शनिवार, 31 अगस्त 2013

धर्म का मर्म


अरिहंत परमात्मा तो जगत के दीपस्तम्भ हैं, वे सर्व जीवों को कल्याणकारी मार्ग बताने वाले प्रकाशपुञ्ज हैं। जो इन महापुरुष को देख सकता है, इनके प्रकाश में, इनके आलोक में, इनके बताए हुए मार्ग का अनुसरण कर अपना जीवन संवार सकता है, उन्हें उनका मानव शरीर रूपी जहाज किनारे पर पहुंचा देता है। जो इन प्रकाशपुञ्ज, दीपस्तम्भ के आलोक में अपना अंतरावलोकन नहीं कर सकता और इनके द्वारा प्रकाशित कल्याण-मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकता अथवा नहीं करना चाहता, वह भव-सागर में डूब जाता है। भगवान का चार प्रकार का धर्म सारे संसार का कल्याण करने में समर्थ है। इस धर्म का मर्म जानने योग्य है।

दुःख भोगने योग्य है और सुख छोडने योग्य है’, इस सम्यग्दर्शन के मर्म को समझने के लिए सकल शिक्षण लेना, यह सम्यग्ज्ञान है। सुख छोडकर दुःख भोगने के लिए तैयार हो जाना, यह सम्यक चारित्र है। इसका पालन करने के लिए जगत की सब वस्तुओं से निरीह हो जाना, सम्यक तप है।

धर्म के इस मर्म को समझने के बाद ही स्वाधीन जीवन जीने की भूमिका तैयार होती है। जो सुख में हर्षित नहीं होता और दुःख में संतप्त नहीं होता, वह स्वाधीन जीवन जीने वाला कहा जाता है।दृष्टिराग तो समकित (सम्यक्त्व, सम्यग्दर्शन) को आने ही नहीं देता; परन्तु स्नेह-राग और कामराग भी कई बार समकित को जला डालते हैं। आज बहुत से व्यक्ति इस प्रकार के हैं जो मौज भी मारना चाहते हैं और धर्म भी कमाना चाहते हैं। यह विपरीत दिशा में जाने वाली दो नावों की सवारी के समान है। एक पांव इधर और दूसरा पांव उधर तो कैसे चल सकता है? -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

मोह का मारक धर्म


मोह को मारकर और मोह-मारक शासन स्थापित कर मोक्ष में पधारे हुए अरिहंतों के पास हम प्रतिदिन जाते हैं; फिर भी मोह बुरा नहीं लगता, तो यह कैसे चल सकता है? सब तीर्थंकर राजकुल में उत्पन्न हुए थे, उनके पास सुख-वैभव की अपार सामग्री थी। वे उसे ठुकरा कर चले गए। उनकी तुलना में आपके पास कुछ भी नहीं, फिर भी आप उसे पकड कर बैठे हो, मोह का यह कैसा साम्राज्य है? अरिहंत की आराधना करनी है तो मोह के सामने आँखें लाल करनी होगी। मोह को बढाने के लिए अनेकबार धर्म किया और मोह की मार खाते रहे। जिसे यह मोह बुरा नहीं लगता, उसके लिए तो यह मनुष्य जन्म खराब से खराब है। दुनिया जिसे अच्छा समझती है, उसे भगवान बुरा बताते हैं।

जन्म को मिटाने के लिए, जन्म न लेना पडे, ऐसी स्थिति पैदा करने के लिए जो कुछ किया जाता है, वह धर्म है। मनुष्य जन्म पाकर जन्म का नाश किया जा सकता है। जन्म का नाश होना अर्थात् मरण की परम्परा का नाश होना है। जो कुछ धर्म करना है, वह जन्म का नाश करने के लिए, फिर से जन्म न लेना पडे, इसके लिए करना है। जन्म लेने की इच्छा न हो तो सर्वविरति को स्वीकार किए बिना कोई अन्य रास्ता नहीं है। सम्यग्दर्शन हो तभी सम्यग्चारित्र का भाव प्रकट होता है। संयम लेने की जिसे इच्छा नहीं, सुख को छोडने और दुःख को समभाव पूर्वक भोगने की जिसे अभिलाषा न हो, उसके पास धर्म का नामोनिशान भी नहीं है, ऐसा कहा जा सकता है। मोह को जीता-जागता रखना हो तो ज्ञान भी बेकार है। वह चाहे जितना शिक्षित हो तो भी खतरा ही है। उसकी शिक्षा अनेकों को हानि भी पहुंचा सकती है। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 29 अगस्त 2013

सच्चे माता-पिता बनो


पुत्र नाटक में जाए, सिनेमा में जाए, गलत रास्ते पर चल पडे, भक्ष्य-अभक्ष्य का खयाल न करे तो आज लोग रोकते तक नहीं हैं और कहते हैं कि समय की हवा है। यदि पुत्र पूजा नहीं करे, उपाश्रय में नहीं जाए तो कहेंगे कि इस पर अध्ययन का बोझा अधिक है। आप सम्यग्दृष्टि माता-पिता हैं न? आप हितैषी संरक्षक होने का दावा करते हैं न? आप कैसे उनके हितैषी हैं? कैसे संरक्षक हैं? आपने कभी यह जांच की है कि आज उनके कानों में कितना पाप-विष भरा गया है? आधुनिक वातावरण, दृश्य-श्रव्य माध्यमों द्वारा आपकी संतान में आज श्री जिनेश्वरदेव के शासन के विपरीत कितने कुसंस्कार पैदा किए जा रहे हैं? यदि इन सब बातों का ध्यान न रखो, इनकी जांच न करो तो आप कैसे उनके हितैषी हैं?

संप्रति राजा, राजा बनकर हाथी पर सवारी कर के माता को प्रणाम करने आए। तब उनकी माता ने कहा, ‘मेरे संप्रति के राजा बनने की मुझे खुशी नहीं है, परन्तु यदि वह श्री जिनेश्वर देव के शासन की प्रभावना करे तो मुझे अपार हर्ष होगा।ऐसी होती है माता। और इसी राजा संप्रति ने सवा लाख जिन मन्दिरों का निर्माण करवाया। आज की माताएं क्या कहती हैं? माता-पिता तो सब बनना चाहते हैं, बच्चों की अंगुली पकडकर सबको चलना है। आज्ञा भी सब मनवाना चाहते हैं, लेकिन ऐसी इच्छा करने वालों को स्वयं में पितृत्व एवं मातृत्व के गुण तो लाने चाहिए न? माता-पिता यदि सही मायने में माता-पिता नहीं बनेंगे तो पुत्र कभी सुपुत्र नहीं बन सकते। मैं उन्मत्त पुत्रों का पक्षधर नहीं हूं, परन्तु जैसे पुत्रों को सचमुच सुपुत्र बनना चाहिए, उसी तरह माता-पिता को भी सच्चे माता-पिता बनना चाहिए। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 28 अगस्त 2013

दुर्गति के कारणों से दूर रहें


स्वयं को जैन कहने वाले भी अनेक मनुष्य आज देव, गुरु और धर्म के विषय में बहुत कुछ कह रहे हैं, लिख रहे हैं। उनमें से अनेक तो अशिक्षित न होकर विद्वान माने जाते हैं, पर तो भी मिथ्यात्व का प्रभाव कितना भयानक होता है, यह उन लोगों के वचनों एवं लेखों से ज्ञात हो सकता है। मिथ्यात्व में इतनी शक्ति है कि वह बुद्धिमान मनुष्य को भी मूर्खतापूर्ण विचारों की ओर घसीट ले जाता है। अतः जिन्हें शास्त्रवेत्ता परमर्षियों के प्रति अगाध श्रद्धा हो, उन्हें तो उन बिचारे पामरों की बातों पर ध्यान न देकर उन पर दया करनी चाहिए। श्री जिनेश्वर भगवान के शासन में देव, गुरु और धर्म का स्वरूप दोष रहित और गुण-युक्त होने के आधार पर निश्चित किया गया है। ऐसे स्वरूप का वर्णन राग-द्वेष से सर्वथा रहित होकर सर्वज्ञ तारणहारों ने किया है। यदि यह बात लक्ष्य में रखी जाए तो देव, गुरु और धर्म पर अश्रद्धा होने का कोई कारण नहीं है। जिनके ध्यान में यह बात नहीं है, उन्हें मिथ्यात्व आदि के कारण सत्य एवं उचित बात भी मिथ्या एवं अनुचित लगे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। लब्बोलुबाब यह कि जिन्हें मोक्ष के प्रति रुचि नहीं है तथा शुद्ध जिन-कथित मोक्षमार्ग के प्रति श्रद्धा नहीं है; उनके द्वारा कही हुई अथवा लिखी हुई तत्त्वों के स्वरूप संबंधी बातों की सामान्यतया हमें उपेक्षा ही करनी चाहिए। परमोपकारी महापुरुषों ने देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरक इन चार गतियों के कारणों का उल्लेख किया है। उन कारणों को समझकर, उनमें जो-जो दुर्गति के कारण बताए गए हैं, उनसे यथासंभव हमें दूर रहना चाहिए। इसके साथ-साथ संसार के प्रति विरक्ति और शुद्ध मोक्षमार्ग अपनाने की अभिलाषा रखनी चाहिए। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 27 अगस्त 2013

धिक्कारने योग्य सहनशीलता


सहनशीलता तो तभी प्रकट करनी चाहिए, जब खुद के ऊपर मुसीबतों का पहाड टूट पडा हो। जब धर्म के ऊपर संकट के बादल मंडरा रहे हों, विरोधी लोग देव-गुरु-धर्म की खुलेआम निंदा कर रहे हों, उन पर चोट पहुंचा रहे हों या फिर अन्याय-अनीति से धर्म की हानि हो रही हो, अहिंसा को जड-मूल से उखाडने की बातें चल रही हो, और ऐसे संकट की घडी में कोई सहनशील बनने की सलाह दे तो ऐसी सलाह कभी भी बर्दाश्त करने योग्य नहीं है। ऐसे प्रसंगों पर सहनशीलताधारण करने वाला सहनशीलनहीं है, अपितु काम को बिगाडने वाला है, कायर है। यह सहनशीलता का गलत अभिप्राय है।

अपने फर्ज से आँखे मूंदने के लिए ऐसी सहनशीलता का सहारा कभी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता, बल्कि इसके विपरीत ऐसी सहनशीलता का उपदेश देने वाले धिक्कारने योग्य हैं और समाज को भी सावधान होकर ऐसे लोगों से बचकर रहना चाहिए, अन्यथा लुट जाएंगे। जब धर्म के ऊपर संकट के बादल मंडरा रहे हों, देव-गुरु-धर्म पर हमला हो, अन्याय हो; तब उसका प्रतिकार न करना, अनीति के खिलाफ खडे न होना, मानवता के लिए घोर कलंक है, श्रावकत्व पर कलंक है, समाज पर कलंक है। सच्चा धर्मवीर ऐसे अन्याय के विरूद्ध अलख जगाता है। वह न तो स्वयं अन्याय करता है और न अपने सामने होने वाले अन्याय को देख सकता है। वह सदैव अन्याय और अनीति के प्रतीकार के लिए कटिबद्ध रहता है। अन्याय का प्रतिकार करने के लिए देव-गुरु-धर्म-समाज-संस्कृति के चरणों में वह अपने प्राणों को हंसते-हंसते बलिदान कर देता है। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 26 अगस्त 2013

दया नहीं, भक्ति चाहिए


आज धर्म की प्रीति में कमी हो गई है। जहां धर्म की प्रीति में कमी हो, वहां सहजतया धर्मी के प्रति भी कमी होती है। धर्म के प्रति प्रीति ही धर्मी के प्रति प्रीति बढाती है। इसीलिए आज साधर्मिक के दुःखों की बात करने के लिए बारम्बार संकेत करना पडता है कि धर्म की प्रीति प्रकट हो और वृद्धि को प्राप्त हो, इसके लिए हमें अवश्य ही जोरदार प्रयत्न करना चाहिए। साधर्मिकों के प्रति दया करने की बातें आज की जाती हैं, किन्तु साधर्मिकों के प्रति तो भक्ति होनी चाहिए, दया नहीं। साधर्मिक तो भक्ति के पात्र हैं, दया के पात्र नहीं। भक्तिपात्र के लिए दया की बात करने वाले वास्तव में धर्म से दूर हैं, क्योंकि उन्होंने धर्म और भक्ति का मर्म वस्तुतः समझा ही नहीं है। धर्म के प्रति प्रीति वाले बनो और बनाओ। अर्थात् धर्मवृत्ति से जो कार्य होने चाहिए वे शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार होने ही चाहिए। आज तो दूसरे का सत्यानाश करके फल प्राप्त करने की कोशिश लोग कर रहे हैं। बातें ऐसी करते हैं कि जिससे धर्म का बीज जलकर खाक हो जाए और सूखे हुए धर्मवृक्ष से फलों को प्राप्त करने की अभिलाषा रखते हैं, इसका परिणाम क्या आता है? सच्चा साधर्मिक वात्सल्य धर्म की प्रीति के बिना हो ही नहीं सकता। जैन समाज का गौरव यदि बढाना है, तो जैनियों को अपनी खोई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करनी चाहिए। धर्म का दायरा यदि बढाना है, तो साधर्मिक वात्सल्य को सही रूप में अपनाना होगा। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 25 अगस्त 2013

प्रशंसा भ्रमित करने वाली न हो


वेश्या को रूपवान कहनी हो तो साथ में कहना पडेगा कि रूपवान तो है, परन्तु अग्नि की ज्वाला जैसी है। अनेकों को फंसाने वाली है। पैसों के खातिर जात को बेचने वाली है और निश्चित किए गए पैसे न दे तो उसके प्राण भी लेने वाली है। पूरी बात न करे और सिर्फ रूप की प्रशंसा करे, वह कैसे चले? उससे तो अनेक लोग फंसें उसकी जोखिमदारी किसकी? होशियार मनुष्य धोखेबाज हो तो सिर्फ उसकी होशियारी की प्रशंसा हो सकती है? या साथ में कहना पडे की सावधान रहना! दान देने वाला तस्करी-चोरी का धंधा करता हो तो उसके दान की बात कहते समय यह सावधानी दिलाना जरूरी है कि तस्करी और चोरी करना अपराध है। दुल्हे की प्रशंसा करे, परंतु रात्रि-अंधाहो यह बात छिपाएं, कन्या पक्ष कन्या की प्रशंसा करे, परंतु उसकी शारीरिक त्रुटियां छिपाएं तो कईयों के संसार नष्ट होने के उदाहरण हैं न? वहां कहें कि, ‘हम तो गुणानुरागी हैं!यह चलेगा? इतिहास में विषकन्या की बातें आती हैं। वह रूप-रंग से सुंदर, बहुत बुद्धिमान, गुणवान भी अवश्य, परन्तु स्पर्श करे उसके प्राण जाएं! उसके रूप-रंग की प्रशंसा करें, परंतु दूसरी बात न करें तो चलेगा? गुणानुरागी को प्रशंसा करते हुए अत्यन्त विवेक रखना पडता है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 24 अगस्त 2013

सत्य की कसौटी पर


आज ढोंग, दम्भ, प्रपंच इतना बढा है कि जिसकी कोई सीमा ही नहीं। यहां कुछ और, वहां कुछ और! वाणी, वचन और बर्ताव में मेल ही नहीं। यह आज की दशा है। इसीलिए ही मैं कहता हूं कि हम गुण के रागी अवश्य हैं, परन्तु गुणाभास के तो कट्टर विरोधी ही हैं।हम जहां त्याग देखें, वहां हमें आनंद अवश्य हो, परंतु वह त्याग यदि सन्मार्ग पर हो तो ही उस त्याग के उपासक की प्रशंसा करें, अन्यथा सत्य को सत्य के रूप में जाहिर करें और उसके लिए समय अनुकूल न हो तो मौन भी रहें। कौनसा त्यागी प्रशंसापात्र?’ यह बात गुणानुरागी को अवश्य सोचनी चाहिए। आज इस बात को नहीं सोचने वाला आसानी से गुणाभास का प्रशंसक बन जाए वैसा माहौल है। सम्यग्दृष्टि की एक नवकारशी को मिथ्यामतियों का हजारों वर्ष का तप भी नहीं पहुंच सकता, यह एक निर्विवाद बात है। इसलिए मैं अनुरोध करता हूं कि कैसी भी स्थिति में प्रभुमार्ग से हटा नहीं जाए, उसकी सावधानी रखना सीखें। श्री अरिहंत देव जैसे दुनिया में कोई देव नहीं हैं। श्री जैनशासन में जो सुसाधु हैं, वैसे दुनिया के किसी भाग में नहीं हैं और धर्मतत्त्व के विषय में कोई भी दर्शन, श्री जैनदर्शन द्वारा प्ररूपित धर्मतत्त्व के साथ स्पर्द्धा कर सके वैसा नहीं है। विश्व में एक श्री जैनदर्शन ही सर्वश्रेष्ठ है।यह सत्य कहीं भी और कभी भी सिद्ध हो सकने योग्य है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

गुणानुराग के नाम पर उन्मार्ग की पुष्टि


उन्मार्गी में रहे हुए गुण की प्रशंसा से उन्मार्ग की पुष्टि होती है; क्योंकि उस आकर्षण से दूसरे उसके मार्ग पर जाते हैं। ऐसा व्यक्ति भी उसकी प्रशंसा करता है’, यों समझकर जनता उसके पीछे घसीटी जाती है। परिणाम स्वरूप अनेक आत्माएं उन्मार्ग पर चढती हैं, अतः गुणानुराग के नाम से मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा अवश्य तजने योग्य है।गुण यह प्रशंसायोग्य है। यह बात नितांत सत्य है, परंतु उसमें भी विवेक की अत्यंत ही आवश्यकता है। मिथ्यामतियों की प्रशंसा के परिणाम से सम्यक्त्व का संहार और मिथ्यात्व की प्राप्ति सहज है। गुण की प्रशंसा करने में क्या हर्ज है?’ इस प्रकार बोलने वालों के लिए यह वस्तु अत्यंत ही चिंतनीय है। गुणानुराग के नाम से मिथ्यामत एवं मिथ्यामतियों की गलत मान्यताओं की मान्यता बढ जाए, ऐसा करना यह बुद्धिमत्ता नहीं है, अपितु बुद्धिमत्ता का घोर दिवाला है। घर बेचकर उत्सव मनाने जैसा यह धंधा है। गुण की प्रशंसा’, यह सद्गुण को प्राप्त और प्रचारित करने के लिए ही उपकारी पुरुषों ने प्रस्तावित की है। उसका उपयोग सद्गुणों के नाश के लिए करना, यह सचमुच ही घोर अज्ञानता है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 22 अगस्त 2013

चोर का दान प्रशंसनीय नहीं


बहुत-से ऐसे लोग हैं कि, ‘गुणानुरागके नाम से मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा  कर स्वयं के और दूसरों के भी सम्यक्त्व को पलीता लगाने का काम आज बडे जोरशोर से कर रहे हैं। दुःख तो यह है कि इस पाप में कई वेशधारी भी अपने हाथ सेक रहे हैं। बहुतों के गुण ऐसे भी होते हैं कि जिन्हें देखकर आनंद होता है, परन्तु उन्हें बाहर बतलाए जाएं तो बतलाने वाले की प्रतिष्ठा को भी धब्बा लगे। चोर का दान, उसकी भी कहीं प्रशंसा होती है? दान तो अच्छा है, परन्तु चोर के दान की प्रशंसा करने वाले को भी दुनिया चोर का साथी समझेगी। दुनिया पूछेगी कि, ‘अगर वह दातार है तो चोर क्यों? जिसमें दातारवृत्ति हो, उसमें चोरी करने की वृत्ति क्या संभव है? कहना ही पडेगा कि, ‘नहीं। उसी प्रकार क्या वेश्या के सौंदर्य की प्रशंसा हो सकती है? सौंदर्य तो गुण है न? वेश्या के सौंदर्य की प्रशंसा करने वाला सदाचारी या व्यभिचारी? विष्ठा में पडे हुए चंपक के पुष्प को सुंघा जा सकता है? हाथ में लिया जा सकता है? इन सब प्रश्नों पर बहुत-बहुत सोचो, तो अपने आप समझ में आएगा कि, ‘खराब स्थान में पडे हुए अच्छे गुण की अनुमोदना की जा सकती है, परंतु बाहर नहीं रखा जा सकता।जो लोग गुणानुराग के नाम से भयंकर मिथ्यामतियों की प्रशंसा करके मिथ्यामत को फैला रहे हैं, वे घोर उत्पात ही मचा रहे हैं और उस उत्पात के द्वारा अपने सम्यक्त्व को फना करने के साथ-साथ अन्य के सम्यक्त्व को भी फना करने की ही कार्यवाही कर रहे हैं। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 21 अगस्त 2013

विरागी कौन?


विराग का अर्थ राग का सर्वथा अभाव हो; ऐसा नहीं। राग का सर्वथा अभाव तो श्री वीतराग को होता है। जीव जहां तक वीतराग नहीं बनता, वहां तक जीव में राग तो रहता ही है। परंतु जीव में राग होने पर भी वह विरागी हो सकता है। संसार के सुख की अति आसक्ति बुरी लगे; यह आसक्ति वर्तमान में भी दुःखदायक है और भविष्य में भी दुःखदायक है, ऐसा लगे तो यह भी विरागभाव है। राग इतना तो घटा न? संसार के सुख के अति राग के प्रति तो अरुचि उत्पन्न हुई न? बाद में, विराग बढने पर ऐसा लगता है कि संसार का सुख चाहे जैसा हो, परंतु वह सच्चा सुख नहीं ही है।इसमें भी राग तो घटा न? फिर ऐसा लगे कि संसार का सुख, दुःख के योग से ही सुखरूप लगता है; सुखरूप लगने पर भी वह दुःख से सर्वथा मुक्त नहीं है और उसका भोग पाप के बिना नहीं हो सकता, इसलिए यह भविष्य के दुःख का भी कारण है; अतः संसार का सुख वस्तुतः भोगने लायक ही नहीं है।तो इसमें भी राग घटा या नहीं? जैसे-जैसे संसार के सुख का राग घटता जाता है, वैसे-वैसे विराग का भाव बढता जाता है। इस प्रकार संसार के सुख के प्रति राग का घटना ही विराग का भाव है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 20 अगस्त 2013

भाग्यशाली कौन?


आप अपनी भाग्यशालिता को सफल कर रहे हैं या नहीं? कर रहे हैं तो वह कितने अंश में सफल कर रहे हैं? यह सत्य विचार और निर्णय आपको करना चाहिए। परन्तु, ऐसा विचार कब हो सकता है? आपको अपनी इस भाग्यशालिता का सही भान हो तब न? आप अपनी भाग्यशालिता किसमें मानते हैं? पास में बहुत लक्ष्मी हो, शरीर निरोगी हो, पत्नी अच्छी मिली हो, संतान भी अच्छी हो, लोग आपके प्रति आदरभाव प्रकट करते हों, आप जहां जाएं वहां आपकी पूछ होती हो, आपको कोई अप्रिय नहीं बोल सकता हो और आपका सामना करने वाले को आप बर्बाद कर सकते हों, विषयराग जनित और कषायजनित ऐसी जो-जो इच्छाएं आपके मन में पैदा होती हों और वे इच्छाएं पूरी होती हों, आप चाहे आदर के पात्र न भी हों तब भी धर्म स्थानों में आपको आदर मिलता हो, तो ही आपको लगता है कि मैं भाग्यशाली हूं।इन सब भाग्यशालिताओं के सिवाय और कोई भाग्यशालिता आपकी दृष्टि में आती है क्या? ऐसी भाग्यशालिता ही सच्ची भाग्यशालिता लगे तो इन भाग्यशालिताओं के निमित्त से आप दुर्भाग्यशालिता को पाए बिना नहीं रहेंगे, क्योंकि यह मिथ्यात्वी मान्यता है। आपकी सही व सच्ची भाग्यशालीता तो यह है कि आपको जैन कुल मिला, जिसके कारण मोक्ष-प्राप्ति के लिए आवश्यक सामग्री की उपलब्धता आपको सहज है; किन्तु सवाल यह है कि आपको उसकी कद्र कितनी है? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 19 अगस्त 2013

साधु महाराज किस क्रम से धर्म बताएं?


साधु जिनेश्वर देव कथित धर्म को बताने लगे तो उसमें सर्वप्रथम सर्वविरति ही बताए। अधर्म से सर्वथा छूटना हो और एकांत धर्ममय आचरण करना हो तो सर्वविरति चाहिए ही। अतः प्रथम सर्वविरति का उपदेश करे। धर्म को जानने के लिए आए हुए जीव को यह बहुत रुचिकर लगे, परन्तु उस समय वह सर्वविरति धर्म स्वीकार करने में समर्थ नहीं हो और आग्रह करे कि भगवन! सचमुच धर्म तो यही है। यही धर्म संसार से शीघ्र मुक्त कर देने वाला है। परन्तु, इस धर्म को पालने का सामर्थ्य मुझ में अभी फिलहाल प्रकट नहीं हुआ है। अतः ऐसा धर्म बताने की कृपा करें, जिसको करते-करते मुझ में सर्वविरति धर्म को पालने का सामर्थ्य प्रकट हो सके।ऐसे जीव के समक्ष साधु देशविरति धर्म का प्रतिपादन करे। यह सुनकर जीव यदि देशविरति धर्म को स्वीकार करने हेतु उत्साहित बने तो वह देशविरति धर्म को स्वीकार करे। परन्तु, यदि कोई जीव देशविरति धर्म को भी स्वीकार करने की सामर्थ्य वाला न हो तो उस जीव को साधु क्या बताए? ऐसे जीव को साधु सम्यक्त्व के आचार आदि बताए। ऐसे जीव भी होते हैं, जिनकी योग्यता इतनी भी विकसित नहीं होती है, उन्हें साधु मार्गानुसारिता के गुण बताए। मार्गानुसारिता के आचार भी ऐसे हैं कि जिनका पालन करते-करते जीव धर्म प्राप्ति के योग्य बनता है और सर्वविरति तक पहुंच सकता है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 18 अगस्त 2013

कैसी हो दिनचर्या?


श्रावक प्रातःकाल उठकर क्या-क्या करे? देव को याद करे, देवादि को नमस्कार करे। बाद में धर्म, कुल और स्वीकृत व्रतादि को याद करे, भावना भाए। प्रतिक्रमणादि करता हो तो करे। फिर अपने गृहमंदिर में पूजा करे। शक्ति सम्पन्न श्रावक गृहमंदिर तो रखता है न? इसके बाद श्रावक संघ के मंदिर में जाए। वहां से गुरु के पास जाए। घर तो बाद में जाता है न? गुरु उसे क्या कहते हैं? देव और गुरु के पास वह क्यों जाता है? संसार के राग से और संसार के संग से छूटने के लिए न? श्रावक के मन में क्या होता है? ‘इन देव और गुरु की उपासना करते-करते संसार के राग से और संसार के संग से कब छूटूं’, ऐसा उसका मन होता है न? श्रावक तीर्थयात्रा करने जाता है तो किस भावना से जाता है? वहां जाने से संसार के राग और संग से जल्दी छुटकारा हो सकता है, ऐसा उसका विचार होता है न? एक स्थान पर जाने से असर नहीं हुआ, दूसरे स्थान पर असर न हुआ तो उसे विचार होता है कि सिद्धगिरिजी जाऊं! वहां का प्रभाव जोरदार माना जाता है।' ऐसे विचार के साथ जो देव के पास जाता है, गुरु के पास जाता है, तीर्थयात्रा पर जाता है, उसका संसार के प्रति राग कम न हो, ऐसा हो सकता है क्या? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा