शनिवार, 30 नवंबर 2013

माता-पिता के प्रति पुत्र का कर्तव्य


वर्तमान समय के पुत्र माता-पिता की कैसी सेवा करने वाले और कैसे भक्त हैं, यह तो प्रत्येक विवेकी व्यक्ति समझ सकता है। शास्त्रों का तो कथन है कि संसार में बसने वाली आत्मा यदि क्षुद्र स्वार्थ के वशीभूत होकर अपने माता-पिता की अवज्ञा करे तो उसके समान कोई दुष्ट नहीं है।

माता-पिता की आज्ञा पर अपनी अनेक पाप पूर्ण लालसाओं को ठोकर मारने वाले कितने पुत्र हैं? जिनेश्वर भगवान की आज्ञा पालन करने वाले विवेकी सुपुत्र अपने माता-पिता की आज्ञा की अवहेलना कर के एक कदम भी आगे नहीं चलते थे। आज तो लोभ के कारण, धन के लिए माता-पिता की आज्ञा का उलंघन करने वालों की कमी नहीं है। भाई को यदि पिता की सम्पत्ति में हिस्सा नहीं देना हो तो तुरन्त वकील से सम्पर्क करते हैं ताकि भाई को नोटिस दिया जा सके। पडौसी भी ऐसे होते हैं कि जो यही परामर्श देते हैं कि यह भाई तो ऐसा ही है, इसे तो मजा चखाना ही चाहिए।आजकल तो अपने लालच के लिए बेटे मां-बाप को भी नोटिस दे देते हैं। और मां-बाप हैं कि बच्चों के प्रति मोह में अटके रहते हैं। अरे, ऐसा जीवन आने से पहले ही संसार त्याग कर बाहर निकल जाएं तो क्या आपत्ति है? जिन्हें दया आती हो उन्हें ऐसे माता-पिता की आज्ञा का पालन नहीं करने वाले अयोग्य एवं कुपुत्रों से आज्ञा मनवानी चाहिए। संसार का मौज-शौक त्याग कर संयम अंगीकार करें, वही दया और वही आज्ञा की बात है।

माता-पिता की सेवा किस तरह करनी चाहिए और कैसी करनी चाहिए? उन्हें आप स्वयं स्नान कराएं, उन्हें खिलाकर खाएं, उन्हें नींद आने पर आप सोएं, उनसे पहले आप जग जाएं, जब वे सोएं तब उनकी चरण-सेवा करें, उठते समय भी उनकी चरण-सेवा करें, मधुर स्वर में उन्हें जगाएं और तुरन्त चरणों में नमस्कार करें। क्या यह सब आप करते हैं? आप तो यदि खाने की कोई उत्तम वस्तु लाते हैं, तो स्वयं खा जाते हैं और ऊपर से यह कहते हैं कि उस बुड्ढे को क्या खिलाना है?’ माता-पिता के लिए राज्य-सिंहासन को ठोकर मार देने के भी शास्त्रों में दृष्टांत हैं। माता-पिता चौबीसों घण्टे धर्म की आराधना कर सकें, ऐसी व्यवस्था पुत्रों को अवश्य करनी ही चाहिए। यहां जो बात है वह आत्म-कल्याण संबंधी है। यदि मोह घटाना हो तो ही माता-पिता से बिछुडने की बात है। स्वार्थ वश माता-पिता की आज्ञा का उलंघन कर के अलग रहने वाले पुत्र तो कृतघ्नी ही होते हैं। शास्त्रों में तो पुत्र के लिए कर्तव्य बताया गया है कि स्वयं सुमार्ग पर चलकर माता-पिता को भी सुमार्ग की ओर, धर्म की ओर मोडे तो ही उनके उपकार का बदला चुकाया जा सकता है। माता-पिता मोहवश पुत्र को सुमार्ग पर जाने से रोके तो एक बार उनकी अवज्ञा कर के भी स्वयं सुमार्ग पर दृढ हों और फिर उन्हें भी सुमार्ग की ओर उन्मुख करें। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

दुःख के कारणों की गवेषणा


विश्व के समस्त प्राणी केवल सुख चाहते हैं। दुःख विश्व में किसी भी प्राणी को इष्ट नहीं है। छोटे-बडे सभी जीव सुख ही प्राप्त करना चाहते हैं। ज्ञानी फरमाते हैं कि जगत के जीव दुःखी हैं’, उसका अर्थ यह नहीं है कि वे सुख की इच्छा नहीं करते। ज्ञानियों ने फरमाया है कि विश्व के प्राणी दुःखी हैं, फिर भी चाहते सुख ही हैं।यदि सुख की इच्छा न होती तो विश्व में किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति न होती। चौबीसों घण्टों की प्रवृत्ति सुख के लिए ही है। मन की भावना भी सुख प्राप्ति की है, बातें भी सुख प्राप्ति के लिए ही होती हैं और विश्व के समस्त प्राणियों की दौडधूप भी सुख प्राप्ति के लिए ही हो रही है।

जिस क्रिया में मन, वचन और काया तीनों एक हो जाते हैं, वह कार्य अवश्य सिद्ध होता है। यह सिद्धान्त मिथ्या नहीं है। परन्तु ध्यान यह रखना है कि मन, वचन और काया एक होने पर भी सिद्धि तो तभी प्राप्त होगी, जब वह एकात्मता कार्य-साधक दिशा में हुई हो। यदि मन-वचन-काया की एकात्मता कार्य-विघातक दिशा में हुई हो तो परिणाम धारणा के विपरीत ही होगा, यह स्वाभाविक है।

सुख के लिए मन, वचन और काया का मत समान है फिर भी विश्व में हम देखते हैं कि इच्छा होते हुए भी वह सुख किसी को भी प्राप्त नहीं होता। उसका कारण क्या है, इसकी गवेषणा होनी चाहिए कि नहीं? यदि कार्य सिद्ध न हो तो यह अवश्य मानना पडेगा कि साधन का अभाव रहा।सभी साधन प्राप्त हों और कार्य सिद्ध न हो, यह हो ही नहीं सकता। इसलिए विचारणीय है कि कमी कहां रही? संसार ने सुख की कल्पना किस वस्तु में की? किसी ने किसी एक पदार्थ की प्राप्ति में सुख की कल्पना की तो किसी ने दूसरे पदार्थ की प्राप्ति में सुख की कल्पना की। ये सब पदार्थ कैसे हैं? ये सब अनित्य, अस्थिर और अपने नहीं हैं, ऐसे हैं। ऐसे पदार्थों से सुख की आशा करेंगे तो सफलता कैसे मिलेगी?

संसार के नाशवान पदार्थों के योग से सच्चा सुख कभी संभव ही नहीं है। अतः सुख और दुःख का वास्तविक कारण ढूंढते समय ज्ञानियों ने समस्त शास्त्रों का मंथन कर एक ही निष्कर्ष निकाला है कि दुःखं पापात् - सुखं धर्मात्’, पाप से दुःख और धर्म से सुख मिलता है। इसमें कोई मतभेद नहीं है। इसलिए धर्म का वास्तविक स्वरूप और पाप के वास्तविक कारणों को समझना जरूरी है। जिस देश में धर्म के संस्कार नहीं, उत्तम विचार करने के साधनों का अभाव है, उस देश में उत्पन्न लोग यदि यों ही मर जाएं तो-तो वे क्षम्य हैं, लेकिन हमारे इस आर्य देश में तो महापुरुषों ने प्रत्येक वस्तु पर सम्पूर्ण एवं हृदयंगम प्रकाश डालने वाले लाखों ग्रन्थ लिखे और करोडों श्लोकों की रचना की है। यहां बिना सुख प्राप्त किए मरने वालों के लिए तो यही कहा जा सकता है कि अनाज होते हुए भी अकाल हो गया

कोई यदि पूछे कि जो सुख आप चाहते हैं, उसके साधनों की प्राप्ति के लिए चौबीस घण्टों में से आप कितने घण्टे विचार करते हैं?’ तो आपके पास इसका क्या उत्तर है? आज तो बारह घण्टे के दिन में चौदह घण्टे तक आरम्भ का प्रमाद (व्यापार-धंधा आदि) और बारह घण्टे की रात में सोलह घण्टे तक नींद का प्रमाद होता है। ऐसे जागृति के युग में सुख का विचार करने के लिए घण्टों का समय कहां से लगाएं? ऐसा कहने वाले भी मिलते हैं। घण्टे तो क्या मिनट भी नहीं हैं। फिर सच्चे सुख की आशा कहां से की जा सकती है?

आपने जिन्हें सुख के साधन माना है और जिनकी प्राप्ति आदि के प्रयत्न में आप उलझे हुए हैं, उनमें सुख देने की और वह भी आप हृदय से चाहते हैं, वैसा दुःख-रहित, पूर्ण और स्थाई सुख देने की शक्ति है या नहीं, इतना तो सोचिए!आप रात-दिन परिश्रम कर रहे हैं, यह तो स्पष्ट दिख रहा है, तो फिर यह सब परिश्रम आप बिना सोचे-समझे ही कर रहे हैं क्या? कितनी विचित्र दशा है? नित्य आप कितने घण्टे कार्य करते हैं? जन्म-भूमि, गांव, नगर, देश, जाति, परिवार, स्नेही, संबंधी सबको छोडकर आप कहां-कहां नहीं भटकते? यह सब आप सुख-प्राप्ति के लिए ही कर रहे हैं न? वर्षों से कार्य कर रहे हैं; तो भी आप सीने पर हाथ रखकर कह सकते हैं कि आपको शान्ति है क्या?’

यदि शान्ति नहीं है तो फिर हमें ज्ञानियों द्वारा दिखाए गए साधनों के विषय में विचार करना चाहिए। हम साधुओं ने भी आपकी तरह ही जन्म-भूमि, गांव, नगर, देश, जाति, परिवार, स्नेही, संबंधी सबको छोडा है, वाहनों में बैठना नहीं, पैदल चलना आदि; लेकिन दुःखी होने के लिए नहीं, सुखी होने के लिए। आपका रास्ता सही है या हमारा रास्ता? आपने किसी अन्य प्रवृत्ति में सुख देखा हो तो बता दीजिए, तो हम लौट चलें, वर्ना आप लौटिए! दो बातों में से एक बात करिए! या तो हमारी दिशा बदलिए या आप अपनी दिशा को बदलिए! आप इतने वर्षों से लगे हुए हैं, फिर भी आपको शान्ति नहीं है, तो फिर हम कहेंगे कि हमने अपनी बुद्धि का सही उपयोग किया है। हमने संसार छोडकर बुद्धिमानी की है।संसार का त्याग नहीं करने वालों ने कोई लाभ नहीं उठाया, यदि यह निर्णय हो जाता है तो हमने जो किया वह योग्य है, फिर उसका विश्व भर में प्रचार होना चाहिए, इसमें कोई दोष नहीं है। साधुपन का क्या अर्थ है? मेरा-तेरा का त्याग करके संसार-त्यागी बनकर केवल आत्म-कल्याण के विचार आदि में लीन रहना ही साधुपन है। आप जिन संयोगों में, जिन कार्यों में और जिन प्रवृत्तियों में प्रवृत्त हैं, उनमें सुख नहीं है, यह मैं कहता हूं, क्योंकि शास्त्र भी यही फरमाते हैं कि कोई सुखी नहीं है, सभी दुःखी हैं। संसार त्याज्य है और अनंतज्ञानियों के आदेशानुसार संयम की साधना में प्रवृत्त होना ही हितकर है। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 28 नवंबर 2013

करणीय-अकरणीय का विवेक


हेय (अकरणीय) का त्याग और उपादेय (करणीय) का आचरण; इन दो मुख्य गुणों को स्थाई करने के लिए अन्य दो वस्तुओं की आवश्यकता होगी। ये दो वस्तुएं हैं- जो प्रशंसा के योग्य हैं, उसी की प्रशंसा करनी और श्रवण-पठन योग्य हो, उसी को सुनना-पढना। लेकिन, आज तो चारण-भाटों सा धंधा हो गया है। चाहे जैसे व्यक्ति के गुण गाना, उसकी वाहवाही करना, यह धंधा हो गया है। आज पागल को समझदार और मूर्ख को बुद्धिमान, झूठे को सच्चा और सच्चे को झूठा, चोरों को दानवीर, दुराचारियों को धर्मात्मा आदि कहने का भारी पापाचार बढ गया है। जिसमें गुण हों, उसके समक्ष तो नतमस्तक हो जाना चाहिए; गुणी व्यक्ति के चरणों की धूल भी सिर पर चढा लो; परन्तु, जैसे सौन्दर्य और स्वच्छता गुण हैं, फिर भी क्या वैश्या के सौन्दर्य की प्रशंसा होगी? नहीं होगी। जिस गुण का परिणाम उत्तम हो, उसी गुण की प्रशंसा होगी और जिससे भविष्य में आत्मा को लाभ हो सके, ऐसे गुणों की प्रशंसा होगी। इनके अतिरिक्त अन्य गुणों की प्रशंसा नहीं होगी।

पापी के प्रशंसक पाप-मार्ग को प्रशस्त करने वाले हैं, इसलिए जो प्रशंसा के योग्य हों, उन्हीं की प्रशंसा करनी चाहिए। अयोग्य व्यक्तियों की प्रशंसा करने से आज जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गई है, उसे सुधारने में कई वर्ष लग सकते हैं। वह भी परिश्रम करेंगे तो होगा। चाहे कैसा ही विरोध हो, तब भी उचित प्रयास तो करना ही पडेगा। उचित प्रयास करना सबका कर्तव्य है और कर्तव्य पूर्ण करना संभव है, फिर भी कर्तव्य-पथ से च्युत हो जाएं तो प्राप्त मानव-जीवन हमने निरर्थक ही खोया, ऐसा माना जाएगा।

इसी प्रकार गुणों को स्थिर रखने के लिए सुनने-पढने योग्य हो, उसी को सुनें और पढें। आज सार्वजनिक स्थानों और चौराहों पर बै-सिर-पैर की इतनी बातें चलतीं हैं कि उन सबको सुनने से हानि ही हानि है। सुनने योग्य न हो, वह सुनना ही नहीं, यदि यह नियम हो जाए तो बुरों की प्रशंसा नहीं होगी, बुरे काम रुक जाएंगे और त्यागने योग्य को त्याग दिया जाएगा। अयोग्य बातें करने वालों के फंदे में फंस गए तो आपका उद्धार होने की आशा नहीं है। परन्तु, आज कान तेज हो गए हैं, श्रवणेन्द्रिय तीव्र हो गई है, अतः बुरी बातें भी सुने बिना नहीं रहा जाता। आज अपठनीय पढकर और नहीं श्रवण करने योग्य सुनकर अनेक पाप, अनेक कारस्तानियां हो रही है। एक ओर तो ऐसी भयंकर दशा हो गई है और दूसरी ओर श्रवण करने योग्य सुनने में बेपर्वाही बढ गई है। अपने स्वयं के दोषों को सुनने की शक्ति आज अधिकांश व्यक्तियों में नहीं रही। तत्त्वज्ञान की सुनने, समझने और स्मरण रखने योग्य बातें भी यदि कोई सुनाने वाला मिले तो भी आज कइयों को आनंद नहीं आता। परन्तु वास्तविक सुनने योग्य तो वही है, क्योंकि उसके बिना हमारा उद्धार नहीं है। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 27 नवंबर 2013

करने योग्य चार बातें


करने योग्य चार बातें कही गई हैं- दान, शील, तप और भाव। समझाने के लिए इन चारों को उदारता, सदाचार, इच्छा-निरोध और सद्विचार भी कह सकते हैं। उदारता अर्थात् स्वार्थ की बलि देकर परमार्थ का आचरण। अपने सांसारिक स्वार्थ की अवगणना कर के दूसरे जीवों के लिए कल्याणकारी आचरण ही उदारता है। त्याग भावना से लक्ष्मी का त्याग भी उदारता है, अर्थात् पांच देकर पचास प्राप्त करने का सट्टा नहीं। मन में ऐसा विचार नहीं कि यहां दूंगा तो मुझे आगे कई गुणा मिलेगा। ऐसा सोच आत्मघाती है। इसलिए बदले में कुछ पाने की अपेक्षा किए बिना मुक्त हृदय से उदारता करना, दान देना, यह पहली करणीय वस्तु है। सदाचार अर्थात् अपने शरीर द्वारा भी लेशमात्र पाप न हो जाए, ऐसी बुद्धि और विवेक से उत्तम आचार का पालन। शरीर से अनेक पाप होते हैं वे न हों; उन्हें रोकने के लिए उत्तम आचरण को सदाचार अथवा शील कहते हैं। यह दूसरी करणीय वस्तु है।

तप अर्थात् इच्छाओं का निरोध या दमन। यह चाहिए - वह चाहिए’, ऐसी तृष्णा का लोप तप कहलाता है। सच्चा तप यही है। दूसरे सब तो इस तप के साधन हैं। वास्तविक तप का अर्थ है- किसी भी अनुचित इच्छा के आधीन नहीं होना।तप से तात्पर्य समस्त पाप-वासनाओं का नाश है। वासनाओं के पोषक कारणों में रसना इन्द्रिय (जीभ) प्रमुख है। होटल में जाने की प्रेरणा किसने दी? रोटी और एक सब्जी से पेट भर सकता है या नहीं? पर रोटी तो एक और उसके आसपास दस अन्य पदार्थ हैं। शरीर के लिए पोषक क्या है- रोटी या अन्य आसपास के पदार्थ?

घर से शाम को खाकर निकलने पर भी बाजार की बासी और सडी हुई वस्तुएं रात्रि में खाना किसने सिखाया? केवल स्वाद ने। घर के खर्च से आज होटल के खर्चे बढे हुए हैं। उनमें से अनेक दुर्गुणों की उत्पत्ति हुई है। मादक व तामसिक खाद्य पदार्थों के सेवन से और अयोग्य पदार्थ पेट में जाने से विकार उत्पन्न होते हैं और बुद्धि भ्रष्ट होती है, तामसिक वृत्ति पैदा होती है। इनका और भी पोषण होता है नाटक और सिनेमा द्वारा। पत्नी-बच्चों को खुश करने के लिए महिने में चार-पांच बार तो देखने ही पडते हैं। वहां क्या देखते हैं? कुचेष्टाएं; और उनसे हमारी ऐसी उन्मत्त दशा हुई है। परिणाम स्वरूप अनेक प्रकार के दुर्व्यसन और मानसिक विकार उत्पन्न होते हैं। भावी पीढी पर भी इसके दुष्प्रभाव पडते हैं। किसी भी पाप-वासना के आधीन नहीं होना, यह तीसरा इच्छा-निरोध कर्तव्य है। चौथी वस्तु सद्विचार है। किसी का बुरा नहीं सोचना। सबका भला सोचना। मन, वचन और काया से किसी का बुरा न हो, उसकी सावधानी रखनी चाहिए। इनका सदा लेखा रखना पडेगा- आज लक्ष्मी का कितना त्याग किया, कोई बुरा कार्य तो नहीं किया, जीभ तो नहीं लपलपाई, किसी का बुरा तो नहीं सोचा? -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 26 नवंबर 2013

त्यागने योग्य को त्यागिए


आत्म-शुद्धि के लिए प्रयत्नशील आत्मा को सर्व प्रथम आत्मा को हानि पहुंचाने वाली सभी वस्तुओं का त्याग कर देना चाहिए और जब तक आप उन्हें त्याग नहीं सकें, उन्हें त्यागने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। व्याधि होने पर चिकित्सक तुरन्त नाडी देखता है। सर्व प्रथम पेट साफ करने के लिए जुलाब देता है, क्योंकि जब तक पेट में मल है, तब तक दी जाने वाली औषधि मल में वृद्धि करेगी। उसी तरह महान चिकित्सक ज्ञानी पुरुषों ने आत्म-शुद्धि के लिए प्रथम उपाय बताया है कि त्यागने योग्य को मालूम करके पहले उसे त्याग देना चाहिए।अब देखना यह है कि त्यागने योग्य क्या है? हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह तो त्यागने योग्य हैं ही। अधिक गिने जाएं तो क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि अठारह पाप स्थानक भी त्यागने योग्य हैं। अठारह पाप स्थानक आपके लिए त्यागने योग्य हैं, यह मानते हैं न? क्या आपको विश्वास है कि हिंसा आदि त्यागने योग्य हैं और उन्हें त्यागे वह पुण्यशाली है?’

आप यह भी मानते हैं न कि हम अमुक वस्तुओं का त्याग नहीं कर सकते, अतः पापी हैं, अशक्त हैं, सत्वहीन हैं और जो उनका त्याग करता है, वह उत्तम और उच्च कोटि का है? ऐसे त्यागियों को ही आप हाथ जोडें, पूजें, उनके चरणों में गिरें, उनकी सेवा करें और उनकी आज्ञा मानने के लिए तैयार रहें। हम नहीं त्याग सकते, अतः अभागे हैं, सत्वहीन हैं, बलवान होते हुए भी निर्बल हैं।यदि आप ऐसा समझते हैं तो जिन्होंने त्याग किया है, वे आपको त्याग करने के लिए कहें तो उन्हें इनकार करने में लज्जा तो आएगी न? यदि इतनी लज्जा भी आप में हो तो भी कल्याण होगा। जिसकी आँख में शर्म हो, वह एक न एक दिन त्याग-मार्ग पर बढकर अपना कल्याण साध ही लेता है।

हिंसा करने से लाखों की सम्पत्ति मिलती हो अथवा झूठ बोलने से असीम लाभ की संभावनाएं बलवती होती हों, पर वह नहीं चाहिए। किसी की सर्वोत्तम वस्तु भी उसका बदला दिए बिना लेनी नहीं चाहिए। ब्रह्मचर्य भंग महापाप है। परिग्रह (धन का मोह) छूट जाए तो कल्याण हो जाए। यह बात मानो तो आपका और मेरा मेल हो जाए। हम ये सब बातें मनवाने के लिए परिश्रम करते हैं। जो वस्तु त्याज्य है, उसे कोई त्यागे या त्यागने के लिए कहे तो वह कोई अपराधी नहीं है। परिवार का मुखिया त्याग करके यहां आ जाए तो उसके साथ स्वार्थ एवं मोह से जुडे लोगों को रुदन और क्लेश भी हो सकता है, लेकिन इने-गिने दिन तक। इस भय से त्यागने योग्य का त्याग न करके मृत्यु तक वहीं पडा रहने वाला नित्य कितनों को रुलाएगा? आपत्ति करने वाले, अनेकों को दुःखी करने वाले हम हैं या आप? यह बात आपको समझ में नहीं आ रही है, इसीलिए त्यागने योग्य वस्तुएं त्यागी नहीं जा रही हैं। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 25 नवंबर 2013

आपके लिए आदर्श कौन?


शरीर-शुद्धि के लिए, उसमें प्रविष्ट रोगादि निकालने के लिए कितने प्रयास होते हैं? बाह्य सौन्दर्य के लिए जिस प्रकार प्रयत्न हो रहे हैं, क्या उसी प्रकार से आत्म-शुद्धि के लिए आपके प्रयास होते हैं? देह में तनिक गर्मी बढ जाए तो स्वतः ही चिकित्सक के पास जाना पडता है; भूख लगते ही तुरंत खाने लग जाते हैं; धन प्राप्ति के लिए विद्याध्ययन करना चाहिए, यह कहने की आवश्यकता नहीं रहती है; मौज-शौक के लिए क्या करना चाहिए, यह सिखाने की आवश्यकता नहीं है, यह तो सभी सीखे हुए ही हैं। धर्म-गुरु को तो यही सिखाना-समझाना है कि जितनी बाह्य-शुद्धि की आप चिन्ता करते हैं, उतनी ही चिन्ता आप आत्म-शुद्धि की भी करिए।यह गुरु को सिखाना है, क्योंकि आप यह अपने आप करने वाले नहीं हैं।

किसी से पैसे वसूलना, मार्ग में पैसे मिलें तो तिजोरी में रखना, पराया धन अपना बनाना, दूसरों से चालाकी करके अपना काम निकालना तो आप जैसों को सिखाने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन इसके विपरीत सिखाना है। अतः मुझे तो आप लोगों को यह कहना चाहिए कि आप मार्ग भूल गए हैं, दिशा भूल गए हैं। पौद्गलिक स्वार्थ के लिए, देह की हाजरी बजाने के लिए पाप-कर्म आप न करें। आपके पास सबकुछ है, केवल एक मनुष्यत्व ही आप में नहीं है और आपके बंगले, बगीचे, शान-शौकत, परिवार, ऋद्धि-सिद्धि, गाडी-घोडे, मोटर आदि वस्तुएं मनुष्यत्व के बिना सब भयंकर हैं’, यह तनिक भी भूलना नहीं चाहिए।

आप किसे आदर्श के रूप में अपने समक्ष रखें तो आपके अन्तर में उठती विषय-वासनाओं की इच्छाएं और पापमय तृष्णाएं अपने आप नष्ट हो सकें? आप त्यागी को आदर्श के रूप में रखेंगे या रागी को? लालची को अपने समक्ष रखेंगे कि संतोषी व्यक्ति को? किसी लक्ष्मी के लोभी को आदर्श बनाएंगे या विरक्त व्यक्ति को? परन्तु, आपके हृदय में तो ऐसा विचार ही कहां है? आपका व्यवसाय जीवन के लिए है या व्यवसाय के लिए यह जीवन है? धन के लिए आप हैं या आपके लिए धन है? घर के लिए आप हैं या आपके लिए घर है? यदि पूछें कि क्या आप धर्म करते हैं?’ तो उत्तर मिलेगा कि समय नहीं है। व्यापार इतना बढ गया है कि विवश हैं। नींद भी अपने आप नहीं आती।ऐसा क्यों है? जीवन से धर्म चला गया, इसलिए नींद नहीं आती कि धर्म रह गया इसलिए? मनुष्यत्व का विकास हुआ है इसलिए सीधी नींद नहीं आती है या कि पशुता का विकास हुआ है इसलिए? आज धर्म-भावना नष्ट हो गई है, अतः आदर्श कौन हो सकता है, उसका भी ध्यान नहीं रहा। धर्म-वृत्ति नष्ट होने का कारण आत्मा के संबंध में विचारों का अभाव और पुद्गल एवं जड वस्तुओं के प्रति प्रेम है। आत्मा का ध्यान हो तो आत्म-हित का ध्यान आएगा और आत्म-हित का ध्यान आए तो धर्म-वृत्ति प्रकट होगी। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा