेमा न देखें तो सप्ताह भर की थकान कैसे उतरेगी?’ ‘शाम को शराब न पीएं तो दिनभर की थकान और तनाव कैसे दूर होगा और कैसे रात को ठीक से नींद आएगी?’ ऐसी गलत मान्यताएं आज पनप रही हैं। जरा सोचिए कि यह मनुष्य जीवन है। थोडा अपनी दशा पर विचार करिए। भोजन करने बैठते हो तो एक बार, दो बार अथवा तीन बार भोजन करने के पश्चात बाहर खाने की आवश्यकता क्या? जहां-तहां क्यों खाएं? होटल में ताजी खाद्य-सामग्री होती है क्या? वहां तो बासी, सडा-गला सब चलता है। रात्रि की बची हुई सामग्री कितने होटल वाले फेंक देते हैं? अधिकांशतः तो दूसरे दिन ताजा सामग्री के साथ उसे मिलाते ही हैं। वहां उपयोग में लिया जाने वाला आटा-मैदा कहां से आता है? उसका गेहूं सडा-गला तो नहीं था? उसमें कंकर तो नहीं थे? उसमें लट-धनेरिए-जीव तो नहीं थे?

रोग क्यों बढे? कभी इसकी गहराई में गए हैं? पुराने समय के खान-पान और बीमारियों से आज के खान-पान और बीमारियों की कभी तुलना की है? डॉक्टर बढे हैं, परन्तु बीमारियां घटी है या बढी हैं? इसका मूल कारण क्या है, कभी गम्भीरता से इसकी गवेषणा की है? सोचिए जरा !-सूरिरामचन्द्र