पाप से बचने का प्रयत्न ही
वास्तविक कुलीनता है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि आत्मा संसार के त्याग और मोक्ष की
साधना में ही प्रयत्नशील रहती है, उसी प्रकार कुलीन आत्मा पाप
से बचने के सुप्रयत्न में लीन रहती है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि आत्मा को समस्त
संसार कडवा लगता है, उसी प्रकार कुलीन आत्मा को
पाप कडवा लगता है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि आत्मा पूर्व के कर्म बंधन के अतिरिक्त
संसार में नहीं रह सकती, उसी प्रकार कुलीन आत्मा तीव्र
अशुभ उदय के बिना पाप की ओर प्रवृत्त नहीं होती।
जिन आत्माओं ने पाप का भय
त्याग दिया है, वे सम्यग्दृष्टि तो हैं ही
नहीं, कुलीन भी नहीं हैं, क्योंकि पाप से निर्भीकता के समान अन्य कोई अयोग्यता ही नहीं है। जिस आत्मा को
पाप का भय नहीं है, वह आत्मा चाहे जैसी भी हो तो
भी अयोग्य ही है। ऐसी आत्मा को तो भगवान का शासन धर्म की अधिकारी भी नहीं मानता।
अतः स्पष्ट है कि जो लोग निर्भयता के नाम पर यथेच्छ प्रवृत्तियां चलाते हैं और
उन्हें वे धर्म के रूप में प्रकाश में लाते हैं, वे अपने स्वयं के संहारक होने के साथ अज्ञानी लोगों के भी संहारक होते हैं। इस
कारण ऐसी संहारक आत्मा की किसी भी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देना अपनी कुलीनता का
भी संहार करने जैसा है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा