आज समाज की बहुत विचित्र दशा
है। मुनि को उपसर्ग न हो तो भी खडे करना,
ऐसा। आज तो ऐसी दशा भी
है कि यह तक भी कह दिया जाता है कि ‘साधु बाहर क्षेत्र में क्यों
नहीं विचरते? आहार न मिले तो भूखे रहें। साधु मुफ्तखोर हुए हैं’, ऐसा कहने वाले दरअसल श्री जिनेश्वर देव के संयम के स्वरूप
को समझते ही नहीं हैं। संयम की साधना न हो,
वहां मुनि नहीं जा
सकता, ऐसी बातें ये समझें कहां से? संयम की विराधना करके तो साधु लोग तीर्थयात्रा भी नहीं कर
सकते। श्री जिनेश्वर देव की आज्ञा के अनुसार ही संयम की आराधना करना, यही साधु के लिए वास्तविक यात्रा है। इस आज्ञा को लोपित
करके चलना, यह संयम को बेच खाने जैसा है। बाकी विचरने योग्य
क्षेत्रों में तो साधु यथाशक्य विचरते ही हैं और स्वयं के आत्महितार्थ विधि के
अनुसार यात्रा भी करते हैं। यानी सुसाधुगण विकट होते हुए भी योग्य प्रदेशों में
विचरण करते ही नहीं हैं, ऐसा है ही नहीं। परन्तु, आज संयम को बेच खाकर भटकने वाले, स्वयं की वाह-वाह के लिए भोले लोगों के हृदय में ऐसी खोट
पैदा करें और धर्मद्रोही ऐसा बोलें,
इसमें कोई आश्चर्य या
नवीनता नहीं है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
मंगलवार, 30 अप्रैल 2013
सोमवार, 29 अप्रैल 2013
जीवन की सफलता
आत्मा के मूलभूत स्वरूप को
प्रकट करने का प्रयत्न करना, यही इस मनुष्य जीवन को सफल
बनाने का उपाय है। इस बात को आज बहुत से लोग,
जैन कुल में उत्पन्न
होने पर भी समझते नहीं हैं। इसीलिए मोह को पैदा करने में कारणरूप बने संसर्गों को
लात मारने वालों की तरफ उनमें सम्मानवृत्ति जागृत होने के स्थान पर तिरस्कारवृत्ति
जागृत होती है। संसार का सुख एवं आधिपत्य,
बालवय वाला पुत्र और
युवान स्त्री आदि के प्रति मोह को त्याग कर,
संयम की साधना के लिए
उद्यमवंत बनने वाली आत्माओं के प्रति तो सच्ची श्रद्धालु आत्माओं का मस्तक सहज रूप
में झुक जाए। ऐसा हो जाए कि ‘धन्य हो ऐसी आत्माओं को’, यह बोल स्वतः निकल पडें। इतना ही नहीं, अपितु श्रद्धासम्पन्न आत्माओं को तो स्वयं की पामरता के लिए
खेद भी होता है। किन्तु, आज बहुत से पामरों को पामरता,
पामरता लगती ही नहीं है। संसार में निवास करना दुःखरूप है और संयम-साधना ही
कल्याणकारक है, ऐसा मानने वाले भी कम ही हैं।
अनन्तोपकारी श्री जिनेश्वरदेवों के शासन पर सच्ची श्रद्धा हो, ऐसी आत्माएं जैन गिने जाते आदमियों की लाखों की संख्या में
भी गिने-चुने ही होंगे। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
रविवार, 28 अप्रैल 2013
खुद के दोष छिपाने के लिए दूसरों पर दोषारोपण
आज अधिकांशतः यह दशा हो गई है
कि स्वयं के दोष देखते नहीं और दूसरों के दोष खोजे अथवा कल्पित किए बिना रहना
नहीं। पिता और पुत्र के मध्य में कोई,
जो पुत्र को शिक्षा
देने जाए तो पुत्र पिता के कल्पित दोषों को भी गाने लग जाता है। और जो पिता को
शिक्षा देने के लिए कोई जाए तो वह पुत्र के कल्पित दोषों को भी गाने लग जाता है।
कारण कि दोनों को स्वयं के दोष छिपाने हैं। इस प्रकार का आज पति-पत्नी के बीच में, भाई-भाई के बीच में,
माता-पुत्री के बीच
में, मित्र-मित्र के बीच में, सगे-संबंधियों के बीच में प्रायः सर्वत्र कमोबेश प्रमाण में
चल रहा है। इस दशा में धर्म के द्रोही, सुसाधुओं के ऊपर भी कल्पित कलंक चढाते हैं, इसमें आश्चर्य क्या?
आज कितनी ही बार
कुशिष्य भी क्या करते हैं। स्वयं उद्दण्ड बनकर गुरु की आज्ञा में न रहते हों, किन्तु कोई पूछे तो स्वयं खराब न कहलाने की दृष्टि से, वे गुरु पर भी कल्पित दोष लगाते हैं। कितने ही पतित भी ऐसा
धंधा करते रहते हैं। स्वयं पतित हुआ है,
किन्तु निन्दा दूसरे
साधुओं की और गुरु की करते हैं। ‘साधु और गुरु खराब थे, इसीलिए मुझे साधुपना छोडना पडा’, ऐसा कहने वाले पतित भी हैं। कई बार ईर्ष्यालु लोग भी ऐसा ही
करते हैं। आज कितने ही धर्मद्रोही,
साधु-धर्म व
साधु-संस्था के विरूद्ध प्रचार कर रहे हैं। स्वयं का क्षुद्र स्वार्थ साधने के
पीछे धर्म की कितनी हानि होगी, यह सोचने की बुद्धि उन
स्वार्थियों में नहीं होती है। ऐसे स्वार्थी स्वयं के भविष्य का भी विवेकपूर्वक
विचार नहीं कर सकते। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
शनिवार, 27 अप्रैल 2013
संसार से मुक्ति ही एकमात्र ध्येय हो
संसारीपन से मुक्त होने के
लिए एकमात्र अनुपम साधन अनंतज्ञानी श्री जिनेश्वर देवों द्वारा उपदिष्ट धर्म है।
धर्म की आराधना करने का वास्तविक हेतु यही है कि स्वयं का संसार नष्ट हो। श्री
जिनेश्वर देव के स्वरूप को जानने और मानने वाले में स्वयं का अथवा दूसरे का किसी
का संसार टिकाए रखने की भावना हो, ऐसा नहीं है। जिसको संसार में
रहने की रुचि हो, जिनको संसार में रहना अच्छा
लगता है, उनमें साधुपन भी नहीं और श्रावकपन भी नहीं है। स्वयं
का और सबके संसार के नाश की अभिलाषा रखना,
यह ऊॅंची में ऊॅंची
कोटि की इच्छा है। आत्मा में भाव-दया प्रकट हुए बिना इस प्रकार की उत्तम इच्छा
प्रकटे, यह संभव नहीं है। ‘जीव मात्र के संसार का नाश हो’,
ऐसी अभिलाषा की
उत्कृष्टता से तो तीर्थंकरत्व पुण्य का उपार्जन होता है। संसार अर्थात् विषय और
कषाय। जिसके विषय-कषाय दूर हो गए, उसका दुःख भी दूर हो गया।
उसका संसार परिभ्रमण भी टल गया है। विषय-कषाय के योग से ही आत्मा को जन्ममरणादि का
दुःख भोगना और चार गति चौरासी लाख जीव योनियों में भटकना पडता है। यह मानव-भव उससे
मुक्ति के लिए है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013
मानव जन्म की सार्थकता
स्वर्ग एवं मोक्ष प्राप्त
कराने वाले मानव-जन्म को पाकर भी जो मनुष्य नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों में
उद्यमशील रहते हैं, वे सचमुच खेद उत्पन्न कराने
वाले हैं, क्योंकि ऐसे मनुष्यों को देखने से हितैषी सज्जनों को
वास्तव में खेद होता है। जिस मानव जन्म को प्राप्त करने के लिए अनुत्तर देवता भी
प्रयत्नशील रहते हैं, उस मानव जीवन को पाप कार्यों
में नष्ट कर डालना पुण्यशाली मनुष्यों का कार्य नहीं है, अपितु पापियों का ही कार्य है। जीवन को हर वक्त समस्याओं, निराशाओं और नासमझी के साथ जीना जीना नहीं है, मात्र जीवन का बोझ ढोना ही है। ऐसे व्यक्ति बहुमूल्य मानव
जन्म को नष्ट कर अक्षय सुख-शान्ति-आनंद से वंचित ही रहते हैं।
अतः पुण्योदय से प्राप्त मानव
जन्म को सफल एवं सार्थक करने के उपाय करने चाहिए। उसे सार्थक करने के लिए मुक्ति
का लक्ष्य बनाकर अर्थ एवं काम की आसक्ति से बचने, जिनेश्वर देव की सेवा में ही आनंद अनुभव करने, सद्गुरुओं की सेवामें रत रहने तथा श्री वीतराग परमात्मा के धर्म की आराधना में
निरंतर प्रयत्न करने अर्थात् भाव सहित अनुकम्पा-दान एवं सुपात्र-दान देने, शील-सदाचार का सेवक बनने, तृष्णा का नाश करने वाले तप में रत रहने और अपने साथ दूसरों की कल्याण-कामना
करने, मैत्री आदि चार एवं अनित्यादि बारह तथा अन्य भावनाओं
का सच्चे हृदय से उपासक बनने के प्रयत्न करने चाहिए। तभी मानव-जन्म की सार्थकता
है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
गुरुवार, 25 अप्रैल 2013
स्वर्ण पात्र में मदिरा
स्वर्ण पात्र में मदिरा
अमूल्य मानव जीवन आयु के
अनुरूप चेष्टाओं में ही नष्ट कर डालना विवेकी मनुष्यों के लिए लज्जास्पद है। जो
पुरुष बचपन में विष्टातुल्य मिट्टी में लीन रहते हैं, युवावस्था में काम-चेष्टा में लीन रहते हैं एवं वृद्वावस्था
में अनेक प्रकार की दुर्बलताओं से पीड़ित रहते हैं, वे किसी भी आयु में पुरुष नहीं हैं,
अपितु बाल्यावस्था में
शूकर, युवावस्था में गर्धभ हैं और वृद्धावस्था में अत्यंत
वृद्ध बैल हैं। मानव जन्म पाकर भी बचपन में माता की ओर ताकते रहने, युवावस्था में पत्नी का मुँह ताकते रहने और वृद्ध अवस्था
में पुत्र का मुँह ताकते रहने में मूर्खता है। जो मनुष्य सिर्फ धन की आशा और भौतिक
सुख-सुविधाओं की आकांक्षाओं में विह्वल होकर अपना जन्म दूसरों की नौकरी में, कृषि में, अनेक आरम्भ युक्त व्यवसाय में
एवं पशुपालन में व्यतीत करते हैं, वे अपना जीवन व्यर्थ नष्ट
करते हैं।
जो मनुष्य अपना जीवन
धर्म-क्रियाओं में व्यतीत करने के बदले सुख के समय काम-वासना में एवं दुःख के समय
दीनतापूर्ण रुदन में व्यतीत करते हैं,
वे मोहान्ध हैं। क्षण
भर में अनेक कर्मों के समूह को क्षीण करने की क्षमता वाले मनुष्य-जीवन को पाकर भी
जो पाप-कर्म करते हैं, वे सचमुच पापी हैं।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र के पात्ररूपी
मानव-जन्म को पाकर भी जो मनुष्य पाप करते हैं,
वे स्वर्ण पात्र में
मदिरा भरने वाले हैं। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
बुधवार, 24 अप्रैल 2013
रोम-रोम में धर्म व्याप्त हो
केवल बातें करने वाले लोग
धर्म की आराधना नहीं कर सकते। धर्म तो हमारे रोम-रोम में व्याप्त होना चाहिए।
ज्ञानियों के एक-एक वचन के लिए सर्वस्व समर्पित करने की उत्कंठा हम में बलवती होनी
चाहिए। इसके बिना योग्य आलंबनों का उचित लाभ नहीं लिया जा सकता। यदि उत्तम संगति
प्राप्त होने पर भी आवश्यक सद्भावना की हृदय में उत्पत्ति न हो तो हमारा महान्
दुर्भाग्य ही माना जाएगा। संसार में ख्याति प्राप्त करने के लिए अथवा किसी अन्य
सांसारिक स्वार्थ के लिए जो लोग सत्य आदि धर्म के उपासक बने हों, वे सत्य आदि धर्म को हानि ही पहुंचाते हैं। उनका ज्ञान
अज्ञान के समान, उनका संयम असंयम के समान और
उनकी अहिंसा हिंसा के समान ही कार्य करती है। जिससे धर्म दौडा हुआ हमारे पास आए, वही शिक्षा है,
वही ज्ञान है। जो
शिक्षा हमें धर्म से विपरीत ले जाए,
ज्ञानी और उनके वचन की
हंसी कराए, ज्ञानियों द्वारा कथित अनुष्ठानों की खुले बाजार में
मजाक हो, उस ज्ञान से,
उस शिक्षा से किसी का
भला नहीं हो सकता, उससे तो दुर्गति ही होने वाली
है, विनाश ही होने वाला है, इसलिए ऐसे कुत्सित विचारों, शिक्षा और प्रयासों से हमेशा बचकर रहें और वास्तविक धर्म से अपने रोम-रोम को
आप्लावित करें। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
मंगलवार, 23 अप्रैल 2013
सच्चा धर्म प्रेमी पाखण्डियों का मुकाबला करता है
अज्ञानी आत्माएं पाखण्डी एवं
स्वार्थी मनुष्यों के जाल में फंसने के कारण महान भयानक पाप को भी धर्म मान लेती
है और धर्म के नाम पर अनेक प्रकार के हिंसादि घृणित कार्य प्रारम्भ करती है। ऐसे
मनुष्यों को यदि पाप-मार्ग से कोई उबारना चाहे और सत्य का ज्ञान कराना चाहे तो वह
भी उन पापात्माओं से सहन नहीं होता। सत्य का ज्ञान कराने के लिए उपकारी पुरुष कठोर
शब्दों का प्रयोग भी करते हैं और उसके लिए उन्हें अनेक कष्ट सहन करने पडते हैं।
सच्चा धर्म-प्रेमी मनुष्य धर्म की रक्षा के लिए अपनी ताकत का उपयोग करने में
लेशमात्र भी प्रमाद अथवा उपेक्षा नहीं करता और उसी में उसके धर्म-प्रेम की कसौटी
होती है। जिन्हें जैन शासन के प्रति प्रेम नहीं है वे तो बात-बात में यह कह देते
हैं कि ‘होगा,
जो करेगा वो भरेगा, हम क्यों व्यर्थ समय नष्ट करें?’ ‘चलने दो’ अपने को क्या करना है, ऐसे मंद विचारों और लापरवाही से समाज सड जाता है। शासन का
सच्चा प्रेमी तो ऐसे समय पर शान्त बैठा रह ही नहीं सकता। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
सोमवार, 22 अप्रैल 2013
भक्ति में हृदय का रस प्रवाहित होना चाहिए
गीत तो सभी गाते हैं, परन्तु जिस गीत में हृदय का रस प्रवाहित होता हो, उस गीत का आनंद निराला ही होता है, चाहे गले में मधुरता न भी हो। हृदय की भक्ति के प्रत्येक
शब्द में रस प्रवाहित होता है। जिन-भक्ति करते समय भला वैराग्य का रस क्यों न
प्रवाहित हो? अपूर्व आराधनाओं के कारण जो आत्माएं तीर्थंकरों के
रूप में अवतरित हुई, अपूर्व दान देकर निर्ग्रन्थ
बनीं, घोर तपस्याएं की और अनेक भयानक उपसर्गों व परिषहों
के समय भी अपने मूल स्वरूप में स्थिर रहकर केवलज्ञान प्राप्त किया और मुक्ति-पद
प्राप्त किया, उन आत्माओं के समक्ष बैठकर भक्तिपूर्ण हृदय से स्तवन
करते हुए आत्मा में कैसी-कैसी ऊर्मियें उठनी चाहिए, इस पर तनिक विचार करो।
गृहस्थ जीवन में जाँचकर देखो
कि जहां हमारा स्वार्थ होता है, वहां विनय और भक्ति करना सबको
आता है। संसार के अनुभव का उपयोग करना यहां सीख जाओ तो कार्य हो सकता है। गुण तो
विद्यमान हैं, सिखाने की आवश्यकता नहीं है, परन्तु जो प्रवाह पश्चिम की ओर हो रहा है, उसे पूर्व की ओर मोडो। आप में गुण, योग्यता, शक्ति सबकुछ है, परन्तु वह सब इस ओर मोडने की आवश्यकता है। बताइए, आप यह चाहते हैं क्या?
क्या आप चाहते हैं कि
आपके गुण आदि का पथ मोडने वाला कोई मिले?
यदि कोई प्रवाह को मोड
दे तो आपको आनन्द प्राप्त होगा या नहीं?
कल्याण की कामना करने
वाले व्यक्ति को ऐसा आनन्द अवश्य होना चाहिए। आत्म-गुणों का विकास हो गया तो देवता
भी आपको नमस्कार करेंगे ही। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
रविवार, 21 अप्रैल 2013
धर्मपरायण को देवता भी नमन करते हैं
धर्मपरायण को देवता भी नमन
करते हैं
मधुर स्वर में, किसी को खलल न हो ऐसे स्वर से, गम्भीर अर्थपूर्ण स्तवन,
पूरी तन्मयता और हृदय
के उल्लास से भगवान के समक्ष गाने चाहिए कि जिससे दोषों का पश्चाताप टपक पडे और
भगवान के गुण आविर्भूत हों। इस प्रकार आत्मा दोषों से पीछे हटती है, यानी जिनालय से बाहर जाने पर वह पुनः पूर्ववत् विषयों एवं
कषायों में अनुरक्त नहीं होती। हृदय की उमंग के साथ वास्तविक भक्ति तो सचमुच
मनुष्य ही कर सकते हैं। देवतागण विषयों एवं कषायों के अधीन रहते हैं और उस प्रकार
की सामग्री से प्रतिपल घिरे हुए रहते हैं,
इसलिए जितनी उच्च कोटि
की भक्ति मनुष्य कर सकते हैं, उतनी उच्च कोटि की भक्ति
देवता नहीं कर सकते।
देवता लोग अरिहंत परमात्मा के
कल्याणक महोत्सव मनाने आते हैं, तब भी वे मूल रूप में नहीं
आते, बल्कि उत्तरगुण ही आते हैं। समस्त सामग्री से विलग
होकर वास्तविक ‘निसीहि’ से जैसी श्रेष्ठ भक्ति मनुष्य कर सकते हैं, वैसी भक्ति देवता लोग नहींरूप से कर सकते हैं, इसलिए देवता भी धर्म-परायण मनुष्यों को नमस्कार करते हैं। -आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
शनिवार, 20 अप्रैल 2013
महावीर इस युग के सबसे बडे मनोवैज्ञानिक
हम
बहुत सौभाग्यशाली हैं कि हमें आज श्रमण भगवान महावीर स्वामी की 2,612 वीं
जयंती मनाने का सुअवसर प्राप्त हुआ है।
यह
तो आप सभी प्रायः जानते ही हैं कि प्रभु महावीर का जन्म वैशाली गणराज्य के
कुण्डलपुर में हुआ। उनकी माता त्रिशला और पिता सिद्धार्थ थे, भाई
नंदीवर्द्धन थे। प्रभु ने 30 वर्ष की अवस्था में संयम ग्रहण
किया, साढे बारह वर्ष तक घोर तपश्चर्या की और फिर केवलज्ञान
प्राप्त किया। तीर्थ की स्थापना की। इसके बाद तीस वर्ष तक ग्रामानुग्राम विचरण
करते हुए उन्होंने मोक्षमार्ग का उपदेश दिया और उसके पश्चात उन्होंने निर्वाण
प्राप्त किया। वे हमारे 24वें तीर्थंकर हुए। यह सब तो आप
वर्षों से सुनते आ रहे हैं और मैं भी यदि यही सब कहूंगा तो शायद आपको रुचिकर नहीं
लगेगा। मैं आज आप लोगों के सामने जो कुछ रखने जा रहा हूं, वह
आज की युवा पीढी, खासकर बुद्धिजीवी वर्ग और धर्म से दूर भागने वाले
लोगों के लिए पढने-समझने जैसा है।
क्या
आप जानते हैं और मानते हैं कि भगवान महावीर बहुत जिद्दी थे? कभी
आपने इस नजरिए से सोचा है कि भगवान महावीर कोई भगवान-वगवान नहीं थे, वे
भी आपके और हमारी तरह एक सामान्य इंसान थे? अधिक
से अधिक कह दें तो वे राजकुल में जन्मे एक राजकुमार थे और मानव से महामानव बनने की
उनकी दिलचस्प और संघर्षमयी यात्रा उनके जिद्दीपन की वजह से ही सफल हुई। वे एक
सामान्य इंसान से सन्यासी हुए, तपस्वी हुए, अरिहंत, तीर्थंकर
और फिर सिद्ध हुए।
उनकी
संयम यात्रा के दौरान उन्होंने समाज को जैसा देखा-जाना, उसका
उन्होंने मनोवैज्ञानिक समाधान दिया, इसलिए वे इस युग के सबसे बडे
मनोवैज्ञानिक हैं। मनोविज्ञान आप समझते हैं? साइकोलॉजी? मन
का विज्ञान? आदमी तनावग्रस्त क्यों है? आदमी
डिप्रेशन में क्यों है? आदमी क्रूर-हिंसक क्यों है? आदमी
क्रोधी क्यों है? घर में महिलाएं बर्तन क्यों पटकती हैं? मर्द
औरत को क्यों पीटता है? क्यों उसमें अहंकार है? क्यों
लोग आत्महत्या कर लेते हैं? कैसे उन्हें आत्महत्या से बचाया जा
सकता है? औरतें हिस्टीरिया में पछाडे खा रही है, उसका
उपचार क्या है? इंसान को गंदे और नकारात्मक विचार क्यों आते हैं? लोभ, लालच, अहंकार, माया, असुरक्षा
की भावना, परिग्रह, प्रतिस्पर्द्धा, अशान्ति, दुःख, विशाद
और इस तरह के कई सवाल हैं जो मनोविज्ञान से संबंधित हैं। सात सौ से ज्यादा प्रकार
की बीमारियां हैं जो मनोविज्ञान से संबंधित हैं। बीपी, शूगर, एसीडिटी, हाइपरटेंशन
और इस प्रकार की कई बीमारियां, जिनका उपचार महान मनोवैज्ञानिक
भगवान महावीर स्वामी ने बताया है।
नींद
नहीं आती। आप लोगों में से भी कई भाई-बहिन होंगे, जिन्हें
नींद नहीं आती होगी? आप तो नींद की गोली ले लेते हैं, इस
डर से कि नींद नहीं आएगी तो बीमार हो जाएंगे, दूसरे
दिन काम कैसे करेंगे? लेकिन महावीर ने तो संयम ग्रहण करने के बाद अपने पूरे
छद्मस्थ काल में नींद ली ही नहीं, उन्हें तो कई टुकडों में कुछ
क्षणों की झपकियां ही आईं, जो पूरे छद्मस्थ काल में कुल
मिलाकर मात्र एक अंतर्मुहूर्त, लगभग 48 मिनिट
जितने समय की होती हैं। वे तो सीधे-सपाट कभी सोए ही नहीं, निरन्तर
कायोत्सर्ग और ध्यान में ही रहे। और आहार कितना किया? साढे
बारह वर्ष में कुल मात्र 349 दिन। कुल मिलाकर एक वर्ष के जितना
समय भी नहीं। लगभग 4,550 दिनों में से मात्र 349 दिन
एक समय आहार लिया। फिर भी उन्होंने ग्रामानुग्राम विचरण किया। इतने उपसर्ग सहे।
कभी किसी चण्डकौशिक जैसे भयंकर सांप ने काटा, तो
कभी संगम जैसे देव ने उन्हें पछाडा, तो कभी किसी ग्वाले ने कान में
कीले ठोक दिए! सबकुछ सहन किया, कभी ऊफ तक नहीं किया। वे अपने
लक्ष्य से पीछे नहीं हटे।
यहां
तक कि केवलज्ञान प्राप्त करने और तीर्थ की स्थापना करने के बाद भी प्रभु महावीर को
चैन नहीं था। प्रभु महावीर ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन
सुखाय’ जिन सिद्धान्तों का प्रतिपादन कर लोगों को दुःख-मुक्त
करना चाहते थे, उसका भी प्रबल विरोध करने वाले उस समय थे। ऐसे
अलग-अलग धार्मिक मान्यताओं वाले 363 विरोधी मतावलम्बी तो स्वयं भगवान
के समवसरण में आकर बैठते थे और वहां देशना सुनने के बाद बाहर जाकर विचार करते थे
कि इन बातों का खण्डन कैसे किया जाए और वे दुष्प्रचार करते थे। गोशाला और जमाली
जैसे लोगों ने भगवान से ही ज्ञान प्राप्त कर भगवान के खिलाफ अपना पंथ चलाया और
लोगों को सुविधा-भोगी बनाया। प्रभु के 14,000 साधु, 36,000 साध्वियां
और 1,59,000 श्रावक व 3,18,000 श्राविकाएं; इस
प्रकार कुल 5,27,000 अनुयायी थे, जबकि गोशाला के 11 लाख
अनुयायी थे; लेकिन आज उनका कहीं अस्तित्व नहीं है। क्योंकि वे
मिथ्यात्वी थे। गोशाला को और जमाली को ज्ञान का अपच हो गया था। तो ऐसे प्रभु
महावीर जिनकी वाणी ध्रुव सत्य है, जिसे न कभी कोई चुनौती दे सका और न
दे सकेगा, उनके आप अनुयायी हैं, यह
कितने गर्व की बात है। वे राग और द्वेष से रहित थे, वीतरागी
थे, इसलिए उनकी वाणी कभी गलत हो ही नहीं सकती। गलत बात
तभी बोली जाती है, जब कोई तुच्छ स्वार्थ हो, उनका
कोई स्वार्थ था ही नहीं, वे तो वीतरागी, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त
थे। लेकिन, उन्होंने इस सत्य को पाने के लिए, जीवों
के कल्याण के लिए कितना कुछ सहा, यह चिन्तन का विषय है। ऐसा आपके
काम और व्यवसाय में विरोधियों का विघ्न हो तो आप कितने तनाव में आ जाएंगे? आपके
बीपी का क्या होगा? आपकी नींद का क्या होगा? लेकिन, भगवान
महावीर को कभी इसका तनाव या चिन्ता हुई? नहीं!
आप
कहते हैं कि खाना नहीं खाएंगे तो कमजोर हो जाएंगे, खाना
भी कैसा? पीजा, बर्गर, फास्टफूड, जंकफूड, पेप्सी, कोला, भक्ष्य-अभक्ष्य
का विवेक किए बिना जो आया उसे ठूंसना है, क्योंकि जुबान को स्वाद आता है, इन्द्रियों
की गुलामी करनी है! नींद भी पूरी चाहिए, खाना भी पूरा चाहिए, त्याग
नहीं हो सकता, इसमें कमी होगी तो बीमारियां होंगी। फिर महावीर बीमार
क्यों नहीं हुए? बडे-बडे राजे-महाराजे, बडे-बडे
श्रेष्ठी, शालीभद्र जैसी कोमल काया, अपार
ऋद्धि-सिद्धि को छोडकर महावीर के पीछे निकल पडे, ये
सभी कभी बीमार क्यों नहीं हुए? कभी आपने यह नहीं सोचा कि इन इन्द्रियों
की गुलामी और जिव्हा के स्वाद के कारण हमारी आधी से ज्यादा बीमारियां हैं? मन
और इन्द्रियां आपके वश में नहीं है, इसलिए ये बीमारियां हैं। महावीर के
उपदेशों पर आपकी दृढ श्रद्धा और विश्वास नहीं है, उनको
जीवन में ढालने के प्रति आप में उदासीनता है, शुद्ध
संयम के प्रति आपके मन में उदासीनता है, इसलिए ये बीमारियां हैं। भगवान
महावीर को तो यह सब बीमारियां नहीं हुई। आप कहेंगे कि वे तो भगवान थे! बस, उन्हें
भगवान कहते ही सब बात खत्म! हम जब किसी को भगवान मान लेते हैं तो आगे कुछ करने को
रहता ही नहीं है। "वे तो भगवान थे, वे तो सबकुछ कर सकते थे, हम
तो इंसान हैं, हम यह नहीं कर सकते।" यह केवल जी चुराने या
अज्ञानता की बात है। यह गलत है। पहली बात तो यह कि वे भगवान नहीं थे। वे साधारण
इंसान थे, उनमें इंसानियत थी और इंसान के रूप में उन्होंने जो
कुछ पुरुषार्थ किया, राजपाट, अपार रिद्धि-सिद्धि और राजसी
सुख-भोग का त्याग किया, संयम ग्रहण किया, उग्र
तपस्याएं की, उससे अतिशय लब्धियां हांसिल की, केवलज्ञान
प्राप्त किया, उससे वे हमारे लिए भगवान बने, हमें
रास्ता दिखाया, इसलिए हम उन्हें भगवान कहते हैं, मानते
हैं, पूजा करते हैं; और
उन्होंने हमें रास्ता भी कैसा दिखाया कि जिस पर हम चलकर स्वयं भगवान बन सकें, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त
हो सकें।
बात
दरअसल यह है कि हम उस रास्ते पर चलने की बजाय, उसकी
पूजा में ही लग गए। हमें किसी गांव जाना है, किसी
ने बताया कि उस गांव का रास्ता इधर है, हम उस रास्ते पर आगे बढने की बजाय, वहीं
बैठकर रास्ते की पूजा करने लगें तो क्या उस गांव में पहुंच सकते हैं? नहीं!
इसी प्रकार हम सभी चाहते तो मोक्ष हैं, हम चाहते तो अक्षय सुख और अक्षय
आनंद हैं, किन्तु उसके लिए पुरुषार्थ नहीं करना चाहते हैं।
मोक्ष यदि हमारी मंजिल है तो वहां पहुंचने के लिए आचरण का पुरुषार्थ तो करना पडेगा
न? आज
तो हम धर्म कर रहे हैं लौकिक ऐषणा के लिए। धर्म के प्रभाव से मुझे स्वर्ग मिल जाए, धर्म
के प्रभाव से भौतिक सुख-सुविधा, ऋद्धि-सिद्धि मिल जाए। मिल जाएगा, लेकिन
इसका अंतिम परिणाम क्या होगा? धर्म सबकुछ देता है, धर्म
करने से सबकुछ मिलता है, लेकिन लक्ष्य मोक्ष का ही होना
चाहिए; तो पुण्यानुबंधी पुण्य का उपार्जन होगा; परन्तु
यदि हमने और किसी चीज की कामना कर ली तो पापानुबंधी पुण्य उपार्जित होगा, जिसके
फलस्वरूप चाही गई वस्तु तो आपको मिल जाएगी, लेकिन
वह अंततोगत्वा आपको पाप मार्ग पर लेजाकर दुर्गति का मेहमान बनाएगी। जबकि मोक्ष की
और सिर्फ मोक्ष की ही आकांक्षा से आप धर्म करेंगे तो पुण्यानुबंधी पुण्य से आपको
सबकुछ मिलेगा और वह आपको पाप की ओर नहीं ले जाएगा। आज तो स्थितियां बहुत ही विकट
हो गई है, हम तीर्थंकर भगवानों को गौण कर उनकी सेवा में रहने
वाले देवी-देवताओं की खुशामद में लग गए हैं। अपने सोचने का, चिंतन
का थोडा नजरिया बदलिए। धर्म को वास्तविक स्वरूप में अपनाइए और उसकी सही आराधना
करिए, प्रभु महावीर के सिद्धान्तों को आचरण में ढालिए और
फिर देखिए उनका कमाल। खैर...... मैं पुनः अपनी मूल बात पर आता हूं।
जैसा
मैंने शुरु में कहा कि भगवान महावीर जिद्दी थे। मेरा मकसद यहां भगवान को जिद्दी
कहकर उनकी अवमानना, आशातना करने का नहीं है। मेरे लिए वे पूज्य हैं, आदरणीय
हैं, आचरणीय हैं। वे जिद्दी थे, कैसे? वे
दृढ संकल्पी थे, कैसे? उनकी जिद्द थी संयम की, उनकी
जिद्द थी तपस्या की, उनकी जिद्द थी जीव मात्र की समस्या का समाधान पाने की, उनकी
जिद्द थी सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बनने की और सभी जीवों के कल्याण की, सभी
को दुःख मुक्त होने, बीमारियों से मुक्त होने का रास्ता बताने की।
महावीर
ने देखा कि सामाजिक जीवन में न केवल आर्थिक विषमता है, प्रत्युत
वर्गभेद भी चरम पर है, मानव-मानव के मन में एक-दूसरे के प्रति ममता और
सौहार्द के स्थान पर घृणा-ग्लानि कूट-कूट कर घर कर गई है। समाज में स्त्रियों का
स्थान अत्यंत नगण्य है, दास और दासियों के रूप में मनुष्य, स्त्री
और बालकों का क्रय-विक्रय ठीक उसी प्रकार हो रहा है, जिस
प्रकार सामान्य उपभोग की वस्तुओं का। महावीर के मन में विराग जन्मा, उसका
एक कारण समृद्धि में से जन्मा त्याग था, परन्तु उससे अधिक महावीर ने अपने
चारों ओर के सामाजिक वातावरण को जैसा देखा-समझा और युग के आह्वान को जिस तीव्रता
के साथ अनुभव किया, उससे उन्हें लगा कि यह सारा समाज जैसे ‘त्राहिमाम्-त्राहिमाम्’ की
आवाज देकर उन्हें बुला रहा है। ‘सवी जीव करूं शासन रसि’, यह
भावना जब तीव्र होती है, तो तीर्थंकर गौत्र का बंध होता है।
आप महावीर के 27 भवों का खयाल करेंगे तो आपको इस बात की पुष्टि हो
जाएगी। महावीर ने अनुभव किया कि जैसे चारों ओर से अनगिनत आवाजें उन्हें
पुकार-पुकार कर कह रही हों कि हमारी विषमताएं, हमारी
उपेक्षाएं, हमारी असमर्थताओं के कारण होता हमारा दुरुपयोग, हमारे
अभाव और दयनीय स्थिति को आकर देखो और उसका समाधान दो।
महावीर
को लगा कि इसके लिए यह पारिवारिक जीवन छोडना पडेगा। जब तक वे राजभवन नहीं छोडेंगे, तब
तक न जनसामान्य की आवाज उन तक पहुंच सकेगी और न ही उनकी आवाज जनसामान्य तक पहुंच
पाएगी और न ही सही-सटीक समाधान प्राप्त हो सकेगा। वे सबकुछ छोडकर निकल पडे। साढे
बारह वर्ष तक एकान्त चिंतन और कठोर जीवन जीने के तरह-तरह के प्रयोग वे करते रहे और
इसके लिए घोर उपसर्गों को सहन किया। वे एक गांव से दूसरे गांव, एक
स्थान से दूसरे स्थान नंगे पैर पैदल विहार करते रहे, लगातार
और बस लगातार चिंतन, ध्यान करते हुए प्रत्येक समस्या का उन्होंने समाधान
खोज निकाला, वे केवलज्ञानी हुए और इसके बाद उन्होंने समाज को नई
दिशा दी, नया चिंतन दिया, जिसमें
सभी की समस्याओं के समाधान थे। इसी के लिए उन्होंने तीर्थ की स्थापना की।
और
फिर उन्होंने बताया कि किस प्रकार इन बीमारियों से बचा जा सकता है। पूरा विज्ञान
और मनोविज्ञान उन्होंने समझाया। जीव-अजीव आदि सभी तत्त्वों का ज्ञान दिया, उनके
भेद-प्रभेद बताए। महावीर ने जो कुछ और जितना कुछ बताया, वहां
तक पहुंचने में तो अभी आधुनिक विज्ञान को हजारों साल लग जाएंगे, फिर
भी वह पूरा नहीं समझ सकेगा। पानी और वनस्पति में जीव हैं, हजारों
की संख्या में जीव हैं, उनमें संवेदनाएं हैं; यह
बात सबसे पहले हमारे ही तीर्थंकरों ने बताई। यहां तक पहुंचने में ही आधुनिक
विज्ञान को कितना समय लग गया? इसी प्रकार हिंसा-अहिंसा का भेद और
परिणाम उन्होंने बताया। क्या पाप है, क्या पुण्य है और ये किस प्रकार
मनोवैज्ञानिक तरीके से काम करते हैं, परिणाम देते हैं, यह सब
उन्होंने बताया? राग-द्वेष, काम-क्रोध, मोह-मान-माया-लोभ
ये ही सब मनोविकारों, मानसिक बीमारियों की जड हैं, इन्हें
छोडो। यही सब सामाजिक विषमताओं की जड हैं, इन्हें
खत्म करो। यह सब उन्होंने बताया।
मन
के वैर-भाव को दूर करने के लिए ‘अहिंसा’, बुद्धि
की झडता, और आग्रह को मिटाने के लिए व बुद्धि की निर्मलता के
लिए ‘अनेकान्त’ तथा सामाजिक व राष्ट्रीय विषमता को
दूर करने के लिए ‘अपरिग्रह’ परमावश्यक तत्त्व हैं। इस प्रकार
अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह आधुनिक समाज के लिए प्रभु
महावीर की सबसे बडी देन है।
क्या
हमने कभी यह सोचा है कि हमारी सभी प्रकार की बीमारियों, विषमताओं, दुःखों, क्लेशों
को मिटाने वाले और इस दुःखमय, दुःखफलक और दुःखपरम्परक भव सागर से
पार ले जाकर हमें भी अक्षय सुख और अक्षय आनंद का रास्ता दिखाने वाले प्रभु महावीर
द्वारा स्थापित इस परम पवित्र तीर्थ की आज कैसी दशा है? हमारा
भविष्य क्या है? हम भव-सागर में भटकने के मार्ग पर हैं या इस भव सागर
से पार उतरने की दिशा में अपने कदम बढा रहे हैं? जिस
प्रकार से आज विज्ञान ने संसाधनों का विकास किया है, हम
उनका इस्तेमाल किस दिशा में जाने के लिए कर रहे हैं? हमारी
नई पीढी उन संसाधनों का उपयोग कर अधिक से अधिक विकार ग्रस्त हो रही है या सन्मार्ग
पर है? हमारे परिवारों में आज संस्कारों की क्या स्थिति है? क्या
हम भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक कर पा रहे हैं? हम
आज अधिकाधिक तनाव और अवसाद से ग्रस्त होते जा रहे हैं या शान्ति का अनुभव कर पा
रहे हैं?
प्रभु
महावीर की जयंती का यह अवसर हमें इस प्रकार के चिंतन के लिए प्रेरित करता है। अन्य
समाज-समुदाय के लोग आज हमें किस नजर से देखते हैं? जिस
प्रकार हमारे खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार में तेजी से बदलाव आ
रहा है, अत्याधुनिकता और तेज भागती जिन्दगी के नाम पर जिस
प्रकार की केबल-संस्कृति हमारे दिलो-दिमाग पर छा रही है; क्या
कभी आपकी कल्पना में यह तथ्य आया है कि जैनधर्म का ‘आगामी
कल’ कैसा होगा?
मैं
बहुत वेदना और विनम्रता के साथ आप लोगों से निवेदन कर रहा हूं कि आज इन यक्ष
प्रश्नों पर हमने चिंतन कर अपने संस्कारों को नहीं बचाया तो सिर्फ अगले पांच वर्ष
के भीतर इनके साथ जो जटिलताएं उत्पन्न हो जाएंगी, जुड
जाएंगी, वे बेहद तकलीफदेह साबित होंगी। हमें चाहिए कि अगले
दो-तीन वर्षों के दौरान जैन धर्म की मौलिकताओं को, उसके
वैज्ञानिक और तर्कसंगत स्वरूप को दुनिया के सामने लाएं, ताकि
उन संभावनाओं को परिपुष्ट किया जा सके, जिन्हें हम विश्व-शान्ति, विश्व-धर्म
और विश्व-बंधुत्व जैसे नामों से जानते हैं। इसके लिए जो भी अभिव्यक्ति के माध्यम
हमारे सामने हों, उनका हमें पूरे विवेक, पूरी
होंशियारी और भरपूर समझदारी के साथ उपयोग करने की कोशिश करनी चाहिए।
मुझे
लगता है आज महावीर के पुनर्जन्म की आवश्यकता है। महावीर का पुनर्जन्म तो हो नहीं
सकता, वे तो सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गए। उनका पुनर्जन्म हमारे
दिलों में हो, इसकी आज आवश्यकता है। वे इस काल (आरे)
के सबसे बडे मनोवैज्ञानिक, समाज सुधारक और क्रान्तिकारी थे।
उनके सिद्धान्तों को आत्मसात् करने की आज जरूरत है। समाज में इस प्रकार की चेतना
जगाने और इसे फिर से आचार प्रधान समाज बनाने की आज जरूरत है, खासकर
युवा पीढी को तैयार करने की आज जरूरत है। इसके लिए कार्यक्रम और रणनीति आज तैयार
की जानी चाहिए। आशा है वक्त की जरूरत को, वक्त की नजाकत को हम समझ पाएंगे और
इसके अनुरूप हम अपने आचरण को प्रखर बना पाएंगे, तब
फिर हम गर्व से कह सकेंगे कि हम ‘जैन’ हैं।
Please write me : dr.madanmodi@gmail.com
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