शुक्रवार, 31 मई 2013

पाप से बचने में प्रयत्नशील रहें


पाप से बचने का प्रयत्न ही वास्तविक कुलीनता है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि आत्मा संसार के त्याग और मोक्ष की साधना में ही प्रयत्नशील रहती है, उसी प्रकार कुलीन आत्मा पाप से बचने के सुप्रयत्न में लीन रहती है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि आत्मा को समस्त संसार कडवा लगता है, उसी प्रकार कुलीन आत्मा को पाप कडवा लगता है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि आत्मा पूर्व के कर्म बंधन के अतिरिक्त संसार में नहीं रह सकती, उसी प्रकार कुलीन आत्मा तीव्र अशुभ उदय के बिना पाप की ओर प्रवृत्त नहीं होती।

जिन आत्माओं ने पाप का भय त्याग दिया है, वे सम्यग्दृष्टि तो हैं ही नहीं, कुलीन भी नहीं हैं, क्योंकि पाप से निर्भीकता के समान अन्य कोई अयोग्यता ही नहीं है। जिस आत्मा को पाप का भय नहीं है, वह आत्मा चाहे जैसी भी हो तो भी अयोग्य ही है। ऐसी आत्मा को तो भगवान का शासन धर्म की अधिकारी भी नहीं मानता। अतः स्पष्ट है कि जो लोग निर्भयता के नाम पर यथेच्छ प्रवृत्तियां चलाते हैं और उन्हें वे धर्म के रूप में प्रकाश में लाते हैं, वे अपने स्वयं के संहारक होने के साथ अज्ञानी लोगों के भी संहारक होते हैं। इस कारण ऐसी संहारक आत्मा की किसी भी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देना अपनी कुलीनता का भी संहार करने जैसा है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

‘भगवान की सौगंध’ धर्म का अपमान


आज तो ग्राहक को प्रसन्न करने के लिए धर्म की सौगन्ध भी खाई जाती है, यह भी कह दिया जाता है कि भगवान को मध्य रखकर सत्य बात कह रहा हूं। बताइए यह धर्म का सम्मान है या अपमान? ऐसे में धर्म की प्राप्ति कैसे हो सकती है भला? अनीति करते रहना और कहना कि समय के अनुसार आवश्यक है। गलत को समय के नाम पर सत्य बताना क्या ठीक है? साधु लोग यदि अधिक कहेंगे तो वे कह देंगे कि ये लोग तो उपाश्रय में रहते हैं, इन्हें बाजार की हालत का क्या पता? निर्वाह का धन लाना कहां से?’ धर्म कोई बाजारू वस्तु है जो धन के लिए धर्म को बाजार में घसीटा जाए? गलत हथकण्डों से धन प्राप्त करने के लिए धर्म का सहारा लिया जाए?

मैं कहता हूं कि जब तक इस प्रकार की मान्यता है, तब तक धर्म हृदय में प्रविष्ट नहीं होगा। धर्म को बाजार में न घसीटो। आपकी यह मान्यता दृढ होनी चाहिए कि कम धन की प्राप्ति होगी तो कम ही सही, परन्तु पाप तो नहीं होगा, उसके लिए धर्म की आड तो नहीं ही ली जाएगी।यह मान्यता यदि आपके हृदय में दृढ हो जाए तो काम हो जाए। धर्मनिष्ठ मनुष्यों के हृदय में पाप पर सद्भाव तो होना ही नहीं चाहिए। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 30 मई 2013

‘भगवान की सौगंध’ धर्म का अपमान


भगवान की सौगंधधर्म का अपमान

आज तो ग्राहक को प्रसन्न करने के लिए धर्म की सौगन्ध भी खाई जाती है, यह भी कह दिया जाता है कि भगवान को मध्य रखकर सत्य बात कह रहा हूं। बताइए यह धर्म का सम्मान है या अपमान? ऐसे में धर्म की प्राप्ति कैसे हो सकती है भला? अनीति करते रहना और कहना कि समय के अनुसार आवश्यक है। गलत को समय के नाम पर सत्य बताना क्या ठीक है? साधु लोग यदि अधिक कहेंगे तो वे कह देंगे कि ये लोग तो उपाश्रय में रहते हैं, इन्हें बाजार की हालत का क्या पता? निर्वाह का धन लाना कहां से?’ धर्म कोई बाजारू वस्तु है जो धन के लिए धर्म को बाजार में घसीटा जाए? गलत हथकण्डों से धन प्राप्त करने के लिए धर्म का सहारा लिया जाए?

मैं कहता हूं कि जब तक इस प्रकार की मान्यता है, तब तक धर्म हृदय में प्रविष्ट नहीं होगा। धर्म को बाजार में न घसीटो। आपकी यह मान्यता दृढ होनी चाहिए कि कम धन की प्राप्ति होगी तो कम ही सही, परन्तु पाप तो नहीं होगा, उसके लिए धर्म की आड तो नहीं ही ली जाएगी।यह मान्यता यदि आपके हृदय में दृढ हो जाए तो काम हो जाए। धर्मनिष्ठ मनुष्यों के हृदय में पाप पर सद्भाव तो होना ही नहीं चाहिए। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

‘भगवान की सौगंध’ धर्म का अपमान


भगवान की सौगंधधर्म का अपमान

आज तो ग्राहक को प्रसन्न करने के लिए धर्म की सौगन्ध भी खाई जाती है, यह भी कह दिया जाता है कि भगवान को मध्य रखकर सत्य बात कह रहा हूं। बताइए यह धर्म का सम्मान है या अपमान? ऐसे में धर्म की प्राप्ति कैसे हो सकती है भला? अनीति करते रहना और कहना कि समय के अनुसार आवश्यक है। गलत को समय के नाम पर सत्य बताना क्या ठीक है? साधु लोग यदि अधिक कहेंगे तो वे कह देंगे कि ये लोग तो उपाश्रय में रहते हैं, इन्हें बाजार की हालत का क्या पता? निर्वाह का धन लाना कहां से?’ धर्म कोई बाजारू वस्तु है जो धन के लिए धर्म को बाजार में घसीटा जाए? गलत हथकण्डों से धन प्राप्त करने के लिए धर्म का सहारा लिया जाए?

मैं कहता हूं कि जब तक इस प्रकार की मान्यता है, तब तक धर्म हृदय में प्रविष्ट नहीं होगा। धर्म को बाजार में न घसीटो। आपकी यह मान्यता दृढ होनी चाहिए कि कम धन की प्राप्ति होगी तो कम ही सही, परन्तु पाप तो नहीं होगा, उसके लिए धर्म की आड तो नहीं ही ली जाएगी।यह मान्यता यदि आपके हृदय में दृढ हो जाए तो काम हो जाए। धर्मनिष्ठ मनुष्यों के हृदय में पाप पर सद्भाव तो होना ही नहीं चाहिए। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

‘भगवान की सौगंध’ धर्म का अपमान


भगवान की सौगंधधर्म का अपमान

आज तो ग्राहक को प्रसन्न करने के लिए धर्म की सौगन्ध भी खाई जाती है, यह भी कह दिया जाता है कि भगवान को मध्य रखकर सत्य बात कह रहा हूं। बताइए यह धर्म का सम्मान है या अपमान? ऐसे में धर्म की प्राप्ति कैसे हो सकती है भला? अनीति करते रहना और कहना कि समय के अनुसार आवश्यक है। गलत को समय के नाम पर सत्य बताना क्या ठीक है? साधु लोग यदि अधिक कहेंगे तो वे कह देंगे कि ये लोग तो उपाश्रय में रहते हैं, इन्हें बाजार की हालत का क्या पता? निर्वाह का धन लाना कहां से?’ धर्म कोई बाजारू वस्तु है जो धन के लिए धर्म को बाजार में घसीटा जाए? गलत हथकण्डों से धन प्राप्त करने के लिए धर्म का सहारा लिया जाए?

मैं कहता हूं कि जब तक इस प्रकार की मान्यता है, तब तक धर्म हृदय में प्रविष्ट नहीं होगा। धर्म को बाजार में न घसीटो। आपकी यह मान्यता दृढ होनी चाहिए कि कम धन की प्राप्ति होगी तो कम ही सही, परन्तु पाप तो नहीं होगा, उसके लिए धर्म की आड तो नहीं ही ली जाएगी।यह मान्यता यदि आपके हृदय में दृढ हो जाए तो काम हो जाए। धर्मनिष्ठ मनुष्यों के हृदय में पाप पर सद्भाव तो होना ही नहीं चाहिए। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

‘भगवान की सौगंध’ धर्म का अपमान


भगवान की सौगंधधर्म का अपमान

आज तो ग्राहक को प्रसन्न करने के लिए धर्म की सौगन्ध भी खाई जाती है, यह भी कह दिया जाता है कि भगवान को मध्य रखकर सत्य बात कह रहा हूं। बताइए यह धर्म का सम्मान है या अपमान? ऐसे में धर्म की प्राप्ति कैसे हो सकती है भला? अनीति करते रहना और कहना कि समय के अनुसार आवश्यक है। गलत को समय के नाम पर सत्य बताना क्या ठीक है? साधु लोग यदि अधिक कहेंगे तो वे कह देंगे कि ये लोग तो उपाश्रय में रहते हैं, इन्हें बाजार की हालत का क्या पता? निर्वाह का धन लाना कहां से?’ धर्म कोई बाजारू वस्तु है जो धन के लिए धर्म को बाजार में घसीटा जाए? गलत हथकण्डों से धन प्राप्त करने के लिए धर्म का सहारा लिया जाए?

मैं कहता हूं कि जब तक इस प्रकार की मान्यता है, तब तक धर्म हृदय में प्रविष्ट नहीं होगा। धर्म को बाजार में न घसीटो। आपकी यह मान्यता दृढ होनी चाहिए कि कम धन की प्राप्ति होगी तो कम ही सही, परन्तु पाप तो नहीं होगा, उसके लिए धर्म की आड तो नहीं ही ली जाएगी।यह मान्यता यदि आपके हृदय में दृढ हो जाए तो काम हो जाए। धर्मनिष्ठ मनुष्यों के हृदय में पाप पर सद्भाव तो होना ही नहीं चाहिए। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

जर, जमीन और जोरू, ये तीनों कजिया के छोरू


जर, जमीन और जोरू, ये तीनों कजिया के छोरू। जर यानी धनमाल, जमीन यानी भूमि, मकान आदि और जोरू यानी स्त्री; ये तीनों झगडे के कारण हैं। इनके संसर्ग में रहकर शान्ति की बात करना निरर्थक है। जर, जमीन और जोरू का मोह शान्त होना बहुत मुश्किल होता है। ये तीनों भयंकर विषय-कषाय के कारण हैं और दुर्गति में ले जाने वाले हैं, लेकिन जमानावादी इन्हीं में मस्त और मशगूल रहते हैं। संसार में मस्त रहने वाली आत्माओं को दुर्गति में ले जाने वाले कार्यों से भी आनन्द होता है। इन तीनों पौद्गलिक वस्तुओं की ममता छुडवाने के लिए तीर्थ की स्थापना है। लेकिन, पौद्गलिक लालसाओं में सडने वाली आत्माएं वास्तविक भक्ति कर ही नहीं सकती। उन आत्माओं को यह ज्ञान ही नहीं होता कि भक्ति का उत्कर्ष किस बात में है और अपकर्ष किस बात में है? संसार में मग्न, भोगों में आसक्त और एकान्त विषयों के अधीन बनी आत्माओं को यह ध्यान ही नहीं रहता। अतः यदि धर्मात्मा बनना चाहो तो अधर्म को खोटा मानना सीखो। धर्मपरायण होना हो तो पाप को पाप समझो। अधर्म का त्याग किए बिना हृदय में धर्म नहीं आ सकता। जब तक आप पाप को पाप नहीं मानेंगे, तब तक पुण्य कार्य के प्रति आपके हृदय में सच्चा प्रेम उत्पन्न नहीं होगा। यदि पाप को पाप मानते हो तो संसार की कोई भी वस्तु आपको व्याकुल नहीं कर सकेगी। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 29 मई 2013

एकमात्र आत्म-कल्याण का ही लक्ष्य रखें


मुझे तो जीवन में अपनी आत्मा का कल्याण करना है और कल्याण करने का एकमात्र मार्ग अनंत उपकारी श्री जिनेश्वर देवों की आज्ञा की आराधना करना है।हृदय में ऐसा निश्चय कर लेना चाहिए और आज्ञा की आराधना में मन-वचन-काया को जोडने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। यह दशा होगी तो कर्तव्य से च्युत नहीं होंगे और किसी भी पौद्गलिक लालसा के अधीन नहीं बनेंगे। भक्ष्याभक्ष्य के सेवन से बचेंगे, आचार, विचार और व्यवहार शासन के अनुरूप होगा।

इतनी सावधानी रखने पर भी किसी तीव्र पापोदय से आत्मा का पतन हो भी जाए, तो भी कालांतर में उस आत्मा का उत्थान हुए बिना नहीं रहता, उस आत्मा का मोक्ष निश्चित हो जाता है और जो आराधना की हो वह तो निष्फल जाती ही नहीं, अपितु कल्याणकारी ही होती है। इसलिए यही ध्येय रखना चाहिए और ऐसे प्रयत्न करने चाहिए, जिससे सुख पूर्वक आराधना हो सके। उसके लिए पतन के संयोगों से बचने का प्रयत्न भी लगातार रखना चाहिए। पौद्गलिक लालसा से यथासंभव बचते रहना चाहिए। यश की कामना, मान-सम्मान प्राप्त करने की इच्छा भी पौद्गलिक लालसा है। गीतार्थ महात्मा इस प्रकार की लालसा से भी परे ही रहेंगे। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

 

मंगलवार, 28 मई 2013

तुच्छ वस्तुओं के पीछे आत्मा बर्बाद न हो


संसार का यश तो तुच्छ वस्तु है। मिला तो भी क्या और न मिला तो भी क्या? हमें मान-सम्मान की अभिलाषा ही नहीं रखनी चाहिए। ऐसी तुच्छ वस्तुओं के पीछे आत्मा बर्बाद न हो जाए, इसके लिए इस जीवन में केवल जिनाज्ञा की आराधना अधिकतम करने के लक्ष्य वाला बनना चाहिए। हम स्वयं शुद्ध हैं अथवा नहीं, यह अवश्य देखना चाहिए। हम स्वयं सन्मार्ग पर हैं अथवा नहीं, उसका ध्यान रखने में तनिक भी उपेक्षा नहीं आने देनी चाहिए। हम सन्मार्ग पर हों, शुद्ध रहने के लिए प्रयत्नशील हों, केवल शासन-सेवा के आशय से ही आज्ञानुसार कार्य कर रहे हों, फिर भी गालियां सुननी पडे, कष्ट सहने पडें, तो उसका सत्कार करें। परिणाम में एकांत लाभ ही होता है। भक्ष्याभक्ष्य के एवं शील-मर्यादा आदि के उत्तम आचार-विचार दिन-प्रतिदिन घिसते जा रहे हैं। अभक्ष्य व अनंत काय का उपयोग अधिक होता जा रहा है। अभक्ष्य एवं अनंत काय का उपयोग जैन कुलों में नहीं होना चाहिए, ऐसी-ऐसी बातें कोई करे तो उसकी भी मजाक की जाती है। शील-मर्यादा-विषयक उत्तम आचार छोडने के विरूद्ध हित शिक्षा दी जाए तो उन्हें यह कहने में भी लज्जा नहीं आती कि इन्हें जमाने का होंश नहीं है। समस्त श्रावक-कुल ऐसे हो गए हों, यह बात नहीं है। कतिपय श्रावक-कुलों में अभी भी उत्तम आचार-विचार कायम हैं, परन्तु ऐसा अत्यंत अल्प प्रमाण में है। जडवाद की हवा का वेग इतने प्रमाण में है कि यदि उसके समक्ष सचेत न रह सके तो आत्महित का नाश हुए बिना नहीं रहेगा। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 27 मई 2013

परस्पर कल्याण भावना का झरना बहे


श्रावक जैसे उत्तम कुल में तो परस्पर कल्याण-भावना के झरने बहते रहने चाहिए। जो कोई पुण्यात्मा श्रावक-कुल को प्राप्त करे, वह इस जीवन में ऐसा कर जाए कि जिससे उसका संसार अत्यंत परिमित बन जाए, ऐसा श्रावक-कुल का वातावरण होना चाहिए। श्रावक-कुल में रहे हुए नौकर, इतर जाति के होते हुए भी धर्म में रुचि वाले बन जाएं, ऐसे उत्तम कोटि के आचार एवं विचार श्रावक-कुलों में प्रवर्तमान होने चाहिए।

श्रावकों के घर के पशुओं पर भी उत्तम छाँया पडे, ऐसा श्रेष्ठ रहन-सहन उत्तम श्रावकों का होना चाहिए। इसके साथ जब हम आज के श्रावक-कुलों की दशा का विचार करते हैं, तब स्वाभाविक ग्लानि उत्पन्न हुए बिना नहीं रहती। उत्तम गिने जाते श्रावक परिवारों में भी आज बिगाडा प्रविष्ट होता जा रहा है। नामांकित कुलों में भी आज धर्म-संस्कार नष्ट होता जा रहा है। खाने-पीने की, पहनने-ओढने की और घुमने-फिरने आदि की स्वच्छंदता बढती जा रही है, भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार ही नहीं है, यह चिंता का विषय है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 25 मई 2013

संतान धर्महीन न बन जाए!


आज श्रावक-कुल जैसे उत्तम कुल के संस्कार कितने अधिक नष्ट हो गए हैं? घर के मुखिये को घर का कोई भी व्यक्ति आराधना से वंचित रह न जाए उसकी चिन्ता हो, ऐसे घर कितने हैं? आपको अपना पुत्र इज्जतदार, पेढीदार या धनवान बनाने की जितनी चिन्ता है, उतनी ही चिन्ता वह धर्म का आराधक बने इस बात की है क्या? पुत्र पेढीदार अथवा धनवान न बन पाए, उसमें अधिक हानि और चिन्ता है या वह धर्महीन बनकर इस मंहगे जीवन को नष्ट कर दुर्गति के कर्मों का बंध करे, उसमें अधिक हानि और चिन्ता है? पुत्र पूजा, सामायिक आदि न करे तो उसके लिए कितना खटकता है और विद्यालय अथवा दुकान पर न जाए तो उसके लिए कितना खटकता है? सचमुच, आज पारस्परिक सच्ची कल्याण भावना लुप्त होती जा रही है। आज तो प्रायः यह दशा है कि पिता, पुत्र, माता, भगिनी आदि संबंधी एवं स्नेही परस्पर आत्मा के शत्रु रूप बने हैं। इन आत्माओं की क्या दशा होगी, यहां से मृत्यु के पश्चात उनकी क्या गति होगी, उन्हें धर्म पुनः कब प्राप्त होगा और कब वह जन्म-मरण आदि के इन अनन्त काल से भोगे जाते दुःखों से मुक्त होंगे? इस प्रकार के वास्तविक कल्याणकारी विचार करने का भाव तो आज प्रायः नष्ट हो गया है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 24 मई 2013

वेशधारी वंचकों से सावधान


इस काल की महिमा यह है कि आज साधु वेशधारी वंचक शीथिलाचारी बहुसंख्यक हो गए हैं। जिस शासन के नाम पर ये मौज करते हैं, जिस शासन के नाम पर ये मान-सम्मान का उपभोग करते हैं, जिस शासन के नाम पर ये लोगों में पूजे जाते हैं और जिस शासन के नाम पर ये संसार में गुरु बने घूमते हैं; उसी शासन के लिए ये वंचक शत्रु का कार्य करते हैं। जिनकी ओर से शासन की प्रभावना की आशा कर सकते हैं, वे ही शासन की बदनामी करते हैं और शासन की बदनामी के कारणभूत होते हुए भी ये शासन के प्रति वफादार निर्दोष एवं पवित्र मुनियों पर झूठे कलंक लगाते हैं।

यद्यपि शासन समर्पित साधुओं को वस्तुतः व्यक्तिगत आक्रमणों की परवाह नहीं होती, परन्तु उन वंचक वेशधारियों के पाप से कतिपय आत्मा सन्मार्ग से च्युत हो जाएंगे और वे उन्मार्ग पर बढ जाएंगे। ऐसे समय में कल्याणार्थियों को तो अधिकाधिक सावधान होना चाहिए। अशक्ति के कारण आराधना कम-अधिक हो, उसकी वैसी चिन्ता नहीं है, परन्तु आराधना के मार्ग से भ्रष्ट न हो जाएं, इसकी तो पूर्ण सावधानी रखनी चाहिए। जहां तक हो सके वहां तक आराधना अधिक करने की भावना तो सम्यग्दृष्टि की होती ही है, परन्तु किसी वंचक के जाल में फंसकर मार्ग न चूक जाएं, यह विशेष संभालने योग्य है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सत्य की गवेषणा


सत्य की गवेषणा कब हो सकती है? क्या आपको आपकी दशा से प्रतीत होता है कि आप सत्य के अर्थी हैं’? संसार के प्रति रोष और मोक्ष के प्रति गाढ राग रखे बिना क्या पारमार्थिक सत्य प्राप्त हो सकता है? नहीं प्राप्त हो सकता है, क्योंकि जो अर्थ एवं काम में अपना कल्याण मानते हैं और इसके लिए धर्म को भी ताक में रख देते हैं, जो संसार की सुरक्षा और वृद्धि के लिए ही उत्सुक हैं, जो अवकाश मिलने पर जैसे भी देव-गुरु मिल जाएं, उन गुरु की इच्छानुसार सेवा करने से अधिक कुछ करने के लिए तत्पर नहीं हैं, वे सत्य की गवेषणा नहीं कर सकते हैं। सत्य की गवेषणा करनी हो तो पुद्गल की ओर से दृष्टि हटनी चाहिए और आत्म-कल्याण की ओर दृष्टि जमनी चाहिए। आत्म-कल्याण ही ध्येय होना चाहिए और उसके लिए आप यदि मोक्षार्थी बन जाएं तो आपके लिए सत्य की गवेषणा अत्यंत सरल हो जाए। आत्मा को डूबने से बचाए, आत्मा के गुणों को विकसित करने की प्रेरणा दे, ऐसे चारित्रवान सुगुरुओं की शरण प्राप्त कर आत्मा इस काल में भी मोक्षमार्ग की शक्ति अनुसार आराधना कर सकती है। ऐसे सुगुरु कम ही सही, लेकिन आज भी हैं, बात सिर्फ उन्हें पहचानने की और कुगुरुओं से बचने की है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 22 मई 2013

वेशधारी वंचक शासन के लिए खतरनाक


आज वेशधारी वंचक लाखों रुपयों का व्यय उन्मार्ग की पुष्टि में करवा रहे हैं। अधर्म में भी धर्म मनवा कर वेशधारी वंचक उदार एवं विवेकी श्रावकों के धन का भी पानी करवा रहे हैं। जो क्षेत्र आज अभावग्रस्त हैं और जिन सुक्षेत्रों की पुष्टि एवं वृद्धि के लिए आज बहुत कुछ करने की जरूरत है, उन सुक्षेत्रों की ओर वेशधारी वंचक उदार श्रावकों के हृदय में अरुचि उत्पन्न कर रहे हैं और अपनी ख्याति आदि के लिए धर्म के नाम पर कितना ही धन व्यय करवा रहे हैं। इस प्रकार भी श्री जैन शासन पर आक्रमण करने वाले पुष्ट बनें और बढें, उन वेशधारी वंचकों की जय-जयकार होती रहे, ऐसा भी आज बहुत-बहुत हो रहा है। यह कतई उचित नहीं है। धन का व्यय करने वाला यदि धर्म के, शासन के लिए समर्पण की भावना से अनुप्रेरित होकर कर रहा है तो यह उसकी भावनाओं का शोषण है, इसमें शासन की हानि है। वेशधारी वंचक शासन को हानि पहुंचाने वाले हैं और आराधना के कार्य में विक्षेप डालने वाले हैं। भगवान की अनुपस्थिति में रक्षक तो वे ही हैं न? वे रक्षक ही भक्षक बन जाएं तो भयानक अनर्थ मचेगा ही, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। कोतवालों के वेश में चोर बने साधुओं से शासन श्रेष्ठ कैसे रह सकता है? जो पुण्यात्मा चकोर बनकर विराधना से बचेंगे और आराधना में तत्पर बनेंगे, वे इस काल में भी अपना कल्याण सर्वोत्तम प्रकार से कर सकेंगे, बाकी तो जिसका जैसा भाग्य! -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 21 मई 2013

आचार्य, उपाध्याय और साधु पर विशेष जिम्मेदारी


पंच परमेष्ठियों में आचार्य तीसरे, उपाध्याय चौथे व साधु पांचवें पद पर आराध्य हैं। आचार्य आदि आराधक भी हैं और आराध्य भी हैं। उस-उस पद की उनमें जितनी-जितनी योग्यता हो, उतने-उतने अंश में वे आराध्य हैं। आचार्य आदि की आराधना का आधार भी वे स्वयं जिस पद पर स्थित हैं, उस पद के वे कितने वफादार हैं, उस पर निर्भर है। ये पद वेश अथवा ग्राह्य आडम्बर के ही कारण नहीं हैं, अपितु मुख्यतः गुणों के आधार पर हैं। श्री आचार्य, उपाध्याय और साधु पद पर गिने जाने वाली आत्माओं की जोखिम व जिम्मेदारी बहुत अधिक बढ जाती है। वे तो वर्तमान में शासन के आधारभूत गिने जाते हैं। इनको अच्छी तरह ध्यान में रखना चाहिए कि हम अपने-अपने पद को अधिक उज्ज्वल न कर सकते हों तो भी कम से कम उसे लांछित तो नहीं ही होने दें। आचार्य, उपाध्याय और साधु अपने पद से विपरीत व्यवहार करें, तो वे देखने में आचार्य, उपाध्याय अथवा साधु होने पर भी शासन को कुरेद कर खाने वाले कीडों का ही कार्य करते हैं। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

पुरुषार्थ तो केवल धर्म में ही करणीय


संसार में चार पुरुषार्थ कहे गए हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इनमें सबसे पहला स्थान धर्म का है। धर्म से ही अर्थ, काम या मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसलिए करने जैसा पुरुषार्थ एक ही है, धर्म। सवाल यह है कि आप धर्म किस अपेक्षा से कर रहे हैं? अर्थ-काम की प्राप्ति के लिए या मोक्ष प्राप्ति के लिए? कदाचित आप धर्म नहीं कर रहे हैं, तब आपको जो अर्थ और काम की शक्ति प्राप्त है, वह पूर्व जन्मों के अर्जित पुण्य के फलस्वरूप है और उसी अर्थ व काम को बढाने के लिए ही पुरुषार्थ है, तो उसकी प्राप्ति की सीमा वहीं तक है, जहां तक आपका पूर्व कृत पुण्य शेष है, जिस दिन आपका पुण्य का खाता पूरा हो गया, सारा खेल खत्म और फिर महादुःख का प्रारम्भ तय है। लेकिन, यदि आप धर्म भी साथ-साथ कर रहे हैं, तब यह सवाल खडा होगा कि यह धर्म आप किस अपेक्षा से कर रहे हैं? अर्थ, काम आदि लौकिक सुखों की प्राप्ति के लिए या देवगति और स्वर्गीय सुख प्राप्ति की कामना से किए गए धर्म से भी पुण्य तो अर्जित होता है, लेकिन यह पापानुबंधी पुण्य है। इससे कदाचित् आपको अर्थ, काम या देवगति तो प्राप्त हो जाएंगे, लेकिन जुगनू की चमक की तरह। पहले सुखाभास और फिर महादुःख! यह विष मिश्रित दूध की तरह है, जिसमें मिश्री और बादाम आदि हैं और पीने में स्वादिष्ट लगता है, किन्तु विष का प्रभाव होते ही महावेदना और मौत होती है। अर्थ-काम अनर्थकारी हैं, इनके लिए धर्म नहीं होता, धर्म तो मोक्ष का साधन है। मोक्ष की भावना से या निराशंस भाव से धर्म करने का ही ज्ञानी विधान करते हैं। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 19 मई 2013

शिक्षा-व्यवस्था को बदलने की जरूरत


शिक्षक का वास्तविक कार्य तो यह है कि वह भाषा आदि सब सिखाने के साथ बालक को समझदार बनाए और उसमें ऐसी क्षमता विकसित करे कि वह अपने आप संस्कारी बने। माता-पिता ने यदि योग्य संस्कारों का सिंचन किया होता तो शिक्षक का आधा कार्य पूर्ण हो गया होता। फिर शिक्षक को केवल माता-पिता द्वारा प्रदत्त संस्कारों को विकसित करने की ही जिम्मेदारी रहती। भाषाज्ञान सिखाना यह वस्तुतः ज्ञान-दान नहीं, अपितु ज्ञान के साधन का दान है। सद्गुण प्राप्ति का और अवगुण त्याग का शिक्षण, यही शिक्षा का साध्य है। परन्तु, आज तो प्रायः जैसी माता-पिता की हालत है, वैसी शिक्षक की भी हालत है। सच्चा शिक्षक मात्र किताबी ज्ञान तक ही सीमित नहीं होता। सच्चा शिक्षक तो विद्यार्थी में सुसंस्कारों का सिंचन करता है। मात्र किताबी ज्ञान तक सीमित रहने वाला और विद्यार्थियों के सुसंस्कारों का लक्ष्य नहीं रखने वाला शिक्षक, शिक्षक नहीं, अपितु एक विशिष्ट मजदूर मात्र है। हमारे सोच को और हमारी बेकार हो चुकी समग्र शिक्षा-व्यवस्था को आज बदलने की जरूरत है। सब अपना कर्तव्य पालन करें और आने वाले कल को सुसंस्कारी बनाएं। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शिक्षा के नाम पर ठगी


शिक्षा संस्थानों में आज तो सा विद्या या विमुक्तयेका बोर्ड लगाकर ठगने का धंधा किया जाता है, क्योंकि आज के शिक्षण में मुक्ति की तो कोई बात होती ही नहीं है। सा विद्या या विमुक्तयेका अर्थ तो यह कि जो विद्या मुक्ति का बोध दे, लेकिन आज के स्कूल-कॉलेजों में मुक्ति के शिक्षण का स्थान तो स्वच्छंदता और विनाशक-विज्ञान ने ले लिया है। सारी पीढी बिगड रही है, यह आप आँखों से देख रहे हैं, फिर भी हम से पूछते हैं कि शिक्षण में खराबी क्या है?’ जीवन का निर्माण बाल्यकाल से प्रारम्भ हो जाता है। बच्चों को हृदय की पवित्रता का मूल्य उतना नहीं बताया जाता, जितना दूसरी चीजों का बताया जाता है। आज शिक्षा में नैतिक अवमूल्यन की समस्या पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। हृदय की पवित्रता केवल साधुओं के लिए ही महत्त्वपूर्ण नहीं है, शासकों और परिवार के सदस्यों के लिए भी बहुत जरूरी है। साधारण व्यक्ति प्रवाह के पीछे चलता है। यथा राजा तथा प्रजाकहावत ही नहीं, यथार्थ है। जब एक व्यक्ति उचित-अनुचित ढंग से सत्ता प्राप्त कर कथित बडा आदमी बन जाता है, तब दूसरा आदमी भी सोचता है कि भ्रष्ट तरीके से पैसा कमाकर बडा आदमी बना जा सकता है। सत्ता पर जब धर्म का अंकुश नहीं रहता, तो वह निरंकुश हो जाती है। सत्ता राष्ट्र की हो या परिवार की, उस पर से जब-जब धर्म का अंकुश हटता है, वह उन्मादी हो जाती है। प्रवाह को वही मोड सकता है, जो असाधारण हो, जो सत्ता और अर्थ प्राप्ति के लिए भ्रष्ट उपायों का सहारा न ले। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा