शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

धर्म प्राप्त करने की योग्यता


आप सोचें कि आप अनदेखी-अनसुनी कहां करते हैं? धर्म के विषय में या अर्थ-काम के विषय में? धर्म के प्रति आज जो उपेक्षा बुद्धि आ गई है, उसे हटाकर उपादेय-बुद्धि लानी चाहिए। अर्थ-काम के प्रति जिनकी उपादेय बुद्धि है, उसे हटाकर उनके प्रति हेय बुद्धि लानी चाहिए। अर्थ-काम-धर्म में से धर्म-पुरुषार्थ प्रधान लगता हो तो धर्मीपन को पाने की योग्यता आई, ऐसा समझना चाहिए। धर्म की अपेक्षा अर्थ-काम प्रधान लगे तो धर्मीपन की योग्यता से गए! मार्गानुसारी तीनों की सेवना इस प्रकार करता है कि परस्पर बाधा उत्पन्न न हो। प्रत्येक को सोचना चाहिए कि हमारी स्थिति कैसी है? अर्थ-काम के लिए धर्म का भोग चढा दिया हो तो पश्चात्ताप भी होता है या नहीं? कोई धर्म-कार्य की पानडी आई, धन-लोभ ने घेर लिया, स्वयं लिखवाना नहीं, इसलिए आडी-टेडी बातें कर उसे उडा दी, परंतु यहां से निकलते हुए आत्मा को अंत में इतना भी लगता है कि धूर्तता की? यह ठीक नहीं किया, ऐसा विचार होता है? आत्मा की दशा का विचार करना सीखो और गुण न हो तो गुण को प्राप्त करो। यदि गुण है तो उसे स्थिर करने के लिए उपयोग वाले बनो, हेय के त्याग और उपादेय को स्वीकार करने में उद्यमशील बनो।

जहां तक संसार के प्रति उचित अरुचि न हो, वहां तक मोक्ष के प्रति उचित रुचि कैसे आ सकती है? मोक्ष के प्रति उचित रुचि उत्पन्न हुए बिना मोक्ष के उपाय बराबर गले उतरें और उनका उचित पालन हो, यह कैसे हो सकता है? मोक्ष के प्रति द्वेष न हो, धर्म के प्रति अरुचि न हो, यह हो सकता है, परंतु धर्म के प्रति रुचि पैदा की जाए और मोक्ष की भावना बलवती बने, यह आवश्यक है। इसके लिए श्री जिनेश्वर-कथित धर्म की आराधना में आत्मा को लगाना चाहिए। मेरी संसार के प्रति रुचि नष्ट हो, तथा धर्म ही उपादेय लगे और मोक्ष मिले; इसके लिए मैं धर्माराधना करता हूं, ऐसी भावना विकसित करनी चाहिए। धर्मीपन दिखाई न दे तो इससे परेशान होने के बजाय उसे लाने का प्रयत्न करना चाहिए।

आज कई लोगों की धर्म की सामान्य बात में भी यह कहने की आदत हो गई है कि शक्ति नहीं है।शक्ति न हो और इस कारण धर्म नहीं हो सकता हो, यह संभव है, परंतु हृदय कैसा होना चाहिए? भावना कैसी होनी चाहिए? धर्म नहीं होता है, इसकी ग्लानि कितनी होती है? आप विचार करके देखें कि क्या आप शक्ति के अनुसार धर्म करते हैं? आज तो लगभग यह हालत है कि शक्ति है, उतनी भावना नहीं है, भावना है, उतना प्रयत्न नहीं रहा है और प्रयत्न है, उतना रस नहीं रहा है। आज बहुतों की यह दशा है। धर्म का काम आए या धर्म का काम सुने तो एकदम शिथिलता आ जाती है और बाजार का काम आए तो एकदम उत्साह आ जाता है, न हो वहां से शक्ति आ जाती है। यह क्यों? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

संसार नहीं छूटता इसका पश्चात्ताप होता है?


यदि संसार छूट जाए तो इसमें अप्रिय क्या है? संसार से छूटने के लिए तो सारी मेहनत है। हेय हेय-रूप में, उपादेय उपादेय-रूप में और ज्ञेय ज्ञेय-रूप में लगे, आगे-पीछे भी हेय का त्याग और उपादेय का स्वीकार तो होने वाला ही है। अर्थ-काम छोडने योग्य और धर्म करने योग्य, ऐसा यदि हृदय में अच्छी तरह निश्चित हो जाए, तो छोडने योग्य पुरुषार्थ में अनुरक्त बनकर ग्रहण-योग्य पुरुषार्थ की उपेक्षा हो तथा उसके ग्रहण न हो सकने का दुःख भी न हो, ऐसा नहीं हो सकता। फिर भी, एक बात यह भी निश्चित है कि उस प्रकार के किसी कर्म के योग से प्रतिदिन पश्चात्ताप होने पर भी सारे जीवन में भी हेय का उचित त्याग और उपादेय का आचरणरूप उचित स्वीकार नहीं भी हो सकता है।

पश्चात्ताप होने पर भी न छोडा जा सके, यह संभव नहीं है, ऐसा नहीं है। कुछ रोग ऐसे होते हैं कि जीवनभर बिस्तर नहीं छूटता। तो भी कब बिस्तर छूटे और मेरा रोग जाए, ऐसी भावना रोगी को अवश्य होती है। जैसे रोगी रोग के आधीन है और अपनी भावना होने पर भी बिस्तर छूटता नहीं, वैसे ही कोई आत्मा कर्म की परवशता से हेय का पश्चात्ताप होने पर भी त्याग नहीं कर पाता हो, यह संभव है, परंतु भावना तो हेय के त्याग की और उपादेय के ग्रहण की होनी ही चाहिए।

जो संसार को नहीं छोड सकते हैं, वे संसार में रहकर भी देश (अंश) से धर्म की आराधना कर सकते हैं। जो संसार का त्याग करें, वे ही धर्म कर सकते हैं और धर्मी गिने जा सकते हैं; और दूसरे थोडा भी धर्म नहीं कर सकते, ऐसा नियम इस शासन में नहीं है। निस्संदेह, संसार का त्यागकर धर्म की प्रवृत्ति में आत्मा को जोडने वाले उत्तम प्रकार के धर्मी हैं। परंतु संसार में रहकर देश से भी धर्म की आराधना नहीं की जा सकती, ऐसा नहीं है।

त्यागी की अपेक्षा आराधना बहुत कम होती है, ऐसा कहा जा सकता है, परंतु आराधना नहीं ही होती है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। संसार में रहकर धर्म की आराधना करने वाले का ध्येय तो संसार से मुक्त होने का ही होना चाहिए। संसार छोडने जैसा है, यह मान्यता उसकी होती ही है।

इस मान्यता के होने पर भी संसार नहीं छूटता है, इसका उसे दुःख हुए बिना नहीं रहता। संसार को नहीं छोड सकने वाले विशिष्ट गृहस्थ धर्म की आराधना कर सकते हैं और यह विशिष्ट धर्म प्राप्त न हो, वहां तक सामान्य गृहस्थ धर्म की आराधना कर सकते हैं। धर्म के सन्मुख होने की दशा आ जाए तो भी यह अंशतः अच्छा है। ऐसी आत्मा कभी तो धर्म को प्राप्त करेगी और उसकी आराधना भी करेगी।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

मार्गानुसारी की मनोदशा


सम्यग्दर्शन को प्राप्त आत्मा तो अर्थ-काम को हेय ही मानती है और धर्म को उपादेय मानती है, परंतु मार्गानुसारी क्या मानती है? मार्गानुसारीपन भी सामान्य धर्म की कोटि में आता है। मार्गानुसारीपन को प्राप्त आत्मा धर्म को सुनने की योग्यता वाली मानी जाती है। इन आत्माओं की धर्म, और अर्थ-काम, इन तीनों में उपादेय बुद्धि होती है। श्री जिनेश्वर देवों के कहे अनुसार अर्थ-काम में इन आत्माओं की हेय बुद्धि नहीं होती। ये ऐसा मानती हैं कि धर्म, अर्थ और काम, ये तीनों ही एक दूसरे के बाधक न बनें, इस तरह इनका सेवन करना चाहिए। धर्म में इन आत्माओं की उपादेय बुद्धि तो होती है, परंतु अर्थ-काम हेय ही हैं, ऐसी दशा उनकी नहीं होती है। ऐसी आत्मा भी अर्थ एवं काम में से जिसकी उपादेय बुद्धि सर्वथा गई नहीं है और अर्थ काम-हेय हैं तथा धर्म ही उपादेय है, ऐसा जिसे लगता नहीं, वह भी अवसर आने पर किसके लिए किसको छोडना पसंद करती है, यह आप जानते हैं? सामान्यतया तो वह धर्म, अर्थ, काम को परस्पर बाधा न पहुंचे, इस तरह प्रवृत्ति करती है; परंतु अवसर आने पर काम के लिए धर्म और अर्थ को वह छोडती नहीं, परंतु काम को छोड कर धर्म और अर्थ की रक्षा करती है।

इसी तरह अर्थ और काम के लिए धर्म को छोडती नहीं, अर्थ और काम के लिए धर्म को छोडने की वृत्तिवाली नहीं होती, बल्कि धर्म के लिए आवश्यकता पडने पर अर्थ और काम को छोडने की वृत्तिवाली होती है। काम की अपेक्षा अर्थ और धर्म को प्रधान मानती है और काम तथा अर्थ की अपेक्षा धर्म को प्रधान मानती है। ऐसी आत्मा श्री जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित धर्म को सुनने की योग्यतावाली मानी जाती है और इसीलिए ज्ञानी पुरुषों ने इसे धर्म देशना के लिए योग्य अथवा गृहस्थ धर्म के योग्य बताया है। उक्त दोनों बातों को जान लेने के बाद, यह विचार करना चाहिए कि हम धर्म को प्राप्त हैं या नहीं? यदि हमारी आत्मा यह स्वीकार करे कि हम धर्म को प्राप्त हैं, अर्थ-काम को उपादेय नहीं मानते, अपितु हेय मानते हैं; धर्म के प्रति उपादेय बुद्धि है और ज्ञानियों ने संसार आदि का जो स्वरूप जैसा बताया है, वैसा ही हमें लगता है, तो यह प्रसन्नता की बात है। हेय के त्याग में और उपादेय के स्वीकार में शक्ति का गोपन न करते हुए प्रवृति करना उचित है। परंतु, यदि आत्मा ऐसा कहे कि नहीं-नहीं, अभी अर्थ-काम में से उपादेय बुद्धि गई नहीं है, अर्थ-काम में हेय बुद्धि आई नहीं है, धर्म के प्रति चाहिए वैसी रुचि जागृत नहीं हुई है और श्री जिनेश्वर देवों ने जो कहा, वह सत्य और निःशंक है, ऐसा कहते अवश्य हैं, परंतु संसार आदि जिस रूप में लगने चाहिए, उस रूप में लगते नहीं हैं, तो विचार करने के लिए अवश्य रुकना चाहिए। हम अपने आपको धर्मी न होते हुए भी धर्मी मान लें, तो इससे लाभ नहीं, हानि होने की संभावना ही है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

धर्मी कहलाना सरल है, धर्मी बनना कठिन है


आत्मा को अर्थ-काम का परिचय अनादिकाल से है। अनादिकाल का अभ्यास होने से आत्मा उस तरफ न ही ढले, ऐसा नहीं कहा जा सकता। ढाल होने पर पानी ढलता है, इसी तरह आत्मा अर्थ-काम की तरफ ढल जाए, यह संभव है, परंतु विचार यह होना चाहिए कि यह खराब हो रहा है। आपको विचार करना चाहिए कि आत्मा अर्थ-काम की तरफ ढलती है या बढती है? आत्मा अर्थ-काम की तरफ उपादेय बुद्धि से खींचती जाती हो तो समझना चाहिए कि अभी गुण प्रकट नहीं हुआ है। प्रवृत्ति हो जाना सहज है, परंतु अर्थ-काम की तरफ आत्मा खींची चली जाती हो और उसमें आनंद मानती जाती हो, यह हानिकारक है, दुःखदायी है, संसार में भटकाने वाला है, ऐसा कभी न लगता हो और इस तरह इनमें यदि उपादेय बुद्धि आ जाती हो तो समझना चाहिए कि हमसे अभी सम्यग्दर्शन का गुण दूर है। यदि अर्थ-काम के संसर्ग में रहने पर भी, उसका भोगादि चालू होने पर भी, तारकों के कथनानुसार इनमें हेय बुद्धि रहती हो तो समझना चाहिए कि गुण प्रकट हुआ है।

सम्यग्दर्शन की अपेक्षा से धर्मी कौन? धर्म-अर्थ-काम में धर्म को ही उपादेय माने और अर्थ-काम को हेय ही माने वह। चाहे जैसे दिव्य सुख या मनुष्यलोक के सुख और सब पौद्गलिक सुख उस आत्मा को दुःखरूप लगने चाहिए, क्योंकि वह अर्थ और काम को हेय मानती है। आपको पौद्गलिक सुख कैसे लगते हैं? धर्मी कहलाना सरल है, स्वयं को धर्मी मान लेना सरल है, परंतु धर्मी बनना कठिन है।

अर्थ और काम हेय लगते हों, उनमें से उपादेय बुद्धि उड गई हो और हेय बुद्धि आ गई हो; और धर्म ही उपादेय लगता हो तो आत्मा का व्यवहार बदल जाता है। उसे प्रसंग-प्रसंग पर ऐसा लगता है कि मैं अपनी शक्तियों को हेय के पीछे क्यों बर्बाद करती हूं? उपादेय के आचरण में मैं पंगु क्यों हूं? वह उपदेश का आचरण न कर पाए, यह संभव है, हेय को न छोड पाए, यह संभव है, परंतु उसकी आत्मा ऐसा कहती है कि यह जो हो रहा है, वह अच्छा नहीं है। उसे यह लगता है कि संसार में बैठा हूं, इसलिए अर्थ-काम में मेरी प्रवृत्ति है, लेकिन है तो यह हेय ही और छोडने योग्य ही। अपनाने योग्य उपादेय तो सिर्फ धर्म ही है, क्योंकि उसी के माध्यम से मैं मोक्ष के लिए पुरुषार्थ कर सकता हूं।

सत्य को सत्य न मानने के कारण यह कठिनाई है। अर्थ-काम दुःखदायी हैं, यह अनुभव से मालूम पडता है, अनंत ज्ञानी महाउपकारी कहते हैं, तो भी हमें वह हेय न लगे और धर्म ही उपादेय न लगे, ऐसी दशा हो तो ऐसी आत्माओं को अवश्य चेत जाना चाहिए और धर्मी बनने के लिए प्रयत्नशील बन जाना चाहिए। प्रसंग आने पर आपकी धर्म के लिए अर्थ-काम को छोडने की वृत्ति है या अर्थ-काम के लिए धर्म को छोडने की वृत्ति है? सोचिए जरा! -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

धर्म ही उपादेय है!


सर्वविरति धर्म हो या देशविरति धर्म, साधु धर्म हो या गृहस्थ धर्म, उसका मूल सम्यग्दर्शन है। इस सम्यग्दर्शन गुण को प्राप्त व्यक्ति कैसा होता है? धर्म, अर्थ और काम में से अर्थ और काम जिसे एकांत हेय ही लगते हैं और एकमात्र धर्म ही जिसे उपादेय लगता है, वह सम्यग्दृष्टि है। अर्थ और काम में उसकी लेशमात्र भी उपादेय बुद्धि नहीं होती। यह संभव है कि वह अर्थ और काम के बीच रहे, अर्थ और काम प्राप्त करे और भोगे, परंतु वह अर्थ और काम को हेय ही समझता है तथा धर्म को ही उपादेय मानता है। अर्थ और काम में उपादेय बुद्धि आई कि सम्यक्त्व उड गया। सम्यग्दर्शन गुण को प्राप्त व्यक्तियों का यह लक्षण है। अर्थ और काम में यह हेय बुद्धि आई है? यह छोडने योग्य है, ऐसा लगा है? धर्म उपादेय लगा है? उपादेय और हेय में से हृदय किस ओर झुकता है? अर्थ-काम ग्रहण करने योग्य नहीं; त्याग करने योग्य हैं और धर्म आदरने योग्य है, ऐसी मान्यतावाली दशा कब आती है? श्री जिनेश्वर देवों ने जो तत्त्व जिस रूप में कहा है, वह वैसा ही है, ऐसी हृदयपूर्वक श्रद्धा हो तो ही। अर्थ-काम में उपादेय बुद्धि आती हो तो समझना चाहिए कि अभी कुछ बाधा है। उस बाधा को टालने के लिए यह प्रयत्न है। यह बाधा दूर हुई कि संसार की मंजिल माप ली है, यह समझना चाहिए।

एक पुण्यात्मा की भावना को प्रदर्शित करते हुए कलिकालसर्वज्ञ आचार्य भगवान श्रीमद् हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज कहते हैं कि-

तुल्ये चतुर्णां पौमर्थ्ये, पापयोरर्थकामयोः ।

आत्मा प्रवर्तते हन्त, न पुनर्धर्ममोक्षयोः ।।

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष; ये चार पुरुषार्थ माने जाते हैं। इन चार पुरुषार्थों में से किसी की भी साधना करनी हो, तो पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। योग्य प्रयत्न के बिना न तो अर्थ की सिद्धि होती है, न काम की सिद्धि होती है, न धर्म की सिद्धि होती है और न मोक्ष की सिद्धि होती है। भाव यह है कि चारों पुरुषार्थों का पौरुषतुल्य होते हुए भी खेद की बात है कि आत्मा पापरूप अर्थ-काम में प्रवृत्ति करती है, परंतु धर्म और मोक्ष में प्रवृत्ति नहीं करती।' यह भावना कब आती है? अर्थ और काम हेय लगे बिना और धर्म एवं मोक्ष उपादेय लगे बिना यह भावना आ सकती है? अर्थ और काम पुरुषार्थ हैं, परन्तु कैसे? पापरूप। इन पुरुषार्थों की साधना में जितना पुरुषार्थ किया जाए उतना पुरुषार्थ पाप को बढाने वाला ही है। ऐसा होते हुए भी आत्मा इनमें प्रवृत्ति करती है और इनमें ऐसी भानभूल जाती है कि उसे ये ही उपादेय लगते हैं, तो सम्यग्दर्शन टिकेगा? श्री जिनेश्वर देव ने जो कहा वही सत्य और निःशंक है, ऐसा हृदयपूर्वक मानने वाले को अर्थ और काम उपादेय लगते ही नहीं, हेय ही लगते हैं; केवल धर्म को ही वह उपादेय मानता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 23 फ़रवरी 2014

धर्म संसार से छूटने के लिए है


श्री जिनेश्वर देवों ने जिसमें सुख कहा है, उसमें दुःख लगता है और श्री जिनेश्वर देवों ने जिसमें दुःख कहा है, उसमें सुख लगता है; सुख के कारण अच्छे नहीं लगते और दुःख के कारण सुख के कारण लगते हैं तो वह सम्यग्दृष्टि नहीं है। यह मिथ्यात्व के घर का रोग है। हम इस रोग के शिकार हैं या नहीं, यह प्रत्येक को सोचना चाहिए। हमें क्या अच्छा लगता है और क्या अच्छा नहीं लगता, हमको किसमें रस आता है और किसमें नहीं आता, हमें क्या मिले तो आनंद हो और क्या नहीं मिले तो दुःख हो; यह सब विचार करने योग्य है।

जितना संसार याद आता है, उतना श्री जिनेश्वर देव का धर्म याद आता है? थोडा नुकसान हो जाए तो वह जितना खटकता है, उतनी कोई धर्मक्रिया रह जाए तो वह खटकती है? उपादेय बुद्धि धर्म में रहती है या संसार में? शरीर की जितनी चिंता होती है, उतनी आत्मा की होती है? धर्म करते समय भी आँख के सामने संसार होता है या मोक्ष? धर्म संसार में मौज-मजा भोगने के लिए होता है या संसार से छूटने के लिए? यह अहम सवाल हैं, जो विचार-स्फुरणा को जन्म देने वाले हैं। यह सब अवश्य विचार करने योग्य है। यह आत्म-गवेषणा का विषय है।

सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि संसार में से उपादेय बुद्धि निकल जाए और धर्म में उपादेय बुद्धि हो जाए, संसार हेय लगे और धर्म उपादेय लगे। संसार छूट न सके, इसमें तो अविरति का उदय भी कारणभूत हो सकता है, परंतु संसार अच्छा लगता है, संसार से ही मौज-मजा है, ऐसा लगे तो क्या हो? समझदार रोगी को कुपथ्य सेवन करते हुए क्या अनुभव होता है? आत्मा से पूछो कि ऐसी दशा है? धर्मी के रूप में प्रसिद्धि किसे अच्छी नहीं लगती? हमें कोई धर्मी कहे, धर्मी माने और धर्मी मानते रहें, इसके लिए सावधानी रहती है या नहीं?

चाहे जैसी सुख-साहबीवाला संसार भी छोडने योग्य है, दुःखरूप है, ऐसा तो लगना चाहिए न? न छूटने और न लगने के भेद को समझो। संसार न छूटे, इससे मिथ्यादृष्टित्व नहीं आ जाता, परंतु वह हेय न लगे तो मिथ्यादृष्टित्व निश्चित हो जाता है। चाहे जैसा भी पौद्गलिक सुख दुःखरूप लगेगा तो आगे-पीछे देर-सवेर संसार छूट जाएगा; परंतु इसके बदले पौद्गलिक सुखों की झंखना रहा करती हो, पौद्गलिक सुख वालों को देखकर नेत्र शीतलता पाएं, यदि वह दुःखी न लगकर उसके जैसा सुखी होने की भावना होती हो, कब मैं भी इसके जैसा बंगला बनवाऊं, मोटर दौडाऊं, ऐसी इच्छा होती हो, तो यह किसके घर की दशा है? यह सोचो। श्री जिनेश्वर देवों ने पौद्गलिक साधनों से हीन को ही दुःखी नहीं कहा है, अपितु पौद्गलिक सुख साहबी का जिसके पार न हो और जो उसमें आसक्त हों तो वे भी दुःखी हैं, ऐसा श्री जिनेश्वर देवों ने कहा है। यह बात गले उतरती है? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 22 फ़रवरी 2014

‘निसीही’ का उच्चारण अंतरंग से हो!


बहुत मननपूर्वक विचार करिए कि अनंतज्ञानी श्री जिनेश्वर देवों ने इस
संसार को जैसा बताया है, वैसा आपको कभी लगा है?’ यह संसार दुःखमय, दुःखफलक और दुःखपरम्परक है, अतः श्री जिनेश्वर देवों ने इसे हेय कहा है, ऐसा कभी हृदय में विचार हुआ है? ऐसी उत्तम कोटि की सामग्री वाला मनुष्य-भव पाकर भी श्री जिनेश्वर देवों ने संसार के जो उपाय बताए हैं, उनका मैं पालन नहीं कर सकता, यह मेरा दुर्भाग्य है, ऐसा कभी अनुभव होता है? पौद्गलिक पदार्थों को पाने-भोगने-सुरक्षित रखने और बढाने में आसक्त बने रहना, भवपरम्परा को बढाने वाला है, ऐसा कभी सोचा है? यह सब कब छूटेगा और कब मोक्ष-सुख की प्राप्ति होगी, ऐसी विचारणा कभी आई है क्या?

स्तवन बोलते हुए भगवान से मोक्ष तो मांगा जाता है न? यह मांग भी आजकल प्रायः ऊपर-ऊपर की बन गई है! आपो, आपो ने महाराज! अमने मोक्षसुख आपो,’ इस प्रकार दुहरा-दुहरा कर गाते हुए भी क्या संसार सचमुच बुरा है, ऐसा लगा है? यह पद हृदय से बोला जाता है या ग्रामोफोन की रिकार्ड की तरह बोला जाता है? ‘मोक्ष सुख हमें दो’, ऐसा बोलते समय का आसन, दृष्टि, मुख के भाव आदि देखें तो प्रायः ऐसा लगता है कि मुंह से अवश्य बोला जा रहा है, परंतु संसार दुःखमय लगा है, संसार से छूटने की भावना है, संसार में रहना पडता है, यह चुभता है, अतः मोक्ष सुख मांगा जाता है, ऐसा नहीं है। श्री जिनेश्वर देव के पास जाने से पहले तो निसीहीबोलने का विधान है, परंतु यह क्यों बोला जाता है, इसका विचार कितनों को है? ‘निसीहीबोलते हुए आत्मा रुकी? ‘निसीहीका आचरण न हो तो पांव भारी हो जाने चाहिए; अंदर जाने के बाद भी दूसरी भावना आए तो आत्मा को कंपकपी छूटनी चाहिए। संसार हेय है, मोक्ष उपादेय है, ऐसा उस समय भी लगना चाहिए।

जो संसार को ही स्थिरवासरूप बनाना चाहता है, वह सम्यग्दृष्टि नहीं है। सम्यग्दृष्टि तो संसार से छूटने की भावना वाला होता है। सम्यग्दृष्टि वह है जो श्री जिनेश्वर देवों ने जो कहा, वही सत्य और निःशंक है’, ऐसा न केवल कहे, अपितु हृदयपूर्वक माने और उस पर यथाशक्ति आचरण करने का अनवरत रूप से प्रयास करे। श्री जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित तत्त्वों के प्रति उसकी रुचि होती है। चाहे जैसा भी पौद्गलिक सुख हो, उसे विचार करने पर दुःखरूप लगता है। क्योंकि, श्री जिनेश्वर देव का सेवक परिणाम का विचार किए बिना नहीं रहता। इस प्रकार यदि परिणाम का विचार किया जाता रहे तो संसार हेय लगे बिना नहीं रहेगा। संसार छोडा न जा सके, यह संभव है, परंतु उन तारकों के कहे अनुसार छोडने में ही कल्याण है, ऐसा तो वह मानता ही है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

संसारी वस्तुओं की अनुकूलता भी खराब लगनी चाहिए!


पौद्गलिक संयोग मिलें तो ही अनुकूलता हो, पौद्गलिक संयोग हों तो ही शांति मिले, भोजन मिले तो ही भूख शांत हो, पानी मिले तो ही तृषा बुझे, यह ठीक है; परंतु ये चाहिएयह मनोदशा पाप के घर की है, ऐसा आत्मा स्वीकार करती है क्या? जैसे औषधि लेने की नौबत आई, यह पापोदय है, वैसे ये सब भोगादि चाहिए, यह कैसी मनोदशा है? भूख भी एक प्रकार का रोग है। शरीर यदि परलगे, उपाधिरूप लगे तो यह बात समझ में आती है।

दुनिया के पदार्थ मिलने पर अनुकूलता हो सकती है, परंतु यह दशा खराब लगनी चाहिए न? यह दशा कब छूटे, ऐसा लगना चाहिए न? ऐसा होने पर ऐसा लगेगा कि यह दुर्भाग्य है, यह उपाधि है कि खाने-पीने से ही शांति होती है। हम पुद्गल के संयोग में हैं, पुद्गल द्वारा धर्म की आराधना करनी है, पुद्गल को आहार न दें तो समभाव स्थिर नहीं रहता, आत्मा इतनी बलवान बनी नहीं है, इसलिए आहार करना पडता है, ऐसा लगता है?

भोजन जरूरी लगता हो तो तप जरूरी कैसे लगेगा? तप नहीं हो पाता, भोजन न लें तो आत्मा का समाधिभाव नहीं टिकता, ऐसा मानकर भोजन लेने में और आज जो भोजन लिया जाता है, इसमें कोई अंतर है या नहीं? खाने के लिए जीना और जीने के लिए खाना, इसमें बडा फर्क है। श्री जिनेश्वर देवों ने जो कहा, वही सत्य और निःशंक है’, ऐसा हृदयपूर्वक बोलने वाले की आत्मा परभाव में रमण करने वाली नहीं होती।

यदि केवल दुनिया के संयोग ही आवश्यक माने जाएं, इनके बिना चल ही नहीं सकता, ऐसा माना जाए, किसी भी तरीके से इन्हें प्राप्त करना और सुरक्षित रखना ही चाहिए, ऐसा माना जाए तो इनका प्रतिपक्षी अनावश्यक लगेगा या नहीं? ‘श्री जिनेश्वर देवों ने जो कहा, वह सत्य और निःशंक है’, ऐसा बोलने वाला जब यह कहता है कि ज्ञानियों ने जो कहा, वह सत्य है, परंतु पहले दुनियादारी और फिर धर्म; धर्म फुरसत में किया जा सकता है, परंतु दुनियादारी के बिना तो चल ही नहीं सकता।तो यह रोग किसके घर का है, यह सोचिए।

ज्ञानियों ने जो कहा, वह नहीं भी बन सके, आत्मा परके सहवास में रहे, यह भी संभव है, पर-पदार्थों को अमुक रीति से भोगने-पाने की स्थिति हो, यह भी संभव है, परंतु प्रश्न यह है कि वह मानता क्या है? यह मान्यता का प्रश्न है। श्री जिनेश्वर देवों ने जो कहा, वही सत्य और निःशंक है’, ऐसा माने तो भले ही उसे अन्यथा करना पडे, परंतु वह करने योग्य नहीं है, और धर्म न भी किया जा सके तो भी करने योग्य तो यही है, ऐसा उस आत्मा को लगे बिना नहीं रह सकता। ऐसी आत्मा को संसार का संयोग खराब लगे बिना नहीं रहेगा।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

अपनी आत्मा से पूछिए!


कई लोग ऐसा कहते हैं कि हमारी दशा चाहे जैसी हो, हमारा व्यवहार चाहे जैसा हो, परंतु श्री जिनेश्वर देवों ने जो कहा है, वही सत्य और निःशंक है, ऐसा तो हम हृदय से मानते हैं।यह मान्यता यदि अंतःकरण से है तो यह उच्च कोटि की लघुकर्मिता है। यह निस्संदेह सत्य है कि श्री जिनेश्वर देवों ने जिन-जिन वस्तुओं का जो-जो स्वरूप बताया है, उन वस्तुओं को उस-उस रूप में अंतःकरण से माना जाए तो भी आत्मा की मुक्ति निश्चित हो जाती है। परंतु अंतःकरण के साथ विचार करके निश्चित करना चाहिए कि हम श्री जिनेश्वर देवों ने जो कहा, वही सत्य और निःशंक है, ऐसा कहते हैं या वास्तविकरूप से मानते हैं?’

यह बात यदि मात्र कहने की ही हो और हृदय में बराबर बैठी न हो तो इस बात को हृदय में बराबर बिठा लेना चाहिए। आत्मा से पूछना चाहिए कि बोल, तुझे श्री जिनेश्वर देवों ने जिस वस्तु को जिस रूप में बताई है, वही वास्तविक है, ऐसा लगता है? उन तारकों ने जिसे उपादेय कही, जिसे ज्ञेय कही और जिसे हेय कही, वह उसी अनुसार लगती है? जिसे उन्होंने उपादेय कही वह उपादेय ही लगती है? हेय कही वह हेय ही लगती है? ज्ञेय कही वह ज्ञेय ही लगती है?’ प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आत्मा के साथ यह विचार कर लेना जरूरी है।

श्री जिनेश्वर देवों ने संसार को दुःखमय कहा है, दुःखफलक कहा है और दुःखपरम्परक कहा है। आत्मा से पूछिए, ‘संसार तुझे कैसा लगता है?’ श्री जिनेश्वर देव ने जो कहा, वही सत्य और निःशंक है, ऐसा कहने वाले आपको क्या संसार दुःखमय है, दुःखफलक है और दुःखपरम्परक है, ऐसा लगता है? यदि अंतःकरण से ऐसा लगता हो तो यह भी प्रसन्नता की बात है।

परंतु, इसके बदले यदि संसार सुखमय लगे, पौद्गलिक संयोग बहुत अच्छे लगें, इनके मिलने पर इनमें आसक्त बना जाए, इनके जाने पर असाध्य सन्निपात हो जाए, ये बढते रहें, ऐसी रात-दिन चिंता रहा करे, जीवन में ये कभी न छूटें तो अच्छा, कभी आत्मा को ऐसा पश्चाताप न हो कि मैं परमें मुग्ध बना रहा हूं तो मेरा क्या होगा?’ दिन रात इन्हें ही प्राप्त करने की, भोगने की, बढाने की और इन्हें सुरक्षित रखने की चिंता बनी रहे, तथा इनके बिना सुख ही नहीं, ऐसा अनुभव होता हो तो यह कैसी दशा है, इसका विचार करिए!

कोई कह दे कि चौबीस घंटे बाद ये भोगादि जाने वाले हैं और यदि ऐसा विश्वास हो जाए तो असाध्य सन्निपात हो जाता है, यह क्या बताता है? पौद्गलिक संयोगों को परमानने वाले की मनोदशा कैसी होनी चाहिए? यह सब ठीक ढंग से विचार करिए। यह विचार स्फूर्णता अनवरत रूप से चलनी चाहिए, क्योंकि इससे आपकी लघुकर्मिता दृढ व निर्मल बने बिना नहीं रहेगी।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा