मंगलवार, 31 मार्च 2015

बुद्ध की शुद्ध मन से शुभकामनाएँ !


आज बुद्ध की शुद्ध मन से शुभकामनाएँ !

पहली अप्रैल की भी शुभकामनाएँ !

नए वित्तीय वर्ष की भी शुभकामनाएँ !

आज अप्रैल फूल न बनें, इसके लिए भी शुभकामनाएँ !

बहुत हो गया न ?

दरअसल आजकल बात-बेबात शुभकामनाएं प्रकट करने, देने का कुछ अजीबोगरीब फैशन चल गया है। पिछले दिनों जीवन में पहली बार शीतला सप्तमी की शुभकामनाएं मिली। आपको शीतला सप्तमी की हार्दिक शुभकामनाएं! फिर तीन दिन बाद आपको दशामाता की बहुत-बहुत शुभकामनाएं! इसके बाद आपको गणगौर की बहुत-बहुत बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं! वाह ! क्या बात है!! मुझे लगता है अच्छे दिन आ गए हैं। हम भारतीयों की उदारता जगजाहिर हो रही है। क्यों नहीं सप्ताह के सातों दिन हर दिन की शुभकामना दी जाए। आपको सोमवार की हार्दिक शुभकामनाएं! आपके लिए मंगलवार का दिन मंगलकारी हो! इसी तरह.......। और एकम, बीज, तीज.......चौदस......अमावस की भी शुभकामनाएं कि आप अमावस के अंधकार से मजबूती के साथ लोहा ले सकें और पूर्णिमा का प्रकाश प्राप्त कर सकें। एक तारीख, दो तारीख......और इगत्तीस तारीख की भी शुभकामनाएं दी जा सकती हैं। दरअसल इस आर्यदेश, आर्य संस्कृति में तो हर घडी, हर पल के लिए शुभकामनाओं का प्रावधान है, बशर्ते उसमें दिखावा, प्रदर्शन, आडम्बर, छलावा, स्वार्थ या औपचारिकता न हो, किसी के अधिकारों का हनन न हो, दिल से प्राणीमात्र के लिए शुभकामनाएं हो!-मदन मोदी

धर्म में विघ्न भयंकर दुःख का कारण



एकान्त हितकर मार्ग के प्रति भी वे ही लोग सुश्रद्धालु बन सकते हैं, जो सुन्दर भवितव्यता को धारण करने वाले होते हैं। सन्मार्ग के प्ररूपक सद्गुरु का योग प्राप्त होना, यह बहुत ही कठिन है। और प्राप्त हुआ योग भी फलदायी होना, यह तो उससे भी अधिक कठिन है। सन्मार्ग की रुचि उत्पन्न होने में लघुकर्मिता परमावश्यक वस्तु है। परन्तु, ऐसे भी जीव इस संसार में विद्यमान हैं, जो जीव सद्गुरु के कथन की हंसी उडाने में ही आनंद मानते हैं। ऐसे जीवों को सन्मार्ग का कथन फलेगा किस प्रकार से? आज का वातावरण तो देखो। आज सद्गुरुओं के वचनों की मजाक करना, यह तो सामान्य बात हो गई है। ऐसे को सद्गुरु का योग सफल हुआ या फूट गया? ऐसे लोगों का भविष्य तो निःसंदेह अंधकारमय और दुःखमय ही है।

आज कितने ही जीव सन्मार्ग के आराधकों को त्रास देने के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। स्वयं से आराधना नहीं होती हो तो दूसरों की आराधना में विघ्नकर क्यों बनना चाहिए? ये एकदम झूठे लोग भी विरोध करने की धुन में आज क्या लिख रहे हैं और क्या बोल रहे हैं? समाज-हित के नाम से ऐसी धमाल हो सकती है? तूफान स्वयं मचाना और दोष साधुओं को देना, इसका क्या अर्थ है? जिनमें प्रामाणिकता नाम की कोई चीज नहीं, वे गाली और कलंक न दें तो क्या करें? उनका मकसद एक ही है कि लोगों को किसी भी प्रकार से धर्मस्थानों में आने से रोकना। इस रीति से धर्म के सामने उत्पात मचाने वालों का हम भले ही बुरा न चाहें, उनका भी कल्याण हो, यही अभिलाषा है; परन्तु उनके पाप से उनका बुरा न हो, यह संभव नहीं है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 30 मार्च 2015

मोह-ममत्व ही दुःख का कारण



दुनिया में हजारों लोग प्रतिदिन मरते हैं, लेकिन क्या सभी के मरने का दुःख हमें होता है? किसी की अकाल मृत्यु सुनकर दया भावना के कारण क्षणिक दुःख-संवेदना हो, इसे छोड दीजिए तो बाकी दूसरा कोई मृत्यु को प्राप्त होता है तो दुःख नहीं होता है, जिसको अपना मान लिया हो, वैसा कोई मृत्यु को प्राप्त हो तो दुःख होता है। तब सोचिए कि इस दुःख को उत्पन्न करने वाला मरण है या ममत्त्व? जहां ममत्त्व नहीं है, वहां दयाभावना प्रकट हो अथवा कोई उपकारी चला जाए और इससे दुःख हो, यह बात पृथक है। किन्तु, इसके अतिरिक्त तो जिसके प्रति ममत्त्व नहीं है, उसकी मृत्यु से दुःख नहीं होता है, यह बात निश्चित है। पुत्र-पुत्री का मरण, माता-पितादि का मरण, संबंधियों का मरण, मोह के घर का दुःख उत्पन्न करता है। कारण कि यहां ममत्व बैठा हुआ है। तब इस दुःख में मुख्य कारण मरण है या ममत्व? यह ममत्व निकल जाए तो ऐसे मरण के कारण भी मोह के घर का दुःख उत्पन्न नहीं होगा, यह सुनिश्चित बात है। इसी प्रकार स्वयं के शरीर का ममत्व भी दूर हो जाए तो? स्वयं के शरीर पर आपत्ति आए, स्वयं का शरीर रोग से घिर जाए, ऐसे समय में समभाव को स्थिर रखने के लिए सहनशीलता की विशेष अपेक्षा रहती है। सामर्थ्यहीन जीव वैसे अशुभोदय के समय में असमाधि को प्राप्त हो जाते हैं, यह असंभव वस्तु नहीं है। सच्चा साधु स्वयं के शरीर को भी पर मानने वाला होता है। इस कारण वह प्रत्येक स्थिति में समभावजनित सुख का अनुभव कर सकता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 29 मार्च 2015

लालसा सर्वविरति की हो



कर्मलघुता को नहीं पाए हुए आत्माओं को अनन्त उपकारियों द्वारा कथित कल्याणकारी बातें भी न रुचें तो यह स्वाभाविक है। इसलिए भगवान ने गृहस्थ धर्म का भी उपदेश दिया है, किन्तु गृहस्थाश्रम में रहने का तो उपदेश कतई नहीं दिया है। गृहस्थावस्था का त्याग करके संयमी बनना, यह जिन आत्माओं के लिए शक्य नहीं है, वे आत्माएं भी आत्मकल्याण की साधना से सर्वथा वंचित न रह जाएं और वे भी क्रमशः सुविशुद्ध संयममय जीवन वाले बन सकें, इसीलिए ही भगवान ने गृहस्थ धर्म का उपदेश दिया है। उपकारकगण स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि देशविरति धर्म का भी सच्चा आराधक वही है, जो सर्वविरति धर्म की लालसा वाला हो।

गृहस्थावस्था को कल्याण का कारण मानने वाले अथवा गृहस्थावस्था में रचेपचे एक भी आत्मा को किसी काल में केवलज्ञान न हुआ है और न होने वाला है। गृहस्थावस्था में रहते हुए कल्याण की साधना वाले तो वे ही बन सके हैं और बन सकते हैं कि जो गृहस्थावास को हेय मानें और श्री जिनाज्ञानुसार संयमशील बनने में ही कल्याण मानने वाले बनें, असंयम का पश्चाताप करें और संयम का अनुसरण करें।

निर्मल श्रद्धा ही सुखकारी

वर्तमान में सुख का अनुभव करने के साथ ही, भावीकाल को भी सुखमय बनाने का एकमात्र यही मार्ग है कि अनन्तोपकारी, अनंतज्ञानी श्री जिनेश्वरदेवों द्वारा प्रतिपादित यथावस्थित मुक्तिमार्ग के प्रति निर्मल श्रद्धा धारण करो और इस मार्ग की आराधना में ही दत्तचित्त बनो। जो निर्दोष और उसके उपरांत अनुपम सुख का अनुभव छः खण्ड के अधिपति चक्रवर्ती भी नहीं कर सकते और देवों के अधिपति इन्द्र भी नहीं कर सकते हैं, उस सुख का अनुभव सच्चे निर्ग्रन्थ कर सकते हैं। साधु साधुपन को प्राप्त हो तो जितने अंश में साधुपन की सुन्दरता होगी, उतने ही अंश में वह सुख का अनुभव कर सकता है। आज्ञाविहित मार्ग में समभाव से मस्त रहने वाले को बाह्य कारण दुःख उत्पन्न नहीं कर सकते। चक्रवर्ती या इन्द्र आदि को ऐसा समाधिसुख, इन्द्रत्व या चक्रवर्तीत्व से भी संभव नहीं है। आहार मिले, न मिले, मान मिले या अपमान, स्वागत हो या तिरस्कार, दोनों स्थितियों में पुण्य-पाप के उदय को समझने वाला समभाव में ही रहता है, यह सुख कोई सामान्य कोटि का नहीं है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 28 मार्च 2015

जिनशासन का साधु महासुखी



संसार त्यागी सांसारिक भोगों का अर्थी कतई नहीं होता है। जो मोक्ष के लिए ही आज्ञाविहित जीवन जीता है, वही सच्चा त्यागी है और वह ही त्याग का सुख अनुभव कर सकता है। संसार का त्यागी यदि संसार का अर्थी होगा तो वह महादुःखी होगा, बाकी तो उसके जैसा कोई इस जगत में सुखी नहीं है। सच्चा साधु स्वयं अनन्तज्ञानी श्री जिनेश्वर देव की आज्ञा की आराधना करके स्वयं के आत्म-स्वभाव के प्रकटीकरण का समय निकट ला रहा है और अनन्त जीवों को अभयदान दे रहा है। ऐसे विचार से भी श्री जिनशासन का साधु महासुखी होता है। इससे स्पष्ट है कि श्री जिनशासन का साधु तो स्वयं के त्याग का फल त्याग के साथ ही भोगना चालू करता है। उसको संयम कष्टरूप नहीं लगता है। सच्चे साधुओं को कठोर तपस्या वाला संयम भी तकलीफरूप नहीं ही लगता है। दुनियादारी के भोग के पदार्थों का संग्रह नहीं और उसका रस भी नहीं, इसलिए उसको उन पदार्थों को प्राप्त करने की, रक्षण करने की या बढाने की चिन्ता होती नहीं है। साथ ही लुटजाने जैसी कोई चीज नहीं कि जिससे हृदय को आघात हो और रोना पडे। उनको शोक के समाचार आने वाले नहीं हैं, शारीरिक वेदना या उपसर्ग-परिषह के समय समभाव में रहने का प्रयत्न करते हैं, इसलिए समाधि रहती है। संयम का यह तो प्रत्यक्ष फल है न?

जिनाज्ञा पालन में ही सच्चा हित

संयम के सच्चे अर्थी संसार को दावानल आदि रूप मानने वाले होते हैं। इसीलिए वे किसी को भी संसार में रहने की प्रेरणा करें ही क्यों? उनकी भावना तो सब कोई संयम के उपासक बनकर संसार को छेदन करने वाले बनें, यही होती है। आत्मा के स्वरूप को प्रकट करने के ही एकमात्र हेतु से, श्री जिनाज्ञा के अनुसार संयमी बनने का ही एकमात्र ध्येय मनुष्य मात्र का होना चाहिए। इससे विपरीत ध्येय हो तो आत्मा का अहित हुए बिना नहीं रहेगा, यह निर्विवाद बात है।

जीवन में शक्यता के अनुसार श्री जिनाज्ञा का पालन करने में ही सच्चा हित समाया हुआ है। इसलिए जो संसार का त्याग नहीं कर सकते हों, वे भी गृहस्थावस्था में जितने अंशों में श्री जिनाज्ञा का पालन करने के लिए प्रयत्नशील बन सकें, उतने अंशों में कल्याण को प्राप्त कर सकते हैं। इस कारण से श्री जिनाज्ञा के अनुसरण में ही सर्वस्व को मानने वाले साधुओं का उपदेश इसी ध्येय वाला होना चाहिए।

संसार में रहने की इच्छा वाले जीवों के लिए सच्चे साधुगण बेकार जैसे ही होते हैं। कारण कि संसार में रहने के लिए वे मददगार नहीं बन सकते। सच्चे साधुगण तो संसार से मुक्त बनने में ही मददगार होते हैं। ऐसा होने पर भी, साधुगण स्वयं की तरफ से संसार के जीवों को जो अभय प्रदान करते हैं, उससे तथा योग्य आत्माओं में संसार से मुक्त होने की भावना को प्रकट करने के लिए जो शक्य प्रयास करते हैं, इत्यादि से विश्व के प्राणीमात्र के उपकारी तो हैं ही।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 27 मार्च 2015

धन्य है वह कवि और धन्य है उसकी पुत्री



कवि धनपाल राजा भोज का कवि तथा पंडित था। एक बार राजसभा में उसकी अनुपस्थिति देखकर राजा ने इसका कारण पूछा तो बताया गया कि "वह एक ग्रंथ लिख रहा है"। बात भी सही थी कि वह "तिलकमंजरी" नामक ग्रंथ लिख रहा था। उसमें भगवान श्री ऋषभदेव स्वामी का जीवन था। देवस्थान पर वे थे, राजा के स्थान पर भरत थे और नगरी के वर्णन में विनिता नगरी थी। राजा ने वह ग्रंथ पूरा होने पर सुनने की इच्छा जताई। उद्यान में बैठकर धनपाल ने राजा को वह पूरा ग्रंथ सुनाया।

भोजराजा की मांग और धनपाल का जवाब :

ग्रंथ सुनकर भोज खुश हो गया। उसने कवि को कहा कि "कविराज! ग्रंथ तो बहुत ही अच्छा है, किन्तु इसमें तुझे तीन बदलाव करने होंगे। ऋषभदेव के स्थान पर मेरे इष्टदेव का नाम लिख, भरत के स्थान पर "भोज" कर और विनिता के स्थान पर "धारा नगरी" कर दे।" धनपाल राजा भोज के अनुदान से जीवन निर्वाह करता था, तब भी उसने तुरंत कह दिया कि "राजन्! आपकी बुद्धि ठिकाने नहीं है। यदि इस प्रकार बदलाव करूंगा तो मैं मृषाभाषी कहलाऊंगा और पूरा ग्रंथ ही बेकार हो जाएगा। कहां ऐरावत हाथी और कहां प्रजापति का हाथी?" धनपाल कितनी नीडरता पूर्वक कहता है? प्रजापति का हाथी इसलिए राजा का भी हाथी हुआ और कुंभार का गधा भी हुआ। यहां उसने राजा को गुस्सा होकर कहा है, इसलिए दूसरे अर्थ में ही समझना होगा। केवल हाथी कहता तो हाथी ही समझा जाता, लेकिन प्रजापति का हाथी कहने पर तो गधा ही समझना पडेगा। जब सामनेवाले को सीधा "मूर्ख" नहीं कहना हो तो संस्कृत साक्षरों ने "देवानांप्रिय" शब्द रखा है। ये दो शब्द अलग रखें तो तो "देवों को प्रिय" यह अर्थ होता है, किन्तु अलग न करें तो "मूर्ख" ऐसा अर्थ होता है। सामनेवाला तो समझे कि मुझे अच्छा कहा है, जबकि कहनेवाले ने उसे "मूर्ख" कहा।

राजा का कोप और ग्रंथ का नाश :

आगे बढकर धनपाल कहता है कि "राजन् ! कहां ऐरावत और कहां गधा ! कहां चिंतामणि रत्न और कहां कांच का टुकडा ! कहां सुवर्ण और कहां कथीर! कहां मेरे इष्ट ऋषभदेव और कहां आपके जगत संहारक देव ! कहां महाराजा भरत और कहां भोज ! कहां देवताई नगरी जैसी विनिता और कहां झूंपडेवाली आपकी धारा !" यह सुनकर राजा को भारी क्रोध चढा और सामने तप सुलग रहा था, उसमें पुस्तक को डाल दिया। देखते ही देखते ग्रंथ भस्मीभूत हो गया। "विनाशकाले विपरीत बुद्धि" कहकर धनपाल वहां से चला गया। उदास हृदय से घर आया। वर्षों की मेहनत पर पानी फिर गया। वह अत्यंत दुःखी हो गया। भोजन भाता नहीं। अब उसके भोजन गले उतरेगा? नहीं ही उतरता है।

ग्रंथ की पुनर्रचना :

पिता को गमगीन देखकर पुत्री तिलकमंजरी ने इसका कारण पूछा। धनपाल ने पुत्री को सारी हकीकत कह सुनाई, तब पुत्री ने कहा कि "पिताजी! चिंता मत करिए। आप लिख रहे थे तब मैं उत्सुकतावश रोज इस ग्रंथ को पढती थी, इस कारण से मुझे यह पूरा ग्रंथ मुँह पर शब्दशः याद है। आपको यह पूरा ग्रंथ मैं दुबारा लिखवा देती हूं।" पुत्री की यह बात सुनकर पिता खुश हो गए। पूरा ग्रंथ दुबारा से लिखा और पुत्री के नाम से ही इस ग्रंथ का नाम "तिलकमंजरी" रखा। इसका नाम है जैनत्व की खुमारी।-सूरिरामचन्द्र

जो ‘ठकुर सुहाती’ करे वह साधु नहीं



यह रजोहरण (ओघा) तो विश्वास का धाम है। इसे देखकर सब मस्तक नमाने आते हैं। यह जिसके हाथ में होता है, उसे हर घर में जगह मिल जाती है। ओघा ऐसा विश्वास पैदा करता है कि इसे रखने वाला रूप, रस, गंध, स्पर्श में से एक का भी चोर नहीं होता। इस विश्वास का भंग हो, ऐसा जो करता है, वह कितने पाप बांधता है? मुनि तो स्वयं तिरता है और दूसरे को तारता है, परन्तु जो इस वेश के प्रति वफादार नहीं रहता, वह स्वयं मरता है और दूसरे को मारता है। यह जमानावाद तात्कालिक स्वाद है, पेट में जाकर गडबड करने वाला है, जहर फैलाने वाला है। जो आपको रुचिकर बातें कहें, उनका भक्त कभी मत बनना। त्यागी होकर भी जो आपको मान दे, उससे सावधान रहना। समझना चाहिए कि उसके त्याग में कहीं पोल है। साधु ठकुर सुहातीनहीं कहता, वह तो शास्त्रानुसारी खरी-खरी कहता है। वह न तो स्वयं चापलूसी करता है और न ही अपनी चापलूसी करने वालों को गोद में बिठाता है। जिस शास्त्र के आधार पर कुटुम्ब-कबीला छोडा, घरबार छोडा, मां-बाप छोडे, उस शास्त्र की बात आए वहां शास्त्र की बात बीच में न लावें’, ऐसा बोला जा सकता है क्या? ऐसा बोलने वाले वेश पहिनने के और साधु कहलाने के अधिकारी नहीं हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 26 मार्च 2015

सम्पन्न ऋद्धि और दरिद्री तृष्णा त्यागें



धर्मदेशक ऋद्धि सम्पन्न को ऋद्धि का त्याग करने को कहे और दरिद्री को तृष्णा छोडने के लिए कहे। अपने पास जो हो उसका त्याग करना और तृष्णा का त्याग करना, यही कल्याणकारी है। ऐसा धर्मदेशक, ऋद्धि सम्पन्न और दरिद्री दोनों को कहता है। ऋद्धि सम्पन्नता में कल्याण और दरिद्रता में अकल्याण, ऐसा ज्ञानी नहीं कहते हैं। ऋद्धिसम्पन्न मूर्च्छादशा में और दरिद्री तृष्णा में मर जाता है, तो दोनों का अकल्याण होता है। ऋद्धि वाले का वर्णन आए तब उसका विवेचन भी इस दृष्टि से करना चाहिए कि जिससे श्रोतागण ऋद्धि के लोलुप न बनें, अपितु ऋद्धि की चंचलता को समझें तथा वैराग्य-भाव में रमण करें। कथानुयोग बांचने वाले धर्मदेशक श्रोता के अन्तर में विषय-विराग की भावना जन्म ले, कषाय-त्याग करने की वृत्ति हो, आत्मा के गुणों के प्रति अनुराग बढे और आत्मा के गुणों को विकसित करने वाली क्रियाओं में भी जुडे रहने की अभिलाषा प्रकट हो, इसी रीति से वांचन करना चाहिए। उस रीति से वांचन करते हुए भी श्रोता की अयोग्यता से दूसरा परिणाम आए तो भी धर्मदेशक को तो एकान्तरूप से लाभ ही होता है। इसी प्रकार श्रोताओं को भी धर्मकथा का श्रवण इसी इच्छा से करना चाहिए कि मेरे में विषय के प्रति वैराग्य हो, कषाय त्याग की वृत्ति सुदृढ बने। आत्मा के गुणों के प्रति सच्चा अनुराग विकसित हो और आत्मा के गुणों को विकसित करने वाली क्रियाओं में मेरा जितना प्रमाद है वह दूर हो।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 25 मार्च 2015

धर्मार्थी सावधान रहे


धर्मार्थी सावधान रहे

शासन बांझ नहीं है। आज जैन समाज की चाहे जैसी दुर्दशा हुई हो तो भी कोई सुसाधु, सुसाध्वी, सुश्रावक और सुश्राविका नहीं है, ऐसा कोई भी श्रद्धालु कह नहीं सकता। विषम काल में आराधना करने की इच्छा रखने वालों को विशेष सावधान रहना चाहिए। बाजार में जब उथल-पुथल चलती हो, तब व्यापारी कितना सावधान रहता है? उस वक्त वह खाना-पीना भी भूल जाता है और टेलीफोन को सिर पर रखकर नहीं जैसा ऊंगता है। खाते-पीते और चलते-फिरते भी उसे बाजार की चिन्ता रहती है। उसी प्रकार यहां भी उथल-पुथल चलती हो तब धर्मार्थी को विशेष चतुर होना चाहिए। बाजार में जैसे लक्ष्मी का अर्थीपन है, वैसा ही अर्थीपन धर्म में भी आ जाए तो सच्चे और खोटे का, अच्छे और खराब का परीक्षण न हो सके, ऐसा कुछ नहीं है। किन्तु, खोटे को छोडकर सच्चे की शरण में जाने की भावना हो तो ही ऐसा संभव होता है। कितनी ही बार निर्दोषों को भी दोषी मानने की भूल हो जाती है। ऐसी बातों से पवित्र, त्यागी और पूज्य जैन साधु-संस्था के लिए इतरों के हृदय में भी दुर्भावना पैदा हो जाती है तथा बाल-जीव धर्म से वंचित रह जाते हैं। इसलिए कदाचित् ऐसा प्रतीत होता हो तो उसको सुधार लेने का शक्य प्रयत्न करना चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 24 मार्च 2015

सभी वेशधारी वंदनीय नहीं होते



साधु को आप हाथ जोडते हैं, वंदन करते हैं, उनका स्वागत करते हैं और उनकी भक्ति करते हैं; इन सबके पीछे रहे हुए हेतु को बराबर समझना चाहिए। आज अधिकांश लोग इस कीमत को भूल गए हैं। इसलिए वे बडे आराम से कह देते हैं कि हमारे लिए तो सभी समान हैं और सभी पूज्य हैं। आज अधिकांश लोग कह देते हैं कि भगवान का वेश तो है न!किन्तु यह विचार नहीं करते कि नाटकीय पात्र राजा का वेश धारण करे, उससे राजा नहीं बन जाते और प्रजा भी उन पात्रों को राजा मान कर सम्मान नहीं देती है। राजा के समान या अधिकारी मानकर मान देने वाले मात्र उनके वेश को नहीं देखते, अपितु यह राजा है या नहीं, अधिकारी है या नहीं ऐसा भी देखते हैं। वेश की कीमत है, वेश की आवश्यकता है, किन्तु अकेले वेश से काम नहीं चलेगा, गुण तो होना ही चाहिए। आपको यह निश्चित करना है कि श्री जिनेश्वर देव के साधु की भक्ति भी संसार से छूटने के लिए ही करना है। इसलिए आडम्बरियों और ढोंगियों की पहचान के लिए उनकी ध्यानस्थ दशा देखो, ध्यानमग्नता देखो, मुख ऊपर की निर्दोषता देखो, उनकी दृष्टि और उनके प्रसंग देखो, उनके आचार-विचारों से सहज ही पता चल सकता है कि वे सच्चे साधु हैं या कि ढोंगी महाराज? इसके लिए पूरी गहराई से खोज करनी चाहिए और वे साधुता पर खरे उतरते हों तभी उनके प्रति पूरे समर्पण भाव से वंदन-व्यवहार करना चाहिए। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 23 मार्च 2015

संयम-साधना सहज बात नहीं है



कुछ लोग अपनी अज्ञानता के कारण तो कुछ षडयंत्र के तहत ऐसा दुष्प्रचार करते हैं कि क्या करे? बिचारे दुःखी थे, इसलिए दीक्षा ली।ऐसा बोलने वाला अपनी आँखों के सामने हजारों दुःखियों को देखता है, उन सबको वैराग्य नहीं आता। फिर भी इस प्रकार की बात उसके मुँह से कैसे निकलती है? ऐसी बातें करने वाले खुद बाजार में रोटी के टुकडों के लिए घूमने वाले होते हैं, गधा मजदूरी करके पाप कर्म से पेट भरने वाले होते हैं। पेट भरने के लिए दीक्षा नहीं ली जाती। जो ऐसा बोलते हैं कि बेचारा दुःखी था, पेट भरने का साधन नहीं था, इसलिए दीक्षा ले ली, वे वास्तव में भयंकर पापात्मा हैं। उन लोगों को अपना पेट भरने के लिए चाहे जैसे निर्दयी काम करते हुए भी शर्म नहीं आती है। ऐसा कहने वाले पापात्माओं को भागवती दीक्षा या धर्म के ऊपर तनिक भी प्रेम नहीं होता है। मांग कर लाना और मिले उससे पेट भरना। मिले तो खाना, न मिले तो पूरी मन की प्रफुल्लता से तप करना और संयम पालना, यह कोई सहज वस्तु नहीं है। यदि यह सहज होता तो बदमाशी करके पेट भरने वाले उन लोगों ने कभी का वेश पहनकर यह कपटपूर्ण प्रयत्न किया ही होता।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 22 मार्च 2015

अनाचार से विवेकपूर्वक बचें



विवेकवान, कुशल व्यक्ति दम्भी आदमियों के दम्भ को निष्फल कर देते हैं, किन्तु पुण्य होता है और लोक का दुर्भाग्य होता है तो लोग दम्भियों के आगे समझदार की भी अवगणना कर देते हैं। उस अवसर में अज्ञानी लोग समझदार लोगों को भी बेवकूफ मानते हैं। इसीलिए लोकप्रवाह के अनुसार नाचना हितप्रद नहीं है। खोजकर, बुद्धि को विवेकमय बनाकर, यथार्थ कल्याणकारी मार्ग का अनुसरण करने का प्रयत्न करना चाहिए। आज का वात्याचक्र विचित्र है। आज के वात्याचक्र से विवेकशील आत्माएं ही बच सकती हैं। कारण कि आज बहुत ही योजनाबद्ध ढंग से अनाचार का प्रचार हो रहा है। आज परोपकार की बातें करके, अनाचार के मार्ग में प्रेरित करने के प्रयास हो रहे हैं। अहिंसा और सत्य के नाम से हिंसा और मृषावाद की ऐसी ही प्रवृत्तियां हो रही हैं। एक तरफ द्वेष करना नहीं, क्रोध करना नहीं, इत्यादि कहा जाता है और दूसरी तरफ दुनिया की सत्ता आदि का लोभ बढे, इस प्रकार के प्रयत्न हो रहे हैं। ये लोभ और क्रोध को बढाते हैं या घटाते हैं? अहिंसा का पालन कब होता है? पहले तो हिंसा की जड की तरफ तिरस्कार होना चाहिए। अर्थ और काम की लालसा, पौद्गलिक सुखों की अभिलाषा यह हिंसा की जड है। जब तक पौद्गलिक सुखों की अभिलाषा से हृदय ओतप्रोत रहेगा, वहां तक सच्ची अहिंसा आए, ऐसा शक्य ही नहीं है। समझदार कभी लोक प्रवाह में नहीं बहता। वह सम्पूर्ण विवेक के साथ आत्मा के हिताहित का चिन्तन करते हुए आगे बढता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 21 मार्च 2015

लोक-प्रवाह में न बहें



लोकवाद की शरण में रहने से धोबी के कुत्ते जैसी दशा होती है। धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का’, उसी प्रकार लोकप्रवाद की शरण में रहने वाला स्वयं न तो अपना सुधार कर सकता है और न दूसरों का सुधार कर सकता है, उसकी तो दोनों ओर अवगति ही होती है। लोक की गति हवा जैसी है, लोग हवा के प्रवाह के साथ चलते हैं। पवन एक दिशा में नहीं बहता है, उसी प्रकार लोग भी एक दिशा का आग्रह नहीं रखते हैं। वे तात्कालिक रूप से सुविधावादी होते हैं। उनको जिस प्रकार का निमित्त मिल जाता है, उसी में ढल जाते हैं। वे प्रायः अनुस्रोतगामी होते हैं और बहाव के साथ बहते हैं। लोकप्रवाद प्रमुखतः हिताहित और तथ्यातथ्य आदि के विवेक पर निर्भर नहीं होता है। इसीलिए कहा जाता है कि केवल लोकवाद के ऊपर से किसी वस्तु का निष्कर्ष निकालना, यह मूर्खता है। लोक में भी कहा जाता है कि दुनिया झुकती है, झुकाने वाला चाहिए’, इसी कारण से इस दुनिया में भयंकर दुराचारी भी आडम्बर से पूज्य माने जाते हैं। दम्भी कुशल हो और उस प्रकार के पुण्य वाला हो तो वह लगभग सम्पूर्ण दुनिया को भी बेवकूफ बना सकता है। इसलिए हवा के साथ नहीं, अपने विवेक से जिनाज्ञा को सामने रखकर चलें।

दशवैकालिक सूत्र की चूलिका में प्रभु महावीर की वाणी है-

अणुसोय-पट्ठिए+बहुजणम्मि पडिसोयलद्धलक्खेणं ।

पडिसोयमेव अप्पा, दायव्वो होउकामेणं ।।

अणुसोयसुहो लोगो, पढिसोओ आसवो सुविहियाणं ।

अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स उत्तारो ।।

तम्हा आयारपरक्कमेण संवर-समाहि-बहुलेणं ।

चरिया गुणा य नियमा य, होंति साहूण दट्ठववा ।।

‘(नदी के जल-प्रवाह में गिर कर प्रवाह के वेग से समुद्र की ओर बहते हुए काष्ठ के समान) बहुत-से लोग अनुस्रोत (विषय प्रवाह के वेग से संसार-समुद्र) की ओर प्रस्थान कर रहे (बहे जा रहे) हैं, किन्तु जो मुक्त होना चाहता है, जिसे प्रतिस्रोत (विषय-भोगों के प्रवाह से विमुख-विपरीत हो कर संयम के प्रवाह) में गति करने का लक्ष्य प्राप्त है, उसे अपनी आत्मा को प्रतिस्रोत की ओर (सांसारिक विषय भोगों के स्रोत से प्रतिकूल) ले जाना चाहिए।

अनुस्रोत (विषय-विकारों के अनुकूल प्रवाह) संसार (जन्म-मरण की परम्परा) है और प्रतिस्रोत उसका उत्तार (जन्म-मरण के पार जाना) है। साधारण संसारी जन को अनुस्रोत चलने में सुख की अनुभूति होती है, किन्तु सुविहित साधुओं के लिए प्रतिस्रोत आस्रव (इन्द्रिय-विजय) होता है।

इसलिए (प्रतिस्रोत की ओर गमन करने के लिए) आचार (-पालन) पराक्रम करके तथा संवर में प्रचुर समाधियुक्त हो कर, साधुओं को अपनी चर्या, गुणों (मूल-उत्तर गुणों) तथा नियमों की ओर दृष्टिपात करना चाहिए।

प्रवाह के साथ गेंडे-भेडें चलती है, केवल मरी मछलियां ही बहाव के साथ बहती हैं। धारा के साथ तो हर कोई सुविधावादी मूर्ख चलता-बहता है। महापुरुष धारा के प्रवाह में नहीं बहते। धारा के विपरीत चल कर अपना एक अलग मुकाम बनाने वाले, अपनी अलग पहचान बनाने वाले बिरले ही महापुरुष होते हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 20 मार्च 2015

धर्म के नाम पर अधर्म



आजकल धर्म के नाम पर अधर्म की बहुत-सी बातें चल रही हैं। अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त के नाम से यथेच्छ भाषण करने वालों को अपनी मर्यादा का भान नहीं है। अहिंसा और अपरिग्रह के सिद्धान्तों में जिसे श्रद्धा हो और उसमें यदि सामर्थ्य हो तो उसे साधु बन जाना चाहिए। यदि इतनी शक्ति न हो तो सम्यक्त्व मूलक व्रत लेना चाहिए। यदि यह भी न बन पडे तो सारा संसार छोडने योग्य है और यदि शक्ति प्रकट हो तो छोड दूं, ऐसी भावना को विकसित करके सम्यक्त्व को तो स्वीकार करना ही चाहिए। अनेकान्त की बात करने वाले को मालूम नहीं कि अनेकान्त को अपनाने वाले को तो मुंह पर ताला लगाना होगा, वचन तोल-तोल कर बोलने होंगे। आज अनेकान्त के नाम पर मनमाना लिखने और बोलने वालों ने तो लगभग अनेकान्त का खण्डन ही किया है। अनेकान्तवादी झूठे और सच्चे दोनों को सच्चा नहीं कहता। उसे तो झूठे को झूठा और सच्चे को सच्चा कहना ही पडेगा। अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त को जीवन में उतारने वाली जैन शासन की साधु संस्था को आप देखेंगे तो आपको लगेगा कि दुनिया की सब संस्थाओं की तुलना में यह साधु संस्था अब तक बहुत अच्छी है। भगवान की अहिंसा तो मोक्ष प्राप्ति के लिए ही है। किसी का कुछ छीन लेने के लिए, किसी के साथ कपट करने के लिए अथवा भौतिक स्वार्थ साधने के लिए अहिंसा शब्द का उपयोग करना महापाप है।

अधर्म का खण्डन जरूरी

दीपक यदि काला-सफेद न बताए तो कौन बताएगा? हितैषी यदि सज्जन-दुर्जन की पहचान न कराए तो कौन कराएगा? धर्म में अच्छे-बुरे का विवेक यदि ज्ञानी नहीं समझाए तो कौन समझाएगा?

आज के बात-चतुर मंडन की बातें बहुत करते हैं। वे कहते हैं खण्डन-खण्डन क्या करते हो?’ परन्तु मेरा कहना है कि खण्डन के बिना मंडन नहीं होता। खोदे बिना निर्माण कार्य नहीं होता। थान फाडे बिना कपडे नहीं सिले जा सकते। अधर्म के खण्डन बिना धर्म का मण्डन नहीं हो सकता।

अनीति नहीं करें

मोक्ष में जाने के लिए हमें कैसा जीवन जीना चाहिए? यह हमें भगवान ने सिखाया, इसी तरह साधु बनने के लिए आपको कैसा जीवन जीना चाहिए, यह भी भगवान ने सिखाया है। जैसे श्रावक भीख मांग कर पेट नहीं भरता, वैसे अनीति करके घी-केला भी नहीं खाता। वह सत्य और त्याग के मार्ग पर चलता है। संसार का प्रत्येक सुख चाहे वह कषाय जनित हो या विषय जनित हो, मैथुन में आ जाता है। मैथुन में पाप है, ऐसा जो नहीं समझ पाया, उसे संसार असार लगता है, ऐसा कैसे कहा जाए? पौद्गलिक सुख बुरा न लगे और पौद्गलिक दुःख सहन करने योग्य न लगे तो नवकार से लेकर नवपूर्व तक पढ लेने पर भी वह अज्ञानी रहता है और वह विरति की ऊंची में ऊंची क्रियाएं करे तो भी उसमें गाढ अविरति ही होती है। शास्त्र में लिखा है कि इस काल में पढे-लिखे अज्ञानी बहुत होंगे। साधुवेश में रहे हुए अविरति वाले बहुत होंगे, सम्यक्त्वी क्रिया करने वाले मिथ्यात्वी बहुत होंगे। अतः हमें सावधान रहना है और जैन धर्म को लजाने वाले अनीति के मार्ग से बचना है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 19 मार्च 2015

हम अपने संस्कारों का विचार करें



आज जैन समाज की कैसी दुर्दशा है? यह गंभीर चिन्तन एवं चिंता का विषय है। जैन कुल में जन्में लोगों की सारी गतिविधियां, व्यवहार और विचार जिनाज्ञा के विपरीत परिलक्षित होते हैं। पुत्र माता-पिता की आज्ञा नहीं मानता, भाई-भाई को नहीं मानता, भाई-बहिन के बीच खटास चलती है, देरानी-जेठानी के झगडे जगजाहिर होते हैं, चोरी, तस्करी, मिलावट, खोटे धंधे, खान-पान सब में जैन समाज बदनाम। ऐसी स्थिति आने के कारण पर क्या कभी आपने विचार किया है? जैन कुल में जन्म लिए हुए स्त्री-पुरुषों की ऐसी हीन दशा क्या कम दुःख का विषय है? जैन कुल के संस्कार पूर्ण रूप से जिन्दे और जागृत हों तो क्या ऐसी स्थिति कभी आ सकती है? श्री जिनेश्वर के उपासक, निर्ग्रन्थ गुरुओं के सेवक और अनंत ज्ञानियों द्वारा उपदिष्ट धर्म के पालक जैन, संसार में भी इसी प्रकार से जीवित रहने वाले होते हैं कि जिनकी जीवन की कथनी और करनी देखकर, अजैन लोगों को भी ऐसा लगता है कि- जैन जैन ही हैं। इनके आचार और विचारों को कोई पहुंच नहीं सकता, इनकी जोडी नहीं मिलती है। इसीलिए जो जैन ऐसे हों, उनको सच्चे जैन बनने की तैयारी करनी चाहिए। जो समस्त जैन कुल, वास्तविक जैन कुल बनें, तो जैनों का संसार बिना मालिक का कंगाल और संस्कारहीन नहीं ही रहे।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 18 मार्च 2015

पाप का भय और पश्चात्ताप जरूरी



जिस आत्मा को पाप से भय उत्पन्न होगा, वह इसमें पाप, उसमें पापऐसा ज्ञानी पुरुषों के द्वारा कही हुई बातों को सुनने से ऊब नहीं जाता है, अपितु आनंदित होता है। हृदय में जो भय पैदा हुआ होगा तो, ‘पाप! यह आचरण करने लायक वस्तु नहीं है’, ऐसा वास्तविक निर्णय हो जाने के बाद, उस आत्मा को पाप करना भी पडे तो भी वह रसिकता के साथ नहीं करता। पाप होने के बाद भी मन में पश्चाताप करता है। इसके कारण से उसका बंध तीव्र रूप से नहीं होता है और उस पाप से छूटते उसे देर भी नहीं लगती है।

इसीलिए पाप हो जाए तो उसके लिए आत्मा की निन्दा करना सीखना चाहिए। पर-निन्दा से बचना चाहिए और स्व-निन्दा (आत्म-निन्दा) को बढाना चाहिए, प्रोत्साहित करना चाहिए। ऐसा करने पर ही कर्मों की निर्जरा होगी, कषाय समाप्त होंगे, आत्मा पाप से पीछे हटेगी, धर्म को पाने की योग्यता आएगी, शान्ति की ओर गति होगी, आत्मा की निर्मलता, सरलता और पवित्रता बढेगी जो आत्मा को मोक्ष मार्ग का, मुक्ति का पथिक बनाएगी। इसलिए आत्म-निन्दा करना सीखें। यह आत्म-निन्दा सिर्फ औपचारिकता भर न हो, केवल लोक-दिखावा भर न हो, अंतःकरण से हो, तभी इसकी सार्थकता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा