शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

पागलों की पैदावार बढ रही है



आपने आपकी संतानों को जिस प्रकार पढाया है और पढा रहे हैं, उसको देखते हुए यह नहीं माना जा सकता कि आप में सम्यग्दर्शन है। आपने उन्हें ऐसा शिक्षण दिलाया है कि वे आपको पाठ पढावें, यहां तक तो ठीक, परन्तु आपको ही उठालें तो कोई अचरज की बात नहीं। शिक्षण किसे कहा जाए? इसकी समझ आज न तो मां-बाप को है और न शिक्षकों को। और ये सब शिक्षण देने निकले हैं। ऐसे शिक्षण से तो आज पागलों की पैदावार बढ रही है। सुख में विराग और दुःख में समाधि, यह भगवान अरिहंत देवों द्वारा जगत को दिया गया ऊॅंचे से ऊॅंचा शिक्षण है। ऐसे शिक्षण में प्रायः संघ के अधिकांश लोगों की रुचि नहीं है, इसलिए बहुत विकृतियां हो रही हैं। आप अपनी संतानों को स्वार्थ के लिए ही पढाते हैं। शिक्षण देकर भी आप अपकार कर रहे हैं। ज्ञान का दान करके भी अज्ञानी बनाने का काम आपने शुरू किया है। ये कमाकर लावें, यही आप चाहते हैं, परन्तु असंतोष की आग में ये जल मरें, इसकी आपको चिन्ता नहीं है। संतान को कमाने के लिए पढावे, वह जैन नहीं। पेट के लिए विद्या पढाना पाप है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

असत्य-अधर्म का विरोध न करे वो साधु नहीं



यदि सत्य-धर्म का पक्ष रखना, असत्य-अधर्म का विरोध करना झगडा करना माना जाता है तो ऐसा झगडालू होना उचित है, साधु धर्म का तो यह प्रमुख दायित्त्व है। जिस साधु में अपने सत्य-धर्म के प्रति इतनी-सी निष्ठा भी न हो, वह पंच महाव्रतों का पालन किस प्रकार कर सकता है? यदि न्याय-नीति की बात करना, धर्म की रक्षा के लिए अडजाना, झगडा करना है तो ऐसा झगडालू होना, अपने सत्य-धर्म का पालन करना है। कहने वाले प्रभु महावीर को भी तो झगडालू कहते थे। श्री जिन आज्ञा का पालन करना और जिन आज्ञा विरोधी गतिविधियों पर अंकुश के लिए संघर्ष करना झगडा करना है तो ऐसे झगडालू होने पर हमें गर्व है, संतोष है, क्योंकि ऐसा करके ही साधु अपने साधुपन को बचा पाता है। ऐसी परिस्थिति में मूकदर्शक रहना, साधुपन पर दोष लगाना है। महाव्रतों का खण्डन करने जैसा है। सत्य के लिए मरना पडे तो मंजूर है, किन्तु झूठ के आगे समर्पण तो किसी कीमत पर स्वीकार्य नहीं ही है। भगवान का संघ, भगवान के सिद्धान्तों की रक्षा के लिए लडना पडे तो लडता है, शेष दुनिया की किसी चीज के लिए वह नहीं लडता। लडते समय भी सामने वाले के हित की चिन्ता तो उसके हृदय में रही हुई होती है। क्योंकि, यह तो धर्मयुद्ध है। ये सिद्धान्त तो जगत मात्र का कल्याण करने वाला है। असत्य-अधर्म का विरोध किए बिना सच्चे साधु को चैन नहीं पडता। यदि चैन पडे तो उसका साधुपन नहीं रहता।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

धर्म को सर्वांग रूप से अपनाएं !



धर्म का सही मूल्यांकन करना सीखें। यदि सही मूल्यांकन करते रहेंगे तो दृष्टि सम्यक रहेगी, नीर-क्षीर विभाजन-विवेक कायम रहेगा, धर्म-पथ पर अपना संतुलन बनाए रख सकेंगे। अन्यथा धर्म का कोई एक अंग आवश्यकता से अधिक महत्व पाकर धर्म-शरीर की सर्वांगीण उन्नति में बाधक बन जाएगा। सम्यक दृष्टि यही है कि जिसका जितना मूल्य है, उसको उतना ही महत्व दें। न अधिक, न कम। कंकड-पत्थर, काँच, हीरा, मोती, नीलम, मणि सबका अपना-अपना महत्व है। मिट्टी, लोहा, ताँबा, पीतल, चाँदी, सोना, सबका अलग-अलग मूल्य है। जिसका जितना महत्व है, उसका उतना ही मूल्य है।

मसलन, दान देना अच्छा है। धर्म का एक अंग है। दान अधिक है या कम इसका कोई महत्व नहीं होता। परंतु देते समय चित्त की चेतना कैसी है, भावना कैसी है, यही ध्यान देने की बात है। यदि उस समय चित्त में क्रोध या चिडचिडाहट या घृणा या द्वेष या भय या आतंक या बदले में कुछ प्राप्त करने की तीव्र लालसा है या यश की प्रबल कामना है अथवा प्रतिस्पर्धा का उत्कट भाव है, तो ऐसा दान शुद्ध, निष्काम, निरहंकार चित्त से दिए गए दान की अपेक्षा बहुत हल्का है। भले ही मात्रा में अधिक क्यों न हो। शुद्ध चित्त से दिए गए दान का अधिक महत्व है। इससे अपरिग्रह और त्याग धर्म पुष्ट होता है।

इसी प्रकार उपवास भी धर्म का एक अंग है। मानसिक संयम के लिए उपवास उपयोगी है। उपवास करें और मन भिन्न-भिन्न पकवानों में रमता रहे तो ऐसा उपवास हीन कोटि का होगा। उपवास करें और केवल शरीर को ही नहीं, बल्कि मन को भी संयमित करें तो उपवास उच्च कोटि का होगा। उपवास करने वाला शील-सदाचार के क्षेत्र में दुर्बल हो तो उपवास करने वाले शीलवान व्यक्ति से हीन है। इसी प्रकार सामिष भोजन से निरामिष भोजन, चटपटे मिर्च-मसाले वाले राजसी भोजन से सादा सात्विक भोजन करने वाला व्यक्ति श्रेष्ठ है, उत्तम है। अपना अधिकांश समय आलस्य, प्रमाद, तंद्रा में गँवाने वाले व्यक्ति की अपेक्षा यथावश्यक कम से कम समय सोकर, अधिक से अधिक समय जागरूक रहने वाला व्यक्ति निश्चित रूप से अधिक अच्छा है। इसी प्रकार भजन-कीर्तन तल्लीनता के लिए है। चित्त को एकाग्र करने के साधन हैं। किसी गुरु या संत का दर्शन, उनको किया गया नमन, उनके प्रति श्रद्धा जगाने के लिए है। उनके गुणों को देखकर मन में प्रेरणा जगाएँ और वे गुण स्वयं धारण करें, इसी निमित्त हैं। किसी धर्मग्रंथ का पाठ करते हैं, अथवा श्रवण करते हैं तो इसलिए कि उससे हमें प्रेरणा मिले, मार्गदर्शन मिले, जिससे कि धर्म जीवन में उतार सकें। कोरा वाणी-विलास और बुद्धि-विलास धर्म नहीं है। जीवन में उतरा हुआ शील-सदाचार ही धर्म है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

क्षमा एक आत्मिक गुण



क्षमा वीरस्य भूषणम्का अर्थ यह नहीं है कि क्षमा दुर्बलस्य दूषणम्। वीर आदमी के लिए क्षमा भूषण और निर्बल के लिए क्षमा दूषण है, ऐसा मानने वाले अज्ञानी हैं। क्षमा तो एक आत्मिक गुण है। सबल हो या निर्बल, क्षमा गुण जिनमें प्रकट हुआ हो, उनके लिए तो यह गुण भूषणरूप ही होता है। क्षमा सबल का भूषण है और निर्बल का दूषण’, यह सतही सोच है, आत्म-परिणामी सोच नहीं है। दुर्बल को किसी ने गाली दी या मारा और वह सामने वाले को गाली न दे अथवा न मारे तो उसको क्षमाशील कैसे कहा जा सकता है, क्योंकि वह तो और न पिटे इसलिए चुप रहता है, वह क्षमाशील कैसे हुआ?’ अज्ञानी होकर भी ज्ञानी होने का ढोंग करने वाले बहुत से लोग, ऐसा प्रश्न खडा करके भद्रिक लोगों को व्यथित कर रहे हैं। क्षमा का गाढ संबंध तो मन के साथ है। शरीर दुर्बल हो तो भी मन मजबूत हो और आत्मा सुविवेकी हो तो दुर्बल शरीर वाला भी सुन्दर क्षमाशील हो सकता है। शरीर भले ही दुर्बल हो, किन्तु जो गाली देने की वृत्ति रहित हो, वह सच्चा क्षमाशील है। कोई मारे तब भी मारने वाले का बुरा हो’, इतना भी विचार न आए और मारने वाले के प्रति करुणा का भाव रखे; वह सुन्दर क्षमागुण को धारण करने वाला है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

पापानुबंधी पुण्य से प्राप्त समृद्धि पाप कारक



नीति के मार्ग पर चलते हुए जो पुण्य न फले और अनीति करने से ही जो पुण्य फलदायी हो, उसके लिए समझ लेना चाहिए कि वह पुण्य पापानुबंधी पुण्य है। पापानुबंधी पुण्य भी अर्थ-काम की सामग्री प्राप्त कराने वाला है और पुण्यानुबंधी पुण्य भी अर्थ-काम की सामग्री प्राप्त कराने वाला है। किन्तु, इन दोनों के बीच में अन्तर है। पापानुबंधी पुण्य उदय में आने लगे कि पापवृत्ति शुरू हो जाए। उसका जितना अधिक उदय होगा, उतनी ही पापवृत्ति अधिक होगी। इस पुण्य का उदय आदमी को आदमी नहीं रहने देता। आदमी को पागल बना देता है। अर्थ और काम की सामग्री का नशा चढ जाता है और धर्म भूल जाता है। थोडी आत्माएं ही सामर्थ्य अर्जन करें तो बच सकती हैं। पापानुबंधी पुण्य का उदय भविष्य में बहुत भयंकर प्रकार से दुःख देने वाला होता है। जबकि पुण्यानुबंधी पुण्य की दशा इससे विपरीत होती है। पुण्यानुबंधी पुण्य का उदय पापानुबंधी पुण्य की तुलना में बहुत ही उच्च कोटि की सामग्री देता है और उसमें आत्मा को पागल नहीं बनाता है। इस सामग्री का आत्मा उपभोग करता रहे तब भी उसे विरक्ति पैदा होती रहती है। मिली हुई सामग्री का उन्मार्ग की बजाय सन्मार्ग में व्यय होता है। यह पुण्यानुबंधी पुण्य का प्रभाव है। इसके प्रभाव से आत्मा अनीति से दूर रहता है, बुद्धि निर्मल रहती है, भावनाएं पवित्र रहती हैं और मोक्ष-मार्ग की ओर उन्मुख होता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

परोपकार स्व-उपकार के लिए



मैं जो अच्छा कार्य करता हूं, वह मेरी आत्मा के उपकार के लिए ही करता हूं।ऐसी भावना वाले परोपकार के चाहे जितने भी कार्य करें, तो भी उनमें अहंकार नहीं आता। मैं परोपकारीऐसी अहं-वृत्ति उनमें नहीं आती। मैंने अमुक के ऊपर उपकार किया, अमुक गांव में मैंने उपकार किया, अमुक देश में जाकर मैं लोगों को तिराकर आया हूं, ऐसी-ऐसी बातें वह अहंकार-वृत्ति से कभी नहीं बोलता। उसको तो ऐसा ही लगता है कि मैंने जो कुछ अच्छा किया है, वस्तुतः वह अन्य के लिए नहीं, अपितु मेरे स्वयं के भले के लिए ही किया है।इससे यह समझ लें कि स्वोपकार के लिए ही परोपकार करना है। जिसके ऊपर स्वयं ने उपकार किए हों, वह भी अधम बनकर उपकार के बदले अपकार करता हो, तब भी आत्महित के ध्येय वालों को उसके ऊपर दया आती है, क्रोध नहीं आता। वह ऐसा नहीं सोचता कि मैंने इस पर इतना उपकार किया तो भी इसने ऐसी धृष्टता की।वह मानता है कि वस्तुतः मैंने तो अपनी आत्मा पर ही उपकार किया है और स्वयं की आत्मा पर किया उपकार कभी निष्फल नहीं जाता।इस मान्यता के योग से सामने वाला उपकार का बदला अपकार से दे तो भी वह आत्मा समाधिपूर्ण दशा को भोग सकता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 22 फ़रवरी 2015

मृत्यु पर विलाप करना धर्म विरूद्ध है



घर-परिवार में किसी की मृत्यु पर रोना, विलाप करना और मरने वाला पुरुष है तो उसकी पत्नी को कोने में बिठाना तथा शोकाकुल परिवार का देव-दर्शन या धर्म-श्रवण निषेध करना, यह शास्त्र-विरूद्ध है, धर्म विरूद्ध है। जैन कुल में तो यह प्रथा होनी ही नहीं चाहिए। मरण का प्रसंग भी वैराग्य का प्रवेश द्वार बन जाए, ऐसी दशा होनी चाहिए। मोह को बढाने वाली प्रथा को दूर करो। मोह के नाटक घटे तो धर्म बढेगा। जैन समाज में कोने में बैठने की प्रथा और मन्दिर, उपाश्रय जाने का बंद करना, यह कलंक रूप है। विषय-कषाय में लीन आत्मा को ऐसा खयाल न आए यह संभव है, किन्तु विवेक दशा अन्दर होती तो प्रायः मरण के समय यह खयाल अवश्य आता। उस समय अच्छी सामग्री मिल जाए और अन्तर में सच्चे संस्कार डालने वाले मिल जाएं तो बहुत लाभ हो जाए। शोक, दुःख और आपत्ति के प्रसंग भी विवेकी लोगों के लिए वैराग्य की उत्पत्ति का कारण हैं, दुःखी के साथ समझदार मनुष्य रोने नहीं बैठते हैं। इस संसार में मरना, जन्म लेना, दुःख आना यह कोई नई बात नहीं है। इस अवसर में तो धर्म में चित्त अधिक लगाना चाहिए। जिससे कि दुर्ध्यान से बचाव हो सके। जो जन्मेगा वह मरेगा, यह निश्चित है। इस विपत्ति से धर्म क्रिया बंद हो, यह श्री जिनेश्वरदेव के शासन में उचित नहीं। जहां कर्म का, जीवन-मरण का स्वरूप बताया जाता है, वहां यह होता है क्या? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

कूट-कपट-झूठ को छोडो



आपने कोई सच्चा परामर्श देने वाला भी रखा है? आप जब प्रतिकूल संयोगों में व्यथित हो रहे हों, तब आपके कान में आकर कोई इस प्रकार कहने वाला है कि यह दशा आई है तो यह तुम्हारे पापोदय को सूचित करती है। रुदन करते हुए या हंसते हुए, इसे भोगना ही पडेगा। पाप से निष्पन्न परिणाम से निपटने के लिए अधिक पाप में लिप्त होने का विचार न करो। गई हुई लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिए कूट-कपट-झूठ आदि के विचार छोडो और प्राप्त हुई स्थिति को समभाव से सहन करो।इस समय ऐसा कहने वाला भी चाहिए, ‘देखो, लक्ष्मी थी तब भोग में उदार बने और धर्म में कृपण बने। लक्ष्मी द्वारा जो साधने योग्य था, उसको साधा नहीं, इसका पश्चाताप करो और अब है इसमें से सदुपयोग करो।ऐसी बात कान में आकर निर्भीकता से कहे, ऐसे धर्म-मित्र आपने रखे हैं?

आज के सेठियों को तो प्रायः हां में हां कहने वाले और सलाम करने वाले चाहिए। आप जो कुछ करते हैं, वह बिलकुल सही करते हैं। आपकी बुद्धि अनुभवपूर्ण है, आप में गजब की समझदारी है, आपके सामने कौन टिक सकता है?’ ऐसे-ऐसे वाक्य आज के सेठ लोगों को प्रीतिकर होते हैं। आज के कितने ही धन और काम के गुलाम सेठ देव-गुरु-धर्म की निन्दा करें तो भी उनकी हां में हां मिलाए, ऐसे बहुत हैं। यह नाश का रास्ता है। ऐसी स्थिति में अर्थ और काम की सामग्री में पागल बने हुओं को, इस पागलपन के योग से आने वाले विपरीत परिणाम का खयाल कराने वाले कितने हैं? बहुत ही थोडे हैं। ऐसे मित्र होने चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015

मन में जहर भरा हो तो धर्म कहां से फले?



धर्मी कदापि दुःखी नहीं होता है। दुःख पाप से और सुख धर्म से, ऐसा तत्त्व ज्ञानी परमर्षियों ने कहा है। पूर्व भव की तपस्या के प्रभाव से विशल्या के स्नान-जल से भी जनता रोग-रहित हो जाती थी। आज तो धर्म बराबर करे नहीं, अन्दर हृदय में जहर भरा हो और कहेंगे कि धर्म फलता नहीं।ऐसों को कहा जाए कि धर्म किया हो तो फलेगा न?’ व्यर्थ में धर्म को बदनाम न करो। धर्मी आत्मा तो दुःख में सुख का अनुभव कर सकती है। समभाव से दुःख को सहन करे, कर्म की दशा को समझे और श्री जिनेश्वर देव के फरमान मुताबिक धर्म करे, तो दुःख में भी सुख का स्वाद चख सकते हैं। राजा कुमारपाल की तरह धर्महीन दशा वाली चक्रवर्ती की अपेक्षा, धर्म वाली दरिद्र अवस्था भी मुझे प्राप्त हो जाए’, ऐसा कब बोला जाता है? तभी ऐसा हृदयपूर्वक बोला जा सकता है कि जब यह समझ पक्की बन जाए कि धर्म के बिना कल्याण नहीं। धर्महीन चक्रवर्तीता तो आत्मा का एकांत रूप से नाश करने वाली है।ऐसा हृदय में बराबर जच जाए। उसके बाद तो चक्रवर्ती की अपेक्षा भी उस दरिद्रता में आत्मा सच्चे सुख का अनुभव कर सकती है। यही धर्म का अनुपम प्रभाव है। पूर्वकृत पुण्य से मिली लक्ष्मी से पाप करना या पुण्य को बढाना? यह आपके हाथ में है। विवेक पूर्वक आप इस पर विचार करें। आप इससे अपने लिए नरक के द्वार भी खोल सकते हैं और मोक्षमार्ग के द्वार भी खोल सकते हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015

धर्महीन समृद्धि दुर्गति रूप



आज कई श्रीमंत धर्म नहीं करते, इसके अनेक कारण हैं। धर्म की भावना भी सुयोग्य आत्माओं में ही उत्पन्न होती है। समृद्धिमान जो सुज्ञपन से विचार करें तो धर्म की आवश्यकता समझ सकते हैं। श्रीमंतों को विचार करना चाहिए कि स्वयं समृद्धिमान क्यों? और दूसरे गरीब क्यों? पूर्व के पुण्य-पाप का यह प्रभाव है। लेकिन, श्रीमंतता में भान भुले हुए भविष्य का वास्तविक विचार नहीं कर सकते हैं। समृद्धि का उपयोग करना आए तो मोक्षमार्ग की आराधना में सहायक बन सकते हैं और उपयोग करना न आए, तो उसके मद में बेहोंश होकर देव-गुरु-धर्म के लिए जैसे-तैसे बोलें। इन्द्रियों पर अंकुश नहीं रखा जाए तो यही श्रीमंतपना दुर्गति में ले जाने के कारणरूप बनता है।

आज के श्रीमंतों में बहुतायत करके लक्ष्मी को देव जैसी मानते हैं। लेकिन, विवेकवान लक्ष्मीवान् इसे खोटी मानते हैं, उपाधिरूप मानते हैं, तभी धर्म कर सकते हैं। जो श्रीमंतों के हृदय में धर्म-भावना बस जाती तो वे स्वयं धर्म की उत्तम प्रकार से आराधना कर सकते और साथ ही साथ संख्याबद्ध गरीबों को भी धर्म के मार्ग से जोड सकते। यह स्पष्ट बात है। पर यह विचार किसको आए? पुण्यानुबंधी पुण्य हो तो ही प्रायः इस प्रकार के विचार आ सकते हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

‘भूखे भजन न होई गोपाला’, यह मिथक है!



गरीब कहते हैं, ‘खाने की मुसीबत है तो धर्म किस प्रकार किया जाए? धर्म तो समृद्धिवान् करें।श्रीमन्तों में से कई कहते हैं कि हमको धर्म करने का अवकाश नहीं है। धर्म को बेकार आदमी ही करे।अर्थात् समान योग है। समृद्धि के समय कोई ज्ञानी समझदार आदमी ही धर्म करता है, लेकिन, दुःख में तो धर्म करने के पर्याप्त प्रेरणात्मक कारण भी हैं। फिर भी आज तो कतिपय स्वेच्छाचारी पापात्माओं ने ऐसी हवा फैलाई है कि जब तक खाने को रोटी न मिले, तब तक नवकार कहां से गिना जाए?’ ‘भूखे भजन न होई गोपाला।कुछ वर्ष पहले तक चाहे जैसे दुःखी के मुँह से भी ऐसे शब्द नहीं निकलते थे। अरे! ऐसी स्थिति हो कि लडका पेट भरने लायक भी न कमाता हो, मां मजदूरी करती हो और बहिन भी बाहर का काम करती हो, तब तीनों जनें रोटी खाएं, तो भी ऐसे मुश्किल के समय धर्म नहीं होता’, ऐसा नहीं बोलते थे। आज के स्वच्छन्दी धर्महीन तो खुलेआम यह लिखते-बोलते हैं कि पेट में खाने की मुसीबत हो तो धर्म कहां से होगा?’ धर्म की उपादेयता समझने वाले तो रोटी मिलने की मुसीबत में भी समय बचाकर धर्म करते हैं। स्वयं की मुसीबत को पूर्वकृत पापोदय समझते हैं। सच तो यह है कि आज पेट के भूख की अपेक्षा मन की भूख बढ गई है। मौज-मजा चाहिए, व्यसनों की आधीनता चाहिए। धर्म करना नहीं है और धर्म तथा धर्मी की निन्दा करने के लिए रोटी का बहाना आगे रखते हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

वर्तमान विद्यार्थी-शिक्षक संबंध


वर्तमान समय में विद्यार्थी-शिक्षक का जरा भी संबंध नहीं है। क्लास लेने जितना संबंध। कोई शिक्षक जरा होशियार और कडक हो तो ठीक, नहीं तो शिक्षक आए और बोलकर जाए, विद्यार्थियों में जिसे गरज हो वे सुनें, बाकी के खेलें या नींद निकालें; ऐसी स्थिति है, इनमें है कोई संबंध? आज तो विद्या है कहां? मूर्खता ही है; अन्यथा तो विद्यार्थी कभी शिक्षक के सामने छाती चौडी कर चलते हैं? विद्या हो तो इन्हें कुछ भान नहीं हो? इनमें नम्रता, विनय, लघुता नहीं आए? शिक्षक भी अधिकांशतः नौकरी की खानापूर्ति के लिए आते हैं। ये भी यदि वांचन में अटकें तो शैतान विद्यार्थी तुरन्त शिक्षक की भी खिल्ली उडाए; इसलिए शिक्षक भी घर से चार बार पुस्तक पढकर आते हैं; और यह तैयार किया हुआ खोखला ज्ञान तडाकेबंद बोल जाते हैं। घण्टे-सवाघण्टे दिशासूचक लेक्चर कर रवाना हो जाते हैं। विद्यार्थी भी ऐसे कि जचे तो पढें नहीं तो हुररे...... करते देर नहीं। शिक्षक को भी लगता है कि ऐसे बंदरों को किस प्रकार पढाया जाए? उसे भी बराबर टिपटॉप बनकर ही आना पडता है।

पढे हुए कैसे होते हैं ?

पहले के शिक्षक तो विद्यार्थी क्या पढे इसकी सावधानी रखते थे। पचास प्रश्न पूछते, दो थप्पड भी मारते और घण्टे की बजाय दो घण्टे बैठकर भी पक्का पढाते। खुद का विद्यार्थी मूर्ख नहीं रहे, इसकी उनको चिंता रहती थी; किन्तु ये पढनेवाले भी विद्या के अर्थी होते थे। आज तो ऐसे विद्यार्थी हों तो पढाएं न? पढाई बढे तो ऐसी प्रवृत्ति चलती है? पढे-लिखे जहां-तहां जैसा-तैसा खाते हैं? पढे-लिखे रास्ते में थूंकते हैं? किसी को गाली देते हैं? जैसी-तैसी बकवास करते हैं? आज का विद्यार्थी तो पूछता है कि मुझे क्या मास्टर की सेवा करनी है?’ मैं कहता हूं कि जरूर करनी है। पगचंपी भी करनी पडती है। पहले के राजपुत्र भी करते थे। पाठक खुद का चित्त प्रसन्न हो तब पढाता है। राजपुत्र उपाध्याय के वहीं रहते थे और उनकी सेवा-भक्ति करते थे। विनय, विवेक में जरा भी कमी नहीं और भाषा ऐसी मधुर व आनंददायी बोलते कि मानो मुख से मोती खिरते हों। उस वक्त विद्या फलती थी, आज तो विद्या फूटती है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 16 फ़रवरी 2015

गलत के आगे गर्दन न झुकाएं



धर्म-विरूद्ध जाने वाली संतान को माता-पिता और पाप-मार्ग में बच्चों को धकेलने वाले माता-पिता को उनकी संतान कह सकती है कि यह उचित नहीं है, ऐसा नहीं चलेगा। गलत के आगे गर्दन झुका कर उसे स्वीकार कर लेना, यह जैन कुल के संस्कार नहीं हैं। आज के कितने ही धर्मी बात-बात में गलत के आगे हार मानकर यह कह देते हैं कि क्या करें?’ दूसरा न हो, तो भी धर्मनाशक को इतना तो कहा ही जा सकता है कि मेरे साथ संबंध रखना हो तो तुम्हें धर्मनाशक प्रवृत्तियां छोडनी पडेंगी। यह तुम नहीं छोड सकते हो तो कृपा करके मेरे साथ बोलो भी नहीं। लडके माता-पिता को कह सकते हैं कि आप बडे अवश्य हैं, आपकी भक्ति (सेवा) करने के लिए हम बंधे हुए हैं, किन्तु कृपा कर हमको पाप की आज्ञा न करें। पापमय प्रवृत्ति में न जोडें। माता-पिता भी अपने लडके को कह सकते हैं कि देव, गुरु, धर्म के लिए अंट-शंट मत बोलो। अगर नहीं मानोगे तो पुत्र के होते हुए भी नहीं पूत होकर बांझ कहलाने में भी हमें कोई दुःख नहीं होगा।

धिक्कार के पात्र माता-पिता

मां-बाप संतान को धर्म में जोडें और संतान मना करे तो पूछे कि क्यों नहीं होगा? किन्तु मानो कि ऐसा नहीं बनता हो और धर्म-विरूद्ध जाते हुए को भी नहीं रोक पाएं, तो वे मां-बाप माता-पिता हैं क्या? आज के कितने ही माता-पिता यह कहते हैं कि इकलौता पुत्र है, उसको ऐसा कैसे कहा जा सकता है? कदाचित् कहें तो हमारी सम्पत्ति को भोगने वाला कौन? सचमुच में ऐसे आदमी धर्म की वास्तविक आराधना के लिए अपात्र के समान गिने जाते हैं। जिसको अपना दूध पिलाया, स्वयं गीले में सोकर जिसे सूखे में सुलाया, पाल-पोष कर बडा किया, वह आपका कहना न माने तो समझो कहीं संस्कारों में ही खोट है। हितस्वी माँ-बाप तो कहते हैं कि तेरे धर्म-विरूद्ध व्यवहार से हमारा नाम तथा कुल लज्जित होता है। जो माता-पिता स्वयं की संतान को धर्म के विरूद्ध जाते रोकते नहीं, उसकी भयानक स्वच्छन्दता का पोषण करते हैं अथवा रोकने की स्थिति में होते हुए भी उसके व्यवहार को चलने देते हैं, वे माता-पिता जानबूझकर स्वयं की संतान को दुर्गति में भेजने का, जाने देने का पाप इकट्ठा करते हैं। ऐसे माता-पिता धिक्कार के पात्र हैं। इससे बचने के लिए जड से ही अच्छे संस्कार दो।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 15 फ़रवरी 2015

सेवक का समर्पण भाव



सच्चा सेवक स्वयं की जीत को स्वामी की जीत बताता है और स्वयं की हार को खुद की कमी मानता है। श्री जिनेश्वर देव के सेवक भी ऐसे ही होने चाहिए। शासन के जो-जो कार्य सिद्ध हों, सफल और यशस्वी बनें, इसमें प्रताप श्री जिन शासन का ही मानना चाहिए और किसी विपरीत संयोग आदि के कारण शासन का कार्य करते हुए निष्फल हो जाएं तो इसमें अपनी कमी माननी चाहिए। विपत्ति आए तो अपना पापोदय मानना चाहिए और कार्य सिद्धि में प्रताप देव-गुरु-धर्म का, शासन का मानना चाहिए। यही स्वामी के प्रति सेवक का सच्चा समर्पण-भाव है। श्री वीर हनुमानजी के चरित्र से हमें यह बात सीखनी चाहिए। लेकिन, आज शासन के सेवकों की क्या वास्तव में ऐसी ही दशा, ऐसा ही सोच है?

साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका इस चतुर्विध श्री संघ में जो कोई हो, वे सभी शासन के सेवक गिने जाते हैं। इन सब में से कितनों की यह दशा होगी कि शासन की कार्यसिद्धि में शासन का प्रताप मानते हैं और विपत्ति आए या असफलता मिले तो इसमें स्वयं का पापोदय अथवा स्वयं की कमी मानते हों? ऐसी बहुत ही विरल आत्माएं हैं। आज तो अधिकांशतः ऐसा है कि अच्छा हो तो स्वयं के नाम पर चढाते हैं और बुरा हो तो धर्म के नाम पर चढाते हैं।ऐसे यशलोलुप पामर प्राणी श्रीजिनशासन की वास्तविक सेवा नहीं कर सकते और संकट की स्थिति में उल्टी-सीधी बातें खडी करके अलग हो जाते हैं। ऐसे लोग विश्वास करने योग्य भी नहीं होते और समाज को ऐसे लोगों से सावधान भी रहना चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

जीवन की सफलता



आत्मा के मूलभूत स्वरूप को प्रकट करने का प्रयत्न करना, यही इस मनुष्य जीवन को सफल बनाने का उपाय है। इस बात को आज बहुत से लोग, जैन कुल में उत्पन्न होने पर भी समझते नहीं हैं। इसीलिए मोह को पैदा करने में कारणरूप बने संसर्गों को लात मारने वालों की तरफ उनमें सम्मानवृत्ति जागृत होने के स्थान पर तिरस्कारवृत्ति जागृत होती है। संसार का सुख एवं आधिपत्य, बालवय वाला पुत्र और युवान स्त्री आदि के प्रति मोह को त्याग कर, संयम की साधना के लिए उद्यमवंत बनने वाली आत्माओं के प्रति तो सच्ची श्रद्धालु आत्माओं का मस्तक सहज रूप में झुक जाए। ऐसा हो जाए कि धन्य हो ऐसी आत्माओं को’, यह बोल स्वतः निकल पडें। इतना ही नहीं, अपितु श्रद्धासम्पन्न आत्माओं को तो स्वयं की पामरता के लिए खेद भी होता है। किन्तु, आज बहुत से पामरों को पामरता, पामरता लगती ही नहीं है। संसार में निवास करना दुःखरूप है और संयम-साधना ही कल्याणकारक है, ऐसा मानने वाले भी कम ही हैं। अनन्तोपकारी श्री जिनेश्वरदेवों के शासन पर सच्ची श्रद्धा हो, ऐसी आत्माएं जैन गिने जाते आदमियों की लाखों की संख्या में भी गिने-चुने ही होंगे।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

खुद के दोष छिपाने के लिए दूसरों पर दोषारोपण



आज अधिकांशतः यह दशा हो गई है कि स्वयं के दोष देखते नहीं और दूसरों के दोष खोजे अथवा कल्पित किए बिना रहना नहीं। पिता और पुत्र के मध्य में कोई, जो पुत्र को शिक्षा देने जाए तो पुत्र पिता के कल्पित दोषों को भी गाने लग जाता है। और जो पिता को शिक्षा देने के लिए कोई जाए तो वह पुत्र के कल्पित दोषों को भी गाने लग जाता है। कारण कि दोनों को स्वयं के दोष छिपाने हैं। इस प्रकार का आज पति-पत्नी के बीच में, भाई-भाई के बीच में, माता-पुत्री के बीच में, मित्र-मित्र के बीच में, सगे-संबंधियों के बीच में प्रायः सर्वत्र कमोबेश प्रमाण में चल रहा है। इस दशा में धर्म के द्रोही, सुसाधुओं के ऊपर भी कल्पित कलंक चढाते हैं, इसमें आश्चर्य क्या? आज कितनी ही बार कुशिष्य भी क्या करते हैं। स्वयं उद्दण्ड बनकर गुरु की आज्ञा में न रहते हों, किन्तु कोई पूछे तो स्वयं खराब न कहलाने की दृष्टि से, वे गुरु पर भी कल्पित दोष लगाते हैं। कितने ही पतित भी ऐसा धंधा करते रहते हैं। स्वयं पतित हुआ है, किन्तु निन्दा दूसरे साधुओं की और गुरु की करते हैं। साधु और गुरु खराब थे, इसीलिए मुझे साधुपना छोडना पडा’, ऐसा कहने वाले पतित भी हैं। कई बार ईर्ष्यालु लोग भी ऐसा ही करते हैं। आज कितने ही धर्मद्रोही, साधु-धर्म व साधु-संस्था के विरूद्ध प्रचार कर रहे हैं। स्वयं का क्षुद्र स्वार्थ साधने के पीछे धर्म की कितनी हानि होगी, यह सोचने की बुद्धि उन स्वार्थियों में नहीं होती है। ऐसे स्वार्थी स्वयं के भविष्य का भी विवेकपूर्वक विचार नहीं कर सकते।

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

मानव जन्म की सार्थकता



स्वर्ग एवं मोक्ष प्राप्त कराने वाले मानव-जन्म को पाकर भी जो मनुष्य नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों में उद्यमशील रहते हैं, वे सचमुच खेद उत्पन्न कराने वाले हैं, क्योंकि ऐसे मनुष्यों को देखने से हितैषी सज्जनों को वास्तव में खेद होता है। जिस मानव जन्म को प्राप्त करने के लिए अनुत्तर देवता भी प्रयत्नशील रहते हैं, उस मानव जीवन को पाप कार्यों में नष्ट कर डालना पुण्यशाली मनुष्यों का कार्य नहीं है, अपितु पापियों का ही कार्य है। जीवन को हर वक्त समस्याओं, निराशाओं और नासमझी के साथ जीना जीना नहीं है, मात्र जीवन का बोझ ढोना ही है। ऐसे व्यक्ति बहुमूल्य मानव जन्म को नष्ट कर अक्षय सुख-शान्ति-आनंद से वंचित ही रहते हैं।

अतः पुण्योदय से प्राप्त मानव जन्म को सफल एवं सार्थक करने के उपाय करने चाहिए। उसे सार्थक करने के लिए मुक्ति का लक्ष्य बनाकर अर्थ एवं काम की आसक्ति से बचने, जिनेश्वर देव की सेवा में ही आनंद अनुभव करने, सद्गुरुओं की सेवामें रत रहने तथा श्री वीतराग परमात्मा के धर्म की आराधना में निरंतर प्रयत्न करने अर्थात् भाव सहित अनुकम्पा-दान एवं सुपात्र-दान देने, शील-सदाचार का सेवक बनने, तृष्णा का नाश करने वाले तप में रत रहने और अपने साथ दूसरों की कल्याण-कामना करने, मैत्री आदि चार एवं अनित्यादि बारह तथा अन्य भावनाओं का सच्चे हृदय से उपासक बनने के प्रयत्न करने चाहिए। तभी मानव-जन्म की सार्थकता है।

संसार से मुक्ति ही एकमात्र ध्येय हो

संसारीपन से मुक्त होने के लिए एकमात्र अनुपम साधन अनंतज्ञानी श्री जिनेश्वर देवों द्वारा उपदिष्ट धर्म है। धर्म की आराधना करने का वास्तविक हेतु यही है कि स्वयं का संसार नष्ट हो। श्री जिनेश्वर देव के स्वरूप को जानने और मानने वाले में स्वयं का अथवा दूसरे का किसी का संसार टिकाए रखने की भावना हो, ऐसा नहीं है। जिसको संसार में रहने की रुचि हो, जिनको संसार में रहना अच्छा लगता है, उनमें साधुपन भी नहीं और श्रावकपन भी नहीं है। स्वयं का और सबके संसार के नाश की अभिलाषा रखना, यह ऊॅंची में ऊॅंची कोटि की इच्छा है। आत्मा में भाव-दया प्रकट हुए बिना इस प्रकार की उत्तम इच्छा प्रकटे, यह संभव नहीं है। जीव मात्र के संसार का नाश हो’, ऐसी अभिलाषा की उत्कृष्टता से तो तीर्थंकरत्व पुण्य का उपार्जन होता है। संसार अर्थात् विषय और कषाय। जिसके विषय-कषाय दूर हो गए, उसका दुःख भी दूर हो गया। उसका संसार परिभ्रमण भी टल गया है। विषय-कषाय के योग से ही आत्मा को जन्ममरणादि का दुःख भोगना और चार गति चौरासी लाख जीव योनियों में भटकना पडता है। यह मानव-भव उससे मुक्ति के लिए है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा