सोमवार, 30 जून 2014

आत्म-दोषों की निन्दा करो


निन्दा-रसिक बनो, तो वह रसिकता स्वयं की आत्मा के प्रति ही धारण करो। स्वयं में जो-जो दोष हों, उन-उन दोषों की अहर्निश निन्दा करो और उन दोषों को दूर करने के लिए प्रयत्नशील बनो। परन्तु, यह तो करना है किसको? इस जगत में आत्म-निन्दा में मस्त रहने वाली आत्माओं की संख्या बहुत ही कम है, जबकि परनिन्दा के रसिक तो इस जगत में भरे हुए हैं। दूसरों के दोषों को देखकर उनके प्रति विशेष दयालु बनना चाहिए। उनको उन-उन दोषों से मुक्त करने के शक्य प्रयत्न करने चाहिए।

भयंकर दोषितों को भी दयावृत्ति से सुधारने के यथासंभव प्रयत्न करने ही चाहिए। कब यह दोष से मुक्त बने और कब यह अपने अकल्याण से बचे, यह भावना होनी चाहिए। इस वृत्ति, इस भावना के साथ परनिन्दा रसिकता का तनिक भी मेल है क्या? नहीं ही। लेकिन, स्वयं में अविद्यमान गुणों को स्वयं के मुख से गाने की जितनी तत्परता है, उतनी ही दूसरों के अविद्यमान भी दोषों को गाने की तत्परता है और इसीलिए ही संख्याबद्ध आत्माएं हित के बदले अहित साध रही हैं।

कहावत है कि कुएं के मुख पर वस्त्र नहीं बांधा जा सकता और लोगों के मुंह पर ताला नहीं लगाया जा सकता है। यह कहावत भी लोक के स्वभाव का परिचय देने वाली है। लोकनिन्दा से सर्वथा बचना, यह कठिन है, उसमें भी उन्मार्ग के उन्मूलन पूर्वक सन्मार्ग की स्थापना करने के लिए प्रयत्नशील बने हुए महापुरुषों की कठिनाइयों का तो कोई पार नहीं है। उन्मार्ग के रसिक वैसे महापुरुषों के लिए पूर्ण रूप से कल्पित बातें फैलाकर उन्हें कलंकित करने के जी-तोड प्रयत्न करने से चूकते नहीं हैं। इस प्रकार वे तीन सिद्धियां प्राप्त कर सकते हैं।

एक तो यह कि उन्मार्ग के उच्छेदक और सन्मार्ग के संस्थापक महापुरुषों को अधम कोटि का बताकर, अज्ञानी लोगों को उनके पवित्र संसर्ग से दूर भगा सकते हैं। दूसरी, उन्मार्ग के उन्मूलन का और सन्मार्ग के संस्थापन का पवित्र कार्य करने वालों में भी जो लोकनिन्दा के सामने टिकने की हिम्मत नहीं रखते, उनको फरजीयात मौन स्वीकार करना पडता है और तीसरी सिद्धि यह कि लोकवायका के अर्थी, उन्मार्गनाश और सद्धर्म प्रचार का कार्य छोडकर रुकते नहीं हैं, अपितु स्वयं भी उन्मार्गगामी बन जाते हैं। ऐसों के पाप से अनेक आत्माएं सद्धर्म से वंचित रह जाती हैं।

ऐसे व्यक्ति शासन के भयंकर दुश्मन होते हैं और वे समाज को अस्त-व्यस्त कर देते हैं। वे लोग स्वयं का पाप छिपाने के लिए वफादार शासन सेवकों की भी निन्दा करते हैं। सत्त्वशील महापुरुष तो ऐसी आफतों की उपेक्षा करके स्वयं का पवित्र कार्य करते ही जाते हैं, लेकिन कल्याण के अर्थियों को भी इसे समझकर सावचेती रखनी चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 29 जून 2014

सिंहवृत्ति धारण करो


विवेकी आत्मा तो किसी भी जीव के साथ वैर नहीं बांधता। विश्व के प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव होना चाहिए। किन्तु, किसी के भी साथ में वैर नहीं होना चाहिए। इस संसार में वैर तो उन वस्तुओं के साथ धारण करना चाहिए, जो वस्तु सचमुच में दुश्मनरूप ही है। दुनिया के अज्ञानी जीव इसको समझते नहीं हैं। दुनिया के अज्ञानी जीव सच्चे दुश्मन के साथ लडते नहीं हैं और दुश्मन के उत्पन्न किए हुए दुश्मन के साथ लडने के लिए तैयार होते हैं, यह सिंहवृत्ति नहीं है, अपितु श्वानवृत्ति है। सिंह बाण की तरफ नहीं दौडकर बाण मारने वाले के ऊपर ही धावा बोलता है। जबकि कुत्ता लकडी मारने वाले के ऊपर नहीं दौडता है, अपितु लकडी की तरफ दौडता है। इसी रीति से अज्ञानी जीव भी दुःख के वास्तविक कारण का नाश करने के लिए प्रयत्नशील नहीं होते हैं, अपितु दुःख के वास्तविक कारण-योग से प्राप्त हुई सामग्री का सामना करने के लिए तत्पर बनते हैं। यह सिंहवृत्ति नहीं, अपितु श्वानवृत्ति है। विचार करो कि इस संसार में वास्तविक दुश्मनरूप कौनसी वस्तु है?’ कर्म ही न? कर्म ही बडे से बडा दुश्मन है, कारण कि सम्पूर्ण विपत्तियां इसी के योग से प्राप्त होती हैं।

आत्मा अनादिकाल से इस कर्मरूप दुश्मन के कारागार का कैदी बना हुआ है। जब तक इस कारागार को भेदकर वह बाहर नहीं निकलेगा, अर्थात् उससे सर्वथा मुक्त नहीं बनेगा, वहां तक सभी दुःखों का सम्पूर्ण अंत असम्भव है।

स्वर्ण का मिट्टी के साथ जैसा एकमेक रूप योग है। वैसा ही आत्मा का कर्म के साथ योग है, यह कह सकते हैं। आत्मा चेतन है और कर्म जड है। इन दोनों का जो एकमेक स्वरूप योग है, यही आत्मा का संसार है और उस प्रकार के योग का जो वियोग है, वही आत्मा का मोक्ष है। मुक्तात्मा के साथ जडस्पर्श, यह वस्तुतः योग कहलाने के लायक नहीं है। कारण कि वह आत्मा पर कोई असर नहीं कर सकता है। ऐसा स्पर्श बना रहे, इससे व्यथित होने की जरूरत नहीं। उस प्रकार के योग ही दुःखदायक हैं, जो एकमेकरूप हैं। दुनिया में जो कुछ अच्छी-बुरी सामग्री प्राप्त होती है, वह शुभाशुभ कर्म से प्राप्त होती है। कर्मबद्ध आत्माओं को दुनिया के दुश्मन भले ही परेशान कर सकते हों, किन्तु कर्म-मुक्त आत्मा को समर्थ में समर्थ दुश्मन भी परेशान नहीं कर सकता।

हमारा कोई अपमान करे, हमें कोई हानि पहुंचाए, तब अथवा वैसे हरेक प्रसंग पर हमें समझना चाहिए कि यह तो मेरे दुष्कर्म का उदय है’, ऐसा विचार वैर भाव को उत्पन्न नहीं होने देता है और वैर भाव कदाचित उत्पन्न हो जाए तो भी वह उसका उपशमन करने वाला होता है। दुनिया के जीव श्वानवृत्ति को छोडकर सिंहवृत्ति धारण करें, तो दुनिया से बहुत से झगडे समाप्त हो जाते हैं, बहुत से वैर शान्त हो जाते हैं, परिणाम से दुःखमात्र का कारण जो कर्म है, उससे आत्मा सर्वथा मुक्त बन जाता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 28 जून 2014

कर्मसत्ता की प्रबलता


कर्मसत्ता की स्थिति बिलकुल भिन्न है। मनुष्य विचार कुछ करे और परिणाम कुछ और आए। परिश्रम दुश्मन को मारने का करे और दुर्भाग्य का उदय हो तो स्वयं की योजना में स्वयं ही फंसकर मर जाता है। कर्मसत्ता के इस खेल से इंसान को धर्मसत्ता ही मुक्त बना सकती है और कर्मसत्ता से मुक्त न हो, वहां तक कर्मसत्ता की कृपा टिका सकती है। परन्तु, धर्मसत्ता की शरण भी कर्मसत्ता कुछ कमजोर बने तब ही स्वीकार की जा सकती है। कर्म की लघुता हुए बिना सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति नहीं हो सकती है।

सम्यक्त्व आदि प्राप्त होने पर भी कर्मसत्ता प्रबल होती है तो भोग-त्याग और संयम-साधना में वह अंतरायभूत होती है। भगवान श्री अजितनाथ स्वामी के साथ संसार छोडने के लिए उनके भाई सगर आदि तैयार हुए थे, किन्तु हुआ क्या? चक्रवर्ती बनने का पुण्यकर्म ऐसा प्रबल था कि संयम ग्रहण करे तो भी उसका आजीवन पालन नहीं कर सकते थे।

जो इस प्रकार का निकाचित कर्म होता है, उसको भोगने से ही छुटकारा होता है। भगवान श्री जिनेश्वर देव वीतराग और सर्वज्ञ बनने के बाद तीर्थ की स्थापना करते हैं, देशना देते हैं, समवसरण में विराजमान होते हैं, विहार में स्वर्णकमल के ऊपर पैर रखते हैं, यह सब क्यों? पूर्व में तीर्थंकर नामकर्म निकाचित बांधा था, इसलिए। चक्रवर्ती का पुण्यकर्म भी ऐसा ही होता है कि एक बार तो छः खण्ड का विजेता बनना ही पडता है और एक लाख बानवे हजार स्त्रियों के साथ पाणिग्रहण करना ही पडता है। इसके बाद सुन्दर भवितव्यता वाली लघुकर्मी आत्माएं त्याग कर सकती हैं। तद्भवमुक्तिगामी आत्माएं चक्रवर्ती होने पर संयम की साधना भी कर सकती हैं, केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्ति को प्राप्त करें, यह बात पृथक है। इसी प्रकार से सम्यक दृष्टि आत्मा भी तथाप्रकार के अंतरायकर्म के कारण संयम साधना नहीं कर सकती है, यह शक्य है।

कर्मसत्ता की ऐसी प्रबलता पर विचार करो कि जिससे कर्मबंधन की प्रवृत्ति रूक्ष हो जाए और धर्मसत्ता की शरण में रहकर कर्मसत्ता से सर्वथा मुक्त बनने का शक्य प्रयत्न करने के लिए तैयार हो जाए। कर्म के उदय के समय में आत्मा विवेकी बनकर रहता है, तो उदय में आए हुए कर्म जाने के साथ दूसरे भी बहुत से कर्म चले जाते हैं। सब कर्म कोई निकाचित नहीं होते हैं कि जिससे निर्जरा के प्रयत्न के द्वारा हटे नहीं। जो कर्म बांधा वह मानो कि उदय में आया और उसने अच्छी या बुरी सामग्री लाकर रखी, किन्तु उस वक्त आत्मा उसमें लुब्ध होकर गृद्ध नहीं होती, अपितु समभाव से उसको सहन करे तो कर्मसत्ता को भागना ही पडेगा। पुण्ययोग से प्राप्त सामग्री में जो आसक्त नहीं बने, वे बच गए और जो आसक्त बने वे डूब गए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 27 जून 2014

आत्मा के विचार बिना जीवन श्रापभूत


जिसको आत्मा का विचार नहीं और परभव का खयाल नहीं, ऐसा व्यक्ति परोपकार की चाहे जैसी बात करे, वह सच्चा परोपकारी नहीं बन सकता। इस भव के सुख के लिए जिसको हिंसक पशुओं का भी विनाश करने का मन होता है, वह आदमी दुनिया में चाहे जितने भी ऊँचे पद पर चढा हो, तत्त्वज्ञानी महात्माओं की दृष्टि से तो वह अधम कोटि का ही है। आत्मा के सुख का जिसको खयाल नहीं और पौद्गलिक सुख, यही जिसका साध्य हो, वैसी आत्माओं का जीवन तो जगत के जीवों के लिए केवल श्रापभूत ही है। ऐसी आत्माओं को उसके पूर्व के पुण्य योग से प्राप्त हुई बुद्धि, शक्ति और सामग्री जगत के जीवों के लिए एकान्ततः अकल्याण का कारण बनती है और इससे ऐसे आत्माओं का स्वयं का भविष्य भी अंधकारमय बन जाता है।

मनुष्य मात्र को यह विचार करना चाहिए कि हमको जिस प्रकार हमारा जीवन प्रिय है, उसी प्रकार जगत के सभी जीवों को भी उनका जीवन प्रिय है। जगत में कोई जीव दुःखी नहीं होना चाहता, सभी सुखी होने की इच्छा रखते हैं। दुःख को दूर करने का और सुखी बनने का एक ही मार्ग है और वह है- हम दूसरे को दुःख न दें और जहां तक संभव हो सके दूसरे को सुख पहुंचाने का प्रयास करें। हमें दुःख प्रिय नहीं है तो दूसरे को दुःखी करने, दुःख पहुंचाने से दूर रहना और हमें सुख अच्छा लगता है तो कम से कम किसी दूसरे का सुख नहीं छीनना। दूसरे को दुःख देना या किसी का सुख छीनने का प्रयास करना, यह तो अपने ही हाथों से अपने लिए दुःख उत्पन्न करना है।

किन्तु, आत्मभाव के बिना पौद्गलिक सुखों की लालसा में पडी आत्माएं इस बात का विचार नहीं करती है। ऐसी आत्माएं तो एकान्ततः कल्याण करने वाली बातों का उपदेश देने वाले महात्मा पुरुषों का भी अवसर पाकर तिरस्कार करने से चूकती नहीं है। कारण कि उनको सच्चे महात्माओं का महात्मापन खटकता रहता है। दुर्जन लोग सज्जन पुरुषों के अकारण ही शत्रु होते हैं। कारण कि सज्जन पुरुषों द्वारा आचरण की जाती सत्प्रवृत्तियां दुर्जन लोगों को संसार के सामने आचरण से स्वतः दुर्जनरूप घोषित कर देती है और इसीलिए सज्जन पुरुष दुर्जनों को खटकते हैं और वे अपने मन में सज्जनों के प्रति वैर पालते हैं।

सच्ची बात यह है कि पौद्गलिक स्वार्थ की रसिकता ही भयंकर है। पौद्गलिक स्वार्थ की प्रीति ज्यों-ज्यों बढती जाती है, त्यों-त्यों सद् वृत्ति और सदाचार दोनों का नाश होता जाता है। पौद्गलिक स्वार्थ की अत्यंत प्रीति आदमी को आदमी नहीं रहने देती, अपितु शैतान बना देती है। इसलिए आत्म-कल्याण की अभिलाषी आत्माओं को स्वयं में रही हुई पौद्गलिक स्वार्थवृत्ति को जडमूल से ही समाप्त करने के लिए प्रयत्नशील बनना चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 26 जून 2014

भविष्य को न भूलें


संसार की स्वार्थ परायणता पर विचार करो। राग-द्वेष और अज्ञान से घिरे हुए तथा उसी कारण से अर्थ और काम में अतिलुब्ध बनी हुई आत्माएं, अपने ही पिता, मां, पत्नी, पुत्र या भाई के वध जैसा भयंकर कोटि का विचार करें, निर्णय करें या उसकी पालना करें तो भी इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं है। अर्थ और काम की प्राप्ति में ही स्वयं का कल्याण मानकर बैठे हुए लोगों को, स्वयं के कल्पित कल्याण की साधना के लिए कितनी ही बार तो भयंकर में भयंकर कोटि के भी दुष्कृत्यों का आचरण करते हुए विचार नहीं आता है।

ऐसी आत्माओं को स्वयं के किंचित स्वार्थ के लिए सामने वाले की पूरी जिन्दगी भी तुच्छ लगती है। स्वयं के क्षुद्र स्वार्थ के लिए दूसरों के प्राणों का हरण करते हुए भी, किंचित् भी क्षुब्ध नहीं होने वाली आत्माएं इस युग में बहुत हैं। पूर्व के पुण्य योग से मिली हुई सामग्री का उपयोग वे लोग इस भव में दूसरे जीवों का संहार करने में करते हैं। किन्तु, वे लोग अपने भविष्य को भूल जाते हैं।

पूर्व का पुण्य एक दिन तो खत्म होने ही वाला है और इस भव का पाप भी एक दिन जरूर उदय में आने वाला है। उस समय अभी रसपूर्वक पाप सेवन करने वालों की कैसी भयंकर दशा होगी? ऐसों के भविष्य पर विचार करते हुए हृदय में दया उत्पन्न हो, यह स्वाभाविक है। स्वयं के सुख की खातिर दूसरे के सुख को झुठलाने की इच्छा भी उत्तम आत्माओं में उत्पन्न नहीं होती है। वहां ऐसी प्रवृत्ति की तो बात ही क्या करनी? स्वयं के निमित्त से संसार के किसी भी जीव को दुःखी नहीं करने की वृत्ति के प्रकट हुए बिना, आत्मा में उत्तमता प्रकट होती ही नहीं है। हम दूसरी आत्माओं को सुखी न बना सकें, उसकी कोई चिन्ता नहीं है; किन्तु संसार के किसी भी जीव को दुःखी करने की वृत्ति तो हममें से जानी ही चाहिए। हमें मिली हुई सामग्री दूसरे जीवों को सुख प्राप्त कराने वाली न हो सके तो भी वह कम से कम उन्हें दुःख देने वाली तो न हो, ऐसी सावधानी, सावचेती तो प्रत्येक हृदय में अवश्य होनी ही चाहिए।

शक्य हो तो दूसरे को सुखी बनाने का और शक्य न हो तो भी कम से कम दूसरे को दुःखी नहीं बनाने का विचार जिस आत्मा में प्रकट होता है, वह आत्मा क्रमशः स्वयं की उन्नति सिद्ध कर सकती है। आत्मा किसी भी काल में संसार के समस्त जीवों को सुखी बना देने का सामर्थ्य प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु आत्मा में ऐसा तो हो सकता है कि संसार के किसी भी जीव के दुःख का कारण वह नहीं बने, उसका पद भव्यात्माओं के लिए सुख का प्रेरक बने। ऐसी आत्मदशा, अर्थात् आत्मा का ऐसा सुविशुद्ध स्वरूप प्राप्त करने के लिए ही सुख के अर्थी आत्माओं को प्रयत्न करना चाहिए। यह प्रयत्न तभी हो सकता है, जब आत्मा में प्राणीमात्र के प्रति कल्याण की भावना हो।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 25 जून 2014

चिन्ता और चिता


दुनिया में कहावत है कि चिन्ता चिता समान। चिता बाहर से सुलगाती है और चिन्ता अन्दर से सुलगाती है। चिता में सुलगते हुए को सब देख सकते हैं और चिन्ता में सुलगते हुए को कोई-कोई व्यक्ति ही देख पाता है। चिता जल्दी से सुलगाकर शरीर को राख कर देती है और चिन्ता कई दिनों तक, कई वर्षों तक जलाती, सताती रहती है। इस प्रकार चिता से भी चिन्ता अत्यधिक भयंकर है।

चिन्ता से घिरे हुए आदमी को खाना-पीना अच्छा नहीं लगता है। खाता अवश्य है, किन्तु उस खाने में उसे रस नहीं आता है। खाया न खाया ऐसा करके उठ जाता है। चाहे जैसा भी रसमय भोजन हो, मिठाइयों का थाल सामने रखा हो, भिन्न-भिन्न सब्जी, भिन्न-भिन्न चटनियां-नमकीन के साथ रखी हुई हो और रसोई गरमागरम हो, किन्तु चिन्ता से घिरे हुए आदमी को इसमें से कोई भी वस्तु आनन्द देने वाली नहीं लगती है। ग्रास मुंह में डालता जरूर है, किन्तु दिमाग पर दूसरी ही धुन चलती रहती है।

चिन्तातुर आदमी को निकट रहने वाले आज्ञाकारी और सदा अनुकूल व्यवहार करने वाले स्वजनों का मिलाप भी अच्छा नहीं लगता है। चिन्ता से घिरने के पूर्व जिनका मुखदर्शन मोह उपजाता था, जिनके पास बैठकर मधुर वार्तालाप करने में चाहे जितना भी समय लग जाए, वह समय आराम से गुजर जाता था, जिनका कुछ घण्टों का विरह भी सहन नहीं होता था और जिनके साथ आनन्द करता हुआ व्यक्ति सारी दुनिया को भूल जाता था; ऐसे ही स्वजनों का मिलन चिन्ता से घिरे आदमी को कंटक भरा लगने लगता है।

तुम्हे क्या चिन्ता है?’ उसको यदि कोई ऐसा पूछे तो भी उसे अच्छा नहीं लगता है। निकट के स्नेहियों पर भी बात-बात में गुस्सा आ जाता है, वह झुंझला उठता है, चिडचिडा हो जाता है, ऐसा क्यों होता है? एक मात्र चिन्ता से! जिस बात के कारण मन चिन्तातुर बना हो, उसके विचार दिन-रात आया करते हैं। नींद उड जाती है। चिन्ता जिस प्रकार बल का नाश करती है, उसी प्रकार निद्राहारिणी भी है।

ऐसी सांसारिक चिन्ता पतन की ओर ले जाती है, लेकिन यही चिन्ता आत्मा की हो तो? आत्म-चिन्ता साधना का प्रबल साधन है। आत्मचिन्ता विवेकशून्य नहीं होनी चाहिए। सांसारिक चिन्ता आदमी को पागल बना देती है, जबकि आत्मचिन्ता व्यक्ति को धीर, वीर और गंभीर बनाती है। सचमुच में सम्यक्त्व की प्राप्ति के योग से जिस आत्मा में सच्ची आत्मचिन्ता प्रकट हुई हो, उस आत्मा की विचारदशा ही बदल जाती है। आत्मचिन्ता उत्पन्न हो और उसमें त्वरा आए तो यह चिन्ता विरति के मार्ग पर ले जाती है और इसी से आत्मा के उत्साह में वृद्धि होती है। यही आत्मचिन्ता कर्मों को खपाती है, आत्मा को निर्मल बनाती है और मोक्ष की ओर गति करती है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 24 जून 2014

त्याग में वैराग्य जरूरी


जितने वैरागी होंगे उतने त्यागी ही होंगे, ऐसा नियम नहीं है। घर-गृहस्थी में रहने वाला भी वैरागी हो सकता है। नहीं छूटे, छोड न सके, परन्तु छोडने जैसा माने और कब छूट जाए, ऐसी भावना का सेवन करे तो वह वैरागी है। इस पद्धति से कितनी ही आत्माएं वैरागी होने पर भी त्यागी नहीं होती, ऐसा संभव है। किन्तु, त्यागी तो नियमतः वैरागी होना ही चाहिए।

विरागपूर्वक त्याग ही प्रशंसनीय है। जो वस्तु हेय है, अर्थात् छोडी जाती है, उन-उन वस्तुओं को लेने के लिए ही छोडते हों तो यह महाअज्ञान है। संसार-सुख प्राप्त करने के लिए संसार-सुख का त्याग करना, यह किसी भी रूप में प्रशंसनीय नहीं है। संसार के सुखों का त्याग करने वाले सांसारिक सुखों के प्रति विरागी होने ही चाहिए। विराग बिना का त्याग संसार को बढाने वाला होता है, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। यानी त्याग विराग वाला होना चाहिए। यह बात सत्य है।

किन्तु, विरागी त्यागी ही होना चाहिए, ऐसा नियम बांधा नहीं जा सकता। विराग बिना का त्याग, त्याग नहीं, ऐसा अवश्य कहा जाता है। सम्यकदृष्टि विरागी होने पर भी घर-गृहस्थी वाला हो, यह संभव है। वह घर-गृहस्थी को अच्छा नहीं मानता, छोडना चाहता है, लेकिन कदाचित् किन्हीं कारणों से छोड नहीं पाता और मजबूरीवश रहना पडता है तो भी वह उसमें रमता नहीं, दृष्टाभाव से रहता है, क्योंकि जब तक चारित्रमोहनीय कर्म का सम्पूर्ण क्षय नहीं हो जाता, वह विरागी होते हुए भी त्यागी नहीं हो सकता। त्याग के लिए उत्तम कोटि का विराग और उसके लिए मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का क्षयोपशम आवश्यक है।

ये विरागी आत्माएं नित्य-प्रति आत्म-निन्दा करती रहती हैं, संसार में अपनी फंसावट को धिक्कारती रहती हैं और सोचती रहती हैं कि मेरा चारित्र मोहनीय कर्म कब क्षय होगा और कब मैं यह सब छोडकर मोक्षमार्ग का पथिक बन सकूंगा? ऐसी पुण्यात्माएं संसार में रह कर भी विषयों में अत्यधिक आसक्त नहीं होती, लीन नहीं होती, अपितु विरक्त भाव से रहती हैं।

उनको स्वयं के विरतिधर न बन सकने का और धर्माचरण नहीं कर पाने का गहरा दुःख होता है और वे अपनी अधमता पर सोचते हैं कि मैं विषयासक्त बन गया, अपने आत्म-कल्याण के मार्ग पर अग्रसर न हो सका। यह आत्म-निन्दात्मक सोच प्रशंसनीय है, क्योंकि यह सन्मार्ग का प्रेरक सोच है। पुण्यात्माओं के ऐसे आत्म-निन्दात्मक वचनों को आगे करके आप अपनी शिथिलता को छिपाने का प्रयास करो तो यह उचित नहीं है। आज तो भयंकर विषयासक्ति को अशक्ति और अन्तराय के बहाने नीचे छुपाने का प्रयत्न होता है। इसीलिए इस तरफ भी ध्यान देने की जरूरत पडी है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 23 जून 2014

पौद्गलिक संयोग ही दु:ख का कारण


मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के अनुज श्री भरत परिणामदर्शी थे। इसीलिए अथाह भोग सामग्री और सत्ता मिलने पर भी उसमें वे मूर्छित नहीं हुए और कब यह संसार छूटे, ऐसी भावना में रमण करते रहे। पुद्गल-योग से प्राप्त हुआ बडा से बडा सुख भी श्री भरत को दुःखरूप लगता था। कारण कि इस संसार के सुखों में लीन बना हुआ आत्मा ज्यों-ज्यों सुख भोगता जाता है, त्यों-त्यों भविष्य के लिए भयानक दुःखों को खरीदता जाता है, ऐसा श्री भरत जी समझते थे, क्योंकि वे परिणामदर्शी थे। आप भी ऐसे ही परिणामदर्शी बनेंगे तो आपको भी इस मनुष्यलोक के ही नहीं, देवलोक के भी सुख दुःखरूप लगे बिना नहीं रहेंगे।

दुनिया के दुःख नहीं चाहिए, यह बात सत्य है और सुख चाहिए, यह बात भी सत्य है। फिर भी दुनिया के जीव सुख की इच्छा से ऐसा प्रयत्न करते हैं कि जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें दुःखमय दशा प्राप्त हो जाती है। कारण कि उन्हें सच्चे सुख का ज्ञान ही नहीं है। उनको सच्चे सुख के उपाय की जानकारी ही नहीं है। दुःख के स्वरूप और दुःख के निदान की भी खबर नहीं है। सुख और दुःख दोनों का स्वरूप समझ लें और उसके निदान का खयाल आ जाए तो ज्ञानी कहते हैं कि आत्मा को ऐसा लगे कि संसार रूपी भट्टी में मैं सिका जा रहा हूं। उसको चैन नहीं पडेगा। दुनिया जिसको सुख मानकर पागल के समान जिसके पीछे दौड रही है, वह सुख उसको भयंकर लगता है। यह भौतिक सुख कैसे अनर्थों का सर्जक है, यह बात जिसे समझ में आ जाए, उसकी दिशा ही बदल जाएगी।

एक भी पौद्गलिक वस्तु के योग के बिना का जो सुख है, वही सच्चा सुख है। दुःखमात्र का मूल पुद्गल का योग है। जहां पुद्गल का योग नहीं, वहां दुःख का नाम नहीं और सुख की कमी नहीं। आज तो बहुत लोगों को घबराहट यह होती है कि कोई भी पुद्गल वस्तु के योग के बिना सुख होता ही कैसे है?’ यह आकुलता, यही मिथ्यात्व है। जिसका मिथ्यात्व जाता है, उसकी घबराहट स्वतः चली जाती है।

बुद्धिपूर्वक विचार करें तो इस विचक्षणता को समझा जा सकता है। दुनिया को पौद्गलिक वस्तुओं का वियोग होता है तो दुःख होता है न? वियोग का दुःख क्यों? संयोग में सुख माना इसीलिए न? संयोग ही न होता तो वियोग कैसे होता? कितनी ही बार पौद्गलिक वस्तुओं का वियोग दुःख उत्पन्न करता है तो कितनी ही बार पौद्गलिक वस्तुओं का संयोग दुःख उत्पन्न करता है। मनपसंद चला जाए तो भी दुःख और मनपसंद मिले तो भी दुःख। इसलिए वस्तुतः सुख पौद्गलिक वस्तुओं के न वियोग में है और न संयोग में। पौद्गलिक वस्तुओं का स्वभाव स्थिर रहने का नहीं है। सडन, गलन, पतन पुद्गल का स्वभाव है, इसलिए इसके योग में सुख की कल्पना, यही दुःख की जड है। आत्मा इसी में लीन रहने के कारण दुर्गति में डूब जाती है। जो वस्तु दुःख की हेतुभूत होती है, उसको सुखरूप मानना मूर्खता है।- आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा