तृष्णा जीर्ण नहीं होती
देवत्व के भोगों की तुलना में
मानवीय भोग अति तुच्छ हैं। देवताओं के भोगों से परिचित नहीं होने के कारण मनुष्य
इन तुच्छ भोगों में लीन हो जाते हैं। ऐसे भोगों को वर्षों तक भोगने पर भी तृप्ति
नहीं होती। इससे यह सूचित होता है कि भोग-सुख भोगने से भोगवृत्ति तृप्त होती ही
नहीं है। भोगों की तृष्णा हटाए बिना सुख और आनंद प्राप्त नहीं होगा। यदि आनंद
चाहिए, तृप्ति चाहिए तो तृष्णा को त्यागना होगा। तृष्णा
युक्त मन रखने वाला मनुष्य इस लोक के भोगों को भोग कर तृप्ति प्राप्त करे, आनंद प्राप्त करे,
यह संभव नहीं है।
इंसान भोग से कभी तृप्त नहीं हो सकता,
उसकी भोगवृत्ति बढती
ही जाती है और एक दिन भोग ही उसका भोग कर लेते हैं। तृष्णा कभी जीर्ण नहीं होती, इंसान का जीवन और शरीर जीर्णशीर्ण हो जाता है। जीवन की
वास्तविकताओं को समझकर सम्यक्त्व धारण करने वाला और संयम धारण करने वाला ही भोग और
तृष्णा पर अंकुश लगा सकता है तथा वास्तविक अक्षय सुख का आनंद प्राप्त कर सकता है।
वर्तमान मौजशौख के साधन व भौतिकता की चकाचौंध में ही जो स्वर्ग व मोक्ष की कल्पना
करता हो, उसे तो धर्मशास्त्र भी सिर्फ बोझारूप लगेंगे। -आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा