गुरुवार, 31 जुलाई 2014

देवता मनुष्य को नमस्कार क्यों करते हैं?


मधुर स्वर में, किसी को खलल न हो ऐसे स्वर से, गम्भीर अर्थपूर्ण स्तवन, पूरी तन्मयता और हृदय के उल्लास से भगवान के समक्ष गाने चाहिए कि जिससे दोषों का पश्चाताप टपक पडे और भगवान के गुण आविर्भूत हों। इस प्रकार आत्मा दोषों से पीछे हटती है, यानी जिनालय से बाहर जाने पर वह पुनः पूर्ववत् विषयों एवं कषायों में अनुरक्त नहीं होती।

हृदय की उमंग के साथ वास्तविक भक्ति तो सचमुच मनुष्य ही कर सकते हैं। देवतागण विषयों एवं कषायों के अधीन रहते हैं और उस प्रकार की सामग्री से प्रतिपल घिरे हुए रहते हैं, इसलिए जितनी उच्च कोटि की भक्ति मनुष्य कर सकते हैं, उतनी उच्च कोटि की भक्ति देवता नहीं कर सकते।

देवता लोग अरिहंत परमात्मा के कल्याणक महोत्सव मनाने आते हैं, तब भी वे मूल रूप में नहीं आते, बल्कि उत्तरगुण ही आते हैं। समस्त सामग्री से विलग होकर वास्तविक निसीहिसे जैसी श्रेष्ठ भक्ति मनुष्य कर सकते हैं, वैसी भक्ति देवता लोग नहींरूप से कर सकते हैं, इसलिए देवता भी धर्म-परायण मनुष्यों को नमस्कार करते हैं।

गीत तो सभी गाते हैं, परन्तु जिस गीत में हृदय का रस प्रवाहित होता हो, उस गीत का आनंद निराला ही होता है, चाहे गले में मधुरता न भी हो। हृदय की भक्ति के प्रत्येक शब्द में रस प्रवाहित होता है। जिन-भक्ति करते समय भला वैराग्य का रस क्यों न प्रवाहित हो? अपूर्व आराधनाओं के कारण जो आत्माएं तीर्थंकरों के रूप में अवतरित हुई, अपूर्व दान देकर निर्ग्रन्थ बनीं, घोर तपस्याएं की और अनेक भयानक उपसर्गों व परिषहों के समय भी अपने मूल स्वरूप में स्थिर रहकर केवलज्ञान प्राप्त किया और मुक्ति-पद प्राप्त किया, उन आत्माओं के समक्ष बैठकर भक्तिपूर्ण हृदय से स्तवन करते हुए आत्मा में कैसी-कैसी ऊर्मियें उठनी चाहिए, इस पर तनिक विचार करो।

गृहस्थ जीवन में जाँचकर देखो कि जहां हमारा स्वार्थ होता है, वहां विनय और भक्ति करना सबको आता है। संसार के अनुभव का उपयोग करना यहां सीख जाओ तो कार्य हो सकता है। गुण तो विद्यमान हैं, सिखाने की आवश्यकता नहीं है, परन्तु जो प्रवाह पश्चिम की ओर हो रहा है, उसे पूर्व की ओर मोडो। आप में गुण, योग्यता, शक्ति सबकुछ है, परन्तु वह सब इस ओर मोडने की आवश्यकता है। बताइए, आप यह चाहते हैं क्या? क्या आप चाहते हैं कि आपके गुण आदि का पथ मोडने वाला कोई मिले? यदि कोई प्रवाह को मोड दे तो आपको आनन्द प्राप्त होगा या नहीं? कल्याण की कामना करने वाले व्यक्ति को ऐसा आनन्द अवश्य होना चाहिए। आत्म-गुणों का विकास हो गया तो देवता भी आपको नमस्कार करेंगे ही।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 30 जुलाई 2014

श्रावक का कर्तव्य


श्रावक को अपने आश्रितों, मित्रों और स्नेही बंधुओं आदि को धर्म से जोडने के प्रयत्न करने चाहिए। स्वयं धर्म करना, दूसरों को प्रेरणा देकर धर्म करवाना और धर्म करने वालों की अनुमोदना करना; तीनों समान परिणामी हैं। बच्चा सरकस अथवा सिनेमा आदि जाए तो मना नहीं करते और यह कहते हैं कि जमाना ही ऐसा है। यदि वह पूजा नहीं करे तो यह कह देंगे कि इस पर पढाई का बोझ बहुत ज्यादा है। क्या वास्तव में ऐसा कहने वाले जैन माता-पिता अपनी संतान के हितचिंतक हैं? जैसे पुत्रों को सुपुत्र बनना चाहिए, वैसे माता-पिता को भी तो हितैषी माता-पिता बनना चाहिए।

जैन शासन की परम्परा में असंख्य राजा हुए, परन्तु एक भी राजा दीक्षा लिए बिना नहीं मरा। आज आपने जैन शासन की इस परम्परा को तोड दी है। शरीर जर्जर हो जाए तब भी संसार का राग नहीं छूटता, यह कैसी विडम्बना है? जीवन में जैन धर्म का क्या महत्त्व है, यह इसी बात से स्पष्ट है कि जिन धर्म के बिना यदि चक्रवर्तीपना मिले तो भी समकिती श्रावक उसकी इच्छा नहीं करता और जिनधर्म के साथ दासपना मिल जाए तो भी समकिती उसे सहर्ष स्वीकार कर लेता है।

देवता को विरति यानी दीक्षा लेने एवं व्रत-पचक्खाण करने के भाव-परिणाम नहीं आते और बिना इसके मोक्ष नहीं। मानव भव में यह सुलभ होने से मानव भव में ही मोक्ष है। इसलिए समकिती आत्मा मानव भव के लिए लालायित होते हैं। देवता भी श्रावक परिवार में जन्म लेने को तरसते हैं। श्रावक परिवार में ऐसा क्या है कि देवता भी यहां जन्म चाहते हैं? श्रावक रोज त्रिकाल जिन पूजा, उभयकाल आवश्यक, गुरु वंदन, व्याख्यान-श्रवण तथा संयम के मनोरथ आदि करता है। श्रावक यथाशक्ति अपने मकान में जिन मन्दिर, पोषधशाला और संयम के उपकरण रखता है। और ऊंचे संयम के मनोरथ करता है।

संयम देवलोक में नहीं है। इसी कारण देवता भी श्रावक कुल में जन्म चाहता है। जैन श्रावक कुल में उत्पन्न पुण्यवान या पापवान? जिसके घर में संयम की भावना वाले जन्म लेवे, वह कुल पुण्यवान या पापवान? जिसके घर में बालक को संयम के भाव प्रकट होवे, वहां बडे क्या सोचें? यदि पुण्यवान हों तो वे यही सोचें कि अहोभाग्य हमारा कि जिससे हमारे घर में ऐसे पुण्यशाली का जन्म हुआ है। श्रावक कुल की मर्यादा और इज्जत रखने के लिए ये विचार आवश्यक हैं। लेकिन, मोह के फंदे से छूटना आसान नहीं है। मोक्ष प्राप्ति हेतु भगवान के बताए मार्ग दीक्षा को अंगीकार करने में कोई अंतराय करे तो वह हितचिंतक नहीं रहता। अति मोह में मोहान्ध हो जाए उस बडे का बडप्पन नहीं रहता। सब मर्यादा में होता है, मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता। इन सब पर श्रावक शान्त-चित्त से सोचे।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 29 जुलाई 2014

धर्म के फलस्वरूप पौद्गलिक सुखों की मांग अयोग्य


लक्ष्मण और रावण दोनों पूर्व भव में जैन साधु थे। उन्होंने दीक्षा के फलस्वरूप क्रमशः स्त्री एवं राज्य प्राप्ति की लालसा की, जिसे शास्त्रीय भाषा में नियाणाकहते हैं। जैन साधु के रूप में उन्होंने खूब तपस्या की। उस तपस्या के परिणाम स्वरूप वे वासुदेव और प्रतिवासुदेव हुए। वासुदेव और प्रतिवासुदेव के भव में नियाणे के प्रभाव से बहुत सुन्दर रानियां एवं राज्य मिलता है, किन्तु यह बहुत दुःखदायी होता है। इन्होंने पूर्व भव में नियाणा (लालसा) करके दीक्षा पालने के अपूर्व फल को ताक में रखकर एक तरह से ऐरावत के बदले गधा प्राप्त करने जैसा कार्य किया।

धर्म के फलस्वरूप पौद्गलिक सुखों को मांगना एक अयोग्य मांग है। जिसका परिणाम भयंकर होता है। धर्म का वास्तविक फल मुक्ति जब तक नहीं मिले, वहां तक स्वर्ग, राज्य, रिद्धि-सिद्धि आदि मिलते ही हैं; परन्तु मांगने से तो भवांतर में धर्म की प्राप्ति भी दुर्लभ होती है और नरक के परिणाम भी भुगतने पडते हैं। ब्रह्मचर्य पालने से भी स्वर्ग के सुख अवश्य मिलते हैं, परन्तु देवलोक की अप्सराओं का मोह अथवा शत्रुओं को मारने की शक्ति पाने हेतु ब्रह्मचर्य को पालना तारक के बदले मारक बन जाता है।

नियाणा करके संयम के मूल को खो देने के परिणाम पाने वालों में लक्ष्मण वासुदेव और रावण प्रतिवासुदेव के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं, जिन्हें पूर्व में किए गए जप-तप के प्रभाव से अनेक रानियां और राज्य तो मिले, परन्तु यह नियाणा स्वरूप होने से उन्हें असंख्यात वर्ष नरक का दुःख भोगना पडा। हालांकि रावण और लक्ष्मण के जीव नरकगामी होने पर भी उनके हृदय में जिनेश्वरदेव के शासन के प्रति अपूर्व श्रद्धा थी।

जैन शासन में उत्पन्न आत्मा का हृदय अति कोमल और नम्र होता है। दुर्भाग्य से वे अनेक पाप कर लेते हैं, परन्तु उनका हृदय पापों में लिप्त (अनुरक्त) नहीं होता है। अतः इन आत्माओं के हृदय में रही हुई यह कोमलता, नम्रता और जैन शासन के प्रति उनका अहोभाव उनके हृदय में ऐसा बस गया होता है कि वे नरक के दुःख भी समाधि पूर्वक सहन करते हैं। भले ही उन्हें रोना आ जाए, परन्तु उनकी आत्मा यही कहती है कि यह दुष्कर्म का विपाक है। जिसे शान्ति से सहन किया जाए। जैन दर्शन की विशेषता है कि अशुभ कर्म के उदय में यानि दुःख में भी नए कर्म नहीं आने देता।

सुख और दुःख में समकिती आत्मा कर्मों को खपाता है और मिथ्यादृष्टि आत्मा कर्म बांधता है। एक तिरता है दूसरा डूबता है। सात मंजिल का महल हो, जिसमें भोगने के लिए अप्सराओं जैसी स्त्रियां पास में हों, विषय के फुव्वारे उछलते हों, तब भी समकिती आत्मा यह मानते हैं कि यह कारागृह है। समकिती अपने परिवार में भी सुसंस्कार देता है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 28 जुलाई 2014

धर्मी की समझ उसे सतत जागृत रखती है


हम आपको सहलाने या बहलाने के लिए पाट पर नहीं बैठते, अपितु आपको चेताने के लिए पाट पर बैठते हैं। नहीं चेतोगे तो नहीं जाने कहां फेंक दिए जाओगे? यह संसार बहुत लम्बा-चौडा है।

दुनिया बिना पैसे वालों पर दया खाती है, परन्तु मुझे पैसे वालों पर दया आती है कि उनकी क्या दशा होगी?

सुख के लोभ से आज कुछ कम खराबियां पैदा नहीं हुई है। बडे गिने जाने वाले लोग आज पैसे के पीछे मरने-मारने को तैयार हैं और पैसे से वे खरीदे जा सकते हैं। यह है उनकी स्थिति!

दुःख को सहन करना सीखना भी धर्म है। दुःख को निकालने का प्रयास करने से दुःख जाता नहीं है। कदाचित् चला जाए तो वापस आएगा ही। लेनदार आए और उसे आप धकेल दो तो भी वह पांचवें दिन फिर आएगा ही। शक्ति वाला तो देना चुकाकर ही उसे वापस भेजता है, जिससे दुबारा उसका मुंह न देखना पडे। इसी तरह शक्ति हो तो दुःख को सहन कर ही लेना चाहिए।

सुख आशीर्वाद नहीं, वह तो अभिशाप है। कर्मराजा जिसे दुर्गति में डालकर दुःखी करना चाहता है, उसे वह पहले सुख में सुला देता है।

शक्ति होने पर भी दुःख सहन न करना और सुख की सामग्री मिले तो आवश्यकता न होने पर भी उसका उपयोग करना, इतना ही नहीं; अपितु पाप करके भी उस सामग्री को प्राप्त करना, ऐसी स्थिति में धर्म हममें प्रवेश कैसे कर सकता है?

धर्म की बात में कर्म को आगे लाए, वह जैन नहीं। कर्म से तो संघर्ष करना है। कर्म को ढाल बनाने वालों का तो कर्म ने सत्यानाश ही कर डाला है। कर्म आज्ञा दे, तब धर्म करने की बात करने वाले कायर लोग कभी धर्म का आचरण नहीं कर सकते। समझदार वह है जो दुनिया की बातें कर्म पर छोडता है और धर्म की बात में पुरुषार्थ को आगे करता है। इस जन्म में धर्म की बात में समझ (विवेक) प्राप्त करना बडे से बडा धर्म है। कर्म संसार में भटकाने वाला है और धर्म संसार से तारने वाला है।

समझ ऐसी चीज है कि यदि उसे निकाली न जाए तो वह सतत साथ में बनी रहती है। व्यापार नुकसान में चल रहा हो तो व्यापारी के मन में सतत यह बात चलती रहती है कि व्यापार नुकसान में चल रहा है। भले ही वह यह बात मुँह पर नहीं लाता और सदा की तरह प्रवृत्ति करता रहता है, परन्तु हृदय में तो सतत चिन्ता चालू रहती है। इसी तरह सुख में या दुःख में धर्मी की समझ उसे सतत जागृत रखती है। धर्मी जीवन के हर व्यवहार में धर्म को आगे रखता है और सारे व्यवहार इस विवेक के साथ करता है कि उसके धर्म पर कहीं कोई आँच नहीं आए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 27 जुलाई 2014

मुंहपत्ति में मोक्षमार्ग


मुंहपत्ति के पचास बोल कोई साधारण वस्तु नहीं है। इस बोल में तो समस्त जैन शासन और उसके सिद्धान्त संकलित कर लिए गए हैं। क्या रखना है, क्या लेना है और क्या करना है, यह सब बातें इसमें आ जाती हैं। पहला बोल स्वयं को भूल जाना है! मेरे विचार की कोई कीमत नहीं है! भगवान द्वारा भाषित अर्थ के आधीन रहकर गणधरों ने सूत्र रचना की है। सब तत्त्व इन सूत्रों में समाहित हैं। सूत्र और अर्थ जिसे तत्त्व रूप लगें, उसे जगत की दूसरी कोई चीज पसंद नहीं आती।

क्षयोपशम समकित अच्छा है, परन्तु आघात लगने पर वह चला भी जा सकता है। मुंहपत्ति की प्रतिलेखना करने वाले को समकित का जाना सह्य नहीं होता। अतः वह तीनों मोहनीय को छोडने की बात करता है। ये तीनों जाते हैं तभी क्षायिक सम्यक्त्व आता है। इसके सिवाय और कोई सच्चा साथी नहीं है। यह न हो तो हमें भी ये सब क्रियाएं करते हुए अरुचि उत्पन्न हो सकती है। क्रिया में रस डालने वाला यह समकित ही है।

सामग्री के विद्यमान होने पर भी आप साधुपन अंगीकार नहीं कर सकते। इसका कारण काम-राग और स्नेह-राग है। इसके कारण आप संतप्त होते हैं, गालियां खाते हैं, लातें भी खाते हैं, तथापि इन राग के पात्रों से नहीं छूट पाते। इस राग को हटाने के लिए अथवा उसे अच्छे काम में लगाने के लिए सुदेव, सुगुरु, सुधर्म को आदरना है और कुदेव, कुगुरु तथा कुधर्म को छोडना है।

सुदेव आदि को आदरने वाले व्यक्ति को चाहिए- ज्ञान, दर्शन और चारित्र। वह व्यक्ति इन तीनों की विराधना नहीं करता। इन तीनों को पाने के लिए मन गुप्ति, वचन गुप्ति और काय गुप्ति का पालन करना चाहिए। मनदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्ड का परिहार करना चाहिए।

दण्ड परिहार के बिना गुप्ति नहीं आती। गुप्ति वाला जीव हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगप्सा का त्याग करता है और खराब विचारों से बचने हेतु कृष्ण, नील, कापोत लेश्या को छोडता है। खराब विचार लाने वाले रस, ऋद्धि और साता-गारव को भी वह छोड देता है। तत्पश्चात उसे माया शल्य, निदान शल्य और मिथ्यात्व शल्य सह्य नहीं होता। तदन्तर वह सब दुर्गुणों के मूल रूप कषायों को त्याग देता है। ऐसा जीव छहकाय जीवों की रक्षा करने के परिणाम वाला होता है।

मुंहपत्ति की प्रतिलेखना करने वालों के हृदय में सतत यह सब विचार आने चाहिएं, ये विचार आते हैं, तभी वह मोक्ष मार्ग का पथिक है, इसीलिए मुंहपत्ति में मोक्षमार्ग कहा गया है। मुंहपत्ति के पचास बोल केवल उच्चारण के लिए नहीं, हृदयंगम करने की चीज हैं। मुंहपत्ति की प्रतिलेखना के समय यदि ये विचार न आवें तो वे सब संमुच्र्छम जैसे गिने जाने चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 26 जुलाई 2014

महात्मा कौन?


इस संसार में सुख नाम का एक ऐसा कसाई है, जो अपनी शरण में आए हुए व्यक्ति से अनेक पाप करवाकर उसे नरकादि में धकेल देता है। संसारी सुख एक ऐसा शत्रु है, जो व्यक्ति का स्वागत करके उसको दुःख के गर्त में पटक देता है। वैसे ऊपरी तौर पर देखने से पुण्य अच्छा प्रतीत होता है, परन्तु सुख के लिए बांधा गया पुण्य बहुत खराब है।

संसार में जो सुख हैं, वही आपको संसार में भटकाते रहते हैं। धर्म करने वालों के लिए यह आधारभूत ज्ञान है। आपका पुण्य आज आपको पाप में ही प्रायः सहायक बन रहा है। इसीलिए तो आज आप घर में या बंगलों में आराम से बैठे हैं। यदि ऐसा न होता तो आज के अधिकांश लोगों का स्थान जेल में होता। आपके कर्म से सत्ता भी ऐसी है कि जो अयोग्य की ही सहायता करती है; अच्छे और प्रामाणिक लोग तो आज पिसा रहे हैं।

आपको देव, गुरु, धर्म का योग मिलने पर भी आज आपकी दशा ऐसी है कि आप अधिकांश में योगवंचक, क्रियावंचक और फलवंचक बने हुए हैं। आप देव, गुरु, धर्म के आसपास चक्कर लगाते हैं, परन्तु यह संसार बढाने के लिए या संसार की ममता उतारने के लिए?

योग न मिलना जिस प्रकार योगवंचकता है, वैसे ही योग मिलने पर भी उसका उपयोग न करना, यह भी योगवंचकता है। इतना ही नहीं, यह अपने आपको धोखा देना है। अपनी आत्मा के साथ छलावा है।

संसार जिसको बुरा लगता है और मोक्ष जिसको अच्छा लगता है, वही महात्मा कहा जाता है। उसके तीनों योग अवंचक होते हैं। उसको धर्म सामग्री ही अच्छी लगती है, संसार सामग्री नहीं। वह न दूसरे को छलता है और न अपनी आत्मा को।

आपको धर्म सामग्री का योग तो मिल गया है, परन्तु उसकी कीमत आपने नहीं समझी है। गृहस्थ के लिए हैसियत के अनुपात में धर्म सामग्री में जितना अधिक पैसा खर्च हो, वह पहले नम्बर पर है। उस पर से ही धर्म की सामग्री रुचने का माप निकलता है। श्रीमंत गृहस्थ पैसे बचाकर धर्म करना चाहता हो तो वह वास्तविक रूप में धर्म करता ही नहीं है।

योग की अवंचकता आते ही जीव का संसार-सामग्री के प्रति आकर्षण मिटकर धर्म सामग्री के प्रति आकर्षण पैदा हो जाता है। अब तक जीव का संसार-सामग्री के प्रति आकर्षण था, उसमें जब बाधा पडती तब उसे सांधने के लिए ही उसे धर्म-सामग्री की आवश्यकता पडती, अन्यथा नहीं। परन्तु यह अवंचकता आते ही उसकी स्थिति बदल जाती है। संसार की सामग्री पर राग होता है, तब उसे अपना पापोदय लगता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

भाव-प्रधान धर्म


धर्म के चार प्रकार बताए गए हैं: दान, शील, तप और भाव! इन चारों को आप धर्म मानते हैं? यदि इन्हें आप धर्म मानते हैं, तो धन, भोग, आहार और संसार की सब इच्छाओं को अधर्म मानना ही पडेगा। इन चारों में भी भावसबसे प्रमुख है। भाव अर्थात् मन का पवित्र परिणाम! शालिभद्र ने ग्वाले के भव में जिस भाव से दान दिया था, वह भाव आने में अभी अनेक भवों की जरूरत पडेगी। उस ग्वाल-बाल जैसी भी आपकी मनोदशा नहीं है। जिसे किसी दूसरे का लेने में आनंद आता है, उसमें तो उस ग्वाले के लडके का नाम लेने की पात्रता भी नहीं है।

आपका दान हमें दान नहीं लगता। नहीं तो साधु को दूध बहोराने वाला, भगवान के अभिषेक के लिए दूध क्यों नहीं भेजे? आपका दूध लेते समय तो हमें घबराहट होती है। इस बहोराने के पीछे रहे हुए कारण को, भाव को प्रकट करो तो मालूम हो कि आपका दान, दान है या नहीं?

दान, शील और तप ये तीनों भाव सहित होने चाहिए। भाव रहित होने पर ये तीनों निरर्थक हैं, इतना ही नहीं, अपितु संसार बढाने वाले हैं। दान, शील और तप चाहे देशविरति संबंधी हों या सर्वविरति संबंधी, इनमें भाव के मिलने पर ही ये सफल होते हैं। भाव के प्रभाव से ही ये धर्म, धर्म बन सकते हैं।

धर्म बहुत मंहगी वस्तु है। मांगने आने पर इसकी कीमत समझाकर देने जैसी यह चीज है। परन्तु आजकल तो प्रायः धर्म का नीलाम हो रहा है। नीलामी में रुपयों का माल पैसे में बिकता है। ऐसी अधोदशा आज धर्म की हो रही है, इसका हमें अपार दुःख है। आज देश का उद्धार नहीं, अधःपतन हो रहा है। शक्ति (हैसियत) बढने के साथ आपके घरों में मौज-शौक के साधन तो बढते ही जाते हैं, परन्तु धर्म के साधन बढते हुए कहीं नजर नहीं आते हैं। बढेंगे कहां से जब तक कि मोक्ष पाने की प्रबल भावना और प्रयास नहीं हों?

भावनाओं का आज टोटा हो गया है। दान, शील और तप में भी आज आडम्बर, दिखावा, प्रदर्शन और स्वार्थ घुस गया है। भौतिक आकाँक्षाएं इसमें घुस गई हैं। विशुद्ध रूप से कर्म-क्षय और मोक्ष प्राप्ति की एक मात्र भावना आज तिरोहित हो गई हैं, क्योंकि धर्म का सही स्वरूप लोग नहीं जानते।

मोक्ष की इच्छा/भावना जहां तक न हो वहां तक सब धर्म भी औपचारिक, अधर्मरूप ही बनते हैं। अन्तर इतना ही है कि अधर्म सीधा दुःख देता है, जबकि प्रबल भाव रहित धर्म थोडा पुण्य बंध कराकर उस पुण्य के उदयकाल में महापाप का बंध कराकर, बाद में भारी दुःख देता है। धर्म-अधर्म सब प्रायः भावों की निर्मलता के आधार पर होते हैं और भावों की तरतमता, प्रगाढता के आधार पर ही परिणामों की तरतमता, प्रगाढता होती है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा