शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

सज्जन-दुर्जन का भेद


सज्जन जाने सबकुछ, परंतु आचरण करे योग्य ही; जबकि दुर्जन जाने सबकुछ, परंतु करनी अयोग्य की ही करे। सज्जन और दुर्जन में यह भेद है। अयोग्य की करनी करने वाले के गुण विष्ठा में गिरे हुए फूल जैसे हैं और वे अस्वीकार्य हैं। पहले के समय में कहावत थी, ‘साहुकार धूल में से पैसे न ले’, क्योंकि वह तो धूल धोनेवालेका काम है। उसमें उनकी साहुकारी प्रशंसित होती थी। सेठ साहुकारों के वर्णन ग्रंथकार ने लिखे, वह योग्यता थी इसलिए। अयोग्य की लक्ष्मी की प्रशंसा तो मदांध बनाने के लिए है। उसी प्रकार गुण के लिए भी समझना चाहिए। इसी कारण से उपकारीजन कहते हैं कि श्री जिनागम से विपरीत जिनकी दृष्टि है, वे सारे मिथ्यादृष्टि हैं। उनमें से किसी एक को नहीं लिया जा सकता। कपिलादि सर्व कुदर्शन में और जैन दर्शन में समान भाव रखना, यह सम्यक्त्व का दूषण है। सारे दर्शन यदि युक्तियुक्त हो तो एक ही दर्शन का अनुयायीपन क्यों पकडते हैं? जैन ही क्यों कहलाते हैं? सर्वमतानुयायी कहलवाएं न!

भगवानश्री हरिभद्रसूरिजी महाराजा ने, ‘मुझे वीर के प्रति पक्षपात नहीं और कपिलादि के प्रति द्वेष नहीं है। जिसका वचन युक्तिवाला है, उसे ही ग्रहण करना चाहिए।इस प्रकार कहा है, यह बात सत्य है; परंतु वह परमर्षि नमामि वीरम्कहते हैं, परंतु नमामि कपिलम्ऐसा नहीं कहते। जो लोग उनका एक ही वाक्य लेते हैं और दूसरा नहीं लेते, वे शास्त्र के चोर हैं; ऐसे लोगों को इस महापुरुष के वचन को बोलने का भी अधिकार नहीं है। वाक्य दूसरे का और क्रिया अपनी, यह कैसे चले? श्री हरिभद्रसूरि कौन थे? चौदह विद्या के पारगामी थे, पर जब सत्य समझ में आया कि तुरंत वेदांत छोडकर जैनशासन की शरण आए, परन्तु मैं विचार स्वातंत्र्य को मानने वाला हूं, ‘भले वेद मुझे मान्य नहीं हैं, परंतु उत्तेजन तो दूंगा ही।ऐसा नहीं कहा। कपट मुझे पसंद नहीं है, परंतु व्यक्ति स्वातंत्र्य के लिए उसे उत्तेजन दूंगा।ऐसा साहुकार कहेगा? कभी वह सिद्ध हो जाए और पकडा जाए तो सजा नहीं होगी? भगवानश्री हरिभद्रसूरिजी महाराज ने जैनदर्शन के स्वीकार के बाद सभी विपरीत दर्शनों का खंडन किया है। शास्त्रों में अभव्य का वर्णन है, प्रशंसा नहीं। अभव्यों से अनेक तिर गए।यह तो बनी हुई घटना कही; ‘अभव्य से अनेक तिर सके।यह वस्तुरूप कहा, अभव्य भी अपने अभव्यपने को भीतर रखकर प्रभु-प्रणीत मार्ग को यथार्थ दीखाता है और दूसरों के पास आराधना करवाता है, तो दूसरों को तार सकता है और दूसरे तिर सकते हैं। अभव्य से अनेक तिर गए ऐसा कहा, परन्तु अभव्य को अच्छा कहा है? नहीं ही। क्योंकि, अभव्य के ज्ञान को अज्ञान कहा है। उसके संयम को असंयम कहा है और उसका धर्म वस्तुतः धर्म ही नहीं है, ऐसा भी कहा है। उसके तप की भी प्रशंसा नहीं की है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 30 जनवरी 2014

अक्ल कम और सयानेपन का पार नहीं


द्वादशांगी भी मिथ्यादृष्टि के हाथ में मिथ्याश्रुत बनता है। अनुपयोगी बनती है और उल्टी हानि करने वाली बनती है। जो हीरा तिजोरी को शोभायमान करे, उसे ही मुंह में डाले तो? प्रतिष्ठा जाने के बाद प्रतिष्ठित व्यक्ति पोषक हीरे से अपना घात करता है। जिसकी प्रतिष्ठा जाने लगी, उसे बचाना हो तो उसके हाथ में से हीरे की मुद्रिका और जेब में से पैसे ले लेना और जिस कमरे में वह हो, वहां से कडा, खीला, रस्सी आदि निकाल लेना। अगर नहीं लिया जाए तो उन सभी का वह दुरुपयोग करेगा। उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि में रहे हुए गुणों के लिए आनंद होगा, परंतु वह गुणवान है, ऐसी हवा का प्रचार बाहर नहीं होना चाहिए।

सम्यक्त्व के संबंध में जितनी वस्तु आवश्यक है, उतनी आएंगी तो ही सम्यक्त्व शोभित होगा, अन्यथा ओघदृष्टि से हम सम्यग्दृष्टिऐसा मानने से या कहने से कल्याण नहीं होगा। दृष्टि इतनी दीर्घ बननी चाहिए कि प्रत्येक वस्तु के परिणाम की परख हो सके। स्वयं जान न सके तो जानकार का अनुसरण करना चाहिए। आज तो अक्ल कम और सयानेपन का पार नहीं है। आज के मनुष्यों को किसी अच्छे-समझदार व्यक्ति के परामर्श की भी प्रायः परवाह नहीं है।

मैं तो गुणानुरागी!ऐसा पांच-पचास लोगों में कहे, वहां कोई समझाने जाए तो सारे ही लोग बोल उठें कि यह तो संकीर्ण दृष्टि वाले हैं। गुणराग का बचाव करना भयंकर है। जहां-तहां गुणराग के नाम से लेटने वालों का कभी भला नहीं होता। बालादपि हितं ग्राह्यं’, यह बात मान्य है। विष्ठा में पडे हुए फूल को कभी लोभवशात् या कभी लाचारी से उठाया, साफ करके उपयोग में भी लिया, परंतु कहां से लिया?’ ऐसा यदि कोई पूछे तो कहेंगे कि शौचालय में से?’ कहेंगे तो सुनने वाले आपको क्या कहेंगे? तुरन्त ही कहेंगे कि कृपा करके वह स्थान मत बतलाइए।सुनने वाले को फूल की सुंदरता का असर नहीं होता, परंतु दूसरा असर होता है। बुरे स्थान में पडी हुई वस्तु चाहे जितनी अच्छी हो, परंतु फिर भी उस स्थल की प्रशंसा तो कभी ही नहीं होती। उसकी प्रशंसा जो करे, वे अपने सम्यक्त्व को कलंकित करने वाले हैं। दुनिया में ऐसे अनेक दृष्टांत हैं। बगुले का ध्यान सराहा जाए?

कहावत है कि साहुकार की दो और चोरी करने वाले की चार। खूनी की नीडरता सराही जाए? सैंकडों जीव छटपटाते तडपते हों, फिर भी तलवार फिराए ही जाए, उसकी हिम्मत को सराहा जाए? हिम्मत, चतुराई आदि हैं तो गुण, परंतु अयोग्य में रहे हुए सराहे जाएं? नहीं ही। क्योंकि वेश्या की सुंदरता, चोर की चतुराई और शठ आदि की सफाई सराही जा ही नहीं सकती, क्योंकि, वे गुण भले रहे, परंतु स्थान गलत है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 29 जनवरी 2014

प्रशंसा करनी ही हो तो कैसे करें?


कृष्ण महाराजा ने भी कुत्ते के दांत की प्रशंसा की थी न? कृष्ण महाराजा ने क्या कहा था? ‘कुत्ता भयंकर सडा हुआ और दुर्गंधभरा है, परंतु उसके दांत अच्छे, अनार की कली जैसे हैं।वहां प्रथम वाक्य लक्ष्य में क्यों नहीं लेते? जिसमें कुत्ते की वास्तविक परिस्थिति बतलाने के बाद ही दांत की प्रशंसा की है। वेश्या को रूपवान कहनी हो तो साथ में कहना पडेगा कि रूपवान तो है, परन्तु अग्नि की ज्वाला जैसी है। अनेकों को फंसाने वाली है। पैसों के खातिर जात को (अपने आपको) बेचने वाली है और निश्चित किए गए पैसे न दे तो उसके प्राण भी लेने वाली है। इस प्रकार पूरी बात न करे और सिर्फ रूप की प्रशंसा करे, वह कैसे चले? उससे तो अनेक लोग फंसें उसकी जोखिमदारी किसकी?

होशियार मनुष्य भी धोखेबाज हो तो सिर्फ उसकी होशियारी की प्रशंसा हो सकती है? या साथ में कहना पडे की सावधान रहना! दुल्हे की प्रशंसा करे, परंतु रात्रि-अंधाहो यह बात छिपाएं, कन्या पक्ष कन्या की प्रशंसा करे, परंतु उसकी शारीरिक त्रुटियां छिपाएं तो कईयों के संसार नष्ट होने के उदाहरण हैं न? वहां कहें कि, ‘हम तो गुणानुरागी हैं!यह चलेगा? इतिहास में विषकन्या की बातें आती हैं। वह रूप-रंग से सुंदर, बहुत बुद्धिमान, गुणवान भी अवश्य, परन्तु स्पर्श करे उसके प्राण जाएं! उसके रूप-रंग की प्रशंसा करें, परंतु दूसरी बात न करें तो चलेगा? किंपाक के फल दिखने में सुंदर, परंतु सूंघने से उसका जहर चढे और खाने से प्राण हर ले। उसकी सुंदरता की प्रशंसा की जा सकती है? की जाए तो साथ में प्राण लेनेवाले हैं’, ऐसा कहना पडेगा कि नहीं? ज्ञानियों ने संसार को किंपाक के फल जैसा कहा है, गुणानुरागी को प्रशंसा करते हुए अत्यन्त विवेक रखना पडता है।

सम्यक्त्व की यतनाओं में भी आता है कि श्री जिनेश्वर देव की प्रतिमा भी अन्य तीर्थिकों द्वारा ग्रहण करने के बाद पूजी नहीं जाती, क्योंकि यह अनेक के मिथ्यात्व की वृद्धि का कारण है। बुद्धिमान व्यक्ति कुछ भी मानकर जाता हो, परंतु अन्य जन क्या समझें? वह थोडे ही घर-घर कहने जाएगा? जिस स्थान पर जाने से दुर्बल भावना उत्पन्न हो, वहां न जाएं। इससे मूर्ति के प्रति अराग नहीं है, परंतु उस स्थल के प्रति अराग है। विवेकहीनता पूर्वक जिस किसी के गुण की प्रशंसा को शास्त्रकार चौथा दोष कहते हैं, क्योंकि उससे सम्यक्त्व का संहार और मिथ्यात्व का प्रचार होता है। आज वीतराग देव, सच्चे निर्ग्रंथ गुरु और सच्चे त्यागधर्म के प्रति अनुराग घटता जा रहा है, यह क्यों? कहना ही पडेगा कि अयोग्य स्थल के गुणों की प्रशंसा के प्रचार से। इससे गुण के प्रति वैर निर्मित होता है, ऐसा न मानें। गुण के प्रति प्रेम है, परन्तु हीरों से जडित मोजडी को सर पर नहीं रखा जाता। अच्छी चीज भी अयोग्य व्यक्ति के हाथ में जाए तो अनर्थकारक है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 28 जनवरी 2014

गुणानुराग के नाम पर मिथ्यात्वी की प्रशंसा घातक है


खराब, बुरे के भी गुण की प्रशंसा में हर्ज क्या?’ ऐसा कहने वाले को शास्त्र कहते हैं कि इस प्रकार बोलने वाला गुण का रक्षक, पूजक या प्रेमी नहीं है, अपितु गुण का घातक और खूनी है।उस गुण का मूल्य ही नहीं है। वह स्वयं भी उन्मार्ग पर जाता है और दूसरों को भी उन्मार्ग पर ले जाता है और थोडी बहुत प्राप्ति की हो, वह भी हार जाता है, इस प्रकार उसमें अनेक हानि रही हुई है।

अयोग्य व्यक्ति में रहे हुए किसी गुण को महत्त्व देने के और प्रकाशित करने के परिणाम स्वरूप ही आज सन्मार्ग का संहार हो रहा है। जहां हीरे जडे हुए हों वे सारी ही वस्तुएं सर पर रखी नहीं जाती। मोजडी में हीरे जडे हुए हों तो भी वह पैरों में ही पहनी जाती है, सर पर रखी नहीं जाती। फिर भी गुणानुराग के नाम से अज्ञानियों की आज ऐसी ही दशा है। गुणानुराग की बातें करने वाले ऐसे लोग, प्रमोद भावना के मर्म को नहीं समझ सके हैं।

प्रमोद भावना का हेतु गुणप्राप्ति का है। गुण देखकर आनंद होना, गुणवान के गुण ग्रहण करने की इच्छा होना, अन्य में रहे हुए गुण कब प्राप्त हों, यही भावना रहना, यह प्रमोद भावना का कार्य है। परंतु उस गुणवान व्यक्ति की प्रशंसा तो तभी ही हो, जबकि वह व्यक्ति शुद्ध हो या शुद्ध का ही पक्षपाती हो, यानि की मिथ्यात्व से दूषित न हो। आज गुण के नाम से, अयोग्य व्यक्ति की प्रशंसा के परिणाम से सज्जनों को हानि हो रही है, इतना ही नहीं, अपितु गुण का ही नाश हो रहा है। सम्यग्दर्शन के इस चौथे भयंकर दूषण के प्रताप से आज शासन अनेक प्रकार से छिन्न-भिन्न हो रहा है।

गुण के राग को बढाने से पहले गुण, गुणाभास और अवगुण को पहचानने चाहिए। कितने ही गुण ऐसे होते हैं कि जो गुणरूप में दिखाई देने पर भी परिणाम में नाशक होते हैं। सम्यग्दृष्टि को इतना विवेकी बनने की आवश्यकता है कि अच्छी करनी के द्वारा भी अयोग्य व्यक्ति कभी पूजित न हो जाए; अयोग्य व्यक्ति अच्छे दिखावे से भी कभी सम्यग्दृष्टि को ठग न जाए। सयाने और चतुर तथा कुशल व्यापारी को धोखेबाज व्यापारी या ग्राहक चाहे वैसे आडंबर से भी ठग नहीं सके। बडी-बडी बातों से, या सोनैया के दिखावे से बुद्धिमान व्यापारी प्रभावित नहीं होता। ठगा नहीं जाता। पूर्वकाल में वस्तु की परीक्षा इस ढंग से होती थी।

गुण भी स्थान में शोभा देते हैं। अयोग्य स्थान में रहे हुए गुण के लिए हृदय में आनंद भले हो, परन्तु उस व्यक्ति का महत्त्व बढाया नहीं जाता। गुण अवश्य प्रशंसा करने योग्य, पूजने योग्य, परंतु अयोग्य स्थान पर रहा हुआ गुण प्रशंसा योग्य नहीं रहता। हृदय में रखा जाए तो रखें, परंतु प्रशंसा तो की ही नहीं जाती। इतना होते हुए भी पूरा समझे बिना कहते हैं कि हम तो गुणानुरागी हैं! यह दुर्भाग्यपूर्ण है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 27 जनवरी 2014

गुणों में ही आनंद हो, गुणाभास में नहीं


देवतत्त्व के विषय में देखें तो श्री अरिहंत देव जैसे दुनिया में कोई देव नहीं हैं। गुरुतत्त्व के विषय में सोचें तो श्री जैनशासन में जो सुसाधु हैं, वे दुनिया के किसी भाग में नहीं हैं और धर्मतत्त्व के विषय में कोई भी दर्शन, श्री जैनदर्शन द्वारा प्ररूपित धर्मतत्त्व के साथ स्पर्द्धा कर सके वैसा नहीं है। विश्व में एक श्री जैनदर्शन ही सर्वश्रेष्ठ है।यह सत्य कहीं भी और कभी भी सिद्ध हो सकने योग्य है। अतः गुणानुराग के नाम से परम पुण्योदय से प्राप्त हुआ श्री जैनशासन हाथ से छूट न जाए, इसकी पूरी सावधानी रखनी चाहिए। इसकी जितनी उपेक्षा, उतना आत्महित का घोर नाश है, यह कभी भी भूलना नहीं चाहिए।

जो गुण, योग्य स्थान में हों उनकी प्रशंसा वाजिब है; परंतु जो गुण अयोग्य स्थान में हों, वे गुण गुणाभास हैं, उस कारण से उनकी प्रशंसा, यह सम्यक्त्व में दूषण है। श्री उपाध्यायजी महाराज कहते हैं कि मिथ्यामती के गुण की प्रशंसा से उन्मार्ग की पुष्टि होती है।भगवानश्री हेमचंद्रसूरिजी महाराज भी कहते हैं कि, ‘श्री जिनागम से विपरीत दृष्टि जिनकी है, वे सब मिथ्यादृष्टि आत्माएं हैं और उनकी प्रशंसा यह सम्यक्त्व में दूषणरूप है।जिनकी श्री जिनेश्वरदेव के आगम के अनुरूप दृष्टि नहीं है, उनमें कोई गुण नहीं होता ऐसा नहीं, वहां अच्छी वस्तु नहीं होती, ऐसा नहीं, उसकी अच्छी करनी की अनुमोदना न हो, ऐसा नहीं, परंतु उस गुण, अच्छी वस्तु या अच्छी करनी को लेकर मिथ्यामती की प्रशंसा नहीं होती।

चार भावना में दूसरी भावना प्रमोद भावना है। प्रथम मैत्री, दूसरी प्रमोद, तीसरी कारुण्य और चौथी माध्यस्थ भावना। जहां-जहां गुण देखे जाएं, वहां उन्हें देखकर आनंद हो, यह प्रमोद भावना है। परंतु गुण के रूप में वे बाहर कब रखे जाएं? जिनमें गुण दिखाई दिया, उनकी दृष्टि सम्यग् होने के पश्चात ही। गुण देखकर आनंद हो, यह प्रमोद भावना है, परन्तु अयोग्य स्थल में रहे हुए गुण की प्रशंसा, यह सम्यक्त्व को दूषित करने वाली है। गुण देखकर आनंद होना, यह तो सम्यक्त्व का पोषण करने वाला है, परंतु अयोग्य स्थल के गुण की प्रशंसा सम्यक्त्व को दूषित करती है। प्रमोद भावना और सम्यक्त्व का चौथा दोष, इन दोनों का भेद अत्यंत चिंतनीय-मननीय है। सम्यग्दृष्टि आत्मा को जहां-जहां गुण दिखाई दे, वहां-वहां आनंद हो ही, गुण देखकर तो उसकी आत्मा उल्लास पाए, आनंद का प्रादुर्भाव भी हो, रोम-रोम विकस्वर भी हो, उसकी प्रसन्नता की सीमा भी न रहे, परंतु वह गंभीर इतना अधिक हो कि मुंह से बोलने से पूर्व सौ बार विचार करे। सभी के गुण हृदय में धारण कर रखे, गुण देखकर निरवधि आनंद भी हो, परंतु प्रशंसा तो योग्य गुणवान की ही करे। जैसे-तैसे और जिस किसी के गुण की प्रशंसा करने वाला तो परिणाम में गुण का घातक ही बनता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 26 जनवरी 2014

सम्यग्दृष्टि के वेष में मिथ्यामत के पुजारी


मिथ्यामतियों की प्रशंसा के परिणाम से सम्यक्त्व का संहार और मिथ्यात्व की प्राप्ति सहज है। गुण की प्रशंसा करने में क्या हर्ज है?’ इस प्रकार बोलने वालों के लिए यह वस्तु अत्यंत ही चिंतनीय है। गुणानुराग के नाम से मिथ्यामत एवं मिथ्यामतियों की गलत मान्यताओं की मान्यता बढ जाए, ऐसा करना यह बुद्धिमत्ता नहीं है, अपितु बुद्धिमत्ता का घोर दिवाला है। घर बेचकर उत्सव मनाने जैसा यह धंधा है। गुण की प्रशंसा’, यह सद्गुण को प्राप्त और प्रचारित करने के लिए ही उपकारी पुरुषों ने प्रस्तावित की है। उसका उपयोग सद्गुणों के नाश के लिए अथवा तो सद्गुणों को ढांक (दबा) देने के लिए करना, यह सचमुच ही घोर अज्ञानता है।

सम्यक्त्व के अर्थियों को चाहिए कि ऐसे अज्ञान का वे अवश्य नाश करें। ऐसी उल्टी प्रवृत्ति सम्यग्दर्शन के पुजारी कर ही नहीं सकते। जो लोग ऐसी उल्टी प्रवृत्ति करते हैं, वे सम्यग्दर्शनी के वेष में रहते हुए भी हृदय से मिथ्यादर्शन के ही पुजारी हैं, यह निःसंशय बात है। ऐसी आत्माएं अपना अहित करने के साथ अनेक भद्रिक आत्माओं के हित का संहार करने वाली घोर प्रवृत्ति करती है। आज के कृत्रिम समानतावाद के प्रचार ने इस आवश्यक भावना का ही संहार किया है। मर्यादा मात्र का हेतुपूर्वक नाश करने के लिए ही आज की सुधारक हिलचाल है। ऐसी हिलचाल के योग से ही आज यह भयंकर दोष प्लैग की भाँति फैल रहा है, इस दोष के नाश के लिए अभी नहीं तो अवसर आने पर भी समझदारों को भगीरथ प्रयत्न करने ही पडेंगे। जो प्रयत्न करने ही पडने वाले हैं, वे आज से नहीं हो रहे, यह दुर्भाग्यपूर्ण है, परंतु समझदार माने जाने वालों की भी आंखें न खुलें, वहां उपाय क्या?

आज ढोंग, दम्भ, प्रपंच इतना बढा है कि जिसकी सीमा ही नहीं। यहां कुछ और, वहां कुछ और! वाणी, वचन और बर्ताव में मेल ही नहीं। यह आज की दशा है। इसीलिए ही मैं कहता हूं कि हम गुण के रागी अवश्य हैं, परन्तु गुणाभास के तो कट्टर विरोधी ही हैं।हम जहां त्याग देखें, वहां हमें आनंद अवश्य हो, परंतु वह त्याग यदि सन्मार्ग पर हो तो ही उस त्याग के उपासक की प्रशंसा करें, अन्यथा सत्य को सत्य के रूप में जाहिर करें और उसके लिए समय अनुकूल न हो तो मौन भी रहें। कौनसा त्यागी प्रशंसापात्र?’ यह बात गुणानुरागी को अवश्य सोचनी चाहिए। आज इस बात को नहीं सोचने वाला आसानी से गुणाभास का प्रशंसक बन जाए वैसा माहौल है।

सम्यग्दृष्टि की एक नवकारशी को मिथ्यामतियों का हजारों वर्ष का तप भी नहीं पहुंच सकता, यह एक निर्विवाद बात है। इसलिए मैं अनुरोध करता हूं कि कैसी भी स्थिति में प्रभुमार्ग से हटा नहीं जाए, उसकी सावधानी रखना सीखें।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

गुणीजनों की निंदा और दम्भियों की पूजाः तौबा-तौबा!


यद्यपि शंका, कांक्षा और वितिगिच्छा में कमी है, फिर भी वस्तु का विवेक नहीं कर सकने वालों को सम्यग्दर्शन के चौथे दोष मिथ्यामतियों के गुणवर्णन और पांचवें दोष मिथ्यामतियों के परिचय में उलझते देर नहीं लगती। बहुत-से ऐसे लोग हैं कि गुणानुरागके नाम से मिथ्यादृष्टि की प्रशंसानामक चौथे दोष में फंस जाते हैं। गुणानुरागके स्वरूप को नहीं जानने वाले आज गाढ मिथ्यामतियों की प्रशंसा का जोर-शोर से प्रचार कर रहे हैं और वैसा करके वे स्व-पर के सम्यक्त्व को लूटने का धंधा चला रहे हैं। ऐसों के प्रताप से आज सच्ची गुणी आत्माएं निन्दित हो रही हैं और दंभी लोग पूजे जा रहे हैं। उन पापात्माओं का आज गुणानुरागके नाम से कोई कम उधम नहीं मच रहा है। गुणी के गुण को देखकर जिसे आनंद न हो, वह गुणानुरागी नहीं है।ऐसे वचनों का आधार लेकर घोर उधम मचाने वाले ऐसा कहते हैं कि जिस गुण से आनंद हो, उसकी प्रशंसा करने में नुकसान क्या है?’ परंतु इस प्रकार पूछने वालों को पता नहीं है कि जितनी वस्तु अनुमोदना करने योग्य हो, वे सारी ही सराहने योग्य नहीं होती है।जिसे देखकर हृदय में आनंद हो, उसे भी बाहर कहा नहीं जा सके, ऐसी अनेक वस्तुएं हैं।

जितनी वस्तुएं अनुमोदनीय हैं, उन सभी की प्रशंसा होनी ही चाहिए, ऐसा नियम नहीं है। बहुतों के गुण ऐसे भी होते हैं कि जिन्हें देखकर आनंद होता है, परन्तु उन्हें बाहर बतलाए जाएं तो बतलाने वाले की प्रतिष्ठा को भी धब्बा लगे। चोर का दान, उसकी भी कहीं प्रशंसा होती है? दान तो अच्छा है, परन्तु चोर के दान की प्रशंसा करने वाले को भी दुनिया चोर का साथी समझेगी। दुनिया पूछेगी कि, ‘अगर वह दातार है तो चोर क्यों? जिसमें दातारवृत्ति हो, उसमें चोरी करने की वृत्ति क्या संभव है? कहना ही पडेगा कि, ‘नहीं। उसी प्रकार क्या वेश्या के सौंदर्य की प्रशंसा हो सकती है? सौंदर्य तो गुण है न? वेश्या के सौंदर्य की प्रशंसा करने वाला सदाचारी या व्यभिचारी? वह गुण अवश्य है, परन्तु कहां रहा हुआ? विष्ठा में पडे हुए चंपक के पुष्प को सुंघा जा सकता है? हाथ में लिया जा सकता है? इन सब प्रश्नों पर बहुत-बहुत सोचो, तो अपने आप समझ में आएगा किखराब स्थान में पडे हुए अच्छे गुण की अनुमोदना की जा सकती है, परंतु बाहर नहीं रखा जा सकता।खराब व्यक्ति में रहे हुए गुण को गुणके रूप में बाहर रखा जाए, परन्तु उस व्यक्ति के गुण के रूप में बाहर न रखा जाए।इससे स्पष्ट होगा कि जो लोग गुणानुराग के नाम से भयंकर मिथ्यामतियों की प्रशंसा करके मिथ्यामत को फैला रहे हैं, वे घोर उत्पात ही मचा रहे हैं और उस उत्पात के द्वारा अपने सम्यक्त्व को फना करने के साथ-साथ अन्य के सम्यक्त्व को भी फना करने की ही कार्यवाही कर रहे हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 23 जनवरी 2014

श्रद्धा में संदेह नहीं होता!


धर्म कौनसा सुख दे, कब दे, किस प्रकार सेवा करें तो उसमें सुख मिले, यह निश्चित करने की अत्यन्त ही आवश्यकता है। प्रभु शास्त्र तो चाहे जैसी अवस्था में भी धर्मी को सुखी ही करते हैं। यह सब कहने का कारण यह है कि धर्म करने वाले को अपनी मनोवृत्ति बदलनी पडेगी। आज के संसार-पिपासु तो कहते हैं कि पूजा करे और लक्ष्मी जल्दी क्यों न मिले?’ पूर्वकाल में तीव्र अंतराय बांधा है और तिलक करने से जल्दी लक्ष्मी मिलती है, ऐसा वे लोग मानते हैं, इतने भर से ही कैसे मिले? परंतु उन बेचारों को कहां पता है कि जब तक अंतराय टूटे नहीं, अशुभ का उदय हटे नहीं, तब तक धर्म वास्तविक रूप में बाह्य सुख की सामग्री दे नहीं सकता।

अनाथी मुनि को उपसर्ग-परीषह आए ही क्यों? गृहस्थ कैसा भी हो फिर भी पाप में बैठा है, परंतु मुनि तो धर्मी ही है न? भगवान श्री महावीरदेव को भी उपसर्ग-परीषह आए हैं, यह जानते हो न? श्री ढंढणकुमार मुनि एवं श्री मेतार्यमुनि आदि को भी उपसर्ग आए हैं न? यद्यपि तीव्र धर्म तथा तीव्र पाप का फल तुरंत भी मिलता है, परंतु अभी तो मैं इसलिए यह समझा रहा हूं कि जिससे धर्मक्रिया करते हुए, ज्ञानी प्ररूपित धर्म के फल के प्रति शंका न हो, धर्मवृत्ति विचलित न हो और परिणाम में श्री जिनेश्वर देव के मार्ग की श्रद्धा हटे नहीं। प्राणीमात्र को दोषों से बचाने का प्रयत्न करणीय है।

विचिकित्सा दोष सामान्य कक्षा के जीव में तुरन्त आता है। धर्म के स्वरूप को नहीं समझने वाले में शंका और कांक्षा की भांति विचिकित्सा भी बात-बात में आ जाती है।

उसे तो वीतराग की वीतरागता में और साधु की साधुता में भी शंका होती है। उसके प्रताप से बहुत से कहते हैं कि सेवा न फलित हो तो साधु काहे के? हम पैरों पडें, भक्ति करें, पैर दबाएं और हमारी दरिद्रता दूर न हो तो साधु काहे के? रोगी के पास साधु को लाएं और दर्दी अच्छा न हो सके तो वे साधु काहे के?’ सोचिए कि यह किस कारण से बोला जाता है? कहना ही होगा कि धर्म के स्वरूप की सही समझ नहीं होने से ही।

ज्ञानी पुरुष तो कहते हैं कि श्री वीतराग की सेवा कर के वीतराग बनना हो तो आत्मा के ऊपर के राग के बंधन हटाओ, उन तारक की भक्ति करो और उन तारक की आज्ञा जीवन में उतारो! आज्ञा का पूर्ण पालन हो तो कर्मक्षय हो और कर्मक्षय हो तो वीतरागता इत्यादि अपने आप ही प्रकट हो। आदर्शों को लाने के लिए श्रद्धा संपन्न बनना चाहिए। देव, गुरु, धर्म के प्रति अविचल श्रद्धा तब ही रहती है कि जब देव, गुरु और धर्म को उनके वास्तविक स्वरूप में समझा जाए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 22 जनवरी 2014

सांसारिक कामना से धर्म न करें?


सम्यग्दर्शन का तीसरा दोष विचिकित्सा भी ऐसा है कि किसी भी धर्मक्रिया में चित्त की स्थिरता को टिकने नहीं दे। फल के अर्थी जीवात्मा को फल की प्राप्ति के विषय में हो रही शंका, धर्म की आराधना में चित्त को विचलित किए बिना रहे ही कैसे? फल में चित्त-विचलित करने वाले इस विचिकित्सा नाम के दोष के योग से धर्मक्रिया में एकाग्रचित्तता नहीं रह सकती और बात भी सच्ची ही है कि जहां फल की प्राप्ति में शंका हो, वहां क्रिया में स्थिरता आए कैसे?

इसी कारण से परमोपकारी ज्ञानी कहते हैं कि जगत के किसी भी फल की अपेक्षा के बिना धर्म करना चाहिए। सांसारिक (भौतिक) फल की आशा हुई कि धर्म डिगा समझें, क्योंकि उस आशा के परिणाम स्वरूप धर्म-क्रियाओं पर अविश्वास आता है, शास्त्रवचनों पर अप्रतीति होती है, धर्मक्रिया में एकाग्रचित्तता आ नहीं सकती और चित्त में विप्लव हुए बिना भी नहीं रहता।

इन सब तथ्यों के आधार पर समझें कि दुनिया के सुख की इच्छा से धर्म नहीं करना चाहिए।यदि उस प्रकार धर्म किया, तो संदेह अवश्य होगा। धर्म करने से इस लोक में कष्ट नहीं होता, परलोक में शांति मिलती है।ऐसा शास्त्र ने कहा है, इस आधार पर इस लोक में कष्ट नहीं होता’, इस वचन को ही पकडकर, धर्म करने लगा और पूर्व के अशुभोदय से कदाचित् कष्ट आया कि तुरन्त मन में विचार होगा कि धर्म से इस लोक का कष्ट तो मिटता नहीं है, फिर परलोक की तो बात ही क्या?’ ‘दुःख क्यों आता है’, इसका विचार किए बिना धर्म पर सीधा ही दोषारोपण करे और कह दे कि जो धर्म इन कष्टों को भी दूर नहीं करता, वह फिर राज्य, रिद्धि, स्वर्ग और मुक्तिकिस प्रकार दे सकता है?”

पुद्गलानंदी आत्माएं अशुभ के उदय से आए हुए कष्टों को भी धर्म के नाम ही चढाएं तो कोई आश्चर्य नहीं। ऐसी आत्माएं ऐसा ही मानती है कि चाहे जैसा पाप किया हो तो भी भगवान को मात्र हाथ जोडें कि कष्ट जाना ही चाहिए।परंतु ऐसे किस प्रकार जाए? सचमुच में धर्म किसलिए और किस प्रकार सेवन करना चाहिए, यह समझ में न आए और फल की शंका होती ही रहे, तब तक विचिकित्सा दोष बैठा ही है और उस दोष की हाजिरी में आराधना में अंतस् की एकाग्रचित्तता होना, यह प्रायः असम्भव है। ऐसे धर्मी लोग बहुत से हैं कि जो नित्य धर्म करें, परन्तु थोडी-सी विपत्ति आए कि तुरन्त उनके मन में विचार आ जाए कि, ‘धर्म में क्या है?’ इसका कारण ही यह है कि, ‘उन्होंने शुभ परिणाम के अभाव से धर्मक्रिया का ध्येय संवर और निर्जरा और परिणाम में मुक्ति नहीं रखकर दुनियादारी ही रखी थी।ऐसा उल्टा ध्येय रखे, उसका परिणाम भी वही आए, इसमें आश्चर्य भी क्या? धर्म करने वाले का ध्येय यह नहीं होना चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा