गुरुवार, 31 जनवरी 2013

मोक्ष-साधक यज्ञ


शरीर वेदिका है, आत्मा यज्ञ की कर्ता है, तप अग्नि है, ज्ञान घी है, कर्म समिधा (काष्ठ) है, क्रोध आदि पशु हैं, सत्य यज्ञ स्तम्भ है, समस्त प्राणियों की रक्षा ही दक्षिणा है और रत्नत्रयी (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र) त्रिवेदी है। इस प्रकार किया गया यज्ञ मोक्ष का साधन होता है। रत्नत्रयी (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र) रूपी त्रिवेदी में स्थिर होने वाली आत्मा स्वयं ही यज्ञ की कर्ता है और वेदिका अपना शरीर ही है। उसमें वह तपस्या रूपी अग्नि जलाता है और उस अग्नि को प्रज्वलित रखने के लिए ज्ञानरूपी घृत की धारा अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित रखी जाती है। उस प्रज्वलित अग्नि में कर्मरूपी काष्ठों को डालकर क्रोध आदि कषायोंरूपी पशुओं की उसमें आहुति दी जाती है। सत्य यज्ञ का स्तम्भ है। प्राणी-मात्र की रक्षा करना दक्षिणा है। इस प्रकार का मन, वचन और कायारूपी तीनों योगों की तल्लीनतापूर्वक यज्ञ करने वाला मनुष्य उस यज्ञ को मुक्ति का साधन बनाता है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 30 जनवरी 2013

केवल मुक्ति की अभिलाषा हो


धर्म-प्रिय व्यक्ति को धर्म की रक्षार्थ सर्वस्व त्याग करने को सदैव तत्पर रहना चाहिए। केवल मुक्ति की अभिलाषा से किया गया धर्म ही शुद्ध धर्म होता है। अन्य सभी धर्म मलिन हैं और उनसे कब आत्मा का अधःपतन हो जाए, कहा नहीं जा सकता। इसलिए शाश्वत सुख की अभिलाषा करने वाले मनुष्य को धर्म का आचरण केवल मुक्ति की अभिलाषा से ही करना उचित है, क्योंकि उस प्रकार किए गए धर्म से संसार का कोई भी मंगल असाध्य नहीं रहता। शुद्ध धर्म से प्राप्त ऐश्वर्य आत्मा को पाप कर्मों में उलझने नहीं देता, बल्कि पाप से सचेत कर मुक्ति की आराधना सरल बनाता है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 29 जनवरी 2013

जैनी अनीति करके घी-केला नहीं खाता


मोक्ष में जाने के लिए हमें कैसा जीवन जीना चाहिए? यह हमें भगवान ने सिखाया, इसी तरह साधु बनने के लिए आपको कैसा जीवन जीना चाहिए, यह भी भगवान ने सिखाया है। जैसे श्रावक भीख मांग कर पेट नहीं भरता, वैसे अनीति करके घी-केला भी नहीं खाता। वह सत्य और त्याग के मार्ग पर चलता है। संसार का प्रत्येक सुख चाहे वह कषाय जनित हो या विषय जनित हो, मैथुन में आ जाता है। मैथुन में पाप है, ऐसा जो नहीं समझ पाया, उसे संसार असार लगता है, ऐसा कैसे कहा जाए? पौद्गलिक सुख बुरा न लगे और पौद्गलिक दुःख सहन करने योग्य न लगे तो नवकार से लेकर नवपूर्व तक पढ लेने पर भी वह अज्ञानी रहता है और वह विरति की ऊंची में ऊंची क्रियाएं करे तो भी उसमें गाढ अविरति ही होती है। शास्त्र में लिखा है कि इस काल में पढे-लिखे अज्ञानी बहुत होंगे। साधुवेश में रहे हुए अविरति वाले बहुत होंगे, सम्यक्त्वी क्रिया करने वाले मिथ्यात्वी बहुत होंगे। अतः हमें सावधान रहना है और जैन धर्म को लजाने वाले अनीति के मार्ग से बचना है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 28 जनवरी 2013

अधर्म का खण्डन जरूरी


दीपक यदि काला-सफेद न बताए तो कौन बताएगा? हितैषी यदि सज्जन-दुर्जन की पहचान न कराए तो कौन कराएगा? धर्म में अच्छे-बुरे का विवेक यदि ज्ञानी नहीं समझाए तो कौन समझाएगा?

आज के बात-चतुर मंडन की बातें बहुत करते हैं। वे कहते हैं खण्डन-खण्डन क्या करते हो?’ परन्तु मेरा कहना है कि खण्डन के बिना मंडन नहीं होता। खोदे बिना निर्माण कार्य नहीं होता। थान फाडे बिना कपडे नहीं सिले जा सकते। अधर्म के खण्डन बिना धर्म का मण्डन नहीं हो सकता। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 27 जनवरी 2013

धर्म के नाम पर अधर्म


आजकल धर्म के नाम पर अधर्म की बहुत-सी बातें चल रही हैं। अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त के नाम से यथेच्छ भाषण करने वालों को अपनी मर्यादा का भान नहीं है। अहिंसा और अपरिग्रह के सिद्धान्तों में जिसे श्रद्धा हो और उसमें यदि सामर्थ्य हो तो उसे साधु बन जाना चाहिए। यदि इतनी शक्ति न हो तो सम्यक्त्व मूलक व्रत लेना चाहिए। यदि यह भी न बन पडे तो सारा संसार छोडने योग्य है और यदि शक्ति प्रकट हो तो छोड दूं, ऐसी भावना को विकसित करके सम्यक्त्व को तो स्वीकार करना ही चाहिए। अनेकान्त की बात करने वाले को मालूम नहीं कि अनेकान्त को अपनाने वाले को तो मुंह पर ताला लगाना होगा, वचन तोल-तोल कर बोलने होंगे। आज अनेकान्त के नाम पर मनमाना लिखने और बोलने वालों ने तो लगभग अनेकान्त का खण्डन ही किया है। अनेकान्तवादी झूठे और सच्चे दोनों को सच्चा नहीं कहता। उसे तो झूठे को झूठा और सच्चे को सच्चा कहना ही पडेगा। अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त को जीवन में उतारने वाली जैन शासन की साधु संस्था को आप देखेंगे तो आपको लगेगा कि दुनिया की सब संस्थाओं की तुलना में यह साधु संस्था अब तक बहुत अच्छी है। भगवान की अहिंसा तो मोक्ष प्राप्ति के लिए ही है। किसी का कुछ छीन लेने के लिए, किसी के साथ कपट करने के लिए अथवा भौतिक स्वार्थ साधने के लिए अहिंसा शब्द का उपयोग करना महापाप है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 26 जनवरी 2013

दुःख-मुक्ति का उपाय


जगत में जीव मात्र को दुःख के प्रति द्वेष और सुख के प्रति अनुराग है। किन्तु, अज्ञानी जीव दुःख के कारणों को सुख के कारण मानकर, उनकी ही सेवा में मस्त रहते हैं तथा सुख प्राप्ति के वास्तविक साधनों से बेखबर रहते हैं। श्री जैन शासन दुःख और सुख के जो वास्तविक कारण हैं, उन सभी कारणों को समझाने के लिए दुःख के कारणों का त्रिविध-त्रिविध त्याग करने का और सुख के कारणों को त्रिविध-त्रिविध सेवन की प्रेरणा देता है। संसार से मुक्त होकर ही दुःख से मुक्त हुआ जा सकता है, इसलिए श्री जैन शासन का ध्येय जीवों को संसार-मुक्त बनाने का ही है। अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म की यथाविधि आराधना द्वारा जो आत्माएं स्वयं की आत्मा के साथ संलग्न बने हुए कर्मों को दूर कर देती हैं, वे आत्माएं संसार-मुक्त हो सकती हैं। कर्म के सम्पर्क से आत्मा का स्वभाव आच्छादित है। इस सम्पर्क का सर्वथा अभाव हो जाए, तो आत्मा संसार-मुक्त बन जाता है। कल्याणार्थी आत्माएं ऐसे संसार मुक्त बन सकें, इसीलिए ही संसार के भोगादि का त्याग कर और संयम की आराधना में उद्यमवंत बनने का उपदेश श्री जैन शासन में है। आइए! हम इसका अनुसरण करें! -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 13 जनवरी 2013

धन्य हो गया गांधार


गुजरात में भरुच के निकट एक समय जहाजों के आवागमन से भरा रहने वाला गांधार बंदरगाह जैन संस्कृति का बडा केन्द्र था, लेकिन औरंगजेब के आतंक और आक्रमणों से बिलकुल सुनसान हो गया था। पहले मोहम्मद गजनी आया, फिर गौरी और फिर बाबर, सब जगह मन्दिरों को इन्होंने लूटा, लेकिन गांधार तीर्थ और जैन साधु-साध्वी सुरक्षित रहे। हूमायू, अकबर, जहांगीर और शाहजहां खुर्रम के समय लूटपाट बंद रही। यहां तक कि सन् 1556 से 1605 के बीच जब अकबर का शासन था, उसने जैन संतों को बहुत सम्मान दिया और उनके प्रभाव से स्वयं ने मांसाहार का त्याग कर दिया।

मुगल सम्राट अकबर बादशाह को उपदेश देकर मांसाहार छुडानेवाले जगद्गुरु जैनाचार्य श्री विजयहीरसूरीश्वर जी महाराज ने 300 साधुओं और 700 साध्वियों के समुदाय के साथ गांधार में तीन-तीन चातुर्मास किए थे। इस नगर में लगभग 17 जैन देरासर थे और हजारों श्रावक-श्राविकाओं की बस्ती थी। जगद्गुरु जैनाचार्य श्री विजयहीरसूरीश्वर जी महाराज को अकबर बादशाह ने जिस समय दिल्ली पधारने के लिए आग्रह भरा निमंत्रण भेजा, उस समय आचार्य महाराज गांधार में बिराजमान थे। उस समय अहमदाबाद और खंभात का संघ उनका मार्गदर्शन लेने के लिए गांधार बंदरगाह आया था।

गांधारबंदरगाह की शान व शौकत दरिया की उत्ताल तरंगों के कारण कुछ नष्ट हुई थी, लेकिन धर्म जुनूनी औरंगजेब ने शेष बचे हुए गांधार बंदरगाह को पूरी तरह नष्ट कर दिया था। सन् 1669 में औरंगजेब ने मन्दिरों को लूटने, तोडने और बलात् धर्म परिवर्तन कराने का फरमान जारी किया और कई जैन मन्दिरों को लूट लिया, नष्ट कर दिया, जैन साधु-साध्वियों पर अत्याचार किए। इस दौरान कई साधु-साध्वियों ने अपने संयम धर्म को बचाने के लिए आत्मोत्सर्ग कर दिया, संथारा ग्रहण कर अपनी देह त्याग दी। जैनों ने इस नगर को छोड दिया, परन्तु एक प्राचीन देरासर खण्डहर की हालत में रह गया था। औरंगजेब के जुनूनी सैनिक गांधार बंदरगाह पर फिर से टूट पडें, उससे पहले ही चतुर श्रावकों को इसका समाचार मिल गया था। श्रावकों ने सावधानी रखकर छः फुट ऊंचे प्राचीन और चमत्कारिक श्री अमीजरा पार्श्वनाथ भगवान को बचाने के लिए उनको तहखाने में छिपा दिया था और तहखाने पर मस्जिद आकार का देरासर बना दिया। लगभग 200 वर्ष बाद अंग्रेजों के राज्य में श्री अमीजरा पार्श्वनाथ भगवान को तहखाने से बाहर निकाल कर एक छोटा मन्दिर बनाकर उसमें बिराजमान कराया गया। यह मन्दिर भी जीर्ण हो गया और उसके रंगमंडप की एक दीवार टूट गई। गांधार में जैनों का एक भी घर नहीं रहा, इसलिए मन्दिर की देखभाल ब्राह्मण पुजारी को सौंपी गई। ऐसे खण्डहर बने गांधार तीर्थ में 17 वर्षीय श्री त्रिभुवन पाल का गुपचुप रीति से दीक्षा-संस्कार हुआ और औरंगजेब के जुनूनी सैनिकों द्वारा अपवित्र किया गया यह तीर्थ फिर से पावन हो गया।

यहां दीक्षा ग्रहण कर त्रिभुवन पाल से मुनि राम विजय बने महामना ने फिर से एक नया इतिहास रचडाला। जैसा कि उल्लेख किया गया है और इतिहास इस बात का साक्षी है कि अकेले जगद्गुरु जैनाचार्य श्री विजयहीरसूरीश्वर जी महाराज ने 300 साधुओं और 700 साध्वियों के समुदाय के साथ यहां तीन-तीन चातुर्मास किए थे। मतलब कि उस समय तक दीक्षा और बालदीक्षा या यों कहें कि संयम मार्ग में जाने के खिलाफ कोई उग्र वातावरण नहीं था और जैन शासन में हजारों की संख्या में साधु-साध्वी बिराजमान थे। अकेले तपागच्छ संघ में ही 18 हजार से ज्यादा साधु-साध्वीजी थे। औरंगजेब के समय से इस संख्या में तेजी से कमी होना शुरू हुई।

लगभग 200 वर्षों का कालखण्ड ऐसा रहा, जिसमें नई दीक्षाएं अत्यंत न्यून हुई और लोगों के सोच, संस्कारों व चरित्र में भारी बदलाव हुआ। हजारों की संख्या में रहे साधु-साध्वी की संख्या सैंकडों में हो गई और यह भी घटती-घटती संवत् 1969 तक तो 150 रह गई। इनमें भी अधिकांश साधु-साध्वीजी महाराज बुजुर्ग थे। प्रभु महावीर के शासन में संभवतया इतनी कम साधु संख्या इससे पूर्व कभी नहीं रही। ऐसे कालखण्ड में समाज में जडता आ जाना स्वाभाविक ही है, क्योंकि संस्कारों को नहीं संभालो तो जाते देर न लगे और बुराई को खूब लातें मारो तब भी वह चली जाए, यह जरूरी नहीं।

ऐसे कालखण्ड में 20वीं सदी में जैन धर्म संघ के महानायक, श्रमण संस्कृति के उद्धारक-पोषक धर्मयोद्धा, जैन शासन सिरताज व्याख्यानवाचस्पति पूज्य आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा का जन्म होना, भयंकर विरोध के वातावरण में गुपचुप तरीके से गांधार तीर्थ में विक्रम संवत् 1969 पोष सुद 13 के शुभ दिन पूज्य मुनिश्री मंगलविजयजी महाराज के शुभ हाथों से उनका दीक्षा-संस्कार होना चमत्कारों से भरा हुआ अकल्पनीय सफर है। त्रिभवुनपाल से मुनिश्री रामविजयजी बने उस महामना ने दीक्षा-विरोधी वातावरण के कारण बंद से हो गए दीक्षा मार्ग को भारी संघर्ष और हमलों का मुकाबला कर फिर से खोला, पूरे संयमी जीवन में लगातार प्रकारांतर से समाज को दीक्षा के लिए प्रेरित कर समाज में संयम के प्रति सम्मान प्रतिष्ठापित किया; यह सब जिन शासन के प्रति उनके समर्पण और वफादारी का ही परिणाम है।

यह एक महान् संयोग ही है कि इस तीर्थ का पुनरोद्धार भी इन्हीं महापुरुष के उपदेश से सम्पन्न हुआ। श्री महावीर स्वामी जी का नया मन्दिर भी बना और प्राचीन श्री अमीझरा पार्श्वनाथ प्रभु आदि सभी मन्दिरों की प्रतिष्ठा भी उन्ही के वरदहस्तों से हुईं। गांधार तीर्थ में दीक्षित मुनिश्री रामविजयजी से शासनसिरताज सूरिरामचन्द्र तक का सफर करने वाले महामना की दीक्षा शताब्दी आज फिर से गांधार तीर्थ की धन्यता को मानस पटल पर अंकित कर रही है।

शुक्रवार, 11 जनवरी 2013

कोटिशः वंदन


20वीं सदी में जैन धर्म संघ के महानायक रहे, श्रमण संस्कृति के उद्धारक-पोषक धर्मयोद्धा, जैन शासन सिरताज व्याख्यानवाचस्पति पूज्य आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा को कोटिशः वंदन!

·         जिस महापुरुष ने दीक्षा के प्रथम वर्ष से ही सम्यक्त्व के विषय को अपने प्रवचन का प्रमुख अंग बना लिया था।

·         जिस महापुरुष ने संयम जीवन के आरम्भिक वर्षों में ही शास्त्र-विरूद्ध तथाकथित सुधारवादी विचारधारा का शास्त्रों के आधार पर प्रतिकार किया था।

·         जिस महापुरुष ने देवद्रव्य की रक्षार्थ प्रबल पुरुषार्थ करके अपने जीवन में सिद्धान्त रक्षा की नींव डाली थी।

·         जिस महापुरुष ने अपने समस्त ज्येष्ठ आचार्यदेवों की कृपा दृष्टि प्राप्त करके उनका आंतरिक आशीर्वाद प्राप्त किया था।

·         जिस महापुरुष ने दीक्षा एवं बालदीक्षा के विरूद्ध प्रचण्ड आक्रमणों का शास्त्रोक्त वचनों के द्वारा सामना किया था।

·         जिस महापुरुष को अनेक बार न्यायालयों में खींचा गया, तो वहां भी जैन शासन का डंका बजाकर विजयी हुए।

·         जिस महापुरुष ने अहिंसा का ध्वज फहराकर राजनगर में भद्रकाली मन्दिर में बकरे की बलि को सदा के लिए बंद करवाया था।

·         जिस महापुरुष ने अपनी वाणी के प्रभाव से व्यसनों तथा अभक्ष्य खान-पान के विरूद्ध जनसमूह को जागृत किया।

·         जिस महापुरुष ने अनेक मुनि सम्मेलनों में सिद्धान्तों की रक्षार्थ गुरुजनेेेें की ओर से सौंपे हुए उत्तरदायित्व को सफलतापूर्वक वहन किया।

·         जिस महापुरुष ने तिथि चर्चा में शास्त्रीय प्रमाणपूर्वक सिद्ध करके सन्मार्ग की पुनः स्थापना करके संघहित का एवं सिद्धान्त का एक ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत किया।

·         जिस महापुरुष ने अपने जीवन में परमात्मा की आज्ञा, शास्त्र वचनों एवं गुरुजनों की विशुद्ध परम्परा की रक्षार्थ संघाचार्य जैसी सर्वोच्च उपाधि के प्रचण्ड प्रलोभन की ओर तनिक भी न खींचे जाकर परम् निःष्प्रहता के दर्शन कराए।

·         जिस महापुरुष ने अपने कट्टर विरोधियों एवं शत्रुता रखने वालों के प्रति भी हृदय में तनिक भी दुर्भावना उत्पन्न होने नहीं दी और उनकी आत्मा का हित सोचकर क्षमाश्रमणउपाधि को सार्थक किया।

·         जिस महापुरुष में प्रश्नकर्ता के भाव जानने की अद्भुत् कला थी। प्रवचन सभा में प्रश्नों के समाधान देने की उनकी लाक्षणिक शैली थी। वे प्रश्न का जवाब प्रश्नकर्ता के उद्देश्य को ध्यान में लेकर देते थे। यदि कोई जिज्ञासा भाव से प्रश्न करता तो उसका जवाब बहुत ही सुन्दर तरीके से समझाकर देते थे, लेकिन यदि प्रश्नकर्ता का उद्देश्य वातावरण को बिगाडने का ही होता, तब पूज्यश्री का जवाब भी ऐसा होता कि सामने वाले की बोलती बंद हो जाए। सचमुच उनमें प्रश्नकर्ता के भाव को परखने की अद्भुत् कला थी।

·         जिस महापुरुष ने छोटे-बडे, राजा-रंक, निर्धन-धनी, सेठ-नौकर, भक्त अथवा निंदक प्रत्येक पर समान रूप से हित-शिक्षा, आशीर्वचनों एवं वात्सलय की वृष्टि करके करुणासागरविरुद को सार्थक किया।

·         जिस महापुरुष ने भयंकर अशाता एवं वेदना के समय भी श्री अरिहंत पद के ध्यान के द्वारा समाधि की उच्च कक्षा को सिद्ध करके व्याधि का भी सवागत करके आत्मोपकारक बना देने की अद्भुत् कला का विश्व को उपहार दिया।

ऐसे जैन शासन सिरताज धर्मयौद्धा व्याख्यानवाचस्पति पूज्य आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा को कोटिशः वंदन !

नोट- अब हम कल पहुंचेंगे गांधार, जहां होने वाले 11 दिवसीय समारोह का हम बताएंगे आपको पल-पल का हाल! जहां जीवंत होंगे इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ !

गुरुवार, 10 जनवरी 2013

युवाओं के लिए महत्त्वपूर्ण सूरि-राम के ये पांच गुण


शास्त्र ही जिनके चक्षु थे, शासन का अनन्य राग जिनके रोम-रोम में व्याप्त था, शास्त्रों की वफादारी ही जिनका जीवन-मंत्र था, चाहे जैसा प्रलोभन देने पर भी जो सिद्धान्त से तनिक भी आगे-पीछे होने के लिए तत्पर नहीं थे, जो विरोध के प्रचण्ड तूफानों में भी त्रिकालाबाधित सिद्धान्तों तथा सनातन सत्यों का ध्वज फहराता रखने वाले थे और वीर शासन के अडिग सैनानी थे; ऐसे 20वीं सदी में जैन धर्म संघ के महानायक, श्रमण संस्कृति के उद्धारक, पोषक, जैन शासन शिरताज, धर्मयोद्धा, व्याख्यान वाचस्पति, दीक्षायुगप्रवर्तक, विशालतपागच्छाधिपति पूज्य आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा में अनेक गुण थे। इनमें से पांच महत्त्वपूर्ण गुणों की ओर यहां ध्यान आकृष्ट किया जा रहा है, जिन्हें वर्तमान समाज एवं खासकर युवा पीढी को पूरी गंभीरता एवं विनम्रता से समझना चाहिए और जीवन में अपनाना चाहिए। इन विशिष्ट गुणों का आज समाज में लोप-सा हो गया है। ये गुण हैं: प्रशान्त दर्शन, धीरता, शासन रक्षा हेतु शौर्य, मोहोपशमन हेतु नीर तुल्य और स्पष्टवादिता।

प्रशान्त दर्शन : आकृति से व्यक्ति के गुण जाने जा सकते हैं। हृदय में जो जो भाव प्रकट होते हैं, उनकी झलक चेहरे पर तथा नैत्रों में दृष्टिगोचर होती है। यदि व्यक्ति में शक्ति हो तो वह किसी का चेहरा और नैत्र देखकर उसके अन्तर को जान सकता है। परम तारणहार गुरुदेव की दृष्टि तथा मुखाकृति में प्रशान्त भाव के ही दर्शन होते हैं, जिससे उनके हृदय की प्रशान्तता की प्रतीति होती है। उनके जीवन में अनेक तूफान आए, पर उनका हृदय सदा प्रशान्त रहा, जिससे कोई भी प्रसंग उनके हृदय को क्षुब्ध नहीं कर सका। विषयों और कषायों पर विजय हुए बिना प्रशान्तता प्रकट नहीं होती और प्रशान्तता लाने के लिए मान-अपमान की भेद रेखाओं का भी छेदन करना पडता है। सुख हो या दुःख, निंदा हो या प्रशंसा, हर हाल में प्रशान्त भाव, यह कोई सामान्य सिद्धि नहीं थी। यह आन्तरिक सिद्धि उन महान पुरुष का अनुपम आन्तर वैभव था।

धीरता : जिस व्यक्ति में विषय-कषायों को सचमुच शमन करने का भाव हो, वही वास्तव में धीर बन सकता है, क्योंकि विषयों से विवश और कषायों से कलुषित आत्मा चंचल होती है। उसमें धीरता कदापि नहीं आती। परम तारणहार गुरुदेव ने विषय-कषायों पर विजयी होकर प्रशान्तता आत्मसात् की थी, जिससे वे धैर्य गुण धारक बन सके। पूज्य श्री तो केवल परमात्मा को ही रिझाना चाहते थे। वे इस बात पर अटल रहे। दर्शनमोहनीय कर्म के विशिष्ट क्षयोपशम के बिना यह गुण प्रकट होना असंभव है। जिनाज्ञासापेक्ष विचारधारा को अखण्ड रूप से प्रवाहित रखने के लिए, पूज्य श्री ने सब कुछ सहन किया और भोग देना पडा तो वह भी दिया। किसी भी प्रकार के संयोग उन्हें जिनाज्ञा से विचलित नहीं कर सके।

शासन रक्षा हेतु शौर्य : सत्व गुण में से प्रकट वीरता (शौर्य) स्व-पर दोनों का हित कर सकती है और यह सत्व गुण प्रशान्तता एवं धीरता के बिना प्रकट नहीं हो सकता। इस शौर्य के कारण ही पूज्य श्री ऐसी शासनरक्षा और प्रभावना कर सके कि वर्तमान विषम काल में भी सच्चे आराधक वीतराग भगवान द्वारा प्रतिपादित मोक्षमार्ग की आराधना कर सकते हैं। इस शौर्य के प्रताप से जीवन-मृत्यु के मध्य की भेद रेखा मिटाकर मान-अपमान से परे रहकर पूज्य श्री जैन शासन पर आने वाली विपत्तियों के समक्ष ढाल बनकर खडे रहे और शासन पर होने वाले प्रहारों को सहकर जिनशासन का ध्वज सर्वथा सुरक्षित रखा। एक बार अहमदाबाद में गांधीजी ने पूज्य श्री को कहलवाया कि शराबबंदी के कार्य में आप हमें सहयोग करें। तब इन वीर पुरुष ने उत्तर दिया कि केवल शराबबंदी के लिए ही क्यों, मांसाहार के त्याग के लिए क्यों नहीं? यदि इन दोनों व्यसनों को देशनिकाला देना हो तो मैं आपके साथ हूं। अन्यथा हमारा प्रयत्न तो सात कुव्यसनों का विपाक समझाकर, उन्हें दूर करने का चल ही रहा है।कितना निर्भीक और फौलादी मन था उनका!

उन्होंने जन्म से लेकर तरुणावस्था तक और अपने दीक्षा-प्रसंग से लेकर अन्य भव्यात्माओं को दीक्षा देने, उन्हें संयम में दृढ करने, आर्य संस्कृति, श्रमण संस्कृति की रक्षा के लिए अलख जगाने से लेकर संयम की उत्कृष्टता बनाए रखने के लिए अंतिम श्वांस तक कई झंझावातों का सामना किया, किन्तु कभी उफ तक नहीं की।

मोहोपशमन हेतु नीर तुल्य : मोह में विषय एवं कषाय सब आ जाते हैं। जब सम्पूर्ण विश्व अज्ञान से अंध है, विषयों से विवश है और कषायों से कलुषित है; तब विश्व को शान्ति प्रदान करने वाले, हाथ पकडकर सुमार्ग पर लेजाने वाले और सत्य मार्ग बताने वाले व्यक्ति की अत्यंत आवश्यकता थी। हमारे अहोभाग्य से हमें परमपावन पुरुष की प्राप्ति हुई थी। जिस किसी ने उनकी शरण ग्रहण की उसके मोह का शमन करने के लिए पूज्य श्री ने सदा शीतल जल का कार्य किया। जिन व्यक्तियों ने भावपूर्वक उनकी शीतल छाया का आश्रय लिया, उनका अंधकार नष्ट हुआ, वे कषायों के कटु विपाक से बच गए, विषयों के भूत उनसे दूर रहे और सच्ची शान्ति पाकर वे आत्मा रत्नत्रयी के सच्चे आराधक बने।

स्पष्टवादिता : अपने परम भक्तों को भी वे समय-समय पर स्पष्ट कह देते कि आप हमारी भक्ति करो अथवा हमारे आगे-पीछे फिरो, परन्तु यदि आपको भगवान की आज्ञा के प्रति सम्मान नहीं हो अथवा दीक्षा अंगीकार करने की आपकी इच्छा न हो तो केवल हमारी भक्ति से आपको तनिक भी लाभ नहीं होगा।

उस जमाने में हजारों रुपये व्यय करके स्वागतार्थ सामैया (प्रवेशोत्सव) करने वालों को भी वे स्पष्ट कह देते कि यदि ये सामैये आप हम साधुओं को प्रसन्न करने के लिए अथवा अपनी वाह-वाह करवाने के लिए करते हो तो आपके धन का अपव्यय होगा और प्राप्त करने के योग्य लाभ से आप वंचित रहेंगे। आपकी भावना होनी चाहिए कि जैनशासन के धर्म गुरुओं का पदार्पण हुआ है, अतः उनसे आकर्षित होकर यदि अनेक मनुष्य उनके सम्पर्क में आकर धर्मोपदेश सुनें और धर्म प्राप्त करलें तो हमारा यह व्यय सार्थक होगा।उनकी व्याख्यान सभा में चाहे साधारण मनुष्य बैठे हों, धनवान बैठे हों कि अधिकारीगण बैठे हों, सबको वे उनके हित की बातें अवश्य कहते।