यह संसार क्षणभंगुर है,
नाशवान है। मनोहर दिखाई देने वाला प्रत्येक पदार्थ प्रति
क्षण विनाश की प्रक्रिया से गुजर रहा है। जो कल था, वह आज नहीं है और जो
आज है, कल नहीं होगा। संसार प्रतिक्षण नाशवान और परिवर्तनशील है। फिर हम क्यों बाह्य
पदार्थों, जड तत्त्वों में भटक रहे हैं? क्यों हम नश्वरता के पीछे बेतहाशा दौडे जा
रहे हैं, पगला रहे हैं?
हम आत्म-स्वरूप को समझकर शाश्वत सुख की ओर क्यों न बढें? जहां
जीना थोडा, जरूरतों का पार नहीं,
फिर भी सुख का नामोनिशान नहीं; ऐसा
है संसार और जहां जीना सदा,
जरूरतों का नाम नहीं, फिर भी सुख का शुमार नहीं; वह
है मोक्ष! फिर भी हमारी सोच और गति संसार से हटकर मोक्ष की ओर नहीं होती, यह
कितना दुर्भाग्यपूर्ण है?
हम अनन्त काल से संसार की क्षणभंगुरता को समझे बिना परभाव
में रमण करते चले आ रहे हैं, यही हमारे जन्म-मरण और संसार परिभ्रमण का
कारण है, यही दुःख-शोक-विषाद का कारण है। 24 घण्टे हम परभाव में व्यस्त
रहते हैं, एक क्षण के लिए भी यह विचार नहीं करते कि हम आत्मा के लिए क्या कर रहे हैं? जो
भी आत्मा से ‘पर’ है, वह नाशवान है और संसार के नाशवान पदार्थ ही सब झगडों की जड़ हैं; जब
तक यह चिन्तन नहीं बनेगा,
संसार से आसक्ति खत्म नहीं होगी, हम
स्व-बोध को, आत्म-बोध को प्राप्त नहीं कर सकेंगे और उसके बिना आत्मिक आनंद, परमसुख
की उपलब्धि असम्भव है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
गुरुवार, 30 अप्रैल 2015
बुधवार, 29 अप्रैल 2015
संयम में विकार न हो
संयम जीवन बहुत कठोर है। जो उस पर चल पाता है, वह महान बन जाता है, लेकिन
जो व्यक्ति संयमी जीवन का वेश पहिनने के बाद भी पालन नहीं कर पाता है, वह
उससे नीचे गिरता है तो उसका समस्त अस्तित्व चकनाचूर हो जाता है। कहा गया है-
साधु जीवन कठिन है, ऊँचा पेड खजूर।
चढे तो चाखे प्रेम रस, गिरे तो चकनाचूर।।
व्यक्ति क्षणिक मोह के वशीभूत होकर पथ से हट जाता है, पथभ्रष्ट
बन जाता है और अपने तुच्छ स्वार्थों में अंधा होकर सुसाधुओं को आघात पहुंचाता है, छद्मवेश
में धर्म को आघात पहुंचाता है, धर्मतीर्थ को आघात पहुंचाता है और अपना
संसार सजाता है। श्री अरिहंत परमात्मा ने मोक्ष पाने हेतु ही धर्मतीर्थ की
संस्थापना की है। इसी धर्मतीर्थ का उपयोग संसार सजाने (संसार के सुख पाने) के लिए
करना परमात्मा का घोर अपराध है। हमारी साधना ऐसी होनी चाहिए कि हमें बाहर के कितने
ही निमित्त मिलें,
लेकिन हमारे में विकार उत्पन्न न हो, हम
अपने संयम की मर्यादाओं से जरा भी विचलित न हों।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
मंगलवार, 28 अप्रैल 2015
बुद्धि-प्रज्ञा का उपयोग आत्म-कल्याण में करें
चौरासी लाख जीवयोनियों में मानव अपनी बुद्धि-प्रज्ञा के कारण ही सर्वश्रेष्ठ
माना गया है। हम इस बुद्धि-प्रज्ञा का उपयोग केवल रोटी-कपडे की व्यवस्था या
विध्वंसक कार्यों में न करें, वर्ना मानव बुद्धि का सम्पूर्ण महत्त्व ही
धूमिल हो जाएगा। हम इस प्रज्ञा का उपयोग मृत्यु पर विजय प्राप्त करने में करें या
यों कहें कि हमें जन्म ही न लेना पडे, ऐसा पुरुषार्थ हम अपनी
बुद्धि-प्रज्ञा द्वारा करें, जन्म-मरण की श्रृंखला का सदा-सदा के लिए
निर्मोचन करें। इसके लिए अपनी बुद्धि-प्रज्ञा का उपयोग अपने आत्म-स्वरूप को जानने
में करें। आत्म-चिंतन करें कि मैं कौन हूं? कहां से आया हूं? मेरे
क्या कर्त्तव्य हैं?
मैं जन्म-जरा और मृत्यु से किस प्रकार छुटकारा प्राप्त कर
सकता हूं? विचार करें! गम्भीरता पूर्वक चिन्तन करने से शुभ भावों का उदय होगा, आप
अन्तर्मुखी-सम्यग्दृष्टि बनेंगे और जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे।
पुण्य के उदय से प्राप्त साधन-सामग्री का मजे से भोग-उपभोग करना यानी अपने ही
हाथों अपनी दुर्गति खडी करना; इस तथ्य को गहराई से विचार करें। मानव
जीवन आत्म-कल्याण के लिए है, इसे भोगोपभोग में लगाकर व्यर्थ गंवा देना
स्वयं अपनी आत्मा का अपराध करना है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
सोमवार, 27 अप्रैल 2015
बिना संस्कारों के तो रोना ही पड़ेगा
प्रत्येक मानव परम आनंद की प्राप्ति करना चाहता है, किन्तु
आज चारों तरफ अंधकार के सघन बादल आच्छादित हो रहे हैं। प्रायः हर व्यक्ति ने अपनी
जिन्दगी की नाव को पाप व पीडा के बोझ से भर रखा है, फिर वह भवसागर में
डूबेगी नहीं तो क्या होगा?
इस डूबने के लिए हमारे संस्कार ही बहुत हद तक जिम्मेदार
हैं। क्यों न हम भावी पीढी में सुसंस्कारों का बीजारोपण करें, ताकि
वह वास्तविक आनंद-परमानंद की प्राप्ति कर सके। किन्तु, आजकल
माता-पिता अपने बच्चों के संस्कारों की तरफ कितना ध्यान दे पाते हैं? दोनों
अर्थोपार्जन या भौतिक उपलब्धियों की दौड में बेतहाशा दौड रहे हैं या आधुनिक बनने
के चक्कर में कॉकटेल पार्टियों व क्लबों में ही व्यस्त हैं। ऐसे में बच्चे कई बार
माता-पिता के वात्सल्य प्रेम को तरस जाते हैं और बचपन से ही सुसंस्कारों के
बीजारोपण के बजाय वे तनावग्रस्त होकर भटक जाते हैं। बडे होकर वे अपने माता-पिता, समाज
या देश के लिए समस्या नहीं बनेंगे क्या? क्या ऐसे बच्चे अपने आत्मगौरव
को प्राप्त कर सकते हैं?
अपना कल्याण साध सकते हैं? आप जितना महत्त्व
आधुनिक शिक्षा और शिक्षापद्धति को देते हैं, उतना संस्कारों और धार्मिक
शिक्षण को देते हैं क्या?
इसके बिना बच्चों का जीवन सफल कैसे हो सकता है? जरूर
आपको और आपके बच्चों को भविष्य में रोना ही पडेगा। यदि नहीं रोना चाहते हैं तो
अपने बच्चों में सुसंस्कारों का सिंचन करिए, उन्हें सन्मार्ग की ओर अग्रसर करिए।-आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
रविवार, 26 अप्रैल 2015
कल-कल करते काल ही आता है
यहां न कुछ तेरा है,
न मेरा है। न ही यह धन-सम्पत्ति, यह
भौतिकता की चकाचौंध या नाते-रिश्तेदार अंतिम समय में साथ आने वाले हैं, फिर
अहंकार/अभिमान किस पर?
क्यों हम सिर्फ बाह्य वस्तुओं और व्यवस्थाओं के प्रति ही
सजग हैं? आत्मा के प्रति हम सजग क्यों नहीं? हम भौतिक संसाधनों को जुटाने
में और अधिकाधिक अर्थोपार्जन की दौड में इतने अधिक लिप्त हो गए हैं कि प्रायः
चौबीसों घण्टे हमारी क्रियाएं उन्हीं पर केन्द्रित रहती हैं और हम कल का काम भी आज
ही निबटा लेना चाहते हैं,
लेकिन धर्म-साधना अथवा परोपकार का काम कल पर छोडते हैं और
वह कल कभी नहीं आता,
‘काल’
ही आता है। तब हमारा यह जीवन व्यर्थ हो जाता है। हमारी
आत्मा अनादिकाल से सोई हुई है। मिथ्यात्व मोह और अज्ञान निद्रा का आवरण हमारी
आत्मा पर छाया हुआ है। जब हमारी आत्मा में जागृति आ जाएगी, तब
हमें अपने अंतरंग शत्रु दिखाई देने लगेंगे कि इन्होंने हमारे भीतर की आत्मा को
कैसे दूषित कर रखा है? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
शनिवार, 25 अप्रैल 2015
धर्म से ही जीवन सार्थक हो सकता है
यह मानव जीवन दुर्लभ है। देवता भी इसके लिए तरसते हैं, क्योंकि
इसी से आत्म-कल्याण संभव है। हमने असीम पुण्योदय से यह मानव जीवन पाया है, क्या
इसे हम यों ही गंवा देना चाहते हैं? जो उम्र चली गई, वह
तो व्यर्थ गई,
लेकिन जो जीवन बचा है, उसे संभालिए। मृत्यु की घड़ियों
में साथ आने वाला केवल धर्म ही है। जिन भौतिक पदार्थों को आप एकत्रित कर रहे हैं, वे आपके
साथ आने वाले नहीं हैं। उन्हें यहीं पर छोडकर जाना पडेगा। जरा सोचिए कि आपने कौनसी
चीज बनाई है?
क्या कमाया है आपने? इस जीवन से जाते समय कितना
साथ ले जाएंगे?
चौबीस घंटे भौतिक साधनों की कमाई कर रहे हैं, पापकर्मों
का उपार्जन कर रहे हैं,
आत्मा की उपेक्षा कर रहे हैं, तो भविष्य क्या होगा? आपके
जीवन का उद्देश्य क्या है?
निरुद्देश्य जीवन का कोई महत्त्व नहीं है। धर्म को आचरण में
लाओ। सम्यग्दृष्टि बनो। सम्यग्दृष्टि व्यक्ति का जीवन तनाव रहित होता है। आज जितने
तनाव और संघर्ष परिलक्षित हो रहे हैं, यह सब मिथ्यात्व के कारण हैं।
हम शान्ति की खोज में बाहर भटक रहे हैं, भौतिक साधनों में उसे खोज रहे
हैं, किन्तु वह उनमें कहीं नहीं मिलती। हम अंतर्मुखी होकर सम्यग्दृष्टि बनेंगे तो
चिरस्थाई शान्ति को प्राप्त कर सकेंगे। सम्यग्दृष्टि भाव का जागरण होने के पश्चात
हमारे सामने जो घोर तिमिर छाया हुआ है; नष्ट हो जाएगा और अलौकिक
ज्योति से हमारा जीवन जगमगाने लगेगा। हम वीतरागवाणी को जीवन में उतार कर
आत्म-कल्याण के मार्ग को प्रशस्त करें, तभी यह जीवन सार्थक है।-आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015
बाढ आने से पहले पाल बांधो
विपत्ति आने के बाद जागृत होने के बजाय पहले ही जागृत हो जाओ। पहले ही सावधान
हो जाओ तो फिर तुम्हें कष्ट ही नहीं आएगा। आग लगने के बाद कुंआ खोदने की सोचे तो
वह समझदार पुरुष माना जाता है क्या? नहीं! समझदार पुरुष तो वह
माना जाता है,
जो बाढ आने से पहले ही पाल बांध लेता है। तो यह शास्त्रीय
संकेत है कि हम अपना मूल स्वरूप देखें। चेतना का बोध प्राप्त करें। अन्तर-बोध को
प्राप्त करें। जो आत्मा संसार में आसक्त नहीं है, जिसे संयम से प्रीति
है, वह आत्मा दुःखों से बचकर रहती है। लेकिन, इस प्रकार की स्थिति बने कैसे? कब
हम असंयम से निवृत्त हो सकेंगे? जब हमारा यह प्रयत्न रहेगा कि हम
जितना-जितना हो सके पाप कार्यों से बचकर रहने का प्रयास करें। एक बार हमें आत्मा
का बोध प्राप्त हो गया,
तो फिर जीवन की दिशा, जीवन की सारी गति ही बदल
जाएगी।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
गुरुवार, 23 अप्रैल 2015
भिखारी बनाने वाली शिक्षा
अब से लगभग 90 वर्ष
पूर्व जब देश में अंग्रेजी हुकूमत थी, मुम्बई में एक धर्मसभा का आह्वान करते हुए सूरिरामचन्द्रजी
ने अत्यंत वेदना के साथ जो कहा, वह आज
की शिक्षा-व्यवस्था के मद्देनजर कितना प्रासंगिक है, विचार जरूर करिएगा-
"वैज्ञानिक युग के नाम पर आज कोई कानूनविद् बना तो कोई
डॉक्टर बना। उनके कपडे तो उजले, किन्तु
उनकी कार्यवाही देखो तो बदबू मारते गटर जैसी है। कानून पढा हुआ गुनाह करता है? कानून पढा हुआ चोरी करता है? कानून पढा हुआ किसी को ठगता है? कानून
पढा हुआ सौ के बिल पर एक और जीरो बढाता है? हिसाब पढा हुआ जमा को उधार और उधार को जमा करता है? इतिहास पढा हुआ गप्पे लगाता है? हिसाब-किताब
की बहियां दो, जुबान दो, दिल में दूसरा और मुँह पर दूसरा; ऐसी यह बीसवीं सदी? सब ऐसे
पैगम्बर? अपराधी को निरपराधी ठहराना यह
शिक्षा है? ऐसी शिक्षा, ऐसा विद्या प्रचार यह तो जहर का प्रचार है? पढे इसलिए नीचे नहीं बैठे, पढे इसलिए चाय, पान, बीडी, सिगरेट
बिना नहीं चले। पढे नहीं ये तो भूले हैं। शिक्षा को लजाया है। ऐसी शिक्षा-संस्थाओं
को नहीं निभाया जा सकता। एक नए पैसे का भी दान ऐसी संस्थाओं को नहीं दिया जाना चाहिए।
यह तो पाप का दान है। आपको यह खंजर के घाव जैसा लगेगा, बहुत कडवा लगेगा; किन्तु सच्ची शिक्षा हो
तो ऐसी दशा हो? पढे-लिखे आज पैसों के लिए भीख
मांगते हैं, लोगों की दाढी में हाथ डालते हैं।
आज आवाज उठ रही है कि पढे हुए भीख मांग रहे हैं और इससे शिक्षा के प्रति कई लोगों के
मन में तिरस्कार का भाव जागृत हो रहा है। मैं कहता हूं कि पेट भरने के लिए पढनेवाले
तो भूखे मरें, इसमें नई बात क्या है? विद्या जैसी अनुपम चीज पेट के लिए खरीदी जाए तो परिणाम यही आएंगे।
पेट के लिए विद्या पढनेवालों का पुण्य जागृत हो तो बात अलग है, नहीं तो कटोरे के लिए ही इस विद्या को समझना। पहिनने की टोपी
में ही चने फांकने के दिन आएंगे, क्योंकि
आपने विद्या का अपमान किया है। आज इस बात का अनुभव होता है और भविष्य में भी होगा।"
"पापक्रिया बढी, उसकी अनुमोदना बढी, उसकी प्रशंसा बढी, परिणाम स्वरूप दरिद्रता
और भिखारीपन आया। जो मांगा वह आया दिखता है और ऐसा ही चलता रहेगा तो अधिक आनेवाला है।
इसमें पुण्यवान को भी शामिल होना पडेगा। पडौस में आग लगती है तब बगल वाले घर में भी
जार लगती है, आँच आती है। पापी के साथ बसनेवाले
पुण्यवान को भी आँच लगने ही वाली है। सावधान रहेंगे तो बचेंगे। आपको सावधान करने के
लिए यह मेहनत है।"
आज समाज में संस्कारों की कितनी कमी होती जा रही है? आजकल के माता-पिता को फुर्सत नहीं है कि वे आधा घंटा भी अपने बच्चों के पास
बैठकर उन्हें धर्म की शिक्षा दें, समझाएं, अच्छे संस्कार दें। वह माता शत्रु के समान है, जिसने
अपने बालक को संस्कारित नहीं किया। वह पिता वेरी के समान है, जिसने अपने बच्चे को संस्कार नहीं दिए। आजकल के माता-पिता तो अपने बच्चों को
अच्छी शिक्षा के नाम पर कान्वेन्ट में डाल देते हैं। आप सोचते हैं कि कान्वेन्ट
में पढने जाएगा तो हमारा बच्चा इन्टेलीजेन्ट (चतुर) बनेगा। पढ-लिखकर होशियार बन
जाएगा और बडा आदमी बन जाएगा। लेकिन, वहां जो शिक्षा परोसी जाती है, उसमें आत्मा कहां है? वहां तो जहर ही जहर है।
शिक्षा के नाम पर ठगी
शिक्षा संस्थानों में आज तो "सा विद्या या विमुक्तये" का बोर्ड लगाकर ठगने
का धंधा किया जाता है, क्योंकि आज के शिक्षण में मुक्ति की तो
कोई बात होती ही नहीं है। "सा विद्या या विमुक्तये" का अर्थ तो यह कि जो विद्या मुक्ति का बोध दे, लेकिन
आज के स्कूल-कॉलेजों में मुक्ति के शिक्षण का स्थान तो स्वच्छंदता और
विनाशक-विज्ञान ने ले लिया है। सारी पीढी बिगड रही है, यह
आप आँखों से देख रहे हैं, फिर भी हम से पूछते हैं कि ‘शिक्षण में खराबी क्या है?’ जीवन का निर्माण बाल्यकाल से
प्रारम्भ हो जाता है। बच्चों को हृदय की पवित्रता का मूल्य उतना नहीं बताया जाता, जितना दूसरी चीजों का बताया जाता है। आज शिक्षा में नैतिक अवमूल्यन की समस्या
पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। हृदय की पवित्रता केवल साधुओं के लिए ही
महत्त्वपूर्ण नहीं है, शासकों और परिवार के सदस्यों के लिए भी
बहुत जरूरी है। साधारण व्यक्ति प्रवाह के पीछे चलता है। ‘यथा
राजा तथा प्रजा’
कहावत ही नहीं, यथार्थ है। जब एक
व्यक्ति उचित-अनुचित ढंग से सत्ता प्राप्त कर कथित बडा आदमी बन जाता है, तब दूसरा आदमी भी सोचता है कि भ्रष्ट तरीके से पैसा कमाकर बडा आदमी बना जा
सकता है। सत्ता पर जब धर्म का अंकुश नहीं रहता, तो
वह निरंकुश हो जाती है। सत्ता राष्ट्र की हो या परिवार की, उस
पर से जब-जब धर्म का अंकुश हटता है, वह उन्मादी हो जाती है।
प्रवाह को वही मोड सकता है, जो असाधारण हो, जो सत्ता और अर्थ प्राप्ति के लिए भ्रष्ट उपायों का सहारा न ले।
शिक्षा-व्यवस्था को बदलने की जरूरत
शिक्षक का वास्तविक कार्य तो यह है कि वह भाषा आदि सब
सिखाने के साथ बालक को समझदार बनाए और उसमें ऐसी क्षमता विकसित करे कि वह अपने आप
संस्कारी बने। माता-पिता ने यदि योग्य संस्कारों का सिंचन किया होता तो शिक्षक का
आधा कार्य पूर्ण हो गया होता। फिर शिक्षक को केवल माता-पिता द्वारा प्रदत्त
संस्कारों को विकसित करने की ही जिम्मेदारी रहती। भाषाज्ञान सिखाना यह वस्तुतः
ज्ञान-दान नहीं,
अपितु ज्ञान के साधन का दान है। सद्गुण प्राप्ति का और
अवगुण त्याग का शिक्षण, यही शिक्षा का साध्य है।
परन्तु,
आज तो प्रायः जैसी माता-पिता की हालत है, वैसी शिक्षक की भी हालत है। सच्चा शिक्षक मात्र किताबी ज्ञान तक ही सीमित नहीं
होता। सच्चा शिक्षक तो विद्यार्थी में सुसंस्कारों का सिंचन करता है। मात्र किताबी
ज्ञान तक सीमित रहने वाला और विद्यार्थियों के सुसंस्कारों का लक्ष्य नहीं रखने
वाला शिक्षक,
शिक्षक नहीं, अपितु एक विशिष्ट मजदूर मात्र
है। हमारे सोच को और हमारी बेकार हो चुकी समग्र शिक्षा-व्यवस्था को आज बदलने की
जरूरत है। सब अपना कर्तव्य पालन करें और आने वाले कल को सुसंस्कारी बनाएं।-सूरिरामचन्द्र
बुधवार, 22 अप्रैल 2015
संयम प्रिय है या असंयम
श्रावक के मनोरथ में भी यह आता है कि श्रावक प्रतिपल यह चिन्तन करता है कि
मेरे जीवन में वह क्षण कब आएगा, जब मैं पाप कार्यों से निवृत्त होकर
रहूंगा? असंयम से निवृत्त होऊंगा। वह क्षण जब आएगा, तब मैं समझूंगा कि वह दिन मेरा
धन्य हो गया। इस मनोरथ का चिन्तन होता है क्या? होता है, लेकिन
शाब्दिक, अंतरंग से नहीं,
अपने आपको बदलने के दृढ संकल्प के साथ नहीं; इसीलिए
सवेरे मनोरथ का चिन्तन किया और जैसे ही उस स्थान से हटे कि फिर वही असंयमी
वृत्तियां हमारी शुरू हो जाती हैं। आप कहते हैं कि संयम हमें प्रिय है, लेकिन
आप तो असंयम में रच-पच कर कार्य करते हैं। असंयम में रहते हैं और इसीलिए सामायिक
भी करना है तो पहले टाईम देखते हैं, घडी पर आपकी दृष्टि जाती है
कि पांच मिनिट आप लेट हो गए हैं। तो सामायिक पांच मिनिट बाद आएगी, तो
सामायिक करें या नहीं करें?
और मान लिया जाए कि कदाचित् आप सामायिक कर भी लेते हैं तो
बार-बार आपकी दृष्टि घडी पर जाती है कि मेरी सामायिक आई कि नहीं? मेरी
सामायिक में कितनी देर है?
संसार का काम करते समय आप घडी देखते हो क्या? दुकान
पर बैठ हैं, ग्राहक आ रहे हैं तो आप घडी देखते हो क्या? वहां आपको घडी याद नहीं आती
है। आस्रव का काम करते हैं तो वहां आपको घडी की स्मृति नहीं होती है। वहां आप इतने
दत्तचित्त हो जाते हैं कि आपको भोजन की भी सुधबुध नहीं रहती। यह नहीं देखेंगे कि
भोजन का टाईम हो गया है। लेकिन जहां संवर का कार्य आता है, वहां
आपकी दृष्टि बार-बार घडी की ओर जाती है। अब बोलिए आपका रस किधर है? आपकी
रूचि किधर है?
संयम आपको प्रिय है या असंयम प्रिय है? -आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
मंगलवार, 21 अप्रैल 2015
परभाव में नहीं, स्वभाव में रहें
एक बार हम अपने मूल स्वरूप को समझ लें, अपनी मूल चेतना का ठीक से
हमें बोध हो जाए,
फिर तो हमारे जीवन की सारी गति उस मूल स्वरूप के प्रति
समर्पित हो जाएगी। लेकिन,
आज हमारी स्थिति यह बनी हुई है कि हमें अपने मूल स्वरूप का
बोध ही नहीं होता,
उससे पहले बाह्य परिस्थितियों से, संसार
के पदार्थों के ज्ञान से हमारी चेतना इतनी आवृत्त हो जाती है, इतनी
ढंक जाती है कि चेतना के विषय में हम कुछ सोच ही नहीं पाते हैं। अथवा यों कह सकते
हैं कि हम अधिकांशतया स्वभाव में नहीं, परभाव में ज्यादा रमण करते
हैं, विभाव में ज्यादा रहते हैं। जीवन के अधिकांश क्षणों को हम देखें तो, उन
वैभाविक वृत्तियों में ही अधिक आबद्ध रहते हैं। जब आपकी चेतना स्वभाव में नहीं
होती है, वैभाविक अवस्था में होती है तो, व्यक्ति को क्रोध आता है। और
जब व्यक्ति को क्रोध आता है, तब उसकी चेतना जागृत नहीं होती है। उस समय
वह स्वयं से जुडा हुआ नहीं होता है। आत्मा का यह विभाव है कि जब वह स्वयं से आबद्ध
नहीं होती है तो निन्दा में लगी रहती है, संसार की किसी अन्य बाहरी
वृत्ति से जुडी होती है। बाह्य पदार्थों से अथवा बाह्य-व्यक्तियों से जुडी होती है
और ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपने आप को नहीं देखता है। जो व्यक्ति अपने आप को देख
लेता है, फिर उसे क्रोध नहीं आता है, उसे द्वेष नहीं होता है, फिर
वह परनिन्दा में नहीं,
स्वनिन्दा में लग जाता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
सोमवार, 20 अप्रैल 2015
परमात्मा के प्रति समर्पण
परमात्म-भाव में लवलीन होने की बात हम कई बार करते हैं। लय होने का अर्थ होता
है, अपने संपूर्ण अस्तित्व को प्रभु के प्रति समर्पित कर देना। अपनी संपूर्ण सत्ता
को परमात्म-भाव के प्रति अर्पित कर देना। हम समर्पण करते हैं। संसार में एक दूसरे
व्यक्ति के प्रति हमारा समर्पण होता है। संसार के भिन्न-भिन्न पदार्थों के प्रति
हमारी समर्पणा होती है। लेकिन, जिस मूल सत्ता के प्रति हमारा समर्पण होना
चाहिए, वह समर्पण हमारा प्रायः नहीं बनता है। जहां हमें समर्पित होना है, वहां
से हम प्रायः अपने आप को बचा लेते हैं और जहां हमें समर्पित नहीं होना है, वहां
हम अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर देते हैं। यह दृष्टि का विपर्यय-भ्रम, दृष्टि-विपर्यास
हमें इस संसार में उलझाए हुए है। जन्म-मरण के चक्कर में फंसाए हुए है। यहां तक कि
अपने आप के परिचय से भी हमें वंचित किए हुए है। हमें स्वयं का परिचय नहीं होता है।
स्वयं का बोध नहीं होता है। शरीर का परिचय होता है, इन्द्रियों का परिचय
होता है और बाह्य पदार्थों का परिचय होता है। लेकिन, चेतना का परिचय, आत्म-शक्ति
का बोध बहुत कम को हो पाता है, विरली ही आत्माओं को होता है। उसके लिए
पदार्थों के प्रति नहीं,
परमात्मा के प्रति समर्पण होना जरूरी होता है।-आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
रविवार, 19 अप्रैल 2015
सुप्रत्याख्यान-दुष्प्रत्याख्यान
आत्म-साधना में व्रतों का, नियमों का, संकल्पों अथवा
प्रत्याख्यानों का बहुत अधिक महत्त्व माना गया है। लेकिन अगर वे व्रत, नियम, संकल्प
और प्रत्याख्यान सम्यग्ज्ञान पूर्वक स्वीकार नहीं किए गए हों, भावात्मकता
से जुडे हुए नहीं हों,
तो वे दुष्प्रत्याख्यान कहलाते हैं। वही साधना आत्म-साधना
में सहयोगी बन सकती है,
जो सम्यग्दर्शन के साथ, सम्यग्ज्ञान के साथ की गई है।
एक व्यक्ति आवेश में आकर प्रत्याख्यान लेता है, क्रोध में आकर नियम लेता है, क्रोध
आ गया, गुस्सा आ गया और उपवास कर लिया। आपने भले ही पचकने की पाटी से उपवास पचका हो, लेकिन
उसे शास्त्रकार दुष्प्रत्याख्यान कहते हैं, सुप्रत्याख्यान नहीं कहते।
दुष्प्रत्याख्यान मोक्षमार्ग में सहयोगी नहीं बन सकते। सुप्रत्याख्यान ही
मोक्षमार्ग में सहयोगी हो सकते हैं। आज प्रत्याख्यान तो अनेकों बार लिए जाते हैं, लेकिन
अगर वे ही प्रत्याख्यान समझपूर्वक लिए जाएं, उनके द्वारा होने वाली
कर्म-निर्जरा पर प्रगाढ श्रद्धा हो, तो वे मोक्षमार्ग के लिए
गतिशील बन सकते हैं। दुष्प्रत्याख्यान के द्वारा कर्म-निर्जरा तो हो सकती है, लेकिन
उसे अकामनिर्जरा कहा है। “अकाम निर्जरा” मोक्ष
मार्ग में सहयोगी नहीं बन सकती। मोक्षमार्ग में तो “सकाम
निर्जरा” ही
सहयोगी बन सकती है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
शनिवार, 18 अप्रैल 2015
मोह का नशा विवेकशून्य बना देता है
किसी व्यक्ति को क्लोरोफार्म सुंघा दिया जाए या बेहोशी का इंजेक्शन लगा दिया
जाए या वह व्यक्ति शराब अथवा अन्य मादक पदार्थों का नशा कर लेता है तो बेभान, उसकी
चेतना सक्रिय नहीं रहती,
विवेकशून्य हो जाती है; फिर भाषा वर्गणा के पुद्गल
कर्ण शुष्कली तक पहुंचेंगे तो सही, लेकिन सुनाई नहीं देगा। जब तक
भाव इन्द्रियां सक्रिय नहीं होती हैं, तब तक शब्द वर्गणा के पुद्गल
ग्रहण नहीं कर सकती है। इसी प्रकार चेतना मोह के नशे में बेहोश हो रही है।
शास्त्रकारों ने मोह को नशा कहा है। जिस तरह शराब पीने से नशा चढ जाता है, उसी
तरह आत्मा पर मोह का नशा चढ जाता है। वह फिर अपने हिताहित के विवेक से रहित हो
जाता है। मोह के नशे में मदहोश व्यक्ति के लिए कहा गया है कि ऐसा व्यक्ति सत और
असत् की विशिष्टता को नहीं समझता है। वास्तविक और अवास्तविक का अन्तर न जानने से,
विचार शून्य होने से, वह उन्मत्त की तरह रहता है, उसका ज्ञान भी अज्ञान
ही है। वह उन्मत्त की तरह व्यवहार करता है। शराब की दशा में व्यक्ति उन्मत्त हो
जाता है, उसे भान नहीं रहता है। उसी तरह मोह की निन्द्रा में सोया व्यक्ति, मोह
से अभिभूत व्यक्ति अपने हिताहित का ध्यान नहीं रखता है। उसका विवेक, उसकी
प्रज्ञा इतनी नहीं होती है कि वह सत्-असत् का विशिष्ट विश्लेषण कर सके, अपना
हिताहित सोच सके।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015
सम्यक्त्व रहित तप, तप नहीं
व्यक्ति के जीवन में यदि शुद्ध दर्शन नहीं, शुद्ध-विशुद्ध श्रद्धा नहीं
और सम्यक्त्व नहीं है तो उसके अभाव में वह कितना ही धर्म कर ले, सब
प्रभावहीन ही सिद्ध होगा। धर्म स्थान में आने वाले, धर्म क्रियाएँ करने
वाले वास्तव में कितने धार्मिक हैं, यह उनके सम्यक्त्व की शुद्धि
पर निर्भर करता है। जो धर्म का प्रदर्शन करते हैं, धार्मिक होने का दम
भरते हैं, यदि उनकी श्रद्धा सम्यग् न हो, तो उन्हें क्या कहेंगे? श्रद्धा
के अभाव में सम्यक्त्व हो ही नहीं सकता। जिनके जीवन में, विचारों
में धर्म अवतरित नहीं हुआ है, वे वस्तुतः अभी धर्म के गहन तत्त्व से अनभिज्ञ
ही कहे जाएंगे। मास खमण की तपश्चर्या करके पारणे में कुश या चावल के अग्र भाग पर
आए, उतना सा आहार ले और फिर से मास खमण पचक्ख ले, इस प्रकार जो तपस्या
की जाती है, वह कितनी उग्र तपस्या होगी, लेकिन उसमें सम्यग्ज्ञान नहीं है, सच्ची
श्रद्धा नहीं है,
तो वह इतना कठोर तपस्वी धर्म के तत्त्व के विषय में कुछ
नहीं जानता। उसका वह तप,
वह कायक्लेश अध्यात्म की कोटि में नहीं गिना जाएगा, क्योंकि
वह सम्यक्त्व से रहित है। यदि सम्यक्त्व विशुद्ध है, यदि हमारी श्रद्धा
विशुद्ध है तो धर्म का आचरण धर्म की कोटि में आएगा, अन्यथा वह कुछ मायने
नहीं रखता।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
गुरुवार, 16 अप्रैल 2015
तीर्थयात्रा मानसिक शान्ति के लिए
याद रखना चाहिए कि तीर्थयात्रा मौज करने के लिए या अनुकूलता का उपयोग करने के
लिए नहीं है,
बल्कि आत्म-गुणों के प्रकटीकरण और उनकी निर्मलता की सिद्धि
के द्वारा मानसिक शान्ति प्राप्त करने के लिए है। इस प्रकार का ध्येय रखने वाले को
शारीरिक कठिनाइयां विषम नहीं लगती। किसी का कटु वचन प्रयोग उस पर थोडा भी असर नहीं
करता।
आज मानसिक शान्ति की जितनी चिन्ता नहीं है, उतनी इन्द्रियों के तोष की
चिन्ता है। किसी ने हमें ‘लुच्चा’ कह दिया,
इससे क्या हम लुच्चे-बदमाश बन गए? उस
वक्त उससे कहना चाहिए कि ‘अनंतकाल से मैं संसार में फंसा हुआ हूं, प्रमाद से लुच्चाई हो जाए, यह
मेरे लिए नई बात नहीं है। जब भी मुझ से लुच्चाई हो जाए और वह आपके ध्यान में आ जाए, तब
आप खुशी से मेरे ध्यान में लाएं, ताकि भविष्य में मैं लुच्चाई के पाप से बच
जाऊं।’ ऐसा कहने से मानसिक शान्ति चली जाएगी या बढेगी? लुच्चा कहने वाले को
भी आपकी मानसिक शान्ति आकृष्ट किए बिना नहीं रहेगी। सामने वाला पानी-पानी हो
जाएगा। हमारी इन्द्रियों को, हमारे दिल को और हमारी रीतिनीति को अगर हम
अनंतज्ञानियों के अनुसार बना दें, तो हममें मानसिक अशान्ति पैदा करने की
ताकत किसी में भी नहीं है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
बुधवार, 15 अप्रैल 2015
उद्धार साधने के मार्ग
धर्मतीर्थ की स्वयं आराधना करना, धर्मतीर्थ की आराधना करवाने
के लिए दूसरों के सहायक बनना, धर्मतीर्थ के प्रति लोग आकर्षित हों ऐसी
कार्यवाही करना और करवाना,
योग्य आत्माएं धर्मतीर्थ की शरण को प्राप्त करें और धर्मतीर्थ
की सेवा में स्थित हों;
ऐसी योजनाओं को कार्यान्वित करना, अज्ञानियों
और द्वेषियों आदि की ओर से धर्मतीर्थ के संबंध में प्रसारित किए गए गलत खयालों को
रोकने में अपनी शक्ति,
सामग्री का उपयोग करना और ऐसे उत्तम कार्य करने वालों की
अनुमोदना करना,
ये सभी आत्मोद्धार करने की रीतियां हैं। आत्मोद्धार करने की
भावना रखने वाले को संभावना के अनुसार ये सभी कार्यवाही करनी जरूरी है; लेकिन
यह सब कब होगा?
धर्मतीर्थ के प्रति सच्चा भाव प्रकट हो तब! जिस आत्मा के
अन्तर में तीर्थ का सच्चा स्वरूप जंच गया हो, जो आत्मा सच्चे तीर्थ के
प्रति भक्तिभाव रखने वाली बन गई हो और जो आत्मा तीर्थ की सेवा द्वारा अपनी आत्मा
का निस्तार (मुक्ति) साधने की अभिलाषा रखने वाली हो, वह तीर्थ सेवक के रूप
में पहिचानने योग्य है। अल्पसंसारी आत्माओं के अंतर में ही तारक तीर्थ का वास्तविक
स्वरूप जंचता है। जिसके अंतर में तारक तीर्थ का वास्तविक स्वरूप जंचे, उसके
अंतर में सच्चे तीर्थ के प्रति भक्तिभाव पैदा न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता।-आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
मंगलवार, 14 अप्रैल 2015
अधम आत्माएं दया की पात्र हैं
संसार में भटकते जीवों के आत्म-निस्तार में सहायक बनना और आत्म-निस्तार के एक
बेजोड साधनरूप धर्मतीर्थ की प्रभावना करना, इससे बढकर दूसरा कोई उत्तम
कार्य इस संसार में न था,
न है और न होगा। ऐसे उत्तम कार्य करने-करवाने वाली आत्माएं
तो उत्तम हैं ही,
ऐसे कार्य की सच्चे हृदय से सद्भाव पूर्वक अनुमोदना करने
वाली आत्माएं भी उत्तम हैं। अधम आत्माएं न तो ऐसे कार्य करती हैं, न
करवाती हैं और न ही अनुमोदना कर सकती हैं। इतना ही नहीं, ऐसे
पवित्र कार्यों की निन्दा करने वाली आत्माएं भी मौजूद है। ऐसी अधम आत्माएं बहुत ही
दया की पात्र हैं,
क्योंकि वे बेचारे अपनी आत्मा के लिए अपनी प्रवृत्तियों से
कई प्रकार की विडम्बनाएं उपस्थित कर रहे हैं और उसका उन्हें कोई मलाल भी नहीं है।
ऐसी अधम आत्माएं दया की पात्र हैं। हम चाहते हैं कि वे भी तीर्थयात्रा की महिमा को
समझें, तीर्थ की आराधना करें और अपनी आत्मा का उद्धार करें। ऐसी दयाभावना से हो सके
तो उन्हें उन्मार्ग से सन्मार्ग की ओर लाने का प्रयास करना चाहिए, साथ
ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि उनकी दुष्ट प्रवृत्ति के कारण दूसरी आत्माएं
तीर्थ सेवा से वंचित न रह जाएं और वे तीर्थों के संबंध में झूठे खयाल न फैला पाएं।-आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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