रविवार, 30 जून 2013

बलिदान देकर भी धर्म की रक्षा करें


धर्म के ऊपर आफत आए और वीतराग नहीं बने हुए धर्मी बाह्य समता से चिपके रहें, यह उचित नहीं है। फिर भी यदि ऐसी बाह्य समता चिपक जाए तो उसका अर्थ होगा कि उस आत्मा के अन्तर में मोक्ष मार्ग के प्रति जैसा चाहिए वैसा राग अभी प्रकट हुआ ही नहीं है। स्वयं अशक्त हो और आक्रमण का सामना कर सके, ऐसी हालत न हो तो बात अलग है। सत्व के अभाव में कदाचित् सच्चा व्यक्ति भी प्रकट में न बोल सके, यह संभव है, किन्तु सच्चा राग होगा और उसके अन्तर में जलन नहीं होगी, यह संभव नहीं है। जिस वस्तु पर राग होता है, उस वस्तु की लूट रागी सहन नहीं कर सकता है। जिस वस्तु को आत्मा तारक मानती है, उस वस्तु के ऊपर आफत आए तो वह सहन नहीं कर सकती है। धर्म के रागी में प्रशस्त कषाय का उत्पन्न होना पूर्णतः स्वाभाविक है। सच्चा धर्मी दुनिया में संरक्षण करने योग्य एक मात्र मोक्ष मार्ग को ही मानता है, इसलिए वह पौद्गलिक ऋद्धि चली जाए तो इसे भाग्याधीन मान लेता है और स्वयं की निन्दा हो तो अपने अशुभ कर्म का उदय मान लेता है और समता रख लेता है, किन्तु मोक्ष मार्ग पर आफत आए तो वह इसे बर्दाश्त नहीं करता, अपना सम्पूर्ण बलिदान देकर भी वह उस आफत को टालने का प्रयास करता है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 29 जून 2013

विषय-कषाय की अधीनता झगड़ों की जड़


विषय और कषाय की अधीनता कितनी भयंकर वस्तु है? विषय-कषाय की अधीनता ने जगत में कौनसे-कौनसे अनर्थों को उत्पन्न नहीं किया? विषय-कषाय की अधीनता ने भाई-भाई के बीच में, बाप-बेटों के बीच में, पति और पत्नी के बीच में कितने-कितने झगडे पैदा किए हैं? विषय-कषाय की अधीनता का अस्तित्व नहीं हो तो झगडों का अस्तित्व भी कहां से होगा? इसका विचार तो करो! कोई कुटुम्ब ऐसा बताओगे कि जिस कुटुम्ब में किसी भी समय अर्थ-काम की रसिकता से अथवा विषय-कषाय की अधीनता से झगडा उत्पन्न न हुआ हो या युद्ध क्रीडा नहीं हुई हो? भाग्य से ही कोई कुटुम्ब ऐसा मिलेगा? तब, इस प्रकार के झगडे क्या घर के बाहर भी कम होते हैं? ऐसा होने पर भी धर्म के नाम पर ही अधिकांशतः झगडे हुए हैं’, इस प्रकार मिथ्या भ्रम फैलाया जाता है तो इसके पीछे मकसद क्या है? धर्म के प्रति तीव्र अरुचि और धर्मनाश की भावना का ही इसमें संकेत मिलता है न? यह ठीक नहीं है और ऐसे दुष्प्रचार को पूरी दृढता से रोकना चाहिए। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

विषय-कषाय की अधीनता झगड़ों की जड़


विषय और कषाय की अधीनता कितनी भयंकर वस्तु है? विषय-कषाय की अधीनता ने जगत में कौनसे-कौनसे अनर्थों को उत्पन्न नहीं किया? विषय-कषाय की अधीनता ने भाई-भाई के बीच में, बाप-बेटों के बीच में, पति और पत्नी के बीच में कितने-कितने झगडे पैदा किए हैं? विषय-कषाय की अधीनता का अस्तित्व नहीं हो तो झगडों का अस्तित्व भी कहां से होगा? इसका विचार तो करो! कोई कुटुम्ब ऐसा बताओगे कि जिस कुटुम्ब में किसी भी समय अर्थ-काम की रसिकता से अथवा विषय-कषाय की अधीनता से झगडा उत्पन्न न हुआ हो या युद्ध क्रीडा नहीं हुई हो? भाग्य से ही कोई कुटुम्ब ऐसा मिलेगा? तब, इस प्रकार के झगडे क्या घर के बाहर भी कम होते हैं? ऐसा होने पर भी धर्म के नाम पर ही अधिकांशतः झगडे हुए हैं’, इस प्रकार मिथ्या भ्रम फैलाया जाता है तो इसके पीछे मकसद क्या है? धर्म के प्रति तीव्र अरुचि और धर्मनाश की भावना का ही इसमें संकेत मिलता है न? यह ठीक नहीं है और ऐसे दुष्प्रचार को पूरी दृढता से रोकना चाहिए। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 28 जून 2013

धर्म में विघ्न डालना भयंकर दुःख का कारण


एकान्त हितकर मार्ग के प्रति भी वे ही लोग सुश्रद्धालु बन सकते हैं, जो सुन्दर भवितव्यता को धारण करने वाले होते हैं। सन्मार्ग के प्ररूपक सद्गुरु का योग प्राप्त होना, यह बहुत ही कठिन है। और प्राप्त हुआ योग भी फलदायी होना, यह तो उससे भी अधिक कठिन है। सन्मार्ग की रुचि उत्पन्न होने में लघुकर्मिता परमावश्यक वस्तु है। परन्तु, ऐसे भी जीव इस संसार में विद्यमान हैं, जो जीव सद्गुरु के कथन की हंसी उडाने में ही आनंद मानते हैं। ऐसे जीवों को सन्मार्ग का कथन फलेगा किस प्रकार से? आज का वातावरण तो देखो। आज सद्गुरुओं के वचनों की मजाक करना, यह तो सामान्य बात हो गई है। ऐसे को सद्गुरु का योग सफल हुआ या फूट गया? ऐसे लोगों का भविष्य तो निःसंदेह अंधकारमय और दुःखमय ही है।

आज कितने ही जीव सन्मार्ग के आराधकों को त्रास देने के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। स्वयं से आराधना नहीं होती हो तो दूसरों की आराधना में विघ्नकर क्यों बनना चाहिए? ये एकदम झूठे लोग भी विरोध करने की धुन में आज क्या लिख रहे हैं और क्या बोल रहे हैं? समाज-हित के नाम से ऐसी धमाल हो सकती है? तूफान स्वयं मचाना और दोष साधुओं को देना, इसका क्या अर्थ है? जिनमें प्रामाणिकता नाम की कोई चीज नहीं, वे गाली और कलंक न दें तो क्या करें? उनका मकसद एक ही है कि लोगों को किसी भी प्रकार से धर्मस्थानों में आने से रोकना। इस रीति से धर्म के सामने उत्पात मचाने वालों का हम भले ही बुरा न चाहें, उनका भी कल्याण हो, यही अभिलाषा है; परन्तु उनके पाप से उनका बुरा न हो, यह संभव नहीं है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 27 जून 2013

मोह-ममत्व ही दुःख का कारण


दुनिया में हजारों लोग प्रतिदिन मरते हैं, लेकिन क्या सभी के मरने का दुःख हमें होता है? किसी की अकाल मृत्यु सुनकर दया भावना के कारण क्षणिक दुःख-संवेदना हो, इसे छोड दीजिए तो बाकी दूसरा कोई मृत्यु को प्राप्त होता है तो दुःख नहीं होता है, जिसको अपना मान लिया हो, वैसा कोई मृत्यु को प्राप्त हो तो दुःख होता है। तब सोचिए कि इस दुःख को उत्पन्न करने वाला मरण है या ममत्त्व? जहां ममत्त्व नहीं है, वहां दयाभावना प्रकट हो अथवा कोई उपकारी चला जाए और इससे दुःख हो, यह बात पृथक है। किन्तु, इसके अतिरिक्त तो जिसके प्रति ममत्त्व नहीं है, उसकी मृत्यु से दुःख नहीं होता है, यह बात निश्चित है। पुत्र-पुत्री का मरण, माता-पितादि का मरण, संबंधियों का मरण, मोह के घर का दुःख उत्पन्न करता है। कारण कि यहां ममत्व बैठा हुआ है। तब इस दुःख में मुख्य कारण मरण है या ममत्व? यह ममत्व निकल जाए तो ऐसे मरण के कारण भी मोह के घर का दुःख उत्पन्न नहीं होगा, यह सुनिश्चित बात है। इसी प्रकार स्वयं के शरीर का ममत्व भी दूर हो जाए तो? स्वयं के शरीर पर आपत्ति आए, स्वयं का शरीर रोग से घिर जाए, ऐसे समय में समभाव को स्थिर रखने के लिए सहनशीलता की विशेष अपेक्षा रहती है। सामर्थ्यहीन जीव वैसे अशुभोदय के समय में असमाधि को प्राप्त हो जाते हैं, यह असंभव वस्तु नहीं है। सच्चा साधु स्वयं के शरीर को भी पर मानने वाला होता है। इस कारण वह प्रत्येक स्थिति में समभावजनित सुख का अनुभव कर सकता है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 26 जून 2013

निर्मल श्रद्धा ही सुखकारी


वर्तमान में सुख का अनुभव करने के साथ ही, भावीकाल को भी सुखमय बनाने का एकमात्र यही मार्ग है कि अनन्तोपकारी, अनंतज्ञानी श्री जिनेश्वरदेवों द्वारा प्रतिपादित यथावस्थित मुक्तिमार्ग के प्रति निर्मल श्रद्धा धारण करो और इस मार्ग की आराधना में ही दत्तचित्त बनो। जो निर्दोष और उसके उपरांत अनुपम सुख का अनुभव छः खण्ड के अधिपति चक्रवर्ती भी नहीं कर सकते और देवों के अधिपति इन्द्र भी नहीं कर सकते हैं, उस सुख का अनुभव सच्चे निर्ग्रन्थ कर सकते हैं। साधु साधुपन को प्राप्त हो तो जितने अंश में साधुपन की सुन्दरता होगी, उतने ही अंश में वह सुख का अनुभव कर सकता है। आज्ञाविहित मार्ग में समभाव से मस्त रहने वाले को बाह्य कारण दुःख उत्पन्न नहीं कर सकते। चक्रवर्ती या इन्द्र आदि को ऐसा समाधिसुख, इन्द्रत्व या चक्रवर्तीत्व से भी संभव नहीं है। आहार मिले, न मिले, मान मिले या अपमान, स्वागत हो या तिरस्कार, दोनों स्थितियों में पुण्य-पाप के उदय को समझने वाला समभाव में ही रहता है, यह सुख कोई सामान्य कोटि का नहीं है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 25 जून 2013

लालसा सर्वविरति की हो


कर्मलघुता को नहीं पाए हुए आत्माओं को अनन्त उपकारियों द्वारा कथित कल्याणकारी बातें भी न रुचें तो यह स्वाभाविक है। इसलिए भगवान ने गृहस्थ धर्म का भी उपदेश दिया है, किन्तु गृहस्थाश्रम में रहने का तो उपदेश कतई नहीं दिया है। गृहस्थावस्था का त्याग करके संयमी बनना, यह जिन आत्माओं के लिए शक्य नहीं है, वे आत्माएं भी आत्मकल्याण की साधना से सर्वथा वंचित न रह जाएं और वे भी क्रमशः सुविशुद्ध संयममय जीवन वाले बन सकें, इसीलिए ही भगवान ने गृहस्थ धर्म का उपदेश दिया है। उपकारकगण स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि देशविरति धर्म का भी सच्चा आराधक वही है, जो सर्वविरति धर्म की लालसा वाला हो।

गृहस्थावस्था को कल्याण का कारण मानने वाले अथवा गृहस्थावस्था में रचेपचे एक भी आत्मा को किसी काल में केवलज्ञान न हुआ है और न होने वाला है। गृहस्थावस्था में रहते हुए कल्याण की साधना वाले तो वे ही बन सके हैं और बन सकते हैं कि जो गृहस्थावास को हेय मानें और श्री जिनाज्ञानुसार संयमशील बनने में ही कल्याण मानने वाले बनें, असंयम का पश्चाताप करें और संयम का अनुसरण करें। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 24 जून 2013

जिनाज्ञा पालन में ही सच्चा हित


संयम के सच्चे अर्थी संसार को दावानल आदि रूप मानने वाले होते हैं। इसीलिए वे किसी को भी संसार में रहने की प्रेरणा करें ही क्यों? उनकी भावना तो सब कोई संयम के उपासक बनकर संसार को छेदन करने वाले बनें, यही होती है। आत्मा के स्वरूप को प्रकट करने के ही एकमात्र हेतु से, श्री जिनाज्ञा के अनुसार संयमी बनने का ही एकमात्र ध्येय मनुष्य मात्र का होना चाहिए। इससे विपरीत ध्येय हो तो आत्मा का अहित हुए बिना नहीं रहेगा, यह निर्विवाद बात है।

जीवन में शक्यता के अनुसार श्री जिनाज्ञा का पालन करने में ही सच्चा हित समाया हुआ है। इसलिए जो संसार का त्याग नहीं कर सकते हों, वे भी गृहस्थावस्था में जितने अंशों में श्री जिनाज्ञा का पालन करने के लिए प्रयत्नशील बन सकें, उतने अंशों में कल्याण को प्राप्त कर सकते हैं। इस कारण से श्री जिनाज्ञा के अनुसरण में ही सर्वस्व को मानने वाले साधुओं का उपदेश इसी ध्येय वाला होना चाहिए।

संसार में रहने की इच्छा वाले जीवों के लिए सच्चे साधुगण बेकार जैसे ही होते हैं। कारण कि संसार में रहने के लिए वे मददगार नहीं बन सकते। सच्चे साधुगण तो संसार से मुक्त बनने में ही मददगार होते हैं। ऐसा होने पर भी, साधुगण स्वयं की तरफ से संसार के जीवों को जो अभय प्रदान करते हैं, उससे तथा योग्य आत्माओं में संसार से मुक्त होने की भावना को प्रकट करने के लिए जो शक्य प्रयास करते हैं, इत्यादि से विश्व के प्राणीमात्र के उपकारी तो हैं ही। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 23 जून 2013

जिनशासन का साधु महासुखी


संसार त्यागी सांसारिक भोगों का अर्थी कतई नहीं होता है। जो मोक्ष के लिए ही आज्ञाविहित जीवन जीता है, वही सच्चा त्यागी है और वह ही त्याग का सुख अनुभव कर सकता है। संसार का त्यागी यदि संसार का अर्थी होगा तो वह महादुःखी होगा, बाकी तो उसके जैसा कोई इस जगत में सुखी नहीं है। सच्चा साधु स्वयं अनन्तज्ञानी श्री जिनेश्वर देव की आज्ञा की आराधना करके स्वयं के आत्म-स्वभाव के प्रकटीकरण का समय निकट ला रहा है और अनन्त जीवों को अभयदान दे रहा है। ऐसे विचार से भी श्री जिनशासन का साधु महासुखी होता है। इससे स्पष्ट है कि श्री जिनशासन का साधु तो स्वयं के त्याग का फल त्याग के साथ ही भोगना चालू करता है। उसको संयम कष्टरूप नहीं लगता है। सच्चे साधुओं को कठोर तपस्या वाला संयम भी तकलीफरूप नहीं ही लगता है। दुनियादारी के भोग के पदार्थों का संग्रह नहीं और उसका रस भी नहीं, इसलिए उसको उन पदार्थों को प्राप्त करने की, रक्षण करने की या बढाने की चिन्ता होती नहीं है। साथ ही लुटजाने जैसी कोई चीज नहीं कि जिससे हृदय को आघात हो और रोना पडे। उनको शोक के समाचार आने वाले नहीं हैं, शारीरिक वेदना या उपसर्ग-परिषह के समय समभाव में रहने का प्रयत्न करते हैं, इसलिए समाधि रहती है। संयम का यह तो प्रत्यक्ष फल है न? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 22 जून 2013

जो ‘ठकुर सुहाती’ करे वह साधु नहीं


यह रजोहरण (ओघा) तो विश्वास का धाम है। इसे देखकर सब मस्तक नमाने आते हैं। यह जिसके हाथ में होता है, उसे हर घर में जगह मिल जाती है। ओघा ऐसा विश्वास पैदा करता है कि इसे रखने वाला रूप, रस, गंध, स्पर्श में से एक का भी चोर नहीं होता। इस विश्वास का भंग हो, ऐसा जो करता है, वह कितने पाप बांधता है? मुनि तो स्वयं तिरता है और दूसरे को तारता है, परन्तु जो इस वेश के प्रति वफादार नहीं रहता, वह स्वयं मरता है और दूसरे को मारता है। यह जमानावाद तात्कालिक स्वाद है, पेट में जाकर गडबड करने वाला है, जहर फैलाने वाला है। जो आपको रुचिकर बातें कहें, उनका भक्त कभी मत बनना। त्यागी होकर भी जो आपको मान दे, उससे सावधान रहना। समझना चाहिए कि उसके त्याग में कहीं पोल है। साधु ठकुर सुहातीनहीं कहता, वह तो शास्त्रानुसारी खरी-खरी कहता है। वह न तो स्वयं चापलूसी करता है और न ही अपनी चापलूसी करने वालों को गोद में बिठाता है। जिस शास्त्र के आधार पर कुटुम्ब-कबीला छोडा, घरबार छोडा, मां-बाप छोडे, उस शास्त्र की बात आए वहां शास्त्र की बात बीच में न लावें’, ऐसा बोला जा सकता है क्या? ऐसा बोलने वाले वेश पहिनने के और साधु कहलाने के अधिकारी नहीं हैं। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 21 जून 2013

मूल के विस्तार को न माने वह मिथ्यादृष्टि


सूत्र में कहा गया एक अक्षर अर्थात्- मूल, निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि व टीकादि का एक भी अक्षर जिसे नहीं रुचता है, वह मिथ्यादृष्टि है। अंक गणित में पहले एक से नौ अंक होते हैं और दसवां शून्य। इसके बाद सब इन्हीं अंकों की कारीगिरी है, इसके अलावा नवीन कुछ भी नहीं, क्योंकि कितनी भी बडी संख्या में यही नौ अंक हैं और दसवां शून्य, इसलिए ग्यारह आदि जानने के लिए प्रथमतः दस अंकों को ही समझना पडता है। जब लाखों-करोडों की संख्या हो अथवा संख्याओं का अनुपात समझना हो तो यही नौ अंक उसका आधार होते हैं। इन अंकों के योग और गुणा-भाग को कोई नहीं माने तो वह मिथ्यात्वी ही हुआ न? पैंतालीस आगम मूल हैं और निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि व टीकादि मूल का विस्तार है। पेड के मूल से ही तना, शाखाएं, पत्तियां, फूल और फल विकसित हुए हैं। कोई कहे कि मैं तो केवल मूल को ही मानूं, तो क्या वह सम्पूर्ण वृक्ष का विवेचन कर सकता है? ऐसा जो कहे वह सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है? जो केवल मूल को माने, उसे वृक्ष की शीतल छाँया लेने और फल खाने का अधिकार नहीं है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 20 जून 2013

सम्पन्न ऋद्धि और दरिद्री तृष्णा का त्याग करें


धर्मदेशक ऋद्धि सम्पन्न को ऋद्धि का त्याग करने को कहे और दरिद्री को तृष्णा छोडने के लिए कहे। अपने पास जो हो उसका त्याग करना और तृष्णा का त्याग करना, यही कल्याणकारी है। ऐसा धर्मदेशक, ऋद्धि सम्पन्न और दरिद्री दोनों को कहता है। ऋद्धि सम्पन्नता में कल्याण और दरिद्रता में अकल्याण, ऐसा ज्ञानी नहीं कहते हैं। ऋद्धिसम्पन्न मूर्च्छादशा में और दरिद्री तृष्णा में मर जाता है, तो दोनों का अकल्याण होता है। ऋद्धि वाले का वर्णन आए तब उसका विवेचन भी इस दृष्टि से करना चाहिए कि जिससे श्रोतागण ऋद्धि के लोलुप न बनें, अपितु ऋद्धि की चंचलता को समझें तथा वैराग्य-भाव में रमण करें। कथानुयोग बांचने वाले धर्मदेशक श्रोता के अन्तर में विषय-विराग की भावना जन्म ले, कषाय-त्याग करने की वृत्ति हो, आत्मा के गुणों के प्रति अनुराग बढे और आत्मा के गुणों को विकसित करने वाली क्रियाओं में भी जुडे रहने की अभिलाषा प्रकट हो, इसी रीति से वांचन करना चाहिए। उस रीति से वांचन करते हुए भी श्रोता की अयोग्यता से दूसरा परिणाम आए तो भी धर्मदेशक को तो एकान्तरूप से लाभ ही होता है। इसी प्रकार श्रोताओं को भी धर्मकथा का श्रवण इसी इच्छा से करना चाहिए कि मेरे में विषय के प्रति वैराग्य हो, कषाय त्याग की वृत्ति सुदृढ बने। आत्मा के गुणों के प्रति सच्चा अनुराग विकसित हो और आत्मा के गुणों को विकसित करने वाली क्रियाओं में मेरा जितना प्रमाद है वह दूर हो। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 19 जून 2013

धर्मार्थी सावधान रहे


शासन बांझ नहीं है। आज जैन समाज की चाहे जैसी दुर्दशा हुई हो तो भी कोई सुसाधु, सुसाध्वी, सुश्रावक और सुश्राविका नहीं है, ऐसा कोई भी श्रद्धालु कह नहीं सकता। विषम काल में आराधना करने की इच्छा रखने वालों को विशेष सावधान रहना चाहिए। बाजार में जब उथल-पुथल चलती हो, तब व्यापारी कितना सावधान रहता है? उस वक्त वह खाना-पीना भी भूल जाता है और टेलीफोन को सिर पर रखकर नहीं जैसा ऊंगता है। खाते-पीते और चलते-फिरते भी उसे बाजार की चिन्ता रहती है। उसी प्रकार यहां भी उथल-पुथल चलती हो तब धर्मार्थी को विशेष चतुर होना चाहिए। बाजार में जैसे लक्ष्मी का अर्थीपन है, वैसा ही अर्थीपन धर्म में भी आ जाए तो सच्चे और खोटे का, अच्छे और खराब का परीक्षण न हो सके, ऐसा कुछ नहीं है। किन्तु, खोटे को छोडकर सच्चे की शरण में जाने की भावना हो तो ही ऐसा संभव होता है। कितनी ही बार निर्दोषों को भी दोषी मानने की भूल हो जाती है। ऐसी बातों से पवित्र, त्यागी और पूज्य जैन साधु-संस्था के लिए इतरों के हृदय में भी दुर्भावना पैदा हो जाती है तथा बाल-जीव धर्म से वंचित रह जाते हैं। इसलिए कदाचित् ऐसा प्रतीत होता हो तो उसको सुधार लेने का शक्य प्रयत्न करना चाहिए। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 18 जून 2013

सभी वेशधारी वंदनीय नहीं होते


साधु को आप हाथ जोडते हैं, वंदन करते हैं, उनका स्वागत करते हैं और उनकी भक्ति करते हैं; इन सबके पीछे रहे हुए हेतु को बराबर समझना चाहिए। आज अधिकांश लोग इस कीमत को भूल गए हैं। इसलिए वे बडे आराम से कह देते हैं कि हमारे लिए तो सभी समान हैं और सभी पूज्य हैं। आज अधिकांश लोग कह देते हैं कि भगवान का वेश तो है न!किन्तु यह विचार नहीं करते कि नाटकीय पात्र राजा का वेश धारण करे, उससे राजा नहीं बन जाते और प्रजा भी उन पात्रों को राजा मान कर सम्मान नहीं देती है। राजा के समान या अधिकारी मानकर मान देने वाले मात्र उनके वेश को नहीं देखते, अपितु यह राजा है या नहीं, अधिकारी है या नहीं ऐसा भी देखते हैं। वेश की कीमत है, वेश की आवश्यकता है, किन्तु अकेले वेश से काम नहीं चलेगा, गुण तो होना ही चाहिए। आपको यह निश्चित करना है कि श्री जिनेश्वर देव के साधु की भक्ति भी संसार से छूटने के लिए ही करना है। इसलिए आडम्बरियों और ढोंगियों की पहचान के लिए उनकी ध्यानस्थ दशा देखो, ध्यानमग्नता देखो, मुख ऊपर की निर्दोषता देखो, उनकी दृष्टि और उनके प्रसंग देखो, उनके आचार-विचारों से सहज ही पता चल सकता है कि वे सच्चे साधु हैं या कि ढोंगी महाराज? इसके लिए पूरी गहराई से खोज करनी चाहिए और वे साधुता पर खरे उतरते हों तभी उनके प्रति पूरे समर्पण भाव से वंदन-व्यवहार करना चाहिए। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 17 जून 2013

संयम-साधना सहज बात नहीं है


कुछ लोग अपनी अज्ञानता के कारण तो कुछ षडयंत्र के तहत ऐसा दुष्प्रचार करते हैं कि क्या करे? बिचारे दुःखी थे, इसलिए दीक्षा ली।ऐसा बोलने वाला अपनी आँखों के सामने हजारों दुःखियों को देखता है, उन सबको वैराग्य नहीं आता। फिर भी इस प्रकार की बात उसके मुँह से कैसे निकलती है? ऐसी बातें करने वाले खुद बाजार में रोटी के टुकडों के लिए घूमने वाले होते हैं, गधा मजदूरी करके पाप कर्म से पेट भरने वाले होते हैं। पेट भरने के लिए दीक्षा नहीं ली जाती। जो ऐसा बोलते हैं कि बेचारा दुःखी था, पेट भरने का साधन नहीं था, इसलिए दीक्षा ले ली, वे वास्तव में भयंकर पापात्मा हैं। उन लोगों को अपना पेट भरने के लिए चाहे जैसे निर्दयी काम करते हुए भी शर्म नहीं आती है। ऐसा कहने वाले पापात्माओं को भागवती दीक्षा या धर्म के ऊपर तनिक भी प्रेम नहीं होता है। मांग कर लाना और मिले उससे पेट भरना। मिले तो खाना, न मिले तो पूरी मन की प्रफुल्लता से तप करना और संयम पालना, यह कोई सहज वस्तु नहीं है। यदि यह सहज होता तो बदमाशी करके पेट भरने वाले उन लोगों ने कभी का वेश पहनकर यह कपटपूर्ण प्रयत्न किया ही होता। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 16 जून 2013

अनाचार से विवेकपूर्वक बचें


विवेकवान, कुशल व्यक्ति दम्भी आदमियों के दम्भ को निष्फल कर देते हैं, किन्तु पुण्य होता है और लोक का दुर्भाग्य होता है तो लोग दम्भियों के आगे समझदार की भी अवगणना कर देते हैं। उस अवसर में अज्ञानी लोग समझदार लोगों को भी बेवकूफ मानते हैं। इसीलिए लोकप्रवाह के अनुसार नाचना हितप्रद नहीं है। खोजकर, बुद्धि को विवेकमय बनाकर, यथार्थ कल्याणकारी मार्ग का अनुसरण करने का प्रयत्न करना चाहिए। आज का वात्याचक्र विचित्र है। आज के वात्याचक्र से विवेकशील आत्माएं ही बच सकती हैं। कारण कि आज बहुत ही योजनाबद्ध ढंग से अनाचार का प्रचार हो रहा है। आज परोपकार की बातें करके, अनाचार के मार्ग में प्रेरित करने के प्रयास हो रहे हैं। अहिंसा और सत्य के नाम से हिंसा और मृषावाद की ऐसी ही प्रवृत्तियां हो रही हैं। एक तरफ द्वेष करना नहीं, क्रोध करना नहीं, इत्यादि कहा जाता है और दूसरी तरफ दुनिया की सत्ता आदि का लोभ बढे, इस प्रकार के प्रयत्न हो रहे हैं। ये लोभ और क्रोध को बढाते हैं या घटाते हैं? अहिंसा का पालन कब होता है? पहले तो हिंसा की जड की तरफ तिरस्कार होना चाहिए। अर्थ और काम की लालसा, पौद्गलिक सुखों की अभिलाषा यह हिंसा की जड है। जब तक पौद्गलिक सुखों की अभिलाषा से हृदय ओतप्रोत रहेगा, वहां तक सच्ची अहिंसा आए, ऐसा शक्य ही नहीं है। समझदार कभी लोक प्रवाह में नहीं बहता। वह सम्पूर्ण विवेक के साथ आत्मा के हिताहित का चिन्तन करते हुए आगे बढता है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 15 जून 2013

लोक-प्रवाह में न बहें


लोकवाद की शरण में रहने से धोबी के कुत्ते जैसी दशा होती है। धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का’, उसी प्रकार लोकप्रवाद की शरण में रहने वाला स्वयं न तो अपना सुधार कर सकता है और न दूसरों का सुधार कर सकता है, उसकी तो दोनों ओर अवगति ही होती है। लोक की गति हवा जैसी है, लोग हवा के प्रवाह के साथ चलते हैं। पवन एक दिशा में नहीं बहता है, उसी प्रकार लोग भी एक दिशा का आग्रह नहीं रखते हैं। वे तात्कालिक रूप से सुविधावादी होते हैं। उनको जिस प्रकार का निमित्त मिल जाता है, उसी में ढल जाते हैं। वे प्रायः अनुस्रोतगामी होते हैं और बहाव के साथ बहते हैं। लोकप्रवाद प्रमुखतः हिताहित और तथ्यातथ्य आदि के विवेक पर निर्भर नहीं होता है। इसीलिए कहा जाता है कि केवल लोकवाद के ऊपर से किसी वस्तु का निष्कर्ष निकालना, यह मूर्खता है। लोक में भी कहा जाता है कि दुनिया झुकती है, झुकाने वाला चाहिए’, इसी कारण से इस दुनिया में भयंकर दुराचारी भी आडम्बर से पूज्य माने जाते हैं। दम्भी कुशल हो और उस प्रकार के पुण्य वाला हो तो वह लगभग सम्पूर्ण दुनिया को भी बेवकूफ बना सकता है। इसलिए हवा के साथ नहीं, अपने विवेक से जिनाज्ञा को सामने रखकर चलें। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 14 जून 2013

साधर्मिक बंधु, बंधु लगता है?


एक धर्म को प्राप्त सभी लोग आपस में बन्धु होते हैं। सचमुच में श्री जिनशासन में समानधर्मी होने के योग से प्राप्त होने वाला बन्धुत्व ही सच्चा बन्धुत्व है। यही बन्धुत्व सार्थक है। पहला बन्धुत्व कर्मोदय जन्य है, जबकि यह धर्मप्राप्तिजन्य है। धर्मप्राप्तिजन्य बन्धुत्व धर्म की वृद्धि का कारण ही बनता है। जो इस बन्धुत्व को पाता है, इसे विकसित करता है, वह महापुण्यशाली है। क्या आपको साधर्मिक बन्धु सचमुच में बन्धु लगता है? उसके सुख-दुःख की चिन्ता आपने कभी की है? उसको धर्म की आराधना में कहां अंतराय होती है, इसका कभी विचार किया है? समान-धर्मी आत्माओं के लिए समान-धर्मी आराधना की अनुकूलता की यथाशक्य कोशिश आपने कभी की है? आपको लगता है कि मेरा कोई साधर्मिक बन्धु विपत्ति में है तो यह मेरे लिए लाँछनरूप है? साधर्मिकों की भक्ति किस-किस प्रकार करनी चाहिए, क्या आप जानते हैं? उपकारी महापुरुषों ने इसका वर्णन करने में कोई कमी नहीं रखी है। दुःख की बात तो यह है कि आज व्यक्ति का इतना अधिक अधःपतन हो गया है कि कर्मजन्य बन्धुत्व हो या धर्मप्राप्तिजन्य, दोनों ही घोर स्वार्थ की भेंट चढ गए हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 13 जून 2013

धर्म स्थानों में शादी-पार्टियां न हों


खराब स्थान का अच्छा उपयोग हो सकता है, किन्तु अच्छे स्थान का खराब उपयोग कदापि नहीं हो सकता। उपाश्रय में कहीं अर्थ और काम की मंत्रणा होती है? आज अर्थ और काम की इतनी ज्यादा वांच्छा बढ गई है कि लोग धर्म स्थानों को भी अर्थ-काम की साधना में लगा रहे हैं। उपाश्रय में तो सिर्फ और सिर्फ धर्म-क्रिया ही होनी चाहिए, धर्म की ही बातचीत होनी चाहिए, धर्म का ही विचार होना चाहिए; किन्तु यहां तो शादी-ब्याह और पुत्र-पौत्र के जन्म-दिन मनाए जा रहे हैं, यह कितनी हैरानी और दुःख की बात है? बनवाने वाले ने तो धर्म-क्रिया के लिए स्थान बनवाया, किन्तु आज के उसके हकदार उनकी भावनाओं पर ही छीणी-हथौडा मारने के लिए तैयार हैं। इनके जाल में फंसने वालों को औचित्य का त्याग नहीं करना चाहिए, अपितु पूरी दृढता से कहना चाहिए कि यहां तो सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषधादि धर्म-क्रिया होती है। श्री जिनवाणी का श्रवण हो, धार्मिक विचारों का आदान-प्रदान हो, मोक्ष के ध्येय को सिद्ध करने वाली क्रियाएं यहां हो सकती हैं; किन्तु संसार को बढाने वाली क्रियाएं तो यहां हर्गिज नहीं हो सकती हैं। स्थान का दुरुपयोग करने वालों को अपनी पूरी शक्ति-सामर्थ्य लगाकर रोकना ही चाहिए। दुर्भाग्य से आज घर और बाजार से धर्म की बातें निकल चुकी हैं। अब उपाश्रयों से भी धर्म निकालना चाहते हैं क्या? श्री जिनमन्दिर और उपाश्रयों की पवित्रता का नाश करना चाहते हैं क्या? धर्म के अर्थियों को सावधान होना चाहिए। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 12 जून 2013

हम अपने संस्कारों का विचार करें


आज जैन समाज की कैसी दुर्दशा है? यह गंभीर चिन्तन एवं चिंता का विषय है। जैन कुल में जन्में लोगों की सारी गतिविधियां, व्यवहार और विचार जिनाज्ञा के विपरीत परिलक्षित होते हैं। पुत्र माता-पिता की आज्ञा नहीं मानता, भाई-भाई को नहीं मानता, भाई-बहिन के बीच खटास चलती है, देरानी-जेठानी के झगडे जगजाहिर होते हैं, चोरी, तस्करी, मिलावट, खोटे धंधे, खान-पान सब में जैन समाज बदनाम। ऐसी स्थिति आने के कारण पर क्या कभी आपने विचार किया है? जैन कुल में जन्म लिए हुए स्त्री-पुरुषों की ऐसी हीन दशा क्या कम दुःख का विषय है? जैन कुल के संस्कार पूर्ण रूप से जिन्दे और जागृत हों तो क्या ऐसी स्थिति कभी आ सकती है? श्री जिनेश्वर के उपासक, निर्ग्रन्थ गुरुओं के सेवक और अनंत ज्ञानियों द्वारा उपदिष्ट धर्म के पालक जैन, संसार में भी इसी प्रकार से जीवित रहने वाले होते हैं कि जिनकी जीवन की कथनी और करनी देखकर, अजैन लोगों को भी ऐसा लगता है कि- जैन जैन ही हैं। इनके आचार और विचारों को कोई पहुंच नहीं सकता, इनकी जोडी नहीं मिलती है। इसीलिए जो जैन ऐसे हों, उनको सच्चे जैन बनने की तैयारी करनी चाहिए। जो समस्त जैन कुल, वास्तविक जैन कुल बनें, तो जैनों का संसार बिना मालिक का कंगाल और संस्कारहीन नहीं ही रहे। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा