रविवार, 31 मार्च 2013

तृष्णा जीर्ण नहीं होती


तृष्णा जीर्ण नहीं होती

देवत्व के भोगों की तुलना में मानवीय भोग अति तुच्छ हैं। देवताओं के भोगों से परिचित नहीं होने के कारण मनुष्य इन तुच्छ भोगों में लीन हो जाते हैं। ऐसे भोगों को वर्षों तक भोगने पर भी तृप्ति नहीं होती। इससे यह सूचित होता है कि भोग-सुख भोगने से भोगवृत्ति तृप्त होती ही नहीं है। भोगों की तृष्णा हटाए बिना सुख और आनंद प्राप्त नहीं होगा। यदि आनंद चाहिए, तृप्ति चाहिए तो तृष्णा को त्यागना होगा। तृष्णा युक्त मन रखने वाला मनुष्य इस लोक के भोगों को भोग कर तृप्ति प्राप्त करे, आनंद प्राप्त करे, यह संभव नहीं है। इंसान भोग से कभी तृप्त नहीं हो सकता, उसकी भोगवृत्ति बढती ही जाती है और एक दिन भोग ही उसका भोग कर लेते हैं। तृष्णा कभी जीर्ण नहीं होती, इंसान का जीवन और शरीर जीर्णशीर्ण हो जाता है। जीवन की वास्तविकताओं को समझकर सम्यक्त्व धारण करने वाला और संयम धारण करने वाला ही भोग और तृष्णा पर अंकुश लगा सकता है तथा वास्तविक अक्षय सुख का आनंद प्राप्त कर सकता है। वर्तमान मौजशौख के साधन व भौतिकता की चकाचौंध में ही जो स्वर्ग व मोक्ष की कल्पना करता हो, उसे तो धर्मशास्त्र भी सिर्फ बोझारूप लगेंगे। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 30 मार्च 2013

भविष्य का विचार करें


आज तो अधिकांश रूप से मात्र वर्तमान काल की और वह भी विवेकशून्य चिन्ता ने ही मनुष्य के मन पर स्वामित्व स्थापित कर लिया है। प्रत्येक दार्शनिक ने स्वीकार किया है कि यदि भविष्य में सुखी होना हो तो वर्तमान के कष्टों की चिन्ता मत करो।सिर्फ वर्तमान की दृष्टि का अनुसरण करने से सारे जीवन के सार का विवेक प्रकट नहीं हो सकता। अच्छे-बुरे का भेद कर सके, ऐसी योग्यता भी प्राप्त हो जाए, तो भी वह एकमात्र वर्तमान की दृष्टि के अनुसरण से स्वयं ही नष्ट हो जाती है। वर्तमान में कुछ भी स्थिति हो, परन्तु भविष्य में क्या? इसका पहले विचार करना चाहिए। क्या भविष्य के लाभ के लिए व्यापारी अनेक कष्टों को नहीं उठाता? उसका मन-वचन एवं काय अहर्निश किस चिंतन में रहता है? मनुष्य को जिस भविष्य का विचार करना है, उसे छोडकर यदि कोरे वर्तमान में ही चिपका रहे, तो वह अपने कर्तव्य से च्युत हुए बिना नहीं रहेगा। इससे अनेक अनिष्ट स्वयं उत्पन्न हो जाएंगे। अनंत शक्ति का स्वामी आत्मा, जिस प्रकार की चिंता, विकल्प एवं अपार आधि-व्याधि-उपाधि के दुःख का अनुभव कर रहा है, उन्हें नष्ट करने हेतु दीर्घ दृष्टा बनना पडेगा। भविष्य हेतु विचारक बनना पडेगा। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 29 मार्च 2013

मृत्यु का खयाल हमेशा रहे


ज्ञान-बुद्धि एवं सामग्री का जैसा सदुपयोग इस मनुष्य जीवन में होना चाहिए, वैसा यदि न हो तो, वैसा करने के लिए अन्य कोई भी स्थान नहीं है। जब तक आत्मा और आत्मा के धर्मों का स्वरूप समझ में न आए, तब तक कोई भी अपना कर्तव्य यथास्थित स्वरूप में नहीं कर पाएगा। जिस दिन हर व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी समझ जाएगा, उस दिन विग्रहों का स्वयं शमन हो जाएगा। हम अपना कर्तव्य नहीं समझ पाते उसका मुख्य कारण है कि हम आत्म-तत्वको ही भूल गए हैं।

मुझे यह शरीर छोडकर अन्यत्र जाना है’, यह विचार जो प्रत्येक व्यक्ति के मन में सदैव जीवित-जागृत रहना चाहिए, वह बिसर गया है। यहां से जाने के बाद मेरा क्या होगा?’ यह चिन्ता आज लगभग नष्ट हो गई है। "मैं मरने वाला हूं", यह खयाल हर पल रहे तो जीवन में बहुत-सी समझदारी आ जाए। भावी जीवन को मोक्ष मार्ग का आधार बनाने के प्रयत्न शुरू हो जाएं। सिर्फ वर्तमान की क्रियाएं, पेट भरना, बाल-बच्चे पैदा करना और मौजमजा करना, ये क्रियाएं तो कौन नहीं करता है? पशु-पक्षी और तुच्छ प्राणी भी अपने रहने के लिए घर बना देते हैं, वर्तमान की इच्छापूर्ति करते हैं और आपत्ति में भागदौड भी करते हैं। मात्र वर्तमान का विचार तो क्षुद्र जंतुओं में भी होता है। भावी जीवन का विचार छोडकर जो सिर्फ वर्तमान के ही विचारों में डूबा रहता है, वह अपने कर्त्तव्य पालन से च्युत हुए बिना नहीं रहता है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 28 मार्च 2013

आत्मा के पोषण का विचार करें


चौबीस घंटे हम शरीर के धर्मों को विकसित करने का जतन करते रहें, तो शरीर के मालिक की क्या दशा होगी? शरीर को एक न एक दिन मन से या कुमन से अवश्य छोडना ही पडता है। इस स्पष्ट अनुभव को यदि दृष्टि में न लें तो क्या परिणाम होगा? इस जीवन में यदि हम आत्मा को न पहचान सके और आत्म-हित के लिए करणीय कार्य न कर सके तो फिर मानव जीवन की जो महत्ता दार्शनिकों ने आँकी है, वह महत्ता हमारे जीवन में कैसे सफल होगी? इसलिए शरीर के पोषण का नहीं, आत्मा के पोषण का विचार होना चाहिए। शरीर केवल माध्यम है आत्माराधना के लिए। इसलिए शरीर को इतनी ही खुराक मिले कि वह हमारी आत्माराधना में सहायक बन सके। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 27 मार्च 2013

आत्म-स्वरूप का चिंतन करें


आत्म-स्वरूप का चिंतन करें

आत्मा का धर्म क्या है?’, यह यथार्थरूप में जिस दिन समझ में आ जाएगा, उस दिन जो आनंद, सुख और शान्ति का अनुभव होगा, वह अलौकिक होगा। यदि सभी को अपनी यथार्थ स्थिति का ध्यान हो जाए, तो वर्तमान अशान्ति सहज ही में नष्ट हो जाए। आत्मा का धर्म क्या हो सकता है, उसे विकसित करने के लिए क्या करना चाहिए? इस प्रकार का ज्ञान प्राप्त करके, उस पर अमल करने का भाव जब तक नहीं जागेगा, तब तक आत्मा का साक्षात्कार नहीं होगा। ऐसा भाव (अर्थपना) प्राप्त होना, यह एकाएक संभव नहीं। परन्तु, सद्गुरु के सान्निध्य में आकर, ग्राह्य पदार्थों से चित्त को हटाकर, 24 घंटों में एकआध घडी भी शान्तचित्त से आत्मस्वरूप का प्रतिदिन चिंतन किया जाए, तो धीरे-धीरे उसकी अनुभूति या झलक प्राप्त हुए बिना नहीं रहेगी।

प्रत्येक व्यक्ति को इतना तो कबूल करना ही पडेगा कि यह शरीर वह आत्मा नहीं है। आत्मा शरीर से भिन्न कोई अदृश्य वस्तु है और इसलिए आयुष्य के अंत में वह शरीर को यहीं छोडकर चली जाती है। आत्मा, इहलोक व परलोक आदि समस्त पदार्थ बुद्धि और तर्क संगत हैं। एक ही समय में उत्पन्न आत्माओं में परस्पर भिन्नता दृष्टिगत क्यों होती है? एक का जन्म उत्तम कुल में होता है तो दूसरे का अधम कुल में। एक ही मां-बाप से जन्में पुत्रों में एक अधिक बुद्धिशाली होता है, दूसरा मंदबुद्धि होता है। एक में शक्तियां विकसित होती है तो दूसरे में उन शक्तियों के विकास हेतु वर्षों लग जाते हैं। इन सबका कारण क्या? अवश्य इनमें कोई न कोई पूर्व जन्म का योग, संस्कार एवं सामग्री कारणभूत है। इसी कारण शरीर और आत्मा में भिन्नता है। इससे यह सिद्ध होता है कि शरीर के धर्म, आत्मा के धर्म नहीं हैं। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 26 मार्च 2013

धर्म की यह कैसी अधोदशा?


आज धर्म का माल लेने वाले थोडे हैं और माल देने वाले बहुत हो गए हैं। इसलिए धर्म का माल नीलाम हो रहा है, ऐसा अनुभव होता है। माल अधिक हो और खपत कम हो, इस तरह हर किसी को धर्म चिपकाने के प्रयत्न हो रहे हैं। ज्ञानी तो कहते हैं कि धर्म पात्र व्यक्तिको ही देना चाहिए, हर किसी को नहीं। धर्म बहुत मंहगी वस्तु है। मांगने आने पर इसकी कीमत समझाकर देने जैसी यह चीज है। परन्तु आजकल तो प्रायः धर्म का नीलाम हो रहा है। नीलाम में रुपये का माल पैसों में बिकता है। ऐसी अधो दशा आज धर्म की हो रही है।

संसार के प्रति अरुचि न हो तो, धर्म किस काम का? अधिक प्राप्त करने के लिए धर्म किया जाता हो तो वह धर्म, धर्म रहता ही नहीं, धंधा हो जाता है, बिना पैसे के धंधे जैसा। कई लोग अपने व्यापार को बढाने के लिए मन्दिर दर्शन करने जाते हैं, उन्हें होंश ही नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं? भगवान को व्यापार में भागीदार बना रहे हैं? मुझे इतना लाभ होगा तो आपको इतना प्रतिशत भेंट करूंगा। उन्हें ऐसा करते हुए शर्म भी नहीं आती? जो अपार रिद्धि-सिद्धि को ठोकर मारकर निकल गए, जो भगवान वितरागी हैं, राग-द्वेष, मोह-माया रहित हो गए हैं, जिनका कोई परिग्रह नहीं है, उनसे सौदा कर रहे हैं? उन्हें व्यवसाय में भागीदार बना रहे हैं और उनकी सेवा में लगे देवों को कमीशन एजेंट, दलाल बना रहे हैं? यह कैसा पागलपन है? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 25 मार्च 2013

कृतघ्न आत्माएं स्व-पर की घातक


जिनके हृदय में कृतज्ञता गुण होता है, वे उपकार मानने में भूल नहीं करते हैं। कृतज्ञता गुण के सामान्य रूप से अनेक फायदे होते हैं। इससे सामने वाले में उपकार करने की भावना और दृढ होती है, उसे प्रोत्साहन मिलता है और वह अन्य आत्माओं का भी भला करने के लिए तत्पर बनता है। इस पद्धति से कृतज्ञ आत्माएं स्व-पर-उभय का उपकार साध सकती हैं। दूसरी तरफ कृतघ्न आत्माएं स्व-पर की उपकार वृत्ति की घातक बनती हैं। उपकारी के प्रति यदि हमने कृतघ्नतापूर्ण व्यवहार किया, उपकार का बदला अपकार से दिया और वह सामान्य कोटि की आत्मा हुई तो क्या सोचेगी- इस दुनिया में किसी का भला करने का जमाना नहीं है। वह भविष्य में किसी की मदद करने में कतराएगा। उपकार करने वाले के हृदय में ऐसी दुर्भावना पैदा करने में हमारी कृतघ्नता निमित्तरूप बने तो यह हमारे लिए ही बहुत पापकारी है। कृतघ्नतावृत्ति से दूसरों का तो नुकसान है ही, इससे हमारे लिए भी नुकसान की संभावनाएं बढ जाती है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 24 मार्च 2013

कृतघ्नता नहीं, कृतज्ञता अपनाएं


अच्छा हो तो किसी का गुण नहीं मानना और बुरा हो तो किसी को दोष देना, यह अज्ञानता की निशानी है। सज्जन सबके गुणों को याद करते हैं और बुरा हो तो स्वयं की निन्दा करते हैं, जबकि दुर्जन समस्त आदमियों में कोई गुण नहीं देखता, स्वयं की योग्यता ही सिद्ध करता है और काम खराब होने पर दूसरों को दोष दिए बगैर नहीं रहता। सामने वाले व्यक्ति ने आपके लिए अच्छा चिंतन किया, आपका भला हो, इस आशय से उसने प्रयत्न किया और अपने पुण्योदय के योग से उनका वह प्रयत्न सफल भी रहा; किन्तु ऐसा जानते हुए भी हम उसका उपकार न मानें तो स्वयं कृतघ्न ही कहलाएंगे न? कृतज्ञता, यह भी एक अनुपम गुण है। कृतज्ञता गुण सामने वाले की और स्वयं की परहित की भावना को विकसित करता है। कृतघ्न आत्माएं परहित-चिन्तारूप मैत्री की मालिक कभी नहीं बन सकती। स्वयं के ऊपर उपकार करने वाले का उपकार वे गिनते ही नहीं हैं। ऐसे लोग दूसरे पर उपकार करने की वृत्ति वाले बनें, यह असंभव है। सच्ची बात तो यह है कि कल्याणार्थी आत्माएं संसार के सभी प्राणियों का भला चाहती हैं, किसी का भी बुरा नहीं चाहतीं। आत्मा को ऐसा बनाना चाहिए कि वह सबके कल्याण में अपनी प्रवृत्ति दिखाए, लेकिन किसी के अनिष्ट कार्य में भाग न ले, बुरा न चाहे। अनजान में किसी का बुरा हो जाए तो उसका हमें दुःख होना चाहिए। बुरा करने वाले का भी भला हो, यह भावना सदा रहनी चाहिए। मेरे प्रति दुश्मनी रखने वालों का भी कल्याण हो, ऐसा व्यवहार होना चाहिए। जब दुश्मन के भी कल्याण की भावना हो तो अपना अच्छा करने वाले के प्रति उपकार मानने की भावना होनी चाहिए कि नहीं? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 23 मार्च 2013

अपनी कमी सुनने-सुधारने वाले का ही कल्याण संभव


स्वयं की कमी को नहीं सुनने वाला व्यक्ति हितशिक्षा देने वाले को उपकारी मानने के बजाय उस पर क्रोध करता है, उसका भला कभी नहीं होता, यह निश्चित बात है। जिसमें स्वयं की कमी सुनने की क्षमता ही न हो, उसका कल्याण किस प्रकार हो सकता है? आप यहां व्याख्यान सुनने के लिए आते हैं या वखाण? यहां जीवाजीवादि के स्वरूप की व्याख्या चलती हो तो आपको रुचिकर लगता है या आपका वखाण-प्रशंसा आपको रुचिकर लगती है? यहां आने का हेतु क्या है? कमी सुनने का या प्रशंसा सुनने का? आप आप में रही हुई कमियों को दूर करने के लिए यहां आते हैं और हम आपका वखाण करें, यह कैसे हो सकता है? हमें आपकी कमी बतानी चाहिए या नहीं? अमुक-अमुक कमियां अमुक-अमुक रीति से दूर की जा सकती है, ऐसा हमें कहना चाहिए या नहीं? कल्याण चाहते हो तो कमी सुनने और उसे दूर करने के लिए सदा तैयार रहो। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 22 मार्च 2013

स्वयं के कर्मों को देखें


मिथ्यात्व के उदय से आत्मा दोष को दोष के रूप में नहीं देख सकती। ऐसे भी व्यक्ति होते हैं कि स्वयं का एक सामान्य काम भी बिगड जाए तो उसमें सैकडों प्रकार की गालियां दे दें। अमुक ने बिगाड किया, अमुक बीच में आया, अमुक ने मदद न की। इस प्रकार अनेकों को दोष देता है। स्वयं का दोष नहीं देखता है। ऐसे व्यक्ति को धर्म का निंदक बनते हुए भी देर नहीं लगती है। कहेंगे कि धर्म बहुत किया, पर अन्त में दशा तो यही हुई न?’ किन्तु, यह विचार नहीं करता है कि यह फल धर्म का है या पूर्व कृत पापों का उदय?’ ऐसे व्यक्तियों को धर्म रुचिकर नहीं लगता। धर्म करणी विधि-विधान के अनुसार करने की मनोवृत्ति ऐसों की नहीं होती, यह भाग्य से ही होता है। धर्म-कर्म करते समय ऐसे व्यक्तियों के हृदय में पापमय वासना हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। फिर भी यह कहेंगे कि धर्म बहुत किया, किन्तु फलदायी नहीं हुआ। धर्म करणी भी धर्म का अपमान हो इस प्रकार से करते हैं और फल अच्छा चाहते हैं, तो वह मिलेगा कहां से? इस प्रकार के विचार तो उन्हीं को सूझते हैं, जिनमें स्वयं की कमी देखने की, सुनने की योग्यता नहीं होती। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

झूठी निन्दा से धर्मी धर्म का त्याग नहीं करता


कल्याणकामी आत्माओं को दोषितों के संसर्ग से बचाने और सच्चे गुणवानों के संसर्ग में स्थापित करने की कामना धर्मदेशक में होनी चाहिए। इसी कारण से दोषितों को लक्ष्य करके होने वाले दोषों का वर्णन करना, यह जैसे निन्दा नहीं है, उसी प्रकार सच्चे गुणवानों को अनुलक्ष्य करके किए जाने वाले गुणों का वर्णन, यह मिथ्या प्रशंसा भी नहीं है। धर्मार्थी श्रोताओं को तो खास करके इस बात को भी समझ लेना चाहिए, क्योंकि धर्म के विरोधियों की तरफ से इस प्रकार से भी भद्रिक आत्माओं को बहकाने का प्रयत्न होता है। यह असंभवित नहीं है।

हम यशोलिप्सा के योग से सन्मार्ग से विमुख बनने वालों का वर्णन करेंगे तो यह निन्दा है। हम तो ऐसी भी आत्माओं के कल्याण की ही कामना करते हैं, यह निर्विवाद बात है। किन्तु, ऐसी आत्माएं स्वयं का अकल्याण साध रही हैं; इस प्रकार समझाकर, उस प्रकार से भी अकल्याण को साधने वाले नहीं बनें, उसकी विशेष सावधानी रखनी चाहिए। विरोधी इसे निन्दा कहें, यह तो स्वाभाविक है। समझ रहित व्यक्तियों को समझाने का हम शक्य प्रयास करें, फिर भी वे न समझें तो उनकी भवितव्यता। सचमुच अज्ञान यह महाकष्ट है। अज्ञान को सज्ञान बनाने का प्रयत्न करना, परन्तु अज्ञानी की बातों से व्यथित नहीं होना है। विरोधियों से प्रेरित होकर अथवा ऐसे-वैसे भी अज्ञानी आत्मा चाहे जितनी टीका या निन्दा करें, इससे धर्मी धर्म का त्याग नहीं करता है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 20 मार्च 2013

दोषों का नाश हो और गुण प्रकट हों


दोषों का नाश हो और गुण प्रकट हों, यही धर्मदेशना का हेतु हो सकता है। सच्चा धर्मदेशक इसी ध्येय का अवलंबन लेकर उपदेश देता है। धर्मदेशक के हृदय में दोष-नाश और गुण-प्राप्ति, इसके अतिरिक्त कामना को स्थान ही नहीं होना चाहिए। सच्चा धर्मदेशक जीवा-जीवादिक तत्त्वों के स्वरूप का विवेचन करता हो या कथा के द्वारा उपदेश प्रदान करता हो, किन्तु उसका आशय तो यही होना चाहिए कि दोष नष्ट हों और आत्मा के गुण प्रकटें। इसी हेतु से धर्मदेशक जहां दोषों का वर्णन आता है, वहां दोषों की त्याज्यता समझाने के लिए और ये दोष किस-किस प्रकार से आत्मा को उन्मार्ग का उपासक बना देते हैं, इसका खयाल देने के साथ ही इन दोषों से किस प्रकार बचा जा सकता है, यह समझाने के लिए दोष और दोषित दोनों के स्वरूप आदि वर्णन करते हैं। इसी प्रकार जहां गुण का वर्णन आता है, वहां भी गुण से होने वाले लाभ और गुणवान आत्माओं की करणी किस प्रकार होनी चाहिए इत्यादि समझाकर गुणों के प्रति श्रोतागण आदर वाले बनें, इस प्रकार का वर्णन करें। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 19 मार्च 2013

उन्मार्ग के रसिकों से सावधान


कुएं के मुख पर वस्त्र नहीं बांधा जा सकता और लोगों के मुँह पर ताला नहीं लगाया जा सकता है। यह कहावत लोक के स्वभाव का परिचय देने वाली है। लोकनिन्दा से सर्वथा बचना, यह कठिन है, उसमें भी उन्मार्ग के उन्मूलन पूर्वक सन्मार्ग की स्थापना करने के लिए प्रयत्नशील बने हुए महापुरुषों की कठिनाइयों का तो कोई पार ही नहीं है। उन्मार्ग के रसिक वैसे महापुरुषों के लिए पूर्ण रूप से कल्पित बातें फैलाकर उन्हें कलंकित करने के जी-तोड प्रयत्न करने से चूकते नहीं हैं। इस प्रकार वे तीन सिद्धियां प्राप्त कर सकते हैं। एक तो यह कि उन्मार्ग के उच्छेदक और सन्मार्ग के संस्थापक महापुरुषों को अधम कोटि का बताकर, अज्ञानी लोगों को उनके पवित्र संसर्ग से दूर भगा सकते हैं। दूसरी, उन्मार्ग के उन्मूलन का और सन्मार्ग के संस्थापन का पवित्र कार्य करने वालों में भी जो लोकनिन्दा के सामने टिकने की हिम्मत नहीं रखते, उनको फरजीयात मौन स्वीकार करना पडता है और तीसरी सिद्धि यह कि लोकवायका के अर्थी, उन्मार्गनाश और सद्धर्म प्रचार का कार्य छोडकर वे रुकते नहीं हैं, अपितु स्वयं भी उन्मार्गगामी बन जाते हैं। ऐसों के पाप से अनेक आत्माएं सद्धर्म से वंचित रह जाती हैं। ऐसे व्यक्ति शासन के भयंकर दुश्मन होते हैं और वे समाज को अस्त-व्यस्त कर देते हैं। वे लोग स्वयं का पाप छिपाने के लिए वफादार शासन सेवकों की भी निन्दा करते हैं। सत्त्वशील महापुरुष तो ऐसी आफतों की उपेक्षा करके स्वयं का पवित्र कार्य करते ही जाते हैं, लेकिन कल्याण के अर्थियों को भी इसे समझकर सावचेती रखनी चाहिए। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 18 मार्च 2013

पर-निन्दा नहीं, स्व-निन्दा करो


निन्दा-रसिक बनो, तो वह रसिकता स्वयं की आत्मा के प्रति ही धारण करो। स्वयं में जो-जो दोष हों, उन-उन दोषों की अहर्निश निन्दा करो और उन दोषों को दूर करने के लिए प्रयत्नशील बनो। परन्तु, यह तो करना है किसको? इस जगत में आत्म-निन्दा में मस्त रहने वाली आत्माओं की संख्या बहुत ही कम है, जबकि परनिन्दा के रसिक तो इस जगत में भरे हुए हैं। दूसरों के दोषों को देखकर उनके प्रति विशेष दयालु बनना चाहिए। उनको उन-उन दोषों से मुक्त करने के शक्य प्रयत्न करने चाहिए। कब यह दोष से मुक्त बने और कब यह अपने अकल्याण से बचे, यह भावना होनी चाहिए। इस वृत्ति, इस भावना के साथ परनिन्दा रसिकता का तनिक भी मेल है क्या? नहीं ही। लेकिन, स्वयं में अविद्यमान गुणों को स्वयं के मुख से गाने की जितनी तत्परता है, उतनी ही दूसरों के अविद्यमान भी दोषों को गाने की तत्परता है और इसीलिए ही संख्याबद्ध आत्माएं हित के बदले अहित साध रही हैं। अपना हित साधना है तो पर-निन्दा नहीं, स्व-निन्दा करो। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 17 मार्च 2013

श्वान-वृत्ति को त्यागें


विवेकी आत्मा किसी भी जीव के साथ वैर नहीं बांधता। विश्व के प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव होना चाहिए। किन्तु, किसी के भी साथ में वैर नहीं होना चाहिए। इस संसार में वैर तो उन वस्तुओं के साथ धारण करना चाहिए, जो वस्तु सचमुच में दुश्मनरूप ही है। दुनिया के अज्ञानी जीव इसको समझते नहीं हैं। दुनिया के अज्ञानी जीव सच्चे दुश्मन के साथ लडते नहीं हैं और दुश्मन के उत्पन्न किए हुए दुश्मन के साथ लडने के लिए तैयार होते हैं, यह सिंहवृत्ति नहीं है, अपितु श्वानवृत्ति है। सिंह बाण की तरफ नहीं दौडकर बाण मारने वाले के ऊपर ही धावा बोलता है। जबकि कुत्ता लकडी मारने वाले के ऊपर नहीं दौडता है, अपितु लकडी की तरफ दौडता है। इसी रीति से अज्ञानी जीव भी दुःख के वास्तविक कारण का नाश करने के लिए प्रयत्नशील नहीं होते हैं, अपितु दुःख के वास्तविक कारण-योग से प्राप्त हुई सामग्री का सामना करने के लिए तत्पर बनते हैं। यह सिंहवृत्ति नहीं, अपितु श्वानवृत्ति है। विचार करो कि इस संसार में वास्तविक दुश्मनरूप कौनसी वस्तु है?’ कर्म ही न? कर्म ही बडे से बडा दुश्मन है, सम्पूर्ण विपत्तियां इसी के योग से प्राप्त होती हैं। आत्मा अनादिकाल से इस कर्मरूप दुश्मन के कारागार का कैदी बना हुआ है। जब तक इस कारागार को भेदकर वह बाहर नहीं निकलेगा, अर्थात् उससे सर्वथा मुक्त नहीं बनेगा, वहां तक सभी दुःखों का सम्पूर्ण अंत असम्भव है। इसलिए कर्मों की निर्जरा का प्रयत्न ही सच्चा सुख व शान्ति दे सकता है और उसी के लिए पुरुषार्थ होना चाहिए। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 16 मार्च 2013

धर्मसत्ता ही शरणरूप है


धर्मसत्ता ही शरणरूप है

कर्मसत्ता की स्थिति बिलकुल भिन्न है। मनुष्य विचार कुछ करे और परिणाम कुछ और आए। परिश्रम दुश्मन को मारने का करे और दुर्भाग्य का उदय हो तो स्वयं की योजना में स्वयं ही फंसकर मर जाता है। कर्मसत्ता के इस खेल से इंसान को धर्मसत्ता ही मुक्त बना सकती है और कर्मसत्ता से मुक्त न हो, वहां तक कर्मसत्ता की कृपा टिका सकती है। परन्तु, धर्मसत्ता की शरण भी कर्मसत्ता कुछ कमजोर बने तब ही स्वीकार की जा सकती है। कर्म की लघुता हुए बिना सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति नहीं हो सकती है।

सम्यक्त्व आदि प्राप्त होने पर भी कर्मसत्ता प्रबल होती है तो भोग-त्याग और संयम-साधना में वह अंतरायभूत होती है। कर्मसत्ता की ऐसी प्रबलता पर विचार करो कि जिससे कर्मबंधन की प्रवृत्ति रूक्ष हो जाए और धर्मसत्ता की शरण में रहकर कर्मसत्ता से सर्वथा मुक्त बनने का शक्य प्रयत्न करने के लिए तैयार हो जाए। कर्म के उदय के समय में आत्मा विवेकी बनकर रहता है, तो उदय में आए हुए कर्म जाने के साथ दूसरे भी बहुत से कर्म चले जाते हैं। जो कर्म बांधा वह मानो कि उदय में आया और उसने अच्छी या बुरी सामग्री लाकर रखी, किन्तु उस वक्त आत्मा उसमें लुब्ध होकर गृद्ध नहीं होती, अपितु समभाव से उसको सहन करे तो कर्मसत्ता को भागना ही पडेगा। पुण्ययोग से प्राप्त सामग्री में जो आसक्त नहीं बने, वे बच गए और जो आसक्त बने वे डूब गए। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 15 मार्च 2013

अकारण शत्रुता


अकारण शत्रुता

आत्मभाव के बिना पौद्गलिक सुखों की लालसा में पडी आत्माएं एकान्ततः कल्याण करने वाली बातों का उपदेश देने वाले महात्मा पुरुषों का भी अवसर पाकर तिरस्कार करने से चूकती नहीं है। कारण कि उनको सच्चे महात्माओं का महात्मापन खटकता रहता है। दुर्जन लोग सज्जन पुरुषों के अकारण ही शत्रु होते हैं। कारण कि सज्जन पुरुषों द्वारा आचरण की जाती सत्प्रवृत्तियां दुर्जन लोगों को संसार के सामने आचरण से स्वतः दुर्जनरूप घोषित कर देती है और इसीलिए सज्जन पुरुष दुर्जनों को खटकते हैं और वे अपने मन में सज्जनों के प्रति वैर पालते हैं।

सच्ची बात यह है कि पौद्गलिक स्वार्थ की रसिकता ही भयंकर है। पौद्गलिक स्वार्थ की प्रीति ज्यों-ज्यों बढती जाती है, त्यों-त्यों सद्वृत्ति और सदाचार दोनों का नाश होता जाता है। पौद्गलिक स्वार्थ की अत्यंत प्रीति आदमी को आदमी नहीं रहने देती, अपितु शैतान बना देती है। इसलिए आत्म-कल्याण की अभिलाषी आत्माओं को स्वयं में रही हुई पौद्गलिक स्वार्थवृत्ति को जडमूल से ही समाप्त करने के लिए प्रयत्नशील बनना चाहिए। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 14 मार्च 2013

दुःख न दें, सुख न छीनें


मनुष्य मात्र को यह विचार करना चाहिए कि हमको जिस प्रकार हमारा जीवन प्रिय है, उसी प्रकार जगत के सभी जीवों को भी उनका जीवन प्रिय है। जगत में कोई जीव दुःखी नहीं होना चाहता, सभी सुखी होने की इच्छा रखते हैं। दुःख को दूर करने का और सुखी बनने का एक ही मार्ग है और वह है- हम दूसरे को दुःख न दें और जहां तक संभव हो सके दूसरे को सुख पहुंचाने का प्रयास करें। हमें दुःख प्रिय नहीं है तो दूसरे को दुःखी करने, दुःख पहुंचाने से दूर रहना और हमें सुख अच्छा लगता है तो कम से कम किसी दूसरे का सुख नहीं छीनना। दूसरे को दुःख देना या किसी का सुख छीनने का प्रयास करना, यह तो अपने ही हाथों से अपने लिए दुःख उत्पन्न करना है।

किसी को दुःख नहीं देना है और किसी का सुख नहीं छीनना है, ऐसा दृढ निश्चय होते ही आप उसका अनुसरण कर देंगे तो आपके लिए अक्षय सुख के द्वार खुलते देर नहीं लगेगी। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 13 मार्च 2013

प्राणीमात्र के प्रति कल्याण का भाव हो


शक्य हो तो दूसरे को सुखी बनाने का और शक्य न हो तो भी कम से कम दूसरे को दुःखी नहीं बनाने का विचार जिस आत्मा में प्रकट होता है, वह आत्मा क्रमशः स्वयं की उन्नति सिद्ध कर सकती है। आत्मा किसी भी काल में संसार के समस्त जीवों को सुखी बना देने का सामर्थ्य प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु आत्मा में ऐसा तो हो सकता है कि संसार के किसी भी जीव के दुःख का कारण वह नहीं बने, उसका पद भव्यात्माओं के लिए सुख का प्रेरक बने। ऐसी आत्मदशा, अर्थात् आत्मा का ऐसा सुविशुद्ध स्वरूप प्राप्त करने के लिए ही सुख के अर्थी आत्माओं को प्रयत्न करना चाहिए। यह प्रयत्न तभी हो सकता है, जब आत्मा में प्राणीमात्र के प्रति कल्याण की भावना हो।

जिसको आत्मा का विचार नहीं और परभव का खयाल नहीं, ऐसा व्यक्ति परोपकार की चाहे जैसी बात करे, वह सच्चा परोपकारी नहीं बन सकता। इस भव के सुख के लिए जिसको हिंसक पशुओं का भी विनाश करने का मन होता है, वह आदमी दुनिया में चाहे जितने भी ऊॅंचे पद पर चढा हो, तत्त्वज्ञानी महात्माओं की दृष्टि से तो वह अधम कोटि का ही है। आत्मा के सुख का जिसको खयाल नहीं और पौद्गलिक सुख, यही जिसका साध्य हो, वैसी आत्माओं का जीवन तो जगत के जीवों के लिए केवल श्रापभूत ही है। ऐसी आत्माओं को उसके पूर्व के पुण्य योग से प्राप्त हुई बुद्धि, शक्ति और सामग्री जगत के जीवों के लिए एकान्ततः अकल्याण का कारण बनती है और इससे ऐसे आत्माओं का स्वयं का भविष्य भी अंधकारमय बन जाता है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 12 मार्च 2013

स्वार्थी व्यक्ति मां-बाप का भी खून कर सकता है


संसार की स्वार्थ परायणता पर विचार करो। राग-द्वेष और अज्ञान से घिरे हुए तथा उसी कारण से अर्थ और काम में अतिलुब्ध बनी हुई आत्माएं, अपने ही पिता, मां, पत्नी, पुत्र या भाई के वध जैसा भयंकर कोटि का विचार करे, निर्णय करे या उसकी पालना करे तो भी इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं है। अर्थ और काम की प्राप्ति में ही स्वयं का कल्याण मानकर बैठे हुए लोगों को, स्वयं के कल्पित कल्याण की साधना के लिए कितनी ही बार तो भयंकर में भयंकर कोटि के भी दुष्कृत्यों का आचरण करते हुए विचार नहीं आता है। ऐसी आत्माओं को स्वयं के किंचित स्वार्थ के लिए सामने वाले की पूरी जिन्दगी भी तुच्छ लगती है। स्वयं के क्षुद्र स्वार्थ के लिए दूसरों के प्राणों का हरण करते हुए भी, किंचित् भी क्षुब्ध नहीं होने वाली आत्माएं इस युग में बहुत हैं। पूर्व के पुण्य योग से मिली हुई सामग्री का उपयोग वे लोग इस भव में दूसरे जीवों का संहार करने में करते हैं। किन्तु, वे लोग अपने भविष्य को भूल जाते हैं। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 11 मार्च 2013

चिन्ता और चिता


चिन्ता चिता समान है। चिता बाहर से सुलगाती है और चिन्ता अन्दर से सुलगाती है। चिता में सुलगते हुए को सब देख सकते हैं और चिन्ता में सुलगते हुए को कोई-कोई व्यक्ति ही देख पाता है। चिता जल्दी से सुलगाकर शरीर को राख कर देती है और चिन्ता कई दिनों तक, कई वर्षों तक जलाती, सताती रहती है। इस प्रकार चिता से भी चिन्ता अत्यधिक भयंकर है। चिन्ता से घिरे हुए आदमी को कुछ भी खाना-पीना अच्छा नहीं लगता है। चिन्तातुर आदमी को स्वजनों का मिलाप भी अच्छा नहीं लगता है। बात-बात में गुस्सा आ जाता है, वह झुंझला उठता है, चिडचिडा हो जाता है, ऐसा क्यों होता है? एक मात्र चिन्ता से! जिस बात के कारण मन चिन्तातुर बना हो, उसके विचार दिन-रात आया करते हैं। नींद उड जाती है। चिन्ता जिस प्रकार बल का नाश करती है, उसी प्रकार निद्राहारिणी भी है।

ऐसी सांसारिक चिन्ता पतन की ओर ले जाती है, लेकिन यही चिन्ता आत्मा की हो तो? आत्म-चिन्ता साधना का प्रबल साधन है। आत्मचिन्ता विवेकशून्य नहीं होनी चाहिए। सांसारिक चिन्ता आदमी को पागल बना देती है, जबकि आत्मचिन्ता व्यक्ति को धीर, वीर और गंभीर बनाती है। सचमुच जिस आत्मा में सच्ची आत्मचिन्ता प्रकट हुई हो, उस आत्मा की विचारदशा ही बदल जाती है। आत्मचिन्ता उत्पन्न हो और उसमें त्वरा आए तो यह चिन्ता विरति के मार्ग पर ले जाती है और इसी से आत्मा के उत्साह में वृद्धि होती है। यही आत्मचिन्ता कर्मों को खपाती है, आत्मा को निर्मल बनाती है और मोक्ष की ओर गति करती है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा