मंगलवार, 30 सितंबर 2014

ज्ञान मतलब स्व-स्वरूप को जानना


जीवादि तत्त्वों का ज्ञान हो, परन्तु यदि यह निश्चयात्मक न हो तो वह भी वस्तुतः ज्ञान नहीं, अज्ञान ही है। जीवादि पदार्थों को उनके यथार्थ स्वरूप में जानना और मानना सम्यक्त्व है। ऐसा सम्यक्त्व बहुमूल्य है।

भगवान ने जो कहा है, वही सत्य है, ऐसा मानना भगवान के निश्चय को अपना निश्चय बनाने के समान है, अतः भगवान ने जो कहा है, वही सत्य है, ऐसा अंतःकरण से स्वीकार करने वाले में भी सम्यक्त्व होता है। ऐसा सम्यग्दृष्टि भी संयोगानुसार, भगवान ने जो कुछ जीवादि तत्त्वों के विषय में कहा है, उसका अभ्यास करने का प्रयत्न करता रहता है।

जीवादि तत्त्वों के स्वरूप के विषय में जिसे निश्चयात्मक ज्ञान होता है, वह अपने परिणामों की रक्षा करना जानता है। सच्चा शिक्षित व्यक्ति स्वयं को पहचानता है। वह किस भाव में वर्तमान में है, यह वह जान सकता है। अविरति आदि के कारणों से आत्मा में कैसे-कैसे परिणाम प्रकट होते हैं, इसका वर्णन जब चलता है तो वह प्रसन्न होता है कि ज्ञानी मेरे अंतर तक पहुंच गए हैं। अविरति का जोर क्या करता है? कषायों का जोर क्या करता है; इत्यादि सम्बन्धी ज्ञानियों की कथित बातें उसके अनुभवगम्य बनती हैं।

ज्ञान अपने स्वरूप को वास्तविक रूप में पहचान कराने वाला होता है। जिसका ज्ञान सच्चा होता है, वह सर्वप्रथम स्वयं को पहचानता है। अपनी बीमारी का सर्वप्रथम पता किसको चलता है? स्वयं को या दूसरों को? ज्ञान कम हो तो अपने रोग के प्रकारादि को नहीं जाना जा सकता है, परन्तु रोग के असर को तो वह स्वयं ही जान सकता है न?

ज्ञान अपने दोषों और अपने गुणों को जानने के लिए तथा अपने दोषों को हटाने और गुणों को प्रकट करने के लिए है। आज अधिकांश को तत्त्वों का ज्ञान नहीं है। जो शिक्षित हैं, वे भी अपने ज्ञान का उपयोग दूसरों के दोषों को ढूंढने में करते हैं, अपने दोषों को देखने के लिए नहीं। अपने दोषों को देखने का मन नहीं होता, दूसरों के दोषों को देखने का मन हो जाता है। इसे क्या माना जाए? शिक्षित या अशिक्षित-दोनों ही अपने दोषों को देखने के बजाय दूसरों के दोषों को ही क्यों देखते हैं? यह मिथ्यात्व का लक्षण है।

सम्यक्त्वी अंतर्मुखी होता है, मिथ्यात्वी बहिर्मुखी होता है, वह पर में देखता है, स्व में नहीं झांकता। इसीलिए न कि मिथ्यात्व और अज्ञान अन्दर बैठे हुए हैं? अन्यथा तो ज्ञान स्वयं को, स्वयं के स्वरूप को जानने के लिए ही होता है, स्वयं के दोषों को जानकर उनके निस्तार के प्रयास करने के लिए, अपनी आत्मा को उज्ज्वल बनाने के लिए ज्ञान होता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 29 सितंबर 2014

आचरण से जैन बनें


अंग्रेजी न पढा हुआ पिता संतति को अंग्रेजी पढाता है। यदि संतति ठीक से न पढे तो कहा जाता है कि, ‘मैं अंग्रेजी नहीं पढा, इससे पेढी का पत्र व्यवहार दूसरे से करवाना पडता है। कुछ लिखना-पढना हो तो दूसरे की राह देखनी पडती है। अन्य के सामने पेढी की गोपनीयता खुल जाती है, अतः ध्यान देकर पढो, जिससे ऐसा प्रसंग न आए। हमें तो पढाने वाले नहीं मिले, जिससे अनपढ रहे, परन्तु तुमको तो यह सुविधा है, फिर इतनी गफलत क्यों करते हो? ऐसा तत्त्वज्ञान के विषय में भी विचार आता है क्या? उस अंग्रेजी न पढे हुए पिता को जितना दुःख है, उतना दुःख आपको तत्त्वज्ञान न होने का है क्या? अंग्रेजी के ज्ञान की आवश्यकता जितनी महसूस की जाती है, उतनी तत्त्वज्ञान की आवश्यकता महसूस होती है क्या?

आप यदि सचमुच धर्म के रंग से रंगे हुए होते तो आपने तत्त्वज्ञान प्राप्त करने का परिश्रम किया होता। ऐसा अनुभव होता कि, सद्भाग्य से ऊंचा मार्ग मिला तो भी कोरे रह गए। यदि आपको ऐसा अनुभव हुआ होता, तो आपकी संतति का पाक ऐसा नहीं आता। आपकी संतान तत्त्वज्ञान से रहित रहे, इसमें आपका भी बडा दोष है। यह दोष भी आज आपको अधिक दोष रूप नहीं लगता, क्योंकि आपके हृदय में तत्त्वज्ञान प्राप्त करने की तीव्र अभिलाषा समुचित रूप में प्रकट ही नहीं हुई है।

जैन कुल में जन्मे हुओं के लिए मिथ्यात्व निकालना और सम्यक्त्व प्रकट करना बहुत सुलभ है, ऐसा अवश्य कहा जा सकता है। परन्तु, वह भी यदि असद् आग्रह में पड जाए अथवा तत्त्वातत्त्व को जानने का प्रयास ही न करे तो सम्यक्त्व कहां से प्राप्त करे? जैसे व्यवहार में जितने वणिक उतने शाह कहे जाते हैं, परन्तु जितने शाह कहे जाते हैं, वे सब साहूकारी निभाते हैं, ऐसा नहीं माना जा सकता। कोई व्यक्ति शाह लिखा हुआ पढकर पांच हजार रुपये अमानत रख जाए तो वह अमानत की रकम ही गंवा बैठे, यह भी संभव है न? जितनों को सेठलिखा जाता है, वे सब श्रेष्ठ ही हैं, ऐसा नहीं है न? ऐसे ही आज जैन कुल में जन्म लेने के कारण जितने जैन कहलाते हैं, वस्तुतः आचरण से उतने जैन हैं नहीं। यह बहुत ही दुःख और लज्जा की बात है।

जैन कहलाने मात्र से आपकी दुनिया के सामने एक अलग छवि और प्रतिष्ठा बन जाती है, दुनिया के सामने आपकी विश्वसनीयता बढ जाती है; तो वास्तव में सम्पूर्ण आचार-विचार से यदि आप सम्यक्त्वी बनेंगे, जैन बनेंगे तो आपकी छवि और भी कितनी उज्ज्वल बनेगी और साथ ही आपका आत्म-कल्याण भी निश्चित रूप से हो सकेगा।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 28 सितंबर 2014

पुत्र तत्त्वज्ञान रहित हो तो कलेजा कांपता है ?


आज अधिकांश को धर्म-विषयक अज्ञान खटकता ही नहीं है। व्यावहारिक ज्ञान के प्रति जैसी ललक है, धार्मिक ज्ञान या तात्विक ज्ञान के प्रति वैसी ललक लगभग नहीं है। व्यावहारिक विषयों का अज्ञान इतना अधिक खटकता है कि अनपढ माँ-बाप भी पुत्रों को शक्ति से उपरांत जाकर भी पढाने का प्रयत्न करते हैं। व्यवहार में तो लडका जरा-भी बडा हुआ कि उसे पढाने की सावधानी रखी जाती है। पढाने की मेहनत करने पर भी यदि लडका ठीक से नहीं पढ पाता है तो विचार आता है कि इसकी जिन्दगी बरबाद हो जाएगी; और मुझे इसका पालन-पोषण करना पडेगा, इस भय से अपने प्रिय पुत्र को भी बात-बात में ताना मारा जाता है। क्या ऐसा विचार आपको तत्त्वज्ञान-रहित पुत्र के विषय में भी आता है?

संतान की व्यावहारिक जिम्मेदारी तो आप समझते हैं, परन्तु धार्मिक जिम्मेदारी नहीं समझते हैं तो क्या कहना चाहिए? जो भगवान को, गुरु को और भगवान द्वारा प्ररूपित धर्म को नहीं मानते, उनकी बात अलग है; ऐसे लोग अपने और अपनी संतान के परलोक सम्बन्धी हित की चिन्ता न करें तो कोई अचरज की बात नहीं है, परन्तु आप तो शुद्ध देवादि को मानने का दावा करते हैं, फिर भी आपका पुत्र देव-गुरु-धर्म के स्वरूप के विषय में अज्ञानी रहे, इसकी आपको चिन्ता न हो तो आप में धर्म आया है, यह कैसे माना जाए?

कतिपय गांव ऐसे थे, जहां अंग्रेजी भाषा की शिक्षा और व्यावहारिक शिक्षा की सरकारी व्यवस्था नहीं थी, तो ग्रामवासियों ने पैसे एकत्रित कर वैसी व्यवस्था खडी की। गांव की स्थिति यदि कमजोर थी तो बाहर से भी पैसे एकत्रित करके वैसी व्यवस्था की। क्योंकि, उसकी आवश्यकता महसूस हो गई! इसके बिना चल नहीं सकता, ऐसा माना गया। वैसे ही यदि लडका 20 वर्ष का हो गया, फिर भी उसे प्रतिक्रमणादि न आए तो क्या आपको उसका दुःख होता है?

कुटुम्ब में स्त्रियों को रसोई बनाना न आए तो खटकने लायक बात होती है, परन्तु धर्म न आए तो क्या आपको खटकता है? यदि लडका व्यवहार के विषय में होशियार न हो तो कलेजा कांपता है, परन्तु यदि वह धर्म के सामने भी नहीं देखता हो, तो अधिक से अधिक इसके कर्म भारी हैं’, ऐसा कहकर ही संतोष कर लेते हैं न? मिथ्यात्व एक रूप में नहीं, अपितु अनेक रूप में नाचता है और नचवाता है। मिथ्यात्व हटे और सम्यक्त्व प्रकटे तो अनेक गुण स्वयमेव प्रकट होने लगते हैं।

मिथ्यात्व को हटाने के लिए जीवादि तत्त्वों के स्वरूप का ज्ञाता बनने का प्रयत्न करना चाहिए और जीवादि तत्त्वों के निश्चय के अभाव रूप, अनधिगम रूप मिथ्यात्व को टालना चाहिए। धार्मिक अज्ञान खटकना ही चाहिए। ऐसे के ऐसे अज्ञानी रहना और मिथ्यात्व टल जाएगा, ऐसा मानना योग्य नहीं है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 27 सितंबर 2014

अज्ञान महाकष्ट है


अज्ञानी व्यक्ति भी यदि ज्ञानी बनने का प्रयत्न किया करे तो वह अवश्य ज्ञानी बन सकता है। तत्त्व के स्वरूप को न समझने वाला व्यक्ति भी यदि मार्गानुसारी बन जाता है और मार्गानुसारी बनकर सच्चे ज्ञानी का अनुसरण करता है, तो वह तिर जाता है। जैसे मिल को चलाने वाले तो एक-दो होते हैं, परन्तु उनकी आज्ञा में चलने वाले हजारों मजदूर उनके सहारे जीते हैं न?

बात यह है कि आप जीवादि तत्त्वों के विषय में अनजान तो हैं, परन्तु यह अज्ञान आपको खटकता है क्या? स्वयं अनजान हो, परन्तु स्वयं को विशेष बुद्धिमान (डेढ अक्ल) समझता हो, वह कैसे तिर सकता है? महापुरुष फरमाते हैं कि, ‘अज्ञानमेव महाकष्टम्अज्ञान ही महाकष्ट है। अज्ञान से बढकर और कष्ट क्या हो सकता है? सम्यग्दृष्टि में अनजानपना हो सकता है, परन्तु उसका अज्ञान-विषयक ज्ञान उसे दुःख पहुंचाता है। अज्ञानी रहना उसे अच्छा नहीं लगता, ज्ञानी की निश्रा में ही वह चलता है।

आपको व्यवहार में अज्ञान कितना खटकता है? तार आए और पढना न आए तो दुःख होता है न? ऐसा विचार आता है न कि पढा होता तो अच्छा रहता! व्यवहार में आप ऐसे आवश्यक ज्ञानी की आजीजी भी करते हैं न? धर्म के विषय में ऐसी स्थिति है क्या? धर्म विषयक अज्ञान आपको खटकता है क्या? व्यावहारिक ज्ञान के प्रति जैसी ललक है, धार्मिक ज्ञान या तात्विक ज्ञान के प्रति वैसी ललक आपकी है क्या?

सामान्य रूप से कहा जाता है कि देव में देवबुद्धि और अदेव में अदेवबुद्धि, गुरु में गुरुबुद्धि और अगुरु में अगुरुबुद्धि तथा धर्म में धर्मबुद्धि और अधर्म में अधर्मबुद्धि, यह सम्यक्त्व है। इससे विपरीत मिथ्यात्व है। यदि समझें तो इतने में सब तत्त्वार्थों का समावेश हो जाता है।

देव कौन और अदेव कौन, गुरु कौन और अगुरु कौन, धर्म कौनसा और अधर्म कौनसा, यह निर्णय हो जाने के बाद कौनसा निर्णय शेष रह जाता है? अज्ञानी को भी यह बात निश्रा से ही माननी होती है। देव में अदेवबुद्धि और अदेव में देवबुद्धि आदि जैसे मिथ्यात्व हैं, वैसे अज्ञानी रहना अच्छा लगे तो यह भी मिथ्यात्व है।

तत्त्वों के विषय में अज्ञान आपको खटकता है? इस अज्ञान को हटाने के लिए आपका प्रयत्न चालू है? हम अज्ञानी हैं, अतः सुगुरु की निश्रा में ही चलें, ऐसा आपका निर्णय है क्या? ज्ञानी सुगुरु जो कहे, उसे मान लेने की आपकी तैयारी है क्या? आपको लगता है कि यह अज्ञान महाकष्ट का कारण है और अब मुझे धर्म के विषय में अज्ञानी नहीं रहना है? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

मिथ्यात्वी का महातप भी बेमानी


वर्तमान में प्रतिदिन धर्म-क्रिया करने वालों में भी बहुत कम ऐसे निकलेंगे जो यह पूछने पर कि मिथ्यात्व किसे कहते हैं और सम्यक्त्व किसे कहते हैं? इसका समझपूर्वक उचित उत्तर दे सकें। अधिक से अधिक वे कह देंगे कि कुदेव, कुगुरु और कुधर्म का त्याग तथा सुदेव, सुगुरु और सुधर्म का स्वीकार सम्यक्त्व है और इससे विपरीत मिथ्यात्व है।यह व्याख्या भी ठीक है, असत्य नहीं है, सच्ची है; परन्तु विचारणीय यह है कि इसके पीछे जो विवेक (समझ) होना चाहिए, वह है या नहीं?’ इस व्याख्या में सब समाविष्ट हो जाता है, परन्तु देव को कुक्यों कहा जाए और सुक्यों कहा जाए, गुरु को कुक्यों कहा जाए और सुक्यों कहा जाए तथा धर्म को कुक्यों कहा जाए और सुक्यों कहा जाए, इस विषय को समझने का प्रयत्न कितना किया? ‘सुऔर कुका क्या अभिप्राय है? इसकी हमारी समझ कितनी?

कुलाचार मात्र से आपने कुदेवादि का त्याग किया है या विवेक पूर्वक त्याग किया है? और सुदेवादि की आप सेवा करते हैं, तो क्या कुलाचार से करते हैं या समझ पूर्वक? केवल कुलाचार से ही कुदेवादि को छोडता हो और सुदेवादि की सेवा करता हो, इसमें मिथ्यात्व भी हो सकता है, क्या आप यह जानते हैं? क्या आपने इतना भी विचार किया है कि मिथ्यात्व की विद्यमानता आत्मा के परिणामों पर कितना बुरा प्रभाव डालती है और सम्यक्त्व की विद्यमानता आत्मा के परिणामों पर कितना अच्छा प्रभाव डालती है? मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का वास्तविक और मुख्य प्रभाव तो आत्मा के परिणामों पर होता है।

मिथ्यादृष्टि तामली तापस के महातप की अपेक्षा भी सम्यग्दृष्टि आत्मा का केवल नवकारशी का तप भी अधिक फलदायी होता है, यह जब आपने सुना, तब विचार तो किया होगा न कि इसका कारण क्या है? आत्मा के परिणामों पर मिथ्यात्व का ऐसा क्या प्रभाव पडता है, जिसके कारण तामली तापस के महातप का ज्ञानीजन मूल्यांकन नहीं करते और सम्यक्त्व का आत्मा के परिणामों पर ऐसा क्या प्रभाव पडता है, जिससे सम्यग्दृष्टि की एक नवकारशी मात्र तप का भी ज्ञानीजन मूल्यांकन करते हैं? मिथ्यात्व को हटाना हो और सम्यक्त्व को प्रकट करना हो, तो ऐसी बातों पर अवश्य विचार करना चाहिए।

जिसमें संसार से छूटने की और मोक्ष को पाने की अभिलाषा ही न हो, उसमें तो सम्यक्त्व हो ही नहीं सकता। परन्तु जिसमें संसार से छूटने की और मोक्ष को पाने की अभिलाषा प्रकट हुई है, ऐसे जीवों में भी सम्यक्त्व न हो, यह संभव है। मोक्ष की रुचिवाले जीव सम्यक्त्व पाएंगे ही, यह निश्चित है, परन्तु सम्यक्त्व मोक्ष की रुचिमात्र से ही पैदा होने वाली वस्तु नहीं है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 25 सितंबर 2014

सम्यक्त्व मोक्ष का द्वार है


मिथ्यात्व अति भयंकर कोटि का पाप है। यह पाप जब तक बना रहता है, तब तक वस्तुतः एक भी पाप नहीं छूटता है। गाढ मिथ्यात्व की विद्यमानता में कदाचित हिसादि पापों का त्याग भी दृष्टिगोचर होता हो तो भी ज्ञानी फरमाते हैं कि वह त्याग, त्याग नहीं है; अपितु एक प्रकार का मोह का नाच ही है, क्योंकि हिंसादि को छोडने पर भी मिथ्यात्व की विद्यमानता में कदाचित हिंसादि त्याज्य हैं, ऐसे भाव उस स्थिति में पैदा नहीं होते। अतः जिन आत्माओं में अपने संसार-पर्याय के प्रति अरुचि और मोक्षपर्याय को पैदा करने की रुचि जागृत हुई हो, उन्हें सर्वप्रथम इस मिथ्यात्व दोष को छोडने के लिए प्रयत्न करने की आवश्यकता है।

आपने तो पुनः-पुनः सम्यक्त्व और मिथ्यात्व की बात सुनी है। तामली तापस मिथ्यादृष्टि था, इसीलिए उसके महातप के मूल्य की अपेक्षा भी सम्यग्दृष्टि की एक नवकारशी का मूल्य अधिक होता है, ऐसा भी आपने अनेक बार सुना है, तो फिर सम्यग्दृष्टि की नवकारशी के फल की तुलना में मिथ्यादृष्टि के महातप का फल नहीं आ सकता’, यह बात सुनने वाले, जानने वाले और बार-बार बोलने वाले आप लोगों ने सम्यक्त्व और मिथ्यात्व को पहचानने का प्रयत्न न किया हो, अथवा आपने मिथ्यात्व को छोडकर सम्यक्त्व प्रकट न किया हो, अथवा मिथ्यात्व को छोडने और सम्यक्त्व को प्रकट करने का प्रयास आप नहीं करते हैं, ऐसा तो नहीं माना जा सकता है न? आपने या तो मिथ्यात्व को छोड दिया होगा, अथवा तो मिथ्यात्व छोडने की तैयारी में होंगे, ऐसा यदि मैं मान लूं तो कोई आपत्ति है?

श्री जैन शासन में सम्यक्त्व मूलभूत वस्तु है। मिथ्यात्व संसार है और सम्यक्त्व मोक्ष का द्वार है। सम्यक्त्व किसे कहते हैं और मिथ्यात्व किसे कहते हैं, यह किसी भी समय किसी को भी सरलता से समझा सकने की आपकी तैयारी होनी ही चाहिए। मिथ्यात्व के कारण तामली तापस के महातप का भी अधिक मूल्य नहीं; तो हमारी धर्म-क्रियाएँ, यदि हममें से मिथ्यात्व न गया हो तो, हमें क्या फल देगी, ऐसी चिन्ता आपको सतत रहती है या नहीं? अभव्य और दुर्भव्य, जब जैन शासन द्वारा प्ररूपित संयम को धारण करते होंगे, धारण करके बराबर पालन करते होंगे, तब वे सारी क्रियाएं किस प्रकार करते होंगे? उनकी क्रियाओं की तुलना में जब अपनी इन धर्म-क्रियाओं को रखते हैं तो केवल धर्म-क्रिया के रूप में उनकी धर्मक्रिया विशिष्ट है या अपनी? ऐसा होने पर भी उनकी धर्म-क्रियाओं का महत्त्व क्यों नहीं? सम्यक्त्व का अभाव और मिथ्यात्व की विद्यमानता है, इसलिए न? तो ऐसे मिथ्यात्व को छोडने और सम्यक्त्व को प्रकट करने के विषय में आज बहुत अधिक उपेक्षा क्यों दृष्टिगोचर होती है? मिथ्यात्व किसे कहते हैं और सम्यक्त्व किसे कहते हैं, यह समझने के लिए आज तक आपने कितना प्रयत्न किया है? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 24 सितंबर 2014

क्योंकि मैं एक कन्या भ्रूण हूं........!


नवरात्रि पर विशेष

क्योंकि मैं एक कन्या भ्रूण हूं........!

  • मैं एक भ्रूण हूं। अभी मेरा कोई अस्तित्व नहीं। मैं प्राकृतिक रूप से सृष्टि को आगे बढाने का दायित्व लेकर अपनी मां की कोख में आई हूं। अब आप पहचान गए होंगे कि मैं सिर्फ भ्रूण नहीं, बल्कि कन्या भ्रूण हूं। बालक भ्रूण होती तो गर्भ परीक्षण के बाद मुझे पहचाने जाने का स्वागत होता, जय श्री कृष्ण के पवित्र सांकेतिक शब्द के साथ। मगर मैं तो कन्या भ्रूण हूं ना, मेरे लिए भी कितना प्यारा पावन सांकेतिक शब्द है, ‘लक्ष्मी, ‘जय माता दी। पर नहीं, मेरे लिए यह शब्द खुशियों की घंटियां नहीं बजाता, जयकारे का उल्लास नहीं देता, क्योंकि इस शब्द के पीछे लाल खून की स्याही से लिखा एक काला सच है, जिससे लिखी जाती है मेरी मौत।
  • कैसी घोर विडंबना है ना जिस देवी का स्मरण कर मुझे पहचाना जाता है, उसे तो घर-घर सादर साग्रह बुलाया जाता है। और मैं उसी का स्वरूप, उसी का प्रतिरूप, मुझे इस खूबसूरत दुनिया में अपनी कच्ची कोमल आँखें खोलने से पहले ही कितनी कठोरता से कुचला जाता है। क्यों ????
  • आप लोग सक्षम हैं, समर्थ हैं, निर्णय ले सकते हैं। मेरी क्या बिसात कि मैं अपना भविष्य तय कर सकूं। अभी तो मेरे अंग भी गुलाबी और कमजोर हैं। बस, एक नन्हा, मासूम, छुटकू सा दिल धडकता है मेरा, यह देखने के लिए कि कौन है मेरा सृजक? किसके प्रयासों से मैंने आकार लिया? किसकी मातृत्व की अमृत बूंदें मेरे पोषण के लिए बेताब हैं?
  • ओह, यह सिर्फ और सिर्फ मेरी ही कोरी भावुकता है। कन्या भ्रूण हूं ना, भावुक होने का गुण नैसर्गिक रूप से मुझे ही तो मिला है। जिन सृजकों से मिलने के लिए मैं हुलस रही हूं, वे नहीं चाहते कि मैं अब और अधिक पनपूं, पल्लवित होऊं। नहीं चाहते कि नौ महीने बाद गर्भ की अंधेरी दुनिया से बाहर आकर उनकी दुनिया की उजली चमक देखूं, परिवार के सपनों में खुशी और ख्याति के सुनहरे रंग भरूं। बालक भ्रूण की तरह उन्हीं का अंश हूं, उतना ही प्यारा हूं फिर भी बेगाना हूं, क्योंकि मैं कन्या भ्रूण हूं।
  • खुद के अस्तित्व के मिटने से कहीं ज्यादा दुःख, बल्कि आश्चर्य मिश्रित दुःख इस बात का है कि मेरी हत्या के लिए "जय माता दी" जैसा दिव्य उच्चारण करते हुए क्या नहीं कांपती होगी जुबान? एक बार भी याद नहीं आती होगी मां के सच्चे दरबार की, जहां पूरी धार्मिकता और आस्था के सैलाब के साथ दिल से निकलता है जय माता दी? याद नहीं आती होगी दीपावली पर लक्ष्मी-पूजा? वही जयकारा कैसे एक संकेत बन गया मेरी देह को नष्ट करने के अपवित्र संकल्प का। जिसने भी पहली बार मेरे आकार को तोडने और मेरी ही मां की कोख से मुझे बेघर करने के लिए यह प्रयोग किया होगा, कितना नीच होगा ना वह? आह, मैं तो इस दुनिया में आई ही नहीं, फिर दुनिया की ऐसी गालियां मेरे अंतर्मन से क्यों उठ रही है?
  • है! इसका भी जवाब है मेरे पास। आंकडों की भयावहता ने मुझे मजबूर किया है ऐसे शब्दों के लिए। और मुझे अफसोस इसलिए नहीं कि कम से कम मैंने किसी देवी-देवता का नाम तो नहीं लिया आपको नवाजने के लिए आपकी तरह। मैं कम से कम ईश्वर को तो नहीं छलती। मेरे जैसी कितनी मेरी कच्ची बहनें दुनिया में आने से पहले कुचल कर एक अनजान दुनिया में लौटा दी जाती है। उस दुनिया में जहां जाने से खुद इंसान भी डरता है। फिर मैं तो भ्रूण हूं, सलोना और सुकोमल। नाजुक और नर्म।
  • आपको पता है 2001-05 के दौरान रोजाना करीब 1800-1900 मुझ जैसी कन्या भ्रूण की हत्याएं हुई हैं। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2001-05 के बीच करीब 6,82,000 कन्या भ्रूण की हत्या हुई है, अर्थात् इन चार सालों में रोजाना 1800 से 1900 कन्या भ्रूण की हत्या हुई है। आज यह संख्या दुगुनी हो गई है। आपको तो पता होगा, आप ही ने तो की है और करवाई है। आप ही ने तो फैंका है मेरी बहिनों को तालाबों में, कुओं में और झाडियों में।
  • मैं चिखती रहती हूं, तडपती रहती हूं, लेकिन कोई नहीं सुनता मेरी चित्कार। मुझे मांस का एक टुकडा समझ कर निर्ममता से निकाल दिया जाता है मेरी ही मां के गर्भ से। मां से क्या शिकायत करूं, वह तो खुद बेबस सी पडी रहती है, जब उसकी देह से मुझको उठाया जाता है। यही तो शिकायत है मेरी अपनी मां से। जब मुझे इस दुनिया में लाने का साहस ही नहीं तुममें, तो क्यों बनती हो सृजन की भागीदार। तुम्हें भी तो तुम्हारी मां ने जन्मा होगा ना? तभी तो आज तुम मुझे कोख में ला सकी हो। सोचो, अगर उन्होंने भी ना आने दिया होता तुम्हें तब? तुम अपनी ही बच्ची के साथ ऐसा कैसे होने दे सकती हो? नवरात्रि में नौ दिन तक छोटी कन्याओं को पूजने वाली मां अपनी ही संतान को नौ माह नहीं रखती क्यों? क्योंकि वह कन्या भ्रूण है।
  • संस्था सेंटर फार सोशल रिसर्च की निदेशक रंजना कुमारी का कहना है कि यह आंकडा भयानक है, लेकिन वास्तविक तस्वीर इससे भी अधिक डरावनी हो सकती है। गैरकानूनी और छुपे तौर पर और कुछ इलाकों में तो जिस तादाद में कन्या भ्रूण की हत्या हो रही है, उसके अनुपात में यह आँकड़ा कम लगता है। हालांकि आधिकारिक आंकड़े इतने भयावह हैं तो इससे इसका अंदाजा तो लगाया जा सकता है कि समस्या कितनी गंभीर है?
  • सरकारी रिपोर्ट के अनुसार देश में 0-6 साल के बच्चों का लिंग अनुपात 1981 में 962 था जो 1991 में घटकर 945 हो गया, 2001 में यह 927 रह गया और 2011 में 914, राजस्थान व महाराष्ट्र में 883, गुजरात में 886 और मध्यप्रदेश में 912 ही रह गया है। जैन समाज और समृद्ध समाज में तो यह और भी कम है, जहां अहिंसा का खूब ढिंढोरा पीटा जाता है। है न हैरत की बात? आपको नहीं डराते ये आंकड़े? मुझे तो जब डॉक्टर कहा जाने वाला मनुष्य अपने आधुनिक खंजर से उखाडता है, उससे भी ज्यादा डरावने लगते हैं ये आंकड़े? कैसी क्रूर मानसिकता है यह?
  • मुझे पता है कि 1995 में बने जन्म पूर्व नैदानिक अधिनियम (प्री नेटल डायग्नास्टिक एक्ट, 1995) के मुताबिक बच्चे के लिंग का पता लगाना गैर कानूनी है, जबकि इसका उल्लंघन सबसे अधिक होता है। क्या आपको नहीं पता? और सुनिए, भारत सरकार ने 2011-12 तक बच्चों का लिंग अनुपात 935 और 2016-17 तक इसे बढा कर 950 करने का लक्ष्य रखा है। क्योंकि देश के 328 जिलों में बच्चों का लिंग अनुपात 950 से कम है। क्या अब भी आपको मेरी पीडा का आभास नहीं? सृष्टि कैसे बढेगी, कैसे चलेगी जब जन्मदात्री ही दुनिया में आने से वंचित की जाती रहेगी?
  • मैं तो गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम, 1971 भी जानती हूं, जिसके अंतर्गत गर्भवती स्त्री कानूनी तौर पर गर्भपात केवल इन स्थितियों में करवा सकती है-

  1. जब गर्भ की वजह से महिला की जान को खतरा हो।
  2. महिला के शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य को खतरा हो।
  3. गर्भ बलात्कार के कारण ठहरा हो।
  4. बच्चा गंभीर रूप से विकलांग या अपाहिज पैदा हो सकता हो।

  • इसके साथ ही आईपीसी की धारा 313 में स्त्री की सम्मति के बिना गर्भपात करवाने वाले के बारे में कहा गया है कि इस प्रकार से गर्भपात करवाने वाले को आजीवन कारावास या जुर्माने से भी दण्डित किया जा सकता है। पर इन कानूनों के नाम पर मैं किसे डरा रही हूं? उन्हें जो ईश्वर से भी नहीं डरते और जय माता दी कहकर जीवनदायिनी मां का नाम मेरी मौत से जोडकर कलंकित करते हैं?
  • नौ दिनों तक स्त्री पूजा और सम्मान का ढोंग करने वालों अपनी आत्मा से पूछो कि देवी के नाम पर रचा यह संकेत क्या देवी ने नहीं सुना होगा? अगली बार जब किसी नन्हीं आत्मा को पहचाने जाने के लिए तुम बोलो जय माता दी तो मेरी कामना है कि तुम्हारी जुबान लडखडा जाए, तुम यह पवित्र शब्द बोल ही ना पाओ, देवी मां करे, नवरात्रि में तुम्हारी हर पूजा व्यर्थ चली जाए... और आंकड़े यूं ही बढते रहे तो तुम्हारे हर पाप पर मेरे सौ-सौ शाप लगे।
  • मैं सच में दुःखी हूं, अकेली हूं, मेरी अनसुनी मत करो, मैं आपकी हूं, मुझे दुनिया के उजाले में आने दो...! हां, मैं कन्या भ्रूण हूं, मुझे भी खुले आकाश तले गुनगुनाने दो..!