मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

शांति का रास्ता


आत्म-कल्याण और आत्म-संतोष के लिए ज्ञानी पहले बात तो संसार छोडने की, निवृत्ति की, विरक्ति की, संयम की ही कहते हैं, संसार न छूटता हो तो प्राप्त में संतोष मानने को कहते हैं, यह संतोष भी न हो और अभी भी प्राप्त करने की अभिलाषा हो तो मर्यादा बांधने का तीसरा रास्ता भी ज्ञानियों ने फरमाया है। इन तीन के अलावा शान्ति की ओर अग्रसर होने का अन्य कोई रास्ता नहीं है।

सागर की भी मर्यादा है। मर्यादा छोडता है वह सागर तो दुनिया को डुबोता है। आप यदि मर्यादा छोडो तो आप भी अपने आपको एवं दूसरे कई को भी डुबो देते हो। मनुष्यत्व से हीन मनुष्य सबसे अधिक भयंकर है। मनुष्य योजना-पूर्वक जितना पाप कर सकता है, उतना पाप दुनिया का कोई भी प्राणी नहीं करता है। मनुष्य यदि अच्छा बनेगा तो देव, किन्तु, यदि मनुष्यत्व भी गंवा देता है तो वही मनुष्य राक्षस कहलाता है। - आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 30 दिसंबर 2013

उपकारियों ने धर्म किसको कहा है ?


'अनन्तज्ञानी उपकारियों ने धर्म किसको कहा है? दान, शील, तप और सद्भाव को? या लक्ष्मी, विषय-विलास, शरीर की पुष्टि और अशुभ विचारों को?’ यह विचार करो, कारण कि यह विचारे बिना धर्म का स्वरूप वास्तविक रूप से समझ में नहीं आता है। दुनिया में दान भी दो प्रकार से दिया जाता है। पांच देकर पांच सौ लेने के लिए और दूसरा सौ हो उस में से पांच देकर उस समय पांच की और परिणाम से सौ की भी ममता उतारने के लिए। लक्ष्मी को अच्छी मानते हो या गलत? यदि खोटी, तो खोटी चीज के लिए धर्म करना, वह दूषित है या निर्दोष? जिस चीज को गलत मानते हो, उसके लिए धर्म का उपयोग होता है? भगवान की पूजा करके भगवान से बंगला और ऐश्वर्य मांगा जाता है? भगवान बडे या ऐश्वर्य बडा? विषय-वासना बढे, उसके लिए पूजा करने की है अथवा घटे उसके लिए? जिसको खोटा मानते हो, त्यागने योग्य मानते हो, उसको प्राप्त करने के लिए धर्म किया जाए, यह ठीक है? इन समस्त प्रश्नों का उत्तर सीधा तभी दिया जा सकता है कि जब उपकारियों ने धर्म क्यों कहा है?’ यह समझो। और इसी कारण से समझो कि उपकारियों ने दान को धर्म कहा है, किन्तु लक्ष्मी को नहीं कहा, शील को धर्म कहा है, किन्तु विषय-विलास को नहीं कहा है, तप को धर्म कहा है, किन्तु शरीर की पुष्टि को नहीं कहा और सद्भाव को धर्म कहा है, किन्तु अशुभ विचारों को नहीं कहा है। जो इस बात को नहीं समझते हों, उनकी दशा आज भिन्न प्रकार की ही है। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 29 दिसंबर 2013

रोग भी धनी लोगों के यहीं डेरा जमाते हैं


धन के वशीभूत धनी मनुष्यों पर व्याधियों की दृष्टि भी ठिठक जाती है। जो धनी लोग कृपण होते हैं, वे इस तरह का भोजन करते हैं कि उनके लिए कहना पडता है कि वे भूखों मरते हैं। जो धनी लोग विलासी होते हैं, ‘वे ऐसा भोजन करते हैं कि वे रोगों को निमंत्रण देते हैं’, यह कहना पडता है। कृपण लोग खुद खाते भी नहीं और किसी को खाने भी नहीं देते, खिलाते भी नहीं। विलासी लोग अपथ्य खाद्य पदार्थों को खा-खाकर व्याधियों से ग्रस्त होते हैं। अतः धनी मनुष्य का भोजन प्रायः तुच्छ एवं अपथ्य कहलाता है। रसना के स्वाद के अधीन होकर भी तुच्छ एवं अपथ्य भोजन किया जाता है और कृपण मनुष्य कृपणता के कारण तुच्छ और अपथ्य भोजन करता है।

खान-पान के संबंध में धनी और निर्धनों के दृष्टिकोण में अन्तर होता है, यह आपको ज्ञात है क्या? निर्धन क्यों खाते हैं? वे अपनी क्षुधा शान्त करने के लिए खाते हैं और क्षुधा की ज्वाला शान्त करने के लिए निर्धन किस तरह का भोजन पसंद करते हैं? वे ऐसा भोजन पसंद करते हैं, जिससे क्षुधा की ज्वाला शान्त हो सके और शरीर बलवान हो सके। उनमें से भी जो निर्धन मनुष्य संतोषी स्वभाव के होते हैं, उनकी तो बात ही भिन्न है। वे लोग न तो अजगर की तरह खाते हैं और न वे अपथ्य पदार्थ ही खाते हैं। लक्ष्मी के दास अविवेकी धनी लोग जीभ के स्वाद को संतुष्ट करने के उद्देश्य से खाते हैं।

धनी लोग जब तक क्षुधा लगे तब तक तो रुकते ही नहीं। यद्यपि वर्तमान समय में तो निर्धन और मध्यम वर्ग के मनुष्यों में भी खान-पान संबंधी अनेक बुराइयां उत्पन्न हो गई हैं, जिनके फलस्वरूप वे भी व्याधिग्रस्त होकर पीड़ित रहते हैं; परन्तु निर्धन संतोषी मनुष्य प्रायः ऐसा भोजन करते हैं, जिससे उनका शरीर रोग-ग्रस्त न होकर उलटा हृष्ट-पुष्ट हो। धनी लोग ऐसा नहीं करते। रोग उन धनी लोगों की अभिलाषा करते हैं। कैसी विडम्बना है कि याचकगण तो धनी लोगों की अभिलाषा करते ही हैं, रोग भी उनकी अभिलाषा करते हैं, क्योंकि रोगों का स्थान ही वहां है। ऐसे मनुष्य इस भव में सुख से जीवन जी नहीं सकते, मृत्यु के समय वे शान्ति पूर्वक मर भी नहीं सकते और मृत्यु के उपरांत उन्हें सद्गति भी प्राप्त नहीं हो सकती।

धनी लोग धन के वशीभूत होकर अनेक प्रकार की विपत्तियों से घिरे रहते हैं। वे एक कदम भी निश्चिंत होकर परिभ्रमण नहीं कर सकते। कई प्रकार के भय से वे ग्रस्त रहते हैं। शास्त्रों में धन की तीन गतियां बताई गई है- दान, भोग और नाश। जो धनी, धन की मूर्च्छा से रहित होकर विवेक पूर्वक धन का दान नहीं करता, अपने धन का संयमित उपभोग करते हुए, अन्य को इससे लाभान्वित नहीं करता, धर्म और परोपकार में इसका निवेश नहीं करता, उसके धन और आत्मा का भी नाश होता है। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 28 दिसंबर 2013

जैनत्व का पर्याय है परोपकार


जैन केवल परोपकार की भावना से युक्त होता है, यही नहीं है। उसकी परोपकार भावना सूखी नहीं होती, केवल बातों तक ही सीमित नहीं होती, बल्कि जैन मात्र की वृत्ति उस परोपकार भावना को अपने आचरण में ढालने की होती है। जैन परोपकार करने में आनंद मानता है, उसे परोपकार करने में रुचि होती है। इसीलिए तो वह नित्य श्री वीतराग परमात्मा से स्वयं में परोपकार भावना जागृत करने के लिए याचना करता है। श्री वीतराग परमात्मा के समक्ष प्रार्थना करते समय जैन नित्य यह याचना भी करता है कि हे भगवन्! आपके प्रभाव से मुझ में परोपकार प्रियता जागृत हो।’ ‘जय वीयरायसूत्र में आप नित्य परत्थकरणंचबोलते हैं न? यह बोलकर आप नित्य परोपकारी बनने की अपनी कामना ही तो व्यक्त करते हैं न? आप परोपकारी होना चाहते हैं। क्या आपने अपना ऐसा स्वभाव बनाया है कि नित्य थोडा बहुत भी उपकार किए बिना मुझे नहीं रहना है?

आपको सुखी, सम्पन्न व भला मनुष्य समझकर यदि कोई आप से किसी वस्तु की अथवा किसी कार्य को कराने की याचना करे तो उससे आपको हर्ष होना चाहिए। आपको यह लगना चाहिए कि मुझे परोपकार करने का यह उत्तम अवसर प्राप्त हुआ, यह मेरा अहोभाग्य है।’ ‘परोपकार करने के लिए अवसर ढूंढना पडता, उसके बदले परोपकार करने का सुअवसर स्वतः ही प्राप्त हो गया, यह मेरा अहोभाग्य है’, यह भावना जैन में होनी चाहिए। कोई यदि यहां कहे कि मुझ में परोपकार की भावना ही नहीं है तो उसे यह कहना पडेगा कि तुझ में जैनत्व का भी सर्वथा अभाव है।परोपकार जैनत्व का पर्याय है।

परोपकार करने का अवसर प्राप्त होने पर आनंद तो न हो, पर उसे आफत न माने तो भी यथेष्ट है, ऐसी भी आपकी स्थिति है? सबकी ऐसी स्थिति नहीं होती, परन्तु यदि सचमुच ऐसी स्थिति हो तो आपके मन में यह बात आनी चाहिए कि हम में भगवान का सेवक कहलाने की योग्यता भी नहीं है।संसार किसी भी तरह जीवन यापन कर रहा हो, पर हम से तो इस तरह जीवित नहीं रहा जाएगा। आपको यह सोचना चाहिए कि हम किसके सेवक हैं? हम उस महा परोपकारी परमात्मा के सेवक हैं। मुझे ऐसे परोपकारी भगवान का सेवक बनने का, कहलाने का सुअवसर मिला, यह मेरा अहोभाग्य है। यह सोचकर, यह समझकर यदि आप सेवक कहलाओ तो भी आपका कल्याण हो जाए। इतना ज्ञान हो तो, यदि कोई किसी उचित वस्तु के लिए आपसे याचना करे और उसे यदि उस समय आप इनकार करें तो जीभ कटने जैसा होगा। परोपकार करने योग्य सामग्री उपलब्ध हो, परोपकार करने का अवसर हो तो भी यदि हमसे परोपकार न हो सके तो लगेगा कि इस तरह परोपकार न करने में तो मेरी वीतराग परमात्मा की सेवा लज्जित होती है, मेरा जैनत्व कलंकित होता है।-आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

जैनत्व को लज्जित करने वाला अज्ञान


जिन तारणहारों के हम अनुयायी हैं, क्या उनके समान बनने की हमारे अन्तःकरण में अभिलाषा है? हम जिनका अनुकरण करते हैं, उनके समान बनने की हृदय में तमन्ना तो होती है न? इसलिए वे ऐसे महान कैसे बन सके, यह ज्ञात करने का प्रयत्न भी स्वाभाविक रूप से हम करते हैं, करते हैं न? हमें असीम पुण्योदय से आर्य संस्कृति और जैन कुल मिला है, तो भगवान श्री जिनेश्वर देवों के चरित्रों से सम्पूर्णतया परिचित होना ही चाहिए। हम इस अवसर्पिणी काल में हुए भगवान श्री ऋषभदेव आदि चौबीस तीर्थंकरों के चारित्रों से परिचित तो होंगे ही और विशेषकर वर्तमान शासन के संस्थापक भगवान श्री महावीर परमात्मा के चरित्र से तो हम सुपरिचित ही हैं न? ऐसे सवालों के समय यदि आप मौन की स्थिति में रहते हैं तो क्या यह स्थिति श्री जिनेश्वर देवों के अनुयायियों के लिए शोभनीय है? हमारा यह अज्ञान जैनत्व को लज्जित करने वाला नहीं है?

स्वयं का श्री जिनेश्वर देवों के अनुयायी के रूप में परिचय देने वालों को उनके चरित्रों का ज्ञान भी न हो तो यह लज्जा की बात तो है ही। जैनसे तात्पर्य ही यही है कि श्री जिनेश्वर देवों के अनुयायी। चाहे जैन कुल में उत्पन्न होने के कारण ही आप जैन कहलाते हों, पर जैन कहलाना तो आपको अच्छा लगता है न? भगवान श्री जिनेश्वर देवों के सच्चे अनुयायी होने में सहायक होने वाली जो सामग्री आपको अपने पुण्योदय से प्राप्त हुई है, उसका आपके अन्तःकरण में हर्ष है क्या? क्या आप इस प्राप्त सामग्री के योग को सफल करना चाहते हैं? अथवा आपका अन्तःकरण विषय-जनित एवं कषाय-जनित सुख की सामग्री को ही प्राप्त करने और उसकी सुरक्षा करने में ही तल्लीन है? जैन कहलाने वालों में तो आज ऐसे महानुभाव अनेक हैं। इस कारण से जैन शासन की जो समृद्धि होनी चाहिए, वह आज दृष्टिगोचर नहीं होती।

भगवान श्री जिनेश्वर देवों के अनुयायियों में जो गुण होने चाहिए, वे गुण यदि अधिकतर जैनों में विद्यमान हों, यदि श्री चतुर्विध संघ में वे गुण सम्पूर्णतया विकसित रूप से विद्यमान हों, तो-तो श्री जैन शासन जाज्वल्यमान लगे बिना रहेगा ही नहीं। उन गुणों को स्वयं में लाने के लिए भगवान के चरित्रों का सुन्दर प्रकार से अध्ययन करना आवश्यक है। भगवान के चरित्रों का अध्ययन करने से भगवान के प्रति हमारे हृदय में सम्मान बढता ही जाता है और सम्मान बढने से सम्यग्दर्शन आदि गुणों का हम में प्रवेश होता चला जाता है, वे गुण निर्मल भी होते जाते हैं, जिससे भगवान की आज्ञा का स्वरूप जानने व उसका अनुकरण करने की उत्कट अभिलाषा जागृत होती है। इससे हमारे दोष नष्ट होते हैं, कर्मों का क्षय होता है और हम आत्म-कल्याण की दिशा में अग्रसर होकर अक्षय सुख-शान्ति को प्राप्त कर सकते हैं। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

यह कैसी दासता है?


दान यदि धर्म है तो धन अधर्म है; शील यदि धर्म है तो भोग अधर्म है; तप धर्म है तो आहार अधर्म है और भाव यदि धर्म है तो दुर्भाव अधर्म है। ये समस्त बातें स्वतः ही निश्चित हो जाती हैं। इसी प्रकार यह भी सिद्ध हो जाता है कि यदि मोक्ष धर्म है तो समस्त संसार अधर्म है। संसार और संसार चलाने के लिए आवश्यक सभी वस्तुओं को मैं अधर्म में डालना चाहता हूं और संसार से पार जाने के लिए उपयोगी सभी वस्तुओं को मैं धर्म में स्थान देना चाहता हूं। यदि आपके हृदय में यह बात उचित प्रकार से बैठ जाए तो धर्म, धर्म के रूप में हो सकता है।

जब तक दान धर्म और धन अधर्म न लगे, तब तक धन से मोह हटने की, मूर्च्छा उतरने की बात करना मिथ्या है। पच्चीस हजार रुपयों से बोली लगाने का निश्चय कर के सभा में आकर आप केवल पांच सौ रुपयों से बोली लगाना प्रारम्भ करो और यदि दो हजार रुपयों की बोली पर ही आपको आदेश प्राप्त हो जाए; और फिर आप तेईस हजार रुपयों के बचने का आनंद अनुभव करो तो कैसे चलेगा? जो व्यक्ति मूर्च्छा के मूर्तिमान अवतार हैं, वे ही ऐसा मिथ्या संतोष प्राप्त कर सकते हैं। आज आप में से अनेक सज्जन बाजार में तो धनी लगते हैं और मन्दिर-उपाश्रय में निर्धन लगते हैं। ऐसे लोग बाजार में उद्यमी दिखाई देते हैं और धर्म स्थानों में आलसी दिखाई देते हैं। वे बाजार में स्फूर्ति के साथ दौडधूप करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं और धर्म स्थानों में बीमार जैसे दीखते हैं। उन्हें यह संसार अधर्म स्वरूप नहीं लगा, उसका ही यह परिणाम है।

संसार के अठारहों पाप आपके सेवक बन सकते हैं और आप उन पर स्वामित्व का रोब जमा सकते हैं, तो भी ये सेवक आज आपके सेठ बने बैठे हैं। बात-बात में ये आपको आज्ञा दे रहे हैं और आप उनकी आज्ञा पर नाच रहे हैं। इतनी भारी दासता के बावजूद आपको इसका पश्चात्ताप भी नहीं हो रहा है। यह कम दुःख की बात नहीं है। आज धर्म और अधर्म की व्याख्या को गहराई से समझने की आप लोगों के पास फुर्सत ही नहीं है तो फिर आपका उद्धार कैसे संभव है? अधर्म की यह कैसी दासता है कि आप जानते हुए भी उसे छोडने के लिए तत्पर नहीं दिखाई देते? धन अधर्म है, अतः जिसके पास अधिक धन है, उसके पास उतना ही अधिक अधर्म है। हमारी इस प्रकार की बातें यदि धनी लोगों के गले उतर जाएं तो जैन शासन की विजय का डंका बज सकता है। बुरी वस्तु को जो बुरी मानता है, वही बुरी से उत्तम कार्य सम्पादित कर सकता है; तो भी कहीं उससे बुरा’ ‘अच्छानहीं हो जाता। बुरे को तो बुरा ही कहना पडेगा। दान की तरह दान करने वालों का आज अभाव है; इसलिए आप जैसे महानुभावों के नाम आज तख्ती पर लिखे जाते हैं। यहां ऊसर (बंजर) गांव में एरंडिया प्रधानहोने की उक्ति चरितार्थ होती है। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

सच्ची उदारता के लिए प्रयत्नशील बनें


प्राणी मात्र का कल्याण चाहना, किसी के उत्तम गुण को देखकर प्रमुदित होना, दुःखी के प्रति दया-भाव रखना और अपराधी को सुधारने के लिए परिश्रम करने पर भी यदि न सुधरे तो उसके प्रति उदासीन हो जाना, लेकिन उसका तिरस्कार तो नहीं ही करना। जिसमें यह उदारता नहीं है, उसमें सदाचार, सहिष्णुता और उत्तम विचार आएंगे? नहीं आएंगे! आपको ऐसा उदार, सदाचारी, सहिष्णु और सद्विचार वाला बनना है? इन गुणों को प्राप्त कर के महान बनना है न? यदि हो, तो इस उदारता को प्राप्त कर के जीवन में उतारने के लिए प्रयत्नशील बनना चाहिए।

आपको पूर्व के किसी प्रबल पुण्य से यह उत्तम भव, उत्तम देश और उत्तम जाति प्राप्त हुई है। यह सामग्री जिसका सदुपयोग हो सके तो उत्तम प्रकार से मोक्ष-मार्ग की आराधना हो सकती है। यह सामग्री प्राप्त कर के आप यदि मोक्ष-मार्ग की आराधना करने में असफल रहें, मोक्ष प्राप्ति के लिए तनिक भी प्रयत्न-पुरुषार्थ न कर सको, प्रयत्न-पुरुषार्थ न कर सको और उसका पश्चात्ताप भी न हो तो यह मिली हुई सब सामग्री निष्फल हो जाएगी। ज्ञानी पुरुषों द्वारा बताई गई क्रिया से सर्वथा विमुख रहकर यदि केवल विपरीत क्रियाओं में ही इन उत्तम सामग्रियों का दुरुपयोग हो तो अपने ही हाथों अपना जीवन नष्ट करने के समान होगा।

अतः ज्ञानी पुरुषों के फरमाने के अनुसार मेरी आपको शिक्षा है-सलाह है कि यदि अधिक न हो सके तो इतना तो करना ही कि जिससे आराधना करने योग्य जो सामग्री प्राप्त हुई है, वह चली नहीं जाए, अपितु टिकी रहे, जिससे भविष्य में भी आत्मा अधिक आराधना कर सकेगी, परन्तु यदि विपरीत प्रवृत्तियों में ही जीवन में उलझ गए तो इतनी सामग्री पुनः कब प्राप्त होगी, यह कहा नहीं जा सकता। इसके लिए सच्ची उदारताप्राप्त करने का सदा प्रयत्न करना चाहिए। जिस मनुष्य में यह गुण आ जाएगा, वह अपना और पराया हित कर सकेगा। ऐसी आत्मा यदि सोच लेगी तो वह जैन शासन की भी अच्छी तरह प्रभावना कर सकेगी। हमने ऐसा अनुपम शासन प्राप्त किया है तो अपना बर्ताव ऐसा नहीं होना चाहिए कि जिससे शासन पर कलंक लगे।

हमें ऐसा जीवन जीना चाहिए कि जिससे शासन की शोभा में वृद्धि हो। देखने वाले को ऐसा लगे कि यह जिस धर्म को मानता है, वह धर्म उत्तम ही होगा। ऐसी छाप उदारता का गुण आए बिना नहीं पड सकती। हम कदाचित् देव-गुरु-धर्म की भक्ति बराबर न कर सकें तो भी हम उन तारकों और उनके धर्म की निन्दा न हो, इसकी सावधानी तो रख ही सकते हैं। जो आत्मा जीवन में सच्ची उदारता प्राप्त करने का प्रयत्न करेंगी और अनन्त ज्ञानियों की आज्ञानुसार आराधना करेंगी, वे आत्माएं इस भव-सागर को अवश्य पर करेंगी। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

उदारता का महत्त्व


आत्मा में प्रकट सच्ची उदारता का गुण एक ऐसा विलक्षण गुण है कि उसके योग से अन्य अनेक गुण सरलता से प्रकट हो सकते हैं। यदि सचमुच उदारता का गुण आत्मा में आ जाए तो दूसरे उत्तम गुण स्वतः ही उसके साथ चले आते हैं। उदार आत्मा की वृत्ति एवं प्रवृत्ति में सद्विचारों की सुन्दर शीतल छाँया सदा बनी रहती है और वह आत्मा को सांसारिक इच्छाओं के निरोध एवं सदाचार को अंगीकार करने के लिए प्रेरित करती रहती है। इस तरह जहां उदारता, सदाचार, सहिष्णुता और सद्विचार ये चारों उत्तम गुण मिल जाते हैं, वहां क्या कमी रहे?

सचमुच, इन गुणों वाले पुण्यात्मा इस जीवन में सबकुछ कर सकते हैं। उदारता का यह गुण केवल अपनी आत्मा के लिए ही हितकर नहीं है, अपितु अन्य असंख्य आत्माओं के लिए भी अत्यंत उपकारी सिद्ध हो सकता है। योग्य आत्माएं उदारता गुण से युक्त आत्मा के संसर्ग से स्वयं भी गुण-सम्पन्न बनती हैं। ऐसे विलक्षण और उपकारी गुण को जो आत्माएं अपने जीवन में उतार सकती हैं, जिन आत्माओं में यह गुण विकसित होता है, वस्तुतः वे आत्माएं ही इस संसार में महान् माने जाने योग्य हैं। महापुरुषों के रूप में वास्तविक ख्याति ऐसी पुण्यशाली आत्माएं ही प्राप्त कर सकती हैं। यह उदारता का गुण स्व-पर उपकारक होने से, अन्य अनेक गुणों को खींच लाने वाला होने से और आत्मा को महान बनाने वाला होने से, इसका महत्त्व स्वयमेव सिद्ध है। सच्ची उदारता का स्वरूप समझकर यदि यह गुण अपनी आत्मा में प्रकट नहीं हुआ हो तो इसे प्रकट करने के लिए और यदि प्रकट हो चुका हो तो इसे विकसित करने के लिए प्रत्येक आत्मा को प्रयत्नशील बनना चाहिए।

सबसे पहले हम यह सोचें कि आज का समझदार जगत महापुरुष किसको मानता है? आज का जगत महापुरुष में किन-किन गुणों की अपेक्षा करता है? सामान्यतया हम यह सोचें कि जिसे हम महापुरुष मानें, उसका मुख्यतया स्वभाव कैसा होना चाहिए? कोई भी प्राणी चाहे स्वजन हो या परजन हो, मित्र हो या शत्रु हो, उसने अपनी भलाई की हो अथवा बुराई, मनुष्य हो अथवा पशु हो, बडा हो अथवा छोटा हो, सुखी हो अथवा दुःखी हो; उन सब की, संसार के समस्त प्राणियों की भलाई करने की उदार-वृत्ति, सच्ची भावना जिस मनुष्य में हो, वह महापुरुष बनने के योग्य अथवा महापुरुष के रूप में पूजे जाने योग्य है। किसी में भी आत्म-हितकारी अच्छी बात देखे तो उसे देखकर वह प्रसन्न हो, किसी भी दुःखी प्राणी को देखकर उसे दया आए और उसका कष्ट निवारण करने के लिए यथासंभव प्रयत्न करने में कोई कमी न रखे, वह महापुरुष बनने के योग्य है। जिन पुण्यात्माओं का जीवन उदारता, सदाचार, सहिष्णुता, सद्विचार, कल्याण-भावना आदि से ओतप्रोत हो, वे ऊॅंची आत्माएं हैं और हमें अपनी आत्मा को ऐसा ही बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा