बुधवार, 30 अप्रैल 2014

यह देश की कैसी दशा है?


नीतिशास्त्र तो प्राथमिक शास्त्र है। इसके समक्ष धर्मशास्त्र तो अत्यंत महान् हैं। फिर भी धर्मशास्त्र का विरोध करने वाले नीतिशास्त्र का आदेश मानने का भी निषेध करते हैं। क्यों? कारण कि इस प्रकार के नीतिशास्त्र का भी दृढता पूर्वक कथन है कि इस संसार में अनीति संभव ही नहीं है, क्योंकि तीनों प्रकार के जीव अनीति का आश्रय भी नहीं लेते। उत्तम जीव तो स्वभाव से ही अनीति नहीं करते, मध्यम जीव परलोक के भय से अनीति नहीं करते और अधम जीव इस लोक की प्रतिष्ठा बचाने के उद्देश्य से अनीति का आश्रय नहीं लेते। अब शेष रहे हैं अधमाधम जीव। ये अनीति करते हैं, परन्तु उन्हें मनुष्य ही कौन गिनता है? इसलिए इस देश में अनीति की संभावना नहीं है। इस आर्य देश का नीतिशास्त्र भी इस प्रकार की बातें करता है।

आपकी गिनती किसमें है? क्या आपको अधमाधम की श्रेणी में गिना जाए तो अच्छा लगेगा? यह बहुत ही गम्भीरता से सोचने का विषय है। आपके नीतिशास्त्र और अन्य धर्म-दर्शन चाहे धन को पाप नहीं मानते, परन्तु अनीति को तो पाप मानते ही हैं? आगे जाकर केवल हमारा जैन धर्मशास्त्र कहता है कि नीति तो अच्छी, पर धन तो बुरा ही है। जैनशासन के अतिरिक्त किसी ने यह बात नहीं कही।

मैं ऐसा समय भी देख चुका हूं, जब व्यापारी के एक बही ही हुआ करती थी। हर समय वह खुली पडी रहती थी। उसमें आने वाली धन राशि जमा होती और जो दिया जाता, वह किसी के नाम लिखा जाता था। जो शेष बचत होती वह गिनीगिनाई तिजोरी में पडी रहती। आज तो परिस्थिति भिन्न है। यह सब कब बदल गया? अनेक व्यक्तियों का कथन है कि भारत की स्वतंत्रता के कुछ वर्षों बाद यह परिवर्तन आया है।

यदि यही बात है तो आज जो कहा जा रहा है कि शिक्षा में वृद्धि हुई, विज्ञान में वृद्धि हुई, जनसंख्या में वृद्धि हुई और देश की प्रगति में वृद्धि हुई; यह सब प्रगति की बातें करने वाले चालाक और दम्भी ही हैं न? सेठ नीचे उतर गए और नौकर सेठ बन गए। यह कहा जा रहा है कि यह सब नियमानुसार हो रहा है। यह देश की कैसी दशा है? आज जिधर देखो उधर अनीति का बोलबाला है, क्या यही स्वतंत्रता है और यही प्रगति या विकास है?

नीति की लम्बी-लम्बी बातें अलग रखें, तो भी स्वामी, स्वजन, मित्र अथवा अन्य कोई सज्जन जो आपका विश्वास कर रहा है, उससे विश्वासघात नहीं हो यही नीति है। यह संक्षिप्त व्याख्या तो आप समझ कर उस पर अमल कर सकते हैं न? लेकिन नहीं, आज प्रायः हर आदमी दूसरे को लंगडी लगाकर नीचे गिराने और खुद आगे दौडने में लगा हुआ है। चारों तरफ अनीति का ही साम्राज्य दिखाई दे रहा है, ऐसे में इस आर्य देश का और आने वाली पीढी का भविष्य क्या?-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

धन एवं भोग का सब से बड़ा निन्दक कौन?


हमारी आत्मा के सबसे बडे शत्रु तीन हैं- मिथ्यात्व, अविरति एवं कषाय! इसमें तो किसी को दो मत नहीं हो सकते। आज दुनिया में जिधर देखो यही तीन शत्रु नजर आते हैं। इन तीनों शत्रुओं का समस्त नृत्य धन एवं भोग पर ही आधारित है। अतः कहना पडेगा कि संसार में इस धन एवं भोग की प्रतिष्ठा को खडी करने वाले ने विश्व को विनाश के कगार पर पहुंचा दिया है। विश्व में जिधर भी दृष्टिपात करें सभी इन दो वस्तुओं के पीछे ही भागते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। यही दो वस्तुएं समस्त जगडे की जड हैं।

धन एवं भोग की यदि सर्वाधिक निन्दा किसी ने की है तो वह है एक मात्र जैन शासन। तीर्थंकरों के अतिरिक्त शायद किसी ने भी धन एवं भोग की ऐसी निन्दा नहीं की। धन एवं भोग के निन्दक उन तीर्थंकरों के अनुयायी साधु आज तक संसार में विचरण कर रहे हैं। इसीलिए विश्व में कतिपय उत्तम पुरुष दृष्टिगोचर होते हैं। धन एवं भोगों के रसिक लोग यदि साधुओं के पास आएं और साधुओं से यदि धन और भोग निकृष्टतम हैं’, यह उन्हें सुनने को न मिले तो उन साधुओं के समान विश्वासघाती कोई नहीं है।

जिनकी ललाट में भोगावली कर्म लिखे गए थे, आप अपने बचाव के लिए उनकी बात करना ही मत। आपका तो भोग कर्म नहीं, अपितु पाप कर्म भारी है। भोग तो आप से दूर भागते हैं और आप उनके पीछे भूत की तरह भटक रहे हैं। त्याग-धर्म स्वीकार करने के लिए आज आप अपनी अशक्ति अथवा आसक्ति व्यक्त करते हैं, उसे मान्य करने के लिए मैं तैयार हूं, परन्तु आप जो भोगावली की ढाल धारण कर रहे हैं, उसका मैं विरोधी हूं। गृहस्थ का काम धन के बिना नहीं चल सकता, यह मैं स्वीकार कर सकता हूं, परन्तु आपके पास जितना धन है, उतने धन के बिना आपका काम नहीं चल सकता, यह बात मानने के लिए मैं तैयार नहीं हूं। आपकी आवश्यकताएं कितनी होनी चाहिए? क्या इस पर आपने कभी सोचा है? आवश्यकता से अधिक धन प्राप्त करने की इच्छा हो जाए और हृदय पर उसका आघात लगे तो समझना चाहिए कि अनन्तानुबंधी का लोभ अस्वस्थ हो गया है। लोभ अस्वस्थ होने पर मैं पूछना चाहता हूं कि आपकी आवश्यकता का प्रमाण कितना है? पिघले हुए घी से चुपडी हुई रोटी और बिना फटे हुए वस्त्र की मात्रा शास्त्रों में बताई है। इससे अधिक सामग्री चाहने वालों के लिए शास्त्रों में उल्लेख है कि धर्मात् पतित। वह धर्म से भ्रष्ट होता है।

आत्मा के तीनों वास्तविक शत्रुओं को यदि आप अच्छी तरह पहचान लो और उनके गाजे-बाजे धन और भोग इन दो वस्तुओं पर चल रहे हैं; उनका वास्तविक स्वरूप पहचान लो, तत्पश्चात ही आप धर्म सही रूप में कर सकते हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 28 अप्रैल 2014

धर्म से प्राप्त सुख-सामग्री का उपभोग



सुख धर्म से ही प्राप्त होता है और वह भी हम जिस प्रकार का धर्म करेंगे, वैसा ही प्राप्त होगा’, इस श्रद्धा में अभवी, दुर्भवी, कठोर कर्मी भवी और दुर्लभ बोधि ये चारों दृढ हो सकते हैं; परन्तु इस श्रद्धा का जैन शासन में कोई मूल्य नहीं है। धर्म से आत्मिक गुणों का आविर्भाव होता है’, इस श्रद्धा का जैन शासन में मूल्य है।


लगभग समस्त विश्व को दो वस्तुओं के अतिरिक्त तीसरी वस्तु में कोई अभिरुचि नहीं है। एक रुचि संसार-सुख की है और दूसरी रुचि संसार-सुख की प्राप्ति के लिए अनिवार्य माने जाने वाले दुःख की है। इनके अतिरिक्त किसी में भी उसकी रुचि नहीं है। संसार-सुख प्राप्ति के लिए दुःख सहन करने को आप तैयार हैं, परन्तु धर्म के लिए दुःख सहन करने को कौन तैयार है? धर्म के लिए दुःख सहन करने वाले तो कोई विरले ही होते हैं।


दुष्ट-विद्याओं (मेली-विद्याओं) की साधना करने के लिए भी अमुक प्रकार के कुछ कष्ट सहन करने के लिए तत्पर रहना पडता है। अमुक प्रकार के सुखों को ठोकर मारने की सामर्थ्य रखने वाला व्यक्ति ही उन विद्याओं की साधना कर सकता है। कुछ वर्ष पूर्व मोहम्मद छैल नामक एक व्यक्ति हो चुका है। उसने कोई विद्या सिद्ध की थी, पर विद्या सिद्ध करने से पूर्व उस विद्या के अधिष्ठाता को उसने वादा किया था कि आपकी सहायता से प्राप्त किसी भी चीज का मैं व्यक्गित उपभोग नहीं करूंगा। यह प्रण करने पर उक्त विद्या सिद्ध हो गई। वह मोहम्मद छैल अपनी विद्या से मिठाइयों से भरा थाल उत्पन्न करता और अनेक मनुष्यों को मिठाई खिलाता, परन्तु स्वयं रूखा-सूखा खाकर ही जीवन निर्वाह करता और वह आजीवन निर्धन ही रहा। साधारण साधना के लिए भी यदि इतना त्याग आवश्यक माना जाता हो तो धर्म के लिए तो कितना त्याग करना पडता है? आप धर्म के लिए त्याग करो तो ही धर्म आपको सुख देगा।


यदि उस सुख का आप आनन्द से उपभोग करो तो धर्म रूठ कर चला जाएगा। एक सामान्य विद्या की सुरक्षा के लिए उस विद्या से प्राप्त होने वाली सामग्री का उपभोग नहीं किया जा सकता, तो फिर धर्म की रक्षा के लिए, धर्म कायम रखने के लिए उससे प्राप्त होने वाली सुख-सामग्री का आनन्द से उपभोग कैसे किया जा सकता है?


पुण्य से प्राप्त सुख-सामग्री का यदि हम आनन्द से उपभोग करें तो अपना पुण्य नष्ट हो जाता है और ऐसे पाप बंधते हैं कि भवान्तर में भीख मांगने पर भी खाने-पीने और पहनने-औढने के लिए न मिले। आप यह बात अच्छी तरह स्मरण रखें कि पुण्य से प्राप्त सुख-सामग्री का सुरुचि पूर्वक उपभोग करना अर्थात् अपने हाथों अपनी दुर्गति का द्वार खोलना है, इसलिए उसमें रस न लें।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 27 अप्रैल 2014

संसार को ताजगी देने वाले तीन पाप


अविरति के उपासकों, मिथ्यात्वियों एवं कषायों से लिप्त जीवों का देव, गुरु धर्म के साथ कोई संबंध नहीं है। हमारी आत्मा पर ये तीन पाप अनादि काल से डेरा डाले बैठे हैं। अविरति पाप सुख की इच्छा उत्पन्न करता है और दुःख के प्रति द्वेष उत्पन्न करता है। सुखों का राग और दुःखों का द्वेष आत्मा को कहीं बुरा न लगे, उसकी निरन्तर सावधानी रखने वाला पाप मिथ्यात्व है और उसके लिए समस्त दौड-धूप कराने वाले पाप का नाम कषाय है। हमें भव-सागर में भटकाने वाले ये तीन मुख्य पाप हैं। संसार के लाल-पीले का परिणाम श्याम है। जो व्यक्ति यह बात भूल गया, वह भटक-भटक कर मरेगा। सिर पर चिन्ता की अंगीठी और हृदय में अशान्ति की अग्नि प्रज्वलित रखने वाले इस विश्व में भी यदि आपको सुख दृष्टिगोचर होता हो तो मुझे कहना पडेगा कि अभी उक्त तीनों पापों की असलियत और भगवान को पहिचानना आपके लिए कठिन है।

धर्म-सामग्री प्राप्त हो और जीव धर्म की ओर अग्रसर हो, इतने से ही कल्याण नहीं होता। जीव यदि सुख-प्राप्ति के लिए धर्म करे और थोडा-सा भौतिक सुख प्राप्त होते ही उसमें निमग्न हो जाए; फिर उस सुख की रक्षा करने के लिए अनेक प्रकार के पाप करे, तो धर्म करते हुए भी वह जीव दुर्गति में चला जाएगा। यदि जीव इस संसार को सही रूप में पहचान ले तो फिर जीव को मोक्ष के अतिरिक्त कुछ पसन्द नहीं आएगा। उसे संसार के सुख बहुत ही तुच्छ लगने लगेंगे। जिसे मोक्ष के प्रति रुचि हो जाए, वह यदि धर्म करे तो उसका कल्याण हुए बिना रह ही नहीं सकता।

वही व्यक्ति समझदार और ज्ञानी है जो यह समझता हो कि संसार में जितनी अधिक सुख-सामग्री प्राप्त हुई है, वह सब पाप सामग्री है। इस प्रकार का ज्ञान जब तक उत्पन्न नहीं होता, तब तक सुख-सामग्री हम से अधिकाधिक पाप कराती ही रहेगी। धन की शोभा विवेकपूर्ण दान है, खाना-पीना और पहनना-ओढना नहीं। पास रखी हुई खाद्य-सामग्री को खाना तो पशु भी समझता है। पशुओं की भी दो जातियां हैं। एक कौओं की जाति और दूसरी कुत्तों की जाति। खाद्य-सामग्री देखकर कौआ अपने समस्त जाति भाइयों को बुलाकर खाता है; जबकि कुत्ते की जाति तो दूसरे कुत्ते को निकट ही नहीं आने देगी। सुख-सामग्री तो आपको भी प्राप्त हुई है। आपका नम्बर उन दोनों में से कौनसा है, आपको अकेले खाना पसंद है या सबको खिलाकर खाना अथवा सबके साथ खाना पसंद है, आपको अकेले अपने स्वार्थ साधने से मतलब है कि आप सबका हित सोचते और करते हैं, इसका निर्णय तो आप ही कर सकते हैं। अविरति एक ऐसा पाप है, जो दुःख से घृणा और सुख से प्रेम उत्पन्न करता है, मिथ्यात्व उसमें साक्षी बनता है और कहता है कि यह आपकी समझदारी उचित है, और कषाय उससे संबंधित समस्त हा-हूमचाने में सहायक होते हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 26 अप्रैल 2014

शिक्षा के नाम पर जहर


आज ऐसे सैंकडों परिवार दृष्टिगोचर हो रहे हैं, जिनमें वयोवृद्ध माता-पिता की अत्यंत कारुणिक दशा है। वे तो भूखे मरते हैं और उनके पुत्र-पुत्री ऐश्वर्य युक्त जीवन व्यतीत कर रहे हैं। ऐसा न केवल आम घर-घरानों में हो रहा है, बल्कि तथाकथित उच्च कुलों में भी हो रहा है। यह कितना दुःखद है? यह आपकी वर्तमान शिक्षा का विषैला प्रभाव है। हमारे शास्त्रों में तो प्रमाण है कि सर्वोत्तम पदार्थों से पहले माता-पिता की भक्ति कर के, उन्हें तृप्त करने के बाद बेटे-बहू आदि उपभोग करते थे; यदि माता-पिता जीवित न हों तो भी उनका स्मरण करके, मन ही मन उनके चरणों में नतमस्तक होकर फिर स्वयं भोजन करने की गौरवशाली परम्परा हमारे यहां रही है। वर्तमान शिक्षण संस्थाओं की ढेर सारी पुस्तकों में से किसी एक में भी आप ऐसे उपदेश खोज सकेंगे क्या? नहीं ही बता पाएंगे। जबकि मैं आपको शास्त्रों में सैकडों उदाहरण बता सकता हूं। फिर भी आप आधुनिक शिक्षा का ही गुणगान करते हैं, यह कितनी विचित्र बात है?

मैं यह नहीं कहता कि आप अपनी संतान को अज्ञानी रखो, परन्तु यदि वे शिक्षा प्राप्त कर के भी शैतान ही बनने वाले हैं तो फिर उन्हें अशिक्षित रखना क्या बुरा है? आपने जिन्हें खेल खिलाए, स्वयं घोडा बनकर जिन्हें आपने पीठ पर सवारी करवाई, खुद गीले में सोकर जिन्हें सूखे में सुलाया, जिन्हें पालपोस कर बडा किया; वही सन्तान आज आपको लात मार रही है। वास्तव में तो आपको न तो उन्हें खिलाना आया और न रुलाना आया, अन्यथा आपके धन से शिक्षित सन्तान ऐसी होती क्या? विद्यालयों, छात्रावासों, महाविद्यालयों में ही आज शिक्षा के नाम पर बच्चों में कितना विष भरा जा रहा है? इस पर आपने कभी ध्यान दिया है? तप-त्याग से, विनय-विवेक से और किसी भी परिस्थिति तथा वातावरण में हर्ष पूर्वक हम जीवन व्यतीत कर सकें, ऐसी शिक्षा आज दी जाती है क्या?

वर्तमान शिक्षा का परलोक, पुण्य-पाप, संस्कारों आदि सामान्य बातों के साथ तनिक भी संबंध नहीं है। उन सबको भुलाने वाली यह वर्तमान शिक्षा है। आज तो केवल पैसा कमाना, भक्ष्याभक्ष्य का विवेक रखे बिना तामसिक खाना-पीना, आधुनिकता के नाम पर फूहड रहन-सहन और स्वच्छन्द घूमने-फिरने की सुविधाओं का ही विचार किया जाता है। क्या यह पागलपन नहीं है? ऐसी शिक्षा पाकर, आपकी संतान आपकी न रहे तो आप सहन कर सकते हैं, परन्तु सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर, आपकी संतान दीक्षित होकर साधु हो जाए तो आप सहन नहीं कर सकते। अपनी संतान को ऐसी शिक्षा देकर आप उनका अपकार ही कर रहे हैं, क्योंकि उनके परलोक की चिन्ता किए बिना आप उन्हें सिर्फ धनोपार्जन के लिए ही शिक्षित कर रहे हैं। परन्तु ऐसा करने में वह असंतोष की अग्नि में जल मरे, उसकी आपको तनिक भी चिन्ता नहीं है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

अरिहंत की अनोखी पहचान


श्री अरिहंत देवों को यदि आप पहचान सकें तो आपकी भक्ति में एक निराली लहर उठे। आपके स्वयं के भीतर अरिहंत बनने की क्षमता है और जिनमें अरिहंत बनने की योग्यता होती है, वे ही अरिहंत बन सकते हैं। यह योग्यता अनादिकालीन है। सभी भव्य अरिहंत बनने वाले नहीं हैं। ऐसे भी अनंत जीव हैं जो अनंतकाल तक भी अरिहंत नहीं बन सकेंगे, तो भी उनमें अरिहंत बनसकने की योग्यता तो है ही। घास में से दूध बनता है। समस्त घास में दूध होने की योग्यता है, तो भी इस संसार में जितना घास है, उस सबका क्या दूध बनेगा? नहीं बनेगा, क्योंकि योग्यता भिन्न बात है और उस योग्यता का अमल में आना भिन्न बात है। जो घास गाय, भैंस के उदर में जाता है, उसका दूध बनता है और जो घास गधे के उदर में जाता है, उसका दूध नहीं बनता; परन्तु इससे यह नहीं कहा जा सकता कि उस घास में दूध बनने की योग्यता नहीं थी।

श्री अरिहंत देवों ने जितना उद्यम किया, जैसी भावना अपनाई, वह सब दूसरों की शक्ति से परे है। इसलिए श्री अरिहंत की बोधि को वरबोधिकहा जाता है। भगवत्-भाव को उत्पन्न करने वाली यह वरबोधि है। अनादिकाल से अनंत जीव संसार में भटक रहे हैं। अरिहंतों की आत्माएं भी अरिहंत अवस्था प्राप्त करने से पूर्व इस तरह अनंतकाल तक भटकती रहती है, पर जब उनका समय आ जाता है और सद्गुरु का योग मिलने पर उन्हें बोध हो जाता है, उस समय ये जीव कठोरतम उद्यम करके अंत में केवलज्ञान प्राप्त करते हैं।

अंतिम भव में उत्पन्न होकर श्री तीर्थंकरदेव इस संसार में रहने के लिए नहीं रहते। वे परम तारणहार भोगों को रोग मानकर औषधि की तरह उनका उपभोग करते हैं। उनके च्यवन काल से ही उन परम तारणहारों की विशिष्ट प्रकार से पूजा प्रारम्भ हो जाती है। उनके च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और मोक्ष के दिन पंचकल्याणकों के नाम से जाने जाते हैं। वे तारणहार कोई इन्द्र आदि द्वारा पूजे जाने के कारण महान नहीं बनते, अपितु उनमें स्वयं में ऐसी योग्यता है, वे महान हैं, इसलिए इन्द्र आदि द्वारा पूजे जाते हैं।

श्री अरिहंत देवों के पास अपार सुख-सामग्री होती है, परन्तु वे तारणहार उस सबका परित्याग करके साधुत्व अंगीकार करते हैं। इसके बाद कठोर परिषह सहन कर अपने शेष कर्मों को खपाते हैं, उनकी निर्जरा करते हैं, उसके बाद ही वे केवलज्ञान प्राप्त कर तीर्थंकर बन सकते हैं। कोई भी अरिहंत साधु हुए बिना तीर्थंकर नहीं हो सकता। आप यदि अरिहंत देवों के इस स्वरूप से परिचित हो जाएं तो फिर आपको इस संसार में रहना अच्छा लगेगा क्या? सुख में भी आपकी व्याकुलता बढे बिना रहेगी क्या? और आप दुःख का स्वागत किए बिना रह सकेंगे क्या?-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

मन की भूख


मन की भूख एक छूत का रोग है। मन का भूखा आदमी जहां जाएगा, वहां अपने रोग का चेप (रोग के किटाणु) फैलाएगा। उसकी खराबी सबको बिगाड देती है। यह खराबी, यह रोग बढने से इंसान, इंसान नहीं रहकर हैवान हो जाता है, शैतान हो जाता है। आज मनुष्यों की नहीं, शैतानों की संख्या में वृद्धि हो रही है। ऐसा वक्त आ गया है कि किसी को जब तक किसी आदमी की मदद की जरूरत न पडे तब तक ही ठीक है; क्योंकि मन के भूखे शैतान किसी को न किसी को बोतल में उतारने की फिराक में ही रहते हैं। जिस व्यक्ति को भी किसी की मदद की आवश्यकता पड गई, समझो वह तो प्रायः जाल में फंस ही जाएगा। अपवाद स्वरूप ही कोई बच पाता है, बाकी अधिकांशतः तो यही दशा होती है।

आज संसार में पापों के बढने का कारण भी मन की भूख ही है। बुभुक्षितो नरो किं न करोति पापं’, भूखा आदमी कौनसा पाप नहीं करता? यह उक्ति केवल पेट के भूखों के लिए ही नहीं है, क्योंकि मन के भूखे लोग जो पाप कर रहे हैं, उनकी तो कोई सीमा ही नहीं है। पेट के भूखों की तो एक सीमा होती है, जबकि मन के भूखों के लिए तो कोई सीमा ही निर्धारित नहीं की जा सकती।

साधु वही है, जिसमें मन की भूख न हो और पेट की भूख पर नियंत्रण के लिए जो निरंतर चिन्तित रहता हो। रजोहरण (ओघा) और हमारा भेष इस मामले में हमारी बहुत रक्षा करता है, हमे अपनी मर्यादा में रहने का ध्यान दिलाता है। जो साधु इस रजोहरण व भेष को कलंकित करता है, लज्जित करता है वह तो निर्लज्ज ही है। रजोहरण एक ऐसा चौकीदार है कि जो हमें कोई भी पाप करने से रोकता है।

साधु मन की भूख का त्यागी होता है और श्रावक मन की भूख का शत्रु होता है। इस तरह साधु और श्रावक यदि अपनी मर्यादा में रहें तो श्री जैन संघ संसार में जवाहिरात की तरह दमक उठे। इस प्रकार का श्री संघ ही पच्चीसवां तीर्थंकर होने का गौरव प्राप्त कर सकता है। मन की भूख को उचित मानने वाला व्यक्ति धर्म करता हो तो भी वह मन की भूख को तृप्त करने के लिए ही धर्म करता है, अतः वह अधर्म ही कहा जाएगा। संसार के लिए किया जाने वाला धर्म तो अधर्म का ही पिता है। सुख भोगना और दुःख से दूर भागना, यह जीव का अनादि स्वभाव है। इस स्वभाव के विपरीत, इस स्वभाव में परिवर्तन करके जो जीव सुख का अपमान, तिरस्कार करता है, सुख का त्याग करता है और दुःखों का सन्मान करता है, वही जिन धर्म की ओर उन्मुख हुआ माना जाता है। या जो जीव सुख और दुःख में समभाव से रहता है, सुख में उल्लास नहीं, दुःख में विलाप नहीं; सुख में आसक्त नहीं होता, बेभान नहीं होता और दुःखों को कर्म विपाक समझकर शान्त-चित्त से सहन करता है, वही धर्म की ओर उन्मुख माना जाता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 23 अप्रैल 2014

लोभ और तृष्णा दुःख का मूल


स्वभावतः मनुष्य अपने जीवन में सुख-शांति और समृद्धि की कामना करता है। उसकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण इच्छाओं में से एक है धन और यश की इच्छा और उसे हासिल करने के लिए, उसे पाने के लिए वह प्रत्यन करता रहता है। साधारणतया मनुष्य के प्रत्येक कर्म के पीछे यही अंतःप्रेरणा होती है। सभी महान लोगों का भी यही अभिमत है कि सृष्टि इच्छाओं और आकांक्षाओं से प्रेरित है।

इच्छा रखना मनुष्य का स्वभाव है, परंतु इच्छित फल की प्राप्ति के लिए उसे अमर्यादित और अनैतिक ढंग से कभी भी न तो सोचना चाहिए और न ही कर्म करना चाहिए। मनोवांछित फल पाने के लिए हमारी इच्छा इतनी बलवती नहीं होनी चाहिए कि उचित-अनुचित की विवेक बुद्धि ही नष्ट हो जाए और हम उसे येन-केन-प्रकारेण पाने के लिए तत्पर हो उठें। इसे ही लोभ या लालच कहते हैं।

लोभी व्यक्ति कभी भी सुखमय जीवन व्यतीत नहीं कर सकता है। सच्चे मनुष्य की अग्निपरीक्षा तो प्रलोभन से होती है। इस प्रकार अनैतिक इच्छा के वश मनुष्य क्रोध, काम, ईर्ष्या और अहंकार का शिकार भी हो जाता है। संयम के चरमोत्कर्ष बिना इच्छा का सर्वथा त्याग मुश्किल है, किंतु वह इतनी अधिक न बढ जाए कि हमारे सोचने-समझने के सामर्थ्य को समाप्त कर लोभवश अनैतिक कर्मों में लिप्त कर दे। मानव की यही स्थिति पशुतुल्य कही जाती है। ऐसी इच्छा त्याज्य है।

मनुष्य के समस्त विकास और पतन में इच्छा का ही हाथ है। जहाँ एक ओर श्रेष्ठ और शुभ इच्छा विकास की तरफ यात्रा करती है, वहीं विवेक शून्य इच्छा पतन, पराभव की ओर अग्रसर होती है। किसी प्रकार के अभाव की अनुभूति मनुष्य के अंदर विफलता का भाव पैदा करती है और इसी कारण मनुष्य में उस वस्तु को पाने की कामना जागृत होती है। यही कामना मनुष्य की इच्छा कहलाती है।

जब किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा स्थिति के प्रति लोभ-इच्छा-तृष्णा जागती है और आसक्ति बढती है, तब उसे प्राप्त करने के लिए अथवा प्राप्त हुई हो तो अधिकार में रखने के लिए हम बुरे-से-बुरा तरीका अपनाने पर उतारू हो जाते हैं। चोरी-डकैती, झूठ-फरेब, छल-छद्म, प्रपंच-प्रवंचन, धोखाधडी आदि सब कुछ अपनाते हैं। अपने इस पागलपन में मन की सरलता खो देते हैं। साध्य हासिल करने की आतुरता में साधनों की पवित्रता को खो देते हैं।

अंतहीन समुद्र की लहरों की तरह इच्छाओं पर सवार मनुष्य जीवन सागर में भटकता रहता है, जो उसकी आंतरिक चेतना को छिन्न-भिन्न कर देता है। इसलिए कहते हैं- अनियंत्रित इच्छा मनुष्य को अच्छा नहीं बनने देती। सभी बुराइयों की जड यही इच्छा है। इच्छा से दुःख आता है, इच्छा से भय आता है। जो इच्छाओं से मुक्त है, वह न दुःख जानता है और न भय।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

मानव जीवन को सार्थक करें!



अल्प-संसारी, शुद्ध-बुद्धि, अहंकार-रहित, सरल और शुद्ध श्रद्धा-सम्पन्न आत्माएं परलोक की साधना एवं आत्म-कल्याण के लिए सुदेव, सुगुरु, सुधर्म और जिनवाणी के अतिरिक्त अन्य किसी की अपेक्षा नहीं रखती। कारण कि परलोक एवं आत्म-कल्याण की विधि जानने के लिए ये ही आधार रूप हैं। परलोक की साधना करने की इच्छा उन्हीं आत्माओं की होती है जो आसन्नभव्य, मतिमान और श्रद्धारूप-धन की धनी हों। इससे यह भी सहज सिद्ध हो जाता है कि परलोक की साधना के स्थान पर भोग और इस लोक की साधना को आगे करने वाली आत्माएं आसन्नभव्य, अल्पसंसारी नहीं हैं और कल्याणकारी शास्त्र-शुद्धमति को धरने वाली भी नहीं और शुद्ध श्रद्धा-सम्पन्न भी नहीं हैं। इस पैमाने पर विचार करिए जरा अपने जीवन पर! जीवनभर आपने लोगों को कितना दुःख बाँटा है? अपनी मूर्खता से जब-जब आपने अपने मन में विकार पैदा किया, तब-तब उसे वैमनस्य से भरा; और केवल मन से ही नहीं, बल्कि वाणी और काया से भी ऐसे दुष्कर्म कर दिए, जिनसे लोग दुःखी, जीव संत्रस्त और संतापित हुए! कितनों के दुःखों का कारण बने आप? कितनों की व्याकुलता का? दुःख ही दुःख तो बाँटा लोगों को आपने! और कितने जन्म-जन्मांतरों से दुःख बांटने का यह क्रम अनवरत रूप से चल रहा है?


अब कहीं कोई पुराना पुण्य जागा, जिसकी वजह से यह सार्वजनीन, अनमोल और मंगलकारी धर्मरत्न आपको प्राप्त हुआ। इस धर्म-संपत्ति ने कितना संपन्न बना दिया है आपको, क्या इसका जरा भी खयाल है आपको? कितनी विपन्नता धुली? कितने विकारों से मुक्ति मिली? कितने दुःखों से छुटकारा मिला? अप्रिय परिस्थिति में भी मुस्कराना आ गया! मन में मैत्री और करुणा की ऊर्मियाँ लहराने लगीं! जीवन धन्य हो उठा। अरे, यही तो सुख है! यही तो सच्चा सुख है!


आओ, बाँटें ऐसा सुख सबको! ऐसा सुख सबको मिले। ऐसा धर्म सबको मिले। जगत में कोई दुखियारा न रहे। सब अपने विकारों से मुक्त हो जाएँ, मन की गाँठें खुल जाएँ, मलिनता दूर हो जाए। सभी निर्वैर हों! निर्भय हों! निरामय हों! निर्विकार हों! निष्पाप हों! निर्वाणलाभी हों! इसीलिए सुदेव-सुगुरु-सुधर्म के प्रति असीम कृतज्ञता और अनन्य निष्ठा भाव रखते हुए, प्राणियों के प्रति असीम मंगल मैत्री रखते हुए, आओ! जन-जन के भले के लिए और अपने भले के लिए भी, हम सभी मिलकर अपनी सम्मिलित शक्ति लगाएँ और ऐसा जीवन जीएँ, जिससे अधिक से अधिक लोग सुदेव-सुगुरु-सुधर्म की ओर आकर्षित हों! अधिक से अधिक दुखियारे लोग सुदेव-सुगुरु-सुधर्म के माध्यम से जिनवाणी के रस का पान कर सकें और दुःख-मुक्त हो सकें! अपना सुख बाँटने में ही हमारा सुख समाया हुआ है, सबका सुख समाया हुआ है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 21 अप्रैल 2014

ईर्ष्या छोडें और सुपात्र दान करें


मानव जीवन बडे पुण्यकर्मों से मिलता है। इसे यूं ही नहीं गंवा देना चाहिए। इसे सुंदर बनाने के लिए सत्कर्म और स्वाध्याय का आश्रय लेना परम आवश्यक है। स्वाध्याय का तात्पर्य अच्छे-अच्छे ग्रंथों का अध्ययन करना तो है ही, अपना अध्ययन करना भी है। इसे आत्मनिरीक्षण की घडी भी कह सकते हैं। जब तक मनुष्य आत्मनिरीक्षण या आत्म-विश्लेषण नहीं करता, तब तक वह परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता। परमात्म-तत्त्व की प्राप्ति के लिए ईर्ष्या, द्वेष आदि कुटिल भावनाओं का त्याग नितांत आवश्यक है। ईर्ष्या एक प्रकार की आग है, लेकिन यह ऐसी आग है जो दिखाई नहीं देती, जिसका धुआं भी दिखाई नहीं देता। जो आग दिखाई देती है, उसको बुझाना सरल है, लेकिन जो आग दिखाई नहीं देती, उसे बुझाना बहुत ही मुश्किल कार्य है।

उस ईर्ष्या रूपी आग को किस प्रकार बुझाया जाए, यह बहुत विकट प्रश्न है। इसके लिए प्राणिमात्र के प्रति सौहार्द, प्रेम, स्व-पर कल्याण की भावना पैदा करनी होगी। दुःख का सबसे बडा कारण यह है कि मनुष्य अपने घर को देखकर उतना प्रसन्न नहीं होता, जितना दूसरों के घर को जलते देखकर प्रसन्न होता है। दूसरों की प्रगति देखकर दुःखी होना और दूसरों की बर्बादी देखकर प्रसन्न होना, यही ईर्ष्या है। जहां ईर्ष्या का निवास है, वहां ईश्वरत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती।

जीवन का उद्देश्य नहीं है, केवल खाना-पीना।

जीवन का उद्देश्य है जग में, जगना और जगाना।

जगने और जगाने का मतलब है संसार के लोगों को आत्मोन्मुख करना। यह कार्य वही कर सकता है, जिसे स्वयं आत्मानुभूति हो और जिसमें सेवा, समर्पण और परोपकार का भाव हो-

खुद कमाओ, खुद खाओ, यह मानव की प्रकृति है।

कमाओ नहीं, छीनकर खाओ, यह मानव की विकृति है।

खुद कमाओ, दूसरों को खिलाओ, यही हमारी संस्कृति है।

मानव जीवन की सफलता-सार्थकता के लिए समय का सदुपयोग करें और प्रतिदिन इतना-सा चिंतन अवश्य करें कि मैं मरने वाला हूं, मौत कभी भी आ सकती है, धन-दौलत और रिश्ते-नाते सब यहीं रहेंगे, साथ कुछ भी नहीं आएगा। ऐसे में अगले भव में मेरा क्या होगा? कहीं मैं कीडे-मकोडे, छोटे-मोटे जीव-जंतु, तीर्यंच प्राणी या ऐसी-वैसी गति में तो नहीं चला जाऊंगा? दौलत से रोटी मिल सकती है, पर भूख नहीं। दौलत से बिस्तर मिल सकते हैं, पर नींद नहीं। दौलत से पुस्तक मिल सकती है, पर ज्ञान नहीं। दौलत से महल मिल सकता है, लेकिन सुकून और शान्ति नहीं। दौलत का निराशंसभाव से सुपात्र दान करेंगे, तो सबकुछ मिल सकता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 20 अप्रैल 2014

सुसंस्कारों के लिए पांच सूत्र


क्रोध, मान, माया और लोभ; ये राग और द्वेष के परिणाम हैं। राग और द्वेष आर्तध्यान-रौद्रध्यान पैदा करते हैं। आर्तध्यान और रौद्रध्यान से जीवन भटक जाता है, जबकि धर्मध्यान को अपनाकर ही व्यक्ति प्रत्येक परिस्थिति में भी समभाव को धारण कर सकता है। आज धर्मध्यान की जगह धन का ध्यान ज्यादा किया जा रहा है। पैसा साधन जरूर है, पर वह साध्य नहीं है। विडंबना यह है कि आज व्यक्ति धन को ही साध्य मानने की भूल कर रहा है।

वर्तमान युग में प्रायः हर मनुष्य धन इकट्ठा करने की दौड में शामिल हो गया है। वह सिर्फ सांसारिक सुख खोजने में लगा है। भौतिक वस्तुएं एकत्रित करने में जुटा है। हर मनुष्य यही सोचता है कि थोडा अच्छा धन इकट्ठा कर लूं। अपने व्यापार को आगे बढा लूं, फिर मेरे पास सबकुछ होगा। लेकिन, कितना भी धन कमा ले, जिन्हें सुख के साधन मानता है, ऐसी कितनी भी सुख-सुविधाएं जुटा ले, फिर भी मानव उनसे संतुष्ट नहीं होता, क्योंकि तृष्णा कभी जीर्ण नहीं होती, आदमी बूढा हो जाता है, लेकिन इच्छाएं बूढी नहीं होती, आकांक्षा आगे बढती रहती है।

वह मानता है कि धर्म तो कभी भी किया जा सकता है, परमात्मा को तो कभी भी प्राप्त किया जा सकता है, आज मैं अपनी सारी दुनिया भर की जरूरतें पूरी कर लूं। फिर धर्म भी कर लूंगा, लेकिन वह इस बात की तरफ ध्यान ही नहीं देना चाहता कि ऐसा करते-करते ही एक दिन बूढा हो जाएगा, उसका शरीर, तन-मन सबकुछ साथ छोडने लगेगा, उसका शरीर झर्झर हो जाएगा। तब वह धर्म करने के लायक भी नहीं रह पाएगा।

आज का मनुष्य धन जोडने के चक्कर में जिस धर्म को पाकर सब कुछ पाया जा सकता है, उसे छोडता जा रहा है और जिस धन को पाकर इंसान सब कुछ खो देता है, उसको इकट्ठा करने में लग गया है। लेकिन, पांच सूत्र हैं, जिन्हें अपनाकर आप अपनी खुशियों को कायम रखते हुए धार्मिक संस्कार पा सकते हैं-

  1. जीवन में कभी भी खुद की खुशी के लिए माता-पिता को दुःखी न करें।
  2. कम से कम एक घंटा प्रतिदिन जिनवाणी का स्वाध्याय करें। रात्रि में सोने से पहले आत्म-चिंतन, आत्मालोचन और पापों का प्रायश्चित्त अवश्य करें।
  3. धन के पीछे न भागकर अपने परिवार व बच्चों के साथ ज्यादा से ज्यादा समय गुजारें और उन्हें धार्मिक संस्कार दें। उन्हें संतों के सान्निध्य में ले जाएं।
  4. ईश्वर की प्रार्थना नियमित करें। प्रार्थना करने से तनाव कम होता है। नकारात्मक विचार अपने आप दूर चले जाते हैं।
  5. देने में बहुत खुशी मिलती है। इसलिए देने की आदत डालें। धर्म क्षेत्र में शक्ति अनुसार अवश्य व्यय करें, गरीब, असहाय लोगों की सहायता करें।
    -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 19 अप्रैल 2014

सुख के लिए धर्म ही शरणरूप


दुनिया का हर व्यक्ति केवल सुख ही चाहता है। दु:ख से सब दूर भागते हैं। यदि हमें सुखी रहना है तो सबसे पहले धर्म से जुडना होगा। किसी के मन को दुखाना भी पाप है। भागदौड भरी जिंदगी में आज हर व्यक्ति विवेक नहीं रख पाता है। इसलिए पाप बंध को बांधता चला जाता है और पाप बंधने के कारण सुखी नहीं हो पाता। इसलिए सुखी रहने के लिए धर्म की शरण में जाकर धर्म के मर्म को समझना होगा। धर्म की शुरुआत व्यक्ति को सबसे पहले अपने घर से ही करना चाहिए। यदि हम विवेकपूर्ण जीवन जिएंगे तो पाप से बच पाएंगे और जो पाप से बच पाएगा, वही सही मायनों में धर्म से भी जुड पाएगा। मर्यादाओं को भंग करना पाप की श्रेणी में आता है। इसी तरह किसी के मन को दुखाना भी पाप है।

हमें अपने जीवन काल में सुख प्राप्ति के लिए जिनवाणी को आचरण में उतारना होगा, क्योंकि जिनवाणी अमृत रूप है। हमारा सौभाग्य है कि हमें जिनवाणी श्रवण का सुअवसर मिला है। जीवन में यदि सुख प्राप्त करना है तो जिनवाणी के अलावा कोई अन्य मार्ग नहीं है। जिनाज्ञा रूप धर्म आधारित जीवन जीते हुए ही मनुष्य वैराग्य की ओर अग्रसर हो सकता है, अन्यथा तो संपूर्ण जीवन लोभ, मोह, मद, मान और माया में ही व्यतीत हो जाता है और प्रभु आराधना का समय ही नहीं मिल पाता और व्यक्ति संसार से प्रस्थान भी कर जाता है। संसार में रहते हुए वैराग्य के प्रसंग जीवन में आते हैं, फिर भी विरक्ति नहीं होती। इसलिए इसके लिए निरंतर साधना व स्वाध्याय करते रहना चाहिए। स्वाध्याय शास्त्रों का भी और स्वयं का भी। स्वयं का स्वाध्याय अंतरावलोकन, आत्म-चिंतन, आत्म-विश्लेषण और आत्मालोचन व प्रायश्चित्त से होता है।

सुखी और सफल जीवन के लिए भौतिक सुख नहीं, आध्यात्मिक सुख ज्यादा जरूरी है, जो वैराग्य से ही प्राप्त हो सकता है। संसार के सभी जीव सुख चाहते हैं। सभी लोग सुख प्राप्त करने के लिए ही पुरुषार्थ करते हैं, लेकिन सच्चा सुख कहां है, इसका हमें ध्यान नहीं है। जो जीवात्मा अरिहंत परमात्मा की वाणी को आत्मसात करती है, उसकी सभी प्रकार की आधि-व्याधि नष्ट हो जाती है। जिसने आत्मस्वरूप की पहचान कर ली है, वही धर्मध्यान में लीन होगा। इस प्रकार सुख के लिए धर्म ही शरणरूप है।

धर्म की शरण, धर्म-साधना हमें सरल मन बनाने में मदद करती है। साधना के द्वारा साधक पाता है कि उसका मन सरलता को अपनाने लगा है। धार्मिक व्यक्ति आत्महित और सर्वहित के लिए कुटिलता का त्याग करता है और उसके जीवन में सरलता, सहजता, अनुकम्पा, दया, क्षमा, ऋजुता आ जाती है। कुटिलता में महाअमंगल है, जबकि धार्मिक व्यक्ति के जीवन में अवतरित सरलता में महामंगल।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा