बाह्य पदार्थों में सुख खोजते हुए हम अपने भीतर के सच्चिदानंद को उपेक्षित कर
रहे हैं, यह बहुत चिन्तनीय विषय है। मिथ्यात्व के आवरण छेद कर जब सम्यक्त्व का दिव्य
प्रकाश प्रस्फुटित होता है,
तब अपने आप में रहे हुए अक्षय कोष का ज्ञान होता है। उस समय
चेतना में कई प्रकार के रूपांतरण होते हैं। सबसे बडी बात तो यही होती है कि
सम्यक्त्व का जागरण होते ही जीव अपनी शक्ति को पहचान जाता है, फिर
वह अपने ऊपर किसी बाहरी नियंता या कर्त्ता-हर्ता की शक्ति को नहीं मानता। फिर वह
स्वयं को किसी अदृश्य ईश्वरीय शक्ति की कठपुतली मात्र नहीं समझता, अपितु
स्वयंकृत कर्मों के क्षय द्वारा अपने आप में ही ईश्वरत्व को साक्षात् अनुभव कर
लेता है, ऐसी विलक्षण शक्ति का अखूट कोष हमारे पास ही है। जरूरत है उसे अनावृत करने की।
सम्यग्दृष्टि का ज्ञान ही सही ज्ञान है और मिथ्यादृष्टि का ज्ञान अज्ञान है। आत्म
साधना की दृष्टि से मिथ्यादृष्टि को हेय, ज्ञेय, उपादेय
का बोध नहीं होता। मिथ्यादृष्टि का ज्ञान नशे में झूमते हुए नशेडी के ज्ञान के
तुल्य माना गया है। मिथ्यादृष्टि आसक्त होता है और सम्यग्दृष्टि अनासक्त।
सम्यग्दृष्टि भाव का जागरण होते ही मन में अपूर्व शान्ति का अहसास होता है।
सम्यग्दृष्टि के जागरण के साथ ही हमें अपने वास्तविक स्वरूप की पहचान भी हो जाती
है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
बुधवार, 31 जुलाई 2013
मंगलवार, 30 जुलाई 2013
क्षण मात्र का भी प्रमाद न करें
जीवन के भोग मेघ रूपी वितान
में चमकती हुई बिजली के समान चंचल हैं और आयु अग्नि में तपाये हुए लोहे पर पडी
जल-बिन्दु के समान क्षणिक है। जिस प्रकार सर्प के मुँह में पडा हुआ भी मेंढक
मच्छरों को ताकता रहता है; उसी प्रकार लोग काल रूपी सर्प
से ग्रस्त हुए भी अनित्य भोगों को चाहते रहते हैं। हमने विषयों को तो भोगा नहीं, उलटे विषयों ने ही हमें भोग लिया, हम तप न तपे,
परन्तु ताप ने हमें
तपा दिया और समय नहीं बीता, परन्तु आयु अलबत्ता व्यतीत हो
गई। परन्तु इतने पर भी तृष्णा बूढी नहीं हुई,
बल्कि हम ही वृद्ध हो
गए। इतना सब हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं और संसार की असारता को भी जान रहे हैं, फिर भी हमारे कदम धर्माचरण की ओर न बढें तो यह दुर्भाग्य ही
है। पिता, माता,
पुत्र, भाई, स्त्री और बंधु-बांधवों का
संयोग प्याऊ पर एकत्रित हुए जीवों अथवा नदी प्रवाह से इकट्ठी हुई लकड़ियों के समान
चंचल है। यह निःसंदेह दिखाई पडता है कि लक्ष्मी छाया के समान चंचल और यौवन जल-तरंग
के समान अनित्य है, स्त्री-सुख स्वप्न के समान
मिथ्या और आयु अत्यंत अल्प है, तिस पर भी प्राणियों का इनमें
कितना प्रमाद-भाव, कितना अभिमान है? जीवन की इस सच्चाई को,
इस वास्तविकता को अनदेखा
न करें और इसी समय से अपने आत्म-कल्याण के उपायों में लग जाएं। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
सोमवार, 29 जुलाई 2013
संसार की क्षणभंगुरता का विचार करें
यह संसार क्षणभंगुर है, नाशवान है। मनोहर दिखाई देने वाला प्रत्येक पदार्थ प्रति
क्षण विनाश की प्रक्रिया से गुजर रहा है। जो कल था, वह आज नहीं है और जो आज है, कल नहीं होगा। संसार
प्रतिक्षण नाशवान और परिवर्तनशील है। फिर हम क्यों बाह्य पदार्थों, जड तत्त्वों में भटक रहे हैं? क्यों हम नश्वरता के पीछे बेतहाशा दौडे जा रहे हैं, पगला रहे हैं?
हम आत्म-स्वरूप को
समझकर शाश्वत सुख की ओर क्यों न बढें?
जहां जीना थोडा, जरूरतों का पार नहीं,
फिर भी सुख का
नामोनिशान नहीं; ऐसा है संसार और जहां जीना
सदा, जरूरतों का नाम नहीं, फिर भी सुख का शुमार नहीं; वह है मोक्ष! फिर भी हमारी
सोच और गति संसार से हटकर मोक्ष की ओर नहीं होती, यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है? हम अनन्त काल से संसार की
क्षणभंगुरता को समझे बिना परभाव में रमण करते चले आ रहे हैं, यही हमारे जन्म-मरण और संसार परिभ्रमण का कारण है, यही दुःख-शोक-विषाद का कारण है। 24 घण्टे हम परभाव में व्यस्त रहते हैं, एक क्षण के लिए भी यह विचार नहीं करते कि हम आत्मा के लिए
क्या कर रहे हैं? जो भी आत्मा से ‘पर’ है, वह नाशवान है और संसार के नाशवान पदार्थ ही सब झगडों की जड
हैं; जब तक यह चिन्तन नहीं बनेगा, संसार से आसक्ति खत्म नहीं होगी, हम स्व-बोध को,
आत्म-बोध को प्राप्त
नहीं कर सकेंगे और उसके बिना आत्मिक आनंद,
परमसुख की उपलब्धि
असम्भव है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
रविवार, 28 जुलाई 2013
संयम में विकार न हो
संयम जीवन बहुत कठोर है। जो
उस पर चल पाता है, वह महान बन जाता है, लेकिन जो व्यक्ति संयमी जीवन का वेश पहिनने के बाद भी पालन
नहीं कर पाता है, वह उससे नीचे गिरता है तो
उसका समस्त अस्तित्व चकनाचूर हो जाता है। कहा गया है-
साधु जीवन कठिन है, ऊँचा पेड खजूर।
चढे तो चाखे प्रेम रस, गिरे तो चकनाचूर।।
व्यक्ति क्षणिक मोह के वशीभूत
होकर पथ से हट जाता है, पथभ्रष्ट बन जाता है और अपने
तुच्छ स्वार्थों में अंधा होकर सुसाधुओं को आघात पहुंचाता है, छद्मवेश में धर्म को आघात पहुंचाता है, धर्मतीर्थ को आघात पहुंचाता है और अपना संसार सजाता है।
श्री अरिहंत परमात्मा ने मोक्ष पाने हेतु ही धर्मतीर्थ की संस्थापना की है। इसी
धर्मतीर्थ का उपयोग संसार सजाने (संसार के सुख पाने) के लिए करना परमात्मा का घोर
अपराध है। हमारी साधना ऐसी होनी चाहिए कि हमें बाहर के कितने ही निमित्त मिलें, लेकिन हमारे में विकार उत्पन्न न हो, हम अपने संयम की मर्यादाओं से जरा भी विचलित न हों। -आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
शनिवार, 27 जुलाई 2013
बुद्धि-प्रज्ञा का उपयोग आत्म-कल्याण में करें
चौरासी लाख जीवयोनियों में
मानव अपनी बुद्धि-प्रज्ञा के कारण ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है। हम इस
बुद्धि-प्रज्ञा का उपयोग केवल रोटी-कपडे की व्यवस्था या विध्वंसक कार्यों में न
करें, वर्ना मानव बुद्धि का सम्पूर्ण महत्त्व ही धूमिल हो
जाएगा। हम इस प्रज्ञा का उपयोग मृत्यु पर विजय प्राप्त करने में करें या यों कहें
कि हमें जन्म ही न लेना पडे, ऐसा पुरुषार्थ हम अपनी
बुद्धि-प्रज्ञा द्वारा करें, जन्म-मरण की श्रृंखला का
सदा-सदा के लिए निर्मोचन करें। इसके लिए अपनी बुद्धि-प्रज्ञा का उपयोग अपने
आत्म-स्वरूप को जानने में करें। आत्म-चिंतन करें कि मैं कौन हूं? कहां से आया हूं?
मेरे क्या कर्त्तव्य हैं? मैं जन्म-जरा और मृत्यु से किस प्रकार छुटकारा प्राप्त कर
सकता हूं? विचार करें! गम्भीरता पूर्वक चिन्तन करने से शुभ
भावों का उदय होगा, आप अन्तर्मुखी-सम्यग्दृष्टि
बनेंगे और जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे। पुण्य के उदय से प्राप्त
साधन-सामग्री का मजे से भोग-उपभोग करना यानी अपने ही हाथों अपनी दुर्गति खडी करना; इस तथ्य को गहराई से विचार करें। मानव जीवन आत्म-कल्याण के
लिए है, इसे भोगोपभोग में लगाकर व्यर्थ गंवा देना स्वयं अपनी
आत्मा का अपराध करना है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
शुक्रवार, 26 जुलाई 2013
बिना संस्कारों के तो रोना ही पडेगा
प्रत्येक मानव परम आनंद की
प्राप्ति करना चाहता है, किन्तु आज चारों तरफ अंधकार
के सघन बादल आच्छादित हो रहे हैं। प्रायः हर व्यक्ति ने अपनी जिन्दगी की नाव को
पाप व पीडा के बोझ से भर रखा है, फिर वह भवसागर में डूबेगी
नहीं तो क्या होगा? इस डूबने के लिए हमारे
संस्कार ही बहुत हद तक जिम्मेदार हैं। क्यों न हम भावी पीढी में सुसंस्कारों का
बीजारोपण करें, ताकि वह वास्तविक
आनंद-परमानंद की प्राप्ति कर सके। किन्तु,
आजकल माता-पिता अपने
बच्चों के संस्कारों की तरफ कितना ध्यान दे पाते हैं? दोनों अर्थोपार्जन या भौतिक उपलब्धियों की दौड में बेतहाशा
दौड रहे हैं या आधुनिक बनने के चक्कर में कॉकटेल पार्टियों व क्लबों में ही व्यस्त
हैं। ऐसे में बच्चे कई बार माता-पिता के वात्सल्य प्रेम को तरस जाते हैं और बचपन
से ही सुसंस्कारों के बीजारोपण के बजाय वे तनावग्रस्त होकर भटक जाते हैं। बडे होकर
वे अपने माता-पिता, समाज या देश के लिए समस्या
नहीं बनेंगे क्या? क्या ऐसे बच्चे अपने आत्मगौरव
को प्राप्त कर सकते हैं? अपना कल्याण साध सकते हैं? आप जितना महत्त्व आधुनिक शिक्षा और शिक्षापद्धति को देते
हैं, उतना संस्कारों और धार्मिक शिक्षण को देते हैं क्या? इसके बिना बच्चों का जीवन सफल कैसे हो सकता है? जरूर आपको और आपके बच्चों को भविष्य में रोना ही पडेगा। -आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
गुरुवार, 25 जुलाई 2013
कल-कल करते काल ही आता है
यहां न कुछ तेरा है, न मेरा है। न ही यह धन-सम्पत्ति, यह भौतिकता की चकाचौंध या नाते-रिश्तेदार अंतिम समय में साथ
आने वाले हैं, फिर अहंकार/अभिमान किस पर? क्यों हम सिर्फ बाह्य वस्तुओं और व्यवस्थाओं के प्रति ही
सजग हैं? आत्मा के प्रति हम सजग क्यों नहीं? हम भौतिक संसाधनों को जुटाने में और अधिकाधिक अर्थोपार्जन
की दौड में इतने अधिक लिप्त हो गए हैं कि प्रायः चौबीसों घण्टे हमारी क्रियाएं
उन्हीं पर केन्द्रित रहती हैं और हम कल का काम भी आज ही निबटा लेना चाहते हैं, लेकिन धर्म-साधना अथवा परोपकार का काम कल पर छोडते हैं और
वह कल कभी नहीं आता, ‘काल’ ही आता है। तब हमारा यह जीवन व्यर्थ हो जाता है। हमारी
आत्मा अनादिकाल से सोई हुई है। मिथ्यात्व मोह और अज्ञान निद्रा का आवरण हमारी
आत्मा पर छाया हुआ है। जब हमारी आत्मा में जागृति आ जाएगी, तब हमें अपने अंतरंग शत्रु दिखाई देने लगेंगे कि इन्होंने
हमारे भीतर की आत्मा को कैसे दूषित कर रखा है? -आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
बुधवार, 24 जुलाई 2013
धर्म से ही जीवन सार्थक हो सकता है
यह मानव जीवन दुर्लभ है।
देवता भी इसके लिए तरसते हैं, क्योंकि इसी से आत्म-कल्याण
संभव है। हमने असीम पुण्योदय से यह मानव जीवन पाया है, क्या इसे हम यों ही गंवा देना चाहते हैं? जो उम्र चली गई,
वह तो व्यर्थ गई, लेकिन जो जीवन बचा है,
उसे संभालिए। मृत्यु
की घड़ियों में साथ आने वाला केवल धर्म ही है। जिन भौतिक पदार्थों को आप एकत्रित कर
रहे हैं, वे आपके साथ आने वाले नहीं हैं। उन्हें यहीं पर
छोडकर जाना पडेगा। जरा सोचिए कि आपने कौनसी चीज बनाई है? क्या कमाया है आपने?
इस जीवन से जाते समय
कितना साथ ले जाएंगे? चौबीस घंटे भौतिक साधनों की
कमाई कर रहे हैं, पापकर्मों का उपार्जन कर रहे
हैं, आत्मा की उपेक्षा कर रहे हैं, तो भविष्य क्या होगा?
आपके जीवन का उद्देश्य
क्या है? निरुद्देश्य जीवन का कोई महत्त्व नहीं है। धर्म को
आचरण में लाओ। सम्यग्दृष्टि बनो। सम्यग्दृष्टि व्यक्ति का जीवन तनाव रहित होता है।
आज जितने तनाव और संघर्ष परिलक्षित हो रहे हैं,
यह सब मिथ्यात्व के
कारण हैं। हम शान्ति की खोज में बाहर भटक रहे हैं, भौतिक साधनों में उसे खोज रहे हैं,
किन्तु वह उनमें कहीं नहीं
मिलती। हम अंतर्मुखी होकर सम्यग्दृष्टि बनेंगे तो चिरस्थाई शान्ति को प्राप्त कर
सकेंगे। सम्यग्दृष्टि भाव का जागरण होने के पश्चात हमारे सामने जो घोर तिमिर छाया
हुआ है; नष्ट हो जाएगा और अलौकिक ज्योति से हमारा जीवन
जगमगाने लगेगा। हम वीतरागवाणी को जीवन में उतार कर आत्म-कल्याण के मार्ग को
प्रशस्त करें, तभी यह जीवन सार्थक है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
मंगलवार, 23 जुलाई 2013
बाढ आने से पहले पाल बांधो
विपत्ति आने के बाद जागृत
होने के बजाय पहले ही जागृत हो जाओ। पहले ही सावधान हो जाओ तो फिर तुम्हें कष्ट ही
नहीं आएगा। आग लगने के बाद कुंआ खोदने की सोचे तो वह समझदार पुरुष माना जाता है
क्या? नहीं! समझदार पुरुष तो वह माना जाता है, जो बाढ आने से पहले ही पाल बांध लेता है। तो यह शास्त्रीय
संकेत है कि हम अपना मूल स्वरूप देखें। चेतना का बोध प्राप्त करें। अन्तर-बोध को
प्राप्त करें। जो आत्मा संसार में आसक्त नहीं है, जिसे संयम से प्रीति है, वह आत्मा दुःखों से बचकर रहती
है। लेकिन, इस प्रकार की स्थिति बने कैसे? कब हम असंयम से निवृत्त हो सकेंगे? जब हमारा यह प्रयत्न रहेगा कि हम जितना-जितना हो सके पाप
कार्यों से बचकर रहने का प्रयास करें। एक बार हमें आत्मा का बोध प्राप्त हो गया, तो फिर जीवन की दिशा,
जीवन की सारी गति ही
बदल जाएगी। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
सोमवार, 22 जुलाई 2013
संयम प्रिय है या असंयम
श्रावक के मनोरथ में भी यह
आता है कि श्रावक प्रतिपल यह चिन्तन करता है कि मेरे जीवन में वह क्षण कब आएगा, जब मैं पाप कार्यों से निवृत्त होकर रहूंगा? असंयम से निवृत्त होऊंगा। वह क्षण जब आएगा, तब मैं समझूंगा
कि वह दिन मेरा धन्य हो गया। इस मनोरथ का चिन्तन होता है क्या? होता है, लेकिन शाब्दिक, अंतरंग से नहीं,
अपने आपको बदलने के
दृढ संकल्प के साथ नहीं; इसीलिए सवेरे मनोरथ का चिन्तन
किया और जैसे ही उस स्थान से हटे कि फिर वही असंयमी वृत्तियां हमारी शुरू हो जाती
हैं। आप कहते हैं कि संयम हमें प्रिय है,
लेकिन आप तो असंयम में
रच-पच कर कार्य करते हैं। असंयम में रहते हैं और इसीलिए सामायिक भी करना है तो
पहले टाईम देखते हैं, घडी पर आपकी दृष्टि जाती है
कि पांच मिनिट आप लेट हो गए हैं। तो सामायिक पांच मिनिट बाद आएगी, तो सामायिक करें या नहीं करें? और मान लिया जाए कि कदाचित् आप सामायिक कर भी लेते हैं तो
बार-बार आपकी दृष्टि घडी पर जाती है कि मेरी सामायिक आई कि नहीं? मेरी सामायिक में कितनी देर है? संसार का काम करते समय आप घडी देखते हो क्या? दुकान पर बैठ हैं,
ग्राहक आ रहे हैं तो
आप घडी देखते हो क्या? वहां आपको घडी याद नहीं आती
है। आस्रव का काम करते हैं तो वहां आपको घडी की स्मृति नहीं होती है। वहां आप इतने
दत्तचित्त हो जाते हैं कि आपको भोजन की भी सुधबुध नहीं रहती। यह नहीं देखेंगे कि
भोजन का टाईम हो गया है। लेकिन जहां संवर का कार्य आता है, वहां आपकी दृष्टि बार-बार घडी की ओर जाती है। अब बोलिए आपका
रस किधर है? आपकी रूचि किधर है? संयम आपको प्रिय है या असंयम प्रिय है? -आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
रविवार, 21 जुलाई 2013
परभाव में नहीं, स्वभाव में रमण करें
एक बार हम अपने मूल स्वरूप को
समझ लें, अपनी मूल चेतना का ठीक से हमें बोध हो जाए, फिर तो हमारे जीवन की सारी गति उस मूल स्वरूप के प्रति
समर्पित हो जाएगी। लेकिन, आज हमारी स्थिति यह बनी हुई
है कि हमें अपने मूल स्वरूप का बोध ही नहीं होता, उससे पहले बाह्य परिस्थितियों से,
संसार के पदार्थों के
ज्ञान से हमारी चेतना इतनी आवृत्त हो जाती है,
इतनी ढंक जाती है कि
चेतना के विषय में हम कुछ सोच ही नहीं पाते हैं। अथवा यों कह सकते हैं कि हम
अधिकांशतया स्वभाव में नहीं, परभाव में ज्यादा रमण करते
हैं, विभाव में ज्यादा रहते हैं। जीवन के अधिकांश क्षणों
को हम देखें तो, उन वैभाविक वृत्तियों में ही
अधिक आबद्ध रहते हैं। जब आपकी चेतना स्वभाव में नहीं होती है, वैभाविक अवस्था में होती है तो, व्यक्ति को क्रोध आता है। और जब व्यक्ति को क्रोध आता है, तब उसकी चेतना जागृत नहीं होती है। उस समय वह स्वयं से जुडा
हुआ नहीं होता है। आत्मा का यह विभाव है कि जब वह स्वयं से आबद्ध नहीं होती है तो
निन्दा में लगी रहती है, संसार की किसी अन्य बाहरी
वृत्ति से जुडी होती है। बाह्य पदार्थों से अथवा बाह्य-व्यक्तियों से जुडी होती है
और ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपने आप को नहीं देखता है। जो व्यक्ति अपने आप को देख
लेता है, फिर उसे क्रोध नहीं आता है, उसे द्वेष नहीं होता है,
फिर वह परनिन्दा में
नहीं, स्वनिन्दा में लग जाता है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
शनिवार, 20 जुलाई 2013
परमात्मा के प्रति समर्पण हो
परमात्म-भाव में लवलीन होने
की बात हम कई बार करते हैं। लय होने का अर्थ होता है, अपने संपूर्ण अस्तित्व को प्रभु के प्रति समर्पित कर देना।
अपनी संपूर्ण सत्ता को परमात्म-भाव के प्रति अर्पित कर देना। हम समर्पण करते हैं।
संसार में एक दूसरे व्यक्ति के प्रति हमारा समर्पण होता है। संसार के भिन्न-भिन्न पदार्थों
के प्रति हमारी समर्पणा होती है। लेकिन,
जिस मूल सत्ता के
प्रति हमारा समर्पण होना चाहिए, वह समर्पण हमारा प्रायः नहीं
बनता है। जहां हमें समर्पित होना है,
वहां से हम प्रायः
अपने आप को बचा लेते हैं और जहां हमें समर्पित नहीं होना है, वहां हम अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर देते हैं। यह दृष्टि
का विपर्यय-भ्रम, दृष्टि-विपर्यास हमें इस
संसार में उलझाए हुए है। जन्म-मरण के चक्कर में फंसाए हुए है। यहां तक कि अपने आप
के परिचय से भी हमें वंचित किए हुए है। हमें स्वयं का परिचय नहीं होता है। स्वयं
का बोध नहीं होता है। शरीर का परिचय होता है,
इन्द्रियों का परिचय
होता है और बाह्य पदार्थों का परिचय होता है। लेकिन, चेतना का परिचय, आत्म-शक्ति का बोध बहुत कम को
हो पाता है, विरली ही आत्माओं को होता है। उसके लिए पदार्थों के
प्रति नहीं, परमात्मा के प्रति समर्पण होना जरूरी होता है। -आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
शुक्रवार, 19 जुलाई 2013
सुप्रत्याख्यान-दुष्प्रत्याख्यान
आत्म-साधना में व्रतों का, नियमों का, संकल्पों अथवा प्रत्याख्यानों
का बहुत अधिक महत्त्व माना गया है। लेकिन अगर वे व्रत, नियम, संकल्प और प्रत्याख्यान सम्यग्ज्ञान
पूर्वक स्वीकार नहीं किए गए हों, भावात्मकता से जुडे हुए नहीं
हों, तो वे दुष्प्रत्याख्यान कहलाते हैं। वही साधना
आत्म-साधना में सहयोगी बन सकती है,
जो सम्यग्दर्शन के साथ, सम्यग्ज्ञान के साथ की गई है। एक व्यक्ति आवेश में आकर
प्रत्याख्यान लेता है, क्रोध में आकर नियम लेता है, क्रोध आ गया,
गुस्सा आ गया और उपवास
कर लिया। आपने भले ही पचकने की पाटी से उपवास पचका हो, लेकिन उसे शास्त्रकार दुष्प्रत्याख्यान कहते हैं, सुप्रत्याख्यान नहीं कहते। दुष्प्रत्याख्यान मोक्षमार्ग में
सहयोगी नहीं बन सकते। सुप्रत्याख्यान ही मोक्षमार्ग में सहयोगी हो सकते हैं। आज
प्रत्याख्यान तो अनेकों बार लिए जाते हैं,
लेकिन अगर वे ही
प्रत्याख्यान समझपूर्वक लिए जाएं, उनके द्वारा होने वाली
कर्म-निर्जरा पर प्रगाढ श्रद्धा हो,
तो वे मोक्षमार्ग के
लिए गतिशील बन सकते हैं। दुष्प्रत्याख्यान के द्वारा कर्म-निर्जरा तो हो सकती है, लेकिन उसे अकामनिर्जरा कहा है। “अकाम निर्जरा” मोक्ष मार्ग में सहयोगी नहीं बन सकती। मोक्षमार्ग में तो “सकाम निर्जरा” ही सहयोगी बन सकती है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
गुरुवार, 18 जुलाई 2013
मोह का नशा विवेकशून्य बना देता है
किसी व्यक्ति को क्लोरोफार्म
सुंघा दिया जाए या बेहोशी का इंजेक्शन लगा दिया जाए या वह व्यक्ति शराब अथवा अन्य
मादक पदार्थों का नशा कर लेता है तो बेभान,
उसकी चेतना सक्रिय
नहीं रहती, विवेकशून्य हो जाती है; फिर भाषा वर्गणा के पुद्गल कर्ण शुष्कली तक पहुंचेंगे तो
सही, लेकिन सुनाई नहीं देगा। जब तक भाव इन्द्रियां सक्रिय
नहीं होती हैं, तब तक शब्द वर्गणा के पुद्गल
ग्रहण नहीं कर सकती है। इसी प्रकार चेतना मोह के नशे में बेहोश हो रही है।
शास्त्रकारों ने मोह को नशा कहा है। जिस तरह शराब पीने से नशा चढ जाता है, उसी तरह आत्मा पर मोह का नशा चढ जाता है। वह फिर अपने
हिताहित के विवेक से रहित हो जाता है। मोह के नशे में मदहोश व्यक्ति के लिए कहा
गया है कि ऐसा व्यक्ति सत और असत् की विशिष्टता को नहीं समझता है। वास्तविक और
अवास्तविक का अन्तर न जानने से, विचार शून्य होने से, वह उन्मत्त की तरह रहता है, उसका ज्ञान भी अज्ञान ही है। वह उन्मत्त की तरह व्यवहार
करता है। शराब की दशा में व्यक्ति उन्मत्त हो जाता है, उसे भान नहीं रहता है। उसी तरह मोह की निन्द्रा में सोया
व्यक्ति, मोह से अभिभूत व्यक्ति अपने हिताहित का ध्यान नहीं
रखता है। उसका विवेक, उसकी प्रज्ञा इतनी नहीं होती
है कि वह सत्-असत् का विशिष्ट विश्लेषण कर सके,
अपना हिताहित सोच सके।
-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
बुधवार, 17 जुलाई 2013
सम्यक्त्व बिना का तप, तप नहीं
व्यक्ति के जीवन में यदि
शुद्ध दर्शन नहीं, शुद्ध-विशुद्ध श्रद्धा नहीं
और सम्यक्त्व नहीं है तो उसके अभाव में वह कितना ही धर्म कर ले, सब प्रभावहीन ही सिद्ध होगा। धर्म स्थान में आने वाले, धर्म क्रियाएँ करने वाले वास्तव में कितने धार्मिक हैं, यह उनके सम्यक्त्व की शुद्धि पर निर्भर करता है। जो धर्म का
प्रदर्शन करते हैं, धार्मिक होने का दम भरते हैं, यदि उनकी श्रद्धा सम्यग् न हो, तो उन्हें क्या कहेंगे?
श्रद्धा के अभाव में
सम्यक्त्व हो ही नहीं सकता। जिनके जीवन में,
विचारों में धर्म
अवतरित नहीं हुआ है, वे वस्तुतः अभी धर्म के गहन
तत्त्व से अनभिज्ञ ही कहे जाएंगे। मास खमण की तपश्चर्या करके पारणे में कुश या
चावल के अग्र भाग पर आए, उतना सा आहार ले और फिर से
मास खमण पचक्ख ले, इस प्रकार जो तपस्या की जाती
है, वह कितनी उग्र तपस्या होगी, लेकिन उसमें सम्यग्ज्ञान नहीं है, सच्ची श्रद्धा नहीं है,
तो वह इतना कठोर
तपस्वी धर्म के तत्त्व के विषय में कुछ नहीं जानता। उसका वह तप, वह कायक्लेश अध्यात्म की कोटि में नहीं गिना जाएगा, क्योंकि वह सम्यक्त्व से रहित है। यदि सम्यक्त्व विशुद्ध है, यदि हमारी श्रद्धा विशुद्ध है तो धर्म का आचरण धर्म की कोटि
में आएगा, अन्यथा वह कुछ मायने नहीं रखता। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
मंगलवार, 16 जुलाई 2013
ये धर्मशालाएं हैं या कर्मशालाएं?
आज पालीताणा में धर्मशालाओं
की संख्या बहुत बढ गई है। इनमें सुविधाएं भी बहुत बढ गई है, जिसे आप लोग अद्यतन कहते हैं। मौज-मजा के साधन इनमें बसाने
लगे हैं, इसलिए जयणा-धर्म नष्ट होने लगा है। इतनी धर्मशालाएं
होने पर भी सामान्य यात्रिक को तो प्रायः जगह मिलती ही नहीं है। उनको तो कष्ट
उठाना ही पडता है। धर्मशाला का उपयोग धन-प्राप्ति के लिए हो रहा है। थैली खोल दे
उसको सभी सुविधाएं मिलती है। जो दाम नहीं दे सके, उनको चक्कर काटने पडते हैं।
धर्मशाला में रात्रि भोजन नहीं होना चाहिए,
अभक्ष्य भोजन नहीं
होना चाहिए, व्यसन का सेवन नहीं होना चाहिए, धर्म विरूद्ध कोई आचरण नहीं होना चाहिए, किसी भी प्रकार के अनाचारों का सेवन नहीं होना चाहिए, लेकिन यह सभी प्रायः आजकल हो रहा है। आज राज्यों में जो
लूटमार चल रही है, वैसे यहां धर्मशालाओं में हो
रहा है। मुनीम प्रायः मालिक जैसे बन बैठे हैं। तीर्थयात्रा पर आने वाले बहुत से तो
सैलानी जैसे आते हैं, जो तीर्थ में आकर भी
कर्मनिर्जरा के बदले कर्मबंधन ही ज्यादा करते हैं। आज की धर्मशालाएं सच्चे अर्थ
में धर्मशालाएं नहीं रही हैं, अपितु कर्मशालाएं बनने लगी
हैं। यह परिस्थिति बहुत ही व्यथाजनक है। तीर्थ के भक्तगण समझें और पाप से डरें तो
ही इसमें सुधार हो सकता है, अन्यथा नहीं। -आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
सोमवार, 15 जुलाई 2013
तीर्थयात्रा मानसिक शान्ति के लिए
याद रखना चाहिए कि
तीर्थयात्रा मौज करने के लिए या अनुकूलता का उपयोग करने के लिए नहीं है, बल्कि आत्म-गुणों के प्रकटीकरण और उनकी निर्मलता की सिद्धि
के द्वारा मानसिक शान्ति प्राप्त करने के लिए है। इस प्रकार का ध्येय रखने वाले को
शारीरिक कठिनाइयां विषम नहीं लगती। किसी का कटु वचन प्रयोग उस पर थोडा भी असर नहीं
करता।
आज मानसिक शान्ति की जितनी
चिन्ता नहीं है, उतनी इन्द्रियों के तोष की
चिन्ता है। किसी ने हमें ‘लुच्चा’ कह दिया, इससे क्या हम लुच्चे-बदमाश बन
गए? उस वक्त उससे कहना चाहिए कि ‘अनंतकाल से मैं संसार में फंसा हुआ हूं, प्रमाद से लुच्चाई हो जाए, यह मेरे लिए नई बात नहीं है। जब भी मुझ से लुच्चाई हो जाए और वह आपके ध्यान
में आ जाए, तब आप खुशी से मेरे ध्यान में लाएं, ताकि भविष्य में मैं लुच्चाई के पाप से बच जाऊं।’ ऐसा कहने से मानसिक शान्ति चली जाएगी या बढेगी? लुच्चा कहने वाले को भी आपकी मानसिक शान्ति आकृष्ट किए बिना
नहीं रहेगी। सामने वाला पानी-पानी हो जाएगा। हमारी इन्द्रियों को, हमारे दिल को और हमारी रीतिनीति को अगर हम अनंतज्ञानियों के
अनुसार बना दें, तो हममें मानसिक अशान्ति पैदा
करने की ताकत किसी में भी नहीं है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
रविवार, 14 जुलाई 2013
उद्धार साधने के मार्ग
धर्मतीर्थ की स्वयं आराधना
करना, धर्मतीर्थ की आराधना करवाने के लिए दूसरों के सहायक
बनना, धर्मतीर्थ के प्रति लोग आकर्षित हों ऐसी कार्यवाही
करना और करवाना, योग्य आत्माएं धर्मतीर्थ की
शरण को प्राप्त करें और धर्मतीर्थ की सेवा में स्थित हों; ऐसी योजनाओं को कार्यान्वित करना, अज्ञानियों और द्वेषियों आदि की ओर से धर्मतीर्थ के संबंध
में प्रसारित किए गए गलत खयालों को रोकने में अपनी शक्ति, सामग्री का उपयोग करना और ऐसे उत्तम कार्य करने वालों की
अनुमोदना करना, ये सभी आत्मोद्धार करने की
रीतियां हैं। आत्मोद्धार करने की भावना रखने वाले को संभावना के अनुसार ये सभी
कार्यवाही करनी जरूरी है; लेकिन यह सब कब होगा? धर्मतीर्थ के प्रति सच्चा भाव प्रकट हो तब! जिस आत्मा के
अन्तर में तीर्थ का सच्चा स्वरूप जंच गया हो,
जो आत्मा सच्चे तीर्थ
के प्रति भक्तिभाव रखने वाली बन गई हो और जो आत्मा तीर्थ की सेवा द्वारा अपनी
आत्मा का निस्तार (मुक्ति) साधने की अभिलाषा रखने वाली हो, वह तीर्थ सेवक के रूप में पहिचानने योग्य है। अल्पसंसारी
आत्माओं के अंतर में ही तारक तीर्थ का वास्तविक स्वरूप जंचता है। जिसके अंतर में
तारक तीर्थ का वास्तविक स्वरूप जंचे,
उसके अंतर में सच्चे
तीर्थ के प्रति भक्तिभाव पैदा न हो,
ऐसा हो ही नहीं सकता। -आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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