शनिवार, 31 मई 2014

दुनिया दुर्जनों की है, सज्जनों की नहीं


सज्जनों पर विपत्ति आए इसमें कोई नई बात नहीं है। दुनिया दुर्जनों की है, सज्जनों की नहीं। दुर्जनों के बीच में रहे और विपत्ति न आए, ऐसा होता है? कई बार कुछ भी गफलत किए बिना भी विपत्ति आती है। पूर्व के पापोदय से सब आता है। भगवान ने कौनसी गफलत की थी? सुदर्शन सेठ का क्या अपराध था? यह उसी भव की बात है हो! पूर्वभव का अशुभोदय अलग बात है। गजसुकुमाल, ढंढणऋषि तथा झांझरीया मुनिवर की इस भव में कोई गलती थी? मेतार्य मुनि ने चोरी की थी? नहीं ही, फिर भी चोरी का आरोप कैसे आया? खंधक मुनि ने पूर्वावस्था में किसी की स्त्री पर कुदृष्टि डाली थी? नहीं! फिर भी आरोप आया न?

श्री जिनेश्वरदेव भगवान महावीर परमात्मा जैसे जगत के एकांत उपकारी थे, परम शुद्ध पंचमहाव्रत पालनेवाले थे, जिनके दान-शील-तप-भाव सर्वोत्कृष्ट कोटि के थे, उनको भी साढे बारह वर्ष तक लगातार और भयंकर विपत्तियों का सामना करना पडा, बताओ उन्होंने कौनसी गफलत की थी? पूर्व के कर्मबंध की बात स्वीकार है। बहुत से कहते हैं कि थोडी-बहुत गलती (डेढ वांक) के बिना लडाई नहीं होती, किन्तु ऐसा सब जगह नहीं होता। स्वार्थी स्वार्थी में ऐसा हो सकता है। बहुत से मूर्ख कहते हैं कि यह बात सही है कि सामनेवाला पक्ष तूफानी है, किन्तु अपने में भी कुछ तो है न?’ यदि अपने में कुछ साबित हो जाए तो अपनी कीमत फूटी कोडी की भी नहीं।

दुर्जन की यह आदत होती है कि जहां न हो वहां छेद करे। कौआ किसी जानवर पर बैठे तो जहां घाव हो उसी में चोंच मारता है और घाव न हो वहां चोंच मारकर नया घाव पैदा कर देता है। कौआ तालाब में से पानी नहीं पीता है, किन्तु पनिहारिन के बेवडे (मटके) में चोंच डालकर पानी जरूर बिगाड देता है। कौऐ की यह बुरी आदत है। वहां इस बहिन का ही अपराध है कि वह पानी भरने आई ही क्यों?’ ऐसा कहना उचित है?

खलः करोति दुर्वृत्तं, नूनं फलति साधुषु। -सुभाषितमाला

दुर्जनों का सज्जनों के साथ दुश्मनी का व्यवहार जन्मसिद्ध अधिकार है, वहां क्या उपाय हो सकता है? यह तो साहूकार का दिवालिये के साथ पाला पडने जैसा है। श्री जिनेश्वरदेव और उनके मुनियों ने उपसर्ग सहकर के केवलज्ञान प्राप्त किया है। उनको उपसर्ग क्यों? तीस दिन के उपवास करे, इगतीसवें दिन पारणा आए, वहां उस पर चोरी का आरोप किसलिए? मेतार्य मुनि ने चोरी की थी? नहीं, फिर भी इन मासखमण के तपस्वी पर चोरी का आरोप क्यों आया? ‘उन्होंने भी कुछ तो किया होगा।ऐसा यहां कहा जा सकता है? नहीं ही। शास्त्र कहते हैं कि श्री जिनेश्वरदेव में भी ऐसी शक्ति नहीं थी कि वे पाखण्डियों को समझा पाते। भगवान चाहे जैसा उम्दा वर्णन करें, किन्तु पाखण्डी बाहर जाकर बोलते थे कि बोलनेवाले होंशियार जरूर हैं, किन्तु है सब गप्पे।हारनेवाले के लिए एक ही रास्ता है, उसका जब कोई दांव नहीं चलता तो वह कहता है कि भाई! ये तो बहुत शक्तिशाली हैं।किन्तु इनकी बात सच्ची है, ऐसा स्वीकार नहीं करते।

दुर्जन का स्वभाव ही यह है कि उसे सज्जन खटकता है, इसलिए उसकी एक-एक प्रवृत्ति खटकती है। ये कह देते हैं कि बस, बोले ही कैसे?’ किन्तु बोलने के लिए, कहने के लिए तो ये निकले हैं। जिन्हें जचे वे सुनें और जिन्हें न जचे वे न सुनें। लेकिन ये तो कहते हैं कि सुनूं नहीं, सुनने दूं नहीं और लडूंऐसे हैं। गलती किसकी?

दुर्जन यदि अपना धारा हुआ सब कर सकता होता तो एक भी सज्जन को जीने देता? सभी की तिजोरी का धन हडप लेने की यदि लोभी में शक्ति होती तो एक भी श्रीमंत बचता? इसलिए दुर्जनों की परवाह न करते हुए, सज्जनों को अपने मार्ग पर सतत अडिग-अविचल रहना चाहिए, दुनिया जो कहे, जो सोचे। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 30 मई 2014

कर्त्तव्य से न चूकें


जो मुनियों को अपनी मर्जी के अनुसार नचाना चाहते हों, उन्हें सुधारने की आशा करना निरर्थक है। आत्म-कल्याण की हितैषी आत्माओं को भगवान श्री महावीर की आज्ञा को छोडकर, पागल और उन्मुक्तों की आज्ञा को मानने की मूर्खता करने जैसा है। मुनियों का कर्त्तव्य है कि वे आपमें जितने भी दोष हैं, उन्हें बतलाएं, दोष न भी हो, उनकी संभावना करके भी कहें। ऐसा कहने का एक मात्र उद्देश्य यही है कि आपमें कोई दुर्गुण हो तो वह दूर हो जाए और कोई दुर्गुण न हो तो वह आए नहीं, इस हेतु के लिए भयंकर शब्दों में भी कहना। झुण्ड बढाने की बुद्धि से कडवा हितकर जरूरी होते हुए भी नहीं कहने वाला कर्त्तव्य से चूकता है।

प्रवचन में बहुत लोग आएंगे तो हमारा मान-सम्मान बढेगा’, यह जो मान्यता है, वह पाप मान्यता है। भले ही भीड लाखों की हो, परन्तु अपना संयम जाता हो तो हमारे लिए भी खड्डा तैयार है। महापुरुषों को भी कर्मों ने नहीं छोडा है तो हमारा क्या अस्तित्त्व है? थोडा सा प्रमाद करने के कारण वे निगोद में चले जाते हैं, तो फिर हमारी क्या दशा हो सकती है? अतः सुरक्षा यही है कि आगम के विरुद्ध कोई भी कदम नहीं उठाना चाहिए। कदाचित् भगवान की आज्ञा को सम्पूर्णतया न पाल सके, परन्तु मान्यता में विशुद्धता अवश्य होनी चाहिए। शासन की रक्षा करने की बात तो अभी बहुत दूर है, परन्तु अपनी जात को बचाने के लिए आगम की आज्ञा को नुकसान पहुंचे, ऐसी सभी कार्यवाही से बचने के लिए सदैव सावधान रहने की आवश्यकता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 29 मई 2014

बुद्धि पर पर्दा


आप में बुद्धि तो बहुत है, परन्तु पैसे के प्रेम ने आपकी बुद्धि पर पर्दा डाल दिया है। आप जैसे लालचियों पर देवी-देवता खुश हों तो समझ लेना चाहिए कि वे भी कर्म के आधीन हैं। वे भी आपकी पूजा-भक्ति के लालची बने हैं। इसीलिए वे चोरों की सहायता करने निकल पडे हैं। अन्यथा तो वे भगवान की अवगणना करने वालों पर खुश होते ही नहीं। पुण्य में सुख-मग्न हो जाए और पाप में रोए, उसे पुण्य-पाप मानने वाला नहीं कहा जा सकता। पुण्य-पाप मानने वाला तो जहां तक संभव हो सके पाप करता ही नहीं है और अपनी शक्ति के अनुसार देकर भी पुण्य किए बिना नहीं रहता। ऐसे पुण्यशाली के पीछे अधिष्ठायक देव घूमा करते हैं और उनके (अधिष्ठायकों के) पीछे पडे हुओं से ये अधिष्ठायक दूर-दूर भागते हैं।

इस देश में पिछले साठ वर्षों में जो-जो घटनाएं हुई हैं और जो-जो उथल-पुथल हुई है, उन्हें देखने वालों को धर्म-अधर्म और पुण्य-पाप की पूरी-पूरी समझ व श्रद्धा हो जानी चाहिए। परन्तु आज के जीवों की बुद्धि इतनी कम हो गई है या कि उनकी बुद्धि पर पैसे और लालच का ऐसा पर्दा पड गया है कि इस बात को समझने वाले बहुत विरल ही बचे हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 28 मई 2014

जहां पाप वहां दुःख


आजकल हमारी धर्म की बातें बहरे कानों से टकराती हैं। सुनने के लिए तो बहुत आते हैं, परन्तु ये सभी धर्म सुनने नहीं आते, अन्य आकर्षणों या अपने किसी निहीत स्वार्थ के कारण आते हैं। ऐसे लोगों की यहां जरूरत नहीं है। यहां तो सत्य के अभिलाषियों की जरूरत है। परन्तु, संसार में सत्य के अभिलाषी हैं कितने? संसार का सुख जिसे फेंकदेने योग्य लगे, वही हमारी साधु संस्था में प्रविष्ट हो। दूसरे यहां क्यों कर आते हैं? कतिपय इस बात को समझे बिना हमारे यहां आ गए हैं, इसलिए वे लोगों की दया पर जी रहे हैं।

दुःख बिचारा आकर किसी के चिपक नहीं जाता। यह यों ही किसी पर टूट नहीं पडता, यह तो जिसने पाप किया हो उसके ही चिपकता है। जिसको यह समझ मिल गई हो, वह फिर पाप से प्रेम कर सकता है क्या? दरिद्रता दूषण नहीं, श्रीमंताई भूषण नहीं। दूषण तो हैं दोष। भूषण तो हैं गुण।

दुःख अपनी मैली आत्मा को साफ करने के लिए आता है, आत्मा की कालिमा धोने के लिए आता है। पाप से आत्मा मैली होती है। पाप न करने के लिए साधुपन लिया जाता है। यह समझे बिना यदि साधु हो जाए और फिर यहां मजे से पाप करे तो, वह साधु नहीं अपितु वेशधारी है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 27 मई 2014

विज्ञान ने क्या भला किया?


आज के विज्ञान का ज्ञान के साथ कोई संबंध नहीं है। ज्ञान तो नवतत्त्व से संबंधित है। विज्ञान का इन तत्त्वों के साथ तनिक भी मेल नहीं है। आज के विज्ञानवेत्ता यदि परोपकारी होते तो विज्ञान की शोधों का जो संहारक उपयोग हो रहा है, उसे देखकर वे चौंक पडते और अपने विज्ञान को समुद्र में डुबो देते। परन्तु, वे सब स्वार्थी जमात के हैं। इसीलिए नित-नित नई शोध करके जगत को पागल बना रहे हैं। आज का विज्ञान विनाशक विज्ञान है. आजकल के डेढ अक्ल वाले कई पंडित कहते हैं कि विज्ञान अब पैदा हुआ है, अतःएव यदि सर्वज्ञ हो तो अब ही हो सकता है, जबकि हकीकत इससे उलट है, सर्वज्ञ ने जो देखा, अनुभूत किया वहां तक तो विज्ञान हजारों साल बाद भी अभी तक पहुंचा ही नहीं है और हजारों साल उसे और लग जाएँगे। सर्वज्ञ ने जो कुछ और जितना कुछ बताया, वहां तक पहुंचने में तो अभी आधुनिक विज्ञान को हजारों साल लग जाएंगे, फिर भी वह पूरा नहीं समझ सकेगा। पानी और वनस्पति में जीव हैं, हजारों की संख्या में जीव हैं, उनमें संवेदनाएं हैं; यह बात सबसे पहले हमारे ही तीर्थंकरों ने बताई। यहां तक पहुंचने में ही आधुनिक विज्ञान को कितना समय लग गया? वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु ने 10 मई, 1901 में लंदन के वैज्ञानिकों के समक्ष प्रयोग द्वारा सिद्ध किया कि वनस्पति में जीव और संवेदना है। लेकिन, हमारे तीर्थंकर भगवंतों ने तो इसे हजारों हजार वर्ष पूर्व ही बता दिया था। इसी प्रकार हिंसा-अहिंसा का भेद और परिणाम उन्होंने बताया। क्या पाप है, क्या पुण्य है और ये किस प्रकार मनोवैज्ञानिक तरीके से काम करते हैं, परिणाम देते हैं, यह सब उन्होंने बताया? राग-द्वेष, काम-क्रोध, मोह-मान-माया-लोभ ये ही सब मनोविकारों, मानसिक बीमारियों की जड हैं, इन्हें छोडो। यही सब सामाजिक विषमताओं की जड हैं, इन्हें खत्म करो। यह सब उन्होंने बताया।

महावीर ने कहा दुःख को सहो और सुख में आसक्त मत बनो। जिन्होंने आज का विज्ञान पढा है, उन्होंने गुरुत्वाकर्षण, प्रत्यास्थता और सापेक्षता के सिद्धान्त जरूर पढे होंगे। हम जिस चीज को जितना जोर से ऊपर की ओर फेंकेंगे, उछालेंगे; वह दुगुने वेग से हमारी ओर वापस आएगी। आप एक बॉल को जोर से दीवार पर मारेंगे, तो वह दुगुने वेग से वापस आपकी ओर लौटेगी। यही हाल सुख और दुःख का है। आप दुःख को जितना दूर भगाने का प्रयास करेंगे या आप दुःख से जितना बचकर भागने की कोशिश करेंगे, उतना ही द्विगुणित होकर वह आपके पास आएगा, इसलिए अच्छा है कि आप उससे बचने या भागने की बजाय उसे सहन कर लें, ताकि वह फिर नहीं लौटे, यह कर्म बंध और निर्जराका सिद्धान्त है। यही स्थिति और सिद्धान्त आप सुख पर भी लागू करिए। आप जितना सुख भोगने से बचेंगे, उसके प्रति आसक्ति से बचेंगे, उसके प्रति निर्मोही बनेंगे, उसका त्याग करेंगे, उतना ही वह गुणित होकर आपके पीछे-पीछे दौडेगा, यह पुण्य का स्वभावहै।

मन के वैर-भाव को दूर करने के लिए अहिंसा’, बुद्धि की झडता, और आग्रह को मिटाने के लिए व बुद्धि की निर्मलता के लिए अनेकान्ततथा सामाजिक व राष्ट्रीय विषमता को दूर करने के लिए अपरिग्रहपरमावश्यक तत्त्व हैं। आप लोग विज्ञान-विज्ञान करते हैं, परन्तु मुझे नहीं मालूम कि इस विज्ञान ने आपका क्या भला किया है? पानी के पैसे, प्रकाश के पैसे, पवन के पैसे! यह इस विज्ञान की देन है। प्रकृति ने ये तीनों चीजें मनुष्य को मुफ्त में प्रदान की थी, परन्तु अब इनके पैसे वसूले जाते हैं; फिर भी मूर्ख लोग विज्ञान की तारीफ करते हुए नहीं थकते! -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 26 मई 2014

संसार एक पागलखाना है !


आज बडे माने जाने वाले बहुत से लोगों की बुद्धि गिरवी रख दी गई है, इसलिए उनकी बातों में आप न फंसें। ये लोग स्वयं को बहुत विद्वान मानते हैं। ये तो हमको भी व्याख्यान सुनाते हैं और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव देखने की हमको सलाह देते हैं। प्लेनों में उडने वाले, मोटरों में फिरने वाले, ट्रेनों में दौडधाम करने वाले हमको तो पागलखाने में भेजने योग्य लगते हैं, परन्तु इतना बडा पागलखाना लाना कहां से? इसलिए ही ज्ञानियों ने तो इस सारे जगत को ही पागलखाना कहा है।

भारतीय प्रजा का मूल गुण आज घायब हो गया है। पाप करने का भय चला गया है। पाप का भय तो आर्य स्वभाव है। पाप से न डरना अनार्य स्वभाव है। भगवान जैसे भगवान महावीरदेव भी गोशाला का भला न कर सके। गोशाला पर भगवान का कम उपकार नहीं था, तो भी गोशाला को उससे कोई लाभ नहीं हुआ। जीव की योग्यता न हो तो भगवान भी उस जीव का कुछ उपकार नहीं कर सकते तो फिर हमारा प्रभाव किसी पर न पडे तो इसमें क्या आश्चर्य? हमें तो स्व-पर कल्याण की भावना से अपनी साधना करते रहना है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 25 मई 2014

चौरासी का चक्कर


अविरति का पाप जीव को चौरासी के चक्कर में भटकाता है। अविरति और कषाय; ये दो पाप ऐसे हैं जो पंडित को भी पागल बना देते हैं। श्री हेमचन्द्रसूरीजी महाराजा ने योगशास्त्र ग्रन्थ में शिक्षा देते हुए लिखा है कि तुझे गुस्सा करना है न? किस पर करना है? दुश्मन पर ही न? दुश्मन पर क्रोध करने की छूट है, परन्तु जो तेरी बुराई करते हैं, उन्हें तूने दुश्मन कैसे मान लिया? वे जो दोष कहते हैं, वे दोष तुझ में हैं? यदि वे दोष तुझ में नहीं हैं तो कहने वाला अज्ञानी है। अज्ञानी के साथ माथापच्ची करने की क्या जरूरत है? और यदि वे दोष तुझ में हैं तो तुझे उनको उपकारी मानकर कहना चाहिए कि भाई! मुझे इस प्रकार प्रतिदिन कहते रहना, जिससे मेरा सुधार हो जाएगा। क्रोध तो क्रोध पर करना है।

ऐसी बहुत सी शिक्षाएं योग शास्त्र में क्रोध, मान, माया और लोभ के विषय में दी गई है। महापुरुष तो अपने लिए बहुत चिन्तन कर के लिख गए हैं, परन्तु बहुत लोगों को आज के लेखकों का साहित्य पढना ही रुचिकर लगता है, वहां क्या हो सकता है? जिन में वीतरागता के प्रति राग नहीं है और जिनके हृदय में राग-द्वेष की होली जल रही है, ऐसे लेखकों का साहित्य आपका क्या भला करेगा? सोचें जरा! -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 24 मई 2014

साधुत्व के लिए दो आवश्यक गुण


साधुत्व प्राप्त करने के लिए दो प्रधान गुण होने चाहिए। एक तो संसार असार है, ऐसी दृढ श्रद्धा और दूसरा गुण जो व्रत ग्रहण किया है, उसका प्राणों की बाजी लगाकर भी पालन करना। ये दोनों बातें बराबर हों तो दूसरा कदाचित् कम-ज्यादा भी हो तो चलेगा।

आज परोपकार के लिए गृहस्थाश्रम प्रारम्भ करने की मिथ्या और धूर्ततापूर्ण बातें करने वाले भी हैं। उस परोपकार के पर्दे के पीछे तो भोग की भूख छिपी हुई है। यदि भोग का राग न हो तो ऐसा बचाव करने की इच्छा ही नहीं होगी। ज्ञानियों का तो कथन है कि गृहस्थाश्रम दया की आहुति दिलाने वाला है। डग-डग पर दया की आहुति देने पर ही गृहस्थाश्रम निभ सकता है। किसी भी समय में परोपकार करने वालों की संख्या तो कम ही रहेगी। परोपकार तो दूर रहा, परन्तु दूसरे के प्रति अपकार किए बिना जीने का निर्णय करने वाले महात्मा भी कम ही मिलेंगे।

बिल्ली दूध का बर्तन देखते ही तुरन्त उसके भीतर मुँह डालने लगती है, परन्तु वह लकडी नहीं देखती। आप भी थोडे से सुख के दर्शन होते ही उसका उपभोग करने के लिए दौड पडते हैं, परन्तु उस समय आपको उस सुख के पीछे रहे हुए नरक-तीर्यंच के दुःख नहीं दिखते। सुख और सुख का साधन धन जिसे प्रिय लगता है और उसका मन में कोई दुःख न हो, वह उत्तम मनुष्य नहीं है। धन के पीछे छिपी नरक-तीर्यंच गति आपको दिखती ही नहीं; इसलिए ही आपका धन आप से अनेक पाप करा रहा है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 23 मई 2014

भोगावली की ढाल धारण मत करो


जिनकी ललाट में भोगावली कर्म लिखे गए थे, आप अपने बचाव के लिए उनकी बात करना ही मत। आपका तो भोग कर्म नहीं, अपितु पाप कर्म भारी है। भोग तो आप से दूर भागते हैं और आप उनके पीछे भूत की तरह भटक रहे हैं। त्याग-धर्म स्वीकार करने के लिए आज आप अपनी अशक्ति अथवा आसक्ति व्यक्त करते हैं, उसे मान्य करने के लिए मैं तैयार हूं, परन्तु आप जो भोगावली की ढाल धारण कर रहे हैं, उसका मैं विरोधी हूं।

सम्पत्ति आदि त्यागने योग्य ही है और साधुत्व ही अंगीकार करने योग्य है; इतनी बात भी आप सीना ठोक कर नहीं कह सकते। इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि आप पुण्यशाली होकर भी पाप की गठरी साथ लेकर आए हैं।

जैन जन्म घर में लेता है, परन्तु मरता है बिना घर का (अनगार) होकर। यह आदर्श आज आपके पास है? जैसे लडके आज आपके कहने में नहीं हैं, इसलिए उनमें अपलक्षण बढते जा रहे हैं, इसी तरह आप भी साधु के कहने में नहीं हैं, इसलिए आप में भी अपलक्षण बढ रहे हैं। जिस प्रकार आप स्वार्थ के बिना संसार में भी किसी पर प्रेम नहीं करते, उसी तरह आप स्वार्थ सिद्धि के लिए ही धर्म पर भी प्रेम कर रहे हैं, ऐसा मुझे लगता है। आपके प्रेम की गाडी जिस तरफ दौड रही है, उसकी दिशा मुझे बदलवानी है।

यदि आपको इह-लोक भी सुधारना हो तो बहुत सारे गुणों को विकसित करना होगा। मनुष्य मनुष्य का शत्रु कब बनता है? आप श्रीमंत हैं, तो गरीब आपकी सम्पत्ति के शत्रु नहीं हैं। वे तो आपकी कृपणता के शत्रु हैं। श्रीमंत को दातार बनना ही चाहिए। इस लोक की प्रगति में परलोक की अवगति है। इसलिए ज्यों-ज्यों लौकिक प्रगति बढे, त्यों-त्यों विशेष सावधानी रखे, उसका नाम जैन। जिसमें एक भी पाप की जरूरत न पडे, वही सचमुच धर्म है। इसलिए ही धर्म की बात करते समय मैं आपको रजोहरण बताता हूं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 22 मई 2014

धर्म के बदले पौद्गलिक लालसा


पुद्गलानन्दी आत्माओं की भक्ति निम्न स्तर की हो जाती है। पौद्गलिक लालसाओं में सडने वाली आत्माएं वास्तविक भक्ति कर ही नहीं सकती है। उन आत्माओं को यह ज्ञान ही नहीं होता कि भक्ति का उत्कर्ष किस बात में है और अपकर्ष किस बात में? संसार में मग्न, भोगों में आसक्त और एकान्त विषयों के अधीन बनी आत्माओं को यह विवेक ही नहीं रहता। वह तो संसार के लिए धर्म और भक्ति का सौदा ही करती है।

अतः यदि धर्मात्मा बनना चाहते हो तो अधर्म को मिथ्या मानना सीखो। धर्म-परायण होना हो तो पाप को पाप समझो। अधर्म का त्याग किए बिना जीवन में धर्म आ ही नहीं सकता है। आज तो ग्राहक को प्रसन्न करने के लिए धर्म की सौगन्ध भी खाई जाती है, यह भी कह दिया जाता है कि भगवान को मध्य रखकर सत्य बात कह रहा हूं।यह धर्म का सम्मान है या अपमान? जब तक आप पाप को पाप नहीं मानेंगे, पुण्य कार्य के प्रति आपके हृदय में सच्चा प्रेम उमड ही नहीं सकता। धर्म के बदले पौद्गलिक आकांक्षाएं अंततोगत्वा विनाश की ओर ही ले जाती है। धर्म और भक्ति मोक्ष के लिए ही होनी चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 21 मई 2014

धर्म के साथ धोखा


भौतिक सुख-समृद्धि के लिए धर्म करने वाले तो सचमुच धर्म के साथ धोखा कर रहे हैं। धर्म ने जो त्याग करने के लिए कहा है, उसीकी प्राप्ति के लिए आप यदि धर्म का आश्रय लेते हैं तो यह धर्म का दुरुपयोग ही माना जाएगा। आज बहुतायत में लोग ऐसा कर रहे हैं, इसके परिणाम अत्यंत घातक हैं। धर्म त्याग में है। भौतिक सुख-सुविधा-समृद्धि की आकांक्षा से आप धर्म करेंगे तो एक बार वे वस्तुएं आपको मिल भी जाएंगी, किन्तु अंततोगत्वा वे आपको दुर्गति में ही ले जाएंगी।

धर्म का विध्वंस होता हो, मोक्षमार्ग की क्रियाएं लुप्त होती हों अर्थात् सर्वज्ञ वीतराग परमात्मा द्वारा प्रणीत शुद्ध सिद्धान्तों एवं उनके अर्थों का विप्लव होता हो, तब शक्ति-सम्पन्न आत्मा को उसका निषेध करने के लिए वह सबकुछ करना चाहिए जो उसकी शक्ति में हो, सामर्थ्य में हो। जो मनुष्य शक्ति होने पर भी जैन शासन की रक्षा करने का प्रयास नहीं करते, वे इस संसार में चिरकाल तक भटकते रहेंगे। आज निःसंगता का पता नहीं, शरीर की ममता का पार नहीं, राग-द्वेष की कोई सीमा नहीं, तो भी शासन सेवा के समय, धर्म-रक्षा के समय और सत्य-स्वरूप प्रकट करने के समय समता, राग-द्वेष एवं शान्ति आदि की जो बातें करते हैं, वे भगवान के शासन की दृष्टि से तो सचमुच दया के पात्र हैं। शक्ति होते हुए भी मूक बनकर धर्म का पराभव देखने वाले और उस समय भी शान्ति की माला फिराने वाले सचमुच जैन शासन के महान शत्रु हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 20 मई 2014

इन्हें सच्चा सुख कैसे मिलेगा?


दुःख की बात है कि आज जहां देखें वहां धर्मस्थानों में भी बडप्पन की झूठी एवं तुच्छ वासना पनप रही है, जिसे निकालना आवश्यक है। आज यह मनोदशा है कि देव अर्थात् खिलौना, गुरु अर्थात् हमारी इच्छानुसार चलने वाला और धर्म अर्थात् अवकाश में आराम का स्थान। आज का फैशन परस्त शौकीन युवक जब मन्दिर में जाता है तो धर्मी त्रस्त होते हैं। वह युवक संसार के परम तारक परमात्मा के निकट सीना खोलकर खडा रहता है। इसमें वह अपनी वीरता समझता है। बताइए, उसके समान पामर भला कौन होगा?

जिसके हृदय में गुणवान के प्रति सम्मान नहीं है, उसे सुख कैसे प्राप्त होगा? क्योंकि आत्म-गुणों के प्रकाशन-प्रकटीकरण में ही वास्तविक सुख निहित है। गुणवान आत्माओं के प्रति सम्मान ही गुण-प्रकाशन का एक विशेष अवसर है। सच्चे गुणवान की आज्ञानुसार अपना जीवन-निर्माण करने के लिए जो तैयार नहीं होते, वे यदि सिर पीट-पीट कर मर जाएंगे तो भी उन्हें सच्चा सुख कभी नहीं मिलेगा।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा