शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

त्यागने योग्य को त्यागिए



आत्म-शुद्धि के लिए प्रयत्नशील आत्मा को सर्व प्रथम आत्मा को हानि पहुंचाने वाली सभी वस्तुओं का त्याग कर देना चाहिए और जब तक आप उन्हें त्याग नहीं सकें, उन्हें त्यागने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। व्याधि होने पर चिकित्सक तुरन्त नाडी देखता है। सर्व प्रथम पेट साफ करने के लिए जुलाब देता है, क्योंकि जब तक पेट में मल है, तब तक दी जाने वाली औषधि मल में वृद्धि करेगी और व्याधि ठीक नहीं होगी। उसी तरह महान चिकित्सक ज्ञानी पुरुषों ने आत्म-शुद्धि के लिए प्रथम उपाय बताया है कि त्यागने योग्य को मालूम करके पहले उसे त्याग देना चाहिए।अब देखना यह है कि त्यागने योग्य क्या है? हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह तो त्यागने योग्य हैं ही। अधिक गिने जाएं तो क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि अठारह पाप स्थानक भी त्यागने योग्य हैं। अठारह पाप स्थानक आपके लिए त्यागने योग्य हैं, यह मानते हैं न? क्या आपको विश्वास है कि हिंसा आदि त्यागने योग्य हैं और उन्हें त्यागे वह पुण्यशाली है?’

आप यह भी मानते हैं न कि हम अमुक वस्तुओं का त्याग नहीं कर सकते, अतः पापी हैं, अशक्त हैं, सत्वहीन हैं और जो उनका त्याग करता है, वह उत्तम और उच्च कोटि का है? ऐसे त्यागियों को ही आप हाथ जोडें, पूजें, उनके चरणों में गिरें, उनकी सेवा करें और उनकी आज्ञा मानने के लिए तैयार रहें। हम नहीं त्याग सकते, अतः अभागे हैं, सत्वहीन हैं, बलवान होते हुए भी निर्बल हैं।यदि आप ऐसा समझते हैं तो जिन्होंने त्याग किया है, वे आपको त्याग करने के लिए कहें तो उन्हें इनकार करने में लज्जा तो आएगी न? यदि इतनी लज्जा भी आप में हो तो भी कल्याण होगा। जिसकी आँख में शर्म हो, वह एक न एक दिन त्याग-मार्ग पर बढकर अपना कल्याण साध ही लेता है।

हिंसा करने से लाखों की सम्पत्ति मिलती हो अथवा झूठ बोलने से असीम लाभ की संभावनाएं बलवती होती हों, पर वह नहीं चाहिए। किसी की सर्वोत्तम वस्तु भी उसका बदला दिए बिना लेनी नहीं चाहिए। ब्रह्मचर्य भंग महापाप है। परिग्रह (धन का मोह) छूट जाए तो कल्याण हो जाए। यह बात मानो तो आपका और मेरा मेल हो जाए। हम ये सब बातें मनवाने के लिए परिश्रम करते हैं। जो वस्तु त्याज्य है, उसे कोई त्यागे या त्यागने के लिए कहे तो वह कोई अपराधी नहीं है। परिवार का मुखिया त्याग करके यहां आ जाए तो उसके साथ स्वार्थ एवं मोह से जुडे लोगों को रुदन और क्लेश भी हो सकता है, लेकिन इने-गिने दिन तक। इस भय से त्यागने योग्य का त्याग न करके मृत्यु तक वहीं पडा रहने वाला नित्य कितनों को रुलाएगा? यह बात आपको समझ में नहीं आ रही है, इसीलिए त्यागने योग्य वस्तुएं त्यागी नहीं जा रही हैं।-सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 30 जुलाई 2015

आपके लिए आदर्श कौन?



शरीर-शुद्धि के लिए, उसमें प्रविष्ट रोगादि निकालने के लिए कितने प्रयास होते हैं? बाह्य सौन्दर्य के लिए जिस प्रकार प्रयत्न हो रहे हैं, क्या उसी प्रकार से आत्म-शुद्धि के लिए आपके प्रयास होते हैं? देह में तनिक गर्मी बढ जाए तो स्वतः ही चिकित्सक के पास जाना पडता है; भूख लगते ही तुरंत खाने लग जाते हैं; धन प्राप्ति के लिए विद्याध्ययन करना चाहिए, यह कहने की आवश्यकता नहीं रहती है; मौज-शौक के लिए क्या करना चाहिए, यह सिखाने की आवश्यकता नहीं है, यह तो सभी सीखे हुए ही हैं। धर्म-गुरु को तो यही सिखाना-समझाना है कि "जितनी बाह्य-शुद्धि की आप चिन्ता करते हैं, उतनी ही चिन्ता आप आत्म-शुद्धि की भी करिए।" यह गुरु को सिखाना है, क्योंकि आप यह अपने आप करने वाले नहीं हैं।

किसी से पैसे वसूलना, मार्ग में पैसे मिलें तो तिजोरी में रखना, पराया धन अपना बनाना, दूसरों से चालाकी करके अपना काम निकालना तो आप जैसों को सिखाने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन इसके विपरीत सिखाना है। अतः मुझे तो आप लोगों को यह कहना चाहिए कि आप मार्ग भूल गए हैं, दिशा भूल गए हैं। पौद्गलिक स्वार्थ के लिए, देह की हाजरी बजाने के लिए पाप-कर्म आप न करें। आपके पास सबकुछ है, केवल एक मनुष्यत्व ही आप में नहीं है और आपके बंगले, बगीचे, शान-शौकत, परिवार, ऋद्धि-सिद्धि, गाडी-घोडे, मोटर आदि वस्तुएं मनुष्यत्व के बिना सब भयंकर हैं’, यह तनिक भी भूलना नहीं चाहिए।

आप किसे आदर्श के रूप में अपने समक्ष रखें तो आपके अन्तर में उठती विषय-वासनाओं की इच्छाएं और पापमय तृष्णाएं अपने आप नष्ट हो सकें? आप त्यागी को आदर्श के रूप में रखेंगे या रागी को? लालची को अपने समक्ष रखेंगे कि संतोषी व्यक्ति को? किसी लक्ष्मी के लोभी को आदर्श बनाएंगे या विरक्त व्यक्ति को? परन्तु, आपके हृदय में तो ऐसा विचार ही कहां है? आपका व्यवसाय जीवन के लिए है या व्यवसाय के लिए यह जीवन है? धन के लिए आप हैं या आपके लिए धन है? घर के लिए आप हैं या आपके लिए घर है? यदि पूछें कि क्या आप धर्म करते हैं?’ तो उत्तर मिलेगा कि समय नहीं है। व्यापार इतना बढ गया है कि विवश हैं। नींद भी अपने आप नहीं आती।ऐसा क्यों है? जीवन से धर्म चला गया, इसलिए नींद नहीं आती कि धर्म रह गया इसलिए? मनुष्यत्व का विकास हुआ है इसलिए सीधी नींद नहीं आती है या कि पशुता का विकास हुआ है इसलिए? आज धर्म-भावना नष्ट हो गई है, अतः आदर्श कौन हो सकता है, उसका भी ध्यान नहीं रहा। धर्म-वृत्ति नष्ट होने का कारण आत्मा के संबंध में विचारों का अभाव और पुद्गल एवं जड वस्तुओं के प्रति प्रेम है। आत्मा का ध्यान हो तो आत्म-हित का ध्यान आएगा और आत्म-हित का ध्यान आए तो धर्म-वृत्ति प्रकट होगी।-सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 29 जुलाई 2015

धर्म-भावना जागृत कैसे हो?



सर्व प्रथम यह निश्चय कर लेना चाहिए कि जिस मानवता की आवश्यकता है, वह हम में आ गई या नहीं? मानवता आ जाए तो दूसरे गुण लाने में अधिक परिश्रम नहीं करना पडेगा। जमीन योग्य होगी तो बीज और पानी मिलने से खेती पक जाएगी। उसी तरह एक मानवता का गुण आ जाए तो अन्य गुण बिना बुलाए, परिश्रम किए बिना और प्रयत्न किए बिना भी आ जाएंगे; क्योंकि जिसमें मानवता प्रकट हो गई, वह अपने और दूसरों के हित के लिए प्रयत्न अवश्य करेगा। अतः सर्व प्रथम यह विचार दृढता पूर्वक और किसी प्रकार की शंका के बिना हो जाना चाहिए कि मनुष्य-भव पाई हुई आत्मा को क्या करना चाहिए?’

मनुष्य परमार्थी नहीं होगा तो चलेगा, पर मात्र स्वार्थी नहीं चलेगा। उच्च कोटि की नीति से चलने वाला नहीं होगा तो निभ जाएगा, परन्तु अनीति की भावना वाला तो निभ ही नहीं सकेगा। उपकार न करे, यह तो अलग बात है, पर अपकार की वृत्ति तो उसमें नहीं ही होनी चाहिए। नित्य प्रातः उठकर आत्मा को पूछिए कि मैंने क्या किया? करने योग्य क्या है? झूठे आडम्बर के लिए, बडप्पन बताने के लिए मैंने कितना किया और अपनी आत्मा के कल्याण के लिए मैंने कितना किया? मुझे मौत कभी भी, कहीं भी आ सकती है। मैं कौन हूं, यह देह या आत्मा? यहां से मरकर मैं कहां जाऊंगा?’ यह चिन्तन करते समय अपने अहंकार को दूर रखें और पूरे विवेक, विनम्रता, सरलता से आत्मालोचन करें।

चोर भी अपनी जाति साहूकार ही लिखवाता है। अतः अपनी स्थिति जिस स्वरूप में हो, उसी स्वरूप में पहचाननी चाहिए, यह पहला गुण है। यह गुण आएगा तो ही शरीर की सेवा पर, बाह्य दृष्टि पर, जड पदार्थों के आकर्षण और मोह पर अंकुश लगेगा। जीवन भर शरीर की चाकरी कर-करके मोक्ष मिलेगा, ऐसा मानते हैं क्या? बडे-बडे ऋषि-महर्षियों ने, ज्ञानियों ने तपस्या की क्या वह उनकी अज्ञानता थी? क्या तप-जप की बातें निरर्थक है? नहीं, निरर्थक तो कतई नहीं है।

आज धर्म जैसी अमूल्य और जीवन के लिए सबसे ज्यादा जरूरी महत्वपूर्ण वस्तु मिटती-सिमटती जा रही है। धर्म के विचार गृहस्थों के परिवार में से नष्ट होते जा रहे हैं। धर्म के विचार और धर्म की भावना दिन-प्रतिदिन लुप्त होती जा रही है, क्योंकि उत्तम मान्यताएं नष्ट होती जा रही हैं। परन्तु, किसी भी तरह इन्हें जागृत करना ही होगा, अन्यथा इसके परिणाम बहुत ही भयंकर होंगे। वास्तविक धर्म-भावना तब जगेगी, जब मनुष्य अपनी आत्मा के हित-अहित का विचार करने वाले बनें। जिस मनुष्य के जीवन में आत्मा के हित-अहित का विचार नहीं है, वह सच्ची आत्म-शुद्धि कर ही नहीं सकता और आत्म-शुद्धि किए बिना अमूल्य मानव जीवन की प्राप्ति निस्संदेह राख में घी मिलानेके समान ही सिद्ध होगी।-सूरिरामचन्द्र

भविष्य का विचार करो



मनुष्य-जन्म प्राप्त लोगों का उत्तरदायित्व बहुत है। जन्म लेकर आत्म-कल्याण के लिए कुछ करने-धरने की बजाय, मात्र मरने के लिए ही जन्म लिया हो, तो मुझे कुछ कहना नहीं है। अच्छा खाया, अच्छा पीया, अच्छे वस्त्र पहिन लिए, खूब संसार भोगा, मौज-शौक कर लिए; यह सब ठीक है, पर परिणाम क्या? मरना निश्चित है तो मरकर जाओगे कहां? परलोक तो आप मानते हैं न? जो जन्मता है, उसे मरना ही पडता है, यह भी आप मानते हैं न? कहीं से आए और कहीं जाओगे, यह तो निश्चित है न? इसका विचार किया है? किसी गांव जाना हो तो सब बातों का विचार करते हो। खाने-पीने के लिए साथ ले लेते हो। एक गांव से दूसरे गांव जाने के लिए इतनी सामग्री व इतनी तैयारी होती है और मरकर कहां जाना है? फिर पता नहीं किस दशा में और कहां जाकर रहना पडेगा? वहां कोई आढतिया, रिसिवर या ड्राईवर लेने आएगा भी या नहीं’, इतना भी यदि विचार नहीं किया जाए तो कितनी मूर्खता है? ऐसे को मनुष्य कैसे कहा जाए?

संसार के पक्के अनुभवी, चतुर और बुद्धि-निधान मानेजाने वाले आप लोगों ने इसका भी विचार नहीं किया कि आपको जाना कहां है?’ तो फिर आपको क्या कहा जाए? यह विचार मनुष्य जैसे प्राणी को तो आना ही चाहिए। अगला भव किसने देखा है, जो होना होगा सो होगा’, इस तरह कहने वाले सचमुच अपनी बुद्धि का नीलाम ही करते हैं। आज आपके पास जो कुछ है और जो कुछ आप भोग रहे हैं, वह पूर्व पुण्य के कारण भोग रहे हैं। यह तो आप सब मान रहे हैं न? आप से अधिक शक्तिशाली अनेक लोग भटकते रहते हैं, उन्हें कोई भाजी के भावभी नहीं पूछता और आप निर्बल हैं फिर भी आपकी सेवा करने वाले अनेक हैं, यह आपकी पूर्व जन्म की शुभ करनी का प्रताप है; और सबल होने पर भी सामग्री का अभाव, यह उनकी अशुभ करनी का प्रताप है। यह समझकर मनुष्यों को भविष्य का विचार करना चाहिए।

भविष्य के लिए विवेक पूर्ण विचार करना ही बुद्धि का वास्तविक सदुपयोग है। स्वयं को मिली हुई बुद्धि का जो सदुपयोग नहीं करते, उनका मैं तो क्या, लेकिन परमात्मा कोटि की आत्माएं भी उद्धार करने में असमर्थ हैं। या तो अज्ञानी अच्छा या ज्ञानी अच्छा; लेकिन बीच वाला त्रिशंकु के समान डेढ होशियार तो बहुत ही बुरा होता है। अज्ञानी व्यक्ति में एक गुण है कि उसे जिधर मोडना चाहो, उधर वह मुड जाएगा, ज्ञानी में भी यह गुण है कि वह वस्तु को तुरंत समझ जाएगा, परन्तु जो न तो ज्ञानी हो और न अपने आपको अज्ञानी माने, उसका उदय कैसे हो? हो ही नहीं सकता। हमें सब अच्छा कहें तो ठीक लगता है, परन्तु अच्छा बनने के कर्म नहीं किए हों तो शास्त्र फरमाते हैं कि हम जैसे हैं, वैसा ही कहा जाए तो सुन्दर है।-सूरिरामचन्द्र