रविवार, 30 नवंबर 2014

संसार-सुख की ओर से दृष्टि हटे


जीव को सम्यग्दर्शन पाने की इच्छा हो, इसमें बहुत सी सामग्री भी सहायक होती है। यदि हम विचार करें तो हमें ऐसा लगता भी है कि हमें अपने पुण्य योग से ऐसी सामग्री मिल भी गई है। अब तो मुख्यरूप से अपना पुरुषार्थ आवश्यक है। परन्तु, इस संसार में पुण्य से मिलने वाले सुख ऐसे हैं कि जीव जब तक सच्ची दिशा में विचारशील नहीं होता, तब तक उन सुखों पर राग का जोर होता है, जो जीव की आँख को उन सुखों से ऊपर उठने ही नहीं देता। जब तक इन सुखों पर ही जीव की आँख लगी की लगी रहती है, तब तक जीव की सच्ची दिशा की तरफ दृष्टि डालने का मन ही नहीं होता।

अचरमावर्त काल में जीव मात्र की दशा ऐसी ही होती है। अचरमावर्त काल में जीव की आँख संसार के सुखों से ऊपर उठे, ऐसा नहीं हो सकता। जीव जब चरमावर्त में आता है और उसमें भी जब सम्यग्दर्शन गुण का विचार पैदा हो सकने की आवश्यक सामग्री मिले और इस सामग्री के मिलने के बाद भी जीव जब स्वयं-स्फुरणादि से या सद्गुरु के उपदेशादि से विचार करे, तब उसे सम्यग्दर्शन गुण का ज्ञान आए, यह संभव है। सद्गुरु का योग जितने जीवों को होता है और जितने जीवों को सद्गुरु का उपदेश सुनने को मिलता है, उन सब जीवों का झुकाव सम्यग्दर्शन की प्राप्ति की तरफ हो, ऐसा भी नहीं होता। अभव्य और दुर्भव्य जीवों को भी सद्गुरु का योग अनेक बार मिलता है, परन्तु उन्हें इस योग का जो फल मिलना चाहिए, वह नहीं मिलता। भव्य जीवों में भी सबको जब-जब यह योग मिलता है, तब-तब वह फलता ही है, ऐसा भी नहीं होता।

भव्य जीवों को स्वयं विचार करते-करते या सद्गुरु का उपदेश श्रवण करते-करते मन में ऐसा होने लगे कि यह संसार चाहे जितना सुखमय भी मिले, वह मेरे लिए अच्छा नहीं है, शरणरूप नहीं है’, तो ऐसे जीवों की आँख संसार के ऊपर से उठ सकती है और उनकी दृष्टि धर्म की तरफ मुड सकती है।

संसार कैसा है? दुःखी करे ऐसा या सुखी करे ऐसा? संसार में दुःख अधिक और सुख अल्प है, नाम मात्र का! परन्तु, इस सुख का लालच जीव को ऐसा लग गया है कि दुःखी जीव भी सुख की आशा में जीता है और सुखी जीव सुख में ऐसा पागल बन जाता है कि आगे मेरा क्या होगा, इसकी चिन्ता तब उसे प्रायः नहीं होती। इस सुख पर से आँख उठे तो जीव को ऐसा लगता है कि यह सुख मेरी मुक्ति का साधन नहीं है। यह सुख तो ऐसा है कि जो इससे चिपकता है, उसे यह दुःखी किए बिना नहीं रहता।जीव दुःख की स्थिति में हो तब भी उसे लगता है कि मेरे सुख के लोभ ने ही मुझे इस स्थिति में पहुँचाया है। अब मुझे संसार-सुख की इच्छा नहीं करनी है, अपितु मुक्ति का उपाय ढूँढना है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 29 नवंबर 2014

सम्यग्दर्शन सबसे पहली जरूरत!


सम्यग्दर्शन आध्यात्म-साधना का मूल आधार एवं मुख्य केन्द्र है। यह मुक्तिमहल का प्रथम सोपान है। यह श्रुत और चारित्र धर्म की आधारशिला है। जिस प्रकार उच्च एवं भव्य प्रासाद का निर्माण सुदृढ आधारशिला (मजबूत नींव) पर ही सम्भव है, इसी तरह श्रुत एवं चारित्र धर्म का भव्य प्रासाद भी सम्यग्दर्शन की नींव पर ही खडा हो सकता है।

आत्मा में अनंत गुण हैं, परन्तु सम्यग्दर्शन गुण का सर्वाधिक महत्त्व प्रतिपादित किया गया है, क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना सत्य को सत्य के रूप में पहचाना ही नहीं जा सकता, आत्मा के स्वरूप को सम्यग्दर्शन के बिना जाना ही नहीं जा सकता, अक्षय सुख, परम आनंद, परम शान्ति की राह को समझने के लिए, उन्हें पाने के लिए सम्यग्दर्शन पहली और प्राथमिक आवश्यकता है। सम्यग्दर्शन के सद्भाव में ही ज्ञान और चारित्र उपलब्ध होते हैं। सम्यग्दर्शन के सद्भाव में ही यम-नियम-तप-जप आदि सार्थक हो सकते हैं। सम्यग्दर्शन के अभाव में समस्त ज्ञान और समस्त चारित्र मिथ्या है। जैसे अंकों के बिना शून्य की लम्बी लकीर बना देने पर भी उसका कोई मूल्य नहीं होता, वैसे ही सम्यक्त्व के बिना ज्ञान और चारित्र का कोई अर्थ नहीं रहता। अगर सम्यक्त्व रूपी अंक हो और उसके बाद ज्ञान और चारित्र हो तो प्रत्येक शून्य से दस गुना कीमत हो जाती है।

वस्तुतः सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान और चारित्र संभव ही नहीं है। सम्यग्दर्शन से ही ज्ञान और चारित्र में सम्यक्त्व आता है। इसीलिए दर्शन, ज्ञान, चारित्र तीनों ही भाव सम्यक्त्व होते हुए भी सम्यक्त्व शब्द सम्यग्दर्शन के अर्थ में रूढ हो गया है। यह सम्यग्दर्शन की प्रधानता सूचित करता है। सम्यग्दर्शन की महिमा और गरिमा का शास्त्रकारों और समर्थ आचार्यों ने स्थान-स्थान पर विविध रूप से वर्णन किया है।

इस संसार में विवेकी जीव के लिए सर्व प्रथम प्राप्त करने योग्य कोई वस्तु है तो वह सम्यग्दर्शन है। क्योंकि, इसके बिना जीव को जो वस्तुतः प्राप्तव्य है, उसे पाने के उपाय को जीव प्राप्त नहीं कर सकता और उसे सही रूप में व्यवहार में नहीं ला सकता। सच्ची शांति किसे कहते हैं, यह भी वह जीव नहीं जान पाता। आत्मा की सच्ची शांति को देने वाला प्रथम गुण सम्यग्दर्शन है।

परन्तु, सम्यग्दर्शन गुण आत्मा की सच्ची शांति को पाने का मूल है, ऐसा जीव को अनुभव होना चाहिए न? जीव को ऐसा अनुभव कब होता है? भव्य जीव को ही ऐसा अनुभव हो सकता है, परन्तु इसके लिए स्वभाव से भव्य जीव के भी भव्यत्व का परिपाक होना चाहिए। उसका काल भी पकना चाहिए। इसके साथ ही पुण्य के योग से मिलने वाली कतिपय सामग्रियों का योग भी होना चाहिए और ऐसी सामग्री के साथ-साथ हमारा पुरुषार्थ भी इस दिशा में होना चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

कर्मों के आवरण का विचार


सम्यक्त्व पाना है तो स्वयं को पहचानना पडेगा। जीव स्वयं को ही नहीं पहचान रहा है, तो सम्यक्त्व कैसे पा सकता है? हम कौन हैं? आत्मा। आत्मा का मूल स्वभाव कैसा है? अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र, अनंत वीर्य और अनंत सुख आदि आत्मा के गुण हैं, ऐसा तो आपने सुना है न? आत्मा स्वरूप से अनंत ज्ञानादि गुणों का स्वामी है न? शुद्ध आत्मा में एक भी दोष नहीं और गुण सब हैं, यह आप जानते हैं? हम भी आत्मा हैं, परन्तु अभी हम में ज्ञानादि गुण कितने हैं और दोष कितने हैं? ज्ञानादि गुण नहींवत् हैं और दोषों का कोई पार नहीं है, ऐसा आपको लगता है? चेतन आत्मा मानो जड तुल्य बन गया है, ऐसा लगता है? आत्मा का गुण अनंतज्ञान है, परन्तु अभी हम कैसे ज्ञानी हैं? वास्तव में हम बहुत सारी बातें नहीं जानते।

अनंतज्ञान गुण का स्वामी आत्मा आज बहुत सी बातें नहीं जानता, इसका कारण क्या है? आत्मा अनंतज्ञानी होते हुए भी आज अज्ञानी है, ऐसा क्यों? आत्मा अनंतचारित्री है, परन्तु आज हमारे द्वारा दुराचरण बहुत होता है, यह क्यों? आत्मा अनंतवीर्य वाला है, फिर भी हममें अपार कमजोरी महसूस होती है, इसका क्या कारण है? आत्मा अनंत सुख का धाम है, फिर भी आज हमें दुःख अधिक भोगना पडता है और सुख के लिए फाँफे मारने पडते हैं, ऐसा क्यों? अपनी इच्छा अज्ञानी रहने की है? नहीं। अपनी इच्छा दुराचरण करने की है? कहिए कि नहीं। इच्छा तो अच्छा करने की ही है न? अच्छा करने की इच्छा होने पर भी खराब हो जाता है अथवा बुरा करने का मन होता है, तो वह क्यों? हममें वीर्य की कमी है, यह हमें खटकती है न? फिर भी हममें निर्बलता कितनी अधिक है?

सत्ता रूप में तो आत्मा अच्छा ही है, अनंत ज्ञानी है, अनंत दर्शनी है, अनंत चारित्री है, अनंत वीर्यवाला है, अनंत सुख का धाम है, परन्तु आज हम ऐसे-वैसे हैं, यह क्यों? क्या आप यह जानते हैं? कर्मरूपी आवरण के प्रताप से ही आज हमारी ऐसी दशा है। यह आवरण यदि हट जाए और हम निरावरण हो जाएं तो सिद्ध आत्मा में और हमारे आत्मा में कोई भेद नहीं है। हम जब-जब णमो सिद्धाणंबोलते हैं, तब जैसे हमें सिद्धात्माओं के स्वरूप का ध्यान आता है, वैसे अपने स्वरूप का ध्यान भी आता है न?

ज्ञानी होने की इच्छा होते हुए भी हम बहुत अज्ञानी हैं। सुखी होने की इच्छा होते हुए भी हम बहुत दुःखी हैं। अच्छा करने की इच्छा होते हुए भी हम से दुराचरण हो जाता है। अनुभव है न आपको ऐसा? हां! तो ऐसा क्यों होता है? इस रीति से हम विचार करते हैं क्या? जो जीव सम्यक्त्व पाना चाहते हैं, उन्हें इस तरह भी आत्मा पर कर्मों के आवरण व आत्मा के स्वरूप का विचार करना चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 27 नवंबर 2014

सम्यग्दर्शन की अभिलाषा


ज्ञानियों ने सम्यक्त्व को अतिशय महत्त्वपूर्ण माना है। परन्तु, किसी भी समय सब जीव ऐसे नहीं होते हैं, जिन्हें सम्यक्त्व की महिमा समझ में आ जाए। यदि स्वयं श्री तीर्थंकर देव भी उपदेशदाता हों तो भी उपदेश सुनने वालों में ऐसे भी जीव होते हैं कि जिन्हें सम्यक्त्व की महिमा समझ में नहीं आती। जिन जीवों की समझ का सच्चा विकास हुआ हो या होने लगा हो, ऐसे जीव ही सामग्री को पाकर सम्यक्त्वादि की महत्ता को समझ सकते हैं। प्रत्येक काल में ऐसे जीव अल्प संख्या में ही होते हैं। सम्यक्त्वादि धर्म की बात सुनने का सौभाग्य भी जगत के जीवों में से बहुत कम को प्राप्त होता है। यह बात यदि हमारे ध्यान में आ जाए तो हमें अनुभव होगा कि हम अपने पुण्य के योग से बहुत ऊँचे आ गए हैं।

हमें ऐसे देश में और ऐसे कुल में जन्म मिल गया है कि जिससे हमें विशेष पुरुषार्थ किए बिना ही श्री जिनेश्वर देव प्ररूपित सम्यक्त्वादि धर्म की बात सुनने को मिल जाती है। सम्यक्त्वादि धर्म की सच्ची आवश्यकता जिन्हें लगती हो, वे सम्यक्त्वादि धर्म के लिए प्राप्त हुए इस धर्म से अपने जीवन को निर्मल बनाने के लिए और प्राप्त धर्म के रक्षण के लिए श्री जिनेश्वर देव द्वारा कथित तत्त्वभूत पदार्थों के स्वरूप का अभ्यास करने लगें तभी यह अभ्यास सही रूप का कहा जा सकता है? जीवों को सम्यक्त्वादि धर्म की सच्ची आवश्यकता कब लगती है? जिन जीवों को सुख-सामग्री वाला संसार भी रुचिकर नहीं लगता, उन्हीं जीवों को सम्यक्त्वादि धर्म की सच्ची आवश्यकता प्रतीत होती है। संसार में यदि रुचि बनी हुई हो तो संसार को छुडाने वाला धर्म कैसे आवश्यक लग सकता है? जीव को जब ऐसा लगने लगे कि इस संसार में चाहे जैसी सुखमय अवस्था इस जीव को प्राप्त हो जाए तो भी उस अवस्था में जीव को एकांत सुख ही मिले, ऐसा नहीं होता। उसमें कुछ न कुछ दुःख का अंश होता ही है और वह सुख जीव के पास सदा के लिए नहीं रह सकता है। या तो वह सुख चला जाता है, या उस सुख को छोडकर जीव को जाना पडता है। क्योंकि दोनों पराधीन हैं। सुख पुण्य के आधीन है और जीव कर्म के आधीन है! ऐसी स्थिति में जीव को इससे भिन्न अन्य प्रकार के सुख का और उस सुख के साधन रूप धर्म का विचार आने के लिए अवकाश मिलता है। जीव को ऐसी अवस्था प्राप्त करनी चाहिए कि जिस अवस्था में दुःख का नाम भी न हो, सुख में कमी न हो और जीव की स्थिति शाश्वत रहे। मोक्ष प्राप्त हुए बिना यह अवस्था प्राप्त नहीं होती। इसलिए जीव मोक्ष पाने के लिए धर्म के मार्ग की ओर मुडे। वह धर्म को जानने के लिए प्रयत्न करे और ऐसे धर्म को जानने का प्रयास करे, जिसके योग से मोक्ष मिल सके। ऐसे जीव को जब सम्यक्त्वादि के विषय में ज्ञान हो जाए, तो उसे सबसे पहले सम्यक्त्व को पाने का मन होता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 26 नवंबर 2014

अंतःकरण श्री जिनधर्म-वासित बना रहे!


मेरा अंतःकरण श्री जिनधर्म के बोधि-भाव से सुवासित रहे! इसके लिए यदि मुझे किसी का दास बनना पडे तो भी मुझे उसकी चिन्ता नहीं, दरिद्र होना पडे तो उसकी भी परवाह नहीं! धर्म से रहित होकर चक्रवर्तित्व भी नहीं चाहिए और धर्मसहित रहने के लिए दास और दरिद्र बनना पडे तो भी मुझे स्वीकार है! चक्रवर्तित्व का लोभ नहीं और दास-दरिद्रता का क्षोभ नहीं। एकमात्र इच्छा यही है कि अंतःकरण श्री जिनधर्म-वासित बना रहे! भगवान द्वारा प्ररूपित धर्म का भाव मिला तो सब कुछ मिल गया और यदि यह न मिला तो कुछ नहीं मिला। यह थी भावना 18 देशों के महाराजा कुमारपाल की।

बोधि और जिन धर्म की प्राप्ति की महत्ता को समझने वालों के हृदय की इच्छा कैसी होती है, यह समझे हैं न आप? आपको भी ऐसी ही इच्छा है न? यदि भगवान द्वारा प्ररूपित एकमात्र धर्म मिलता हो तो उसके लिए सब सुखों का भोग देने की और चाहे जैसे दुःख को सहन करने की तैयारी है न? कभी दुःख की अवस्था में, कर्मजन्य मानसिक पीडा आदि में, ‘यह मिले तो अच्छा, यह मिले तो अच्छा’, ऐसा क्षणभर के लिए भाव आ जाता होगा, परन्तु पीछे ऐसा भाव आता है न कि यह कैसा पाप है? यह मिले तो भी क्या? क्या यह मेरे सब दुःख को दूर कर देगा? अतः चाहिए तो एकमात्र बोधि!

श्री जयवीयरायसूत्र को बोलते हुए आप भवे-भवे तुम्ह चलणाणंमांगते हैं न? क्या कहकर आप यह मांगते हैं? ‘भगवन! मैं जानता हूं कि आपके शासन में कुछ भी मांगने का निषेध किया गया है, तो भी मैं इतना तो मांगता हूं कि भव-भव में मुझे आपके चरणों की सेवा प्राप्त हो!इतना तो मैं आपके पास अवश्य मांगता हूं।ऐसा बोलते हैं न? अर्थात् आपको राज्य मिले, चक्रवर्तित्व मिले, देवलोक मिले, देवेन्द्रत्व मिले, अरे अहमिन्द्रत्व मिले तो भी वस्तुतः आपके लिए उसकी कोई कीमत नहीं! कीमत है केवल भगवान के चरणों की सेवा मिले, इसकी। अन्य कुछ मिले या न मिले, परन्तु यह तो अवश्य मिलना ही चाहिए, ऐसा आपके मन में है न? भव-भव में श्री जिन के चरणों की सेवा किसको मिलती है? बोधिलाभ वाले को ही मिलती है न? आप भगवान के पास यही मांगते हैं न? ऐसा आप अन्य रचित बोलते हैं या स्वयं ऐसी याचना करते हैं? आपको यह बात ज्ञात हो चुकी है कि जो जीव बोधि को प्राप्त करता है, वह जीव कभी संसार में रंजित नहीं होता। क्योंकि सारे संसार के प्रति और संसार के सब पदार्थों के प्रति उसके हृदय में निर्ममत्व प्रकट होता है। उस निर्ममभाव के प्रताप से वह मुक्तिमार्ग की आराधना, बिना किसी विघ्न-बाधा के कर सकता है।इस प्रकार सम्यग्दृष्टि की इच्छा एकमात्र मुक्तिमार्ग की आराधना करने की ही होती है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 25 नवंबर 2014

सम्यग्दृष्टि का विराग


जिन्हें बोधि प्राप्त हो जाती है, उनको तो संसार खटकता है, क्योंकि उनमें निर्ममत्व प्रकट हो जाता है। इसलिए वे मुक्तिमार्ग की आराधना सुन्दर रूप से कर सकते हैं। ऐसे जीव संसार में हों तो भी मुक्तिमार्ग की आराधना करने वाले होते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव यदि संसार में हों तो उनके स्त्री, बच्चे, घरबार आदि होते हैं न? ये होते हैं, परन्तु विघ्नरूप नहीं होते। यदि वे विघ्नरूप होते हैं तो सम्यग्दृष्टि जीव उनकी परवाह नहीं करते। आप अब घर जाकर सबको यही कहेंगे न कि यह बोधि ही बडी से बडी सम्पत्ति है। जिसे बोधि की संप्राप्ति हो गई है और इस कारण जिसमें निर्ममभाव पैदा हो गया है, उसके जैसा इस जगत में कोई अन्य सुखी नहीं है।

सम्यग्दृष्टि आत्मा ने सम्यग्दर्शन पाने के पहले आयुष्य का बंध कर लिया हो और इस कारण वह नरक में भी हो, तो वहां उसे जितना पाप खटकता है, उतना दुःख नहीं खटकता। शरीरादि के दुःख की अपेक्षा से मानसिक दुःख अधिक होता है। शरीरादि के दुःख के लिए तो वह समझता है कि मेरे किए हुए पाप का परिणाम मुझे भोगना ही पडेगा, इसमें क्या नई बात है। परन्तु मन में उसको इस बात का दुःख होता है कि मैंने ऐसे-ऐसे दुष्कर्म किए, मैं ऐसा पापी।सम्यग्दृष्टि जीव देवलोक में पैदा हुआ हो और वहां स्वर्ग में सम्पत्ति बहुत हो, तब उसके मन में क्या भाव होते हैं?

इसमें से कुछ भी मेरा नहीं है। ऐसी विपुल सुख-सम्पत्ति के बीच भी उसका विराग जीता जागता रहता है। क्योंकि, मोक्षमार्ग की आराधना ही उसका लक्ष्य है। संसार की सुख-सम्पत्ति का उसके मन में कोई महत्त्व नहीं होता। मोक्ष का ही उसकी दृष्टि में सच्चा महत्त्व होता है। क्योंकि वह सम्यग्दृष्टि है। आप सम्यग्दृष्टि हैं या आपको सम्यग्दृष्टि बनना है? सुखी होना या दुःखी होना अपने ही हाथ में है, ऐसा लगता है न? सुखी होने के लिए सम्यग्दृष्टि बनना आवश्यक है, ऐसा अनुभव होता है न?

जिसे सम्यग्दर्शन गुण का आस्वाद आता है, उसकी सांसारिक सुख की इच्छा का उपादेय रूप में नाश हो जाता है और एक मात्र मुक्ति मार्ग की आराधना की इच्छा ही उसके हृदय पर शासन करती है। उसकी सब इच्छाएं मोक्ष साधना के अनुकूल ही होती है, इसलिए वह एकांत में बैठा हो तो भी ऐसी भावना में ही रमण करता है कि मुझे मिला हुआ यह धर्म जाता हो और चक्रवर्तित्व भी मिलता हो तो वह मुझे नहीं चाहिए। प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर भावना भाते हुए आप यह बोलते हैं? राजा भी प्रातःकाल उठकर ऐसी भावना भाने वाला होता है और रंक भी। बोधि के कारण बोधिलाभ की यह कैसी अद्भुत खुमारी (मस्ती) है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 24 नवंबर 2014

संसार में ममत्व करने लायक कुछ भी नहीं


हमें राज्य, श्रीमंताई आदि कुछ नहीं चाहिए। चाहिए, एक मात्र भगवान के शासन का भिक्षुकपन।आपकी मनोवृत्ति यदि इस प्रकार की बन जाएगी और ऐसी स्थिति में आपके पुण्योदय से आपको राज्यादिक की प्राप्ति हो जाएगी, तो आपके द्वारा शासन की प्रभावना अच्छी हो सकेगी।

आपको संसार के सुख की सामग्री मिले’, ऐसा मैं नहीं कहता, परन्तु आपको जब-जब संसार के सुख की सामग्री मिले, तब-तब यदि आपका मन उसकी इच्छा न करे, तो वह सामग्री आपके लिए और अनेकों के लिए लाभ का कारण बन सकती है। जब मन बराबर इनकार करता हो, उस समय जो अधिक सामग्री मिले तो अधिक सदुपयोग हो सकता है न? सदुपयोग के लिए भी लेने की बात नहीं, परन्तु मिले तो सदुपयोग करने की बात है।

विवेक से धर्म की आराधना करने वालों को तो जो पुण्यबंध होता है, वह ऐसा होता है कि उनको संसार के सुख की सामग्री भी अनुपम कोटि की मिलती है। श्री तीर्थंकरादिक को पुण्य के योग से बहुत समृद्धि मिलती है। वह समृद्धि ऐसी होती है कि उसकी तुलना नहीं की जा सकती। इस समृद्धि में उन तारकों आदि की निर्ममता भी ऐसी होती है कि उसकी भी तुलना नहीं की जा सकती। ये सब चीजें ऐसी हैं कि ये जिस समय मिलें, उस समय बोधि हो तो बहुत अच्छा परिणाम आ सकता है।

जिस समय मन कहता हो कि मुझे नहीं चाहिए’, उस समय संसार की सुख सामग्री मिले तो वह बहुत उपकारक हो सकती है, परन्तु जिस समय मन यह चाहिए, वह चाहिएकरता हो, उस समय जो सुख सामग्री मिले, तो क्या खराबी वह नहीं करेगी, यह नहीं कहा जा सकता। आप देख रहे हैं कि मांग-मांग कर राज्य लेने वाले आज कैसे बन गए हैं? वे कहते हैं कि बहुत सहन किया है हमने आज तक; अब हमारा लेने का समय आया है। इसलिए तुम चाहो जो करो, परन्तु हमें तो दो’, ऐसा कहने वाले हैं न?

इसलिए ऐसी इच्छा करिए कि हमें बोधि चाहिए। बोधि मिलने के बाद संसार की धनादि सामग्री मिलेगी तो उसका सदुपयोग करेंगे। हमको जो सामग्री मिल जाए तो हमारी तो यह इच्छा है कि हम उसका मोक्ष की साधना में सदुपयोग करें। फिर हम अकेले मोक्ष में नहीं जाएंगें, अनेकों को साथ में लेकर जाएंगे। बोधि होने पर ही ऐसी इच्छा हो सकती है। बोधि चाहिए न? तो कहिए कि शरीर की चिन्ता के स्थान पर, आत्मा की चिन्ता स्थापित कर दी; यह शरीर भी ममत्व करने लायक नहीं है तथा संसार की कोई भी वस्तु ममत्व करने योग्य नहीं है।जिन जीवों को बोधि की प्राप्ति हो जाती है, वे जीव भव में, संसार में कभी रंजित नहीं होते।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 23 नवंबर 2014

दुःख में भी सुख का अहसास


दुःख में भी सुख का अहसास

सम्यग्दृष्टि को जो कुछ अच्छा मिलता है, उससे वह अपने मोक्ष को साधता है और दूसरों के लिए भी मुक्ति के साधन में उपयोगी होता है। तात्पर्य यह है कि जिसे बोधि लाभ हुआ है, उसे संसार की अच्छी और विपुल सामग्री मिले तो उसमें उसका भी कल्याण है और साथ ही साथ दूसरों का भी कल्याण है। जबकि, जिनको बोधि का लाभ नहीं हुआ है और केवल संसार का ही रस है, उन्हें यदि अच्छी सामग्री मिल जाती है तो वह उनको और दूसरे को भी प्रायः महा हानिकारक ही होती है!

आपके खाने-पीने-ओढने आदि की, आपके धन-दौलत की यदि साधु चिन्ता करें, तो उन्हें कहते हो कि यह काम आपने कैसे ले लिया? इस संसार में पडे हुए जीवों में रोटी, बंगला, पैसा, धंधा आदि की भीख कौन नहीं मांगता? ऐसी भीख तो हम अनादिकाल से मांगते आए हैं और इसके भिखारी होने के कारण तो संसार में हम अनंतकाल से भटक रहे हैं। अतः कृपा करके आप हमारे लिए इन सब की भीख न मांगें! इस भीख को मांगते-मांगते तो हम पामर बन गए हैं। और आप भी हमारे लिए यह भीख मांगने लगे तो हमारा क्या होगा? आपको यदि हम पर उपकार करना है तो ऐसा कहिए कि ऐसी भीख मांगने का हमारा दुःख सदा के लिए मिट जाए और हमें यह समझा दीजिए कि ऐसी-ऐसी चीजों के प्रति नजर रखी, इसके कारण दुःखी हुए हो; अतः अब इन चीजों पर दृष्टि डालना भी छोड दो और दुःख को भी सुख से भोग लो। इस तरह आप हमको ऐसे बना दीजिए कि हम हमारे कर्मों से प्राप्त दुःख में भी सुखी रह सकें। हमारे पास भले ही कुछ न मिले, लोग हमें कंगाल कहते हों तो भी हम अपने आपको महाश्रीमंत मान सकें! क्योंकि, लोग जिन्हें श्रीमंत कहते हैं, उन्हें हमने महाकंगाल के रूप में भी देखा है।

श्रीमंतों में कैसे-कैसे कंगाल होते हैं, यह आपने नहीं देखा है क्या? परन्तु, आपको भी वैसे श्रीमंत होने का मनोरथ है, इसलिए वह कंगालियत आपको दिखाई नहीं देती। बोधि को प्राप्त व्यक्ति तो कहते हैं कि ये बेचारे जानते नहीं कि सच्ची श्रीमंताई क्या है? इसलिए पैसे वालों को श्रीमंत कहते हैं। लेकिन, मैं मानता हूं कि मेरी श्रीमंताई अद्वितीय है, लोकोत्तर है। मुझे फुटपाथ पर सोने का समय आ जाए तो भी, ये श्रीमंत बंगलों में और पलंगों पर सोते हुए भी, जिस समाधि सुख का अनुभव नहीं कर सकते, उस समाधि सुख का अनुभव मैं फुटपाथ पर सोकर भी कर सकता हूं। मुझे मालूम है कि फुटपाथ पर सोने वाला भी मरता है और बंगले में सोने वाला भी मरता है। उसके शरीर को जलाने के लिए लकडी की अग्नि चाहिए और फुटपाथ पर सोने वाले के शरीर को जलाने के लिए भी लकडी की अग्नि चाहिए।यह बात यदि आपके हृदय में जंच जाए तो बेडा पार हो जाए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 22 नवंबर 2014

संसार भी मंगल रूप हो सकता है!


आप कौन हैं? शरीर या आत्मा? आत्मा! और भोग सामग्री की चाहे जितनी अच्छी चीज मिल जाए तो भी वह आपकी नहीं न? मंगल किसे कहते हैं? जिससे विघ्नों का विनाश हो उसका नाम मंगल। अतः शास्त्र में कहा है कि आत्मा को संसार से जो तिरावे, वही सच्चा मंगल है! जिसमें संसार से तारने की शक्ति नहीं, वह वस्तुतः मंगल नहीं है। मंगल के रूप में संसार की अनेक वस्तुएं जानी जाती हैं। परन्तु नियमतः मंगलकारी कोई वस्तु है तो वही हो सकती है, जिसमें आत्मा को संसार से तारने की शक्ति रही हुई हो! संसार से तारने वाली वस्तु का भी यदि हम विपरीत रूप से उपयोग करें, तो वह हमारे लिए मंगलरूप नहीं बन सकती।

सम्यग्दृष्टि के लिए सारा संसार मंगलरूप बन जाता है, ऐसा भी संभव है। क्योंकि, सम्यग्दृष्टि आत्मा संसार को भी अपने लिए तिरने में सहायक बना देता है! सम्यग्दृष्टि आत्मा पुण्य के कारण राज्यादिक की ऋद्धि-सिद्धि को पाता है, देवगति में अच्छे स्थान में देव बनता है, यावत सर्वार्थसिद्ध तक पहुंचता है। यह सब संभव है। अच्छे से अच्छे पुण्य का स्वामी सम्यग्दृष्टि आत्मा ही बन सकता है। पुण्योदय दुनिया की अच्छी से अच्छी सामग्री का योग मिला देता है, इसमें कोई अचरज नहीं। परन्तु, इन सबके बीच सम्यग्दृष्टि आत्मा कैसे रहता है, यह आप जानते हैं? यह सब सामग्री उसे संसार से तिरने में सहायक बने, इस तरह वह रहता है।

संसार की अच्छी सामग्री मिलना पुण्याधीन है। पुण्यशालियों के लिए अच्छी चीजें मिलना कठिन नहीं है। परन्तु, संसार का कोई भी सुख बोधि की अनुपस्थिति में मिले, ऐसी इच्छा नहीं करनी चाहिए। संसार के सुख की सामग्री यदि बोधि या बोधि पाने की इच्छा के अभाव में मिलती है, तो वह प्रायः आत्मा के हित को बिगाडने वाली बनती है। इसके विपरीत बोधि या बोधि पाने की इच्छा की मौजूदगी में यह सामग्री मिल जाए तो वह आत्मा के हित को सुधारने वाली बन जाती है। सम्यग्दृष्टि को लक्ष्मी मिलती है, तो वह बता सकता है कि उस लक्ष्मी की कोई कीमत नहीं! यह बात वह कैसे बताता है? उदारता से दान देकर।

संसार की कोई भी वस्तु उसे लुभा नहीं सकती। वह उसके वैराग्य को बढाने वाली होती है। वे सब वस्तुएं तो कहती हैं कि हम में किसी को फंसना नहीं चाहिए।परन्तु, उसकी इस आवाज को सुनता कौन है? सम्यग्दृष्टि आत्मा उनकी इस आवाज को सुन सकता है। इसलिए वह उनमें नहीं फंसता। परन्तु, अपनी मुक्ति की साधना में उनका उपयोग करता है। अतः उसके लिए वे मंगलरूप बन सकती हैं। वस्तुतः संसार मंगलरूप नहीं है, परन्तु जिसको उसका उपयोग करना आता हो, उसके लिए संसार भी मंगलरूप हो सकता है। इसी तरह अयोग्यों के लिए तो शुद्ध मंगलरूप वस्तु भी अमंगल जैसी बन जाती है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

बोधि से निर्मम भाव प्रकट होता है


बोधि प्राप्त व्यक्ति संसार में अनुरक्त नहीं होता, इसका कारण क्या है? वह क्यों संसार में रंजित नहीं होता? कारण यह है कि जो बोधि प्राप्त कर लेता है, उसमें निर्मम भाव आ जाता है।बोधि प्राप्त करने से पूर्व जो यह मेरा, यह मेराऐसा भाव था, उसके बदले बोधि पाने के पश्चात ऐसा भाव हुआ कि यह भी मेरा नहीं, यह भी मेरा नहीं!दुनिया के किसी भी पदार्थ को अपना मानने की बुद्धि नहीं रहती। सगे-सम्बंधी कोई मेरे नहीं’, ऐसा निर्मम भाव आपके हृदय में पैदा हुआ है? शास्त्र कहता है कि बोधि-लाभ संसार में सबको नहीं होता। जिनका संसारकाल केवल अर्धपुद्गल परावर्तकाल से भी न्यून हो, उसे ही बोधि की प्राप्ति हो सकती है। वह भी जो महाउद्यमी बनते हैं, उन्हें प्राप्त होती है।इसके बिना बोधि-लाभ होना कठिन है।

अन्य लोगों को बोधि-लाभ न हो, इसमें आश्चर्य करने जैसी कोई बात नहीं और खेद भी नहीं करना चाहिए। ऐसे जीवों की तो दया ही करनी पडती है और यदि भारी अयोग्यता मालूम पडे तो उपेक्षा भी करनी पडती है। ममता का जाना और निर्ममत्व का आना सरल बात नहीं है। अभी तो आपने जितना-जितना अपना माना है और जो-जो मिले, उसे अपना मानने के लिए तैयार हैं; इन सबके लिए बोधि-प्राप्त आत्मा को ऐसा विचार होता है कि यह मेरा नहीं है’, यह क्या कोई सरल बात है? परन्तु निर्ममभाव आना जितना कठिन है, उतना ही वह आवश्यक भी है। क्योंकि, निर्मम भाव आए बिना काम चलने वाला नहीं है।

शरीर में अहंबुद्धि और अन्य में ममत्वबुद्धि; यही संसार की जड है। जो जीव बोधि को पाता है अथवा जल्दी ही बोधि पाने की योग्यता को पाता है, उसे यह अनुभव हो ही जाता है कि यह शरीर मैंनहीं हूं तथा इस शरीर एवं संसार के सब पदार्थ वस्तुतः मेरे नहीं हैं, अपितु परहैं।

पहले बार-बार शरीर आदि याद आते हों, उसके बदले अब बार-बार आत्मा और आत्मा के गुण याद आने चाहिए। शरीर को कैसे अच्छा बनाया जाए और शरीर कैसे अच्छा बना रहे, ऐसे विचार बिना लाए भी आया ही करते हैं न? आपको अपना शरीर जिस तरह और जितना याद आता है, उस तरह और उतना आत्मायाद आता है क्या? दुनिया को चाहे जितनी मात्रा में और चाहे जितनी अच्छी वस्तु मिल जाने पर भी उसके दिल में यह बात उठे बिना नहीं रह सकती कि यह वस्तु मेरी नहीं है’; तो उनकी प्राप्ति से अन्य व्यक्तियों की तरह उसके मन का रंजन किस प्रकार हो सकता है? गाढ कर्मादि के कारण कदाचित वह वस्तु उसे अच्छी भी लग जाए तो भी खटका तो अवश्य बना रहता है कि यह वस्तु मेरी नहीं है।इसलिए रंजन में कमी आए बिना नहीं रह सकती।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा