बुधवार, 31 दिसंबर 2014

संसार दुखःमय, दुखःफलक और दुःखपरम्परक है


ज्ञानियों ने संसार को दुखःमय, दुखःफलक और दुःखपरम्परक कहा है। जीवन के थोडे से भाग पर यथास्थिति रूप से विचार करके देखो। इसमें मन, वचन और काया से कितने-कितने पाप किए? इन पापों के फल का विचार करो और फल भोगते समय आत्मा समाधि के अभाव में जो पाप करता है, उसका खयाल करो, इस रीति से विचार करो तो भी समझ में आएगा कि संसार दुखःमय, दुखःफलक और दुःखपरम्परक है। ऐसे संसार को दृढ करने का ज्ञानियों ने कभी भी उपदेश दिया है क्या? नहीं ही। और संसार को जो ज्ञानियों ने दुखःमय, दुखःफलक और दुःखपरम्परक कहा है, उसी संसार के आप रसिक बनो, ऐसा उपदेश साधुगण देते हैं क्या? नहीं ही। सचमुच में सच्चे श्रावक भी ऐसी शिक्षा किसी को नहीं देंगे तो साधु तो देंगे ही कैसे? ऐसा होने पर भी आज कतिपय वेशधारीगण कैसा उपदेश दे रहे हैं, वह देखो? मानो त्याग और वैराग्य के वैरी हों, उस ढंग से वेशधारी आज व्यवहार कर रहे हैं।

श्री जैन शासन को पाया हुआ व्यक्ति तो त्याग और वैराग्य का वैरी हो ही नहीं सकता, फिर वो चाहे श्रावक हो या साधु हो। त्याग थोडा हो सकता है, यह संभव है; किन्तु त्याग के बिना जीवन जीना व्यर्थ है, यह मान्यता जैनियों में न हो, ऐसा कैसे संभव है? त्याग न दिखे, ऐसा हो सकता है, किन्तु त्याग की भावना भी न हो, ऐसा कैसे हो सकता है? और जिसमें त्याग की भावना न हो, वह जैन कैसे? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

परिणामों का विचार किया है?


संसार के ऐश्वर्य भोगने में सुख नाम मात्र का और परिणाम में दुःख का पार नहीं, इसीलिए ही तारकों ने केवल मोक्ष मार्ग का उपदेश दिया। ज्ञानीगण परिणामदर्शी थे। दुनिया में भी चतुर वे ही गिने जाते हैं जो कि परिणाम का विचार करते हैं। आप परिणाम का विचार करते हैं क्या? आप इस संसार में जो प्रवृत्ति कर रहे हैं, उसका क्या परिणाम आएगा, इसका खयाल करते हैं? शायद कोई भाग्यवान ही ऐसा खयाल करता होगा।

पाप प्रवृत्ति के परिणाम का आदमी को वास्तविक खयाल आ जाए तो वह कंपित हुए बिना नहीं रहेगा। परिणाम के खयाल वाला पापभीरू नहीं हो, ऐसा संभव नहीं। भीरुता की कोई प्रशंसा नहीं करता है। ज्ञानी भी भीरुता को निकालने और वीरता धारण करने का उपदेश देते हैं। तदुपरांत भी वे ही ज्ञानीगण फरमाते हैं कि पाप की भीरुता अवश्य ही सीखनी चाहिए। पाप भीरुता, यह सामान्य कोटि का सद्गुण नहीं है।

एक तरफ सत्वशील बनने का उपदेश, दूसरी तरफ पाप भीरू बनने का उपदेश, इन दोनों संबंधों का परस्पर विचार कर देखो। इनमें परस्पर विरूद्ध भाव नहीं है। पापभीरुता सच्ची सत्वशीलता को विकसित करने वाली वस्तु है। विचार तो करके देखो कि पाप किए बगैर जीवन बिताना कठिन है या जीवन को पापमय दशा में बिताना कठिन है? पाप करना सरल है या पाप से बचना सरल है? निष्पाप जीवन जीना हो तो इन्द्रियों के ऊपर नियंत्रण रखना पडता है। मन-वचन-काया के ऊपर संयम धारण करना पडता है और भूख, तृष्णा, मान-अपमान, सर्दी-गर्मी आदि सहन करना पडता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 29 दिसंबर 2014

पुण्य-पाप ही साथ जाने वाले हैं



यह सत्य है कि जो जन्मे हैं उनका मरण निश्चित है। इच्छा या अनिच्छा से, मरे बिना चलता नहीं है। किन्तु, यह विचार करो कि मरता कौन है? आत्मा मरती नहीं है। आत्मा तो है और रहने वाली है। यहां से मरण के बाद सारा खेल समाप्त हो जाता होता तो ज्ञानियों ने धर्म का उपदेश न दिया होता। किन्तु, यहां से मरने के बाद खेल समाप्त नहीं होता है। यहां से मर कर जो आत्माएं मोक्ष में नहीं जाती है, उन समस्त आत्माओं के लिए यह नियम है कि यह शरीर छूटा और कृतकर्मानुसार निश्चित समय में नूतन शरीर का संबंध बन जाता है। मनुष्य मरता है, उसके साथ उसके पुण्य-पाप नहीं मरते हैं।

आप जानते हैं कि यह शरीर यहां रहेगा, किन्तु कार्मन और तेजस शरीर साथ में जाता है। मनुष्य यहां से मरता है, इसलिए पुण्य-पाप के योग से दूसरे स्थान पर निश्चित समय पर वह आत्मा नवीन शरीर धारण करता है। इससे यह स्पष्ट है कि पुण्य-पाप यह सभी आत्मा के साथ ही जाते हैं। इसीलिए बांधे हुए कर्म शान्ति पूर्वक भोगने के सिवाय या तप आदि से उन्हें खपाए बिना सुख के अर्थी को छुटकारा नहीं है। कर्म का संबंध छूटे नहीं, वहां तक मरण के पीछे जन्म निश्चित है। कर्म से छूटना और कर्म छूटने के योग से दुःख और जन्म से मुक्त होना ही सच्चे सुख का मार्ग है।

श्री जैन दर्शन अर्थात् कर्म का संबंध छोडने का मार्ग दिखाने वाला दर्शन। इस संसार चक्र से छुडाने वाला दर्शन वह जैन दर्शन। संसार के संबंधों को दृढ करे, वह सच्चा धर्म नहीं है। सच्चा धर्म तो वही है कि जिसने संसार के संबंध को नाम-शेष करने का मार्ग दिखाया हो। श्री जैन दर्शन की विवेकपूर्वक विचारणा करो। संसार के संबंध को तोडने की जिनकी इच्छा उत्पन्न नहीं होती हो, वह जैन नहीं। संसार के संबंध को छोडने का उपदेश नहीं दे, वह सच्चा उपदेशक नहीं और संसार के संबंध दृढ बनें, ऐसा उपदेश दे, वह जैन साधु नहीं, अपितु सिर्फ वेशधारी है। ये भगवान के शासन के नाम पर पेट भरने वाले और तिरने के नाम पर स्वयं डूबने वाले और दूसरों को डुबाने वाले हैं। श्री जैन दर्शन का साधु जो उपदेश देता है, वह संसार के संबंध को तोडने का उपदेश देता है। कारण कि इसके बिना कल्याण नहीं है। ऐसा अनंतज्ञानियों ने जोर देकर कहा है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 28 दिसंबर 2014

मौत तो निश्चित है!



जिनका जन्म हुआ, उनका मरना निश्चित है। मरण के बाद जन्म नियम से होता ही हो, ऐसा नहीं है। जो-जो मरते हैं, वे-वे जन्म लेते हैं, ऐसा एकान्त नियम नहीं है। किन्तु जो-जो जन्मते हैं, वे मरण प्राप्त किए बिना नहीं ही रहते, यह तो निश्चित ही है। अनंतकाल में अनंत आत्माओं ने मरण के बाद वापस जन्म नहीं लिया, ऐसा हुआ है। किन्तु अनंतकाल में एक भी आत्मा ऐसा नहीं जन्मा कि जो वापस मरा नहीं हो। मृत्यु के साथ जन्म यह एकान्त नियम नहीं है, किन्तु जन्म के साथ मुत्यु यह एकान्त सत्य है। यहां से मरकर श्री सिद्धगति को प्राप्त आत्माएं यानी मोक्ष में जाने वाली आत्माएं पुनः जन्म नहीं लेतीं। जो जन्म लेगा, उसकी मृत्यु निश्चित है।

आप मरोगे या नहीं? आज जिस शरीर का आप संस्कार करते हैं, बारम्बार साफ किया करते हैं, जिसके ऊपर अत्यंत मोह रखते हैं, वह एक दिन अग्नि में भस्मीभूत हो जाएगा, ऐसा आपको लगता है? शरीर यहां रहेगा और आपको अपने कर्मों के साथ किसी अन्यत्र स्थान पर जाना पडेगा, ऐसा लगता है? आपका सर्वाधिक प्रिय स्नेही आपके शरीर को मोटी-मोटी लकड़ियों पर सज्जित करेगा, आपके शरीर पर बडे-बडे लकडे रखेगा और उसके बाद उसमें आग लगा देगा, इतना ही नहीं आपका शरीर जल्दी से जल्दी भस्मीभूत हो इसके लिए वह आग में घी और डालेगा, राल फेंकेगा ताकि जल्दी से जल्दी आग पकडे और दाह-संस्कार फटाफट हो, ऐसा आपको लगता है?

लोगों को मरते हुए या उनके शव के दाह संस्कार को तो आपने आपकी जिन्दगी में कई बार अवश्य देखा होगा। कभी आपको लगा कि एक दिन मेरे शरीर की भी यही हालत होनी है? किसी के अंतिम संस्कार के लिए, किसी को जलाने के लिए श्मशान गए हो, तब कभी आपको ऐसा लगा कि इस प्रकार से किसी दिन मेरे शरीर को भी स्नेहीगण, संबंधीगण, पडौसी आदि ले जाएंगे और मेरा खून ही मेरे शरीर को आग लगा देगा? धन-सम्पत्ति कुछ भी साथ नहीं लेजा सकोगे।

आपको यह निश्चित हो कि मेरा यह शरीर अमर रहने वाला है तो बोलो! किन्तु भयंकर से भयंकर पापात्माएं भी अंतिम कोटि के नास्तिक होने पर भी यह बात तो अंत में जानते हैं कि एक दिन ऐसा अवश्य आएगा कि जिस दिन इस शरीर को कोई संग्रह करने वाला नहीं है। या तो जला देंगे या तो दफनाकर छोड देंगे। मानो कि अशुभ के योग से जो कोई ऐसे स्थान में मरे हों तो जंगल मं पशु-पक्षी, चील-कौए उसका भक्षण करेंगे। समुद्र इत्यादि में फेंक देंगे, किन्तु शरीर के लिए ऐसा कुछ न कुछ होने वाला ही है, यह निश्चित बात है। तो फिर संसार में संसार को और बढाने की लालसा या हायतौबा क्यों, किसके लिए? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 27 दिसंबर 2014

संसार में रस लेने वाले हिये के अंधे



जिन्हें संसार ही चाहिए और मोक्ष नहीं ही चाहिए, वे सब हिये (हृदय) से अंधे हैं। भगवान राजपाट छोडकर साधु बने। साधु बनने का अर्थ है- सुखों को लात मारकर दुःखों को निमंत्रण देना। जिन सुखों को भगवान ने छोड दिया, उनके पीछे आप पड रहे हैं और इसमें आपको कुछ भी अनुचित नहीं लगता है तो आप भगवान के भक्त नहीं रह जाते हैं। मुझे यह शरीर छोडकर अन्यत्र जाना है’, इस बात को आज लगभग सभी भूल गए हैं। यहां से जाने के बाद मेरा क्या होगा?’ यह चिन्ता आज लगभग नष्ट हो गई है। मैं मरने वाला हूं, यह खयाल हर पल रहे तो जीवन में बहुत-सी समझदारी आ जाए। भावी जीवन को मोक्ष मार्ग का आधार बनाने के प्रयत्न शुरू हो जाएं। सिर्फ वर्तमान की क्रियाएं, पेट भरना, बाल-बच्चे पैदा करना और मौजमजा करना, ये क्रियाएं तो कौन नहीं करता है? तुच्छ प्राणी भी अपने रहने के लिए घर बना देते हैं, वर्तमान की इच्छापूर्ति करते हैं और विपत्ति में भागदौड भी करते हैं। मात्र वर्तमान का विचार तो क्षुद्र जंतुओं में भी होता है। भावी जीवन का विचार छोडकर जो सिर्फ वर्तमान के ही विचारों में डूबा रहता है, वह अपने कर्त्तव्य पालन से च्युत हुए बिना नहीं रहता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

वृद्धाश्रम समाज के लिए शर्म की बात



आज आप लोगों के घरों में बुजुर्गों की स्थिति ऐसी हो गई है कि जो कमावे वह खावे और दूसरा मांगे तो मार खावे। ऐसी स्थिति हो जाने के कारण ही इस देश में वृद्धाश्रम या विधवाश्रम की बातें चलने लगी हैं। ऐसे आश्रम स्थापित हों, यह कोई गौरव की बात नहीं है; अपितु उन बुजुर्गों और विधवाओं के परिवारों के लिए तथा समाज और संस्कृति के लिए शर्म की बात है।

आपसे मेरा पहला प्रश्न यह है कि आपका राग आपके माता-पिता पर अधिक है या पत्नी-बच्चों पर अधिक है? भगवान पर राग होने का दावा करने वाले को मेरा यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। योग की भूमिका में माता-पिता की पूजा लिखी है, पत्नी-बच्चों की नहीं। मुझे तो ऐसा महसूस होता है कि आज के लोगों को कम से कम कीमत की कोई चीज लगती हो तो वह उसके मां-बाप हैं।

मर्यादा का दिवाला निकल रहा है

मर्यादा रहेगी वहां तक धर्म रहेगा। महापुरुष भी किसी की निश्रा में रहते थे, उनकी आज्ञानुसार चलते थे। आज चारों ओर मर्यादा का दिवाला निकलता जा रहा है। कोई किसी की सुनने या मानने को तैयार नहीं। पुत्र माता-पिता की बात नहीं मानते और विद्यार्थी शिक्षक का उपहास करते हैं। आज युवकों की क्या दशा है, यह तो अखबार पढनेवाले आप लोगों को मालूम ही है, ये युवक अपने बाप के भी बाप बन गए हैं। और प्रोफेसर के भी प्रोफेसर बन गए हैं। कॉलेजों के संस्थापक कॉलेजों को कैसे चलावें, इस चिंता में हैं और नए कॉलेज न खोलने के निर्णय पर आए हैं। दुनिया में पढे-लिखे गिने जानेवाले अपनी होंशियारी का उपयोग भी दुनिया को परेशान करने में और स्वयं का स्वार्थ साधने में कर रहे हैं।

आत्मा का ज्ञान हुए बिना, जितना अधिक पढा जाए उतना अधिक गंवारपन आता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण आज के कॉलेज हैं। आत्म-ज्ञान से रहित व्यक्तियों को ज्ञान देने का यह परिणाम है। आत्म-ज्ञान से, धर्म से जीवन में मर्यादा आती है और मर्यादा होने से घरों का संचालन भी ठीक तरह से होता है। मर्यादा से रहित घरों में हमेशा झगडे हुआ करते हैं। मिथ्याज्ञान पाकर आपके लडके आपके न रहें यह आप सहन कर सकते हैं, परन्तु सम्यग्ज्ञान से आपके लडके आपके न रहकर साधु बन जाएं तो यह आप सहन नहीं कर सकते। कैसी गजब की बात है? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

तृष्णा का आतंक


मन की तृष्णा ने आज कितना भयानक आतंक फैलाया है? पिता-पुत्र, पति-पत्नी, बडा भाई, छोटा भाई, सास-बहू इन सब लोगों के बीच का व्यवहार देखो। जरा सोचो तो सही एक दूसरे के लिए कितनी ईर्ष्या, द्वेष-भावना दिल में भरी हुई है? मन की तृष्णा बढी है। पर-वस्तुओं को प्राप्त करने की व भोगने की लालसा बढी है और त्याग-भावना नष्टप्रायः हो गई है। इसके परिणामस्वरूप आज के संसार में भयानक भगदड और भागदौड मच रही है। लोग भौतिकता की चकाचौंध में अंधे हो गए हैं। जब तक मन की भयानक भूख नहीं मिटेगी और त्याग की भावना पैदा नहीं होगी, तब तक ऐसी भगदड और भागदौड मची रहेगी, इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है। इस तरह विचार किया जाए तो अवश्य समझ में आएगा कि मन की भौतिक भूख ही सारे विनाश का कारण है। संसार के प्रति अरुचि न हो तो, धर्म किस काम का? अधिक प्राप्त करने के लिए धर्म किया जाता हो तो वह धर्म, धर्म रहता ही नहीं, धंधा हो जाता है, बिना पैसे के धंधे जैसा। आज आपको साधुओं की आवश्यकता क्यों है? बहराने के लिए? इनके पगल्ये हों तो घर में लक्ष्मी के पगल्ये हो जाएं इसलिए? या धर्म करने हेतु शास्त्र की विधि का ज्ञान आवश्यक है इसलिए?

पूर्व के कई जन्मों के असीम पुण्योदय से यह मानव जीवन मिला, आर्य संस्कृति और जैनकुल मिला, धर्म गुरुओं का सान्निध्य और धर्म श्रवण का लाभ मिला, वैभव मिला। पूर्व संचित पुण्य से जो कुछ मिला उसे भोग कर नष्ट कर रहे हो और पुराना पुण्य का खाता बन्द कर रहे हो और भौतिक संसारी सुख में बेभान होकर नया पाप का खाता चालू कर रहे हो तो आगे क्या बनोगे- कीडे मकोडे, सांप-बिच्छू? अरे कुछ तो समझो!

जंगली जमाना

देश बरबाद हो रहा है। मनुष्य, मनुष्य नहीं रहा। मनुष्य के अतिरिक्त अन्य जीवों को तो मानो जीने का अधिकार ही नहीं, ऐसी हवा फैलगई है। वर्तमान युग, हिंसक युग है। जिस युग को आप अच्छा मानते हैं, वह घोर घातकी युग है। लाखों जीव काटे जाते हैं; वह भी कानून का ठप्पा लगाकर। आप इस हिंसा को रोक भी नहीं सकते। यदि रोकने का प्रयत्न करो तो देशप्रेमीन गिनाओ। आज मनुष्य, मनुष्य से घबराकर चलता है। जानवर से तो थोडी दूरी पर रहे तो निर्भय, परन्तु मनुष्य तो पीछे पडजाता है। अतः उससे डरकर रहना पडता है। ऐसा यह युग है। कैसा विचित्र है यह युग!! इतनी अधिक अधोगति हो रही है, तथापि प्रगति हो रही हैऐसा बोलने वालों को लज्जा तक नहीं आती। यह अचरज की बात नहीं है? ऐसा जंगली जमाना तो कभी नहीं रहा होगा।

आजकल एकता की बातों के नाम पर ही एकता के टुकडे हो रहे हैं। धर्म के नाम पर जाति के नाम पर राजनीति हो रही है। भूतकाल में जो एकता थी, वह आज देखने को नहीं मिलती। अमेरिका का अनाज यहां आता है, परन्तु यहां के एक प्रांत का अनाज दूसरे प्रांत के काम नहीं आता। विदेशी भी अनाज देकर कोई उपकार नहीं करते! वे अपना कचरा यहां सरका देते हैं और यहां की अच्छी चीज वहां जाती है। कैसी विरोधाभासी और विनाशक नीतियां है और कहते हैं कि प्रगति हो रही है। यह कितने शर्म की बात है! आज देश का उद्धार नहीं, अधःपतन हो रहा है। शक्ति बढने के साथ आपके घरों में मौज-शौक के साधन तो बढते ही जाते हैं, परन्तु धर्म के साधन बढते हुए कहीं नजर नहीं आते हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 24 दिसंबर 2014

धर्म संघ के लिए पांच बातें


जो अर्थ-काम को हेय माने, धर्म-मोक्ष को उपादेय माने, वही संघ में गिना जाए। संघ छोटा हो तो हर्ज नहीं, लेकिन वह भगवान की आज्ञा मानने वाला हो।

धर्म संघ के चारित्र का मूलाधार तादात्म्य तथा प्रेम है। यह मेरा संघ है, मैं इसका अंश हूं, इसकी भलाई में ही मेरी भलाई है; यह भाव जब उत्पन्न होता है, तब संघ-चरित्र का निर्माण होता है। मेरे कार्य से संघ को भले ही लाभ न हो, कम से कम हानि तो न हो; यह भाव उत्पन्न होने पर संघ का चारित्र प्रकट होता है। जब यह विचार जाग्रत होता है और अहो रात्र संघ का चिन्तन होता है, संघ को उठाने का, संघ-समाज को सुखी करने का, संघ के प्रत्येक व्यक्ति के प्रति कर्त्तव्य पूर्ति का विचार होता है, मैं रहूं या न रहूं, उससे क्या; संघ रहना चाहिए, यह सोच बनना चाहिए।

चरित्र या स्नेह का आधार एकात्मता है। जो इस एकात्मता को पहचानेगा, वही स्नेह कर सकेगा, वही असुखी होते हुए भी प्रेम करेगा। अतः केवल चारित्र्य का आग्रह करने से चारित्र्य निर्माण नहीं होगा, उसके लिए ठोस आधार लेना पडेगा। प्राचीन काल से चला आनेवाला हमारा संस्काररूप जीवन, जिसे संस्कृति कहते हैं, वही सामान्य अधिष्ठान है। उसके जागरण से ही एकात्मता संभव है। प्रत्येक व्यक्ति एकात्मता का व्यक्त रूप है, यह समझ कर समाज की सेवा करना ही धर्म है। जैसे जीवाणु शरीर की सेवा करते हैं, कोई भी आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करता; वैसे ही समाज को एकात्मस्वरूप जानकर (केवल मानकर नहीं) जीवन को समष्टिरूप समाज की सेवा में लगा देना ही जीवन का साफल्य है। एकात्मता का भाव ही समाज को सुसंगठित रूप दे सकेगा।

शारीरिक शक्ति आवश्यक है, किन्तु चरित्र उससे भी अधिक महत्व का है। बिना चरित्र के केवल शारीरिक शक्ति मनुष्य को पशु बना देगी। चरित्र की शुद्धता ही वैभव एवं महानता की जीवन-प्राण होती है।

यदि महान जागतिक लक्ष्य में हम सफलता प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें प्रथमतः अपना उदाहरण प्रस्तुत करना होगा। हमें वादों की मानसिक श्रृंखलाओं और आधुनिक जीवन के व्यवहारों तथा अस्थिर फैशनों से मुक्ति कर लेनी होगी। परानुकरण से बढकर संघ की अन्य कोई अवमानना नहीं हो सकती। हम स्मरण रखें कि अन्धानुकरण का अर्थ प्रगति नहीं, वह तो आत्मिक पराधीनता की ओर ले जाता है।

समाज इसे समझे और वैश्विक आवश्यकताओं पर खरा उतरे। आज चहूं ओर जो घोर निराशा व भय का वातावरण है, उसमें जैन धर्म के सिद्धान्त ही आशा की एक किरण हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

अनीति नहीं करें


मोक्ष में जाने के लिए हमें कैसा जीवन जीना चाहिए? यह हमें भगवान ने सिखाया, इसी तरह साधु बनने के लिए आपको कैसा जीवन जीना चाहिए, यह भी भगवान ने सिखाया है। जैसे श्रावक भीख मांग कर पेट नहीं भरता, वैसे अनीति करके घी-केला भी नहीं खाता। वह सत्य और त्याग के मार्ग पर चलता है। संसार का प्रत्येक सुख चाहे वह कषाय जनित हो या विषय जनित हो, मैथुन में आ जाता है। मैथुन में पाप है, ऐसा जो नहीं समझ पाया, उसे संसार असार लगता है, ऐसा कैसे कहा जाए? पौद्गलिक सुख बुरा न लगे और पौद्गलिक दुःख सहन करने योग्य न लगे तो नवकार से लेकर नवपूर्व तक पढ लेने पर भी वह अज्ञानी रहता है और वह विरति की ऊंची में ऊंची क्रियाएं करे तो भी उसमें गाढ अविरति ही होती है। शास्त्र में लिखा है कि इस काल में पढे-लिखे अज्ञानी बहुत होंगे। साधुवेश में रहे हुए अविरति वाले बहुत होंगे, सम्यक्त्वी क्रिया करने वाले मिथ्यात्वी बहुत होंगे। अतः हमें सावधान रहना है और जैन धर्म को लजाने वाले अनीति के मार्ग से बचना है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 22 दिसंबर 2014

धर्म के नाम पर अधर्म


आजकल धर्म के नाम पर अधर्म की बहुत-सी बातें चल रही हैं। अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त के नाम से यथेच्छ भाषण करने वालों को अपनी मर्यादा का भान नहीं है। अहिंसा और अपरिग्रह के सिद्धान्तों में जिसे श्रद्धा हो और उसमें यदि सामर्थ्य हो तो उसे साधु बन जाना चाहिए। यदि इतनी शक्ति न हो तो सम्यक्त्व मूलक व्रत लेना चाहिए। यदि यह भी न बन पडे तो सारा संसार छोडने योग्य है और यदि शक्ति प्रकट हो तो छोड दूं, ऐसी भावना को विकसित करके सम्यक्त्व को तो स्वीकार करना ही चाहिए। अनेकान्त की बात करने वाले को मालूम नहीं कि अनेकान्त को अपनाने वाले को तो मुंह पर ताला लगाना होगा, वचन तोल-तोल कर बोलने होंगे। आज अनेकान्त के नाम पर मनमाना लिखने और बोलने वालों ने तो लगभग अनेकान्त का खण्डन ही किया है। अनेकान्तवादी झूठे और सच्चे दोनों को सच्चा नहीं कहता। उसे तो झूठे को झूठा और सच्चे को सच्चा कहना ही पडेगा। अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त को जीवन में उतारने वाली जैन शासन की साधु संस्था को आप देखेंगे तो आपको लगेगा कि दुनिया की सब संस्थाओं की तुलना में यह साधु संस्था अब तक बहुत अच्छी है। भगवान की अहिंसा तो मोक्ष प्राप्ति के लिए ही है। किसी का कुछ छीन लेने के लिए, किसी के साथ कपट करने के लिए अथवा भौतिक स्वार्थ साधने के लिए अहिंसा शब्द का उपयोग करना महापाप है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 21 दिसंबर 2014

दुःख-मुक्ति का उपाय


जगत में जीव मात्र को दुःख के प्रति द्वेष और सुख के प्रति अनुराग है। किन्तु, अज्ञानी जीव दुःख के कारणों को सुख के कारण मानकर, उनकी ही सेवा में मस्त रहते हैं तथा सुख प्राप्ति के वास्तविक साधनों से बेखबर रहते हैं। श्री जैन शासन दुःख और सुख के जो वास्तविक कारण हैं, उन सभी कारणों को समझाने के लिए दुःख के कारणों का त्रिविध-त्रिविध त्याग करने का और सुख के कारणों को त्रिविध-त्रिविध सेवन की प्रेरणा देता है। संसार से मुक्त होकर ही दुःख से मुक्त हुआ जा सकता है, इसलिए श्री जैन शासन का ध्येय जीवों को संसार-मुक्त बनाने का ही है। अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म की यथाविधि आराधना द्वारा जो आत्माएं स्वयं की आत्मा के साथ संलग्न बने हुए कर्मों को दूर कर देती हैं, वे आत्माएं संसार-मुक्त हो सकती हैं। कर्म के सम्पर्क से आत्मा का स्वभाव आच्छादित है। इस सम्पर्क का सर्वथा अभाव हो जाए, तो आत्मा संसार-मुक्त बन जाता है। कल्याणार्थी आत्माएं ऐसे संसार मुक्त बन सकें, इसीलिए ही संसार के भोगादि का त्याग कर और संयम की आराधना में उद्यमवंत बनने का उपदेश श्री जैन शासन में है। आइए! हम इसका अनुसरण करें! -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 20 दिसंबर 2014

धनादि की अपेक्षा विनयादि अधिक अच्छे लगते हैं?


आप यह विचार करिए कि आपको सचमुच अच्छा क्या लगता है? धन अच्छा लगता है या विनय? आपके प्रति दूसरे विनय का व्यवहार करें, यह तो आपको अच्छा लगता है, परन्तु आप स्वयं दूसरों के प्रति योग्य रीति से विनय का व्यवहार करें, यह आपको अच्छा लगता है या नहीं? आप विनय के स्थान पर विनय कर सकें, यह आपको अधिक अच्छा लगता है या धन आपको अधिक अच्छा लगता है? आप स्वयं धनवान हों, यह आपको अच्छा लगता है या आप स्वयं विनयवान हैं, यह आपको अच्छा लगता है? आप कदाचित यह कहें कि हमें तो धन भी अच्छा लगता है और विनय भी अच्छा लगता है।परन्तु, यदि आपको धन और विनय, इन दो में से एक का ही चयन करना हो, तो आप धन को पसंद करेंगे या विनय को? इसी तरह यौवन और विवेक, इन दो में से आप यौवन पसंद करेंगे या विवेक? चतुराई और मन की प्रसन्नता में से चतुराई को पसंद करेंगे या मन की प्रसन्नता को? देह की निरोगता और सुनिर्मलशील सम्पन्न देह में से आप निरोगता पसंद करेंगे या सुनिर्मल शील सम्पन्न देह पसंद करेंगे? और इष्ट वस्तुओं का मिलाप और मोक्षमार्ग का मिलाप, इन दोनों में से आप इष्ट वस्तुओं का मिलाप पसंद करेंगे या मोक्ष मार्ग का मिलाप पसंद करेंगे?

आप यथार्थवादी बनकर ऐसा भी कह सकेंगे कि मुझे धन अच्छा तो लगता है, परन्तु धन इतना अच्छा नहीं लगता, जितना विनय अच्छा लगता है। मुझे यौवन अच्छा लगता तो है, परन्तु यौवन इतना अच्छा नहीं लगता, जितना विवेक अच्छा लगता है। मुझे चतुराई अच्छी तो लगती है, परन्तु इतनी अच्छी नहीं लगती है, जितनी मन की प्रसन्नता अच्छी लगती है। मुझे निरोग देह अच्छी लगती है, परन्तु वह इतनी अच्छी नहीं लगती है, जितनी मेरी देह की सुनिर्मल शील सम्पन्नता अच्छी लगती है। और मुझे इष्ट वस्तुओं का मिलाप अच्छा तो लगता है, परन्तु इतना अच्छा नहीं लगता, जितना मुझे मोक्षमार्ग का मिलाप अच्छा लगता है। इतना भी यदि आप सही रूप में कह सकने की स्थिति में हैं तो अवश्य ऐसा कहा जा सकता है कि आप अपनी भाग्यशालिता को पहचानने की योग्यता रखते हैं!

मूल बात यह है कि आज आप में से बहुत से जिस-जिस में भाग्यशालिता मानते हैं, उसमें तो प्रायः मिथ्यादृष्टि भी अपनी भाग्यशालिता मानते हैं। आज आप श्रीमंत हों या न हों, आपको आज यहां-वहां आदर मिलता हो या अनादर मिलता हो और स्त्री-संतान आदि आपका परिवार आपके अनुकूल हो या न हो तो भी आप भाग्यशाली हैं, ऐसा हम तो ज्ञानी जनों के वचनानुसार कहते हैं। और इसीलिए, आपकी यह सच्ची और अच्छी भाग्यशालिता आपके ध्यान में आए और आपको मिली हुई इस भाग्यशालिता को आप सफल बना सकें।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

कर्मों का क्षय कब उपयोगी होता है?


आत्मा को अनादिकालीन जड कर्मों के योग से सर्वथा रहित बनाने के लिए सर्वप्रथम भव्यत्व स्वभाव की आवश्यकता रहती है। तत्पश्चात क्रमश: भवितव्यता, काल, कर्म और पुरुषार्थ की अपेक्षा रहती है। यदि भव्यत्व स्वभाव न हो, तो भवितव्यता के वश से जीव व्यवहार-राशि में आए तो भी वह कभी काल की अनुकूलता नहीं पा सकता और जीव का भव्यत्व स्वभाव होने पर भी यदि भवितव्यता की अनुकूलता न मिले तो जीव व्यवहार राशि में भी नहीं आ सकता है, तो फिर काल की अनुकूलता तो मिल ही कैसे सकती है?

जीव का भव्यत्व स्वभाव हो और भवितव्यता को अनुकूल बनाकर जीव को व्यवहार राशि में लाकर रख दिया हो, तो उस जीव को किसी समय काल आदि की अनुकूलता मिलेगी ही, यह बात निश्चित है। परन्तु जब तक काल की अनुकूलता प्राप्त न हो, वहां तक कर्मों की अमुक अनुकूलता प्राप्त होने पर भी, वह उस समय तो निरर्थक ही है। कर्म की यह अनुकूलता, किसी भी तरह इस जीव को अपने अनादिकालीन जड कर्मों के योग को सर्वथा दूर करने की इच्छा तक उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होती। जीव जब चरमावर्त को प्राप्त कर लेता है, इसके बाद ही कर्मसम्बंधी अनुकूलता, भवितव्यतादि अनुकूल हो तो ही जीव के लिए कार्यसाधक होती है। इसीलिए, पहले चरमावर्त की बात की है। चरमावर्त में भी कर्मों की चरम उत्कृष्ट स्थिति का क्षय होने के बाद ही शुद्ध धर्मरूप सम्यक्त्व, जो सब इष्ट को पूर्ण करने में कल्पवृक्ष के समान है, उसके बीज की प्राप्ति होती है।

चरमावर्तकाल मात्र भव्य आत्माओं को ही प्राप्त हो सकता है। जबकि कर्मों की चरम उत्कृष्ट स्थिति का क्षय केवल भव्यात्माओं को ही हो, ऐसा नियम नहीं है। कर्मों की चरम उत्कृष्ट स्थिति का क्षय तो अभव्यों को भी हो सकता है, दुर्भव्यों को भी हो सकता है और भव्यों को भी हो सकता है। साथ ही चरमावर्त काल को प्राप्त कर लेने के पश्चात जीव अचरमावर्तकाल को कभी प्राप्त नहीं करता। जबकि कर्मों की चरम उत्कृष्ट स्थिति का क्षय होने के बाद भी जीव के कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का बंध तो बार-बार अर्थात् अनंत बार भी हो सकता है। मोहनीय कर्म सत्तर कोटाकोटी सागरोपम की स्थिति वाला भी बंध सकता है और अंतमुहूर्त वाला भी बंध सकता है, यह सब समझकर ऐसी सावधानी रखनी चाहिए कि अशुभ परिणाम आएं ही नहीं। यदि अशुभ परिणाम आएं तो भी वे तीव्र न बनें। शुभ तथा शुद्ध परिणाम बने रहें, ऐसी सावधानी रखनी चाहिए। साथ ही शुभ तथा शुद्ध-परिणामों को बहुत-बहुत तीव्र बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। आत्मा जैसे-जैसे गुणसम्पन्न बनता जाता है, वैसे-वैसे उसे शुभ कर्मों का बंध बढता जाता है और अशुभ कर्मों का बंध घटता जाता है; उसकी निर्जरा का प्रमाण भी बढता जाता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

कर्मों की उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति


अनादिकाल से जीव जिस कर्मसंतान से वेष्टित है, वह कर्म आठ प्रकार का है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अंतराय; ये कर्म के आठ प्रकार हैं। इन आठ प्रकार के कर्मों के बंध के कारण/निमित्त छह हैं। ये छः निमित्त हैं- 1. मिथ्यात्व, 2. अज्ञान, 3. अविरति, 4. प्रमाद, 5. कषाय और 6. योग। इनकी प्रगाढता, असर (प्रभाव) एवं क्रम में भी एक विशेषता है। मिथ्यात्व को पहले नम्बर पर रखा गया है। मिथ्यात्व सबसे प्रबल है, सबसे ताकतवर है, इसलिए यह पहले नम्बर पर है। अज्ञान दूसरे नम्बर पर है।

कई शास्त्रकारों ने अज्ञान को भी मिथ्यात्व में ही समाहित किया है। आचार्य उमास्वातिजी ने तत्त्वार्थ सूत्रमें जिनवाणी का उल्लेख करते हुए लिखा है कि मिथ्या दर्शनाविरति प्रमाद कषाययोगा बंध हेतवः।इन पांच कारणों से कर्मों का बंध होता है। यहां अज्ञान को मिथ्यात्व में ही लिया गया है। उनके अनुसार मिथ्यात्व हटा कि अज्ञान का अंधकार भी दूर हो जाता है। इसके बाद अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं, जो क्रमशः हल्के होते जाते हैं। यदि इन्हें ठीक से समझने के लिए इन क्रमांकों को एक के आगे एक इस ढंग से रखें तो 123456 संख्या बन जाएगी और इनकी प्रगाढता, प्रबलता और प्रभाव हमें समझ में आ जाएगा। मिथ्यात्व पहले नम्बर पर है। इसका मतलब कर्मबंध का मूल और प्रभावी कारण मिथ्यात्व ही है। मिथ्यात्व को जीवन से हटाया और सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया तो शेष कारणों की शक्ति घट जाएगी। 123456 इस संख्या में से मिथ्यात्व का क्रमांक यदि निकाल दिया जाए तो संख्या बचेगी 23456, फिर अज्ञान का तिमिर हटते ही संख्या 3456 रह जाएगी।

आगे चलकर यदि व्रत-नियम अंगीकार कर लिए, अविरति को नष्ट कर दिया तो अविरति का क्रमांक 3 नष्ट हो जाएगा और संख्या बचेगी सिर्फ 456, इस प्रकार हम कर्मबंध का एक-एक कारण पूर्वापर नष्ट करते रहेंगे तो हमारे कर्मबंधों की तीव्रता बडे भारी अनुपात में कम होती चली जाएगी। प्रमाद हट जाए, कषाय हट जाए तो मन-वचन-काया के योगों से होने वाला कर्मबंध बहुत ही क्षीण होगा। मिथ्यात्व आदि निमित्तों से जीव को प्रायः अपने-अपने परिणाम द्वारा कर्म का बंध होता है। मिथ्यात्व आदि के निमित्त से एक परिणाम द्वारा संचित होने वाला कर्मबंध उत्कृष्ट स्थिति वाला भी हो सकता है और जघन्य स्थिति वाला भी हो सकता है। तीव्र अशुभ परिणाम से जनित कर्म उत्कृष्ट स्थिति वाला होता है। जीव जब इन आठों कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति में होता है, तब तो वह ऐसा क्लिष्ट परिणाम वाला होता है कि वह सद्धर्म को प्राप्त कर ही नहीं सकता। सद्धर्म को प्राप्त करने योग्य स्थिति तो कर्मों की चरम उत्कृष्ट स्थिति का क्षय होने के बाद ही प्राप्त हो सकती है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 17 दिसंबर 2014

आत्मा अनादि कर्म संतान से वेष्टित है


आत्मा अनादि कर्म संतान से वेष्टित है

यह जगत अनादिकालीन है। अनादिकालीन यह जगत अनंतकालीन भी है। यह जगत कभी नहीं था, ऐसा भी नहीं और यह जगत कभी अस्तित्व में नहीं रहेगा, ऐसा भी संभव नहीं है। अनादि-अनंत इस जगत में जीवऔर जडये दो प्रकार के मुख्य पदार्थ हैं, अतः जगत के प्रत्येक पदार्थ का या तो जीव में या जड में समावेश हो जाता है। जड कर्मों का जीव के साथ योग होने से संसार है और जीव जब जड के संयोग से सर्वथा मुक्त बन जाता है, तब यह जीव संसार से मुक्त हो गया, ऐसा कहा जाता है।

जीव को संसारी बनाए रखने वाला जो जड का संयोग है, वह जड-संयोग कर्म स्वरूप है। कर्म जड है, परन्तु जीव मात्र को जड कर्म का संयोग अनादिकाल से है; और जड स्वरूप कर्म के इस संयोग के अनादिकालीन होते हुए भी किसी कर्म विशेष का संयोग किसी भी जीव के साथ अनादि से नहीं होता, क्योंकि फलभोग आदि द्वारा ये कर्म आत्मा से अलग भी होते जाते हैं और बंध के कारणों का अस्तित्व होने पर नए-नए कर्म जीव के साथ बंधते भी जाते हैं। अर्थात् किसी कर्म-विशेष का संयोग जीव के साथ अनादिकाल से नहीं होता। परन्तु प्रवाह रूप में अथवा परम्परा रूप में जीव के साथ जड कर्म का जो संयोग है, वह अनादि कालीन है। ऐसा होने से जीव को अनादिकर्मवेष्टिक कहने के बजाय, अनादिकर्मसंतानवेष्टिक अथवा अनादिकर्म परम्परा वेष्टिक आदि कहना, विशेष समुचित है।

कर्म का बंध उसी जीव को हो सकता है, जिस जीव में कर्म का संयोग होने से कर्म संयोग के अनुकूल परिणाम-स्वरूप योग्यता होती है। प्रति समय आत्मा कर्म से छूटती भी है और कर्म को बांधती भी है। वीतराग और सर्वज्ञ बनी हुई आत्मा केवल चार प्रकार के कर्मों से सहित होती है। इसलिए वह चार प्रकार के कर्मों से छूटती जाती है और इस आत्मा को केवल योग प्रत्ययिक और वह भी शता वेदनीय का ही बंध होता है। ऐसा करते-करते यह आत्मा ऐसी अवस्था में पहुंच जाता है कि उसे कर्म का बंध होता ही नहीं और इससे वह सकल कर्मों से रहित बन जाता है।

जीवमात्र अनादिकाल से कर्म संतान से वेष्टित है, अतः जीवमात्र के लिए सम्यक्त्व दुर्लभ है। सम्यक्त्व दुर्लभ है’, यह बात जितनी सच्ची है, उतनी ही सच्ची बात यह भी है कि सम्यक्त्व को अपने लिए सुलभ बनाए बिना जीव के लिए कोई चारा भी नहीं है। क्योंकि सम्यक्त्व को पाए बिना कोई भी जीव गृहिधर्म या साधुधर्म को उसके सही स्वरूप में प्राप्त नहीं कर सकता है; और धर्म को सच्चे स्वरूप में पाए बिना, कोई भी जीव अपने मोक्ष को सिद्ध नहीं कर सकता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा