शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

सर्वधर्म समभाव का नारा फैशन हो गया है!


आजकल कई लोग सर्व धर्म समभाव की बातें कर रहे हैं। आज जिस रीति से और जिस अर्थ में सर्व धर्म समभाव की बातें हो रही है, उन्हें देखने से ऐसा लगता है कि ऐसी बातें करने वालों को वस्तुतः धर्म की कोई दरकार ही नहीं है। कई लोग सर्व धर्म समभाव के नाम पर अपनी रोटियां सेंकना चाहते हैं, समाज व धर्म के नेता बनना चाहते हैं। वस्तुतः तो उन्हें धर्म की पूरी जानकारी ही नहीं होती, उन्हें तत्त्वातत्त्व की कोई समझ ही नहीं होती। वे तो बस इस आड में अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। इससे धर्म की हानि ही होती है। हम धर्म को नहीं समझ सकते, धर्म क्या है और अधर्म क्या है, इसका निर्णय करने योग्य ज्ञान हम में नहीं है, सब कहते हैं कि हमारा धर्म भगवान द्वारा प्ररूपित है, इसलिए हमें किसी धर्म का आग्रही भी नहीं बनना चाहिए और किसी धर्म को मिथ्या भी नहीं मानना चाहिए’, इस प्रकार की मनोवृत्ति, एक अलग ही वस्तु है।

ऐसी वृत्ति वाले मनुष्यों का यदि मति-विकास हो जाए और उन्हें तत्त्वार्थ का निर्णय करने का अवसर मिल जाए, तो उन्हें ऐसा कोई आग्रह नहीं होता कि सब धर्मों को सत्य ही मानना। वस्तुतः धर्म क्या है और धर्म के नाम से पहचाने जाने वाले मतों में अधर्म क्या है, इस विषय का निर्णय करने की वृत्ति न हो, ऐसा भी हो सकता है। और हम में ऐसी बुद्धि आदि नहीं है, ऐसा लगता हो अर्थात् सर्व दर्शन सत्य हैं और कोई दर्शन झूठा नहीं है, ऐसा कोई मानता हो, यह भी संभव है, परन्तु उसका उसे ऐसा आग्रह नहीं होता कि समझाने वाला मिले तो भी समझने से इनकार करे।

सर्व धर्म समभाव के नाम से आज जो बातें करते हैं, उनके हृदय में मोक्ष के लिए धर्म की आवश्यकता है’, यह बात हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता। कोई भी धर्म मोक्ष की बात करता है तो ऐसे लोग कहते हैं कि यह बात हमारे पास मत कीजिए। हमें तो यह करना है कि विभिन्न धर्मवाले परस्पर लडें नहीं।इस प्रकार कहकर वे यह प्रचार करना चाहते हैं कि धर्म झगडे का मूल है।साथ ही उन्हें सर्व धर्म समभाव की अपनी मान्यता का ऐसा आग्रह भी होता है कि उससे विपरीत बात सुनने-समझने और स्वीकार करने की वृत्ति उनमें नहीं होती।

आजकल कतिपय जैन भी सर्व धर्म समभाव की बातें करने लगे हैं। परन्तु, जैन कुल में जन्म लेने मात्र से जैन कहलाने वाले और स्वयं को प्राप्त सामग्री की कीमत नहीं समझने वाले ऐसी भूल करें, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। इसलिए तो कहता हूं कि आप अज्ञानी रह गए तो भी आपकी संतान अज्ञानी न रहे, इसके लिए योग्य प्रयत्न करना आवश्यक है। सर्व धर्म समभाव की बात, आज एक तरह का फैशन बन गया है, इसका धर्म और धर्माचरण से कोई सरोकार नहीं है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

घोर पाप का उपार्जन


जैनकुल में जन्म लेकर जो भगवान श्री जिनेश्वर देवादि की अवगणना करते हैं, उन्हें आप पुण्यशाली कहते हैं या पापी? यह कुल मिला तो पुण्य से, परन्तु पाप बांधने के लिए ही मिला हो तो? जैन कुल में जन्मे हुए भी कतिपय लोग ऐसा कहते हैं कि जिनेश्वर को किसने देखा है? मोक्ष है कहां? साधुओं में क्या धरा है? उपवास में धर्म किसने बताया? उपवास करने से शरीर के अंदर के कीडे मरें, उसका पाप किसको? शरीर तो सार-संभाल के लिए है।ऐसों के लिए आप क्या कहेंगे? ‘उनको जो यह मिला, उसकी अपेक्षा न मिला होता तो अच्छा होता, क्योंकि ये बिचारे यह मिला है, इसीलिए इसकी अवगणना करने का घोर पाप उपार्जित कर रहे हैं।

सच्चे भगवान मिले फिर भी उनके लिए कुछ करने का मन न हो, यह कौन करवाता है? अच्छा मेहमान मिले, शक्ति बहुत हो, तो भी उसकी थाली में रोटी कौन परोसवाता है? धंधे का सम्बन्ध हो, वहां लपसी (मिष्ठान्न) और साधर्मिक को रोटी परोसने का मन कौन करवाता है? प्राप्त सामग्री की कीमत समझी हो तो ऐसा विचार आता है कि मेरे आंगन में साधर्मिक कहां से, मेरा यह कितना अहोभाग्य? मैं इनका आतिथ्य कर सकूं, ऐसा अवसर आज मुझे असीम पुण्योदय से मिला है।

लेकिन, घर पर जमाई आए तो अच्छा लगता है, और साधर्मिक आए तो अच्छा लगता है? कदाचित् जमाई की सार-संभाल करनी पडे, परन्तु मन में तो ऐसा लगता है न कि अभी तक साधर्मिक पर जैसा चाहिए, वैसा अनुराग जागा नहीं! आपकी स्थिति न हो तो साधर्मिक को रूखा-सूखा खिलाओ, परन्तु प्रेम से खिलाओ न? स्वजन के प्रति राग हुआ और साधर्मिक के प्रति राग न हुआ तो आपको सोचना चाहिए कि यह स्वजन का राग क्यों नहीं गया और साधर्मिक का राग क्यों नहीं आया?’

व्यवहार की अच्छी सामग्री मिली हो, परन्तु जो उसका सदुपयोग करता है, उसी को वह तारती है। ओघा हाथ में हो, परन्तु निर्लज्ज व्यवहार करे तो वह डूबता है न? वैसे ही आप भी समझें तो संसार सागर तैर सकते हैं। आपको जैन कुल मिला, उसमें सम्यक्त्व को पाने के साधन सीधे मिल गए। ऐसे कुल में आकर भी यदि आप मिथ्यात्व को और अनंतानुबंधी कषायों को नहीं छोड सकते हैं तो आपका क्या होगा? आपको जो सुन्दर सामग्री मिली है, उसकी कीमत को समझो। इस सामग्री की कीमत आप समझ सकें और इस सामग्री का सदुपयोग आप कर सकें, इस हेतु से तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। सामग्री मिल जाए और उसके सदुपयोग की इच्छा हो जाए तो मिथ्यात्व से हटकर सम्यक्त्व पाना सुलभ हो जाए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

लक्ष्मी का अति लोभ पागल बना देता है


यदि लक्ष्मी के रागी मनुष्य के हृदय में यह बात बराबर जंच जाती है कि मेहनत करने पर भी लक्ष्मी उसको ही मिलती है, जिसका पुण्य हो और पुण्य बांधने का अच्छे से अच्छा उपाय प्राप्त लक्ष्मी का दान करना है’, तो वह प्रेम से दान देता है। उसके पास कोई मांगने जाता है तो उसे ऐसा लगता है कि यह मुझे पुण्य-बंध कराने आया है।

विवेक हो तो तैरने का साधन आया, ऐसा लगता है, परन्तु केवल पुण्य पर विश्वास हो तो भी आए हुए को पुण्य का साधन मानकर जो देता है, वह आनंद के साथ देता है। वह ऐसा नहीं कहता कि मैंने कैसे कमाया है, तू नहीं जानता। खून का पानी किया है! मैंने कमाया वह इस तरह दे-देकर उडाने के लिए नहीं कमाया! पैसा चाहिए तो मेहनत करो! ऐसा व्यक्ति जब चार लोगों के बीच बैठा हो, तब ऐसा कहे कि पुण्य से लक्ष्मी मिली है’, तो क्या वह अपने दिल की बात बोलता है?

लक्ष्मी का अतिलोभ मनुष्य को पागल बना देता है। सरोवर भरा हो तो वहां प्यासे जीव पानी पीने आते हैं न? जहां पानी हो, वहां मनुष्य पानी भरने जाए और जानवर पानी पीने आए, इसमें क्या नवीनता है? आपके पास कोई मांगने आया, वह आपको सुखी जानकर आया न? इस अवसर पर पुण्य का विचार कहां भाग जाता है? ‘मुझे पुण्य से मिला है’, ऐसा मानने वाला, ‘मांगने वाले का पुण्य नहीं था, जिससे उसे नहीं मिला’, इतना भी नहीं समझता?

पुण्य न हो तो मांगने पर मजदूरी भी नहीं मिलती!इतना भी विचार वह नहीं करता। उसे ऐसा भी विचार नहीं आता कि मुझे अभी तो पुण्य से मिला है, परन्तु यहां यदि मैं पुण्य उपार्जन न करूं तो भविष्य में कदाचित इससे भी खराब दशा आ सकती है।परन्तु मेरा पुण्य’, इस प्रकार जो बोलता है, उसके हृदय में भी ऐसा ही हो तो उस पुण्यशाली को ऐसा विचार आता है न? सच बात तो यह है कि जिनका पुण्य पापानुबंधी होता है, वे प्रायः पुण्य भोगते हैं और पाप बांधते हैं। तात्पर्य यह है कि केवल पापानुबंधी पुण्यवालों के पास तो अपनी प्राप्त लक्ष्मी का सद्व्यय करावे, इस प्रकार का दिल होता ही नहीं है।

पुण्य से मिला है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता, परन्तु अकर्मी के हाथ में पेढी आ जाने जैसी बात है। ऐसा होता है न? जो लडके कमाते तो नहीं, परन्तु बाप की पूंजी को सुरक्षित भी नहीं रख सकते, उन्हें जगत् में क्या कहा जाता है? वैसे ही आप भी इस सामग्री का सदुपयोग न कर सको, इस सामग्री की कीमत को न समझ सको और यहां से फिर संसार में भटकने के लिए चल पडो तो क्या कहा जाए? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 28 अक्तूबर 2014

पुण्य से मिला, परन्तु कीमत नहीं जानी


सुदेव-सुगुरु-सुधर्म हमें पुण्य से मिले हैं, ऐसा कहना और इन्हें पहचानने की इच्छा भी नहीं करना, यह बताता है कि ऐसे पुण्य की कीमत आपकी दृष्टि में कितनी है? कोटिपति मनुष्य हो, तो भी किसी को आंगन में चढने न दे, जो आए उससे ले, परन्तु किसी को दे नहीं, धन-धन किया करता है; वह कहता है कि मेरा पुण्य है।तो इससे नकारा नहीं जा सकता है, परन्तु उस पर दया तो आती है न? ऐसा लगता है कि पुण्य तो है, परन्तु वह मजदूरी कराने वाला और पाप बंध कराने वाला है। पुण्य से मिला है, परन्तु यदि हम उसकी कीमत न करें तो वह पुण्य कैसा? पापानुबंधी है न?

पुण्य के योग से लक्ष्मी मिले, परन्तु उसके योग से नरक में जाना पडे, तो उस लक्ष्मी की प्रशंसा कैसे की जा सकती है? और, जो पुण्य से मिली लक्ष्मी का सदुपयोग करता है, उसके लिए लोग भी कहते हैं कि ऐसे को लक्ष्मी मिलना सार्थक है।कतिपय श्रीमंतों के लिए लोक में ऐसी प्रसिद्धि होती है कि इनका नाम न लेना, उठते ही यदि इनका नाम ले लिया तो खाने को नहीं मिलेगा।जबकि सदुपयोग करने वाले दूसरे भाग्यशाली को सब याद करते हैं।

ऐसे भी श्रीमंत होते हैं कि वे जहां जाते हैं, बहुत से लोग उनके साथ होते हैं। साथ में जाने वालों को सुविधा की चिन्ता नहीं करनी पडती। उन्हें कोई पूछे कि धंधा छोडकर इस सेठ के पीछे क्यों फिरते हो? तो वह कहेगा कि सेठ के साथ फिरने में भी लाभ है। ऐसा क्यों? प्रसंग पर सेठ काम में आता होगा, इसलिए न? ऐसों के साथ पैदल चलकर भी जाना लोगों को अच्छा लगता है, परन्तु लोभी सेठ के साथ मोटर में बैठने का भी मन नहीं होता। क्यों? व्यर्थ का समय जाता है और बीच में उतार दे तो पांव रगडते-रगडते घर जाना पडे। आज प्रायः कहा जाता है कि बडे लोगों के साथ ज्यादा पहचान हो तो धक्के ज्यादा खाने पडते हैं। जरा चले जाओऐसा कहे तो मना नहीं किया जा सकता। नौकरी पर न जा सके या नौकरी चली जाए तो भी वे उसकी खबर लेनेवाले नहीं।

पागल व्यक्ति भी कहता है कि मेरा पुण्य।और समझदार भी कहता है कि मेरा पुण्य।परन्तु दोनों में बहुत अंतर है। अतः विवेक से बोलो। ये देवादि मिले, यह पुण्य से, परन्तु कोई आपको देव का स्वरूप पूछे तो आप कहेंगे, ‘मालूम नहीं।तो जो आपको पुण्य से मिला, उसकी कीमत कितनी? आपको जो मिला है, वह बहुत अच्छा है, इसमें दो मत नहीं। परन्तु, आप स्वयं ढूंढकर अच्छा प्राप्त करने के लिए निकले हैं? अच्छा मिला है, परन्तु अच्छे को अच्छा समझने का प्रयत्न नहीं है न? यदि जैनों को जो मिला है, उसकी कीमत होती तो आज भी जैन शासन की अनोखी जाहोजलाली होती! -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 26 अक्तूबर 2014

रात्रि भोजन का वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण


जैनकुलों के आचार भी कैसे? जैनकुल के आचारों को यदि रूढ से भी पाला जाए तो भी लाखों पापों से बचा जा सकता है। रात्रि को न खाना, अर्थात् जिस काल में अधिक जीवोत्पत्ति हो, उस काल में चूल्हा न जलाना। जीवदया का पालन भी हो और शरीर का निर्वाह भी। अन्य कुलों में प्रतिदिन रात्रि को चूल्हे जलते हैं न? रात्रि को 10-12 बजे झूठन निकलता है अथवा सारी रात झूठन पडा रहता है और उसमें जीवोत्पत्ति होती रहती है।

एक केवल रात्रि भोजन न करने के आचार का पालन करने से ही, कितनी जीव हिंसा से बचा जा सकता है? परन्तु आज यह आचार जैन कुलों में रूढ है, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता। कुल तो जैन का है, परन्तु जैन कुल की मर्यादाएं, जैनकुल का आचार जीवित नहीं रहा न?

जैन के घर आया हुआ इतर व्यक्ति भी ऐसा समझ जाता था कि, ‘यहां रात में खाने को नहीं मिलेगा।जैनों के घरों के पास रहने वाले अन्य कुटुम्बों की स्त्रियां भी जैन स्त्रियों से कहती हैं कि- आपका आचार बहुत अच्छा है! रात हुई कि रसोईघर बंद। हमारे यहां तो रात्रि में धुनी जलती है।तात्पर्य यह है कि जैनकुल के आचार भी ऐसे कि अन्यों को लगे कि ये लोग कितने सुखी हैं? जैन को 24 घंटों में से 12 घंटों का तो पूर्ण विश्राम, ऐसा अन्यों को लगता है न? ये कुलाचार जीवित हों तो जैन भाई-बहन कितना धर्म कर सकते हैं!

जैन को प्रातः नवकारशी और रात को चौविहार करने में कोई तकलीफ नहीं होती! जैन का छोटा बच्चा भी रात को नहीं खाता! कोई पूछे कि क्यों? तो कहेगा कि रात को नहीं खाना चाहिए; मेरी माता, मेरे पिता, मेरे भाई रात को नहीं खाते।अमुक खाना और अमुक न खाना, यह जैन का बच्चा शुरू से समझता है। जैन जहां जाता है, वहां त्याग का प्रभाव छोडकर आता है। ऐसे कुल में जन्मे हुओं के लिए मिथ्यात्व को धक्का देना कितना सरल है!

दूसरों को यह समझाना पडता है और उनके लिए यह समझना कठिन भी है कि रात्रि को क्यों नहीं खाना?’ रात्रि भोजन के परिणाम स्वरूप हमारे पेट में विजातीय द्रव्य इकट्ठा हो जाता है जो कि गैस्टिक ट्रबल पैदा करता है। गैस्टिक ट्रबल से कोष्ठबद्धता कब्ज पैदा हो जाती है, जो कि अन्य नाना प्रकार की बीमारियों का कारण है। प्रमुखतया नजला, जुकाम, बालों का छोटी उम्र में ही सफेद हो जाना और जडना (टूटना), बालों का पतला हो जाना, सिर दर्द, पेट में सडांध पैदा होने के कारण पेट का बडा हो जाना, दाँतों में पायरिया हो जाना, यानि मसूडों में पीप पड जाना, गले में गिल्टियों का हो जाना, काग का छिटक जाना आदि-आदि। यदि हम अपने बढे हुए पेट को कम करना चाहें और अन्य बीमारियों से बचना चाहें तो हमें भोजन दिन में ही करना होगा।

जो भोजन दिन में बनाया जाता है, उसमें एक तो ओसजन गैस मिलती है, दूसरे उसमें जहरीले किटाणु जो सूर्य की गरमी के कारण नष्ट हो जाते हैं, नहीं मिलते, जिसके कारण भोजन हल्का तथा सुपाच्य होता है। रात्रि में बनाए भोजन में कार्बनडाई ऑक्साइड (जहरीला धुंआ) तथा जहरीले किटाणुओं का मिश्रण होता है, जिसके कारण भोजन विषाक्त तथा पचने में भारी होता है। अतः भोजन दिन का बना हुआ ही प्रयोग में लाना चाहिए।

भोजन जीने के लिए किया जाता है, किन्तु आज लोग भोजन करने के लिए जीना चाहते हैं। जब देखो खाना चलता ही रहता है। यह स्थिति अच्छी नहीं है। श्रमजीवी लोगों को भोजन दो बार करना उचित है। एक दिन में प्रातःकाल और दूसरा सांयकाल। किन्तु विद्यार्थियों तथा बुद्धिजीवियों को भोजन दिन में एक बार करना चाहिए और वह भी अधिक से अधिक दो बजे तक, ताकि दिन छिपने तक अर्थात् जब तक ओसजन प्रचुर मात्रा में होती है, भोजन पच जाए। इसके बाद तो भोजन सडेगा ही।

 जैन कुलों के लिए तो यह बात रूढ होनी चाहिए। यह कुल ऐसा है कि स्वयमेव बहुत से पाप बंद हो जाते हैं। खान-पान में से बहुत-सा विकार निकल जाता है, उत्तेजक पदार्थ बहुत अंशों में बंद हो जाते हैं। कितना अद्भुत है जैनाचार, लेकिन हम उसका पालन करें तो न! हमारे पूर्वज इनका पालन करते थे। ऐसा आचरण हमारे कुल के गौरव को बढाता था और पाप कर्मों के बंधनों से बचाता था, लेकिन आज? यदि जैनों को जो मिला है, उसकी कीमत होती तो आज भी जैन शासन की अनोखी जाहोजलाली होती! आज इस पर गंभीरता पूर्वक चिन्तन की जरूरत है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 25 अक्तूबर 2014

आपको अपने कुल का गौरव है?


आपका मन संसार से उद्विग्न होकर धर्म के प्रति आकर्षित हो तो आपको अनुभव होगा कि हमें बहुत अच्छी सामग्री मिली है। आप ऐसे कुल में जन्मे हैं कि देव तो वीतराग होते हैं’, यह सुनने को मिला। अभक्ति से खीजे नहीं और भक्ति से रीझे नहीं’, ऐसे देव जन्म से ही आपको मिल गए। त्यागी ही गुरु हो सकते हैं, घरबार वाले गुरु नहीं हो सकते’, यह आपको बात-बात पर सुनने को मिलता है। और इच्छा से या अनिच्छा से भी आपको संसार के त्यागी गुरु का योग मिल गया है। धर्म भी त्यागमय और अहिंसामय मिल गया है।

यह सब कैसे मिल गया? आप जैनकुल में जन्मे, इसलिए न? ऐसा कुल महापुण्य से मिलता है न? हां, तो इस पुण्य का आपको कितना आनंद है? क्या आपको अपने कुल का गौरव महसूस होता है? ऐसे गौरवशाली कुल में जन्म मिलने पर गर्व महसूस होता है? ऐसे कुल में जन्म लेकर अपने कुल की मर्यादाओं-मान्यताओं का पालन करने, उनका अनुसरण करने का मन होता है? क्या आपको अपने कुल का गौरव बनाए रखने का मन नहीं होता?

अन्य कुलों में जन्म लेने वालों को या तो देव मिले ही नहीं, यदि मिले तो ऐसे कि जिनके पास जाने से रागादि का पोषण हो। हमारे यहां कोई ऐसा करे तो खराब माना जाता है। जैन का बच्चा भी कहेगा कि हमारे देव वीतराग हैं। यह कम पुण्य है? हम जैन कुल में पैदा हुए हैं और सम्यग्दृष्टि कहलाते हैं, लेकिन हमारा जीवन कैसा है? हमारा आचरण कैसा है? हमारा व्यवहार कैसा है? कभी हमने अपने अंतरंग में झांक कर देखा है? यदि हम अंतरंग में झांकेंगे तो हमें दिखाई देगा, हम अधिकांशतः दुष्प्रवृत्तियों में बहे जा रहे हैं। हमारी आत्मा मलिन बनी हुई है। कषायों में हम लिप्त हैं। हमें सावधान होना है और इससे मुक्ति पानी है। कोई आदमी रुग्ण है, लेकिन जब तक उसे स्वयं को बोध न हो कि मैं रुग्ण हूं, वह बीमारी से मुक्ति पाने का प्रयास कैसे कर सकेगा?

यही हालत आज हमारी है। हमारे जीवन की स्थिति विपरीत बनी हुई है। हमारी आत्मा में रोग हो रहा है। इस रोग से मुक्त होने की तत्परता-उल्लास हम में दिखाई नहीं देता। रोग-मुक्ति के भाव ही पैदा नहीं हो रहे हैं। यदि हो भी रहे हों तो भी हमारे उपाय विपरीत, उलटे ही हो रहे हैं और बीमारी ठीक होने की अपेक्षा बढ रही है। यदि आप समझें तो आपके हाथ में हीरा आ गया है। देव, गुरु, धर्म आपको बिना ढूंढे ही अच्छे मिल गए हैं। पुण्य ने इतनी अच्छी सामग्री आपको दे दी है, परन्तु इसे पहचानने की चिन्ता कितनों को है? इतना अच्छा मिल गया है, फिर भी इसे पहचानने की चिन्ता नहीं, इच्छा नहीं, तो यदि यह सब नहीं मिला होता तो क्या आप सुदेव, सुगुरु और सुधर्म को ढूंढने निकलते? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2014

संसार में जैसा राग है वैसा धर्म में नहीं


विद्यार्थी पाठशाला से घर जाता है तो क्या पढा हुआ भूल जाता है? विद्यार्थी केवल पाठशाला में ही पढता है या घर पर भी पढता है। व्यापारी दुकान से घर जाता है, तो क्या उसके दिमाग से व्यापार की सब बात निकल जाती है? चाहे वह घर पर व्यापार की बात न भी करे तो भी उसके दिमाग से व्यापार की सब बात नहीं निकल जाती। तेजी का व्यापार किया हो और घर पर आराम से समाचार पत्र पढते हुए मंदी होने के समाचार देखने में आएं तो व्यापार की याद आए बिना रहेगी? दुकान पर गया हुआ गृहस्थ, घर पर क्या है, कैसे है, यह भूल जाता है क्या? नहीं। दुकान पर बैठा हुआ व्यक्ति घर की खबर है’, ऐसा कहता है और घर पर बैठा हुआ व्यक्ति दुकान की खबर है’, ऐसा कहता है।

वहां घर-दुकान-संसार में जैसा राग है, वैसा यहां धर्म में नहीं है, इसलिए जागृति टिकती नहीं है। धर्म के राग में कमी संसार के सुख के प्रति गाढ राग के कारण है, यह आपको अनुभव होता है क्या? इन सबको सुरक्षित रखते हुए धर्म हो तो करना, ऐसा लगता है न? परलोक में कौन उपयोगी होगा, धर्म या संसार का सुख? आपको और नहीं तो इतना विचार तो आता है न कि यहां से मुझे जाना है और जो मैंने यहां बहुत सारा इकट्ठा किया है, वह साथ आने वाला नहीं है?’ ऐसा विचार आए तो उस पर से राग घटे।

आपको ऐसी चिन्ता नहीं होती है कि यहां से जाना है, और कहीं उत्पन्न भी होना है, तो यहां से नरकादि में चला जाऊंगा तो मेरा क्या होगा? ऐसी चिन्ता जिसको होती है, वह पाप करते हुए भी रोता है। पाप करने से डरता है। आप विचार करें तो आपको भी प्रतीत हो कि इन सबके पीछे मैं दौडधूप करता हूं, परन्तु यह सब यहीं रहने वाला है, जाना मुझे है और मैंने जो कुछ किया, उसका फल भी मुझे ही भोगना पडेगा! मैं पाप के उदय से बीमार पडूं तो मेरा लडका अधिक से अधिक दवा आदि दे देगा, मेरी सेवा कर देगा, हाथ-पांव दबा देगा, परन्तु क्या वह मेरी पीडा ले सकेगा? सगे-संबंधी बहुत प्रेमी होंगे तो पास में बैठकर रो लेंगे, परन्तु मेरे पाप का फल तो मुझे ही भोगना पडेगा।उस समय यदि आप झुरते भी हों, कराहते हों और लडके से देखा न जाता हो तो भी वह क्या कर सकता है? आप थाली पर जीमने बैठते हैं तो अधिक न खाने की सावधानी किसको रखनी चाहिए? खाने वाले को ही अधिक न खाने की सावधानी रखनी पडती है न? अधिक खा ले, बीमार पडे और फिर कहे कि परोसने वाले ने ऐसा किया, तो क्या यह चल सकता है? पेट दुःखने लग जाए तो आपको पीडा होती है, दस्त लगने लग जाए तो आपको परेशानी होती है या परोसने वाले को? यह बात शीघ्र समझ में आती है न? तो संसार का राग घटाइए और धर्म का राग बढाइए! -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा