गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

साधु आपकी रोटियों का मोहताज नहीं!


आज तो कई लोग इतने धृष्ट हो गए हैं कि साधु को पूछते हैं कि आप किसके आधार से जीवित हैं।साधु तो कहता है कि भगवान के आधार से और वह भी उन तारक के रजोहरण के आधार से जीवित हैं।कहते हैं कि श्रावक देगा तब न?’ इसके उत्तर में साधु तो कहते हैं कि जो शरीर को देते हो तो न दो।श्रावक क्या शरीर को देता है? नहीं ही! संयम को देता है! देने में कल्याण मानते हो तो दो, नहीं तो मत दो। साधु किस प्रकार भिक्षा मांगने जाता है? ‘दो अन्नदाता!ऐसा कहते हैं? नहीं! वे तारक तो निकलते हैं, तब से ही यह भावना कि मिले तो संयम की पुष्टि और नहीं मिले तो तपोवृद्धि। इसमें हानि है ही कहां?

भगवान श्री महावीरदेव तथा भगवान श्री ऋषभदेव को भी अंतराय के उदय से दीर्घकाल तक भिक्षा नहीं मिली। श्री ऋषभदेव स्वामी को तो कई महीनों तक नहीं मिली। 6-6 महीने तक प्रतिज्ञा (अभिग्रह) पूरी न होने के योग से भगवान श्री महावीरदेव गांव में आकर वापिस चले जाते थे और मजे से ध्यान में खडे रहते थे। वहां के राजा-रानी को भी चिन्ता होती, चिंता होती कि भगवान रोज गांव में आते हैं और उनको भिक्षा नहीं मिलती है, इसे क्या कहा जाए? इसीलिए मैं कहता हूं कि साधु आपके आधार से जीते हैं, आपकी रोटियों के आधार पर जीवित रहते हैं, ऐसा कभी मत मानना। मानोगे तो पाप लगेगा। ऐसा मानोगे तो दी हुई रोटी भी निष्फल जाएगी। माल का माल जाएगा, बेवकूफ बनोगे और देने पर भी तुम्हें लाभ नहीं मिलेगा।

संयम तारक है, आप से संयम ग्रहण नहीं किया जाता, इसलिए संयमी को संयम-पुष्टि के साधन की सहायता करने में उद्धार लगे, तो हाथ जोडकर, विनय से, बहुमान से, न आते हो तो विनती पूर्वक घर ले जाकर देना। जीवित रखने की बुद्धि से देते हो, तो मत देना। गृहस्थी के आधार से जीए वे तो पेटू, रोटियों के गुलाम, वे मुनि नहीं हैं। आज तो नौकर भी कहते हैं कि हम में कार्य-कुशलता होगी, कुब्बत होगी, तो सेठ बहुत हैं। कुशलता नहीं होगी तो गुलामी करेंगे, इसीलिए हम आपके ऊपर जीवित नहीं हैं। वेतन कोई मुफ्त में नहीं देते हो, अनीति नहीं करूंगा, आपकी इच्छा हो तो रखो, नहीं तो सेठ बहुत हैं।ऐसे प्रामाणिक नौकर भी हैं। 50-60 रुपये के वेतनधारी जो इस प्रकार बोलें तो संयम पर विश्वास रखने वाले साधु क्या बोलें? जिसके हाथ में रजोहरण, क्या उसका पेट नहीं भरा जाएगा? साधु श्रावकों की रोटियों का मोहताज नहीं है। रजोहरण वाले को रोटी-पानी के लिए दीनता करनी पडे, यह स्वप्न में भी न सोचो और न मानो। परिपूर्ण भाग्योदय होता है तभी रजोहरण हाथ में आता है। जिसको चक्रवर्ती सिर झुकाते हैं, उस संयम के सामने रोटी की क्या कीमत? -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 30 अक्तूबर 2013

भोगियों की रोटियों के भरोसे योगी जिन्दा नहीं रहता!


साधु भगवान श्री महावीरदेव के गस्ती सिपाही हैं। साधु की आवाज या उसकी परछाई मात्र से ही भोग और भोग के पिपासु भाग जाएं तो ही साधु की इज्जत अच्छी है। भोगी की रोटी पर योगी कदापि जीवित नहीं रहता है। जो योगी भोगी की रोटी पर जीवित रहता है, वह तो भोगी से भी बुरा है। शास्त्रकारों ने तो योगियों को मुधादायीऔर मुधाजीवीलिखा है। देशना दे वह भी स्व और पर के कल्याण के लिए ही और आहार भी संयम की पुष्टि के लिए ही ग्रहण करता है। भोगी और योगी का धर्म-प्रयोजन के अतिरिक्त कोई संबंध ही नहीं होता है।

श्री महावीरस्वामी के नाम से रोटी ही नहीं, अपितु सबकुछ मिलता है, यह सच है। किन्तु, भगवान श्री महावीरदेव के शासन में विचरने वाले योगी, भोगी के मनुष्य तो कदापि नहीं होते। अन्नदाता दो’, यह तो भिखारी ही कहता है। बाकी मुनि तो धर्मलाभ ही कहता है। सत्रह बार गरज हो, कल्याण दिखता हो तो ही गृहस्थ दे। मुनि के पास तो केवल धर्मलाभ ही होता है। दे तो भी धर्मलाभ, न दे तो भी धर्मलाभ। एक समान ही प्रसन्नता रहती है। मुँह भी बिगाडता नहीं है। धक्का मारे तो भी धर्मलाभ ही कहता है। विधि कैसी उत्तम है? श्रावक क्या कहता है? ‘पधारो, पावन करो, निस्तार करो, लाभ दो।लाभ लो नहीं, अपितु दो। देता तो स्वयं है, परन्तु कहता है कि लाभ दो। घी का बर्तन उंडेल देता है, वह भी उसका स्वयं का निस्तार मानकर ही। याचक बनेंगे तो यह भावना नहीं रहेगी। रोटियां देने वाले की आज्ञा में रहेंगे तो क्या होगा? स्व-पर दोनों का नाश ही होगा और बाद में तो मुँह ही देखना पडेगा। यह अमुक भाई है और यह अमुक भाई! पधारो और पावन करो’, यह क्यों? तारक मानता है, इसीलिए ही। देने वाला तो कहता है कि लो-लो और लेने वाला कहता है कि नहीं-नहीं, क्यों? दूसरे दिन रख नहीं सकता है, इसीलिए।

शास्त्रों में मुनि को कुक्षिसंबल कहा है। इसलिए संयम निर्वाह के लिए जब आवश्यक हो तभी लेने जाता है। जो रखने का कहा होता, तो-तो आप लोग बुलाने भी नहीं आते। भगवान का मार्ग ही ऐसा है कि गृहस्थ लोग बुलाते रहें और मुनि लोग ना-ना कहते रहें। मुनि लोग अधिक नहीं ले सकते हैं कि गृहस्थ बुलाते रुक जाएं। श्री जिनेश्वरदेव का साधुत्व भी लोकोत्तर है। ऐसे लोकोत्तर साधुत्व के पालक और प्रचारक, भगवान श्री महावीरदेव के योगी, भोगियों की गुलामी नहीं ही करते हैं और तो ही वे भगवान श्री जिनेश्वरदेव के मोक्षमार्ग की सच्ची उपासना और उसका सच्चा प्रचार कर सकते हैं। आज जो कतिपय वेशधारी गृहस्थों के पिछलग्गू बने फिरते हैं, वे धर्म शासन को कलंकित ही करते हैं, इसमें उनका तुच्छ स्वार्थ है और वे स्वयं का और दूसरे का भी नाश ही करने वाले हैं। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

अपने दोष सुनने की आदत बनाएं


क्या आपके हृदय में ऐसा होता है कि मुझे कोई मेरी झूठी प्रशंसा करने वाला नहीं मिले तो उत्तम हो? आप पहले इस निर्णय पर पहुंच जाइए कि आप स्वयं को कैसा मानते हैं? योग्यता है अथवा नहीं, इसका निर्णय करने के लिए और योग्यता प्राप्त कर के उसको विकसित करने के लिए उपर्युक्त विचार बहुत उपयोगी होगा। आपको उलाहना पसंद नहीं आता हो और अपनी प्रशंसा सुनने की चाह हो तो उसका भी कारण ढूंढना चाहिए। मुँह से यह कह देना बडी बात नहीं है कि मुझ में दोष अनेक हैं। ऐसा तो प्रशंसा पाने के लिए कहने वाले भी अनेक हो सकते हैं। यह तो हृदय की बात है। आप हृदय से यह बात स्वीकार करते हैं क्या कि मुझ में दोष बहुत हैं। आप यदि यह बात हृदय से स्वीकार करते हो तो आपको उलाहना सुनना अच्छा लगेगा और प्रशंसा सुनना बुरा लगेगा; अथवा तो यदि आपको अपनी प्रशंसा सुनना ही अच्छा लगता हो तो आप हृदय में यह समझ जाएं कि यह भी मुझ में एक बहुत बडा दोष है, दुर्गुण है।

आज तक आपने कभी किसी के समक्ष जाकर अपना हृदय सचमुच खोला है क्या? क्या कभी आपने अपनी वास्तविकता किसी योग्य स्थान पर जाकर स्पष्ट की है कि मैं ऐसा हूं या वैसा हूं? उसके साथ क्या कभी यह भी कहा है कि आपको यदि मुझ में योग्यता दृष्टिगोचर हो तो मेरा ध्यान रखना। मुझ में अपने दोष देखने की, ढूंढने की शक्ति नहीं है, अतः आप मेरे दोष देखें और मुझे उन दोषों से मुक्त कराने की चेष्टा करें।आपके गुणों की प्रशंसा करने वाले तो यत्र-तत्र आपको भटकते मिलते होंगे। वे भी कैसे? केवल आपके सामने आपकी प्रशंसा करने वाले; पीठ पीछे तो वे कुछ भी कहें। जो लोग आपके समक्ष आपकी प्रशंसा करें और वे ही पीठ पीछे आपकी निन्दा करें, वे आपको अच्छे नहीं लगने चाहिए। ऐसी आपकी मिथ्या प्रशंसा करने वालों की आपके हृदय में कोई कीमत नहीं होनी चाहिए। ये सब बातें आपको अयोग्य सिद्ध करने के उद्देश्य से नहीं कही जा रही है, अपितु आप इन पर सोच सकें, इसलिए कही जा रही हैं।

आपने क्या कभी किसी को कहा है कि आपको यदि मुझ में गुण दृष्टिगोचर हों तो उनके विषय में तो मुझे कुछ न कहें, और मुझ में यदि दोष दृष्टिगोचर हों, तो वे दोष आप मुझे अवश्य बताएं?’ परन्तु; जो स्वयं को दोष-युक्त माने ही नहीं, वह किसी को यह क्यों कहेगा कि आप मुझे मेरे दोष बताएं। यह एक बहुत बडी अयोग्यता है। प्रतिबोध देने योग्य वह जीव होता है, जिसमें अपने दोषों के विषय में सुनने की शक्ति हो और दोषों के विषय में सुनकर भी उन्हें दूर करने की लगन लगे, ऐसा जिसका हृदय हो। जिस मनुष्य को अपने दोषों के विषय में सुनते ही दोष बताने वाले पर क्रोध उत्पन्न होता हो, वह कभी गुणवान बन ही नहीं सकता। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

साधु क्या देते हैं?


यदि समझ से काम लिया जाए और सोचा जाए तो यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि साधु तो विश्व को बहुत कुछ देते हैं और विश्व को जो उत्तम सामग्री साधु प्रदान करते हैं और वे जो प्रदान करने की क्षमता व सामर्थ्य रखते हैं; वैसी उत्तम सामग्री न तो विश्व को कोई देता है और न दे सकता है। साधु जितना भी देते हैं, वे स्वयं जो भिक्षा प्राप्त करते हैं, उसके बदले में नहीं देते, अपितु देना उनका स्वभाव ही है। भिक्षा प्राप्त न भी हो तो भी जो उत्तम सामग्री साधु विश्व को प्रदान कर रहे हैं, वह तो वे प्रदान करते ही रहेंगे। वे विश्व को आध्यात्मिक दृष्टि प्रदान करते हैं।

धन एवं भोगों के पीछे दीवाने बने विश्व को ये साधु, धन एवं भोगों के परित्याग से प्राप्त होने वाले सुख की ओर आकर्षित करते हैं। मानव-जन्म से ही आत्मा का उत्कर्ष संभव है, यह बात वे विश्व को स्पष्ट करते हैं। साधु अपने उपदेशों आदि से एवं अपने व्यवहार से विश्व को समझाते हैं कि हिंसा-वृत्ति त्याग कर अहिंसक बनो; असत्य त्याग कर सत्यवादी बनो, ताकि वह सत्य न तो आपका स्वयं का अहित करे और न दूसरों का, और यदि करे भी तो अपना एवं दूसरों का हित ही करे; बिना दिए कोई भी वस्तु मत लीजिए; भोगों का परित्याग कर के संयमी बनो और धन आदि के प्रति जो मोह है, उसे त्यागो और उसका संग त्याग दो। जब-तब साधु यही इच्छा बताते हैं कि धर्म का ही लाभ हो। इसलिए वे भिक्षार्थ किसी के घर में प्रविष्ट होते समय और घर में से लौटते समय चाहे भिक्षा प्राप्त हो, चाहे न हो, वे धर्मलाभके ही आशीर्वाद का उच्चारण करते हैं।

छोटे-बडे किसी भी जीव की हिंसा में वे निमित्त न बनें, इस बात की वे सावधानी रखते हैं। यह भी विश्व के जीवों का एक उपकार ही है। तदुपरान्त वे अपनी निश्रा के साधुओं को जो उपदेश देते हैं, वह भी इसी प्रकार का देते हैं कि आप इस प्रकार के व्यक्ति बनो कि जिससे आप सीधी अथवा कुटिल रीति से भी किसी के अहित के कारण न बनो। इतनी उत्तम अथवा इससे भी उत्तम सामग्री विश्व को साधुओं के अतिरिक्त कौन दे सकता है? जिन मनुष्यों की दृष्टि गुणों की ओर न होकर दोषों की ओर है, सदाचार की ओर न होकर दुराचार की ओर है, इन्द्रिय निग्रह की ओर न होकर धन एवं भोगों की ओर है, आध्यात्मिक न होकर पौद्गलिक है, परलोक की ओर न होकर इस लोक की ओर भी बारीकी से नहीं है; उन मनुष्यों को यही लगता है कि साधु लोग समाज से लेते ही हैं, परन्तु उसे देते कुछ भी नहीं हैं। लेकिन, यह भी गौरतलब है कि साधु लोग समाज से जो लेते हैं, वे कोई जबरन नहीं लेते। समाज उन्हें जो देता है, वही वे लेते हैं। वे अपने आचारों का पालन करते हुए निर्दोष रूप से जो कुछ भी प्राप्त करते हैं, वह भी उनका संसार के प्रति वस्तुतः तो उपकार ही है। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

श्री जिनेश्वर भगवान का स्मरण


साधु को देखकर संयम का ध्यान आता है अथवा नहीं? आपको यह लगता है या नहीं कि मेरा जीवन असंयमित है; जबकि  संयम ही अपनाने योग्य है; ऐसा प्रभाव, ऐसा चिन्तन संयमी के संयम को देखकर अथवा साधुवेश के दर्शन से होता है? संयम तो आत्मा की वस्तु है। वह चर्म-चक्षुओं से नहीं दिखाई देती। यदि संयम चर्म-चक्षुओं से दिखसकता हो, तो जिसने साधु का वेश धारण नहीं किया, जो गृहस्थ के वेश में है और कल्पना करो कि उसमें संयम के भाव आ गए हैं और जो सचमुच भाव-साधु है, उसे नेत्रों से देखने मात्र से वह संयम दृष्टिगोचर होना चाहिए न? लेकिन, ऐसा नहीं होता। संयम चर्म-चक्षुओं से नहीं दीखता।

इसी तरह साधुवेश धारी मनुष्य का असंयम चर्म-चक्षुओं से दिखाई देता है? नहीं! चर्म-चक्षुओं से देखने पर तो यही दृष्टिगोचर होता है कि उसमें संयम है, यही कल्पना होती है। साधु-वेशधारी को देखने से उसके संयम की जो कल्पना होती है, वह क्यों होती है? वह साधु-वेशधारी कहता है कि मुझ में संयम है, इसलिए उसमें संयम होने की कल्पना होती है क्या? नहीं, यह बात नहीं है। अपने हृदय में यह बात जम चुकी है, दृढ हो चुकी है कि यह साधु-वेश संयम का प्रतीक है।इसलिए साधु-वेशधारी को देखते ही यदि वह कुछ भी न कहे, कुछ भी न करे तो भी उसमें संयम का विचार उत्पन्न हो ही जाता है। और इससे हमारे आचरण, व्यवहार व सोच में परिवर्तन आता है, हम शुभता की ओर बढते हैं, आत्मा में निर्मलता आती है।

ठीक इसी प्रकार श्रीजिनेश्वर भगवान की मूर्ति के दर्शन से उनकी गुण-सम्पन्नता एवं दोष-विहीनता का ध्यान आता है। भगवान ने धर्म-तीर्थ की स्थापना कर के संसार के जीवों पर महान् उपकार किया है, यह भी हमें उनके दर्शनों से स्मरण हो आता है। श्री जिनेश्वर भगवान की तीर्थंकर नामकर्म की निकाचना करते समय समस्त जीवों को शासन-प्रेमी बनाने की जो उत्कट भावना थी, उसकी स्मृति ताजी हो आती है। यह सब ध्यान में आते ही आत्मा पुलकित हो जाती है, जिससे हृदय एवं मस्तक झुक जाते हैं। क्या आप ऐसा महसूस करते हैं, उन विचारों में खो जाते हैं या प्रभु के समक्ष अपने घर का रोना रोने बैठ जाते हैं, उनसे भौतिक सुख-समृद्धि की याचना करने लग जाते हैं? अरे, वे तो स्वयं सारी भौतिक सुख-समृद्धि को ठोकर मारकर निकले हैं, आप यह क्यों नहीं समझते और सोचते हैं। जरा अपने सोचने की दिशा बदलिए और श्री जिनेश्वर भगवान के दर्शन के समय उनके जीवन और स्वरूप का चिन्तन करिए। फिर देखिए कि आपका मन कितना प्रसन्न, कितना आल्हादित होता है? श्री जिनमूर्ति श्री जिनेश्वर भगवान का स्मरण कराने वाला एक आलम्बन है। मूर्ति के दर्शन से भगवान की स्मृति आती है, उनकी दोष-विहीनता, गुण-युक्तता एवं परोपकारिता की स्तुति से हम आत्म-कल्याण के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 27 अक्तूबर 2013

बीमारियों को भी धनवान ही पसंद


बीमारियों को भी धनवान ही पसंद

धन के वश में होने वाले धनी मनुष्यों पर व्याधियों की दृष्टि भी ठिठक जाती है। व्याधियें प्रायः धनवानों को ही पसन्द करती हैं, यह बात सत्य है। ये लोग तुच्छ और अपथ्य खाद्य पदार्थों का सेवन करते हैं, जिससे उन्हें अनेक व्याधियां सताती हैं। धनी लोग खाने के समय ही खाते हैं या हर समय खाना-पीना चलता ही रहता है? धनवान मनुष्य जीवन निर्वाह हेतु और शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से खाते-पीते हैं अथवा जीभ के स्वाद के लिए खाते-पीते हैं? उन्हें तले-गले, गरिष्ठ एवं मसालों से युक्त स्वादिष्ट खाद्य-पदार्थों की चाह होती है। मौज-शौक की वस्तुओं का उपयोग एवं उपभोग प्रायः धनी लोग ही करते हैं।

धनी लोगों को भूख न हो तो भी वे खाते हैं। वे कभी यह तो ध्यान ही नहीं रखते कि कडाके की भूख लगने पर ही खाना चाहिए। फिर भक्ष्याभक्ष्य का विवेक रखे बिना स्वाद के वशीभूत होकर वे अभक्ष्य भी खा लेते हैं। ऐसे मनुष्य फिर अनेक व्याधियों के शिकार होकर दुःखी होते हैं। उनमें से कुछ तो ऐसे जो खाकर दुःखी होते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो खाए बिना दुःखी होते हैं। किसी न किसी तरह वे धनी लोग दुःखी होते हैं।

जो धनी लोग कृपण होते हैं, वे इस तरह का भोजन करते हैं कि उनके लिए कहना पडता है कि वे भूखों मरते हैं। जो धनी लोग विलासी होते हैं, वे ऐसा भोजन करते हैं कि वे रोगों को निमंत्रण देते हैं, यह कहना पडता है। कृपण लोग स्वयं खाते भी नहीं और किसी को खाने भी नहीं देते। विलासी लोग खा-खाकर बीमारियों से ग्रस्त होते हैं। अतः धनी मनुष्यों का भोजन प्रायः तुच्छ, तामसिक और अपथ्य कहलाता है। रसना के स्वाद के अधीन होकर भी तुच्छ एवं अपथ्य भोजन किया जाता है और कृपणता के कारण भी तुच्छ एवं अपथ्य भोजन किया जाता है।

खान-पान के संबंध में धनी एवं निर्धनों के दृष्टिकोण में काफी अन्तर होता है, यह आपको ज्ञात है क्या? निर्धन क्यों खाते हैं? वे अपनी क्षुधा को शान्त करने के लिए खाते हैं और क्षुधा की ज्वाला शान्त करने के लिए निर्धन किस तरह का भोजन पसन्द करते हैं? वे ऐसा भोजन पसन्द करते हैं, जिससे क्षुधा की ज्वाला शान्त हो सके और शरीर बलवान हो सके। उनमें से भी जो निर्धन मनुष्य संतोषी स्वभाव के होते हैं, उनकी तो बात ही भिन्न है। वे लोग न तो अजगर की तरह खाते हैं और न ही वे अपथ्य पदार्थ ही खाते हैं। लक्ष्मी के दास अविवेकी धनी लोग जीभ के स्वाद को संतुष्ट करने के उद्दश्य से खाते हैं। यद्यपि वर्तमान समय में तो निर्धन एवं मध्य वर्ग के मनुष्यों में भी खान-पान संबंधी अनेक कुटेव उत्पन्न हो गई है, जिनके फलस्वरूप वे भी व्याधिग्रस्त होकर पीड़ित रहते हैं; परन्तु निर्धन संतोषी मनुष्य प्रायः ऐसा भोजन करते हैं, जिससे उनका शरीर रोग-ग्रस्त न होकर उलटा हृष्ट-पुष्ट हो। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

याचकों के प्रति उदार बनें


प्राचीन काल में पुण्यशाली लोग याचकों को पुण्य के द्वार तुल्य मानते थे। कोई याचक बनकर जीवन यापन करे, यह वे चाहते ही नहीं थे, फिर भी यदि कोई उनके पास याचना करने आ जाता तो उन्हें उनसे घृणा नहीं होती और न ही उन पर गुस्सा आता, बल्कि उनके प्रति अंतःकरण से सहानुभूति होती, करुणा, दया और अनुकम्पा की भावना होती और वे यही सोचते कि मैं इसका दुःख कैसे दूर करूं कि इसे फिर से कभी पेट के लिए याचना नहीं करनी पडे, भीख मांगनी नहीं पडे। वे जानते थे कि इन्हें जीवन-निर्वाह के लिए कोई उत्तम उपाय नहीं दिखाई दिया होगा, तभी यह याचना करने निकला होगा। जिसके पास जीवन-निर्वाह करने का साधन उपलब्ध हो, उसे याचना करने की इच्छा ही नहीं होगी।

बिना किसी कष्ट के याचना करना कौन चाहेगा? कौन भीख मांगना पसन्द करेगा? पुण्यशाली व्यक्ति सोचता है कि अच्छा हुआ यह मेरे पास चला आया और पापरूप लक्ष्मी को पुण्यरूप बनाने का अवसर मुझे दिया, अन्यथा मैं अनुकम्पा रूप धर्म को कैसे पूरा कर पाता? मेरे पास पर्याप्त धन है और यह दुःखियारा धनाभाव के कारण दुःखी होकर मेरे पास आया है, तो मैं इसे कुछ देकर इसका कष्ट दूर करूं और धन के प्रति मेरी मूर्च्छा को भी कम करूं। इस तरह विचार करने वाला व्यक्ति याचक को दान भी देता है तो कितने आदर एवं कितनी दया के भाव हृदय में लाकर देता है? इससे आत्मा में कितनी निर्मलता आती है?

जिस समय इस प्रकार के पुण्यशाली पर्याप्त संख्या में विद्यमान थे, उस समय चोरी, लूटमार, गुण्डागर्दी आदि घृणित एवं अपराध वृत्ति के कार्य बहुत कम देखने को मिलते थे। आज ऐसे पुण्यशालियों की, ऐसा सोच रखने वालों की समाज में कमी हो गई है और परिणाम स्वरूप अपराध वृत्ति बढ गई है। यदि धनी लोगों में थोडी उदारता आ जाए, वे अपने धन को अर्थ-साधक बनाने का संकल्प कर लें और समय-समय पर उदारता पूर्वक दान देने लगें, तो याचकगणों को कोई कष्ट भी नहीं होगा और पुण्यशाली के भी कितने ही खतरे टल जाएंगे।

भीख मांगना अच्छा काम नहीं है, परन्तु हमारे पास सामग्री होने पर भी उसे देने से इन्कार करना, यह उससे भी बुरा काम है। भीख मांगने में तो विवशता है और देने की शक्ति होने पर भी याचक को देने से इन्कार करने में कृपणता के साथ क्रूरता भी है। जो धनी व्यक्ति कृपण एवं क्रूर हो, उसकी क्या गति होगी? इस प्रकार का धनी व्यक्ति धर्मात्मा बनने के लिए तो अयोग्य है ही, सद्गति प्राप्त करने के लिए भी अयोग्य है। ऐसे मनुष्य इस भव में सुख से जीवन जी नहीं सकते, मृत्यु के समय वे शान्ति पूर्वक मर भी नहीं सकते और मृत्यु के उपरान्त उन्हें सद्गति भी प्राप्त नहीं हो सकती। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

धन का विवेक पूर्वक त्याग करें


धनवानों को भागीदारों से पीड़ित होने की संभावना है, राज्य द्वारा लूटे जाने की संभावना है और चोरों से परास्त होने की संभावना भी है; यह तो सभी जानते हैं, लेकिन धन के वशीभूत होने वालों को याचकों के समूह भी सताते रहते हैं। याचकों के लिए याचना करने का स्थान ही मुख्यतया धनवान हैं। वे कदाचित निर्धनों के पीछे पड भी जाएं तो प्राप्त क्या करेंगे? धनवानों के पीछे पडने से ही उन्हें कुछ प्राप्त होने की संभावना रहती है। याचक भी जानते हैं कि हमसे परेशान होकर भी धनवान ही हमें कुछ दे सकते हैं। इसलिए याचक उन्हें सताए बिना कैसे रह सकते हैं? राह चलते भी वे धनवानों के पीछे पड जाते हैं। उनके निवास के आसपास भी वे समूह बनाए बिना नहीं रहते।

धनवान व्यक्ति चाहे कितने ही कार्य में व्यस्त हो अथवा कितने ही दुःख में बैठा हो, पर याचक यह बात कभी नहीं देखेगा। वह तो आशा लेकर आता है और जब तक उसकी आशा पूरी नहीं होती, तब तक वह याचना करता ही रहता है। याचक तो धनवान को ढूंढता है। जो धनवान धन के वशीभूत होते हैं, वे इन याचकों की याचना से त्रस्त होते हैं और फिर उन्हें इन पर क्रोध भी आता है, उनके मन में इनके प्रति घृणा पैदा होती है। लेकिन याचकों को यदि भिक्षा नहीं मिलेगी, तो वे क्या करेंगे? चोरी और अपराध करेंगे, उसमें भी पहला शिकार धनवान ही होगा।

धनवान लोग मनुष्य के रूप में, धर्मात्मा के रूप में, सर्वोत्तम धर्मशील सज्जन हों तो भी धन ही अनर्थ का मूल होने से धनवानों के लिए इन सब अनर्थों की सम्भावना तो है ही। ऐसे अनर्थों के अवसर पर भी धनवान यदि समाधि रख सकें और उनके भय की कल्पना से चिंतित न रहें तो यह उनके विवेक का प्रताप माना जाता है। स्वभाव से धन अनर्थ का कारण है, अनर्थ का मूल है; यह यदि आप समझ जाएं तो आप इसे अर्थ-साधक भी बना सकते हैं। धन में ही सार समझने वाले न तो वर्तमान समय में सुख से जीवन यापन कर सकते हैं और न भविष्य में सुख प्राप्त कर सकते हैं। ऐसे मनुष्यों में न तो संतोष आता है और न उदारता आती है। फिर वे बिना पीडा के भी पीड़ित रहें तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। धन का विवेक पूर्वक त्याग कर के ही उसे अर्थ-साधक बनाया जा सकता है। धन की चौकीदारी करने वाले और धन में ही सुख की कल्पना करने वाले; वास्तव में धन को अर्थ-साधक बना ही नहीं सकते। जो लोग धन को वास्तव में अर्थ-साधक बना सकते हैं, वे समझते हैं कि यह धन वैसे तो अनर्थ का मूल है, इससे मुक्त होकर सुख से जीवन जीने की शक्ति जितनी शीघ्र उत्पन्न हो उतना ही उत्तम है। वे यह भी समझते हैं कि जो सुख धन के त्यागी को होता है, वह सुख धन को अर्थ-साधक बनाने वाले को भी नहीं होता। इसलिए धन का विवेक पूर्वक त्याग करें। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा