मंगलवार, 30 जून 2015

क्या यह धर्म के धोखेबाज जालसाज को बचाने की कोशिश है?



अपने आपको जैन कहनेवाले अहमदाबाद के किसी जस्मीनभाई महेशभाई शाह ने वहां के मेट्रोपोलियन मजिस्ट्रेट की अदालत में बहुत सारे बेबुनियाद आरोपों का ठीकरा जिस प्रकार एक प्रकाण्ड विद्वान और आचार-विचार में कठोर, चारित्रनिष्ठ, प्रवचन प्रभावक और सम्पूर्ण जैन शासन के लिए गौरवपूर्ण व्यक्तित्व के धनी आचार्य भगवन पर फोड़ने की कोशिश की है, वह अत्यंत शर्मनाक है। यही नहीं इस व्यक्ति ने ही गुजरात उच्च न्यायालय में बिना किसी ठोस साक्ष्य व आधार के सम्पूर्ण जैन समाज में होनेवाली दीक्षाओं को ही भयंकर क्रूरता की संज्ञा दे दी है, यहां तक कि दीक्षार्थियों के माता-पिता को भी इस क्रूरता में शामिल कर लिया है। और इनके उकसावे पर न्यायालय ने टिप्पणी की है कि यदि माता-पिता ऐसी दीक्षा की इजाजत देते हैं तो सरकार को इन बच्चों का संरक्षक बनकर इन्हें अपनी कस्टडी में ले लेना चाहिए, ताकि उनका सम्पूर्ण विकास हो सके। खास बात यह है कि जस्मीन ने दीक्षा में क्रूरता, बर्बरता अथवा छल-कपट का एक भी उदाहरण या सबूत प्रस्तुत नहीं किया है।

जस्मीन का कहना है कि संसार को छोडने के लिए बच्चों को गुमराह किया जाता है और आचार्यश्री मुख्य षडयंत्रकारी और जालसाजी के मास्टर माइण्ड हैं। इस प्रकार के दुष्कृत्य द्वारा क्या जस्मीन शाह फर्जी गजट तैयार करनेवाले धर्म के धोखेबाज जालसाज कुशल मेहता को बचाने की कोशिश कर रहा है? इसमें निर्दोष लोग व धर्माचार्य फंस जाएं और मुम्बई पुलिस ने तीन वर्ष की कठोर जांच में जिस कुशल मेहता के ठिकानों से उसकी निसानदेही पर फर्जी दस्तावेज तैयार करने का सारा साजोसामान बरामद किया है, जिसे पुलिस ने गिरफ्तार किया है और इस समय जमानत पर छूटा हुआ है, क्या यह उस कुशल मेहता को बचाने की कोशिश का एक हिस्सा अथवा षडयंत्र है? क्योंकि जस्मीन शाह ने अपनी फरीयाद में कहीं पर भी कुशल मेहता व उसकी गिरफ्तारी का जिक्र नहीं किया है, इस प्रकार उसने तथ्यों को छिपाने का पूरा प्रयास किया है। उसने महिला एवं बालकल्याण मंत्रालय के पत्र को तो प्रस्तुत किया, किन्तु चालाकी से यह छिपा दिया कि यह पत्र पुलिस को जिस जांच के संदर्भ में मिला है, उसमें कौन गुनहगार पाया गया है? क्या गुजरात हाईकोर्ट को और उससे पूर्व अहमदाबाद के मेट्रोपोलियन मजिस्ट्रेट को जस्मीन शाह ने तथ्य छिपाकर, अंधेरे में रखकर गुमराह करने का प्रयास नहीं किया है? क्या इसके पीछे इसकी कोई दुरभिसंधि अथवा चाल है?

क्या जस्मीन शाह एक तीर में दो निशाने साध रहा है? एक तरफ निर्दोष लोगों को फंसाना और जालसाज अपराधी को बचाना व दूसरी तरफ 14 वर्ष की छोटी वय में दीक्षा लेकर अपनी प्रतिभा, गुरु की सेवा, गुरु की कृपा, अपने अध्ययन, कठोर परिश्रम व तपस्या और शुद्ध आचार-विचार के परिणाम स्वरूप प्रकाण्ड विद्वान बन जाने, कई शास्त्रों के लेखक व सम्पादक होने, मनोविज्ञान, चिकित्सा विज्ञान और विभिन्न दर्शनों के विद्वान होने, इनके समुदाय का निरंतर विकास होने, जैनधर्म के प्रभावक आचार्य बन जाने के कारण इन्हें नीचा दिखाने का कुचक्र चलाना?

क्या यह सब अपनी मान्यता भेद का बदला लेने के लिए जस्मीन शाह अकेले कर रहा है या उसके पीठबल के रूप में पर्दे के पीछे कुछ और भी ताकतें सक्रिय हैं? यह भी समाज के लिए गवेषणा का विषय है। कहीं इसकी आड़ में एक तिथि - दो तिथि के मान्यता भेद का बदला तो नहीं लिया जा रहा है? या कहीं कुछ लोग आगामी साधु सम्मेलन के मद्देनजर आचार्यश्री की छवि धूमिल कर इसकी आड़ में अपना खेल तो नहीं खेलना चाह रहे हैं? यदि ऐसा कुछ भी है तो यह बहुत ही आत्मघाती कदम है, जिस पर समूचे जिनशासन को हो रहे नुकसान के मद्देनजर चिंतन होना चाहिए।

असत्य-अधर्म का विरोध न करे वो साधु नहीं



यदि सत्य-धर्म का पक्ष रखना, असत्य-अधर्म का विरोध करना झगड़ा करना माना जाता है तो ऐसा झगड़ालू होना उचित है, साधु धर्म का तो यह प्रमुख दायित्त्व है। जिस साधु में अपने सत्य-धर्म के प्रति इतनी-सी निष्ठा भी न हो, वह पंच महाव्रतों का पालन किस प्रकार कर सकता है? यदि न्याय-नीति की बात करना, धर्म की रक्षा के लिए अड़जाना, झगड़ा करना है तो ऐसा झगड़ालू होना, अपने सत्य-धर्म का पालन करना है। कहने वाले प्रभु महावीर को भी तो झगड़ालू कहते थे। श्री जिन आज्ञा का पालन करना और जिन आज्ञा विरोधी गतिविधियों पर अंकुश के लिए संघर्ष करना झगड़ा करना है तो ऐसे झगड़ालू होने पर हमें गर्व है, संतोष है, क्योंकि ऐसा करके ही साधु अपने साधुपन को बचा पाता है। ऐसी परिस्थिति में मूकदर्शक रहना, साधुपन पर दोष लगाना है। महाव्रतों का खण्डन करने जैसा है। सत्य के लिए मरना पड़े तो मंजूर है, किन्तु झूठ के आगे समर्पण तो किसी कीमत पर स्वीकार्य नहीं ही है। भगवान का संघ, भगवान के सिद्धान्तों की रक्षा के लिए लड़ना पड़े तो लड़ता है, शेष दुनिया की किसी चीज के लिए वह नहीं लड़ता। लड़ते समय भी सामने वाले के हित की चिन्ता तो उसके हृदय में रही हुई होती है। क्योंकि, यह तो धर्मयुद्ध है। ये सिद्धान्त तो जगत मात्र का कल्याण करने वाला है। असत्य-अधर्म का विरोध किए बिना सच्चे साधु को चैन नहीं पड़ता। यदि चैन पड़े तो उसका साधुपन नहीं रहता।-सूरिरामचन्द्र

धन गुण कब हो सकता है?

धनवान यदि धर्म करे तो उसका धन धर्म का साधन हो सकता है। अन्यथा तो वह पाप का ही साधन होता है। सभी प्रकार के पुण्योदय प्रशंसनीय ही होते हों, ऐसी बात नहीं है। जो पुण्योदय महापाप के बंध में निमित्त होते हैं, उनकी प्रशंसा कौन करेगा? जो पुण्योदय दुर्ध्यान उत्पन्न करता है, क्रूरता उत्पन्न करता है, निष्ठूरता उत्पन्न करता है, मोह उत्पन्न करता है, उसकी प्रशंसा की जा सकती है क्या? इसीलिए उपकारियों ने पुण्य दो प्रकार के बताए हैं, जिनमें से पुण्यानुबंधी पुण्य प्रशंसनीय है और पापानुबंधी पुण्य प्रशंसनीय नहीं है। जिन्हें पुण्यानुबंधी पुण्य से धन प्राप्त हुआ है, वे कभी लक्ष्मी के वशीभूत नहीं होते; अपितु लक्ष्मी उनके वशीभूत होती है। पुण्यानुबंधी पुण्य के उदय से जीव को जो सुख-सामग्री प्राप्त होती है, वह राग में वृद्धि नहीं कर के विराग में वृद्धि करती है।
इस तरह धन भी एक गुण अवश्य है, परन्तु वह धन यदि पुण्यानुबंधी पुण्य के उदय से प्राप्त हुआ हो तो गुण है। संसार के अधिकतर धनी लोग जिस प्रकार से आज व्यवहार कर रहे हैं, वे और उनका वह धन कभी प्रशंसनीय नहीं हो सकता है। जिन्हें लक्ष्मी प्राप्त होती है, वे प्रायः उसके वश में हो जाते हैं और लक्ष्मी के वश में होने पर अपार कष्ट उठाने पडते हैं। जो लोग इस तरह दुःखी बने हैं, उनके पुण्योदय की प्रशंसा की जा सकती है क्या? उनके पुण्योदय का विचार भी क्यों किया जाए? ऐसे मनुष्य पुण्योदय होने पर भी दुःखी होते हैं, अतः वे दया के पात्र हैं। जिस पुण्योदय के फल स्वरूप दुःख आए और दुःखों की वृद्धि हो, उस पुण्योदय को आगे न लाने में ही बुद्धिमानी है। धन के वशीभूत हुए लोगों का पुण्योदय भी पाप का कारण है। इसलिए धन के पीछे भागने में समझदारी नहीं है।-सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 29 जून 2015

बालदीक्षा के खिलाफ देश में कोई कानून नहीं है



बालदीक्षा को कानून का उलंघन बताकर न्यायपालिका को गुमराह करने और चीजों को गलत संदर्भ देने का प्रयास कर रहा है, जबकि देश में और किसी राज्य के कानून में बालदीक्षा पर रोक का कोई प्रावधान नहीं है, क्योंकि ऐसा प्रावधान संविधान के मूलभूत अधिकारों और अनुच्छेद 25 के प्रावधानों का उलंघन है। यह मामला जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के अधीन भी नहीं आता है।

स्वयं गुजरात उच्च न्यायालय ने भी इस बात को स्वीकार किया है, इसीलिए उसने तथाकथित जैनी जस्मीन शाह की अपील के मद्देनजर बिना जैन धर्माचार्यों का पक्ष सुने, बिना जैन धर्म का अध्ययन किए, बिना आगमों को जाने ही इस प्रकार की धर्म-विरोधी टिप्पणियां कर कानून बनाए जाने की बातें अपने आब्जर्वेशन में लिख दी है। गुजरात उच्च न्यायालय को तथाकथित जैनी जस्मीन शाह ने अपने वकील के जरिए पूरी तरह गलत सूचनाएं और गलत जानकारियां दी है, जो IPC कि धारा 211 के तहत दंडनीय अपराध है और इसी का यह परिणाम है कि 8 मई, 2015 को गुजरात उच्च न्यायालय के आदेश से पूरे जैन धर्म एवं समाज को कलंकित होना पडा। इसके लिए पूरी तरह जिम्मेदार सिर्फ एक और एक ही व्यक्ति है, जो अपने आपको कहता तो जैनी है, किन्तु यह धत्कर्म बताता है कि वह जैनधर्म का ही विरोधी है।

सन् 2007 में उदयपुर के नजदीक एक गांव में तेरापंथ धर्म संघ में चार बालदीक्षाएं हुई। दो वकील साहबान को यह नागंवार गुजरा और उन्होंने कोर्ट में मामला दर्ज करवाया, अपील की कि बच्चों की दीक्षाएं जुवेनाइल जस्टिस एक्ट का उलंघन है और यह उनके प्राकृतिक विकास को अवरूद्ध करनेवाला, उनके साथ अन्यायपूर्ण कदम है। तब मामले पर सारी सुनवाई के बाद तत्कालीन माननीय मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट श्री ब्रजेन्द्र कुमार जैन ने (जो वर्तमान में राजस्थान उच्च न्यायालय में न्यायाधीश हैं) जुवेनाइल जस्टिस एक्ट का बहुत ही सुन्दर विवेचन किया, जो हर किसी को पढना और समझना चाहिए। खासकर बालदीक्षा के खिलाफ हल्ला मचाने वालों को तो जरूर पढना ही चाहिए।

माननीय न्यायाधीश महोदय ने अपने आदेश में लिखा है कि किशोर न्याय (बालकों की देखरेख व संरक्षण) अधिनियम, 2000 के प्रावधानों को उक्त अधिनियम के बनाने की विधायिका की मंशा, उद्देश्य व प्रस्तावना को दृष्टिगत रखते हुए देखा जाए तो बालदीक्षा किसी भी प्रकार उक्त अधिनियम के प्रावधानों के विपरीत नहीं है। उन्होंने इस अधिनियम की धारा 23 24 का, इस अधिनियम की प्रस्तावना का सर्वोच्च न्यायालय के न्यायिक विनिश्चय के प्रकाश में बहुत ही सुन्दर तरीके से विवेचन किया और परिवाद को खारिज कर दिया।

पापोदय-पुण्योदय के विचारों से लाभ



आवश्यकतानुसार धन प्राप्त करने की बात करने वाले भी इच्छानुसार धन प्राप्त करने पर अधिक धन प्राप्त करने की इच्छा करने लगते हैं। उनमें लोभ-लालच पैदा हो जाता है, तृष्णा जाग जाती है। तत्पश्चात उनका मस्तिष्क बिगड जाता है। उनकी आवश्यकताएं बढ जाती हैं। पहले जो आवश्यकताएं नहीं थी, वे आवश्यकताएं धन-प्राप्ति के पश्चात उपस्थित हो जाती हैं। और जैसे-जैसे पूर्ति होती है, वैसे-वैसे नई-नई आवश्यकताएं पैदा होती जाती है। क्या आपने कभी ऐसा अनुभव नहीं किया? क्या आपने कभी ऐसा होते नहीं देखा? जिन व्यक्तियों की ऐसी दशा है, उन्हें पापोदय और पुण्योदय का विचार अवश्य करना चाहिए। ऐसी दशा वाले मनुष्य पापोदय और पुण्योदय का विचार करें, तो ही वे अपने मन पर कुछ नियंत्रण रख सकते हैं और इस नियंत्रण का बहुत लाभ प्राप्त कर सकते हैं। वे ऐसा करके न केवल अपने मन को व्याकुलता में डूबने से उबार सकते हैं, शोक-संतप्त होने से बच सकते हैं; अपितु बहुत शान्ति और संतोष का अनुभव भी कर सकते हैं। यदि आगे बढा जा सके तो उनमें उदारता, सर्व-संग परित्याग की वृत्ति आदि अनेक गुण विकसित हो सकते हैं।

प्राप्ति न हो तो पापोदय और प्राप्ति हो तो पुण्योदय मानने से मन की क्षुब्धता रुक जाती है। यह पहला परिणाम है। इससे पाप का परित्याग करने की और पुण्य का आचरण करने की प्रेरणा मिलती है, यह दूसरा परिणाम है। फिर हृदय में भाव आता है कि मैं पाप एवं पुण्य की इस आधीनता में क्यों रहूं? मुझे तो ऐसा हो जाना चाहिए कि मेरा कुछ भी न तो पाप के आधीन रहे और न ही पुण्य के आधीन रहे; यह तीसरा परिणाम है। इस तरह मुक्ति की अभिलाषा उत्पन्न होती है। तत्पश्चात् क्रमशः मुक्ति-मार्ग का ज्ञान, मुक्ति-मार्ग की आराधना और अन्त में मुक्ति भी प्राप्त होती है। इस तरह पुण्योदय और पापोदय के विचारों से लाभ तो अत्यधिक हैं; परन्तु आप सब पुण्योदय एवं पापोदय की केवल बातें ही करते हैं अथवा उन पर अमल भी करते हैं? ‘मुझे पुण्योदय और पापोदय का विचार कितना आता है और मैं उस पर अमल कितना करता हूं?’ इस विचार को अत्यंत वेग युक्त बनाने का प्रयास करना चाहिए। आपको तो ऐसी उत्तम सामग्री उपलब्ध है, अतः आप यदि प्रयास करें, आपके हृदय में इस तरह के विचार उत्पन्न हों, तो आप काफी आगे बढ सकते हैं।-सूरिरामचन्द्र

रविवार, 28 जून 2015

धर्म-द्वेषियों के लिए समभाव नहीं



अपराधी का भी चित्त से बुरा चिन्तन नहीं करना, यह ठीक है, उन बेचारों का भी कल्याण हो; लेकिन कल्याण-बुद्धि रखकर धर्मद्वेषी को शिक्षा नहीं दी जाए, ऐसा नहीं। धर्म को समर्पित बना हुआ मुनि धर्म के द्वेषी को शिक्षा देने योग्य लगे तो शिक्षा दे। ऐसा होने पर भी उसका भला ही चिन्तन करे। धर्म के विरोधी या शासन पर हमला करने वाले को शिक्षा देनी है, लेकिन शिक्षा देने वाले के मन में विरोधी के प्रति भी करुणा-भाव रहे, दुष्टता का भाव नहीं। प्रिय में प्रिय बालक को भी समय पर चपत मारी जाती है या नहीं? यह चपत मारने वाले माता-पिता क्या बच्चे का बुरा चिन्तन करते हैं? नहीं ही। दिखने में यह व्यवहार प्रतिकूल लगता है, किन्तु हृदय में प्रतिकूलता नहीं है। इसी प्रकार शासन-द्वेषी को शिक्षा न दी जाए, ऐसा नहीं है। अरे, वह मित्र न बनना हो तो न बने, परन्तु यदि दुश्मनी करते हुए रुक जाए, तब भी शासन के प्रेमी उसका तिरस्कार नहीं करें। समभाव स्वयं के लिए है, धर्म पर हमला करने वालों के प्रति समभाव नहीं ही रखा जा सकता।-सूरिरामचन्द्र

पापोदय एवं पुण्योदय का विचार


पापोदय एवं पुण्योदय का विचार

धन के संबंध में आपकी स्थिति सामान्य होते हुए, अपनी जीविका चलाने के लिए पर्याप्त होते हुए भी आपके हृदय में धन-प्राप्ति की तीव्र लालसा है और उसके लिए दिन-रात जुगाड करने में ही अपनी सारी ऊर्जा को भी लगा रहे हैं। अतः आपको पापोदय और पुण्योदय का विचार तो अवश्य करना ही चाहिए। कोई व्यक्ति धन की इच्छा करे और उसे धन प्राप्त हो ही जाए, ऐसी बात तो नहीं है। जो धन प्राप्ति के लिए अथक परिश्रम करे, उसे धन प्राप्त होगा ही, यह बात भी नहीं है। धन-प्राप्ति की लालसा भी हो और उसके लिए परिश्रम भी किया जा रहा हो, तो भी धन प्राप्त न हो तो क्या हो? उस समय ऐसे मनुष्यों की कैसी दशा होती है? उनका मन अत्यंत दुःखी और बैचेन हो जाता है, वे दीन बन जाते हैं। वे हताश-निराश होकर सिर पर हाथ रखकर बैठ जाते हैं, उनकी इच्छा रोने की हो जाती है। जिस स्थान पर स्वयं तो नहीं कमा सके हों, उलटा धन खोकर लौटे हों; उस स्थान पर ही अन्य लोग कमा गए हों, तो उन लाभ कमाने वालों के प्रति ईर्ष्या भी हो सकती है। समाज-व्यवस्था, शासन-व्यवस्था आदि के प्रति भी हृदय में रोष उत्पन्न होने की संभावना रहती है। धनवानों का धन छीनकर सब लोगों में वितरण कर दिया जाना चाहिए; ऐसे विचार उठने की संभावना भी रहती है।

इस तरह अनेक मनुष्यों का अहित करने के विचारों से हृदय की व्याकुलता बढ जाती है। मनुष्य किंकर्तव्य विमूढ बन जाता है कि क्या करूं और क्या न करूं? इस सबका मूल क्या है? इस सबका मूल धन की लालसा है। इस लालसा ने ही परिश्रम कराया। यदि परिश्रम का सुफल प्राप्त हो जाए और इच्छा से अधिक धन की प्राप्ति हो जाए, तो तो ऐसे विचार आने की संभावना नहीं रहती; परन्तु ऐसे मनुष्यों को इस प्रकार के विचार नहीं आते, इनसे भी उत्तम विचार आते हैं, यह भी मानने जैसी बात नहीं है। धन प्राप्ति ही उत्तम विचारों का कारण नहीं है। उत्तम विचारों का कारण तो दूसरा ही है। उत्तम विचारों का कारण यदि धन-प्राप्ति ही हो तो जिन्हें धन प्राप्त हो जाए, उन्हें तो उत्तम विचार आने ही चाहिए; पर ऐसा नहीं होता और जिस मनुष्य में जितना विवेक होता है, उसे उस प्रमाण में उत्तम विचार आए बिना रहते ही नहीं। ऐसे मनुष्य धन प्राप्त करते हैं तो भी उनमें उत्तम विचार आते हैं और कदाचित् उनका धन चला जाए तो भी उनमें उत्तम विचार ही आते हैं। थोडा बहुत भी विवेक जहां नहीं होगा, वहां अधिक धन प्राप्ति के बावजूद संतोष की झलक दिखाई नहीं देगी। यदि विवेक का अभाव होगा तो धन-प्राप्ति के साथ-साथ और अधिक प्राप्त करने की लालसा बढती ही जाएगी। जिन व्यक्तियों की ऐसी दशा है, उन्हें पापोदय और पुण्योदय का विचार अवश्य करना चाहिए। तभी वे अपने मन पर कुछ नियंत्रण रख सकते हैं और व्याकुलता व शोक से बच सकते हैं।-सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 27 जून 2015

आर्य संस्कृति व सभ्यता पर मंडराता खतरा



पिछले तीन दिनों में और उससे पूर्व 10 मई से 14 मई तक जैनधर्म पर हमले के संबंध में समाज को जागृत करने के लिए हमने जो कुछ लिखा, उसे देशभर के और विदेशों में रह रहे प्रवासी भाई-बहिनों ने भारी समर्थन देकर हमारे साथ अपनी सहमति व्यक्त की है, उन सबके प्रति हम आभार व्यक्त करते हैं और उन्हें धन्यवाद ज्ञापित करते हैं, किन्तु उन सबसे निवेदन है कि वे इतने में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं मानें, बल्कि हमने जो कुछ लिखा है, उसे अधिकतम लोगों के साथ शेयर करें, जो भी साधु-साध्वी भगवन उनके सम्पर्क में हों उनसे बात करें और विनति करें कि समाज की जागृति के लिए इस विषय को वे अपने प्रवचनों में विशेष रूप से प्राथमिकता दें। और जब भी हमारी मुहिम एक विशाल अहिंसक आंदोलन का स्वरूप ले, वे इसकी अगुवाई करने को कटिबद्ध हों।

हमारे एक मित्र ने हमारे आलेखों पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि "ऐसी एक दार्शनिक और ऐतिहासिक मान्यता है कि किसी भी जाति को खत्म करने के लिए आवश्यक है कि उसके संस्कार व सभ्यता को खत्म कर दो।" और आज आर्य संस्कृति और विश्व को अहिंसा व स्याद्वाद के जबरदस्त संदेश देने वाले जैनधर्म को खत्म कर देने व इसकी बुनियाद दीक्षाधर्म को नष्ट कर देने के लिए सुरंगें बिछाई जा रही है। हैरत की बात यह है कि यह काम भी तथाकथित जैनियों से ही उनकी मानसिकता भ्रष्ट करके करवाया जा रहा है, ताकि दूसरों पर आरोप न आए। आधुनिकता के फेर में आज हर कोई बौद्धिक दिवालियेपन का शिकार जल्दी हो जाता है और उसकी सोच धर्म के शाश्वत सिद्धान्तों के विपरीत चली जाती है तब वह ऐसे आत्मघाती कदम उठाने लगता है, जैसे जस्मीन शाह और रोहित शाह जैसे लोग उठाते हैं।

एक फर्जी गजट के मामले के बहाने बालदीक्षा पर प्रहार करने पर आमादा है और एक समुदाय विशेष को टार्गेट कर उसके माध्यम से पूरे जैनधर्म, दर्शन, मान्यता व उज्ज्वल परम्परा को नष्ट करने पर आमादा है तो दूसरा दीक्षाधर्म को ही गलत बताने पर आमादा हुआ है ताकि न रहे बांस और न बजे बांसुरी। दोनों में कोई दुरभिसंधि है, यह तो हम नहीं जानते, लेकिन इतना तो तय है कि दोनों के रास्ते एक दूसरे के पूरक अवश्य हैं।

एक और मित्र ने लिखा है कि किसी जाति को नष्ट करना हो तो उसकी युवा पीढी को नशे में डुबो दो। यह नशा भी कई प्रकार का होता है। केवल ड्रग्स या शराब आदि मादक पदार्थों का नशा ही नशा नहीं होता, धन का भी नशा होता है, नाम का भी नशा होता है, बदले का जुनून भी भारी नशा देता है, अहम नशे का पोषण करता है और इन दोनों की प्रवृत्तियां भी किसी नशे के अधीन ही लगती है, क्योंकि नशे में व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है, फिर वह धर्म के लिए, समाज व संस्कृति के लिए, अपने जीवन के कल्याण के लिए अच्छे और बुरे का विवेक खो देता है और अपने ही घर को, अपने ही आधार को आग लगा देने पर आमादा हो जाता है।

समाज को ऐसे धर्म-नाशक लोगों से और इनकी ऐसी दुष्ट मनोवृत्तियों से अवश्य बचना चाहिए, सावधान होना चाहिए, इन्हें शिक्षा देनी चाहिए, इनके रिश्तेदारों-परिवारजनों को चाहिए कि वे इन्हें समझाएं और सही राह पर लाएं।

अंत में एक मित्र को धन्यवाद कि जिन्होंने लिखा है कि "पौधे को ही कलम लगाकर परिवर्तित किया जा सकता है, वृक्ष को नहीं, यह सर्व विदित तथ्य है।"

एक और मित्र ने लिखा है "आत्म-कल्याण प्रत्येक मानव का लक्ष्य होना चाहिये !! जितना शीघ्र इसके मार्ग का अवलम्बन किया जाये उतना ही श्रेयस्कर है !! शुभस्ते-शीघ्रम !! वैराग्य या दीक्षा आत्मकल्याण की यात्रा का प्रारम्भ ही है !! बाल-दीक्षा और कुछ नहीं इस यात्रा की जल्द की गई शुरूआत है अत: असन्दिग्ध शुभ है !! आत्मकल्याण को मानव-मात्र के लक्ष्य रूप मे स्वीकृति और बाल-दीक्षा का विरोध स्व-व्यतिघात का दोष उत्पन्न करता है !! विरोधियों को सम्यक् चिन्तन की नितान्त आवश्यकता है !!"