सोमवार, 31 मार्च 2014

समझदार अच्छे या सुखी?


सुख का अर्थी जीव पाप करने में कांपता है। क्योंकि वह जानता है कि मुझे चाहिए तो सुख और मैं कर रहा हूं पाप, तो मुझे सुख कहां से नसीब होगा और दुःख आने से कैसे रुकेगा?’ आपकी संतान धर्म को न जाने, इसका आपको दुःख नहीं; आप स्वयं भी धर्म को नहीं समझ पाए, इसका भी आपको दुःख नहीं और ऐसे लोग यहां श्रद्धालु समझे जाते हैं। ऐसे श्रद्धालुओं को हमें धर्म सुनाना पडता है, यह क्या यह कम दुर्भाग्य का विषय है?

आप भगवान को नहीं पहचानते, इसलिए भगवान की फजीहत करवा रहे हैं। जिन्हें साक्षात् भगवान मिले थे, वे भी भगवान को नहीं पहचान पाए तो भव में भटके। हमें तो भगवान साक्षात् मिले नहीं, उनके शास्त्रों के आधार से ही हमें तिरना है। लेकिन, आपने यह नहीं समझने का निर्णय किया है, अतः हमें बहुत समझाने की इच्छा नहीं होती। आपको सुखी बनाने की अपेक्षा समझदार बनाने के लिए हमारा प्रयास है। सुखी लोग हमको भी संसार में खींच लेते हैं, जबकि समझदार हमारी रक्षा करते हैं। मोह आपसे बहुत मजदूरी करवाता है और उसकी कदर भी नहीं करता। मोह अपनी इच्छानुसार सब काम कराकर आपको नरक-तिर्यंच गति में धकेल देता है; तो भी आपकी दृष्टि नहीं खुलती। समझदार वह है जो दुनिया की बातों को कर्म पर छोडता है और धर्म की बात में पुरुषार्थ को आगे करता है। इस जन्म में धर्म की बात में समझ-विवेक प्राप्त करना बडे से बडा धर्म है। आज तक समझ रहित धर्म बहुत किया, इसलिए आज तक संसार में लटकते रहे। इसलिए धर्म के प्रति समझ पैदा करो। धर्म की सच्ची समझ पैदा हो गई तो भविष्य में कल्याण हो सकेगा।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 30 मार्च 2014

मूल में भूल आखिर कब तक?


आप दिन भर जो मेहनत-मजदूरी करते हैं, उसका कोई टाइम-टेबल बनाते हैं क्या? आप स्वयं-स्फूर्त सोना, उठना, खाना, पीना, शोच आदि नित्यकर्म करते हैं, क्योंकि यह सब आपके वर्तमान शरीर की जरूरतें हैं और आत्मा की जरूरत के लिए? जन्म से लेकर पूरे बचपन और तरुणावस्था तक माता का मुँह ताकते रहना, जवानी में पत्नी का मुँह ताकते रहना और बुढापे में लडकों का मुँह ताकते रहना ही है तो फिर आत्मा की तरफ अपनी दृष्टि कब गुमाओगे? बाल्यकाल नासमझी और मूर्खताभरी क्रीडाओं में बीत जाए, यौवन विषयों की परवशता में बीत जाए और वृद्धत्व कच-कच में पूरा हो जाए तो आत्मा का साधन किस काल में होगा?

यहां मरे इसका अर्थ सब कुछ समाप्त होना नहीं है और यहां के नाते-रिश्तेदार या धन-दौलत, साधन-सुविधाएं भी साथ आने वाले नहीं हैं। मरने के बाद आत्मा अन्य स्थान में जाता है, स्थान-परिवर्तन होता है, परन्तु कर्म तो बने रहते हैं। कर्म साथ रहते हैं, तो दुःख बना रहता है। अतः प्रयत्न यह करना चाहिए कि आत्मा कर्म-रहित बने। यह ध्येय निश्चित कर लो। इसके बाद छोटी-सी भी धर्मक्रिया आपको सच्चे सुख की सच्ची दिशा में आगे बढने में सहायक बनेगी।

आज की दुनिया की एक मात्र इच्छा यही है कि सुख मिले और दुःख टले। प्राणी मात्र की प्रवृत्ति भी सुख पाने की और दुःख टालने की है। तथापि यह सत्य है कि दुनिया दुःखी है। ऐसा क्यों? कहना होगा कि मूल में भूल है। सुख-दुःख की सच्ची समझ ही नहीं है। सच्चे सुख की समझ आ जाए और इसे पाने का ध्येय निश्चित हो जाए तो सुख मिले बिना न रहे और दुःख टले बिना न रहे।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 29 मार्च 2014

भिखारियों की तरह मत बनो


यदि आप थोडा-सा भी समझदार बनकर सोचें तो आपको अपनी वर्तमान स्थिति में तो अत्यंत सरलता से निर्वेद उत्पन्न हो सकता है। सुख मनचाही वस्तु होने से सुख के समय में निर्वेद उत्पन्न होने जैसा विचार आना थोडा कठिन है, परन्तु दुःख जैसी अनचाही वस्तु के समय तो निर्वेद उत्पन्न होने जैसा विचार आना अत्यंत सरल होता है। परन्तु भिखारी जिस तरह केवल एक टुकडा रोटी का प्राप्त करने पर भी प्रसन्न हो जाता है, उसी तरह दुःख अधिक हो और सुख अल्प एवं तुच्छ हो तो भी उतने से ही प्रसन्न होने वाले अधिक होते हैं।

भिखारी यह नहीं देखता कि उसे एक रोटी के टुकडे के लिए कितनी अनुनय-विनय करनी पडी है। वह तो केवल इतना ही देखता है कि उसे रोटी का टुकडा प्राप्त हो गया और उसे प्राप्त कर वह इतनी प्रसन्नता अनुभव करता है कि घडी भर के लिए तो वह अन्य सभी कष्टों को भूल-सा जाता है। जिसकी संसार के सुखों के संबंध में ऐसी मनोदशा हो, उसे निर्वेद उत्पन्न होने जैसा विचार आए भी कैसे? बाकी तो आप यदि प्राचीन काल के पुण्यशालियों के सुख का वर्णन सुनो और उनके सुख की आपके वर्तमान सुख से तुलना करो तो भी आपका अपने सुख का सारा आनंद हवा हो जाए और आपकी इच्छा संसार-सुख त्याग कर मोक्ष-सुख प्राप्त करने की हो जाए।

ये सब निमित्त हैं, परन्तु आप में उस प्रकार की योग्यता हो अथवा आप में ऐसी योग्यता आए तो ही ये निमित्त आपको वैराग्य की ओर प्रेरित करने वाले और वैराग्य होने पर आपको धर्माराधक बनाने में सहायक सिद्ध होंगे।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 28 मार्च 2014

धर्म बिना की आधुनिक शिक्षा विनाशक है


आत्म-शुद्धि के विचार और उस विषयक बात करने से पूर्व आत्मा का खयाल न हो तो क्या हो? आपको यदि किसी भी तरह अपना और अपनी संतान का कल्याण करना हो, उनका उद्धार करना हो तो सर्व प्रथम मनुष्यत्व प्राप्त करना होगा। मनुष्यत्व आने के पश्चात यह निश्चित होगा कि मैं विश्व का रक्षक हूं, भक्षक नहीं; सहायक हूं, विनाशक नहीं और परमार्थ के लिए वचनबद्ध हूं।प्राचीन समय में सब कलाओं का ज्ञान प्राप्त करने वाले के लिए भी जब तक वह धर्म-कला से अनभिज्ञ होता, तब तक उसकी सारी कलाएं व्यर्थ मानी जाती थी। धर्म के बिना सारा ज्ञान, विवेकहीन गुणों के समान होता है। शरीर अत्यंत सुन्दर हो, परन्तु नाक न हो; वैसे ही धर्म के बिना का ज्ञान है।

सब जानता हो, परन्तु आत्मा क्या है और आत्म-सुख के साधन कौनसे हैं’, यह नहीं जानता हो, तब तक समस्त ज्ञान निष्फल है, विनाशक है। धर्म-कला पर ही समस्त कलाओं की सफलता अवलम्बित है। उसके बिना समस्त कलाएं निष्फल हैं। धर्म के बिना सारा ज्ञान अधूरा और विनाश की ओर ले जाने वाला है। आज जो धांधली और शोरगुल हो रहा है, जो विनाशक-विकास हो रहा है, जो उत्पात और हिंसा का विभत्स ताण्डव दिखाई दे रहा है; उसका सबसे बडा कारण धार्मिक-शिक्षण का अभाव है। बडे भारी डिग्रीधारी बन गए, पदवी प्राप्त कर ली, लेकिन उनकी इंसानियत मर गई, मनुष्यता मर गई, जीने का सलीका नहीं आया; कारण कि धार्मिक शिक्षा प्राप्त नहीं की, पुण्य-पाप आदि तत्त्व नहीं समझे, हेय-ज्ञेय-उपादेय को नहीं समझा तो विवेक कहां से आएगा, उदय कैसे संभव है, कल्याण कैसे होगा? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 27 मार्च 2014

धोखेबाजों से सावधान


धर्म के नाम पर आज जो त्याग की बातें चल रही हैं, वे अनावश्यक हैं।इस तरह की बातों का आज स्थान-स्थान पर प्रचार हो रहा है। बीसवीं शताब्दी में त्याग की बातें करना मूर्खता है। त्याग की क्या आवश्यकता है?’ इस तरह कहने वालों को सच्चे उपकारियों का आदेश समझाने के साथ-साथ मैं कहना चाहता हूं कि जिसे सुख से जीना हो, उसे त्याग की भावना हृदय में अपनाए बिना चलेगा ही नहीं।वर्तमान समय प्राचीन काल से भयंकर है। प्राचीन समय में जो धार्मिक बंधन थे, उनमें इस समय अनेक गुनी वृद्धि करने की आवश्यकता है, क्योंकि दम्भ, अहंकार में वृद्धि होती जा रही है। आज जो शठ हैं, वे अपने आपको सेठ लिखवाते हैं। मनुष्यत्व नहीं है फिर भी मनुष्य के रूप में प्रकाश में आने हेतु प्रयासरत हैं।

उदारता का नाम नहीं, फिर भी दानवीर की उपाधि लेने वाले अनेक हैं। आते हैं पूर्व से और भागते हैं पश्चिम में’, ऐसे कायर भी वीरता का दम्भ बताकर हर्ष से घूम सकते हैं। तिजोरी खाली है, फिर भी लाल पगडी बांधकर आज अनेक व्यक्ति मोटरों में फिरते हैं। प्राचीन समय में जितना धन पास में होता था, उसमें से भी थोडा घर में रखकर ही व्यापार करते थे; जबकि आज तो पांच रुपये हों तो पचास का व्यापार करते हैं, क्योंकि उनके भाव भिन्न हैं। कमा गए तो ठीक है और हानि हो जाए तो पगडी ही उल्टी फिरानी है, इस तरह की मनोवृत्ति हो गई है। वे समाज के साथ-साथ स्वयं की आत्मा को भी धोखा दे रहे हैं। ऐसों के सामने आत्म-शुद्धि के उपाय रखने में भी खतरा है। ऐसे लोग अपने दोष छिपाने के लिए आत्म-शुद्धि के उपायों और धर्म को भी कलंकित कर सकते हैं। इसलिए बहुत सावधानी रखनी है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 26 मार्च 2014

धर्म में सहायक कौन?


धर्म में सहायक कौन? अनुकूलता या प्रतिकूलता? इन दो परिस्थितियों में से कौनसी परिस्थिति जीवन में धर्म के लिए सहायक है? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि निश्चय नय की दृष्टि से धर्म करने के लिए न तो अनुकूलता सहायक है और न ही प्रतिकूलता। केवल जीव के अध्यवसाय, उसकी भावना और विवेकयुक्त अहिंसक क्रिया ही सहायक होते हैं, यह निश्चय नय का उत्तर है।

व्यवहार नय कहता है कि योग्य जीव के लिए अनुकूलता अधिक सहायक कही जा सकती है। यदि जीव सत्वहीन है तो प्रतिकूलता में किसी समय कठिनाइयां पैदा हो जाती हैं, इसलिए ऐसे व्यक्तियों के लिए अनुकूलता को धर्म में सहायक कहा जा सकता है। अनुकूलता हो तो ही धर्म हो सकता है, यदि ऐसा हो तो धर्म के लिए अनुकूलता चाहने वाला क्षम्य है। उनमें प्रतिकूलताओं का सामना करने का माद्दा नहीं होता। ऐसे लोग प्रतिकूलता आने पर धर्म करने से पीछे हट जाते हैं।

अन्यथा जिसे धर्म करना है, वह जीव तो धर्म करेगा ही चाहे अनुकूलता हो या प्रतिकूलता। भूतकाल के महापुरुषों ने तो प्रतिकूलता में अधिक से अधिक और अच्छे में अच्छा धर्म किया है। इतना ही नहीं, उन्होंने तो अनुकूलता को ठोकर मारी है। जिसे साधुपना पालना है, उसे अनुकूलता छोडनी होगी और प्रतिकूलता को अपनाना होगा, तभी साधुपने में सच्चा स्वाद आएगा। साधु तो अनुकूलता का वैरी होता है। वह जितनी अनुकूलता लेने जाता है, उतने ही दोषों की वृद्धि होती है। ज्यों-ज्यों दोष बढते हैं, त्यों-त्यों पाप बढता जाता है और वह धीरे-धीरे साधुत्व से स्खलित होने लगता है। अतः साधु में तो प्रतिकूलता में संयम-पालन की शक्ति होनी ही चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 25 मार्च 2014

जर-जमीन-जोरू के मोह से निकलो


जर, जमीन एवं जोरू का मोह शान्त होना कठिन है। इन तीनों वस्तुओं का मोह छूट जाए तो-तो तीर्थ की स्थापना हो जाती है। इनकी ममता न हो तो मार-काट भी न हो, इन्हीं का सब वैर-विरोध है। इनके फंदे में फंसने पर निकलना कठिन है। लेकिन, जो इनके फंदे से निकल जाता है, वह तिर जाता है। हमारी भावना पीडा देने की नहीं है। हमारी भावना तो सबको संसार से निकालने की है। या तो पूरी तरह निकलो या आधे रूप में निकलो। आधे रूप में भी निकलो तो इस भावना से निकलो कि हमें पूरी तरह निकलना है। तूफान उठेगा, पर घबराना नहीं है। हमारी भावना एवं ध्येय सच्चा है। हमारे नायक तो देवाधिदेव हैं। उन देवाधिदेव की आज्ञा का आधार है। हमारी भावना आपको संसार से निकालकर मुक्ति नगरी की ओर भेजने की है। इच्छा और भावना उत्तम है तो फिर शोरगुल से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि परिणाम तो उत्तम ही होगा। जिस वस्तु का परिणाम उत्तम हो, वह वस्तु यदि कडवी भी हो तो भी घोलकर पी लेनी चाहिए। उकाला यदि रक्त-शोधक है तो कडवा होने पर भी पी लेना चाहिए।

कडवा होने के कारण सिर के बाल उखड जाएं पर ज्वर अवश्य उतर जाएगा। आपके भी सिर के बाल उखड जाएं तो संसार के प्रति राग तो घट जाएगा न? जब आग लगी हो तो जल के पम्प प्रारम्भ करने ही पडते हैं, तब आग बुझेगी। सामने वाले को आग से भी बचाना है और आग की कालिमा भी न लगे, यह भी ध्यान रखना है। हम में भी यदि कालिमा आ गई तो हमारे डूबने के लिए भी खड्डे तैयार हैं, यह निश्चित बात है, इसमें तनिक भी शंका नहीं है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 24 मार्च 2014

मन व इन्द्रियों को साधो


मन-शुद्धि और मन की शान्ति तभी आ सकती है, जब आत्मा में भविष्य के लिए चिन्ता जागृत हो और विवेक पूर्वक आगे-पीछे का हम विचार कर सकें।

जीवन को सार्थक करने के लिए हमें अपने मन में उठने वाली अनुचित एवं नकारात्मक, विनाशक तरंगों, इच्छाओं और अनुचित तृष्णाओं को दबा देना चाहिए। विषय-वासनाओं में लीन पांचों इन्द्रियों पर अंकुश लगाना चाहिए और उनके कारण जो पाप हो रहा है, उससे बचकर इस जीवन को सुन्दर बनाना चाहिए। ऐसा करने से आप झूठ, चोरी, अनाचार और लोभ के वशीभूत होकर किसी भी प्राणी को दुःखी करना नहीं चाहेंगे और इस प्रकार की उत्तम नीति यदि जीवन में उतारोगे तो इस लोक में उच्च कोटि की उत्तम आत्म-शान्ति अनुभव करते हुए, जहां जाओगे वहां भी अनुकूल स्थिति और सामग्री प्राप्त करके, उन्नतगामी बनकर आधि, व्याधि और उपाधि से मुक्त होकर जैसा सुख चाहते हो वैसा प्राप्त कर सकोगे। उस सुख को प्राप्त करने की स्थिति में आप पहुंच सकें, तभी आपका जीवन सार्थक होगा।

हमें मन की इच्छा के आधीन नहीं होना है, अपितु उसे अपनी इच्छा के आधीन बनाना है। मन जो कुछ मांगे, वह उसे नहीं देना है, बल्कि हम जो उसे देना चाहें, वही उसे देना है। मन पर अंकुश रखने के लिए उसे तृष्णा से सदा दूर रखना चाहिए। जो-जो बुरी इच्छाएं हैं, उन्हें पूरी नहीं करना चाहिए और अच्छी इच्छाओं को पूरा करने का प्रबल पयत्न करना चाहिए। केवल साधुओं को ही नहीं, गृहस्थियों को भी सुखी होना हो तो उन्हें अपने मन पर अंकुश रखना चाहिए। मन और इन्द्रियों को नहीं साधा तो चौरासी लाख जीव-योनियों में ही भटकते रहना पडेगा।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 23 मार्च 2014

मोह का मारक धर्म


जन्म को मिटाने के लिए, जन्म न लेना पडे, ऐसी स्थिति पैदा करने के लिए जो कुछ किया जाता है, वह धर्म है। मनुष्य जन्म पाकर जन्म का नाश किया जा सकता है। जन्म का नाश होना अर्थात् मरण की परम्परा का नाश होना है। जो कुछ धर्म करना है, वह जन्म का नाश करने के लिए, फिर से जन्म न लेना पडे, इसके लिए करना है। जन्म लेने की इच्छा न हो तो सर्वविरति को स्वीकार किए बिना कोई अन्य रास्ता नहीं है। सम्यग्दर्शन हो तभी सम्यग्चारित्र का भाव प्रकट होता है। संयम लेने की जिसे इच्छा नहीं, सुख को छोडने और दुःख को समभाव पूर्वक भोगने की जिसे अभिलाषा न हो, उसके पास धर्म का नामोनिशान भी नहीं है, ऐसा कहा जा सकता है। मोह को जीता-जागता रखना हो तो ज्ञान भी बेकार है। वह चाहे जितना शिक्षित हो तो भी खतरा ही है। उसकी शिक्षा अनेकों को हानि भी पहुंचा सकती है।

मोह को मारकर और मोह-मारक शासन स्थापित कर मोक्ष में पधारे हुए अरिहंतों के पास हम प्रतिदिन जाते हैं; फिर भी मोह बुरा नहीं लगता, तो यह कैसे चल सकता है? सब तीर्थंकर राजकुल में उत्पन्न हुए थे, उनके पास सुख-वैभव की अपार सामग्री थी। वे उसे ठुकरा कर चले गए। उनकी तुलना में आपके पास कुछ भी नहीं, फिर भी आप उसे पकड कर बैठे हो, मोह का यह कैसा साम्राज्य है? अरिहंत की आराधना करनी है तो मोह के सामने आँखें लाल करनी होगी। मोह को बढाने के लिए अनेकबार धर्म किया और मोह की मार खाते रहे। जिसे यह मोह बुरा नहीं लगता, उसके लिए तो यह मनुष्य जन्म खराब से खराब है। दुनिया जिसे अच्छा समझती है, उसे भगवान बुरा बताते हैं। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 22 मार्च 2014

धर्म का मर्म


 दुःख भोगने योग्य है और सुख छोडने योग्य है’, इस सम्यग्दर्शन के मर्म को समझने के लिए सकल शिक्षण लेना, यह सम्यग्ज्ञान है। सुख छोडकर दुःख भोगने के लिए तैयार हो जाना, यह सम्यक चारित्र है। इसका पालन करने के लिए जगत की सब वस्तुओं से निरीह हो जाना, सम्यक तप है।

धर्म के इस मर्म को समझने के बाद ही स्वाधीन जीवन जीने की भूमिका तैयार होती है। जो सुख में हर्षित नहीं होता और दुःख में संतप्त नहीं होता, वह स्वाधीन जीवन जीने वाला कहा जाता है।दृष्टिराग तो समकित (सम्यक्त्व, सम्यग्दर्शन) को आने ही नहीं देता; परन्तु स्नेह-राग और कामराग भी कई बार समकित को जला डालते हैं। आज बहुत से व्यक्ति इस प्रकार के हैं जो मौज भी मारना चाहते हैं और धर्म भी कमाना चाहते हैं। यह विपरीत दिशा में जाने वाली दो नावों की सवारी के समान है। एक पांव इधर और दूसरा पांव उधर तो कैसे चल सकता है?

अरिहंत परमात्मा तो जगत के दीपस्तम्भ हैं, वे सर्व जीवों को कल्याणकारी मार्ग बताने वाले प्रकाशपुञ्ज हैं। जो इन महापुरुष को देख सकता है, इनके प्रकाश में, इनके आलोक में, इनके बताए हुए मार्ग का अनुसरण कर अपना जीवन संवार सकता है, उन्हें उनका मानव शरीर रूपी जहाज किनारे पर पहुंचा देता है। जो इन प्रकाशपुञ्ज, दीपस्तम्भ के आलोक में अपना अंतरावलोकन नहीं कर सकता और इनके द्वारा प्रकाशित कल्याण-मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकता अथवा नहीं करना चाहता, वह भव-सागर में डूब जाता है। भगवान का चार प्रकार का धर्म सारे संसार का कल्याण करने में समर्थ है। इस धर्म का मर्म जानने योग्य है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 21 मार्च 2014

सच्चे माता-पिता बनो


पुत्र नाटक में जाए, सिनेमा में जाए, गलत रास्ते पर चल पडे, भक्ष्य-अभक्ष्य का खयाल न करे तो आज लोग रोकते तक नहीं हैं और कहते हैं कि समय की हवा है। यदि पुत्र पूजा नहीं करे, उपाश्रय में नहीं जाए तो कहेंगे कि इस पर अध्ययन का बोझा अधिक है। आप सम्यग्दृष्टि माता-पिता हैं न? आप हितैषी संरक्षक होने का दावा करते हैं न? आप कैसे उनके हितैषी हैं? कैसे संरक्षक हैं? आपने कभी यह जांच की है कि आज उनके कानों में कितना पाप-विष भरा गया है? आधुनिक वातावरण, दृश्य-श्रव्य माध्यमों द्वारा आपकी संतान में आज श्री जिनेश्वरदेव के शासन के विपरीत कितने कुसंस्कार पैदा किए जा रहे हैं? यदि इन सब बातों का ध्यान न रखो, इनकी जांच न करो तो आप कैसे उनके हितैषी हैं?

संप्रति राजा, राजा बनकर हाथी पर सवारी कर के माता को प्रणाम करने आए। तब उनकी माता ने कहा, ‘मेरे संप्रति के राजा बनने की मुझे खुशी नहीं है, परन्तु यदि वह श्री जिनेश्वर देव के शासन की प्रभावना करे तो मुझे अपार हर्ष होगा।ऐसी होती है माता। और इसी राजा संप्रति ने सवा लाख जिन मन्दिरों का निर्माण करवाया। आज की माताएं क्या कहती हैं? माता-पिता तो सब बनना चाहते हैं, बच्चों की अंगुली पकडकर सबको चलना है। आज्ञा भी सब मनवाना चाहते हैं, लेकिन ऐसी इच्छा करने वालों को स्वयं में पितृत्व एवं मातृत्व के गुण तो लाने चाहिए न? माता-पिता यदि सही मायने में माता-पिता नहीं बनेंगे तो पुत्र कभी सुपुत्र नहीं बन सकते। मैं उन्मत्त पुत्रों का पक्षधर नहीं हूं, परन्तु जैसे पुत्रों को सचमुच सुपुत्र बनना चाहिए, उसी तरह माता-पिता को भी सच्चे माता-पिता बनना चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 20 मार्च 2014

दुर्गति के कारणों से दूर रहें


स्वयं को जैन कहने वाले भी अनेक मनुष्य आज देव, गुरु और धर्म के विषय में बहुत कुछ कह रहे हैं, लिख रहे हैं। उनमें से अनेक तो अशिक्षित न होकर विद्वान माने जाते हैं, पर तो भी मिथ्यात्व का प्रभाव कितना भयानक होता है, यह उन लोगों के वचनों एवं लेखों से ज्ञात हो सकता है। मिथ्यात्व में इतनी शक्ति है कि वह बुद्धिमान मनुष्य को भी मूर्खतापूर्ण विचारों की ओर घसीट ले जाता है। अतः जिन्हें शास्त्रवेत्ता परमर्षियों के प्रति अगाध श्रद्धा हो, उन्हें तो उन बिचारे पामरों की बातों पर ध्यान न देकर उन पर दया करनी चाहिए। श्री जिनेश्वर भगवान के शासन में देव, गुरु और धर्म का स्वरूप दोष रहित और गुण-युक्त होने के आधार पर निश्चित किया गया है। ऐसे स्वरूप का वर्णन राग-द्वेष से सर्वथा रहित होकर सर्वज्ञ तारणहारों ने किया है। यदि यह बात लक्ष्य में रखी जाए तो देव, गुरु और धर्म पर अश्रद्धा होने का कोई कारण नहीं है। जिनके ध्यान में यह बात नहीं है, उन्हें मिथ्यात्व आदि के कारण सत्य एवं उचित बात भी मिथ्या एवं अनुचित लगे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। लब्बोलुबाब यह कि जिन्हें मोक्ष के प्रति रुचि नहीं है तथा शुद्ध जिन-कथित मोक्षमार्ग के प्रति श्रद्धा नहीं है; उनके द्वारा कही हुई अथवा लिखी हुई तत्त्वों के स्वरूप संबंधी बातों की सामान्यतया हमें उपेक्षा ही करनी चाहिए। परमोपकारी महापुरुषों ने देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरक इन चार गतियों के कारणों का उल्लेख किया है। उन कारणों को समझकर, उनमें जो-जो दुर्गति के कारण बताए गए हैं, उनसे यथासंभव हमें दूर रहना चाहिए। इसके साथ-साथ संसार के प्रति विरक्ति और शुद्ध मोक्षमार्ग अपनाने की अभिलाषा रखनी चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 19 मार्च 2014

धिक्कारने योग्य सहनशीलता


सहनशीलता तो तभी प्रकट करनी चाहिए, जब खुद के ऊपर मुसीबतों का पहाड टूट पडा हो। जब धर्म के ऊपर संकट के बादल मंडरा रहे हों, विरोधी लोग देव-गुरु-धर्म की खुलेआम निंदा कर रहे हों, उन पर चोट पहुंचा रहे हों या फिर अन्याय-अनीति से धर्म की हानि हो रही हो, अहिंसा को जड-मूल से उखाडने की बातें चल रही हो, और ऐसे संकट की घडी में कोई सहनशील बनने की सलाह दे तो ऐसी सलाह कभी भी बर्दाश्त करने योग्य नहीं है। ऐसे प्रसंगों पर सहनशीलताधारण करने वाला सहनशीलनहीं है, अपितु काम को बिगाडने वाला है, कायर है। यह सहनशीलता का गलत अभिप्राय है।

अपने फर्ज से आँखें मूंदने के लिए ऐसी सहनशीलता का सहारा कभी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता, बल्कि इसके विपरीत ऐसी सहनशीलता का उपदेश देने वाले धिक्कारने योग्य हैं और समाज को भी सावधान होकर ऐसे लोगों से बचकर रहना चाहिए, अन्यथा लुट जाएंगे। जब धर्म के ऊपर संकट के बादल मंडरा रहे हों, देव-गुरु-धर्म पर हमला हो, अन्याय हो; तब उसका प्रतिकार न करना, अनीति के खिलाफ खडे न होना, मानवता के लिए घोर कलंक है, श्रावकत्व पर कलंक है, समाज पर कलंक है। सच्चा धर्मवीर ऐसे अन्याय के विरूद्ध अलख जगाता है। वह न तो स्वयं अन्याय करता है और न अपने सामने होने वाले अन्याय को देख सकता है। वह सदैव अन्याय और अनीति के प्रतीकार के लिए कटिबद्ध रहता है। अन्याय का प्रतिकार करने के लिए देव-गुरु-धर्म-समाज-संस्कृति के चरणों में वह अपने प्राणों को हंसते-हंसते बलिदान कर देता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 18 मार्च 2014

सम्यग्दर्शन रूपी सूर्य का प्रकाश


इस विश्व की प्रत्येक आत्मा स्वभाव से निर्मल ज्ञान, दर्शन और चारित्र की स्वामी होने पर भी अनादिकालीन कर्मसंयोग के कारण अनंतकाल से मिथ्या-ज्ञान और मिथ्या-दर्शन के गाढ आवरण से आवृत है। जहां तक आत्मा से ये आवरण न हटें, वहां तक उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति मिथ्यात्वसहचरित होने से विपरीत दिशा में ही होती है। परिणाम स्वरूप सुख की अभिलाषी आत्मा अपने सुख के लिए जो प्रयत्न करती है, उनके द्वारा वह अधिक से अधिक दुःख की तरफ बढती जाती है। आत्मा पर छाया हुआ मिथ्यात्व का यह अंधकार पांच प्रकारों में विभक्त है।

अनादिकालीन मिथ्यात्व के गाढ अंधकार से घिरी हुई आत्मा राग-द्वेष की निबिड ग्रंथि से ऐसी बंधी हुई और दृष्टिराग के बंधन से ऐसी जकडी होती है कि देव-गुरु-धर्म के विषय में वह कभी यथार्थ विवेक नहीं दिखा पाती। अतत्त्व में तत्त्वबुद्धि और तत्त्व में अतत्त्वबुद्धि के कारण पौद्गलिक भावों में और संसार की क्रियाओं में उसे किसी प्रकार का अधर्म दृष्टिगोचर नहीं होता और आत्महितकर क्रियाएं उसे निरर्थक और डुबो देनेवाली लगती हैं।

कालपरिपक्वता के योग से, भव्यत्व स्वभाव प्रकट होने से, लघुकर्मिता के योग से उसकी आत्मा पर छाया हुआ गाढ मिथ्यात्वरूपी अंधकार जब हटने लगता है तब, मिथ्यात्व के मंद होने के कारण जीव में मोक्षाभिलाषा प्रकट होती है। इसके बाद निसर्ग से या सद्गुरु के उपदेश से सम्यग्दर्शन की अनिवार्यता का बोध और उसे प्राप्त करने की तीव्र अभिलाषा प्रकट होती है। जीव की इन सब अवस्थाओं का काल शुद्ध यथाप्रवृतिकरण का काल है। अनादि यथाप्रवृतिकरण द्वारा ग्रंथिदेश पर आया हुआ जीव इस शुद्ध यथाप्रवृतिकरण के द्वारा ही अपूर्वकरण को पाता है और उस अपूर्वकरण के द्वारा ग्रंथिभेद करता है। इसके बाद अनिवृत्तिकरण द्वारा मिथ्यात्व का उपशम कर अंतःकरण की स्थिति को प्राप्त करता है। उस समय उसके प्रत्येक आत्मप्रदेश पर सम्यग्दर्शनरूपी सूर्य का प्रकाश अत्यंत चमक उठता है।

इस प्रकार सम्यग्दर्शन को प्राप्त आत्मा में यथासंभव पांच प्रकार के विशिष्ट लक्षण प्रकट होते हैं, पांच प्रकार के दूषणों से वह बचता है, पांच प्रकार के भूषणों से वह सम्यग्दर्शन को अलंकृत करता है और इस सम्यग्दर्शन के प्रभाव से ही इस आत्मा में अनेक प्रकार की उत्तमताएं प्रकट होती है।

उस आत्मा को श्री जिनेश्वर देव के वचनों में ऐसा अविहड विश्वास पैदा होता है कि मानो जिसके योग से इसके प्रत्येक आत्म प्रदेश पर तमेव सच्चं निस्संकं जं जिणेहि पवेइयंका मुद्रा लेख अंकित हो गया हो। अर्थ-काम उसे हेय लगते हैं। सुख में वह लीन नहीं होता और दुःख में दीन नहीं बनता। सुदेव-सुगुरु और सुधर्म उसकी आंख के सामने रमते रहते हैं। वह उनका सदा प्रशंसक होता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 17 मार्च 2014

सर्व-गुण का मूल सम्यग्दर्शन


सम्यग्दर्शन सब गुणों का मूल है। सम्यग्दर्शन के बिना गुण भी सहीरूप में गुण की कोटि में नहीं आते। इसी कारण उपकारी कहते हैं कि यम और प्रशम को जीवन देने वाला सम्यग्दर्शन है, ज्ञान और चारित्र का बीज सम्यग्दर्शन है, तप तथा श्रुत आदि का हेतु भी सम्यग्दर्शन है।अनंतज्ञानियों ने ऐसा कहा है कि चारित्र और ज्ञानरहित भी दर्शन श्लाघ्य है, परंतु मिथ्यात्व से दूषित ज्ञान एवं चारित्र श्लाघ्य नहीं है। ज्ञान और चारित्र से हीन श्रेणिक महाराजा सचमुच सम्यग्दर्शन के महात्म्य से तीर्थंकर पद को प्राप्त करेंगे। चारित्र और ज्ञान न रखने वाले प्राणी भी सम्यग्दर्शन के प्रभाव से असीम सुख के निधानरूप मोक्ष को प्राप्त करते हैं। यह सम्यग्दर्शन संसार-सागर से पार होने के लिए पोत (जहाज) के समान है तथा दुःखरूपी कांतार को जलाने के लिए दावानल के समान है। ऐसे सम्यग्दर्शन नामक रत्न का आश्रय लो।

सम्यग्दर्शन की महिमा सच्चे मुमुक्षुओं को मुग्ध बनाने वाली है। क्योंकि, सच्चे मुमुक्षु यम, प्रशम, ज्ञान और चारित्र के अनुपम अभिलाषी होते हैं। जीवन में प्राप्त हुए यम और प्रशम को जीवित रखने के लिए सम्यग्दर्शन की अनिवार्य आवश्यकता है। सम्यग्दर्शन रहित यम या प्रशम वास्तविक नहीं होते। जो यम-प्रशम सम्यक्त्व की प्राप्ति में कारणभूत नहीं होते, वे तो एक प्रकार से शत्रु के समान ही होते हैं। घोर मिथ्यादृष्टियों के यम और प्रशम भी एक तरह से मोह के ही प्रतिनिधि होते हैं। इन्द्रियों पर नियंत्रण करने वाला यम और कषायों को रोकने वाला प्रशम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति वाले अथवा सम्यग्दर्शन की सन्मुख दशा वाले आत्माओं में ही सच्चे स्वरूप में होते हैं। इससे भिन्न जाति के आत्मा तो यम और प्रशम के नाम से भी मोह की ही उपासना करने वाले होते हैं। यम और प्रशम के नाम से मोहाधीन दशा भोगने वाले पामरों का ज्ञान भी अज्ञानरूप ही होता है। ऐसे व्यक्तियों का घोर चारित्र भी कर्मक्षय में हेतुभूत नहीं होता। ऐसे लोग मिथ्याश्रुत में ही मस्त रहने के कारण उनका उग्र तप भी कायकष्टरूप ही होता है; वह आत्मा पर लगे हुए और आत्मा के स्वरूप को आच्छादित करने वाले कर्मसमूह को सहजरूप से तपानेवाला नहीं होता।

सम्यग्दर्शन की महिमा को सुनकर मुमुक्षु यम या प्रशम के प्रति, ज्ञान या चारित्र के प्रति, तप या श्रुत आदि के प्रति उपेक्षा करने वाले नहीं बनते, अपितु उद्यमवंत बनते हैं। यम-प्रशम की जीवातु अर्थात् जीवनदाता औषधि को, सम्यग्दर्शन को पाकर यम-प्रशम के अनभिलाषी बनें, यह संभव ही नहीं है। ज्ञान और चारित्र के बीज को पाकर भी ज्ञान और चारित्र प्राप्त करने की तीव्र लालसा न पैदा हो, यह भी संभव नहीं है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 16 मार्च 2014

सम्यग्दर्शन रत्नदीप है!


सम्यग्दर्शन रत्नदीप है!

प्रथम के पांच परमेष्ठिपदों में विराजमान श्री अरिहंतदेव, श्री सिद्ध परमात्मा, श्री आचार्य भगवान, श्री उपाध्याय भगवान और श्री साधु भगवंतों का ध्यान करने का उपदेश देने के पश्चात जिसके द्वारा परमेष्ठि पद पर पहुंचा जा सकता है, उन सम्यग्दर्शन आदि चारों पदों का स्वरूपदर्शन कराने के साथ ही गणधर भगवान श्री गौतमस्वामीजी महाराज सम्यग्दर्शनरूप रत्नप्रदीप को मनोमंदिर में सदा के लिए स्थापित करने का, सम्यग्ज्ञान को सीखने का, सम्यकचारित्र के परिपालन का और सम्यक तप को आचरने का उपदेश देते हैं। उसमें श्री सम्यग्दर्शन पद के विषय में वे तारक कहते हैं कि-

हे भव्य जीवों! आप सदा के लिए अपने मनरूपी भुवन में श्री सर्वज्ञ परमात्मा द्वारा प्रणीत आगमों में प्रकटित तत्त्वरूप अर्थों की सद्दहणा श्रद्धारूप-दर्शनरूप प्रदीप को अर्थात् सम्यक्त्वरूप रत्नप्रदीप को स्थापित करें।

आप देख सकते हैं कि गणधर भगवान श्री गौतमस्वामीजी महाराज जैसे भी श्री सर्वज्ञ परमात्मा द्वारा कथित आगमों में प्रकटित तत्वरूप अर्थों की श्रद्धा को रत्नप्रदीपकी उपमा देकर, उस रत्नप्रदीप को सदा के लिए मनरूपी मंदिर में स्थापित करने का उपदेश देते हैं। इस उपदेश पर विचार करने से आप स्वयं समझ सकेंगे कि इस दीपक के अभाव में किसी भी प्रकार का प्रकाश वस्तुतः प्रकाश ही नहीं है; क्योंकि इसके अतिरिक्त अन्य सब प्रकाश आत्मा को वस्तुतः अंधा बनाने वाले ही हैं

इस सम्यक्त्वरूप रत्नप्रदीपके प्रकाश से रहित ज्ञान, चारित्र और तप आत्मा के मूलस्वरूप को प्रकट नहीं कर सकते। मुक्ति के अभिलाषी को एक क्षण भी इस रत्नदीपके बिना रहना अपनी मुक्ति की अभिलाषा को नष्ट करने के समान है। क्योंकि, इस रत्नप्रदीपके बिना वस्तुस्वरूप का सच्चा भान नहीं हो सकता। इसीलिए चार ज्ञान के स्वामी और द्वादशांगी के प्रणेता श्री गणधर देवों ने भी अपने हृदय में तमेव सच्चं निस्सकं जं जिणेहि पवेइयं’ (वही सत्य और निःशंक है, जो श्री जिनेश्वर देवों ने कहा है) इस प्रकार का निर्धारण किया और ऐसा ही निर्धारण करने के लिए प्रत्येक कल्याणार्थी भव्य जीव को उपदेश दिया।

अब आप विचार करिए कि शासन के सिरताजों के इन उपदेशों की अवगणना करके इस जमाने में आगमों को दूर रखो, अभी तो जमाने को देखो’, ऐसा कहने वालों में आचार्यत्व या साधुत्व किस प्रकार टिक सकता है? जो आगमों की आज्ञा की अपेक्षा रखे बिना यथेष्टरूप से लिख रहे हैं या बोल रहे हैं, वे किस प्रकार स्वयं को एक क्षण के लिए भी प्रभु के शासन में रख सकते हैं? विचार के बाद शुद्ध विचारकों को कहना ही पडेगा कि नहीं, किसी भी तरह नहीं! -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 15 मार्च 2014

मुक्तिदायक दान कौनसा?



दान धर्म की बात आने पर ऐसा विचार तो होता है कि दान अच्छा है, परंतु लक्ष्मी बुरी है, ऐसा विचार प्रायः नहीं आता! दान से अनंत आत्मा मोक्ष में गई, यह बात सत्य है, परंतु मुक्तिदायक दान-धर्म का आचरण कब होता है? तब ही, जब लक्ष्मी आदि पौद्गलिक पदार्थ परहैं और असार हैं, ऐसा निश्चितरूप से माना जाए। असार मानने के पश्चात् उस आत्मा को उसके भोग में आनंद नहीं ही आता है। द्रव्यदान में देने योग्य वस्तु का दान होता है, परंतु आज तो लक्ष्मी गले से ऐसी चिपकी है कि उसके देने से भविष्य में अधिक मिलेगी, ऐसा मान कर ही प्रायः दान होता है।


इसलिए आपको यह समझना होगा कि ममता के घटने पर ही सही रूप में, हाथ उदार बनेगा। यह बात सत्य है कि गृहस्थ सब लक्ष्मी को नहीं छोड पाता, परंतु उसका मनोरथ तो सब लक्ष्मी को छोडने का ही होता है! इसमें तो कोई शंका नहीं रहनी चाहिए। गृहस्थ आय के अनुसार दान करे, इसमें कोई दोष नहीं है, परंतु लक्ष्मी मात्र पर से ममता उतारने के प्रयत्न में तो उसे लगना ही चाहिए। क्योंकि, ममता के घटने पर ही धर्म का प्रेम बढता है। जो कचरा इकट्ठा हुआ है, वह खाली होगा तो स्वयं ही रुचि जागृत करने के लिए इतनी मेहनत नहीं करनी पडेगी।


आप देख सकते हैं कि सच्चे दानी को चाहे जैसी स्थिति में भी अपने पास का देने में जरा भी हिचक नहीं आती। इसीलिए कहावत भी है कि जल के अभिलाषी सूखने पर भी नदी के मार्ग को ही खोदते हैं’, क्योंकि वहां से पानी मिलने की संभावना है। यह सब कहने का तात्पर्य यही है कि गृहस्थावास पूरा ही त्याज्य है, यही आपकी समझ में आए। परंतु ध्यान में रखिए कि यह बात विषयासक्त आत्माओं की समझ में नहीं आती। क्योंकि वे आत्माएं उनके ऊपर विपत्तियां आने पर भी माता-पिता और बंधुओं को याद करती हैं, भाग्य को कोसती हैं, परंतु रहती तो वहीं की वहीं! वहां रहकर ममतावाली बन कर, विषयाधीन होकर और मेरा-मेराकरके ऐसा पाप बांधते हैं कि परिणाम में उन्हें नरकादि दुर्गति में ही जाना पडता है। दुर्गति में रहते हुए भी रोती-चिल्लाती रहती हैं। क्योंकि कर्मसत्ता के सामने किसी की कुछ नहीं चलती! कर्मसत्ता के समक्ष कोई भी दलील, प्रमाण या साक्षी नहीं चल सकती, मिथ्या होशियारी काम नहीं आती, उसे रिकार्ड बांचने की जरूरत नहीं होती। वह तो अपराध करने पर और उसके भोगने के समय पर शीघ्र ही कान पकडकर बिना किसी समन्स या वारन्ट के पकड ले जाती है। पीछे की व्यवस्था यों ही धरी रह जाती है। सचमुच, आजकल तो इस बात का विश्वास दिलाने वाली भयंकर बीमारियां भी मौजूद हैं तो भी आप इतने बहादुर हैं कि आपको दुष्कृत्य छोडने और सुकृत्य करने का विचार भी नहीं आता। यह जानकर आपकी बहादुरी पर सचमुच दया-करुणा आती है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा